December 18, 2024

क्या कृषि और जल संकटों का हल ग्राम स्वराज में मिल सकता है?

ग्राम स्वराज का सिद्धांत, गांवों को राजनीतिक स्वायत्तता देने के साथ-साथ जल संरक्षण, कृषि विकास और किसान कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
7 मिनट लंबा लेख

पिछले कुछ दशकों में हमारी कृषि भूमि की गुणवत्ता में भारी गिरावट देखने को मिली है। जल संकट भी दिनों-दिन गंभीर होता जा रहा है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए किसानों को ज्यादा धन खर्च करना पड़ रहा है। इन सबसे कृषि अब लाभ का सौदा नहीं रह गई है। यदि हमें अपनी अर्थव्यवस्था में अहम योगदान देने वाले कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित करना है तो जल और मिट्टी जैसे प्राकृतिक संसाधनों में निवेश करना बहुत जरूरी है। इस दिशा में ग्राम स्वराज एक महत्वपूर्ण समाधान साबित हो सकता है। ग्राम स्वराज का अर्थ है – गांव के प्राकृतिक संसाधन, खेती और दूसरे सभी जरूरी निर्णय, स्थानीय लोगों के हाथ में हों। 

ग्राम स्वराज क्या है? 

अक्सर स्वराज को राजनीति से जोड़कर देखा जाता है जबकि इसका सही अर्थ है – स्वशासन। स्वशासन यानी खुद पर निर्भर होना। ग्राम स्वराज तब आता है जब गांव अपनी जरूरतों को खुद पूरा करने में सक्षम होता है। स्वराज की शुरुआत गांवों से करने का कारण यह है कि ग्रामीण व्यवस्था कृषि पर आधारित होती है और इसे बनाए रखने में जल और मिट्टी जैसे प्राकृतिक संसाधन मुख्य भूमिका निभाते हैं। ग्राम स्वराज की अवधारणा कहती है कि प्राकृतिक संसाधनों पर सभी का बराबर हक होना चाहिए। इसमें यह भी शामिल है कि इनके उपयोग के लिए बाजार पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए। अगर इन संसाधनों के लिए आत्मनिर्भर बनना है तो ग्रामीणों की सोच और व्यवहार में बदलाव लाना जरूरी है। जैसे अगर कोई गांव जल स्वराज चाहता है तो गांव के सब लोगों के लिए जरूरी है कि वे इसके सही इस्तेमाल और बचाव को लेकर अपनेपन और जिम्मेदारी का भाव रखें। इसी तरह, खेती के मामले में स्वराज हासिल करने के लिए गांव को पहले अपनी भोजन की जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए फिर बचा हुआ अनाज बाज़ार में बेचना चाहिए। इससे संसाधनों के प्रति जिम्मेदारी और आत्मनिर्भरता का भाव मजबूत होगा। कुल मिलाकर, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के समय उन्हें अपना मानना जरूरी है। 

लेकिन चिंता की बात यह है कि बहुत कम गांव आत्मनिर्भर हैं। आजादी के बाद यह धारणा विकसित हुई है कि ‘जो मेरा नहीं है, वह सरकार का है।’ इसके उलट, स्वराज का मूल विचार कहता है – ‘जो मेरा नहीं है, वह हम सबका है।’ दूसरे शब्दों में कहें तो प्राकृतिक संसाधन सबके हैं और उन पर सबका समान अधिकार है। ऐसी सोच से गांव की आत्मनिर्भरता पर असर पड़ता है, नहीं तो लोग अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटकर संसाधनों के प्रबंधन को केवल सरकार पर छोड़ देते हैं। इस लेख में हम चर्चा करेंगे कि आज की दुनिया में ग्राम स्वराज, जल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के मामले में ग्रामीणों के लिए सबसे बेहतर विकल्प कैसे साबित हो सकता है।

गांव से स्वराज की शुरुआत

भारत में भूमि जोत का औसत आकार साल 1970-71 के दौरान 2.3 हेक्टेयर था जो घटकर साल 2015-16 में 1.08 हेक्टेयर रह गया है। छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटने के कारण भूमि में मृदा क्षरण यानि मिट्टी के कटाव की दर और बढ़ रही है। वहीं दूसरी तरफ देश में कृषि पर निर्भर घरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। साल 1951 में यह संख्या जहां सात करोड़ थी वहीं साल 2020 में बढ़कर 12 करोड़ हो गई। 

