राजनीति में विकलांग जनों की सक्रिय भागीदारी केवल उनकी मतदान प्रक्रिया सरल बनाने तक सीमित नहीं है। हमें एक कदम आगे बढ़कर यह भी सुनिश्चित करना होगा कि विकलांग जन मतदाता के साथ-साथ उम्मीदवार के रूप में भी सक्षम बनें। अन्य शब्दों में, भारत की चुनावी राजनीति में विकलांग लोगों का प्रतिनिधित्व बढ़ाये जाने की जरूरत है।
देश के पहले दृष्टिहीन सांसद साधन गुप्ता जैसी कई हस्तियां यह साबित कर चुकी हैं कि राजनीति में अगर आप कुछ सार्थक करना चाहते हैं, तो विकलांगता कोई बाधा नहीं है। वह एक असाधारण वक्ता होने के साथ नेशनल फेडरेशन ऑफ द ब्लाइंड ऑफ इंडिया के संस्थापक भी थे। इसी तरह, मिनाती बारिक ऐसी पहली विकलांग महिला (व्हीलचेयर यूजर) थी जिन्होंने ओडिशा (काटनाबानिया ग्राम पंचायत) में चुनाव जीता था। उनके कार्यकाल के दौरान उनके गांव बाजापुर के स्वच्छता स्तर में बहुत सुधार हुआ था।
प्रभावी नेतृत्व की इन मिसालों के बावजूद, विकलांग लोगों को नियमित रूप से पूर्वाग्रहों और रूढ़िवादी सोच का सामना करना पड़ता है, जिससे उन्हें चुनाव लड़ने में कठिनाई होती है। इसके अलावा, उनकी उम्मीदवारी से जुड़ी राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव ने उनके प्रतिनिधित्व को गंभीर रूप से संकुचित कर दिया है।
एक ढांचागत समस्या
राजीव रतूड़ी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्पष्ट करता है कि संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत सुगमता (एक्सेसिबिलिटी) एक मौलिक अधिकार है। विकलांग जन अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 11 के तहत, भारत निर्वाचन आयोग और राज्य चुनाव आयोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी मतदान केंद्र विकलांग-सुलभ बनें। इसके अलावा, चुनावी प्रक्रिया से जुड़ी सारी सामग्री उनके लिए सरल और सुलभ बनायी जानी चाहिए।
गौरतलब है कि यह कानून विकलांग मतदाताओं के लिए मतदान प्रक्रिया को सरल बनाने पर केंद्रित है। लेकिन यह उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बढ़ोतरी के विषय पर बात नहीं करता है। विकलांग जनों के चुनाव लड़ने के संबंध में स्पष्ट दिशा-निर्देशों का अभाव एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इससे भी अधिक निराशाजनक तथ्य यह है कि आज भी कई ऐसे पुराने और भेदभावपूर्ण कानून प्रभावी हैं, जो कानूनी रूप से विकलांग व्यक्तियों को सार्वजनिक पदों पर आसीन होने से रोकते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ समय पहले तक तमिलनाडु पंचायत अधिनियम, 1994 के तहत विकलांग व्यक्तियों, विशेष रूप से ‘मूक-बधिर’ के रूप में वर्गीकृत लोगों को पंचायत चुनावों में प्रत्याशी बनने से अयोग्य ठहराता था। इस भेदभावपूर्ण नियम की जड़ में विकलांगता से जुड़ी तमाम गलत धारणाएं हैं, जो समाज के एक बड़े वर्ग को स्थानीय शासन का हिस्सा बनने से वंचित रखती हैं।
इस प्रकार राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव एक ढांचागत समस्या का रूप ले लेता है। यही वजह है कि एक विकलांग व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ना असंभव न सही, लेकिन बेहद जटिल जरूर हो जाता है। वे जिन प्रमुख चुनौतियों का सामना करते हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।
1. नामांकन प्रक्रिया की मुश्किलें
भारत में प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव लड़ने के लिए एक नामांकन पत्र और एफिडेविट (फॉर्म 26) दाखिल करना होता है। विकलांग लोगों के लिए यह पहला कदम ही अपने आप में एक बड़ी बाधा है। चुनाव आयोग द्वारा नामांकन पत्र या एफिडेविट में कहीं भी उम्मीदवार की विकलांगता स्थिति दर्ज करने के लिए कोई विशेष कॉलम प्रदान नहीं किया गया है। इस अनदेखी का अर्थ यह है कि विकलांग व्यक्तियों को नामांकन प्रक्रिया में स्पष्ट रूप से एक उम्मीदवार के रूप में मान्यता नहीं मिलती। नतीजतन, उन्हें पूरी नामांकन प्रक्रिया के दौरान असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, नामांकन पत्र ऐसे सुलभ प्रारूपों (एक्सेसिबल फॉर्मेट्स) में उपलब्ध नहीं होते, जो दृष्टिबाधित उम्मीदवारों के लिए उपयुक्त हों।
