“मैं गैस की जगह ज्यूं (लकड़ी) इस्तेमाल करना पसंद करती हूं।” यह कहना है जम्मू और कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के राजवार की रहने वाली सजा बेगम का। वे बताती हैं, “अगर हम खाना बनाने और गर्म करने के लिए एलपीजी सिलेंडर का इस्तेमाल करते हैं तो वो आठ दिन से ज्यादा नहीं चल पाता है।”
कश्मीर में, दिसंबर के अंतिम दिनों से जनवरी तक चलने वाला जाड़े का सबसे भीषण दौर चिल्लई कलां के नाम से जाना जाता है। इस दौरान स्थानीय निवासी खाना बनाने और आग तापने जैसे कामों के लिए जलाऊ लकड़ी और बुखारी (लकड़ी के पारंपरिक चूल्हे) पर आश्रित रहते हैं। वहीं सर्दियों में शहरी इलाकों से अलग-थलग होने के कारण दूर-दराज के क्षेत्रों में एलपीजी सिलेंडर पहुंच ही नहीं पाते हैं। ऐसे में लकड़ी इकट्ठा करना भले ही मुश्किल हो, लेकिन इसके लिए लोगों को पैसे नहीं खर्च करने पड़ते हैं।
आमतौर पर, नवंबर के अंत तक चिल्लई कलां के लिए जलाऊ लकड़ी इकट्ठा कर ली जाती है। गांव की औरतें जंगल से एक बार में एक गिढ़ (लकड़ी का गट्ठर, जिसमें दर्जन भर पुरानी या टूटी शाखें होती हैं) बांध कर घर ले जाती हैं। इसके लिए उन्हें तकरीबन चार किलोमीटर की चढ़ाई तय करनी पड़ती है।
चिनार, पोपलर और अखरोट जैसे चौड़े पत्ते वाले पतझड़ी पेड़ कश्मीर की स्थानीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं क्योंकि इनसे ईंधन के साथ-साथ मवेशियों के चारे की व्यवस्था भी होती है। लेकिन बीते कुछ समय से इनकी जगह देवदार, सरो और चीड़ जैसे शंकुधारी पेड़ों ने ले ली है। बाजार में बेहतर कीमत और निर्यात की मांग के चलते इनकी संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है।
बारामूला में लड़कों के सरकारी डिग्री कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत पर्यावरणविद् डॉ. हुमैरा कादरी कहती हैं, “कश्मीर के शीतोष्ण जंगलों (टेम्परेट फॉरेस्ट) में शंकुधारी पेड़ों की संख्या अधिक है क्योंकि यहां के मौसम और ऊंचाई से मेल खाने के साथ-साथ इनकी लकड़ी की अच्छी व्यावसायिक कीमत भी होती है। सामाजिक वानिकी विभाग के वनरोपण अभियान जैसे कई कार्यक्रमों में शंकुधारी पेड़ों को प्राथमिकता दी जाती है। पुनरुद्धार (रिस्टोरेशन) की अधिकांश योजनाओं में भी शंकुधारी पेड़ों को ही बढ़ावा दिया जाता है क्योंकि ये तेजी से बढ़ते हैं और व्यावसायिक रूप से अधिक मूल्यवान हैं। इस पूरे क्रम में अक्सर चौड़े पत्ते वाले पेड़ों के पर्यावरणीय गुणों की अनदेखी की जाती है।”
सूखे शंकु आग जलाने के लिए तो ठीक होते हैं, लेकिन उनमें पतझड़ी पेड़ों जैसी प्रभावी ऊर्जा की कमी होती है। हुमैरा बताती हैं, “लकड़ी की कम गहराई और राल (रेजिन) की अधिक मात्रा के चलते शंकु तेजी से आग पकड़ते हैं। इसके ठीक उलट पतझड़ी लकड़ी मोटी होती है, धीरे जलती है और देर तक गर्माहट देती है। इसलिए खाना बनाने और लंबे समय तक आग तापने के लिए पतझड़ी पेड़ कहीं अधिक कारगर होते हैं।”
इस बात को ध्यान में रखते हुए हुमैरा ऊर्जा-प्रभावी चूल्हों की पैरवी करती हैं, जो लकड़ी की समान मात्रा से अधिक ऊर्जा पैदा कर सकते हैं। उनका कहना है, “इससे लकड़ी की कम खपत होगी, हमारे प्राकृतिक संसाधन बचेंगे और वातावरण पर भी दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।”
बारामूला जैसे कई क्षेत्रों में अब लोग जलाऊ लकड़ी पर अति-निर्भर नहीं रहना चाहते हैं। शायद यही कारण है कि ऐसी जगहों पर तुर्की बुखारियां तेजी से प्रचलित हो रही हैं। टीन की पारंपरिक बुखारी की तुलना में लोहे से बनने वाली यह बुखारी अधिक प्रभावी रूप से गर्माहट पैदा करती है। इनमें खाना बनाने के लिए भी अलग डिब्बा मौजूद होता है। इसके अलावा यह लकड़ी की जगह बायोमास से चल सकती हैं, जिसमें सूखे पत्तों और पेड़ के बहुत से अन्य हिस्सों का उपयोग किया जा सकता है।
खुर्शीद अहमद शाह जम्मू और कश्मीर स्थित एक पत्रकार हैं।
यह मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स में प्रकाशित एक लेख का संपादित अंश है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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