भारत के जंगल केवल प्राकृतिक संसाधन नहीं, बल्कि लाखों परिवारों की आजीविका, संस्कृति और पहचान का आधार भी हैं। इन जंगलों से जुड़े समुदायों के पारंपरिक अधिकारों को वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) और पंचायती (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम (पेसा) जैसे कानून संवैधानिक मान्यता देते हैं। ऐसे में जब हम ‘अधिकार’ की बात करते हैं तो भाषा बहुत मायने रखती है। इन कानूनों की भाषा अक्सर जटिल और तकनीकी होती है, जिसके चलते लोग अपने ही अधिकारों से दूरी महसूस करते हैं। यह दूरी केवल भाषाई नहीं, बल्कि समझ और भागीदारी की भी होती है।
हमारा मानना है कि इन कानूनों की समझ तभी गहरी हो सकती है, जब हम उनसे जुड़े शब्दों के अर्थ को समुदायों के नजरिए से समझें। ऐसे में, एक सरल शब्दकोष तैयार करना इसलिए आवश्यक है ताकि जिन आम लोगों और समुदायों के लिए ये कानून बनाए गए हैं, वे इन्हें बेहतर समझ सकें। साथ ही कार्यकर्ता, संस्थाएं, विद्यार्थी, अधिकारी और नीति-निर्माता भी इन शब्दों के अर्थ, संदर्भ और महत्व को स्पष्ट रूप से जान सकें।
यह पहल ज्ञान को लोकतांत्रिक बनाने की दिशा में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम है। कारण यह कि अधिकार केवल कागजों में नहीं, समझ और संवाद में जीवित रहते हैं। यह शब्दकोष उसी समझ और संवाद को आगे बढ़ाने का एक प्रयास है।
1. अनुसूचित जनजाति
अनुसूचित जनजातियां भारत के वे आदिवासी समुदाय हैं, जिन्हें भारतीय संविधान में विशेष रूप से अधिसूचित या सूचीबद्ध किया गया है, ताकि उन्हें ऐतिहासिक रूप से हुए सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक भेदभाव से उभरने में मदद मिल सके। ये वे समुदाय हैं, जो पीढ़ियों से जंगलों, पहाड़ों और गांवों में रहते आए हैं और जिनकी संस्कृति, भाषा, परंपराएं और जीवनशैली बाकी समुदायों से अलग हैं। भारत में कई घुमंतू व चरवाहा समुदाय हैं जिन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के रूप में अधिसूचित किया गया है, लेकिन उनकी सूची और वर्गीकरण राज्यों के अनुसार अलग-अलग हैं।
अनुसूचित जनजातियों को संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत मान्यता दी गयी है। इनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान में पांचवीं और छठी अनुसूचियां बनायी गयी हैं, जिनमें स्वशासन, भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर समुदाय के नियंत्रण की व्यवस्था है। साथ ही, पेसा अधिनियम और वन अधिकार अधिनियम इन जनजातियों के पारंपरिक जीवन, संस्कृति और जंगल से जुड़े अधिकारों को कानूनी मान्यता प्रदान करते हैं।
2. अन्य परंपरागत वन निवासी
अन्य परंपरागत वन निवासी वे लोग हैं जो अनुसूचित जनजातियों में नहीं आते, लेकिन पीढ़ियों से जंगलों से अपना जीवनयापन करते आए हैं। ये समुदाय जंगल से लकड़ी, चारा, फल, औषधियां, लघु वनोपज जैसी चीजें लेते हैं या खेती-बाड़ी के लिए जंगल की जमीन का उपयोग करते हैं।
एफआरए में इस शब्द का जिक्र पहली बार आता है। जब इस कानून के बनने की कवायद हुई, तो कई ऐसे गैर-आदिवासी समुदायों की मुश्किलें सामने आयीं जो हमेशा से जंगलों में रहे हैं, पर उन्हें कोई भी कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं थे। कानून की धारा 2(ओ) के अनुसार, ऐसे व्यक्ति या समुदाय जो कम-से-कम तीन पीढ़ियों (लगभग 75 वर्ष) से जंगलों में रह रहे हैं और आजीविका के लिए जंगल पर निर्भर हैं, उन्हें ‘अन्य परंपरागत वन निवासी’ माना गया है।