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

आंकड़ों की मानें तो मौजूदा समय में इंसानों के उपभोग के काबिल 90 फीसदी से ज्यादा जल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि खेती में पैदावार बढ़ाने के लिए सिंचाई की भूमिका महत्वपूर्ण है। लेकिन पर्यावरण को ताक पर रखकर सिंचाई में अंधाधुंध पानी खर्च करने से जल और जमीन पर भारी दबाव पड़ रहा है। इस तरह के नुकसानों की भरपाई तभी हो सकती है जब लोग जीवन के लगभग हर पहलू में आत्मनिर्भर बनें, बस यही गांव में स्वराज की पहली सीढ़ी है। स्वराज की शुरुआत स्वयं से होती है और स्वयं की बात करते हैं तो हमारे लिए सबसे जरूरी है – जल और जमीन। चूंकि अनाज खेतों से मिल रहा है इसलिए स्वराज का रास्ता भी गांव से ही शुरू हो यह जरूरी है।

खेत में काम करती महिला किसान_ग्राम स्वराज
आज लोग बाजार और आधुनिक तकनीक की मांग को पूरा करने के लिए प्राकृतिक कृषि के तरीकों से दूर हो गए हैं। | चित्र साभार: पिक्साबे

कृषि के रास्ते जल स्वराज

हम जल और जमीन को अलग-अलग समस्याओं के तौर पर देखते हैं जबकि इनके समाधान आपस में जुड़े हुए हैं। पुराने समय में खेतों को जल संरक्षण के विचार के साथ तैयार किया जाता था। ऊबड़-खाबड़ खेत, चौड़ी मेड़ें, और पेड़ों की मौजूदगी भूजल को रोके रखने में मदद करते थे। मेड़ों पर सब्जियां और फल जैसे भिंडी और तरबूज उगाकर पानी को रोकने की व्यवस्था की जाती थी। इसलिए किसानों को सिंचाई के लिए बाहरी साधनों पर निर्भर नहीं होना पड़ता था। जैसे-जैसे आधुनिक खेती के लिए ट्रैक्टरों का उपयोग बढ़ा, खेतों का समतलीकरण शुरू हुआ, पेड़ों की कटाई और मेड़ों को पतला किया जाने लगा तो पानी का रुकना कम हो गया है और इससे भूजल स्तर गिरा है। अब किसान सिंचाई के लिए बिजली और बाहरी साधनों पर निर्भर हो गए हैं जिससे उनका कृषि खर्च बढ़ गया है। इस निर्भरता ने गांवों में स्वराज की भावना को कमजोर कर दिया है क्योंकि संसाधनों का स्थानीय प्रबंधन और आत्मनिर्भरता का सिद्धांत पीछे छूट गया है। पुराने प्राकृतिक तरीकों को अपनाकर सिंचाई के लिए बाहरी ऊर्जा पर निर्भरता घटाकर, जल स्वराज बढ़ाया जा सकता है। यह बात तय है कि जिस दिन पानी और उसके घटकों का शोषण बंद हो जाएगा, जल स्वराज की परिकल्पना साकार होगी।

किसानों की स्वराज से दूरी के कारण

असल में किसी भी चीज से जुड़े संरक्षण, संवर्धन और नए विचार कभी भी आसान नहीं होते हैं जबकि मानव स्वभाव आसान रास्ते चुनने का आदी होता है। आदिवासी जीवनशैली इसका एक उदाहरण है, जहां सीमित जरूरतों और इच्छाओं ने प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक उपयोग को रोका है। इसी सोच के कारण वे इन संसाधनों को अगली पीढ़ियों तक पहुंचा पाए हैं। इसके विपरीत, आज लोग बाजार और आधुनिक तकनीक की मांग को पूरा करने के लिए प्राकृतिक कृषि के तरीकों से दूर हो गए हैं। बाजार की मांग और अच्छी कीमतों के लिए नकदी फसलों पर जोर देने से किसानों का स्वराज कमजोर हुआ है। लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि किसान भी भारी दबाव में होते हैं। उन्हें बाजार की मांग, बदलते मौसम और आर्थिक दबावों के कारण ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जिनसे उनकी आत्मनिर्भरता और पारंपरिक खेती के तरीके प्रभावित हो रहे हैं। इससे जुड़े दो मुख्य बिंदु कुछ इस तरह हैं –

