कश्मीर घाटी में दशकों से अशांति, अनिश्चितता और हिंसा का माहौल कायम रहा है। लेकिन इससे जुड़ी चर्चाओं में अब भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और सुरक्षा जैसे विषयों को ही प्रमुखता दी जाती है। आमतौर पर इसके मानवीय पहलू को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसके चलते, कश्मीर की आवाम कई पीढ़ियों से मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक तनाव का सामना करती आयी है।
कश्मीर के इस घाव की जड़ें यहां के राजनीतिक इतिहास से जुड़ी हुई हैं। वर्ष 1989 में शुरू हुए सशस्त्र विद्रोह ने उग्रवादियों, सुरक्षाबलों और आम नागरिकों के बीच हिंसा के एक कभी न खत्म होने वाले चक्र की शुरुआत की। आंकड़ों पर गौर करें तो गृह मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2020–21 के अनुसार, 1990 से अब तक जम्मू-कश्मीर में 14,091 आम नागरिकों और 5,356 सुरक्षाकर्मियों ने अपनी जान गंवाई है।
कश्मीर की एक स्थानीय संस्था के मुताबिक, संघर्ष की शुरुआत से अब तक 70,000 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। इसके अलावा, एसोसिएशन ऑफ पेरेंट्स ऑफ डिसअपीयर्ड पर्सन्स ने 8,000 से अधिक जबरन गुमशुदगी के मामले दर्ज किए हैं।
ये संख्याएं महज आंकड़े भर नहीं हैं। ये अधूरी जिंदगियां, बिखरे हुए परिवार और अनसुलझा इतिहास भी है। यहां के बहुत से परिवारों को वेदना (ट्रॉमा) विरासत में मिली है। एक ऐसी विरासत, जो कश्मीरी पहचान की बुनियाद में रच-बस गयी है।
पीढ़ियों से चली आ रही वेदना (ट्रॉमा) का प्रभाव
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली वेदना या ट्रॉमा, एक ऐसी स्थिति है जिसमें किसी एक व्यक्ति या समुदाय द्वारा झेले गए भावनात्मक, मानसिक और कभी-कभी शारीरिक आघात का असर उसकी अगली पीढ़ियों तक पहुंच सकता है। कश्मीर में इस विषय पर हो रहे शैक्षणिक शोध हालांकि अभी शुरुआती चरण में हैं। लेकिन डॉक्टरों, मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों और आम लोगों ने लंबे समय से स्थानीय पीढ़ियों के ऊपर इस असर को महसूस किया है या फिर निजी तौर पर खुद इसका अनुभव किया है।
1. आंकड़े क्या कहते हैं?
कश्मीर के प्रतिष्ठित मनोचिकित्सक डॉ मुश्ताक ए मरगूब ने पीढ़ीगत ट्रॉमा के विषय पर एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में डीएसएम-IV दिशानिर्देशों का प्रयोग करते हुए, श्रीनगर के शासकीय मनोरोग अस्पताल में 3 से 16 साल की आयु के 56 बच्चों को पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर (पीटीएसडी) से ग्रस्त पाया गया। पीटीएसडी एक ऐसी अवस्था है, जिसे रोगियों में आमतौर पर किसी बड़ी दुर्घटना या हिंसक घटना का अनुभव करने के बाद देखा जाता है।
- बच्चों में ट्रॉमा का सबसे आम कारण यह था कि वे खुद उसके साक्षी थे (75 प्रतिशत)।
- बच्चे अक्सर डरावने सपनों के कारण ट्रॉमा को दोबारा महसूस करते थे (85.71 प्रतिशत)।
- बच्चों का हिंसा या उससे जुड़ी किसी घटना से संबंधित लोगों और जगहों से दूरी बनाना भी उनमें ट्रॉमा का प्रमुख संकेत था (85.17 प्रतिशत)।
