“जब दिव्यांग लोगों के साथ काम करना शुरू किया तो पहले डर लगता था कि इनके साथ कैसे काम करेंगे। एक साथी जो देख नहीं पाते थे, एक दिन बिना पूछे मैं उनका हाथ पकड़ कर उन्हें सड़क पार करवाने लगा। उस वक्त उन्होंने कुछ नहीं कहा लेकिन बाद में समझाया कि पहले विकलांग व्यक्ति से पूछें कि उन्हें मदद की जरूरत है भी या नहीं, उन पर दया ना करें।“ राजस्थान में यूथ फॉर जॉब्स के प्रोग्राम लीड मेहताब सिंह, अपने अनुभव से मिली सीख को कुछ इस तरह बताते हैं। विकलांग-जन पर दया करने की बजाय उनकी काबिलियत पर भरोसा कर उनके साथ बेहतर काम किया जा सकता है।
यूथ फॉर जॉब्स अपने ग्रासरूट्स एकेडमी प्रोग्राम के जरिए देश के कई राज्यों के गांवों और ब्लॉक में काम कर रही है। यह देखने, सुनने, बोलने और शारीरिक रूप से बाधित विकलांग-जन को रोजगार व स्वरोजगार से जोड़ने का काम शिक्षा और सरकारी योजनाओं तक पहुंच बनाने के माध्यम से करते हैं। विकलांग-जन के साथ काम करने के अपने सालों के अनुभव के आधार पर वे बताते हैं कि विकलांग-जन के लिए एक प्रोग्राम डिजाइन करने के लिए कई पहलुओं पर विचार करने की जरूरत होती है। विकलांग-जन को कई तरह के गहरे पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है, खासकर जमीनी स्तर पर। उनकी ज़रूरतें अलग हैं जिन्हें प्रोग्राम के साथ प्रभावी ढंग से पूरा किया जाना चाहिए। यह तय करने के लिए, संस्थाओं को अपने प्रोग्राम में कई बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
1. संस्थाओं के कार्यक्रमों में विकलांग-जन की आवाज होना जरूरी
यूथ फॉर जॉब्स की संस्थापक मीरा शिनोय कहती हैं कि कार्यक्रमों में विकलांग-जन यानि जिस समुदाय के साथ हम काम कर रहे हैं, उनकी आवाज का होना जरूरी है। हाशिए पर मौजूद हर समुदाय की ही तरह विकलांग-जन में भी अपने समुदाय की बेहतरी के लिए काम करने की प्रबल इच्छा होती है, इसका सकारात्मक इस्तेमाल, हमारे कार्यक्रमों को और सटीक बनाने में कारगर साबित होता है। उनके जीवन की हकीकतों से निकलकर आने वाले सुझाव और समाधान अक्सर हम नहीं सोच पाते हैं। इस बात को यूथ फॉर जॉब के साथ करौली में काम कर रहे शाहिद मोहम्मद इस तरह कहते हैं – संस्था ‘विकलांगों के लिए और विकलांगों द्वारा’ की विचारधारा के साथ काम करती है।
मेहताब बताते हैं, “ये इसलिए भी जरूरी है क्योंकि विकलांग-जन को खुद संदेह रहता है कि वे कोई काम कर भी पाएंगे या नहीं। लेकिन जब वे सफलतापूर्वक स्वयं काम करना शुरू करते हैं तो उन्हें खुद पर विश्वास बनता है। वे इलाके के बाकी विकलांग-जनों के लिए भी एक उदाहरण बनते हैं। अगर हम एक जिले के व्यक्ति के पास जाकर कहें कि हम उन्हें योजनाओं का लाभ दिलाने में और रोजगार दिलाने में मदद कर सकते हैं तो वो शायद हमारा यकीन न करें। लेकिन अगर वे किसी अन्य विकलांग व्यक्ति से मिलते हैं जो उन्हें यही जानकारी देता है, तब वे विश्वास कर लेते हैं।“
ग्रासरूट फैलो प्रह्लाद बेनीवाल जो खुद विकलांग हैं, कहते हैं कि उन्हें इसकी तरफ सबसे पहले इसी बात ने आकर्षित किया था कि यह विकलांग व्यक्तियों द्वारा और उन्हीं के लिए काम करने वाला प्रोग्राम है।
2. समुदाय की जरूरतों को पहचानना और उनके अनुसार कार्यक्रम तैयार करना