1. तकनीक का गलत परिचय

तकनीक का उदाहरण लें तो ट्रैक्टर का प्रचार किसानों की भलाई के लिए हुआ लेकिन इसके लाभ बाजार और कंपनियों तक सीमित रहे हैं। ट्रैक्टर का ईंधन, उससे जुड़े उपकरण, और लोन चुकाने की जिम्मेदारी ने किसान की बचत को खत्म कर दिया। हालांकि तकनीक ने खेती को आसान बनाया है लेकिन इसका खर्च इतना बढ़ा कि किसान की आर्थिक स्थिति जस की तस बनी रह गई है। यह कहा जा सकता है कि आधुनिक तकनीक ने किसान को आत्मनिर्भर बनने से रोक दिया और बाजार पर उसकी निर्भरता बढ़ा दी है।

2. बाजारवाद और नकदी फसलों का खेल

इस कारण को सोयाबीन के उदाहरण से स​मझ सकते हैं। यह भारतीय खाद्य श्रृंखला का हिस्सा कभी नहीं था लेकिन इसके गुणों का प्रचार कर इसे लोकप्रिय बनाया गया। किसानों को ज्यादा पानी और कीटनाशक-आधारित सोयाबीन की खेती के लिए आकर्षित किया गया जबकि यह फसल भूमि और जल संसाधनों पर भारी दबाव डालती है। अगर किसान मक्का जैसी फसलें उगाते तो जल और भूमि की बचत होती लेकिन बाजार और कंपनियों के मुनाफे ने उन्हें इसके लिए प्रेरित नहीं किया।

तकनीक, बाजारवाद, और नकदी फसलों के इस जाल ने किसानों को आत्मनिर्भरता और स्वराज से दूर कर दिया है। किसानों के लिए अपनी जरूरतों और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति जिम्मेदारी को प्राथमिकता देना ही ग्राम स्वराज की ओर लौटने का एकमात्र रास्ता है।

स्वराज के समाधान

1. स्वराज की विचारधारा को अपनाओ 

स्वराज एक विचार है जिसे हमें अपने भीतर पैदा करना है। इसके बाद वह समुदाय में अपने आप जगह बना लेगा। जब गांव यह तय करें कि हमें कौन सी फसलें उगानी हैं और पानी का सही उपयोग कैसे करना है तो वे ऐसी फसलें उगाएंगे जो स्थानीय मौसम के अनुसार हों और जिनमें पानी की खपत कम हो। इसके साथ ही, बाजार से कम से कम चीजों को लाएंगे तो स्वराज की कल्पना अपने आप साकार होने लगेगी। सही मायने में कृषि, जल, पोषण और स्वास्थ्य इनके बारे में स्थानीय स्तर पर निर्णय लिए जाने चाहिए। कुल मिलाकर अपनी जीवनशैली को दोबारा स्थापित करने की जरूरत है।

 2. पोषण की प्राथमिकता

पोषण को प्राथमिकता देने का अर्थ है कि जो हमारी थाली में है, वही हमारे खेतों में हो। अगर हम बाजरा खा रहे हैं तो वही उगाएं पर अगर हम बिस्किट या ब्रेड खा रहे हैं तो वे खेतों में नहीं उगते है। उनके लिए बाजार पर निर्भर होना पड़ता है। किसान अब वही उगा रहे हैं जिसकी बाजार में मांग होती है ना कि वह जो पोषण के लिए ज़रूरी है। अगर ग्रामीण मिलकर तय कर लें कि अपने खाने का सामान हम ही उगाएंगे तो निर्भरता खत्म हो जाएगी। इससे पैदावार बेहतर होगी और पोषण की पूर्ति होने लगेगी।

3. अपनी मिट्टी से प्यार करो 

किसानों के लिए जरूरी है कि वे मिट्टी को सजीव मानें। जैसे हम अपने किसी प्रिय सदस्य के बीमार होने पर उसे कोई भी दवाईं यूं ही नहीं दे देते हैं। डरते हैं कि कहीं कुछ हो ना जाए। वैसे ही, किसान भी खेतों में कीटनाशकों का उपयोग करने से पहले यह सोचे कि कहीं इसके उपयोग से मेरी मिट्टी को कुछ हो तो नहीं जाएगा?

