हाल ही में फॉरेन अफेयर्स पत्रिका में प्रकाशित लेख, ‘द एंड ऑफ द एज ऑफ एनजीओ’ में वैश्विक स्तर पर नागरिक समाज संगठनों के सिमटते प्रभाव पर गहन चर्चा की गयी है। इस लेख में घटते अंतर्राष्ट्रीय सहायता बजट, जनता के बढ़ते अविश्वास और सरकारों द्वारा लगाए जा रहे कठोर प्रतिबंधों का उल्लेख है, जिन्होंने मिलकर एनजीओ की प्रभावशीलता को धीरे-धीरे कुंद कर दिया है। शीत युद्ध के बाद का वह दौर अब बीत चुका है, जब एनजीओ को नीतिगत दिशा देने वाले, निगरानीकर्ता (वॉचडॉग) और सेवा प्रदाता के रूप में सराहा जाता था। आज स्थिति यह है कि सरकारें नियंत्रण फिर से अपने हाथों में ले रही हैं, जबकि दाता संस्थान (डोनर) लगातार अपने वित्तीय सहयोग को सीमित कर रहे हैं।
भारत से इस विमर्श को पढ़ते हुए तस्वीर कुछ अलग नजर आती है, भले ही इसके व्यापक संकेत समान हों। भारत में एनजीओ, गैर-लाभकारी संगठन और नागरिक समाज संस्थाएं कई रूपों और ढांचों में काम करती हैं, जो एक विशाल और विविध देश में स्वाभाविक है। सरकारी नियंत्रण का धीरे-धीरे कसता हुआ शिकंजा हमारे लिए नया नहीं है। जनता के अविश्वास का दौर भी हम झेल चुके हैं। विदेशी फंडिंग पर रोक लगाकर संगठनों को कमजोर करने की रणनीति लंबे समय से अपनाई जाती रही है। परंतु नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं और संस्थाओं को ‘राष्ट्रविरोधी’ ठहराने की प्रवृत्ति अपेक्षाकृत नयी है। खेदजनक रूप से, यह बेहद असरदार भी सिद्ध हो रही है। यह बात समझना आवश्यक है कि एक जीवंत और सशक्त नागरिक समाज केवल सामाजिक सेक्टर का विषय नहीं है। यह हमारे लोकतंत्र की मजबूती का भी मूल आधार है। यही वह शक्ति है, जो नागरिकों की आवाज को प्रखर करती है, शासन को जवाबदेह रखती है और नीतिगत नवाचार को संभव बनाती है।
लेकिन वर्तमान में दबाव स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है। ऐसे में सामाजिक सेक्टर एक नये स्वरूप, एक नयी पहचान की खोज में है। नागरिक समाज के अलग-अलग हिस्सों की अपनी विशिष्ट शक्तियां, सीमाएं और कार्यप्रणालियां हैं। कुछ संस्थाएं पुरानी और गहरी जड़ों वाली हैं, जिनका अनुभव स्थिरता प्रदान करता है; कुछ संगठन रोजमर्रा के कार्यों को निरंतरता से आगे बढ़ाते हैं; जबकि कुछ प्रयास नए विचारों और प्रयोगों पर आधारित हैं, जो सफल भी हो सकते हैं और असफल भी। लेकिन इन सभी का अस्तित्व मिलकर इस पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलन और स्थायित्व प्रदान करता है।
भारत में नागरिक समाज के अनेक रूप
नागरिक समाज के परिदृश्य के एक छोर पर स्वयं सहायता समूह (एसएचजी), महासंघ, सहकारी समितियां और उत्पादक कंपनियों जैसे स्थानीय, सदस्य-आधारित संगठन नजर आते हैं। इन संगठनों की स्थापना का मूल उद्देश्य था सामूहिक बचत को प्रोत्साहित करना, सामाजिक सौदेबाजी की शक्ति बढ़ाना और अपने सदस्यों के लिए स्थायी आजीविका सुनिश्चित करना। ये संस्थाएं समुदाय-स्तरीय विश्वास और सामाजिक पूंजी पर आधारित होती हैं, और इस माध्यम से समुदायों को आर्थिक व सामाजिक सशक्तिकरण प्रदान करती हैं। संरचनात्मक