किशोरावस्था में शादी युवा महिलाओं और लड़कियों को उनके हक़ से वंचित करता है क्योंकि इसका संबंध कम उम्र में गर्भधारण, मातृ एवं बाल मृत्यु, घरेलू हिंसा और पीढ़ी दर पीढ़ी रहने वाली गरीबी से है। भारत में पिछले 20 वर्षों में बाल विवाह के स्तर में सुधार आया है। राजस्थान, छतीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में इसके बेहतर परिणाम देखने को मिले हैं। हालांकि, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और विशेष रूप से बिहार जैसे राज्यों में लैंगिक असमानता के कारण बाल विवाह को रोकने में बाधाओं का सामना करना पड़ा है। इन राज्यों में अब भी पाँच में से दो से अधिक लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है।
2015–16 से 2019-20 तक बिहार के 37 जिलों में से 10 जिलों में लड़कियों के बाल विवाह में वृद्धि देखी गई है। इनमें से सात जिलों में यह वृद्धि 5 प्रतिशत से अधिक है। इसके विपरीत, 11 जिलों में कम उम्र में विवाह के प्रचलन में 5 प्रतिशत से अधिक की कमी दर्ज की गई है।1 इस आंकड़े को देखते हुए सेंटर फॉर कैटालाइजिंग चेंज की सक्षम पहल ने बिहार में कम उम्र में विवाह की गतिशीलता और कारकों का मिश्रित-विधि अध्ययन2 किया। इस संस्था ने माता-पिता और युवाओं के दृष्टिकोण, शिक्षा के कथित मूल्य, और युवाओं की लैंगिकता और पसंद को लेकर स्थापित नियमों की छानबीन की।
यहाँ सर्वेक्षण से प्राप्त कुछ ऐसे कारकों के बारे में बताया गया है जिनके कारण अब भी बिहार में जल्दी विवाह की परंपरा को प्रोत्साहन मिलता है, साथ ही कुछ ऐसे कारकों की जानकारी भी दी गई है जो इसे रोकने के लिए काम करते हैं।
कम स्तर की स्कूली शिक्षा
1. बिहार में अब भी स्कूली शिक्षा के रूप में 10 साल से कम समय की शिक्षा हासिल करने की परंपरा है। लड़कियों (7.8 वर्ष) और लड़कों (8.3 वर्ष) दोनों के लिए ही औसत शिक्षा का स्तर बहुत कम है। हालांकि लड़कों (54 प्रतिशत) की तुलना में अधिक लड़कियां (73 प्रतिशत) अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए दोबारा स्कूल जाना चाहती हैं।
2. बढ़ती उम्र के साथ स्कूली शिक्षा में लैंगिक अंतर बढ़ता जाता है। माध्यमिक शिक्षा पूरी करके आगे भी पढ़ाई जारी रखने वाले 57 प्रतिशत लड़कों की तुलना में सिर्फ 32 प्रतिशत लड़कियां ही माध्यमिक स्तर से आगे की पढ़ाई कर पा रही हैं।
3. हर तीन में से एक लड़की को स्कूल छोड़ना पड़ता है क्योंकि उन्हें इस पढ़ाई का कोई फायदा नहीं दिखाई देता है। महिलाओं के लिए आर्थिक अवसरों की कमी और लड़कियों को शिक्षित करने के प्रति ससुराल वालों/माता-पिता का विरोध और आर्थिक भागीदारी की अनुमति लड़कियों को शिक्षा हासिल करने से रोकती है। इसके विपरीत लड़के पैसे कमाने के लिए बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं और विभिन्न तरह के कामों में लग जाते हैं।
4. अपने बच्चों के प्रति माता-पिता की आकांक्षाएँ बच्चों के लिंग पर निर्भर करती हैं। लगभग 55-57 प्रतिशत अभिभावक (माँ और पिता दोनों) अपनी बेटियों को उच्च माध्यमिक स्तर तक पढ़ाना चाहते हैं। जबकि वहीं 51-56 प्रतिशत माता-पिता चाहते हैं कि उनके बेटे एम.ए. तक की पढ़ाई पूरी करें।
5. कानूनी उम्र से कम उम्र में शादी लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए आम है। लड़कियों के विवाह की औसत आयु 17 (+/-2) और लड़कों के लिए यह आयु 20.8 (+/–2) है।
