मध्य प्रदेश, देश की सबसे अधिक अनुसूचित जनजाति आबादी वाला राज्य है। आमतौर पर आदिवासी समुदायों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती-किसानी और जंगलों से मिलने वाले उत्पाद (वनोपज) होते हैं। लेकिन बीते कुछ समय से जनजातियों लिए जंगल के जरिए अपनी आजीविका को चला पाना उतना आसान नहीं रह गया है। राज्य में आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासी, पीढ़ियों से वन भूमि पर खेती करते आ रहे हैं और कई साल पहले उन्हें इसका अधिकार देने वाला क़ानून – वन अधिकार अधिनियम – भी बन गया है। फिर भी ये लोग बीते कई सालों से अपने वन अधिकारों के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।
वन अधिकार अधिनियम, 2006 (एफआरए) के तहत आदिवासी और वन-निवासी समुदाय, वनों पर व्यक्तिगत अधिकार, सामुदायिक अधिकार और अन्य वन अधिकारों का दावा कर सकते हैं। इसके लिए उनका 13 दिसंबर, 2005 या उससे पहले से इस वन भूमि पर काबिज होना एकमात्र शर्त है। इसके तहत, एक आदिवासी परिवार अधिकतम 10 एकड़ जमीन के लिए दावा कर सकता है। इन दावों की जांच पहले ग्रामसभा, फिर उप-विभागीय स्तर और जिला स्तर पर की जाती है। यदि दावे को निरस्त किया जाता है तो इसका कारण दर्ज कर दावेदारों को सूचित किया जाता है ताकि वे इसके खिलाफ अपील कर सकें।
एफआरए में समस्या शुरू कहां से होती है?
साल 2008 में वन्यजीवों के संरक्षण के लिए काम करने वाले तीन संगठनों ‘वाइल्डलाइफ ट्रस्टी’, ‘नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी’ और ‘टाइगर रिसर्च एंड कंजर्वेशन ट्रस्ट’ ने एफआरए की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी। इस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने सभी राज्यों को निर्देश जारी किए कि वे उन सभी लोगों को वन भूमि से बेदखल कर दें जिनके दावे खारिज किए जा चुके हैं। इस आदेश के चलते देशभर के 20 राज्यों में 1,191,273 आदिवासी बेघर होने की कगार पर आ गए। लेकिन जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) की याचिका के चलते कोर्ट ने दो सप्ताह बाद ही बेदख़ली के आदेश पर रोक लगा दी और सभी राज्यों को एफआरए के दावों की जांच दोबारा करने के निर्देश दिए।
इसी क्रम में, मध्य प्रदेश सरकार ने दिसंबर 2019 में एफआरए के तहत निरस्त किए गए दावों की समीक्षा करने और उनके निराकरण की प्रक्रिया को सरल बनने के लिए मप्र वनमित्र पोर्टल और मोबाइल एप लॉन्च किया था। यह पोर्टल आदिवासी समुदायों की सुविधा के लिए बनाया गया था लेकिन अब इससे उन्हें फ़ायदे की बजाय नुकसान ज्यादा हो रहा है। इस पोर्टल के जरिए मिलने वाले दावों में से 51 प्रतिशत दावों को ख़ारिज कर दिया गया है।
दावा ख़ारिज होने के नुकसान क्या हैं?
मंडला जिले के मोहगांव ब्लॉक के 12 गांवों में आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी अपने वन अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दिसंबर, 2022 में यहां के 300 से अधिक आदिवासियों ने एक अभियान चलाकर कलेक्टर को व्यक्तिगत ज्ञापन दिया है। इसमें शामिल रहे सियाराम झारिया कहते हैं कि ‘मैं जब पैदा भी नहीं हुआ था, तब से करीब आठ एकड़ की इस जमीन पर मेरा परिवार किसानी कर रहा है और यह जमीन ही मेरी एक मात्र आजीविका है।’ उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए सहदेव भवेदी कहते हैं कि ‘हमारी सरकार से मांग है कि वो हमारी जमीन का पट्टा बनाए, पट्टा नहीं होने पर किसी भी तरह की योजना का लाभ नहीं मिल पाता है। दूसरी तरफ वन विभाग की टीम भी मनमानी कार्रवाई करती है। इससे हमें काफी नुकसान होता हैं, हमें न पीएम-सीएम सम्मान निधि मिलती है और न ही खाद-बीज आदि पर सब्सिडी मिल पाती है। इतना ही नहीं हमें बिजली कनेक्शन भी नहीं मिल सका है।’
संघर्ष इतना लंबा क्यों चला?
