वैसे तो भारत में बहुत पुराने समय से पंचायतें अस्तित्व में रही हैं। लेकिन, 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1992 के साथ, पंचायती राज संस्थानों (पंचायती राज इंस्टीट्यूशन्स – पीआरआई) को 29 विषयों पर संवैधानिक अधिकार दिए गए थे। इनमें कृषि, भूमि सुधार, लघु सिंचाई, वाटरशेड विकास और पशुपालन शामिल थे। शासन के सबसे निचले स्तर या ग्राम पंचायतों को सत्ता के इस हस्तांतरण का उद्देश्य ग्रामीण समुदायों को सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास को लेकर काम करने के लिए सशक्त बनाना था।
भारत जैसे देश में, जहां अधिकांश ग्रामीण आबादी की मुख्य आजीविका आज भी खेती है। उसके लिए गांव की समृद्धि की खातिर खेती को व्यवहार्य और लंबे समय तक चलते रहने वाला बनाना ज़रूरी है। हालांकि, कृषि क्षेत्र को अपनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे भूजल स्तर में गिरावट, मिट्टी की खराब गुणवत्ता, जलवायु का लगातार बदलते रहना और घटती कृषि आय। कृषि को सुरक्षित करने के लिए सामूहिक और समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
कृषि व्यवहार्यता यानी खेती का फायदेमंद होना सबसे अधिक पानी पर निर्भर करता है। भूमिगत जल और सतह पर मौजूद पानी, दोनों सामूहिक संसाधन हैं और समुदाय की अल्पकालिक और दीर्घकालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए योजना और कार्यान्वयन की आवश्यकता होती है। पानी की समस्या अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह की होती है। जल संकट के प्रकारों – बहुत अधिक बारिश, बहुत कम बारिश, गलत समय पर बारिश, सिंचाई के पानी की अनुपलब्धता, वग़ैरह – को देखते हुए स्थानीय सरकारें क्षेत्रीय जल चुनौती से निपटने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। चूंकि पानी एक स्थानीय संसाधन है, यह स्थानीय सरकारों का प्राकृतिक डोमेन है।
चूके हुए अवसर
पिछले कई दशकों में, सरकारों के प्रयास इस पर केंद्रित रहे हैं कि ग्राम पंचायतों को शक्तियां सौंपी जाएं और उन्हें अधिक धन उपलब्ध कराया जाए। आज ग्राम पंचायतें, सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की प्लानिंग तैयार करने और उन्हें लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उन्हें केंद्रीय वित्त आयोग (सेंट्रल फ़ायनेंस कमीशन – सीएफसी), राज्य वित्त आयोग (स्टेट फ़ायनेंस कमीशन – एसएफसी), और उनके स्वयं के राजस्व स्रोतों से धन मिलता है। इसके अलावा, ग्राम पंचायतों को मनरेगा जैसे प्रमुख सरकारी कार्यक्रमों को सीधे लागू करने का आदेश दिया गया है।
इन उपायों के बावजूद, ग्राम पंचायतों को खुद को मिले जनादेश को प्रभावी ढंग से पूरा करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। प्रत्येक ग्राम पंचायत को ग्राम सभाएं आयोजित करनी होती हैं जो समुदायों के लिए विकास योजना प्रक्रिया में भाग लेने और उनका योगदान देने का मंच है। हालांकि, इस प्रक्रिया को अक्सर निम्नलिखित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है:
दूरदर्शी नज़रिया न होना
अक्सर ध्यान लंबे समय तक चलने वाले समाधानों की बजाय अल्पकालिक कार्रवाइयों पर केंद्रित किया जाता है। सही इरादों के साथ चलाए गए कई कार्यक्रम और योजनाएं अनगिनत ग्रामीण चुनौतियों का समाधान करती है जैसे – अस्थायी रोजगार पैदा करना और लंबे समय तक चलने वाला ऐसा बुनियादी ढांचा बनाना जो पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कर, खेती को सुरक्षित बनाता है। हालांकि ये योजनाएं एक स्थाई संभावना तैयार करने से चूक जाती हैं। उदाहरण के लिए, जल संग्रहण के साधनों पर काम करना पानी से जुड़े प्रयासों में पहली वरीयता होनी चाहिए। नतीजतन, किसी कार्यक्रम के लिए आवंटित धन ख़त्म हो जाता है लेकिन समुदाय की समस्या फिर भी हल नहीं हो पाती है।
क्षमताओं का न होना
विकेंद्रीकरण के साथ, ग्राम पंचायतों की जिम्मेदारियां कई गुना बढ़ गई हैं। उदाहरण के लिए, प्रत्येक ग्राम पंचायत को शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि जैसे विभिन्न विषयों से संबंधित कार्यक्रमों को ज़मीन पर लाने का काम सौंपा गया है। हालांकि, उनके पास दिए गए सभी कामों और ज़िम्मेदारियों को कुशलतापूर्वक पूरा करने के लिए पर्याप्त और नियमित कर्मचारी नहीं होते हैं।
