त्रिपुरा का मैतेई समुदाय अपने परंपरागत वाद्य को कैसे बचा सकता है?

Location Icon खोवाई जिला, त्रिपुरा
वाद्ययंत्र बजाते मैतेई समुदाय के सदस्य—मैतेई समुदाय
अगर हम सही में अपने संस्कारों और त्योहारों को बचाना चाहते हैं तो हमें आत्मनिर्भर बनना होगा। | चित्र सभार: अनुपम शर्मा

मैं त्रिपुरा के खोवाई जिले के गौरनगर गांव में रहने वाला एक पेना वादक हूं। पेना एक पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र है जो हमारी मैतेई संस्कृति की जड़ों में गहराई से जुड़ा हुआ है। यह यंत्र मैतेई समुदाय के पारंपरिक फसल उत्सव, लाई हराओबा का भी एक अभिन्न हिस्सा है।

इस वाद्य यंत्र के दो मुख्य भाग होते हैं: पेना चेइजिंग (धनुषाकार तार वाला हिस्सा जिससे यंत्र बजाया जाता है) और पेना मारू (मुख्य वाद्य)। दायें हाथ में पकड़े जाने वाले चेइजिंग को एपुधौ (गॉडफादर) माना जाता है, जबकि छाती से दबाए जाने वाले मारू को एबेनधौ (गॉडमदर) माना जाता है। हमारे पूर्वजों के अनुसार, चेइजिंग और मारू से पैदा होने वाली ध्वनि, इस दुनिया और इसमें रहने वाले जीवों की रचना का प्रतीक है।

जहां तक मेरी जानकारी है, मैं अब त्रिपुरा में पेना बजाने वाला आखिरी व्यक्ति हूं। दुख की बात है कि जो इस वाद्य यंत्र को बजाना जानते थे, वे लोग अब इस दुनिया में नहीं रहे। मैं अब 84 साल का हो गया हूं लेकिन बावजूद इसके अभी भी पेना बजाने का काम करता हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि यह कला राज्य से खत्म हो जाए।

मैंने बचपन में अपने पिता स्वर्गीय चंद्र बाबू से इसे बजाना सीखा था। मेरा जन्म बांग्लादेश के सिलहट जिले में हुआ था जो तब पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा हुआ करता था। उस समय, हमारे गांव में कुछ लोग इस वाद्य यंत्र को बजाते थे और वे मेरे पिता से इसे सीखने के लिए हमारे घर पर इकट्ठा होते थे।

पिछले कुछ सालों में मैंने मैतेई त्योहारों में इस्तेमाल किए गए कई वाद्य यंत्र सीखे और सिखाए हैं। छात्र उन्हें सीखना भी चाहते हैं। लेकिन इस दौरान मुझे एक भी ऐसा छात्र नहीं मिला जो पेना वाद्य यंत्र सीखना चाहता हो।

वर्तमान में, त्रिपुरा में इस कला को बचाए रखने में एक बड़ी चुनौती यह है कि पेना त्रिपुरा में उपलब्ध ही नहीं है। अगर कोई इसे लेना भी चाहे तो उसे इसके लिए मणिपुर जाना पड़ता है जिसमें हजारों रुपये खर्च हो जाते हैं। हाल ही में, मुझे अपने पेना के लिए शेमी (तार) खरीदने के लिए मणिपुर जाना पड़ा था। शेमी की कीमत केवल 500 रुपये थी, लेकिन मुझे सफ़र में 10,000-15,000 रुपये तक खर्च करने पड़े। युवा कलाकारों के लिए इस तरह के खर्च वहन करना मुश्किल होता है। इस वजह से त्रिपुरा में पेना कलाकारों में भारी कमी देखने को मिल रही है।

हर साल त्रिपुरा में लाई हराओबा त्योहार मनाया जाता है। इसमें संस्कारों और अनुष्ठानों को करवाने के लिए मणिपुर से लाखों रुपए खर्च कर के पेना कलाकारों और अमाइबा व अमाइबी (पुजारी और पुजारिन) को लाया जाता है। हालांकि इस तरह के प्रयास परंपरा को तो जीवित रखते हैं, लेकिन मेरा मानना ​​है कि हमें इसका स्थाई समाधान निकालने की जरूरत है।

मैंने त्रिपुरा में हमेशा से ही इस बात पर ज़ोर दिया है कि लाई हराओबा के लिए स्थानीय कलाकारों की टीम को प्रशिक्षित किया जाए। दूसरे राज्य के कलाकारों पर निर्भर रहना व्यावहारिक रूप से सही नहीं है, खासकर तब जब मणिपुर खुद ही नस्लीय टकराव से जूझ रहा है। सड़क से यात्रा करना अब सुरक्षित नहीं है, हवाई जहाज एकमात्र विकल्प है लेकिन उससे यात्रा करना बहुत महंगा है। अगर हम सही में अपने संस्कारों और त्योहारों को बचाना चाहते हैं तो हमें आत्मनिर्भर बनना होगा।

मुझे आशा है कि मेरे आह्वान से आने वाली पीढ़ियों को पेना सीखने की प्रेरणा मिलेगी और साथ ही इस बात पर भी ध्यान दिया जाएगा कि यह पवित्र परंपरा त्रिपुरा में फलती-फूलती रहे।

निंगोम्बम बीर सिंघा त्रिपुरा के एक पेना वादक हैं।

आईडीआर के नॉर्थईस्ट मीडिया फेलो, अनुपम शर्मा से बातचीत पर आधारित।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें

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