- ज्यादातर बच्चों में पीटीएसडी (92.85 प्रतिशत) के लक्षणों की शुरूआत अचानक हुई और अधिकांश मामलों (71.43 प्रतिशत) में यह क्रॉनिक स्टेज में सामने आया, यानी इसकी पहचान होने में बहुत देर लगी।
वर्ष 2015 में मेडिसिन्स सान्स फ्रंटियर्स ने कश्मीर में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति का एक व्यवस्थित अध्ययन किया। 5,428 घरों में किए गए सर्वे के आधार पर रिपोर्ट में बताया गया कि:
- कश्मीर की 45% वयस्क आबादी में गंभीर मानसिक तनाव के लक्षण दिखाई दिए।
- 41% लोगों में संभावित अवसाद के लक्षण पाए गए।
- 26% लोगों में पीटीएसडी के लक्षण पाए गए।
- 48% लोगों में बेचैनी (एंग्जायटी) संबंधित विकारों के लक्षण पाए गए।
सर्वेक्षण से सामने आया सबसे चिंताजनक पहलू ये है कि यह ट्रॉमा अगली पीढ़ी तक पहुंच रहा है। जिन बच्चों के माता-पिता में पीटीएसडी के लक्षण हैं, उनमें अक्सर व्यवहार से जुड़ी दिक्कतें, स्कूल में ध्यान केंद्रित न कर पाना और भावनात्मक असंतुलन जैसी समस्याएं देखने को मिलती हैं। कुलगाम और बारामूला के शिक्षकों बताते हैं कि संघर्ष प्रभावित परिवारों के बच्चों में आक्रामकता, अलगाव और अनुपस्थिति के लक्षण अधिक नजर आते हैं।
2. कश्मीरी महिलाओं पर प्रभाव
महिलाएं स्वयं पीढ़ीगत ट्रॉमा से जूझने के साथ-साथ दूसरे लोगों के ट्रॉमा को संभालने का मानसिक बोझ भी उठाती हैं। सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिक संघर्ष का लैंगिक प्रभाव इसके मुख्य कारण हैं।, लेकिन इसके अलावा मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव भी इस स्थिति को और चुनौतीपूर्ण बना देता है। महिलाओं के साथ व्यापक स्तर पर हुई हिंसा और यौन उत्पीड़न से उपजी पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली मानसिक वेदना, कश्मीर की सामूहिक याद्दाश्त में गहराई से दर्ज है।
डिजिटल साक्षरता का स्तर अभी भी कम है और मोबाइल या इंटरनेट तक सीमित पहुंच इस अंतर को और बढ़ा देती है।
कश्मीर में संघर्ष के शिकार हुए लोगों की पत्नियों को अक्सर आधी-बेवा (हाफ-विडोज) कहा जाता है, क्योंकि उनके पतियों की मृत्यु की पुष्टि नहीं हो पाती है। ऐसे में उनका यह अधूरा और मानसिक उलझनों से भरा शोक उनके बच्चों के लालन-पालन पर सीधा प्रभाव डालता है। रूढ़िवादी सामाजिक मान्यताएं इस समस्या को और बढ़ा देती हैं। उदाहरण के लिए, परिवारों या समुदाय में जबरन गर्भधारण या करीबी संबंधियों के साथ विवाह को सामान्य समझा जाता है, लेकिन महिलाओं और लड़कियों के मानसिक स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव पर न के बराबर ध्यान दिया जाता है।
कश्मीर में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चल रहे प्रमुख सरकारी प्रयासों में से एक है — जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम। लेकिन यहां भी ज्यादातर मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर पुरुष हैं और महिला मनोचिकित्सक या प्रशिक्षित काउंसलर का अभाव स्पष्ट नजर आता है। सामाजिक झिझक और लैंगिक बाधाओं के कारण कई महिलाएं पुरुषों से परामर्श लेने से हिचकिचाती हैं। इसके चलते, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी सीमित पहुंच और संकुचित हो जाती है।