वन अधिकार कानून उन्हें भी जंगल में रहने, खेती करने, लघु वनोपज एकत्र करने और सामुदायिक वन संसाधनों पर अधिकार देता है। ऐसे समुदायों में गुर्जर, यादव, कोल, धानुक, लोधी, नाई, बढ़ई, लोहार, चर्मकार, या वन सीमा के पास बसे ग्रामीण समुदाय शामिल हो सकते हैं। ऐसे समुदाय भले ही ‘जनजाति’ न हों, पर जंगल से अपनी आजीविका और परंपरागत जरूरतों की पूर्ति करते हैं।
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3. ऐतिहासिक अन्याय
ऐतिहासिक अन्याय से आशय उस लम्बे समय से चले आ रहे अन्याय से है, जो आदिवासी और वनाश्रित समुदायों के साथ हुआ है। उदाहरण के लिए, उन्हें जंगलों से बेदखल करना, उनके परंपरागत अधिकारों का हनन और सरकारी कानूनों के जरिए उनकी जमीनों व संसाधनों से उन्हें वंचित करना।
औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश शासन ने जंगलों को ‘सरकारी संपत्ति’ घोषित किया था। भारतीय वन अधिनियम (1865, 1878, 1927) के माध्यम से राज्य ने जंगलों पर नियंत्रण स्थापित किया, जिसके तहत समुदायों के निस्तार अधिकार, लघु वनोपज संग्रहण और पारंपरिक उपयोग प्रतिबंधित कर दिए गए। आजादी के बाद भी कई दशकों तक यह अन्याय जारी रहा, क्योंकि समुदायों को अधिकारों की कानूनी मान्यता नहीं मिली।
इसी ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने के लिए वन अधिकार अधिनियम बनाया गया। इसकी प्रस्तावना में स्पष्ट कहा गया है कि यह कानून ‘ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने’ के उद्देश्य से बनाया गया है, ताकि जंगल के असली संरक्षक अपने जीवन, आजीविका और गरिमा के साथ रह सकें।
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4. जंगल
जंगल वह प्राकृतिक क्षेत्र है, जहां पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, जलस्रोत, मिट्टी और मनुष्य एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं तथा मिलकर एक जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र बनाते हैं। जंगल केवल पेड़ों का समूह नहीं, बल्कि जीवन, संस्कृति और पर्यावरणीय संतुलन का आधार है। आदिवासी और वन-निवासी समुदायों के लिए जंगल उनका घर, पहचान और आजीविका का मुख्य स्रोत है।
वन अधिकार अधिनियम के अनुसार, वन केवल सरकारी सीमाओं या आरक्षित इलाकों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें वह सभी भूभाग शामिल हैं, जिनका समुदायों ने पारंपरिक रूप से उपयोग किया है। जैसे, ग्राम वन, निस्तार भूमि या राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज वन क्षेत्र आदि। एफआरए यह मान्यता देता है कि जंगल केवल पर्यावरणीय संसाधन नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के जीवन और अस्तित्व का आधार हैं।
भारतीय वन अधिनियम (1927), वन संरक्षण अधिनियम (1980) और सुप्रीम कोर्ट के गोदावर्मन केस (1996) में वन की यही व्यापक परिभाषा दी गयी है। संविधान के अनुच्छेद 48ए और 51ए(जी) वनों की रक्षा को राज्य और नागरिक दोनों का कर्तव्य मानते हैं।
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5. सहजीवी संबंध
सहजीवी संबंध का अर्थ है दो या अधिक प्राणियों या तंत्रों का ऐसा रिश्ता, जहां वे एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं और एक-दूसरे के अस्तित्व को सहारा देते हैं।