2. संस्थागत सहयोग की कमी
चुनावी मानदंड, जिसमें चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता भी शामिल है, विकलांग उम्मीदवारों की विशिष्ट आवश्यकताओं को संबोधित करने में पूरी तरह विफल रहते हैं। उदाहरण के लिए, चुनावी वित्त नीतियां उस अतिरिक्त खर्च का संज्ञान नहीं लेती, जो विकलांग उम्मीदवारों को उठाना पड़ता है- जैसे कि सुगम्य परिवहन, सांकेतिक भाषा अनुवादक, या सहायक तकनीकों की उपलब्धता। यदि कोई विकलांग व्यक्ति किसी राजनीतिक दल के समर्थन के बिना स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ता है, तो उसके लिए जरूरी संसाधन जुटाना बेहद कठिन हो जाता है। इसके अलावा, स्थानीय शासन में महिलाओं के लिए लागू लैंगिक आरक्षण व्यवस्था की तर्ज पर विकलांग व्यक्तियों के लिए कोई सकारात्मक कार्रवाई (अफर्मेटिव एक्शन) नहीं की गयी है, जिससे उनकी राजनीतिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया जा सके। यह चिंताजनक है कि विकलांग व्यक्तियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व का उल्लेख राष्ट्रीय विकलांग जन नीति, 2022 में भी नहीं किया गया है।
3. राजनीति दलों में इच्छाशक्ति का अभाव
बराबर अवसर और भेदभाव से बचाव सुनिश्चित करने वाले विकलांग जन अधिकार अधिनियम की मौजूदगी के बावजूद, राजनीतिक दल विकलांग व्यक्तियों को शासन में शामिल करने के लिए ठोस कदम उठाने में असफल रहे हैं। उनके चुनावी घोषणापत्रों में भी विकलांग अधिकारों का दिखावटी जिक्र भर देखने को मिलता है। यहां तक कि जब विकलांग उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं, तो उन्हें चुनावी अभियान की जमीनी दिक्कतों से लेकर कई सामाजिक पूर्वाग्रहों तक का सामना करना पड़ता है, जो हमेशा उनकी नेतृत्व क्षमताओं को सवालिया नजरों से देखते हैं।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए, भारत के चुनाव आयोग को नामांकन पत्र और फॉर्म 26 में एक प्रावधान जोड़ना चाहिए, जिससे उम्मीदवारों की विकलांगता स्थिति को दर्ज किया जा सके। यह साधारण लेकिन महत्वपूर्ण कदम न केवल विकलांग व्यक्तियों की राजनीतिक भागीदारी की एक अधिक सटीक तस्वीर पेश करेगा, बल्कि चुनावी प्रक्रिया को अधिक समावेशी बनाने के लिए तंत्र को जरूरी सुधार की दिशा में प्रेरित भी करेगा।

भेदभाव के दुश्चक्र को तोड़ना
एक असली प्रतिनिधि लोकतंत्र की स्थापना के लिए, भारत को ऐसे स्पष्ट और प्रभावी दिशा-निर्देश तैयार करने की जरूरत है, जो विकलांग व्यक्तियों की चुनावी भागीदारी को सुगम बना सकें। यह किसी ‘विशेषाधिकार’ की मांग नहीं है, बल्कि उन बाधाओं को दूर करने का प्रयास है, जो कभी होनी ही नहीं चाहिए थी। इस दिशा में उठाए जाने वाले आवश्यक कदमों में शामिल हैं:
1. भेदभावपूर्ण कानूनों में संशोधन
कई राज्यों में अभी भी ऐसे चुनावी प्रावधान है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विकलांग लोगों को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराते हैं। ऐसे प्रावधानों की पहचान कर उन्हें तत्काल निरस्त किया जाना चाहिए। तमिलनाडु का कानून मात्र एक उदाहरण है। आंध्र प्रदेश में भी ऐसे नगर पालिका और पंचायत कानून हैं, जो कुष्ठ रोग से प्रभावित लोगों को चुनाव लड़ने से रोकते हैं। हालांकि यह अब एक ऐसा रोग है, जिसका पूर्ण इलाज संभव है। इस तर्ज पर 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने ओडिशा के एक उम्मीदवार को अयोग्य करार देने वाला फ़ैसला बरकरार रखा था, जिसका आधार ‘जोखिमपूर्ण कुष्ठ रोग’ बताया गया था।
दुनिया भर में ऐसे कई उदाहरण हैं, जो दर्शाते हैं कि जब विकलांग व्यक्ति किसी सार्वजनिक पद के लिए चुने जाते हैं, तो वे अधिक समावेशी नीतियों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, केन्या की क्रिस्टल असिज, जो एक दृष्टिबाधित सीनेटर हैं, ने सफलतापूर्वक विकलांग अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले क़ानूनी सुधार किए। उन्होंने केयर गिवर्स को टैक्स में छूट देने और केन्याई सांकेतिक भाषा को आधिकारिक मान्यता दिलवाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
2. पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों से निपटना
जब विकलांग व्यक्ति अहम सार्वजनिक भूमिकाओं का निर्वहन करते हैं, तो वे अपनी क्षमताओं से जुड़े पूर्वाग्रहों को चुनौती देते हैं। समस्या यह नहीं है कि विकलांग व्यक्ति नेतृत्व नहीं कर सकते हैं, बल्कि यह है कि समाज उन्हें इस भूमिका में देखने से इनकार करता है। उनकी भागीदारी सहज और आम होने की बजाय एक अपवाद बनी रहती है।
मशहूर पैरा एथलीट और चुरू लोकसभा सीट से उम्मीदवार देवेंद्र झाझरिया जैसे प्रतिनिधियों की विकलांगता की जानकारी अब भी चुनाव पोर्टल्स पर नहीं मिलती है। संसद, विधानसभाओं और स्थानीय शासन में विकलांग नेतृत्व की अनुपस्थिति इस धारणा को और मजबूत बनाती है, कि विकलांग व्यक्ति राजनीति भूमिकाओं के लिए ‘अक्षम’ होते हैं।
3. आरक्षित सीट और कोटा की जरूरत
अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और महिलाओं की तरह विकलांग व्यक्तियों को भी राजनीतिक आरक्षण देना यह सुनिश्चित करेगा कि वे एक मतदाता भर नहीं है। वे सांसद, विधायक और महत्वपूर्ण फैसले लेने वाले जन-प्रतिनिधि भी बन सकते हैं। छत्तीसगढ़ ने पंचायती राज अधिनियम, 1993 में संशोधन कर राज्य भर की पंचायतों में विकलांग व्यक्तियों की भागीदारी अनिवार्य कर दी है। यह कदम अपने आप में एक मिसाल है। अगर इसे पूरे देश में लागू किया जाए, तो यह समावेशन की दिशा में एक बड़ा कदम साबित होगा।
विकलांग जन केवल मतदाता भर नहीं है। वे सांसद, विधायक और महत्वपूर्ण फैसले लेने वाले जन-प्रतिनिधि भी बन सकते हैं।
अगर वर्तमान में विकलांग जनों की राजनीतिक भागीदारी ‘हमारे बारे में, हमारे बिना कुछ नहीं’ के नारे पर चलती है, तो इसे बदलकर ‘हमारे बिना कुछ भी नहीं’ की तर्ज पर आगे बढ़ाना चाहिए। अन्य शब्दों में, उन्हें केवल उन मंचों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए जहां उनके बारे में निर्णय लिए जाते हैं, बल्कि सभी निर्णय-निर्माण प्रक्रियाओं में उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
4. राजनीतिक दलों की जवाबदेही का निर्धारण
ज्यादातर राजनीतिक दलों की नेतृत्व भूमिकाओं में विकलांग प्रतिनिधित्व बहुत कम या नदारद है। ऐसा तब है जब विकलांग लोगों की कुल संख्या भारत की कुल जनसंख्या का 4.5 प्रतिशत है। राजनीतिक दलों को विकलांग उम्मीदवारों की सक्रिय भर्ती के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए, उन्हें वित्तीय सहायता और प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए और उनके लिए चुनाव प्रचार के दौरान पूरी तरह सुगम (एक्सेसिबल) वातावरण सुनिश्चित करना चाहिए। ब्रिटेन के प्रमुख राजनीतिक दलों ने विकलांग उम्मीदवारों के लिए प्रचार से जुड़ी अतिरिक्त लागतों को कवर करने हेतु विशेष निधियां स्थापित की हैं। भारतीय राजनीतिक दलों को भी ऐसी ही पहल करनी चाहिए।
लोकतंत्र में भागीदारी का अधिकार अनिवार्य है। इसे किसी शर्त या समझौते के दायरे में नहीं रखा जा सकता। विकलांग व्यक्तियों को केवल ‘मतदाता समूह’ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उन्हें उम्मीदवार, नीति-निर्माता, निर्वाचित प्रतिनिधि और निर्णय-निर्माता के रूप में भी स्वीकार किया जाना चाहिए। वे भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के मूक दर्शक नहीं हैं। यदि भारत वास्तव में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता है, तो वह एक संपूर्ण समुदाय को राजनीतिक प्रतिनिधित्व से व्यवस्थित रूप से वंचित नहीं रख सकता। राजनीतिक समावेशन कोई परोपकार नहीं, बल्कि एक मौलिक अधिकार है।
अरमान अली, वामिका गुप्ता, अक्षय जैन और शिवानी जाधव ने इस आलेख में योगदान दिया है।
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