देश में टेली मानस जैसी डिजिटल मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन इनका लाभ ग्रामीण महिलाओं तक बहुत कम पहुंच पाता है। डिजिटल साक्षरता का स्तर अभी भी कम है और मोबाइल या इंटरनेट तक सीमित पहुंच इस अंतर को और बढ़ा देती है। हेल्पलाइन नंबर जैसी सुविधाएं उपलब्ध होने के बावजूद, कई महिलाएं या तो इनका इस्तेमाल नहीं कर पातीं या सामाजिक झिझक के कारण ऐसा करने से कतराती हैं।

बच्चों और किशोरों की मनो-सामाजिक प्रतिक्रियाएं
श्रीनगर की मनोचिकित्सक डॉ नीलोफर जान के अनुसार, संघर्ष प्रभावित परिवारों से आने वाले बच्चों और किशोरों में दो स्पष्ट और चरम व्यवहारिक प्रवृत्तियां देखी जाती हैं।
एक ओर, कई बच्चे अपने आसपास के माहौल के प्रति बेहद सतर्क और संवेदनशील हो जाते हैं। उन्हें साधारण घटनाएं भी खतरे का संकेत लगने लगती हैं। उनके लिए हल्की आवाज या हरकत पर चौंक जाना, या सामान्य बातचीत में भी शत्रुता की भावना तलाश लेना आम हो जाता है। ऐसे बच्चे अक्सर हमेशा ‘फाइट मोड’ में रहते हैं। उनका गुस्सा, चिढ़चिढ़ापन या आक्रामकता उनके भीतर के दुख और अकेलेपन को ढकने की कोशिश होती है।
दूसरी ओर, कुछ बच्चे भावनात्मक सुन्नता और अलगाव की स्थिति में चले जाते हैं। वे धीरे-धीरे ‘ओढ़ी हुई लाचारी’ को अपना लेते हैं। वे मान लेते हैं कि कुछ भी हो जाए, लेकिन हालात नहीं बदलेंगे। ऐसे बच्चों में भावनाएं व्यक्त करने की क्षमता घट जाती है और वे दुनिया को सुरक्षित और भरोसेमंद मानना छोड़ देते हैं।
कश्मीर के ज्यादातर बच्चों ने हिंसा को बहुत करीब से देखा है। जब सरकार या समाज बच्चों को न्याय और राहत देने में असफल हो जाते हैं, तो उनके मन में यह बात बैठ जाती है कि वे अपने हालात बदलने में असमर्थ हैं। इसे ही ‘ओढ़ी हुई लाचारी’ कहा जाता है, जिसमें व्यक्ति को निरंतर मानसिक आघात सहने के बाद यह लगने लगता है कि उसकी कोशिशों से कुछ भी नहीं बदला जा सकता है।
पीढ़ियों की जीवटता और समुदाय का सहारा
कश्मीरियों ने लगातार अस्थिरता और मानसिक वेदना जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए अपने तरीके ईजाद किए हैं।
1. धर्म और आध्यात्मिकता
कश्मीर में धर्म और आध्यात्मिकता, खासकर सूफी परंपराएं दुख को समझने और सहने का एक अहम माध्यम रही हैं। इनसे लोगों को अपने अस्तित्व और अनुभवों की सार्थकता समझने और भावनात्मक सुकून हासिल करने में मदद मिलती है।
कश्मीर में सूफी दरगाहें हमेशा से एक ऐसी सामुदायिक जगह की तरह देखी जाती रही हैं, जहां लोग मानसिक राहत (हीलिंग) और सामुदायिक बेहतरी के लिए इकट्ठा होते रहे हैं। अगर थोड़े सोच-विचार के साथ इन जगहों को विकसित किया जाए, तो ये मानसिक स्वास्थ्य जागरुकता का औपचारिक केंद्र बन सकती हैं। एक मनो-सामाजिक सहयोग कार्यक्रम के दौरान हमने यह विचार प्रस्तुत किया गया कि धार्मिक नेताओं को मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इसका एक स्वाभाविक कारण यह था कि जहां किसी मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर के लिए लोगों को इकट्ठा करना बहुत मुश्किल है, वहीं धार्मिक नेताओं के पास हर शुक्रवार और अन्य खास मौकों पर लोग खुद ही आकर जुटते हैं। उनके व्याख्यानों को लोग बहुत गंभीरता से सुनते हैं और ये मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी झिझक को कम करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