4. अपने निर्णय खुद लो 

आज कई किसान बड़े बीज उत्पादकों और कंपनियों से बीज खरीदने पर निर्भर हो गए हैं। ये कंपनियां ज्यादा पैदावार और बेहतर गुणवत्ता का वादा करके किसानों को आकर्षित करती हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इन बीजों के इस्तेमाल से खेती की लागत बढ़ती है। बीजों को बचाने के लिए रसायनों और उर्वरकों की जरूरत होती है। इससे किसान न केवल आर्थिक रूप से दबाव में आते हैं बल्कि उनकी भूमि और पर्यावरण भी प्रभावित होता है।

हमें ऐसी फसलों का चुनाव करना चाहिए जो कम से कम पानी में पैदा हों सकें।

अगर किसान अपने स्थानीय बीजों को संरक्षित करें और उनके उपयोग को बढ़ावा दें तो वे न केवल लागत को कम कर सकते हैं बल्कि खेती को टिकाऊ और आत्मनिर्भर भी बना सकते हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान के कई क्षेत्रों में किसान अभी भी परंपरागत बाजरे और ज्वार के बीजों का संरक्षण कर रहे हैं जिससे उन्हें प्राकृतिक तरीकों से अच्छी पैदावार मिल रही है। इसके साथ ही, पारंपरिक खेती की तकनीकें जैसे हंगाड़ी भी उनके लिए प्रभावी साबित हो रही हैं जो मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखने में मदद करती हैं।

5. पानी को समझदारी से इस्तेमाल करें 

पानी के जो भी प्राकृतिक स्त्रोत हैं यानी बारिश का पानी, झरने और नदियों – पोखरों के पानी को सहेजना शुरू करें। जमीन में इतनी गहराई से पानी खींचकर फसल उगाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए क्योंकि इस तरह के अत्यधिक जल उपयोग से भूजल स्तर में तेजी से गिरावट आ सकती है। यह भविष्य में पानी की भारी कमी का कारण बन सकता है। हमें ऐसी फसलों का चुनाव करना चाहिए जो कम से कम पानी में पैदा हों सकें। जैसे मोटे अनाज यानी मक्का, ज्वार, बाजरा, कोदो जैसी फसलें। एक तो इससे पानी की बचत होगी, दूसरा मिट्टी की गुणवत्ता भी ठीक रहेगी। 

स्वराज आत्मा की तरह है – अनदेखा, लेकिन गहराई से महसूस किया जाने वाला। अगर इस भावना को अपनाया जाए, तो कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता और समृद्धि लौट सकती है। एक ऐसा कृषि तंत्र बन सकता है, जहां किसान स्थानीय बीजों का संरक्षण और जल की रक्षा करें, प्राकृतिक तरीकों से खेती करें और बाजार के दबाव से मुक्त होकर अपनी जमीन और संसाधनों का हमेशा उपयोग करें।

हर गांव अपने जल स्रोतों का बचाव और संवर्धन खुद करे। नदियों, तालाबों और भूजल का प्रबंधन सामुदायिक जिम्मेदारी बने और पानी का उपयोग संतुलित और जिम्मेदार तरीके से हो। ऐसा मॉडल न केवल जल संकट को कम करेगा बल्कि कृषि क्षेत्र में सिंचाई पर बढ़ते खर्च और ऊर्जा निर्भरता को भी समाप्त करेगा। अगर स्वराज को अपनाया जाए तो हमारा कृषि क्षेत्र न केवल आर्थिक रूप से सशक्त होगा बल्कि पर्यावरण के साथ संतुलन भी बनाएगा। इससे एक ऐसा समाज उभर सकता है, जहां किसान बाजार की बजाय अपने सामुदायिक संसाधनों पर भरोसा करेंगे, और हर गांव, हर समुदाय, अपनी जरूरतें खुद पूरी करने में सक्षम होगा। यह स्थिरता और समृद्धि का स्वराज हमारे समाज को सशक्त, पर्यावरण को सुरक्षित, और आने वाली पीढ़ियों के लिए टिकाऊ बनाएगा।

जयेश जोशी, लगभग 30 सालों से वाग्धारा संस्था में सचिव हैं। जयेश के काम के बारे में और जानने के लिए आप उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

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लेखक के बारे में
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जयेश जोशी

जयेश जोशी, लगभग 30 सालों से वाग्धारा संस्था में सचिव हैं और गांधीवादी विचारधारा पर आधारित ‘स्वराज दर्शन’ को बढ़ाने का काम कर रहे हैं। वे, पर्यावरण के अनुकूल और सतत विकास के तरीकों पर जोर देते हैं जिनमें सांस्कृतिक विरासत और परंपराएं भी शामिल हैं। उनके प्रयासों से कई आदिवासी और ग्रामीण समुदायों को सतत विकास की ओर बढ़ने में मदद मिली है। उन्होंने ऐसे कई सफल सामुदायिक मॉडलों पर काम किया है जो जलवायु संरक्षण, खाद्य सुरक्षा और पारंपरिक ज्ञान को मजबूत करने पर केंद्रित हैं।

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