कानपुर जिले के घाटमपुर में ईंट भट्ठों में काम करने वाली महिलाओं के लिए आज भी मासिक धर्म के दौरान स्वच्छ रह पाना एक बड़ी चुनौती है। यहां की ज्यादातर महिलाओं के लिए सेनेटरी पैड जैसी जरूरी चीजें उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में वे मजबूरन पुराने कपड़ों के टुकड़ों का इस्तेमाल करती हैं, जिससे उन्हें संक्रमण और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बना रहता है।
इन महिलाओं के लिए मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता बनाये रखने में सबसे बड़ी रुकावट है—पैसों की तंगी। नेहा*, जो यहां एक ईंट भट्ठे में काम करती हैं, बताती हैं, “हम कपड़ा लगाते हैं, लेकिन उससे जलन और खुजली होती है। पैड हमारी पहुंच से बाहर हैं, क्योंकि वो इतने महंगे होते हैं! इसलिए हम वही पुराना कपड़ा बार-बार धुलकर इस्तेमाल करते हैं।”
शमा* कहती हैं, “जो भी कपड़ा मिल जाए, हम वही इस्तेमाल कर लेते हैं। सूती हो या जॉर्जेट, इससे फर्क नहीं पड़ता। जब बच्चों के कपड़े कट-फट जाते हैं, तो हम उनसे ही काम चला लेते हैं। जैसे मेरे घर में पांच लड़कियां हैं, जिनमें से तीन कपड़े का ही इस्तेमाल करती हैं।”
ईंट भट्ठों में काम करने वाली महिलाओं को मात्र 250 रूपए दिहाड़ी मिलती है, जबकि पुरुषों को 300 रूपए। इतनी कम कमाई के चलते सेनेटरी पैड जैसी चीजें उनके लिए जरूरत नहीं, बल्कि लग्जरी बन जाती हैं। साथ ही उन्हें सबसे नजदीकी दुकान के लिए भी 2-3 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है । ऐसे में वहां से पैड खरीदने में उनका काम का समय निकल जाता है, जिसका सीधा असर उनकी कमाई पर पड़ता है। इसलिए उनके लिए पैड खरीदना सिर्फ महंगा ही नहीं, बल्कि मुश्किल भी है।
ईंट भट्ठों की महिला कर्मियों की दिनचर्या बेहद कठिन होती है। ऐसे में अगर उन्हें कोई संक्रमण हो जाए, तो हालात और भी खराब हो जाते हैं। वे रोज 12-14 घंटे लगातार मेहनत करती हैं, जिसमें मिट्टी गूंथना, भारी बोझ उठाना और ईंट बनाने जैसे काम शामिल होते हैं। मासिक धर्म के दौरान भी उन्हें इससे कोई राहत नहीं मिलती। काम के दौरान उन्हें ठीक से बाथरूम जाने तक का समय नहीं मिल पाता। साफ-सफाई की कमी और इतनी कड़ी मेहनत का उनके शरीर पर बुरा असर पड़ता है, जिससे उन्हें पेशाब और प्रजनन संबंधी बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है।
रेखा* कहती हैं, “मासिक धर्म में हमें बार-बार कपड़ा बदलने का समय नहीं मिलता।इससे खुजली होने लगती है। कभी-कभी कपड़ा खिसक कर गिर भी जाता है, जिससे और परेशानी होती है।” इस स्थिति के चलते ही एक बार रेखा को संक्रमण हो गया था, जिसके इलाज में उन्हें 5000 रूपए खर्च करने पड़े। स्थानीय डॉक्टर इलाज नहीं कर पाए, इसलिए उन्हें शहर के अस्पताल भेजा गया, जहां इलाज और भी महंगा था। ऐसे हालात में महिलाओं के लिए मासिक धर्म सिर्फ एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक विषम चुनौती बन जाता है।
स्वास्थ्य सेवाएं भी अक्सर इन महिलाओं की जरूरतों को नजरअंदाज कर देती हैं। शमा* कहती हैं, “आशा, एएनएम और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता कभी हमारा हाल तक पूछने नहीं आते।” वहीं स्वास्थ्य कर्मियों का कहना है कि उन्हें कभी यह जिम्मेदारी सौंपी ही नहीं गयी। घाटमपुर की आशा कार्यकर्ता रत्नांजली बताती हैं कि उन्हें इन महिलाओं को सेनेटरी पैड देने की कोई जानकारी ही नहीं दी गयी।
चूंकि इन समस्याओं के समाधान के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये गए हैं , इसलिए घाटमपुर की ईंट भट्ठों में काम करने वाली महिलाएं आज भी मासिक धर्म के दौरान शारीरिक और आर्थिक परेशानियां झेलने के लिए विवश हैं। उनके लिए यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं, बल्कि रोजमर्रा की एक कठिन चुनौती है।
*पहचान गोपनीय रखने के लिए नाम बदले गए हैं।
सोनी और उर्मिला देवी उड़ान फैलोशिप की फैलो हैं। यह फैलोशिप बुनियाद और चंबल एकेडमी द्वारा समर्थित है। उड़ान फैलो काजल, केतकी, अंजू और रचना ने इस लेख में योगदान दिया है। इस लेख के शोध और लेखन में सेजल पटेल ने भी सहयोग किया है।
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