समुदाय की जरूरत को समझना न केवल किसी कार्यक्रम को डिजाइन करने के लिहाज से जरूरी होता है, बल्कि उसे जमीन पर लागू करने में भी इसकी अहम भूमिका है। मेहताब कहते हैं, “हमें पहले यह पहचानना होता है कि कैंडिडेट की जरूरतें क्या हैं। जैसे अगर वह 18 साल से कम उम्र का है तो उसे उचित शिक्षा कैसे मिले यह तय करना होता है। 18 से अधिक उम्र वाले के लिए यह पहचानना होता है कि उसे किसमें रुचि है, उसकी विकलांगता किस तरह की है, और उसे किस कौशल के लिए ट्रेनिंग दी जा सकती है। इसी तरह यदि किसी की उम्र ज्यादा हो तो यह देख पाना कि क्या कोई स्वरोजगार की ट्रेनिंग उसके लिए ज्यादा सही रहेगी।“
विकलांग-जन की जरूरतों को पहचानने को लेकर शाहिद कहते हैं, “हमें इसका भी ध्यान रखना होता है कि उनकी शिक्षा का मौजूदा स्तर क्या है। कई बार ऐसे भी लोग होते हैं जो उच्च शिक्षा पा चुके होते हैं, ऐसे में उसी स्तर का रोजगार भी उनके लिए खोजना होता है। वे जिनका शिक्षा-स्तर रोजगार के लिए नहीं होता, उन्हें उनकी रूचि के मुताबिक स्वरोजगार से जोड़ना होता है। मेहताब उदाहरण देते हैं कि एक शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति को एक सरकारी योजना के तहत ई-रिक्शा दिलवाया और फिर उसे किराए पर दे दिया गया ताकि उसकी आय बनी रहे।
इन प्रयासों के बावजूद, यह हमेशा संभव है कि किसी व्यक्ति को कार्यक्रम से मिलने वाले किसी भी विकल्प में रुचि न हो, ऐसे में यह पता लगाना भी महत्वपूर्ण है कि उनका सहयोग कैसे किया जाए। मेहताब इसे समझाने के लिए एक विकलांग युवती का उदाहरण देते हैं जो अपने हाथों का उपयोग नहीं कर पाती है, इस कारण उसे प्रोग्राम द्वारा मिलने वाली नौकरियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन उसे खेलों में रुचि थी, इसलिए वह राज्य स्तरीय पैरालंपिक टीम से जुड़ी और कई पुरस्कार भी जीते।
अक्सर विकलांग-जनों को, खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में सरकारी योजनाओं तक पहुंचने में काफी दिक्कतें सामने आती हैं। उनके आधार कार्ड, पैन कार्ड या अन्य सरकारी दस्तावेजों में नाम, पता, पति या पिता का नाम और जन्मतिथि जैसी महत्वपूर्ण जानकारियां कई बार गलत दर्ज हो जाती हैं। मोबाइल नंबर या ईमेल आईडी लिंक नहीं होने या फिर गलत लिंक होने से उन्हें ठीक करने में भी समस्याएं आती हैं। शाहिद बताते हैं कि बहुत से लोगों को यूडीआईडी कार्ड या दिव्यांगता सर्टिफिकेट के बारे में पता भी नहीं होता है जो कि विकलांग-जन के लिए सरकारी योजनाओं का लाभ पाने के लिए जरूरी होता है। हम लोगों को इसके बारे में और सरकारी योजनाओं पर अपडेट करते हैं और यूडीआईडी कार्ड सहित अन्य जरूरी दस्तावेज बनवाने या ठीक कराने में उनकी सहायता करते हैं। इसके लिए हमें हर जगह उन्हें और उनके परिवार के किसी व्यक्ति को भी साथ लेकर जाना होता है, ताकि हम उन्हें यह प्रक्रिया सिखा सकें और वे यह खुद कर पाने में सक्षम हो सकें।
केवल रोजगार या शिक्षा ही नहीं, सरकारी योजनाओं की जानकारी उपलब्ध कराना और इनसे जोड़ने में सहायता करना भी विकलांग-जन की एक अहम जरूरत है। इससे भी समुदाय का विश्वास हासिल हो पाता है और उनके साथ ज्यादा सहजता से काम हो पाता है।
3. संवेदनशील और कुशल फील्ड टीम
विकलांग-जन के लिए प्रभावी कार्यक्रम डिजाइन करने के साथ-साथ, उन्हें जमीन पर अमल में लाने वाली एक कुशल और संवेदनशील फील्ड टीम का होना भी जरूरी है। टीम की ट्रेनिंग ऐसी होना जरूरी है जो उन्हें जमीनी चुनौतियों के तत्काल समाधान खोजने और परिस्थितियों के अनुसार काम के तरीकों में बदलाव लाने में सक्षम बनाए।
