ग्रामीण बिहार में एआई साक्षरता की नींव रखती लड़कियां

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ग्रामीण आंगन में महिलाएं दरी पर बैठी हैं, एक महिला लैपटॉप के ज़रिए जानकारी दे रही हैं_आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
समुदाय के लोगों ने धीरे-धीरे सीखकर खुद एआई टूल इस्तेमाल करना शुरू किया और इससे सरकारी पत्रों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करने लगे। | चित्र साभार: अंकिता सिंह

वर्तमान में चैट-जीपीटी, जैमिनाई और मेटा-एआई जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) टूल बड़े शहरों में जीवन का नियमित हिस्सा बन चुके हैं। लेकिन बिहार जैसे राज्यों के शहरी और ग्रामीण इलाकों में यह तकनीक अब भी आम जनजीवन से दूर है। इस अंतर को पाटने के लिए इंटेल ने हमारी संस्था आई-सक्षम से संपर्क किया। हमने एक डिजिटल साक्षरता प्रोग्राम के जरिए हाशिए पर रहने वाले समुदायों के बीच एआई साक्षरता को बढ़ावा देने की साझा पहल की।

मैं आई-सक्षम में प्रोग्राम मेंटर के तौर पर काम करती हूं। हमारी संस्था ग्रामीण समुदायों की युवतियों के साथ मिलकर काम करती है, ताकि वे अपने समुदाय के जमीनी विकास में सक्रिय भूमिका निभा पायें।

एडु-लीडर्स की तरह काम करने वाली इन युवतियों को भी इस परियोजना को धरातल पर लागू करने के लिए एआई की बुनियादी साक्षरता सीखने की जरूरत थी। शुरुआत में उनके पास पाठयक्रम तैयार करने, अपना सीवी लिखने या काम से जुड़े जटिल विषयों को समझने के लिए न तो तकनीकी संसाधन थे और न ही कोई अन्य समर्थन। इसलिए सबसे पहले उन्होंने फंडर द्वारा शुरू किए गए प्रशिक्षण कार्यक्रम को पूरा किया और फिर स्वयं ट्रेनर की भूमिका में अन्य लोगों को प्रशिक्षण देने लगीं।

हमारा उद्देश्य था बिहार के पांच जिलों—मुजफ्फरपुर, गया, मुंगेर, बेगूसराय और जमुई—के गांवों में यह समझ विकसित करना कि एआई का उपयोग रोजमर्रा की जिंदगी में कैसे किया जा सकता है। हालांकि यह एक प्रासंगिक और जरूरी पहल थी, लेकिन हम जानते थे कि जब तक इसे स्थानीय संदर्भ में नहीं ढाला जाएगा, तब तक इसका असर बेहद सीमित रहेगा।

फंडर द्वारा तैयार की गई प्रशिक्षण सामग्री में टेस्ला गाड़ियों और एआई-आधारित ट्रैफिक सर्वेलेंस सिस्टम जैसे उदाहरण दिए गए थे। लेकिन ये उदाहरण उन ग्रामीण समुदायों के जीवन से काफी कटे हुए थे, जहां हम काम करते हैं। इसलिए हमने ऐसे उदाहरण चुने, जो लोगों के रोजमर्रा के जीवन से जुड़े हों। जैसे यूट्यूब कैसे वीडियो सजेस्ट करता है, उन्हें अपने मोबाइल पर कुछ विशेष विज्ञापन क्यों दिखते हैं या डिजिटल असिस्टेंट वॉइस कमांड पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं आदि।