6. लड़कियों की शिक्षा का स्तर अधिक होने पर विवाह के प्रस्ताव में कमी आने की संभावना होती है लेकिन लड़कों के लिए शिक्षा के बढ़ते स्तर के साथ विवाह प्रस्तावों की संख्या में काफी तेजी आ जाती है।
पितृसत्तात्मक मानसिकता
1. समुदाय के रक्षकों जैसे पंचायत के लोग, फ्रंटलाइन में काम करने वाले कार्यकर्ता, पुरुष और लड़के अपनी पितृसत्तात्मक सोच जल्दी शादी करने की प्रथा के वाहक होते हैं। शादी के बाजार में दहेज को लड़कों की योग्यता के सूचक के रूप में देखा जाने लगा है। इसलिए ऐसे माता-पिता को अपनी कम उम्र की लड़कियों के लिए दूल्हे खोजने में आसानी होती है जो ऐसे मामलों में गर्व के साथ ‘मोलभाव’ करने की क्षमता रखते हैं।
2. समुदाय के रक्षकों में शिक्षा की उपयोगिता की समझ बहुत कम (100 के आंकड़ें में 40.2) है। समाज माता-पिता पर उसकी लड़की को पढ़ाने से ज्यादा उसकी शादी करवाने का दबाव बनाता है। इन रक्षकों का ऐसा मानना है कि लड़कियों की शिक्षा का कोई महत्व नहीं है और यह एक तरह का बोझ है।
3. लड़कियों को आगे बढ़ाने, उनके अधिकार और जीवन से जुड़े चुनाव को लेकर इन लोगों का व्यवहार भेदभाव से भरा हुआ है। पितृसत्तात्मक मानदंडों का पालन शादीशुदा जवान लड़कों (52.3/100) और अविवाहित लड़कियों और जवान औरतों में सबसे कम (43.8/100) है। अविवाहित लड़कों में लड़कियों की लैंगिकता और उनके चुनावों पर नियंत्रण रखने की प्रवृति भी सबसे अधिक (52.6/100) दिखती है।
4. शादी के मामले में फैसला करने वाला आदमी मुख्य रूप से पिता होता है। तीन चौथाई से अधिक विवाहित जवान औरतों और दो तिहाई से ज्यादा विवाहित जवान पुरुषों का कहना है कि उनके पिता ने ही उनकी शादी जल्दी कारवाई है।
विकास, मीडिया एक्सपोजर और योजनाओं का ज्ञान
1. बिहार के सात निश्चय (या 7 शपथ) कार्यक्रम को 2015 में लागू किया गया था। इसकी प्राथमिकता ग्रामीण इलाकों में सड़कों का विकास, बिजली और जल-आपूर्ति थी। इसके अलावा इस योजना के तहत युवा शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार और महिला सशक्तिकरण पर ध्यान देने की बात भी शामिल है। इस तरह के ग्रामीण विकास लिंग संबंधी इच्छाओं और मानदंडों को निम्नलिखित तरीकों से प्रभावित कर सकते हैं:
- अपेक्षाकृत बेहतर विकास के सूचकांकों जैसे सभी मौसमों में अच्छी रहने वाली सड़कें, कम दूरी पर स्थित स्कूलों और स्वास्थ्य केन्द्रों वाले गांवों में रहने वाले लोगों और शिक्षा की उपयोगिता को लेकर उनके सोच के बीच एक स्पष्ट संबंध देखा गया है।
- अच्छी सुविधाओं वाले और विकसित गांवों में रहने वाले लोग अपने बेटे और बेटियों के लिए एक जैसी आकांक्षाएँ रखते हैं।
- अपेक्षाकृत अधिक विकसित गांवों में रहने वाले लोगों में लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति उल्लेखनीय रूप से कम होती है।
2. मीडिया की अधिक उपलब्धता (उत्तरदाताओं का अखबारों, पत्रिकाओं, टेलिविजन, रेडियो, मोबाइल फोन, इन्टरनेट और फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लैटफ़ार्म आदि से जुड़ाव) का माँओं के मन में शिक्षा के इस्तेमाल का सकारात्मक असर पड़ता है और साथ ही उनकी अपनी लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति में भी कमी आती है।
3. बिहार में लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहन देने वाली ढेरों योजनाएँ हैं। इन योजनाओं में गतिशीलता की सुविधा बढ़ाने के लिए साईकिल देने का प्रावधान, स्कूल के यूनीफॉर्म खरीदने के लिए स्टाईपेंड या स्कूल की पढ़ाई पूरा करने के बाद भुगतान की गारंटी देने वाली सशर्त नकद ट्रांसफर आदि शामिल हैं।
