विकास सेक्टर में अलग-अलग संस्थाएं विभिन्न मुद्दों पर काम करती हैं। हर जगह ज़मीनी स्तर पर काम करने वालों भी हमेशा यही कोशिश रहती है कि कैसे उपयोगी जानकारी को न केवल खुद हासिल किया जाए बल्कि आम लोगों तक भी सरलता से पहुंचाया जाए।
अगर आप पंचायतों में श्रमिकों से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं तो आपको भी मनरेगा जैसी योजनाओं से जुड़ी जानकारी रखने की ज़रूरत पड़ती होगी।
ऐसे में यदि आप अपनी पंचायत में मनरेगा योजना के तहत जॉब कार्ड्स की स्थिति, विकास कार्य गतिविधियों और उन पर होने वाले खर्च के बारे में जानना चाहते हैं तो इन सब कामों के लिए आपको सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने की जरूरत नहीं है। ये सारी जानकारियां आप घर बैठे ऑनलाइन माध्यमों से आसानी से चेक कर सकते हैं।
अगर आप मनरेगा से जुड़े आंकड़ों जिसमें सक्रिय कामगारों की संख्या, सम्पत्ति (असेट्स) का निर्माण, प्रति व्यक्ति दिनों की संख्या, डीबीटी ट्रांसफर की स्थिति, कुल लाभान्वित घरों की संख्या तथा व्यक्तिगत श्रेणी के कार्यों की जानकारी चाहते हैं तो इसके लिए आप मनरेगा की आधिकारिक वेबसायट पर जाना होगा। वेबसायट पर जाकर नीचे दिए गए सेक्शन में इन विषयों से संबंधित जानकारी आप विस्तार से देख सकते हैं। इसमें प्रत्येक राज्य का डाटा उपलब्ध होता है।
अगर आप अपने राज्य में जॉब कार्ड, कार्यों की प्लानिंग से संबंधित, काम की डिमांड, उसके आवंटन से जुड़ी जानकारी, मस्टररोल, कार्य प्रगति की स्थिति, फंड या संबंधित जानकारी देखना चाहते हैं तो इसके लिए आपको मनरेगा वेबसाईट के होम पेज पर ‘रिपोर्ट’ ऑप्शन पर क्लिक करना होगा।
उदाहरण के लिए अगर आप छत्तीसगढ़ राज्य से हैं और आप जानना चाहते हैं कि आपके राज्य में कुल कितने जॉब कार्ड श्रेणीवार (एससी,एसटी, महिला) पंजीकृत हैं तथा कुल कितने ऐक्टिव हैं तो आप यह जानकारी यहां ऑनलाइन चेक कर सकते हैं। इसी तरह आप बाकी राज्यों का भी डाटा ऑनलाइन देखा सकता है। इतना ही नहीं, अगर आप राज्य के किसी भी ज़िले के अंतर्गत पंचायत में नाम सहित जॉब कार्ड की लिस्ट देखना चाहते हैं तो वो भी आपको इसी के अंतर्गत ऑनलाइन मिल जाएगी।
मनरेगा के तहत कितने परिवारों ने काम के लिए डिमांड किया है, यह जानकारी आप राज्यवार आसानी से ऑनलाइन यहां चेक कर सकते हैं।
यदि आप देखना चाहते हैं कि राज्यवार अथवा आपके राज्य में मनरेगा कामगारों को राशि का औसतन कितना भुगतान किया गया है तो आप यह जानकारी यहां देख सकते हैं।
जब पंचायत में किसी परिवार द्वारा मनरेगा के तहत काम के लिए डिमांड किया जाता है तो पंचायत द्वारा उस परिवार के निवास स्थान के पांच किलोमीटर के दायरे में उन्हें काम उपलब्ध करवाना होता है। अगर बावजूद इसके, पंचायत उन्हें काम उपलब्ध नहीं कराती है तो ऐसी स्थिति में उन्हें बेरोज़गारी भत्ता देने का भी प्रावधान है। आप इस लिंक के माध्यम से ऑनलाइन यह देख सकते हैं कि आपके राज्य में कितने लोगों को इसका लाभ मिल पाया है।
