महाराष्ट्र का मराठवाड़ा ऐतिहासिक रूप से सुख-ग्रस्त इलाक़ा है। पिछले कुछ वर्षों से इस इलाक़े के लगभग हर परिवार की पैदावार नष्ट हो जा रही है। खेती से जुड़े इस संकट के कारण महिलाओं और लड़कियों का स्वास्थ्य भी प्रभवित हुआ है और अपने निचले स्तर पर पहुंच चुका है।
2007 और 2008 के गम्भीर सूखे के बाद पारिस्थितिक रूप से कमजोर क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियों के लिए काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था ने तय किया कि वे इस स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करेंगी। इस मामले में इस संस्था ने समस्या की गहराई और उसकी विस्तार को समझने के लिए प्रभावित इलाक़ों में स्वास्थ्य सर्वे करवाया। सर्वे पर काम करने वाली उस्मानाबाद की एक कृषि उद्यमी गोदावरी डांगे का कहना है कि “ऐसी भी औरतें और लड़कियां थीं जिनका हीमोग्लोबिन स्तर 5 से भी कम था।” खून की कमी, कुपोषण, निम प्रतिरोधक क्षमता जैसे मामले बहुत अधिक थे।
इस स्थिति के पीछे कई जटिल कारण थे। लेकिन ये सभी कारण इस क्षेत्र में नक़दी फसल पर निर्भरता और उनके बढ़ते वर्चस्व के नीचे दबा दिए गए थे। बढ़ते कर्ज और गिरते जल स्तर के बावजूद उच्च जाति और धनी जोत वाले किसानों ने प्रति हेक्टेयर में पानी के अधिक लागत वाली नकदी फसलों की खेती जारी रखी। नक़दी फसलों की खेती का एक दूसरा मतलब यह भी था कि खाने वाले अनाजों को खेतों में उगाने के बजाय उन्हें बाहर बाज़ार से ख़रीदना। ये खाद्य पदार्थ ना केवल ख़राब गुणवत्ता वाले थे बल्कि इनकी मात्रा भी कम होती थी। घरों में जब खाना खाने की बारी आती है तो इस क़तार में औरतें अक्सर अंत में खड़ी होती हैं। जिसका सीधा मतलब यह है कि वे बचा-खुचा खाना खा रही हैं जिसमें पोषक तत्वों की कमी होती है। चूँकि खेती के लिए किए जाने फसलों के चुनाव में महिलाओं की भूमिका नहीं होती है इसलिए उनके स्वास्थ्य को बेहतर रखने वाले आवश्यक फसलों की खेती में कमी आती गई और गन्ना और सोयाबीन जैसे फसल खेतों में भारी मात्रा में उगाए जाने लगे।
बाद के महीनों में डांगे के साथ छह महिला किसानों ने मिलकर उस्मानाबाद में वैकल्पिक खेती का एक मॉडल विकसित किया। इस नए मॉडल ने महिलाओं को मौसमी खाद्य वाली फसलें जैसे कि सब्ज़ियाँ, दाल और जौ-बाजरे जैसी फसलें उगाने में सहायता की। इस मॉडल के तहत महिलाओं को अपने पारिवारिक ज़मीन के आधे से एक एकड़ में फूलगोभी, टमाटर, जौ-बाजरा, पालक और पटसन के बीज और अन्य मौसमी सब्ज़ियों सहित ऐसे 36 विभिन्न क़िस्म के फसलों को उगाने के लिए बढ़ावा दिया गया। ये फसलें न केवल पौष्टिक थीं बल्कि इन्हें उगाने से महिलाओं को अपने परिवार के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था करने में मदद मिली। इसके अतिरिक्त इन फसलों की खेती में पानी का खर्च भी बहुत कम होता है। इस मॉडल को स्थानीय रूप से ‘एक-एकड़ मॉडल’ के रूप से लोकप्रियता मिली। 2008 में केवल छह महिलाओं द्वारा शुरू किये गए इस एक-एकड़ मॉडल को आज की तारीख़ में उस्मानाबाद, लातूर और सोलापुर ज़िले के लगभग 500 गांवों की 60,000 महिलाओं ने अपना लिया है।
इसके बाद से इन ज़िलों की महिलाओं के स्वास्थ्य में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। इस मॉडल से खेती करने वाली कई महिलाओं का कहना है कि वे अब अधिक स्वस्थ और ऊर्जावान महसूस करती हैं। डांगे ने बताया कि “इस इलाक़े में औरतें अब कम अस्पताल जाती हैं और दवाइयों पर होने वाले खर्चे में भी कमी आई है।”
मैत्री डोर मुंबई स्थित एक आर्किटेक्ट और स्वतंत्र चित्रकार हैं। रीतिका रेवती सुब्रमण्यम कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पीएचडी की छात्रा हैं।
गोएथे-इंस्टीट्यूट इंडोनेशियन के ‘मूवमेंट्स एंड मोमेंट्स’ प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में प्रकाशित कॉमिक बुक रेनड्रॉप इन द ड्रॉट: गोदावरी डांगे के माध्यम से एक एकड़ खेती मॉडल के बारे में विस्तार से जानें।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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अधिक जानें: जानें कि महिला किसानों को कार्यभार सम्भालने के लिए स्वयंसेवी संस्थानों को एक इकोसिस्टम बनाने की ज़रूरत क्यों है।
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