इस कड़ी में बीते तीन सालों में कई उत्साहजनक उदाहरण सामने आए हैं। अंतर्राष्ट्रीय नशा मुक्ति दिवस (26 जून) के मौके पर, इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (आईएमएचएएनएस) ने जम्मू कश्मीर वक्फ बोर्ड के साथ मिलकर एक पहल की थी। इस दौरान बोर्ड से जुड़े धार्मिक नेताओं को मानसिक स्वास्थ्य और नशा मुक्ति से जुड़ी बुनियादी जानकारी दी गयी, जिसे उन्होंने अपने व्याख्यानों के जरिए लोगों तक पहुंचाया।
2. कला और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां
कश्मीरी समुदाय के लिए साहित्य, कविता और विजुअल आर्ट जैसी कलाएं मुश्किल हालातों से जूझने का एक सशक्त माध्यम रही हैं। इनके जरिए लोगों ने न केवल अपना प्रतिरोध दर्ज करवाया है, बल्कि भावनात्मक अभिव्यक्तियां भी की हैं। मिर्ज़ा वहीद जैसे लेखक और अतहर ज़िया जैसे बुद्धिजीवियों ने संघर्ष के दौरान रोजमर्रा की जिंदगी में पड़ी दरारों को बारीकी से दर्ज किया है। उनके काम से पता चलता है कि कैसे कला और किस्सागोई अस्तित्व को बरकरार रखने का जरिया बन सकती है। ये हिंसा, वंचना और विस्थापन से जुड़े अनुभवों को गरिमामयी यादों में बदल सकती हैं।
कला की यह परंपरा आज न केवल किताबों और कविताओं में जारी है, बल्कि कैलिग्राफी, चित्रकारी और युवाओं के रैप संगीत के माध्यम से भी आगे बढ़ रही है। सरकार और व्यवस्था के स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपस्थिति में कला ही दर्द की अभिव्यक्ति, आघात के बाद अपने जीवन पर पकड़ हासिल करने और वह सब कुछ कहने का माध्यम बन रही है जो औपचारिक दस्तावेजों में दर्ज नहीं हो पाता है।
3. महिलाओं का जुटान
यह देखा गया है कि सामाजिक सहयोग मानसिक तनाव से निपटने में एक जरूरी सहारा बन सकता है। कर्फ्यू या हिंसा के समय, आस-पड़ोस के लोगों का साथ आकर एक-दूसरे से अपनी भावनाएं साझा करना मानसिक उपचार का एक अनौपचारिक माहौल तैयार करता है, जो सामूहिक रूप से हीलिंग में मदद करता है।
अगर ट्रॉमा एक से दूसरी पीढ़ी तक पहुंच सकता है, तो यह बात हीलिंग पर भी लागू होती है।
कुछ साल पहले तक ज्यादातर घरों में चारदीवारी नही हुआ करती थी। ऐसे में महिलाएं इकट्ठा होती थीं, अपनी चिंताएं बांटती थीं और एक-दूसरे को सहारा देती थीं। ये अनौपचारिक सभाएं जीवन का हिस्सा थी, जिससे भावनात्मक अभिव्यक्ति के लिए एक सहज और सुरक्षित परिवेश बनता था । लेकिन बार-बार होने वाले संघर्षों, गुमशुदगी के बढ़ते मामलों और बढ़ती असुरक्षा ने लोगों को चारदीवारी बनाने के लिए मजबूर कर दिया है। इस दिशा में प्रयास किए जाएं, तो महिलाओं के लिए दरगाहों के साथ-साथ स्वयं सहायता जैसे छोटे समूह भी मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा के कम खर्चीले और प्रभावी माध्यम बन सकते हैं।
संस्थागत स्तर पर क्या किया जाना चाहिए?
