बोकारो स्टील सिटी: ऑटोमेशन में खोता भविष्य

Location Icon बोकारो जिला, झारखंड
बोकारो इंडस्ट्रियल एरिया — बोकारो स्टील प्लांट
ऑटोमेशन के कारण बोकारो के स्टील प्लांट में नौकरियों की संख्या तेजी से घट रही है। | चित्र सभार: शिवम कुमार

1950 के दशक में जब सेल (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड) और कोल इंडिया जैसे बड़े औद्योगिक समूहों ने झारखंड (तब बिहार) के बोकारो जिले को स्टील सिटी में बदला, तो 19 गांवों के स्थानीय परिवारों ने फैक्ट्रियों में नौकरी के बदले अपनी जमीन इन समूहों को सौंप दी। जिन लोगों को इन फैक्ट्रियों में काम मिला, वे फैक्ट्री परिसर में ही रहने लगे। उद्योग की शुरुआत से ही बहुत से कर्मियों की अगली पीढ़ी को भी यहां काम मिलने का चलन स्थापित होता गया। बहुत से कर्मी अधिकारियों से सिफारिश कर अपने बच्चों को कारखाने में नौकरी दिलवा देते थे। इससे परिवारों की आर्थिक स्थिरता बनी रहती थी।

चूंकि उस समय निकटवर्ती क्षेत्रों में कोई बड़े उद्योग नहीं थे, इसलिए वहां के बहुत से पुरुष यहां के इलाकों में विवाह करते थे। ऐसे कई पुरुषों के परिवार तब उन्हें ससुराल में ही रहने के लिए प्रोत्साहित करते। ऐसा इसलिए, क्योंकि बूढ़े कर्मचारियों के परिवार के युवाओं को उनकी नौकरी मिलने की प्रबल संभावना होती थी। इस व्यवस्था के चलते क्षेत्र में निरंतर रोजगार बना रहता था। यही कारण था कि अधिकांश पुरुष विवाह के बाद यहीं परिवार बसाते थे और बच्चों का लालन-पालन ननिहाल में ही होता था। 

गौरतलब है कि वर्तमान में ऑटोमेशन(स्वचालन) के कारण स्टील प्लांट में नौकरियों की संख्या तेजी से घट रही है। इसके साथ ही फैक्ट्री कर्मियों के संबंधियों को नौकरी मिलने का सिलसिला भी थम गया है। अब पुरुषों को काम के लिए पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और ओडिशा जैसे पड़ोसी राज्यों के साथ दिल्ली जैसे दूर-दराज के इलाकों में भी जाना पड़ता है। बोकारो के निवासी रवि तिग्गा, जो अब ओडिशा में काम कर रहे हैं, कहते हैं, “मैं यहीं रहना चाहता था, लेकिन यहां काम नहीं है। इसलिए हमें बार-बार घर छोड़ना पड़ता है। अब तो अपना शहर भी पराया सा लगता है।”

अधिकांश कर्मचारी नगरपालिका या पंचायत चुनाव में वोट भी नहीं डाल पाते हैं। चूंकि वे पहले फैक्ट्री परिसर में रहते थे, इसलिए उनके सभी दस्तावेजों में भी फैक्ट्री का ही पता दर्ज था। फैक्ट्री की नौकरी जाने के बाद भी उनके दस्तावेजों में बदलाव नहीं किया गया। उनसे वादा किया गया था कि उन्हें पुनर्वास के लिए जमीन दी जाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे अभी भी फैक्ट्री के आसपास बने बफर जोन में ही रहते हैं।

इसका सीधा असर उनके बच्चों पर भी पड़ता है। वे अपने हक की सरकारी योजनाओं और छात्रवृत्तियों से अक्सर वंचित रह जाते हैं हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सरकार फैक्ट्री के पते को वैध ही नहीं मानती। इलाके के बुजुर्गों का कहना है, “फैक्ट्री की नौकरी सिर्फ एक नौकरी भर नहीं होती थी। वह पूरे परिवार का सहारा थी। अब सब कुछ ऑटोमेटेड हो गया है। इसलिए हमारी नयी पीढ़ी को पर्याप्त अवसर नहीं मिल पा रहे हैं।”

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