वन अधिकारों को हासिल करने का संघर्ष कई सालों से चल रहा है क्योंकि ज्यादातर आवेदन बार-बार ख़ारिज हो जाते हैं। आवेदनों के ख़ारिज होने की समस्या कुछ इस तरह है कि बुरहानपुर जिले के सुनोद गांव में रहने वाली भिलाला जनजाति की 75 वर्षीय तुलसिया बाई वनभूमि के अधिकार के तीन बार व्यक्तिगत दावे कर चुकी हैं। वे बताती हैं कि उन्होंने पहली बार 2010 में और दूसरी बार 2013 में ऑफलाइन आवेदन, और फिर 2020 में वनमित्र पोर्टल से ऑनलाइन आवेदन किया था। ये सब रद्द किर दिए गए। 90 बरस के तुकाराम का भी यही क़िस्सा है जो अपनी आठ एकड़ जमीन के लिए बीते दस सालों से सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं। वे कहते हैं कि ‘साल 2013 में मेरे आवेदन को उप-मंडल स्तरीय समिति (एसडीएलसी) द्वारा निरस्त किया गया। वनमित्र पोर्टल से उम्मीद थी पर कुछ नहीं हो सका। मेरा बीस लोगों का परिवार अगर जमीन से बेदख़ल हो गया तो उनके पास कमाने का कोई साधन नहीं रह जाएगा।’ भिलाला के अलावा, बुरहानपुर में रहने वाली अन्य जनजातियों भील, बरेला, गोंड और कोरकू की भी यही स्थिति है।
वन अधिकार कानून एक आदिवासी परिवार को 10 एकड़ तक जमीन का दावा करने का अधिकार देता है।
बुरहानपुर जिले की नेपानगर तहसील की सिवले, ग्राम पंचायत की वन अधिकार समिति (वनाधिकार दावों की भौतिक सत्यापन करने वाली समिति का पहला स्तर) के सचिव अंतराम अवासे बताते हैं कि ‘पंचायत सचिव (ग्रामसभा द्वारा निर्वाचित वन अधिकार समिति के सदस्य) को तालुकदार और वन विभाग के बीट गाइड के साथ दावे की भौतिक जांच के लिए क्षेत्र का दौरा और उसका सत्यापन करना होता है, लेकिन ज्यादातर बार वे ऐसा नहीं करते हैं। ग्रामसभा को इसकी जानकारी भी नहीं देते हैं। इतना ही नहीं, वे अपनी आधिकारिक यूजर आईडी से पोर्टल पर लॉगिन कर नकली प्रस्ताव और पुराने फोटो अपलोड कर दावे खारिज कर देते हैं।’
दूसरे पक्ष पर गौर करें तो सिवले पंचायत के सचिव सुनील पटेल इन तमाम बातों से इनकार करते हुए कहते हैं कि ‘अधिकतर दावे निरस्त होने के पीछे जमीन का खेल होता है। वन अधिकार कानून एक आदिवासी परिवार को 10 एकड़ तक जमीन का दावा करने का अधिकार देता है। लेकिन आदिवासी परिवार जंगल काटकर 20 से 25 एकड़ या उसे ज्यादा की जमीन पर काबिज हो जाते हैं। फिर जब वे दावा करते हैं तो उन्हें नियम की जानकारी मिलती है। नियमों के मुताबिक उस परिवार को 10 एकड़ जमीन का अधिकार मिलने के बाद भी वे उसे छोड़ना नहीं चाहते और परिवार के दूसरे सदस्य के नाम से दावा करते हैं जो ख़ारिज कर दिया जाता है।’
आदिवासी कल्याण विभाग, बुरहानपुर के सहायक आयुक्त लखन अग्रवाल बताते हैं कि ‘2019 में सुप्रीम कोर्ट ने 5,944 खारिज (ऑफलाइन) किए गए दावों की दोबारा जांच के आदेश दिए थे। अब नए दावों के चलते पोर्टल पर इनकी संख्या बढ़कर 10,173 हो गई है। इसके बाद जिले में जून 2020 को पोर्टल बंद कर दिया गया।’
टाइटल डीड का लंबा इंतजार