मनरेगा में कई बार ऐसी शिकायतें होती हैं जिनके लिए लोग पंचायत के पास जाने को लेकर असमंजस में रहते हैं।
ऐसी कई शिकायतें होती हैं जहां अगर पंचायत आपकी बात न सुने ऑनलाइन माध्यमों का इस्तेमाल किया जा सकता है।
बहुत सारी जानकारी ऑनलाइन माध्यमों में उपलब्ध हैं और समय-समय पर इन्हें अपडेट भी किया जाता है। इन्हें हासिल करते रहने के लिए ज़रूरी है कि आप घर बैठे इन माध्यमों का नियमित इस्तेमाल करें ताकि बेवजह सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने से बच सकें। इससे न केवल आप सरकार के डेटा को ऑनलाइन ऐक्सेस कर पा रहे हैं बल्कि इसके आधार पर आप सरकार से भी जवाब मांग सकते हैं।
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जब हम किसी संभावित समाजसेवी दानकर्ता (नॉन-प्रॉफिट डोनर्स) के बारे में सोचते हैं तो हमारे मन में अनुदान-देने वाले फाउंडेशन, कॉरपोरेशन, और बहुत अधिक संपत्ति वाले लोगों (एचएनआई) की छवि उभर कर आती है। लेकिन क्या किसी समाजसेवी संस्था के कार्यक्रमों से लाभान्वित होने वाले लोग लंबे समय तक चलने वाली फंडिंग प्रक्रिया के लिए प्रेरक शक्ति बन सकते हैं? यदि हां, तो उन्हें अपने हिस्से का योगदान देने के लिए कैसे प्रेरित किया जा सकता है? ऐसे ही प्रश्नों के बारे में गहराई से जानने के लिए यह केस स्टडी, फाउंडेशन फॉर एक्सीलेंस (एफएफई) और उसकी एल्मनाई एंगेजमेंट के बड़े प्रयासों पर नजर डालती है।
एफएफई वित्तीय बाधाओं का सामना करने वाले मेधावी छात्रों को कॉलेज की डिग्री के लिए छात्रवृत्ति प्रदान करता है। इसके लिए आमतौर पर ऐसे छात्रों को चुना जाता है जिनमें इंजीनियरिंग, मेडिकल, फ़ार्मेसी या कानूनी पढ़ाई (भारत में सबसे महंगे उच्च शिक्षा कार्यक्रमों में से कुछ) में आगे बढ़ने की प्रबल संभावना होती है। छात्रवृति के अलावा इन छात्रों को रोज़गार के लिए आवश्यक कौशल प्रशिक्षण और उन क्षेत्रों के विशेषज्ञों द्वारा नियमित रूप से दिशा-निर्देशन भी दिया जाता है। एक बार जब उनकी डिग्री पूरी हो जाती है तब वे एफएफई के पूर्व छात्र (एल्मनाई) बन जाते हैं।
साल 2010–11 में एफएफई को अपने पूर्व छात्रों से कुल 21 लाख रुपये का दान मिला था। तब से, पूर्व छात्रों द्वारा मिलने वाले दान की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो 2021-22 में 1538 पूर्व छात्रों से 4.2 करोड़ रुपये (पूर्व छात्रों द्वारा संचालित मिले दान और सीएसआर फंड सहित) तक पहुंच गई।
लेकिन किस बात ने एफएफई को पूर्व छात्र सहभागिता वाले इस दृष्टिकोण को अपनाने के लिए प्रेरित किया? और उन्होंने इसे कैसे कारगर बनाया है?