योग्यता ना होना
पंचायती राज संस्थानों के ज़मीनी पदाधिकारी तकनीक के बढ़ते उपयोग को समझने में सक्षम नहीं हैं। उदाहरण के लिए, मनरेगा के तहत, सभी संरक्षण प्रयासों और बुनियादी ढांचे को उचित रूप से (वॉटरशेड के भीतर) और जियोटैग किया जाना आवश्यक है, लेकिन अक्सर इसे अच्छी तरह से या सटीक रूप से लागू करने के लिए पंचायत स्तर पर कोई आईटी संसाधन उपलब्ध नहीं होता है। इस प्रकार, बनाया गया संरक्षण बुनियादी ढांचा या तो उस स्थान के लिए उपयुक्त नहीं है या उसकी पानी तक पहुंच नहीं है। कार्यक्रम कार्यान्वयन की बेहतर गुणवत्ता के लिए पंचायती राज संस्थानों के कार्यकर्ताओं में कौशल विकसित करना जरूरी है।
भागीदारी ना होना
ग्राम सभाएं साल में दो बार आयोजित की जाती है। इससे सदस्यों के लिए मिलकर, गांव के स्तर पर एक सुगठित और प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर कार्ययोजना बनाना मुश्किल हो जाता है। हालांकि अब ग्राम सभाओं की संख्या बढ़ा दी गई है लेकिन बावजूद इसके, बैठकें फिर भी बहुत कमहोती हैं या उनमें सीमित प्रतिनिधित्व होता है जिससे कार्य योजना तैयार करना और उस पर फ़ैसले लेना मुश्किल हो जाता है।
छत्तीसगढ़ में ग्राम पंचायतें कैसे अंतर ला पा रही हैं
छत्तीसगढ़ में ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया (टीआरआई) और हिंदुस्तान यूनिलीवर फाउंडेशन (एचयूएफ) साझेदारी पंचायतों को विभिन्न स्तरों पर सामूहिक कार्रवाई करने में सक्षम बनाती हैं। छत्तीसगढ़ के दक्षिणी पठार में मानसून के दौरान बहुत वर्षा होती है, लेकिन साल के अधिकांश समय, विशेषकर गर्मियों में, सूखे जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है। पंचायती राज मंत्रालय ने 17 सतत विकास लक्ष्यों को नौ विषयों में बांटा है जो ग्राम पंचायतों और समुदाय के लिए अधिक प्रासंगिक हैं। इनमें से एक विषय जल-सुलभ पंचायतें हैं जिनका लाभ उठाने की आवश्यकता है।
इस क्षेत्र में जल सुरक्षा काफी हद तक इस बात पर निर्भर है कि मानसून के दौरान पानी को कितने प्रभावी ढंग से संरक्षित किया जाता है और कृषि और अन्य मांगों के लिए इसका कितनी कुशलता से उपयोग किया जाता है। उपयुक्त मंचों और क्षमता निर्माण के साथ, ग्राम पंचायतें जल-संकट वाले क्षेत्रों में जल सुरक्षा का आधार बन सकती हैं।
1. सार्वभौमिक भागीदारी और स्वामित्व सुनिश्चित करना
स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) गरीबों और हाशिए पर रहने वाले लोगों सहित प्रत्येक ग्रामीण परिवार के लिए एक खुला और सहज माहौल प्रदान करते हैं। एसएचजी बैठकें नियमित अंतराल पर आयोजित की जाती हैं और महिलाओं की पानी से जुड़ी चिंताओं और समाधानों को उठाने और चर्चा करने के लिए एक मजबूत मंच प्रदान करती हैं। इसके अलावा, छत्तीसगढ़ में आधी ग्राम पंचायत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। यह देखते हुए कि महिलाएं पंचायत और एसएचजी दोनों का हिस्सा हैं। पंचायतों के पास पानी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर महिला समूहों के साथ सहयोग करने की संभावना बहुत अधिक है।
छत्तीसगढ़ में, कलेक्टिव्स ने 200 गांवों में पानी की जरूरतों और उपयोग का आकलन करने के लिए एक अभ्यास किया, जिसमें ग्राम पंचायतों के साथ समन्वय कर 9,000 से अधिक योजनाएं बनाई गईं। उन्होंने संस्थागत रूप से इन मांगों को ब्लॉक प्रशासन तक पहुंचाया है। वे इन योजनाओं की प्रगति की निगरानी के लिए ब्लॉक-स्तरीय समन्वय समितियों का भी हिस्सा हैं।
2. क्षमता और योग्यता निर्माण
पंचायत प्रतिनिधि और पदाधिकारी पंचायतों के प्रावधानों, उनकी भूमिका और प्रशासनिक पहलुओं को जानते हैं, लेकिन उन्हें जल सुरक्षा, विशेष रूप से इसके टेक्निकल और टेक्नोलॉजिकल पहलुओं पर मदद की ज़रूरत होती है। उदाहरण के लिए, टीआरआई प्रतिनिधियों को इस बात का प्रशिक्षण देता है कि भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) तकनीक का उपयोग कैसे किया जाए ताकि उनके गांव में आने वाले बारिश के पानी की सारी स्थिति को समझा जा सके। फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को प्रक्रियाओं और तकनीकी पहलुओं से भी परिचित कराया जाता है, जिससे समावेशन, विविधता और उत्पादकता सुनिश्चित होती है।
