अगर मैं 1983 में कुछ दिन स्कूल ना गया होता तो?

Location Icon चुरू, राजस्थान
कई दस्तावेज_दस्तावेज सुधार
मुझे अपने दस्तावेजों को ठीक करवाने के लिए दफ्तरों के चक्कर काटते हुए दो महीने से ज्यादा समय हो चुका था। | चित्र साभार: राकेश स्वामी

मेरा नाम शंकरलाल है और मैं राजस्थान के चुरू जिले में रहता हूं। मैं इलाके में बनने वाली इमारतों में मजदूरी करता हूं। साथ ही, मैं हिस्से की खेती करता हूं यानी जो किसान जमीन के मालिक हैं, उनकी जमीन पर फसल उगाता हूं और उत्पादन का एक हिस्सा उन्हें देता हूं। इसके अलावा, कभी-कभार मैं लकड़ी काटने का काम भी करता हूं। इस तरह के कई काम करते हुए ही मेरे घर का खर्च सही से चल पाता है।

मेरे दो बेटे और एक बेटी हैं। मेरा बड़ा बेटा फिलहाल नौकरी की तलाश कर रहा है। पिछले कुछ समय से वह अपने सरकारी दस्तावेज, जैसे मूल निवास प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र आदि बनवाने में जुटा हुआ है। इस प्रक्रिया के दौरान उसे मेरे दस्तावेजों जैसे आधार कार्ड और राशन कार्ड की भी जरूरत पड़ी। जब उसने मेरे आधार और राशन कार्ड में दर्ज जानकारी देखी तो उसने मजाकिया लहजे में मुझसे कहा, “पिताजी, सरकारी कागजों के हिसाब से तो आप मुझसे केवल 10 साल बड़े हैं!” यह सुनकर हम सब हंस पड़े लेकिन मेरे बेटे के लिए यह केवल मजाक भर नहीं था।

उसे यह देखकर चिंता हो रही थी कि इस गड़बड़ी के कारण अब उसके दस्तावेज बनने में परेशानी हो सकती है। इसके एकदम बाद हमने आधार और राशन कार्ड में सुधार कराने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने शुरू कर दिए। इस दौरान हमें मालूम चला कि यह बदलाव कराने के लिए हमें ऐसा कोई दस्तावेज पेश करना होगा जिसमें सही जन्मतिथि दर्ज हो जैसे जन्म प्रमाण पत्र या 10वीं कक्षा की मार्कशीट इत्यादि।

मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं तो पढ़ाई के दस्तावेज मेरे पास नहीं थे। इसलिए मैंने सोचा कि चलो जन्म प्रमाण पत्र बनवा लेते हैं। लेकिन जब इसे बनवाने गया तो वहां भी यही अड़चन सामने आई और उसे बनवाने के लिए भी किसी अन्य दस्तावेज में सही उम्र दर्ज होना जरूरी था। इससे हमें समझ आने लगा कि अगर इसका समय रहते समाधान नहीं निकाला गया तो हमारे पूरे परिवार को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। कुछ साल पहले, जब हमारे गांव में आधार कार्ड अभियान चला था तो ये कार्ड बड़ी आसानी से बन गए थे। लेकिन आज स्थिति बिल्कुल उलट हो चुकी है।

इधर मुझे दफ्तरों के चक्कर काटते हुए दो महीने से ज्यादा समय हो चुका था। इसी बीच, निराश होकर मेरे बेटे ने मुझसे पूछा, “पिताजी, क्या आप कभी स्कूल गए थे?” शायद वह इससे कुछ समाधान निकालने की कोशिश कर रहा था। तब मुझे याद आया कि मैंने अपने गांव के सरकारी स्कूल में पहली कक्षा में दाखिला लिया था। हम इस उम्मीद के साथ हम गांव के उस सरकारी स्कूल पहुंचे कि शायद वहां कोई दस्तावेज मिल जाए। स्कूल पहुंचने पर मैंने अपनी पूरी समस्या वहां के प्रधानाचार्य जी को विस्तार से बताई। मैंने उनसे आग्रह किया कि 1981-84 के बीच मैंने यहां पढ़ाई की थी और मुझे मेरी पहली कक्षा के ट्रांसफर सर्टिफिकेट (टीसी) की जरूरत है। प्रधानाचार्य ने मेरी बात ध्यान से सुनी और रिकॉर्ड्स की खोजबीन करने का आश्वासन दिया।

तीन-चार दिनों की मेहनत के बाद, प्रधानाचार्य ने हमें बुलाया और बताया कि मेरा रिकॉर्ड मिल गया है। मैं बता नहीं सकता कि यह रिकार्ड मेरे परिवार के लिए कितना मायने रखता है। आखिरकार, उसी दस्तावेज़ के आधार पर न केवल मेरा जन्म प्रमाण पत्र बन पाया बल्कि हमारे अन्य दस्तावेज भी अपडेट हो पाए। इस पूरी प्रक्रिया में तीन महीने से ज्यादा का समय लग गया। अब सोचता हूं, अच्छा हुआ कि बचपन में कुछ दिनों के लिए ही सही, लेकिन स्कूल चला गया था।

यह अनुभव मुझे बार-बार यह सोचने पर मजबूर करता है कि जो लोग बिल्कुल पढ़े-लिखे नहीं हैं, उनके लिए सरकारी कागजों में बदलाव करवाना कितना मुश्किल होगा? जो लोग मेरी तरह दिहाड़ी मजदूरी कर रहे हैं, उनके पास न तो समय है, न जानकारी और न ही कोई मदद। उनके लिए यह प्रक्रिया लगभग असंभव ही लगती है।

शंकरलाल दिहाड़ी मजदूर हैं और हिस्से की खेती करते हैं।

अधिक जानें: देश का श्रमिक-वर्ग दस्तावेजों के मकड़जाल में उलझा क्यों दिखता है?

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