1. पहुंच का विस्तार
अगर ट्रॉमा एक से दूसरी पीढ़ी तक पहुंच सकता है, तो यह बात हीलिंग पर भी लागू होती है। कश्मीर को सामूहिक राहत की दिशा में बढ़ने के लिए एक व्यापक और संवेदनशील संस्थागत ढांचा चाहिए, जो केवल शहरों तक सीमित न रहे। यह गांवों तक भी पहुंचना चाहिए, जहां मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं न के बराबर हैं। यहां इन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, मोबाइल क्लीनिक और समुदाय आधारित सुविधाओं में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। आउटरीच कार्यक्रमों में मानसिक स्वास्थ्य को सामान्य स्वास्थ्य सेवाओं में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि इससे जुड़ी झिझक और अलगाव की भावना खत्म हो सके। इसके लिए स्वास्थ्य से जुड़े सरकारी विभागों, गैर-लाभकारी संस्थाओं और स्थानीय समुदायों की साझेदारी से एक सुलभ, किफायती और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील नेटवर्क तैयार किया जा सकता है।
2. मानसिक सेवाओं से जुड़ी वर्जनाओं को कम करना
धीमे लेकिन निरंतर सुधार के बावजूद, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी पेशेवर मदद से जुड़ा बदनामी का भाव, अभी भी एक बड़ी बाधा बना हुआ है। इसके चलते परिवार अक्सर थैरेपी या काउंसलिंग की बजाय चुप्पी, प्रार्थना या अनौपचारिक नेटवर्क के विकल्प चुनते हैं। हालांकि श्रीनगर आईएमएचएएनएस जैसे संस्थानों ने स्कूल आधारित काउंसिलिंग और आउटरीच पहल शुरू की है, लेकिन ये प्रयास अब भी छिटपुट और सीमित हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर बातचीत को पंचायत बैठकों, धार्मिक संस्थानों और सामुदायिक केंद्रों में सामान्य बनाना बहुत जरूरी है। इसमें माताओं और महिलाओं के समूहों को खासतौर पर शामिल करना जरूरी है, क्योंकि आमतौर पर वे ही सबसे पहले बच्चों और युवाओं में तनाव के संकेत देख पाती हैं। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी शर्म और हिचकिचाहट को कम करने के लिए लगातार जागरुकता अभियान चलाना, खुले तौर पर थैरेपी पर बात करने वाले रोल मॉडलों को सामने लाना और मनो-सामाजिक चर्चाओं को आम जीवन में शामिल करना जरूरी है।
3. स्कूलों को एक सुरक्षित जगह बनाना
स्कूल पीढ़ियों से चले आ रहे ट्रॉमा को समझने और उससे निपटने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। सरकारी और निजी स्कूलों में काउंसलर नियुक्त करना, दूर-दराज के इलाकों में टेली-थैरेपी की पहल करना और संघर्ष प्रभावित गांवों तक मोबाइल क्लीनिक जैसी सेवाएं पहुंचाना; बच्चों और किशोरों के लिए उनकी वास्तिवकता को समझने में मददगार हो सकता है। इसके साथ ही काउंसिलिंग से इतर, पाठ्यक्रम में भी ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जिसमें उनके ट्रॉमा की जानकारी शामिल हो। इससे युवा अपने आसपास हुई हिंसा और अनुभवों की बेहतर समझ विकसित कर पायेंगे। इसके लिए आईएमएचएएनएस और जम्मू कश्मीर शिक्षा बोर्ड जैसी साझेदारियों के जरिए मानसिक स्वास्थ्य तंत्र को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने के प्रयासों को बढ़ाया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, शिक्षकों को केवल तनाव के लक्षण पहचानने की ही नहीं, बल्कि संवेदनशील तरीके से प्रतिक्रिया देने और संभावित क्षति को रोकने के लिए भी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
4. नीतियों और शोध की भूमिका
आखिर में विशिष्ट नीतियों और लगातार शोध की बेहद जरूरत है। मेंटल हेल्थ केयर एक्ट, 2017 मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को कानूनी अधिकार के रूप में स्थापित करता है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में इसकी क्रियान्वयन प्रक्रिया कमजोर है। राज्य स्तरीय मानसिक स्वास्थ्य नीतियों में विशेष बजट का प्रावधान, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में मानसिक स्वास्थ्य का समावेश और हाशिए पर मौजूद समुदायों के लिए मुफ्त या किफायती कीमत पर सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए। बहु-विषयक शोध, जो पीढ़ीगत ट्रॉमा, स्थानीय सहनशीलता उपायों और सामुदायिक हीलिंग के तरीकों का दस्तावेजीकरण करें; सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त समाधान कार्यक्रम बनाने में मददगार हो सकते हैं। विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और नागरिक संगठनों को साथ आकर मौखिक इतिहास और ट्रॉमा की कहानियों को इकट्ठा करना चाहिए। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ये स्मृतियां केवल पीड़ा की नहीं बल्कि न्याय, राहत और बेहतरी की भी बात करती हों।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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