दृष्टि से ये संस्थाएं अपेक्षाकृत स्थिर हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि ये अपने सदस्यों और बाजारों से वित्त जुटाती हैं, उनके प्रति जवाबदेह रहती हैं और एफसीआरए के दायरे से बाहर काम करती हैं। फिर भी, अमूल जैसे कुछ उल्लेखनीय उदाहरणों को छोड़ दें तो इस श्रेणी में आने वाले अधिकांश संगठन अपने शुरुआती वादों पर पूरी तरह खरे नहीं उतर पाए हैं। सदस्यों के हितों की कानूनी सुरक्षा और संस्थागत क्षमता की सीमाएं अब भी उनके लिए चिंता का विषय हैं। इसके बावजूद यह संगठन टिके रहते हैं क्योंकि स्थानीय स्तर पर इन्हें अर्ध-सरकारी संस्थाओं की तरह भरोसेमंद माना जाता है। इन जमीनी संगठनों की दीर्घायु का एक मार्ग यह हो सकता है कि वे अपने नेटवर्क और विश्वसनीयता को उस आधार के रूप में विकसित करें, जिसके सहारे अन्य संस्थाएं आगे बढ़ सकें। यदि नागरिक समाज के अन्य रूप (जिन पर आगे चर्चा की जाएगी) इन संगठनों के नेटवर्क और भरोसे का सहारा लें, तो वे न केवल समुदायों तक गहरी पहुंच बना सकते हैं, बल्कि अपने काम को अधिक वैध, उत्तरदायी, और सार्थक भी बना सकते हैं।
इनके समानांतर सक्रिय हैं सेवा-प्रदाता (सर्विस डिलीवरी) संगठन, जिन्होंने समय के साथ विदेशी सहायता पर निर्भरता घटाकर सरकारी वित्तपोषण के मॉडल को अपनाया है। ऐसे संगठनों के टिके रहने की संभावना तो है, लेकिन चुनौती यह है कि वे केवल सरकारी ठेकेदारों की भूमिका तक सीमित न रह जाएं। उनकी विश्वसनीयता इस बात पर निर्भर करती है कि वे सेवाएं प्रदान करते हुए भी सरकारी नियंत्रण से स्वतंत्र रह पाते हैं या नहीं। दीर्घकालिक स्थिरता के लिए उन्हें अपने वित्तीय मॉडल में विविधता लानी होगी। जैसे, शुल्क आधारित सेवाएं, तकनीकी परामर्श और इसी प्रकार के आत्मनिर्भर राजस्व स्रोत। घरेलू सीएसआर फंडिंग की मदद से वे सीमित स्तर पर नए प्रयोग जारी रख सकते हैं। उदाहरण के लिए, वे सरकारी फ्रंटलाइन कर्मचारियों को प्रशिक्षण दे सकते हैं, सीएसआर परियोजनाओं के लिए निगरानी और मूल्यांकन सेवाएं चला सकते हैं, या ऐसे सामुदायिक स्वास्थ्य व शिक्षा केंद्र संचालित कर सकते हैं जहां समुदाय से मामूली शुल्क लिया जाए और सरकार सेवा शुल्क का भुगतान करे। ये सभी मॉडल सेवा-आधारित राजस्व पर केंद्रित हैं, जिसमें गैर-लाभकारी संस्थाएं अपनी विशेषज्ञता का उपयोग करते हुए आंशिक रूप से लागत वसूल कर सकती हैं। वे राज्य सरकारों और नगर निकायों को प्रमुख सामाजिक योजनाओं के कार्यान्वयन, निगरानी, और डेटा-सिस्टम निर्माण में सहयोग दे सकती हैं, या कंपनियों को समावेशी सीएसआर परियोजनाओं की रूपरेखा तैयार करने में सहायता कर सकती हैं। यदि ये संगठन अपने भीतर एक छोटी लेकिन स्वतंत्र नीति एवं नवाचार इकाई को बनाए रख सकें, तो वे केवल सेवा प्रदाता की भूमिका तक सीमित न होते हुए नए विचारों, दृष्टिकोणों और समाधानों के माध्यम से पूरे सामाजिक सेक्टर को सशक्त दिशा दे पायेंगे।
आज के राजनीतिक रूप से ध्रुवीकृत माहौल में उदासीन मध्यवर्ग को फिर से एकजुट करना आसान नहीं होगा।