साल 1994 में एफएफई की स्थापना के बाद से, छात्रवृति के लिए चुने गये छात्र इस बात की प्रतिज्ञा लेते हैं कि सक्षम होने के बाद से वे कम से कम दो अन्य छात्रों की शिक्षा का खर्च उठाएंगे। हालांकि, संगठन के शुरुआती दिनों में इसके कार्यकारी निदेशक और बोर्ड अमेरिका में थे। भारत की टीम में बड़े पैमाने पर वॉलंटियर शामिल थे, और उनका ध्यान उन छात्रों की पहचान करने पर था जो छात्रवृति पाने के योग्य थे। नतीजतन, पढ़ाई पूरी कर निकल चुके लोग उनकी प्राथमिकता में शामिल नहीं थे। इसके अलावा, संगठन के पूर्व छात्रों के डाटाबेस की स्थिति भी अच्छी नहीं थी। उनसे पास अपने पूर्व छात्रों से संपर्क का एक मात्र ज़रिया वे चिट्ठियां थीं जो उनमें से कुछ ने संगठन को लिखे थे।
साल 2003 में एफएफई इंडिया ट्रस्ट की स्थापना के बाद, इसने भारत में ऐसी व्यवस्था बनाई ताकि पूर्व छात्र दान कर सकें। शुरुआत में उन्हें एफएफई के वॉलंटियर बेस के माध्यम से ट्रस्ट के बारे में जागरूक किया गया था। छात्रवृत्ति को प्रचारित करने और इसके लिए योग्यता प्राप्त करने वाले छात्रों की पहचान करने के लिए समुदाय के साथ मिलकर काम करने के कारण, इन वॉलंटियरों ने पूर्व छात्रों के साथ एक संबंध विकसित कर लिया, जिसका लाभ उन्होंने दान को प्रोत्साहित करने के लिए उठाया।
एफएफई की प्रबंध ट्रस्टी सुधा किदाओ ने कहा कि उन्होंने 2011 में धीरे-धीरे पूर्व छात्रों का डेटाबेस बनाना शुरू किया। ‘उसके पहले, हम इस विश्वास के साथ काम कर रहे थे कि हमें दान के लिए अपने पूर्व छात्रों से संपर्क नहीं करना चाहिए क्योंकि वे जब इसके योग्य होंगे तो स्वयं ही इसकी पहल करेंगे। लेकिन एक बार अपने पूर्व छात्रों से बातचीत शुरू करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि इनसे संपर्क करने और दान देने के लिए प्रोत्साहित करना ग़लत नहीं है। अख़िरकार, उनकी अलग-अलग तरह की प्राथमिकताएं हो सकती हैं और संभव है कि एफएफई उनके दायरे में भी ना हो।’
इस बात को समझने के बाद उनके पास पूर्व छात्रों के रूप में एक ऐसा संसाधन स्रोत है जिसका इस्तेमाल उन्होंने अभी तक दान पाने के लिए नहीं किया, एफएफई ने उनके साथ सक्रिय रूप से संपर्क स्थापित करने और इस काम में अधिक संसाधन के निवेश का फ़ैसला किया। एफएफई के संस्थापक, डॉक्टर प्रभु गोयल का इस दृष्टिकोण में बहुत अधिक विश्वास होने के कारण उन्होंने पूर्व छात्रों से संपर्क स्थापित करने वाले टीम को नियुक्त करने के लिए फंड मुहैया करवाया। उनसे मिले अप्रतिबंधित अनुदान ने उनके पूर्व छात्र कार्यक्रम को कारगर बनाने में ज़रूरी भूमिका निभाई।
शुरुआती कुछ वर्ष चुनौतीपूर्ण थे; एफएफई के डेटाबेस में उपस्थित पूर्व छात्रों की जानकारी अधूरी, पुरानी या ग़लत थी। इसलिए, 2010–11 के दौरान, एफएफई की टीम ने उन वालंटियर और पूर्व छात्रों के परिवारों से संपर्क किया और उनके बारे में जानकारी जुटाई। उस समय, प्रतिक्रिया और दान देने वाले पूर्व छात्रों की संख्या कम थी। साथ ही, एफएफई ने पूर्व छात्रों से यह भी अनुरोध किया कि वे स्थानीय समुदायों में संगठन के कार्यक्रमों के बारे में जागरूकता पैदा करने, अन्य छात्रों की पहचान करने में मदद करने जो उनकी छात्रवृत्ति से लाभान्वित हो सकते हैं, और प्रौद्योगिकी आवश्यकताओं और फ़ंडिंग में सहायता मांगने जैसे कामों में भाग लें। इस सोच के पीछे पूर्व छात्रों के साथ संपर्क को बढ़ाना था और साथ ही यह भी ध्यान में रखना था कि संगठन का ध्यान केवल उनसे दान लेने तक ही सीमित ना रहे। इस प्रकार, एफएफई टीम ने धीरे-धीरे एक व्यापक पूर्व छात्र डेटाबेस बनाना शुरू कर दिया।