जीविका स्वयं–सहायता समूह (सेल्फ–हेल्प ग्रुप्स या एसजीएच)
2006 में शुरू की गई बिहार रुरल लाईवलीहुड प्रमोशन सोसायटी (या जीविका) एसजीएच के रूप में महिला सामुदायिक संस्थानों को बनाने का काम करती है। 1.06 लाख एसजीएच के अपने नेटवर्क के माध्यम से इसने बिहार के ग्रामीण इलाकों में औरतों की वित्तीय स्थिति को मजबूत बनाया है। इससे भी ज्यादा, चूंकि महिलाओं ने अब सार्वजनिक रूप से अपनी जगह बनाई है और राजनीतिक, वित्तीय और नागरिक प्रक्रियाओं में भाग लेना शुरू किया है इसलिए अब पितृसत्तात्मक और नियामक प्रतिबंधों को चुनौती देने की उनकी क्षमता भी बढ़ी है।
1. जीविका के सदस्यों में लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति सबसे कम होती है जो इस तरफ इशारा करती हैं कि ऐसे समूहों द्वारा लिंग मानदंड में ऐसे छोटे-छोटे बदलाव लाये जा सकते हैं।
2. ऐसी माएँ जो जीविका की सदस्य हैं, वे अपने बेटों और बेटियों को एक समान शिक्षा दिलवाने की इच्छा रखती है और उनमें शिक्षा की उपयोगिता से जुड़ी समझ का स्तर ऊंचा है।
3. जीविका के सदस्यों के रूप में काम करने वाली विवाहित महिलाएँ और माएँ शादी की न्यूनतम उम्र को लेकर प्रगतिशील सोच रखती हैं।
बाल विवाह को कैसे रोक सकते हैं?
बाल विवाह को खत्म करने के लिए ऐसे ऐसे बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत है जो शिक्षा और सामाजिक और आर्थिक रूप से औरतों के सशक्तिकरण को बढ़ावा दे। इस समस्या से निबटने के लिए नीचे कुछ सुझाव दिये गए हैं।
1. गरीबी को दूर करना और पूर्ण विकास को बढ़ावा देना
अध्ययन से यह बात सामने आई है कि बाल विवाह के सबसे ज्यादा मामले सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर जी रहे लोगों और उन गांवों में देखे जाते हैं जो विकास के सूचकांक पर नीचे स्थित है। आजीविका के अवसर बनाना और बहुत गरीब परिवारों को स्वास्थ्य, शिक्षा और गतिशीलता जैसी जरूरी अधिकारों तक उनकी पहुँच बढ़ाकर यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि माता-पिता अपने नाबालिग बच्चों की शादी के लिए मजबूर नहीं होंगे।
2. शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार और स्कूली शिक्षा को पूरा करने को प्राथमिकता देना
शिक्षा को उपयोगी बनाने के लिए उसकी गुणवत्ता में सुधार लाना, पढ़ाने के नए तरीकों को शामिल करना और शिक्षकों को लैंगिक समानता पर संवेदनशील बनाना जरूरी है। स्कूली शिक्षा पूरा करने के लिए प्रोत्साहन देना और शिक्षा को कौशल के अवसरों से जोड़ना भी महत्वपूर्ण है।
3. महिलाओं के आर्थिक अवसर को सुनिश्चित करना
कम उम्र की महिलाओं और लड़कियों को महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को बढ़ाने वाली सरकारी नौकरियों में 35 प्रतिशत आरक्षण जैसी योजनाओं के बारे में शिक्षित करना आवश्यक है। महिलाओं की आर्थिक मजबूती के लिए शुरू की गई योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू करने के अलावा उनके लिए पैसा कमाने के अवसर बनाकर महिलाओं को स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए तैयार किया जा सकता है। साथ ही इससे बाल-विवाह पर भी रोक लगाई जा सकती है।
4. मुख्य योजनाओं और अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाना
जहां एक तरफ लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए लागू की गई कई योजनाओं से लड़कियों की भागीदारी में बहुत अधिक उछाल आया है वहीं 57 प्रतिशत लड़कियों को मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना (देरी से शादी और स्कूल शिक्षा को पूरा करने के उद्देश्य को बढ़ावा देने के लिए सशर्त नकद हस्तानंतरण कार्यक्रम) जैसी योजनाओं के बारे में पता नहीं था। लैंगिक प्रशिक्षण को जोड़कर जीविका के साथियों की क्षमता को मजबूत करने की प्रक्रिया बाल विवाह को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
5. पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने के लिए जीविका को मजबूत बनाना
जीविका धीरे-धीरे बाल विवाह से जुड़े प्रचलित पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने का काम कर रहा है।
6. युवा लड़कों और लड़कियों को संवेदनशील बनाना
अविवाहित लड़कों में लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति सबसे अधिक पाई गई है। कम उम्र में उन्हें लैंगिक नियमों, अनुमति के बारे में संवेदनशील बनाने और सकारात्मक पुरुषत्व को बढ़ावा देने की दिशा में काम करना चाहिए।
7. समुदाय के संरक्षकों का मंच तैयार करना
माता-पिता और समुदाय के नेताओं दोनों ही प्रकार के संरक्षकों पर पड़ने वाला सामाजिक दबाव बाल विवाह को रोकने के रास्ते में बाधा पहुंचाता है। इस समस्या का समाधान गाँव के प्रभावी बुजुर्गों, धार्मिक नेताओं, शादी करवाने वाले बिचौलियों, फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं, शिक्षकों, जीविका एसजीएच के सदस्यों और पंचायत के सदस्यों को लड़कियों की शिक्षा, कार्यबल में औरतों की भागीदारी और औरतों के लिए हिंसा-मुक्त वातावरण के निर्माण के मामले में संवेदनशील बनाकर किया जा सकता है।
यह शोध यह दिखाता है कि इस क्षेत्र में अब भी बहुत अधिक काम करने की जरूरत है लेकिन बाल विवाह को लेकर लोगों की, खासकर युवा महिलाओं की सोच धीरे-धीरे बदल रही है। चूंकि बिहार और पूरे भारत में बहुत सारी लड़कियों की शादी अब भी 21 से कम उम्र में हो रही है इसलिए लड़कियों के लिए शादी की कानूनी उम्र सीमा 18 से बढ़ाकर 21 करने की प्रस्तावना में इसे ख़त्म करने वाले प्रयासों को मजबूत करने की जरूरत है।
फुटनोट:
- औरंगाबाद, बेगूसराय, बक्सर, गया, जमुई, कैमूर, खगड़िया, मधेपूरा, नवादा, रोहतास और शिवहर जैसे जिलों में 2015-16 से 2019-20 में बाल विवाह के दर में कमी आई थी। भगलपुर, कटिहार, किशनगंज, लखीसराय, पूर्व चंपारण, पूर्णिया और सहरसा में इसी समयावधि (एनएफ़एचएस-5) में 5 प्रतिशत तक बढ़ा हुआ पाया गया।
- इस अध्ययन के शोध टीम में डॉ सास्वत घोष, एसोसिएट प्रोफेसर, इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़, कोलकाता; डॉ अनामिका प्रियदर्शिनी, वरिष्ठ विशेषज्ञ, रिसर्च सक्षमा, सी3; देवकी सिंह, विशेषज्ञ, लिंग समानता, सी3; मधु जोशी, प्रमुख, लिंग समानता, सी3; शुभा भट्टाचार्य, विशेषज्ञ, लिंग समानता, सी3; और डॉ काकोली दास, एसोसिएट प्रोफेसर, विद्यासागर विश्वविद्यालय हैं।
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- अगर आप (या आपका संगठन) जमीनी स्तर पर काम करने वाले स्वयंसेवी संस्थाओं, शिक्षकों या सामुदायिक कार्यकर्ताओं के साथ काम करते हैं तब इस टूलकीट से सीखने पर विचार करें जो शक्ति, पितृसत्ता और लैंगिक भूमिकाओं की जांच करता है।
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