सबसे अधिक नाजुक स्थिति में हैं एडवोकेसी संगठन, जो बेहद अस्थिर परिस्थितियों में काम करते हैं। परंतु जब राजनीतिक माहौल थोड़ा भी अनुकूल होता है, तब इनका प्रभाव असाधारण रूप से बड़ा हो सकता है। इन संगठनों के लिए अब यह आवश्यक हो गया है कि वे कानूनी समझदारी और राजनीतिक चपलता से काम लें और अहिंसक, रणनीतिक तरीकों से उस अपारदर्शी परदे को भेदें, जिसके पीछे सरकारें अक्सर जवाबदेही से बच निकलती हैं। इन संगठनों के लिए रणनीतिक मुकदमेबाजी, जैसे जनहित याचिकाएं (पीआईएल) दायर कर सरकारी एजेंसियों या निजी कंपनियों को जवाबदेह ठहराना एक प्रभावी माध्यम हो सकता है। साथ ही, सूचना के अधिकार (आरटीआई) जैसे पारदर्शिता कानूनों का सशक्त उपयोग, राजनीतिक एवं सामाजिक संगठनों के साथ गठजोड़ और घरेलू क्राउडफंडिंग जैसे जैसे वैकल्पिक वित्तीय स्रोत उनकी स्थिरता को मजबूत कर सकते हैं। हालांकि, आज के राजनीतिक रूप से ध्रुवीकृत माहौल में उदासीन मध्यवर्ग को फिर से एकजुट करना आसान नहीं होगा। ऐसे समय में मजदूर संघों, स्वयं सहायता समूहों और स्थानीय नेटवर्कों के साथ गहरे गठबंधन बनाना उन्हें सामाजिक धरातल से जोड़े रख सकता है। प्रवासी श्रमिकों के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, तथा विविधता और समावेशन जैसे मुद्दों पर लगातार काम करना उनके अस्तित्व और प्रासंगिकता, दोनों के लिए जरूरी होगा। जब ये एडवोकेसी संगठन सदस्य-आधारित संस्थाओं की विश्वसनीयता और सिविक टेक्नोलॉजी संगठनों के डेटा-संसाधनों से हाथ मिलाते हैं, तो वे अपनी मुहिम को ठोस प्रमाणों और जीवंत अनुभवों से जोड़ सकते हैं। इससे उनकी आवाज अधिक प्रभावी और दूरगामी बन सकती है, बशर्ते वे इन साझेदारियों को व्यवहारिक रूप से टिकाऊ बना सकें।
एक और अपेक्षाकृत छोटी श्रेणी है अंतरराष्ट्रीय एनजीओ (आईएनजीओ) की। इन संगठनों का अस्तित्व अब उसी स्थिति में संभव है, जब वे सिर्फ नाम के लिए नहीं बल्कि असल मायने में वास्तविक स्थानीयकरण को अपनाएं। इसका एक उदाहरण भारत में साफ देखा जा सकता है, जहां इनकी उपस्थिति अब बेहद संकुचित हो चुकी है। जो आईएनजीओ इस बदलाव को सार्थक रूप से अपनाएंगे, उन्हें स्थानीय भागीदारों के लिए सेवा प्रदाता के रूप में अपनी भूमिका को ढालना होगा। इसके तहत वे अनुपालन, खरीद-प्रबंधन और विशेष प्रशिक्षण जैसी सेवायें मुहैया करा सकते हैं और एजेंडा-निर्धारण का दायित्व भारतीय भागीदारों को सौंप सकते हैं। हालांकि मौजूदा एफसीआरए व्यवस्था, जो उप-अनुदान (सब-ग्रांट) के प्रवाह पर सख्त नियंत्रण रखती है, इस प्रकार के स्थानीय सहयोग को मुश्किल बनाती जा रही है।

इसके बाद आती है विचार मंचों और नीति संस्थानों (थिंक टैंक्स और पॉलिसी शॉप्स) की श्रेणी, जो पिछले एक दशक में बड़ी संख्या में उभरे हैं। इन संस्थानों ने यह साबित किया है कि यदि वे घरेलू परोपकारी संस्थाओं और दानदाताओं से स्थायी कोष सुनिश्चित कर लें, तो वे न केवल स्थिर रह सकती हैं बल्कि फल-फूल भी सकती हैं। ऐसे कई संस्थान इसलिए सफल रहे हैं क्योंकि उन्होंने राजनीतिक रूप से तटस्थ रहने का रास्ता चुना है। यानी वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सांप्रदायिक विद्वेष, अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न या आलोचकों के दमन जैसे विवादास्पद विषयों से दूरी बनाए रखते हैं। यह उन लोगों की एक सचेत रणनीति है, जो भारतीय राज्य और समाज को अधिक प्रभावी और उत्पादक बनाने वाली नीतियों व प्रक्रियाओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। चूंकि ये संस्थान फिलहाल सरकार की नजर में सहयोगी माने जाते हैं, इसलिए इनका वजूद भी खतरे से बाहर नजर आता है। लेकिन कहना गलत नहीं होगा कि अधिकारों और स्वतंत्रता के मूल प्रश्नों से दूरी बनाकर ये अपनी नागरिक समाज की भूमिका को सीमित करने का जोखिम उठा रहे हैं। यदि ये संस्थान जमीनी संगठनों के साथ सीधे साझेदारी करें और उन्हें शोध, आंकड़ों और नीतिगत ढांचे के माध्यम से सशक्त बनाएं, तो ये पूरे सेक्टर के लिए कहीं अधिक मूल्यवान साबित हो सकते हैं।
आखिर में, एक उभरती और अत्यंत गतिशील श्रेणी है नई पीढ़ी के स्टार्ट-अप्स की। इनमें तकनीक-आधारित नवाचार, डेटा-पारदर्शिता समूह, नागरिक वित्तपोषित मीडिया संस्थान, सरकारी योजनाओं की निगरानी करने वाले सिविक टेक ऐप्स, स्वतंत्र डेटा पत्रकारिता संस्थाएं और क्राउडफंडिंग से संचालित खोजी (इनवेस्टिगेटिव) मंच शामिल हैं। ये संगठन तेजी से बदलते माहौल में अनुकूलन करने की क्षमता रखते हैं, सीमित स्वतंत्रता वाले राजनीतिक वातावरण में भी रचनात्मक रूप से हस्तक्षेप करने की हिम्मत दिखाते हैं और मुद्दों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि वे नए और विविध दर्शकों तक पहुंच पाते हैं। इनका एक बड़ा लाभ यह है कि इनका संचालन खर्च कम होता है और ये घरेलू वित्तपोषण से चल सकते हैं। साथ ही ये आम नागरिकों, मीडिया तथा स्थानीय प्रशासन, सभी के लिए उपयोगी साबित हो सकते हैं। परंतु इनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है अपने विमर्श को लोकतांत्रिक बनाना। यानी शहरी अभिजात्य घेरे से निकलकर भारत के ग्रामीण और अर्ध-शहरी समुदायों से सीधा संवाद स्थापित करना। यदि ये नए संगठन स्वयं को स्थानीय सदस्य-आधारित नेटवर्कों से जोड़ लें, तो वे नागरिक समाज की पहुंच और प्रासंगिकता को गहनता से सशक्त बना सकते हैं।
सहयोग ही भविष्य की दिशा है
भारत में नागरिक समाज का भविष्य किसी एक मॉडल या ढांचे पर आधारित नहीं होगा। यह इस बात पर निर्भर होगा कि विविध प्रकार के ये संगठन अपने-अपने अनुभवों और क्षमताओं को मिलाकर किस तरह सामूहिक रूप से आगे बढ़ते हैं। अगर ये संगठन सही दिशा में काम करते हैं, तो वे एक-दूसरे के प्रयासों को सशक्त बना सकते हैं। जमीनी संगठनों की स्थानीय प्रासंगिकता, सेवा प्रदाता संस्थाओं का कार्यान्वयन अनुभव, एडवोकेसी समूहों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की क्षमता, थिंक टैंकों का विश्लेषण और साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण तथा सिविक टेक संगठनों की डेटा जुटाने व नए लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने में भूमिका। इन सबके सम्मिलित प्रयास से एक अधिक सशक्त और उत्तरदायी नागरिक समाज बन सकता है। यदि ऐसे सहयोगी तंत्र विकसित होते हैं, तो यह सेक्टर वित्तीय चुनौतियों के बावजूद सृजनशील और स्थायी बना रह सकता है।
