क्यों महाराष्ट्र के कोरकू गांवों में किताबें घर-घर दस्तक देती हैं

Location Icon अकोला जिला, महाराष्ट्र
किताबे देखते कुछ बच्चे_आदिवासी लाइब्रेरी
पहले किताबों से दूरी बनाने वाले लोग अब अपने बच्चों के लिए किताबें खरीद रहे हैं और छोटे बच्चे भी रंग-बिरंगी चित्रों वाली किताबों में खो जाते हैं। | चित्र साभार: पूजा कुमारी

मैं अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर कर रही हूं और मेरा विषय प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा है। अपनी पढ़ाई में ही शामिल एक फील्ड प्रोजेक्ट के दौरान, मैं महाराष्ट्र के अकोला जिले के खिरकुंड खुर्द और उसके आसपास के गांवों में गई। इस इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोग कोरकू समुदाय से आते हैं। यहां हो रही किताबों की हलचल ने मुझे सबसे ज्यादा चौंकाया। इस गांव में किताबें किसी लाइब्रेरी की अलमारियों में नहीं रखी जातीं हैं बल्कि वे झोलों में भरकर घर-घर पहुंचती हैं। शाम होते ही दरवाजों पर दस्तक होती है और बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग, सब किताबें लेने निकल आते हैं। 

इस पूरे प्रयोग की शुरुआत उन्नति संस्था के प्रयासों से हुई थी। संस्था का उद्देश्य गांव में पढ़ने का माहौल बनाना था। इसलिए किसी स्थायी लाइब्रेरी की जगह, किताबों को सीधे लोगों तक पहुंचाने की सोच के साथ ‘गांव वाचनालय’ की शुरुआत की गई। 

शुरुआत में गांव वाले किताब लेने से कतराते थे। कई बार लोग बिना देखे मना कर देते थे, या कह देते थे कि दोबारा हमारे घर मत आना। लेकिन बार-बार दरवाजा खटखटाने और किताबें दिखाने का असर हुआ। धीरे-धीरे वही लोग अब पूछने लगे हैं कि और कौन-सी किताबें पढ़ी जा सकती हैं, कहां से मिलेंगी। 

खास बात यह है कि गांव में अब कई किताबें कोरकू भाषा में उपलब्ध हैं। जिन लोगों ने कभी अपनी भाषा में किताब नहीं देखी थी, वे आज इन्हें उत्साह से पढ़ते हैं। महिलाएं बताती हैं कि अपनी मातृभाषा में पढ़ने से वे बच्चों की पढ़ाई को बेहतर समझ पाती हैं। छोटे बच्चे रंग-बिरंगी चित्रों वाली किताबों में खो जाते हैं। खेत और घर का काम निपटाने के बाद महिलाएं देर रात तक पढ़ती हैं। वे लोग जो पढ़ नहीं सकते, उनके लिए महीने में तीन बार चौपाल पर ‘भोंगा वाचनालय’ चलता है जिसमें बड़े स्पीकर पर कहानियां सुनाई जाती हैं। कभी-कभी लोग ‘चावडी वाचन’ भी करते हैं, जहां सब मिलकर जोर से किताबें पढ़ते हैं और इस तरह यह पूरी प्रक्रिया एक साझा अनुभव बन जाती है। 

हर किताब कोरकू में उपलब्ध नहीं है। इसलिए देश और विदेश की कई साहित्यिक और विज्ञान की किताबें पहले मराठी में ट्रांसलेट होती हैं, और फिर मराठी से कोरकू में अनुवादित की जाती हैं। इससे गांव के लोगों के लिए किताबें पढ़ना और भी सुलभ हो जाता है। 

धीरे-धीरे गांव के लोग इस काम का हिस्सा बन गए हैं। वे सिर्फ किताब लेने वाले नहीं रहे बल्कि किताब बांटने और भोंगा वाचनालय चलाने में मदद करते हैं। कोई बच्चा अपने दोस्तों को साथ लाता है तो कोई महिला पड़ोसन को किताब थमा देती है। इस तरह किताबें पढ़ने को लेकर गांव के भीतर नेतृत्व की नई परंपरा उभर रही है। 

दो साल में इस छोटे से प्रयोग ने बड़ा असर डाला है। पहले किताबों से दूरी बनाने वाले लोग अब अपने बच्चों के लिए किताबें खरीद रहे हैं। बच्चे, जो पहले शाम को सिर्फ खेलते थे, आज किताबों के पन्ने पलटते दिखाई देते हैं। यह अनुभव दिखाता है कि पढ़ना सिर्फ स्कूल तक सीमित नहीं है। किताबें अगर मातृभाषा में हों और घर-घर पहुंचे, तो पढ़ना एक साझा आदत बन सकती है। 

पूजा कुमारी अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रही हैं। वह वॉलंटरी समूह अवसर का भी हिस्सा हैं, जो युवाओं को शिक्षा और विकास सेक्टर के मौकों से जोड़ता है।

अधिक जानें: जानिए, मध्यप्रदेश के बैगा समुदाय की साझेदारी और सीख के सबक।

अधिक करें: लेखक के काम से जुड़ने और सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें। 


और देखें


दिल्ली की फेरीवालियों को समय की क़िल्लत क्यों है?
Location Icon दिल्ली

जलवायु परिवर्तन के चलते ख़त्म होती भीलों की कथा परंपरा
Location Icon महाराष्ट्र

क्या अंग्रेजी भाषा ही योग्यता और अनुभवों को आंकने का पैमाना है?
Location Icon महाराष्ट्र

राजस्थान की ग्रामीण लड़की यूट्यूब का क्या करेगी?
Location Icon राजस्थान