वन अधिकार अधिनियम की प्रस्तावना में उल्लेखित ‘सहजीवी संबंध’ का तात्पर्य है जंगल और वन-आश्रित समुदायों के बीच पारस्परिक निर्भरता का रिश्ता, जिसमें दोनों एक-दूसरे के अस्तित्व और संरक्षण के लिए आवश्यक हैं। यह संबंध शोषण नहीं, बल्कि संतुलन और सहयोग पर आधारित है। समुदाय जंगल से अपनी आजीविका, भोजन, दवा और जीवन के संसाधन प्राप्त करते हैं, और बदले में जंगल की रक्षा, पुनर्जीवन और संरक्षण का जिम्मा संभालते हैं।
इस दृष्टि से कानून भी जंगल को केवल राज्य संपत्ति नहीं, बल्कि एक जीवित पारिस्थितिकी तंत्र मानता है। इस हिसाब से समुदाय जंगल के संरक्षक और साझेदार दोनों हैं। इस संबंध की मान्यता से कानून यह सुनिश्चित करता है कि वन संसाधनों का उपयोग टिकाऊ तरीके से हो और पारंपरिक ज्ञान व संरक्षण की परंपरा बनी रहे। अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संधि और सम्मेलनों में इस पारस्परिक संबंध को बेहद जरूरी माना गया है।
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6. गौण/अकाष्ठ/लघु वन उपज (नॉन टिंबर या माइनर फॉरेस्ट प्रोड्यूस)
ब्रिटिश काल से ही जंगलों को सरकारी संपत्ति माना गया है और तब से ही सरकारी व्यवस्था ने इमारती लकड़ी पर अपना एकाधिकार सुनिश्चित किया हुआ है। जंगल से मिलने वाली बाकी चीजें ‘लघु वन उपज’ की तरह वर्गीकृत की गयी हैं। इन दोनों वर्गों को लेकर अलग-अलग नियम कायदे हैं और इसकी खरीद-फरोख्त को लेकर भी सरकार द्वारा कई नियम लागू होते हैं।
लघु वन उपज, पेड़ पौधों से मिलने वाली वे चीजें हैं (लकड़ी के अतिरिक्त), जिन्हें समुदाय को जंगल से लाने का अधिकार होता है। उदाहरण के लिए, महुआ, तेंदू पत्ता, चिरौंजी, साल बीज, टसर कोकून, बांस, बेंत, गोंद, लाख और शहद आदि। सूखे/मरे हुए पेड़ों की छोटी लकड़ी के टुकड़े या टूटी हुई सूखी टहनियां ईंधन की लकड़ी (ब्रशवुड) के रूप में लघु वन उपज में आती हैं। यह गौरतलब है कि वन अधिकार कानून आने के बाद भी संसाधनों पर मान्यता का दायरा सिर्फ लघु वन उपज तक सीमित है। इमारती लकड़ी आज भी पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में है।
लघु वन उपज का उपयोग समुदायों की पारंपरिक जीवन शैली, वन अधिकार, पोषण, स्वास्थ्य, आजीविका, सहकारिता से जुड़ा हुआ है, जिसके उचित उपयोग के लिए सामुदायिक संसाधनों के अधिकार की मान्यता मिलना बहुत जरूरी है।
7. निस्तार
निस्तार का अर्थ उन पारंपरिक अधिकारों से है, जिनके तहत गांवों या जंगलों के आसपास रहने वाले लोग अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताओं के लिए जंगल पर आश्रित होते हैं। इनमें लकड़ी, घास, चारा, पानी, मिट्टी, पत्थर, फल-फूल, कंद-मूल, औषधीय पौधे, बांस, अन्य लघु वनोपज और चराई के क्षेत्र आदि शामिल हैं। ये अधिकार जीवन-निर्वाह और परंपरागत उपयोग के लिए हैं, न कि किसी व्यावसायिक लाभ के लिए। इन्हें लघु वन उपज से अलग देखे जाने की भी जरूरत है। निस्तार का दायरा पारंपरिक अधिकारों के तहत वृहद होता है, जबकि कानून द्वारा परिभाषित कुछ चिह्नित वन उत्पाद लघु वन उपज में आते हैं।
ब्रिटिश काल से पूर्व से ही, निस्तार को परंपरागत सामुदायिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गयी है। यह वन-आश्रित समुदायों की जीवन-शैली और प्रकृति के साथ उनके सहजीवी संबंध का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। कानूनी रूप से, भारतीय वन अधिनियम 1927 (धारा 28, 29, 34) और वन अधिकार अधिनियम 2006 (धारा 3(1)(d)) इन अधिकारों को मान्यता और संरक्षण प्रदान करते हैं।
8. सामुदायिक वन संसाधन अधिकार