मीरा, अपने काम में फील्ड टीम और समुदाय के प्रशिक्षण के लिए असरदार ट्रेनिंग मॉड्यूल को बहुत महत्वपूर्ण बताती हैं, साथ ही वह उनमें लचीलापन होने को भी जरूरी बताती हैं। वे कहती हैं, “पहले साल हमने अपने ट्रेनिंग मॉड्यूल में वह चीजें डाली जो हमें उनके लिए जरूरी लगी, इसके बाद तुरंत ही समुदाय से हमें सुझाव आने लगे कि उन्हें क्या काम की चीज लगी और क्या नहीं। फिर अगले साल हमने समुदाय से पूछा कि उन्हें क्या जरूरी लगता है और फिर हमने उसी अनुसार नए ट्रेनिंग मॉड्यूल बनाए गए। आज समुदाय के लोग ही सारा कॉन्टेंट फिर से बना रहे है जो कि पूरी तरह से उनकी जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा है।” वे इसमें आगे जोड़ते हुए कहती हैं कि मूल कॉन्टेंट उनके द्वारा ही बनाया जाता है हमारी भूमिका उसमें मुख्य रूप से तकनीकी सहयोग देने की होती है।
प्रशासन से साझेदारी, विकलांग-जन के लिए स्थानीय स्तर पर सरकारी आर्थिक सहायता तक पहुंच को भी आसान बनाती है।
शाहिद बताते हैं, “केवल संस्था का ही संवेदनशील होना काफी नहीं है। वे कंपनियां जिनके साथ वे रोजगार के लिए काम करते है, उनसे भी समय-समय पर बातचीत करनी होती है। हमें लगातार लोकल मार्केट को स्कैन करते रहना होता है, और एम्प्लॉयर (संभावित रोजगार देने वाले) को अपने प्रोग्राम की जानकारी देनी होती है। समय-समय पर हम उनकी विकलांग-जन के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने पर भी काम करते हैं और उन्हें एक तय ट्रेनिंग अवधि के लिए विकलांग-जन को रोजगार देने के लिए प्रेरित करते हैं।” शाहिद बताते हैं कि वे विकलांग कैंडीडेट और एम्प्लॉयर के बीच संवाद को लेकर भी काम करते हैं और उनकी टीम के आपसी तालमेल के लिए ट्रेनिंग आयोजित करते हैं।
4. स्थानीय स्तर पर प्रशासन और समुदाय के साथ साझेदारी
स्थानीय प्रशासन और समुदाय के साथ साझेदारी जमीन पर काम करने का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसके बारे में मीरा बताती हैं कि उनकी फील्ड टीम जिला, ब्लॉक और पंचायत के अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों के साथ संवाद करती है। साथ ही, यह आशा वर्कर, आंगनवाड़ी सहायक और स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं आदि से भी लगातार संपर्क में रहती है। इससे क्षेत्र के अधिक से अधिक जरूरतमंद विकलांग-जनों तक पहुंच बन पाती है और उनसे जुड़ना संभव हो पाता है। साथ ही, क्षेत्रीय प्रशासनिक अधिकारियों की सहभागिता तय करने के लिए रचनात्मक तरीके भी अपनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए असिस्टिव टेक (जैसे व्हीलचेयर, टैबलेट आदि) के वितरण के लिए कार्यक्रम आयोजित कर संबंधित सरकारी अधिकारियों को बुलाना, इससे उनका काम भी नजर में आता है और विकलांग-जन की जरूरतें भी पूरी होती हैं। प्रशासन से साझेदारी, विकलांग-जन के लिए स्थानीय स्तर पर सरकारी आर्थिक सहायता तक पहुंच को भी आसान बनाती है, जो प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं के लिए मुश्किल होता है।
5. परिवार को साथ में लेकर चलना जरूरी