“मैंने पूर्व छात्रों के कार्यालयों के साथ बहुत बातचीत की, लेकिन मुझे पता चला कि वे वास्तव में सफल नहीं थे।”
इसके अलावा, चूंकि एफएफई के कई बोर्ड सदस्य प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों से जुड़े थे, इसलिए वे यह देख पाने में सक्षम थे कि इन संस्थानों के एलुमनाई नेटवर्क कैसे काम करते हैं। नज़दीक से इस मामले को देखने के बाद उनके सामने एक चुनौती उभर कर आई। सुधा कहती हैं कि ‘मैंने पूर्व छात्रों के कार्यालयों के साथ बहुत बातचीत की, लेकिन मुझे पता चला कि वे वास्तव में सफल नहीं थे। बल्कि विभिन्न बैचों के कुछ लोग ही थे जो लगे रहे और अपने साथी बैचमेट्स को संस्थान के लिए कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया। लेकिन इन छात्रों में एक बात समान थी – वे उस कैंपस के थे और ज़्यादातर एक-दूसरे के सहपाठी थे। हमारे छात्रों के साथ यह बात नहीं थी। उन सभी की पढ़ाई दो सौ से अधिक, विभिन्न कॉलेज में हुई थी और उनका या तो आपस में कभी किसी तरह का संपर्क नहीं हुआ था या फिर एक दूसरे को बहुत कम जानते थे। एकमात्र समानता उनकी एफएफई छात्रवृत्ति थी।’ इस प्रकार, पूर्व छात्रों को अपने साथी बैचमेट को संस्था को कुछ वापस देने के लिए प्रोत्साहित करने वाला संस्थागत मॉडल एफएफई के लिए कारगर नहीं था।
परिणाम स्वरूप, एफएफई ने यह सोचकर अपने पूर्व छात्रों के लिए एक वेब पोर्टल विकसित करने की योजना बनाई ताकि इससे वे एक-दूसरे के साथ बातचीत कर सकें और उनके भीतर समुदाय की भावना पैदा हो सके। एक उदार अप्रतिबंधित अनुदान के माध्यम से, एफएफई ने एक छात्र संघ वेब पोर्टल लॉन्च किया, लेकिन आशा के विपरीत इससे अनुदान या संपर्क दर में बहुत अधिक वृद्धि नहीं आई। तब तक फ़ेसबुक, लिंक्डइन और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म लोकप्रिय होने शुरू हो गये थे। और, एफएफई और पूर्व छात्रों से जुड़ी जानकारियों को हासिल करने के लिए अलग से एक दूसरे पोर्टल पर जाने का विचार लोगों के लिए आकर्षक और प्रभावशाली नहीं रह गया था। इसलिए, एफएफई ने पूर्व छात्रों से संपर्क को बढ़ाने के लिए वैकल्पिक मॉडल पर काम करना शुरू कर दिया।
प्रभु ने बाद में सुधा को स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र कार्यालय से जोड़ा। वे अपेक्षाकृत अधिक व्यक्तिगत बातचीत को बढ़ावा देने के लिए अपने पूर्व छात्रों से नियमित संपर्क के महत्व पर जोर देते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि, स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय की टीम के साथ अपनी बातचीत के दौरान सुधा ने यह सीखा कि कुछ पूर्व छात्र शायद इसलिए भी दान नहीं देना चाहेंगे क्योंकि उन्हें लगता है कि – भले ही उनके लिए उनका दान महत्वपूर्ण है – लेकिन अधिक धनी पूर्व छात्रों द्वारा दिये जाने वाले दान के सामने उनका दान छोटा या कम लगेगा। इस सोच से एफएफई को यह समझने में मदद मिली कि पूर्व छात्रों से संपर्क करते समय उन्हें दान (इसके आर्थिक मूल्य से परे) के महत्व को रेखांकित करना चाहिए।