गांव की परंपरागत सीमा में आने वाले आरक्षित वन, अभ्यारण, राष्ट्रीय उद्यानों और संरक्षित वन भूमि तथा सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज किसान की वनभूमि पर वन अधिकार अधिनियम लागू होता है। वन अधिकार अधिनियम, ऐसे क्षेत्र के तहत आने वाले वन संसाधनों पर ग्रामसभा और गांव में रहने वाले समुदायों के अधिकार से संबंधित है। इन्हें सामुदायिक वन संसाधन अधिकार कहा जाता है। सामुदायिक वन संसाधन वह वन भूमि है, जो किसी समुदाय और गांव के द्वारा इस्तेमाल करने के लिए पारंपरिक रूप से आरक्षित और संरक्षित की गयी है। इन अधिकारों के माध्यम से समुदाय वनों को अत्यधिक दोहन से बचा सकते हैं। यह अधिकार वन अधिकार अधिनियम की धारा 3(1)(i) और नियम 12 के अंतर्गत दिया गया है।

इन अधिकारों के तहत ग्राम सभा लकड़ी, चारा, जल, लघु वन उपज और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के सामूहिक उपयोग और नियंत्रण का अधिकार रखती है। यह समुदाय को ‘जंगल के मालिक’ नहीं, बल्कि ‘संरक्षक और निर्णयकर्ता’ के रूप में मान्यता देता है।
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9. नजरी नक्शा
नजरी नक्शा वह मानचित्र है, जिसे गांव या समुदाय द्वारा अपने सामुदायिक वन संसाधन क्षेत्र को दर्शाने के लिए तैयार किया जाता है। यह नक्शा गांव की पारंपरिक सीमाओं, जलस्रोतों, मंदिरों, चरागाहों, खेती या उपयोग की जमीन, रास्तों और अन्य स्थलों को स्थानीय जानकारी के आधार पर दिखाता है।
गांव के लोग स्वाभाविक रूप से जानते हैं कि उनके गांव की सीमा कहां तक जाती है या कौन-से चिन्ह (जैसे, पेड़, नदी, पत्थर या टीले) इन सीमाओं को दर्शाते हैं। इन्हीं परंपरागत संकेतों और स्थानीय ज्ञान के आधार पर नजरी नक्शा बनाया जाता है। यही कारण है कि इसे ‘नजरी’, यानी अनुमान आधारित नक्शा कहा जाता है।
वन अधिकार अधिनियम के तहत यह नक्शा सामुदायिक या व्यक्तिगत अधिकारों के दावे में एक महत्वपूर्ण साक्ष्य होता है। ग्राम सभा द्वारा इसका सत्यापन किया जाता है और फिर इसे वन अधिकार समिति, उप-खंड व जिला समिति को भेजा जाता है। यह समुदाय के परंपरागत भू-ज्ञान और अधिकारों का दस्तावेज है।
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10. पारंपरिक सीमा
पारंपरिक सीमा वह भौगोलिक और सांस्कृतिक रेखा है, जो किसी गांव या समुदाय द्वारा पीढ़ियों से अपने क्षेत्र की पहचान के रूप में स्वीकार की गयी है। यह सीमा अक्सर नदी, पहाड़ी, पेड़, चट्टान, या पगडंडी जैसे प्राकृतिक चिन्हों से तय होती है और समुदाय की स्थानीय स्मृति, भूगोल और जीवन-पद्धति का हिस्सा होती है।
वन अधिकार अधिनियम की धारा 2(क) के अनुसार, पारंपरिक सीमा में वह समूचा क्षेत्र शामिल है जहां समुदायों ने परंपरागत रूप से वन भूमि, चरागाह या अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया है — चाहे वह आरक्षित या संरक्षित वन अथवा राष्ट्रीय उद्यान क्यों न हों।
जब ग्राम सभा सामुदायिक वन संसाधन का दावा करती है, तो वह इसी सीमा के आधार पर क्षेत्र चिन्हित करती है, जिसे नक्शे, मौखिक साक्ष्य या स्थानीय परंपराओं से प्रमाणित किया जा सकता है। इस प्रकार, पारंपरिक सीमा केवल प्रशासनिक अवधारणा नहीं, बल्कि स्थानीय पहचान, सांस्कृतिक अधिकार और न्यायपूर्ण शासन की नींव है।
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इस लेख को तैयार करने में श्रुति टीम से तेजस्विता मल्होत्रा और अन्य साथियों ने योगदान दिया है।
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