मनरेगा यह सुनिश्चित करता है कि सबसे गरीब समुदाय के सदस्यों को एक वर्ष में कम से कम 100 दिन का रोजगार मिले।
दूसरी ओर, जहां समुदायों को विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों से लाभ होता है, ये कार्यक्रम अलग-अलग रूप में काम करते हैं। मनरेगा और एनआरएलएम जैसे कार्यक्रम एक ही समुदाय को लाभ पहुंचाते हैं, लेकिन समग्र समस्या के एक सीमित पहलू को देखते हैं। एनआरएलएम स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी), के माध्यम से काम करता है, और मनरेगा यह सुनिश्चित करता है कि सबसे गरीब समुदाय के सदस्यों को एक वर्ष में कम से कम 100 दिन का रोजगार मिले। चूंकि दोनों कार्यक्रमों के लिए लक्ष्य समुदाय एक ही है, इसलिए लंबे समय में एक एकीकृत दृष्टिकोण कहीं अधिक प्रभावशाली होगा।
स्थानीय लोगों को पहले से ही अपने भूगोल और इलाके का पारंपरिक ज्ञान है। इस जानकारी का लाभ उठाने के लिए, टीआरआई एसएचजी सदस्यों को जल सुरक्षा और उनके क्षेत्र के लिए उपयुक्त संभावित हस्तक्षेपों पर तकनीकी विवरण प्रदान करता है। एसएचजी सदस्यों, जो ग्राम सभा सदस्य भी हैं, को संस्थागत पहलुओं और समूह व्यवहार के बारे में समझाया जाता है। कार्यक्रम जल सुरक्षा मुद्दों और प्रौद्योगिकी के उपयोग पर महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों की क्षमता-उनकी भूमिका, आवाज और एजेंसी-के निर्माण पर केंद्रित है।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रक्रिया आत्मनिर्भर है, समुदायों और पंचायतों की क्षमता और योग्यता का निर्माण महत्वपूर्ण है।
3. नए दृष्टिकोण को तैयार करने के लिए मंच प्रदान करना
छत्तीसगढ़ में यह कार्यक्रम प्रमुख हितधारकों-स्वयं सहायता समूहों के ज़रिए प्रतिनिधित्व करने वाले समुदाय के सदस्यों; पंचायत सदस्य (निर्वाचित सदस्य); और स्थानीय पदाधिकारियों (ग्राम सचिव और अन्य विभाग के पदाधिकारियों) को ग्राम पंचायत समन्वय समिति (जीपीसीसी) स्थापित करके एक साझा मंच पर लाया गया। जीपीसीसी का उद्देश्य क्षेत्र की जल सुरक्षा में सुधार के लिए स्थानीय योजनाओं के विकास को सुविधाजनक बनाना है। इन योजनाओं को ग्राम पंचायत विकास योजना (जीपीडीपी) के हिस्से के रूप में शामिल और कार्यान्वित किया जाता है। इस प्रक्रिया को एसएचजी सदस्यों द्वारा बारीकी से समन्वित किया जाता है।
जीपीसीसी जैसा मंच विभिन्न स्तरों, यानी गांव, ब्लॉक और जिला पर चर्चा और प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके पंचायतों को विकास के एजेंडे को संगठित तरीके से चलाने में मदद करता है। जीपीसीसी सरकार के विभिन्न विभागों – महिला एवं बाल, कृषि, मत्स्य पालन इत्यादि के साथ भी बातचीत करता है – जो उन्हें एक एकीकृत योजना के लिए योजनाओं को एकत्रित करने में सक्षम बनाता है।
इस तरह का प्रणालीगत दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करता है कि दीर्घकालिक लाभों को प्राथमिकता दी जाए। इस प्रकार, योजनाएं स्थानीय आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं और इसलिए, उन पर पूर्ण स्वामित्व ग्राम सभा के सदस्यों का होता है।
पंचायती राज संस्थानों को इस परिप्रेक्ष्य को विकसित करने में मदद करने से प्रमुख कार्यक्रमों और उनके लिए उपलब्ध धन के आवंटन के बीच एक सामान्य दृष्टिकोण की दिशा में विस्तार दे पाना संभव हो सकता है। जल संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिए, योजनाओं में आपूर्ति और संरक्षण प्रयासों के साथ-साथ मांग पक्ष के प्रयासों को भी ध्यान में रखना होगा। पंचायतों के माध्यम से सामूहिक योजना और कार्यान्वयन इसे सफलतापूर्वक करने में मदद कर सकता है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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- एक पॉडकास्ट जो बताता है कि समुदाय और कॉर्पोरेट जल संरक्षण प्रयासों को कैसे आगे बढ़ा सकते हैं।
- भारत में जल संरक्षण कार्यक्रमों के बारे में जानें।
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