परिणामस्वरूप एफएफई ने वह मॉडल अपनाया जहां वे अपने पूर्व छात्रों को नियमित कॉल करते थे। हालांकि इस मॉडल में संसाधन के साथ-साथ पूरे साल नियमित रूप से संपर्क को बनाए रखने की ज़रूरत थी, यह मॉडल एफएफई द्वारा अपनाई गई सभी रणनीतियों में सबसे अधिक प्रभावशाली थी। शुरुआत में संगठन ने 1.5 लोगों की टीम के साथ इसकी शुरुआत की जिनका मुख्य काम टेलीफ़ोनिक कॉल, व्हाट्सऐप संदेशों, दान अभियानों आदि के माध्यम से पूर्व छात्रों से संपर्क स्थापित करना था। वर्तमान में इस टीम में कुल पांच लोग हैं जो पूरे समय इसी काम में लगे रहते हैं।
रणनीति बहुत ही साधारण थी लेकिन साथ ही उनके लिए अपने पूर्व छात्रों के पेशेवर यात्रा से जुड़ी नई से नई जानकारी जुटाना आवश्यक था। एफएफई उनसे संपर्क करता था, उनकी सफलता पर उन्हें बधाई देता था और उन्हें उनके द्वारा ली गई प्रतिज्ञा की याद दिलाता था। हालांकि, इस तरीक़े की अपनी चुनौतियां थीं। जहां एक तरफ़ कुछ पूर्व छात्र पूरी तरह से उनके कॉल और संदेशों को नज़रअन्दाज़ कर देते थे, वहीं कुछ की प्रतिक्रिया या तो ग़ुस्से वाली होती थी या फिर बातचीत के दौरान वे इस बात का संकेत देते थे कि वे दान के लिए तैयार नहीं हैं। हमारा सौभाग्य था कि एफएफई से मिलने वाले संदेशों और कॉल से खुश होने वाले पूर्व छात्रों की संख्या लगातार बढ़ रही थी और वे दान भी देने के इच्छुक थे।
सुधा ने भी बताया कि एफएफई के लिए मिलते-जुलते अनुदान (मैचिंग ग्रांट) भी एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। ‘मैंने अमित (चंद्रा) से बात की, जो हमारे इस पूर्व छात्र कार्यक्रम से बहुत अधिक प्रभावित थे, और वे जानना चाहते थे कि आप अपने अनुदान को आगे कैसे ले जा सकते हैं।’ परिणाम स्वरूप, एफएफई ने अमित और प्रभु जैसे फंडरों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना शुरू किया कि वे पूर्व छात्रों के दान से मैच करें। पूर्व छात्रों को यह मैचिंग अनुदान विशेष रूप से आकर्षक लगा और यह जानते हुए कि उनके दान को प्रभावी ढंग से कई गुना बढ़ाया जा रहा था, वे अधिक मात्रा में दान करने को तैयार थे।
अनुदान-मिलान प्रयास की सफलता ने उन्हें कॉग्निजेंट से संपर्क करने के लिए प्रेरित किया, जिसने हर साल 50 लाख रुपये तक दान देने का वादा किया। एफएफई-कॉग्निजेंट साझेदारी की शुरुआती पुनरावृत्ति ने 250 छात्रों के एक बैच को वित्त पोषित किया (जहां छात्रवृत्ति राशि का 50 प्रतिशत एफएफई पूर्व छात्रों से और 50 प्रतिशत कॉग्निजेंट से आया था), और तब से अधिक बैचों को मैचिंग अनुदान से फंड किया गया है।
2016-17 में, एफएफई ने अपने पूर्व छात्रों के साथ यह जांचने के लिए बातचीत शुरू की थी कि क्या जिन कंपनियों में उन्होंने काम किया है, वे भी अनुदान मैचिंग से जुड़े हुए हैं। ऐसा करने वाली कंपनियों की संख्या बहुत कम थी, क्योंकि अधिक छात्रों ने स्नातक की उपाधि प्राप्त की और विभिन्न क्षेत्रों को कवर करने वाली विविध कंपनियों में रोजगार प्राप्त किया, एफएफई की हालिया जानकारी (वित्त वर्ष 2020-21 से) से पता चला कि कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने कर्मचारियों द्वारा प्रदान किए गए दान के बराबर दान करने के लिए तैयार थीं।