हमने ऐसे एआई टूल्स का चयन किया, जो स्थानीय समुदायों के लिए सुलभ और परिचित थे। हमने ऐसे किसी भी प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल नहीं किया, जिसमें अंग्रेजी लिखनी हो या जटिल इंटरफेस से जूझना पड़े। इसके बजाय हमने चैट-जीपीटी, जैमिनाई और मेटा-एआई जैसे टूल इस्तेमाल किए, जो हिंदी भाषा में भी चलते हैं और वॉइस कमांड से काम कर सकते हैं। खासतौर से मेटा-एआई पर विशेष जोर दिया गया, क्योंकि यह व्हॉट्सएप से ही जुड़ा हुआ है, जिसे कई ग्रामीण पहले से ही इस्तेमाल करते हैं। इससे उन्हें कोई नया एप्प डाउनलोड करने या अलग इंटरफेस सीखने की जरूरत नहीं पड़ी।

इस पहल के जरिए एडु-लीडर्स ने करीब 10,000 लोगों को एआई के उपयोग का प्रशिक्षण दिया, जिनमें से लगभग 7,000 लोग आज भी इन टूल्स का नियमित रूप से इस्तेमाल कर रहे हैं। प्रशिक्षण के दौरान व्यवहारिक उपयोग पर खास ध्यान दिया गया। जैसे वॉइस प्रॉम्प्ट (निर्देश) देकर बिना “हेलुसिनेशन”, यानी काल्पनिक जानकारी के सही और प्रासंगिक जवाब किस तरह हासिल किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, कोई अभिभावक जो ट्यूशन का खर्च नहीं उठा सकता, एआई से यह पूछ सकता है: “मैं बिहार के गया जिले में रहने वाला एक अभिभावक हूं। मैं अपने सात साल के बच्चे को दो का पहाड़ा कैसे सिखाऊं?” जगह की जानकारी देने से एआई ज्यादा प्रासंगिक और स्थानीय संदर्भ से जुड़ा हुआ जवाब देता है।

प्रशिक्षण में प्रतिभागियों को कई तरह के प्रॉम्प्ट के बारे में जानकारी दी गयी, जैसे सरकारी कार्यालयों के लिए आवेदन पत्र तैयार करना, सरकारी योजनाओं की जानकारी लेना आदि। जैसे-जैसे समुदाय के लोग इन टूल्स को अपनाने लगे, वे स्वयं अपने सवाल भी तैयार करने लगे। उदाहरण के लिए, सरकारी चिट्ठी का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद करना, नई रेसिपी खोजना या अपने बच्चों के स्कूल के लिए छुट्टी की अर्जी लिखना।

हमारे लिए यह समझना जरूरी था कि डिजिटल प्रशिक्षण में हर व्यक्ति की सहजता का स्तर अलग होता है। फीडबैक के दौरान यह बात और पुख्ता रूप से सामने आई। उदाहरण के लिए, शुरुआत में कोर्स की रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया में ओटीपी आधारित लॉगिन की जरूरत थी, जो कई लोगों के लिए चिंता का कारण था। ओटीपी से जुड़े तमाम फर्जीवाड़ों के डर से वह इस प्रक्रिया में असहज महसूस कर रहे थे। इसके बाद हमने बदलाव करते हुए ईमेल आधारित लॉगिन को अपनाया। यह अधिक सुरक्षित था और इसे स्मार्टफोन पर आसानी से किया जा सकता था।

वहीं कुछ प्रतिभागी ऐसे भी थे, जिनके पास स्मार्टफोन नहीं थे। ऐसे लोगों को कोर्स में शामिल रखने के लिए एडु-लीडर्स ने अपने ही डिवाइस के माध्यम से उन्हें प्रशिक्षण दिया या एक डिवाइस के साझा उपयोग का विकल्प भी खुला रखा। उत्साहजनक बात यह है कि कुछ प्रतिभागियों ने इसके बाद खुद स्मार्टफोन खरीदे, ताकि वे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में एआई का लाभ उठा सकें।

अंकिता सिंह आई-सक्षम में एक प्रोग्राम मेंटर के रूप में कार्यरत हैं। इस संस्था का उद्देश्य सामुदायिक विकास प्रयासों के माध्यम से युवा महिलाओं की ‘वॉइस एंड चॉइस’, यानी ‘आवाज और पसंद’ को सशक्त बनाना है।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।

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