इस स्थिति से बचने के लिए हमें केवल राजनीतिक दबावों का प्रतिरोध ही नहीं, बल्कि आत्ममंथन और कुछ असहज सच्चाइयों का सामना भी करना होगा।
सहयोग के अवसर अनेक रूपों में मौजूद हैं। सिविक टेक संगठनों और स्थानीय सदस्य-आधारित समूहों के बीच नए गठजोड़ डेटा को अधिक लोकतांत्रिक बना सकते हैं और कल्याणकारी अधिकारों को मजबूत कर सकते हैं। थिंक टैंकों और एडवोकेसी संगठनों के बीच साझेदारी अधिकार से जुड़े आंदोलनों को गहराई और विश्वसनीयता प्रदान कर सकती है। जो सेवा-प्रदाता एनजीओ एक स्वतंत्र नवाचार केंद्र के साथ काम करते हैं, वे उन विचारों को व्यापक पैमाने पर लागू करने में सहायक हो सकते हैं जो जमीनी स्तर से उपजते हैं। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्थाएं (आईएनजीओ) भी यदि स्वयं को एक सेवा-प्रदाता मंच के रूप में ढाल लें, तो वे बिना एजेंडा थोपे प्रशिक्षण, क्षमता निर्माण और अनुपालन में सहयोग दे सकते हैं। ऐसे सहयोगी मार्ग ही एक ऐसे नागरिक समाज की नींव रख सकते हैं जो दूरदर्शी भी हो और समुदाय की वास्तविकताओं से गहराई से जुड़ा हुआ भी।
हालांकि यह तय नहीं है कि सामाजिक क्षेत्र की दिशा वास्तव में इसी मार्ग पर आगे बढ़ेगी। यदि ये सभी विभिन्न संगठन अपने-अपने दायरे में सीमित रह जायें, तो नतीजतन यह सेक्टर खंडित और प्रभावहीन हो जाएगा। सदस्य-आधारित संस्थाएं शायद केवल बड़े सरकारी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए समुदायों को संगठित करने वाले मंच बनकर रह जायेंगी। इसी तरह, यदि थिंक टैंक केवल तकनीकी या नीतिगत विमर्श तक सीमित रहें, सिविक टेक चंद अभिजात वर्गों के घेरे में सिमट जाए और एडवोकेसी समूह अलग-थलग काम करें, तो नागरिक समाज की विविधता जमीन पर नहीं, केवल कागजों में नजर आएगी। इस स्थिति से बचने के लिए हमें केवल राजनीतिक दबावों का प्रतिरोध ही नहीं, बल्कि आत्ममंथन और कुछ असहज सच्चाइयों का सामना भी करना होगा। उदाहरण के लिए, नेतृत्व में अभिजात्य केंद्रीकरण, सीमित वित्तीय स्रोतों पर अत्यधिक निर्भरता और सुरक्षित, लेकिन अप्रासंगिक काम करते रहने की लालसा।
भारत में एनजीओ का समर्थन करने के इच्छुक दानदाताओं और साझेदारों को इन संगठनों की विविध संरचनाओं और कार्यशैलियों की विशिष्टता को स्वीकार करना होगा और उनके बीच रचनात्मक संवाद को प्रोत्साहन देना होगा। इसका अर्थ होगा वित्तपोषण और साझेदारी के कई प्रकार के मॉडल विकसित करना। ऐसे मॉडल जो इस बात पर आधारित हों कि ये संस्थाएं दानदाताओं या सरकार की स्वीकृति के बजाय सार्वजनिक कल्याण के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखें। वर्तमान में सबसे बड़ी चुनौती विविध, अनुकूलनशील और समुदाय-केंद्रित बने रहना है। यह याद रखना होगा कि समुदायों से ही इन संगठनों के अस्तित्व को उद्देश्य और सार्थकता मिलती है।
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