एफएफई पूर्व छात्रों तक पहुंचने, उनके योगदान की खुशी मनाने, कार्यक्रमों का प्रचार करने, पूर्व छात्रों को साथियों और विद्वानों से जोड़ने और अभियान चलाने के लिए सोशल मीडिया का लाभ उठाता है। लिंक्डइन ने विशेष रूप से संगठन को उन पूर्व छात्रों तक पहुंचने में मदद की है जिनसे उनका संपर्क टूट गया था। इससे उनकी पेशेवर यात्राओं पर नज़र रखने में भी मदद मिली है। पूर्व छात्रों द्वारा एफएफई के कॉल या ईमेल का जवाब नहीं देने की स्थिति में अब वे अपने डेटाबेस का उपयोग ऐसे अन्य छात्रों की पहचान के लिए कर सकने में सक्षम होते हैं जो उसी समय में समान विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहे थे। ऐसे छात्रों की पहचान के बाद वे उनसे एफएफई के पूर्व छात्रों से संगठन की ओर से संपर्क करने का अनुरोध करते हैं।
एफएफई ने अपने छात्रों के लिए प्रशिक्षण, वेबिनार और बहुत कुछ आयोजित करने के लिए कंपनियों के साथ बातचीत को सक्षम करने के लिए सोशल मीडिया का भी लाभ उठाया है। इसके अलावा वह सोशल मीडिया का लाभ अपने छात्रों तथा पूर्व छात्रों के लिए नई नौकरियों की जानकारी देने; वॉलंटियर बनकर मेंटर और फ़ेसिलिटेटर (पूर्व छात्र हैं जो एफएफई को छात्रवृत्ति आवेदकों के लिए सत्यापन प्रक्रिया को पूरा करने में मदद करते हैं) के रूप में अपनी सेवाएं देने वालों को सूचीबद्ध करने की प्रक्रिया में भी उठाता है।
साल 2016 के आसपास, संगठन को यह महसूस हुआ कि उन्हें अपने रोज़मर्रा के संचालन के लिए किए गये तकनीक के उपयोग में बेहतरी लाने की ज़रूरत है। सुधा कहती हैं कि ‘यह बहुत स्पष्ट था कि हमारे द्वारा इस्तेमाल की जा रही प्रबंधन सूचना प्रणाली (मैनेजमेंट इनफार्मेशन सिस्टम) मज़बूत नहीं थी, और हमारे बहुत सारे आंकड़े या तो दोहराव वाले थे या फिर ग़लत। हमें यह महसूस हुआ कि अगर हम अपना विस्तार चाहते हैं तो हमें तुरंत ही तकनीक में निवेश करने की ज़रूरत है। उस समय हमारे सीओओ ने हमारी प्रणाली का मूल्यांकन किया और सेल्सफोर्स (एक सीआरएम सॉफ्टवेयर) में निवेश का सुझाव दिया। सौभाग्य से हमारा बोर्ड इसके लिए तैयार हो गया। वर्तमान में, हमारे सभी सिस्टम सेल्सफ़ोर्स में एकीकृत हो गये हैं।’
विशेष रूप से अपने विस्तार को सक्षम बनाने के संदर्भ में तकनीक में निवेश हमारे संगठन के लिए बहुत अधिक लाभदायक साबित हुआ।
एफएफई के सभी छात्रवृत्ति कार्यक्रम और परामर्श/प्रशिक्षण कार्यक्रम को सेल्सफोर्स में एकीकृत किया गया है। इसके अलावा, इसका उपयोग पढ़ाई पूरी होने की बाद पूर्व छात्रों की सूची में शामिल होने वाले छात्रों और पूर्व छात्र रिपोर्ट (एल्मनाई रिपोर्ट) पर नज़र रखने के लिए भी किया जाता है। इसलिए, तकनीक में निवेश करना संगठन के लिए बहुत अधिक लाभदायक साबित हुआ है, विशेष रूप से संगठन के विस्तार के संदर्भ में। सुधा कहती हैं ‘अगर हमें 25 हज़ार छात्रों को छात्रवृति देने के लिए कोई बहुत बड़ा अनुदान मिलता है तो मैं जानती हूं कि हम ऐसा कर पाने में सक्षम हैं। सेल्सफोर्स पर अपनी मौजूदा सुविधाओं को बढ़ाने के लिए हमें कुछ पैसों का निवेश करना पड़ सकता है, लेकिन मैं विश्वास के साथ कह सकती हूं कि सिस्टम काम करेगा और हम संतोषजनक परिणाम दे सकते हैं।’ हालांकि इस मामले में एफएफई बड़ा सौभाग्यशाली है कि उसके पास कुछ ऐसे इंजीनियर थे जो सेल्सफोर्स के संचालन में कुशल थे, उन्हें सॉफ्टवेयर की क्षमताओं का पूरी तरह से उपयोग करने के लिए अधिक इंजीनियरिंग भागीदारों और विशेषज्ञता की आवश्यकता थी। इसी चरण में कोग्निजेंट की भूमिका प्रबल हुई। कॉग्निजेंट ने सेल्सफोर्स के उपयोग को अनुकूलित करने में मदद करने के लिए अपनी वरिष्ठ टीम से एफएफई को मुफ्त समय की पेशकश की – जिसकी कीमत अन्यथा 50 लाख रुपये होती। (इससे काफी मदद मिली कि 75 से अधिक एफएफई पूर्व छात्र कॉग्निजेंट में कार्यरत थे।)