संस्थाओं के लिए यह समझना जरूरी है कि समाज में विकलांग-जन के प्रति पूर्वाग्रह तो मौजूद हैं ही, साथ ही माता-पिता भी उनके प्रति ज्यादा चिंतित रहते हैं और संभव है कि उन्हें काम करने की अनुमति न देना चाहें। मेहताब कहते हैं कि ऐसे में दिव्यांग साथी, परिवारों को समझाने की भूमिका बेहतर तरीके से निभा पाते हैं। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों के अपने अनुभव के आधार पर वे बताते हैं कि विकलांग महिलाओं को घर से बाहर कदम रखने की अनुमति नहीं मिलती है – न शिक्षा के लिए और न ही रोजगार के लिए। प्रह्लाद बताते हैं, “माता-पिता भी अपनी बेटियों के लिए चिंतित रहते हैं और पूछते हैं कि अगर उन्हें कोई कठिनाई आती है तो क्या होगा। हम उन्हें अन्य महिला दिव्यांगों से जोड़ते हैं और काम के लिए प्रेरित करने के लिए उनकी कहानियां साझा करते हैं। कुछ मामलों में उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य को साथ में रोजगार भी दिलवा देते हैं।”
मेहताब कहते हैं कि कभी-कभी किसी विकलांग महिला की शादी कम उम्र में कर दी जाती है, इसलिए हम पति-पत्नी दोनों को एक ही स्थान पर रोजगार दिला देते हैं, जैसे राशन की दुकान पर।
विकलांग-जनों के साथ काम करने में आने वाली चुनौतियां और काम के दौरान मिली सीख
अपने काम में आने वाली चुनौतियों के बारे में मीरा कहती हैं कि नियोक्ता (एम्प्लॉयर) को यह समझा पाना कि किसी विकलांग को रोजगार देने से उनके काम पर नकारात्मक असर नहीं होगा, यह एक बड़ी चुनौती है। छोटे और मझोले उद्योगों में नियोक्ताओं को समझा पाना और मुश्किल होता है, बड़ी कंपनियां तो फिर भी अपने सीएसआर लक्ष्यों के चलते कुछ सहयोग दे देती हैं। इन्हें देखते हुए हमें इसका खास खयाल रखना होता है कि हमारी ट्रेनिंग प्राप्त करने वाले विकलांग युवा अपना काम अच्छी तरह से कर पाएं। समुदाय की जरूरतों का खयाल रखने के साथ-साथ नियोक्ता को नुकसान ना हो इसका भी पूरा ध्यान रखना होता है। विकलांग ठीक से काम नहीं कर पाते हैं जैसे पूर्वाग्रहों का मुकाबला करना भी एक बड़ी चुनौती है।
जमीनी चुनौतियों को लेकर शाहिद बताते हैं, “रोजगार के संदर्भ में विकलांग-जन में शिक्षा का स्तर एक बड़ी चुनौती है, खासकर कि ग्रामीण इलाकों में। प्राइमरी या मिडिल तक तो वो फिर भी गांव के स्कूल में पढ़ लेते हैं, लेकिन अक्सर हाई स्कूल और आगे की पढ़ाई के लिए स्कूल पास में नहीं होते हैं। विकलांग-जन के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है और इस कारण अधिकांश मामलों में उनकी आगे की पढ़ाई रुक जाती है। रोजगार देने वाले भी कम से कम दसवीं तक पढ़े लोगों को ही लेना चाहते हैं, ऐसे में उनके लिए रोजगार के मौके तलाश पाना मुश्किल होता है। गांवों में और छोटी जगहों पर रोजगार के मौके वैसे ही कम होते हैं ऐसे में विकलांग कैंडीडेट के पास के शहर में हम उनके लिए काम खोजने की कोशिश करते हैं। लेकिन अपना घर छोड़कर एक अंजान जगह पर अकेले रहना या गांव से शहर रोज आना-जाना भी उनके लिए मुश्किल होता है।” शाहिद बताते हैं कि कुछ मामलों में वे कैंडीडेट के परिवार के अन्य व्यक्ति जो विकलांग नहीं है को भी उसी जगह रोजगार दिला देते हैं ताकि उनकी जरूरतों का खयाल उनका ही कोई परिवार जन रख सके।
विकलांग-जन के लिए काम करने के लिए उत्साहित युवाओं और संस्थाओं को मीरा सुझाव देतीं हैं कि “विकलांग-जन के लिए काम करने का जज्बा होना सबसे पहली जरूरत है। इसके बाद यह समझना जरूरी है कि इस क्षेत्र में अलग-अलग पहलुओं पर बहुत काम किए जाने की जरूरत है। इसलिए यह पहचानने की कोशिश करें कि वे कौन से पहलू हैं जिन पर काम नहीं किया जा रहा है या जिन पर और काम किए जाने की जरूरत है। जहां पहले से ही काफी काम हो रहा है उसे ही करने से बचें, लेकिन इसका भी ध्यान रखें कि आपके काम के लगातार और स्थाई रूप से चलते रहने (सस्टेनेबिलिटी) की गुंजाइश बनी रहे।“
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