लेकिन लड़ाई केवल आवेदन स्वीकार हो जाने पर खत्म नहीं हो जाती है। वन अधिकार अधिनियम के दावों की जांच के लिए ग्रामसभा, उप-विभागीय स्तर और जिला स्तर पर की जाती है। यदि दावे को निरस्त किया जाता है तो इसका कारण दर्ज कर दावेदारों को सूचित भी किया जाता है, ताकि वे इसके खिलाफ अपील कर सकें। लेकिन बीते कुछ समय से देखा जा रहा है कि प्रदेश में अक्सर दावेदारों को यह मौक़ा नहीं दिया जा रहा है यानी उन्हें दावा निरस्त होने की सूचना तक नहीं दी जा रही है। यहां तक कि जिन लोगों का नाम एफआरए के अनुसार व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) दावा स्वीकार भी कर लिया गया है, उन्हें एक और समस्या का सामना करना पड़ रहा हैं – उन्हें टाइटल डीड की कॉपी नहीं मिल रही है।
टाइटल डीड हासिल करना भी लोगों के लिए एक अलग संघर्ष है। टाइटल डीड एक ऐसा दस्तावेज है जो आदिवासियों या किसी भी भूमि मालिक को उसकी जमीन पर पूरा अधिकार देता है। ये अधिकार उन्हें भूमि के मनचाहे उपयोग और विभिन्न सरकारी योजनाओं के योग्य बनाते हैं। विदिशा जिले में, गंजबासौदा तहसील के लमन्या गांव में रहने वाले रतन सिंह बताते हैं कि साल 2009 में किसी सरकार कार्यक्रम में उन्हें और 28 अन्य आदिवासियों को मुख्यमंत्री से एक पत्र मिला था। वे कहते हैं कि ‘हम कृषि संबंधित सभी योजनाओं का लाभ पाने के हकदार हैं क्योंकि हमें कुछ साल पहले वन भूमि अधिकार के नाम पर एक सरकारी पत्र दिया गया था। लेकिन आज तक खेती से संबंधित किसी भी योजना का लाभ हमें नहीं मिल सका है।’
दरअसल, रतन सिंह को मुख्यमंत्री से मिलने वाला पत्र टाइटल डीड नहीं बल्कि एक शुभकामना पत्र जिसमें लिखा है कि वे जंगल के हक़दार है। यह समस्या अकेले रतन सिंह की नहीं हैं बल्कि ऐसे तमाम लोगों की है जिन्हें वन अधिकार के लिए पात्र घोषित किया गया है लेकिन टाइटल डीड की कॉपी नहीं सौंपी गई है। इस वजह से वे अधिकार हासिल करने के बाद भी कई बार न तो भूमि का उपयोग कर पाते हैं और न ही सरकारी योजनाओं के लाभ ले पाते हैं क्योंकि उन्हें पता ही नहीं होता कि कहां पर और कौन सी जमीन उन्हें आवंटित की गई है। बिना कानूनी हक के उनके लिए खेती करना मुश्किल होता जा रहा है। रतन सिंह कहते है, ‘हमें कुएं-पंप और खाद के लिए सब्सिडी नहीं मिल सकती हैं, हम प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए आवेदन भी नहीं कर सकते हैं। इतना ही नहीं हमें तो पीएम-सीएम किसान सम्मान निधि योजना का लाभ भी नहीं मिल रहा हैं।’
रतन सिंह के पड़ोस में रहने वाली तुलसाबाई औतार और अन्य आदिवासी भी यह दोहराते दिखते हैं कि उन्हें वन अधिकार पत्र तो मिले हैं, लेकिन वे उनके किसी काम के नहीं हैं। तुलसाबाई के मुताबिक ‘इस पत्र में कहीं पर भी यह नहीं लिखा कि हमें कितनी जमीन का अधिकार दिया गया है, इसकी वजह से किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल रहा हैं।’ वहीं, बड़वानी जिले की ग्राम पंचायत सिदड़ी ग्राम खड़क्यामूह फूलवंती बाई कहती हैं कि ‘मेरा 6 एकड़ जमीन का दावा साल 2020 में मंजूरी हो चुका हैं लेकिन मुझे अभी दावा पत्र नहीं मिला है। वे अफसोस जताते हुए कहती हैं कि ‘जब तक हमारे पास कागज नहीं होंगे, हम प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत कुआं नहीं खोद सकते या घर के लिए आवेदन नहीं कर सकते। इसकी वजह से सब कुछ अटका हुआ है।’
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