ज़्यादातर अन्य समाजसेवी संस्थान की तरह एफएफई के पास फंडरेजिंग के लिए एक समर्पित टीम नहीं है। लेकिन पूर्ण रूप से समर्पित कर्मचारियों की कमी से इसे मिलने वाले दान के आकार और गुणवत्ता पर किसी तरह का प्रभाव नहीं पड़ता है।
सुधा ने इस बात का ज़िक्र किया कि संगठन ने इस सिद्धांत को ठोस करने के लिए अतिरिक्त प्रयास किये कि सभी कर्मचारी फ़ंडिंग का काम कर सकते हैं। ‘मुझसे अक्सर यह प्रश्न किया जाता है कि एफएफई की फंडरेजिंग टीम में कितने लोग हैं। हमारे पास ऐसी कोई टीम नहीं है। मैं हमेशा यह कहती हूं कि हमारी टीम इतना अच्छा काम करती है कि हमें अलग से कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है।’ संगठन इस प्रकार टीम के प्रदर्शन करने की क्षमता पर भरोसा करता है, और अपने कार्यक्रमों को चलाने में उनकी निरंतर सफलता ने एक अलग धन उगाहने वाली टीम पर भरोसा किए बिना उनके धन जुटाने के प्रयासों पर सकारात्मक प्रभाव डाला है।
भारत और अमेरिका में एफएफई के बोर्ड सदस्यों ने – अपनी प्रबंधन टीम, डोनर रिलेशन टीम और एल्मनाई टीम के साथ-साथ – धन जुटाने में मदद की है। धन जुटाने के लिए ठोस और सहयोगात्मक दृष्टिकोण के परिणाम मिले हैं। जब संगठन एफएफई को उनके प्रभाव के लिए बधाई देने या धन्यवाद देने के लिए संपर्क करते हैं, तो संगठन इसे उनके द्वारा किए जा रहे काम के बारे में दूसरों को बताने के लिए प्रोत्साहित करने के अवसर के रूप में उपयोग करता है। इससे फंडिंग या सहयोग के अतिरिक्त अवसर भी खुलते हैं।
दूसरी तरफ, जब एफएफई मदद के लिए अपने पूर्व छात्रों से संपर्क करता है तब वह उन्हें ऐसे पांच या अधिक तरीक़ों का सुझाव भी देता है जिससे वे अपना योगदान दे सकते हैं। सीधे दान करने के अलावा, वे इस बात का भी पता लगाते हैं कि क्या उनके पूर्व छात्र सीएसआर फंड/ मैचिंग अनुदानों के माध्यम से अपने नियोक्ताओं से दान करने की बात पूछ सकते हैं। इसके अलावा, वे यह भी पता लगाते हैं कि क्या ये पूर्व छात्र अपने दोस्तों या सहकर्मियों के नेटवर्क में दान की बात प्रस्तावित कर सकते हैं। एफएफई उनसे छात्रवृति कार्यक्रम के लिए छात्रों की पहचान करने, फ़ेलिसीटेटर के रूप में बैकग्राउंड सत्यापन प्रणाली में मदद करने और वर्तमान में छात्रवृति कार्यक्रम में शामिल छात्रों का दिशा निर्देशन करने के लिए भी कहता है। सुधा का कहना है कि यह दृष्टिकोण पूर्व छात्रों को उस तरीके से मदद करने का अवसर प्रदान करता है जो उनके जीवन के उस विशेष चरण में उनके लिए सबसे उपयुक्त हो। सुधा कहती हैं कि ‘आप हर चीज़ के लिए ना कैसे कह सकते हैं?’
एफएफई टीम इस समझ के साथ काम करती है कि आज वे जिस प्रतिभाशाली छात्र की सहायता करते हैं, वह कल संगठन के लिए दाता बन सकता है। अपनी छात्रवृत्ति के प्राप्तकर्ताओं को चेंजमेकर्स और दाताओं के रूप में देखकर, संगठन उन्हें वह सम्मान प्रदान करता है जो अक्सर गायब होता है जब समाजसेवी संस्थाएं समुदायों को केवल एक लाभ हासिल करने वाले के रूप में देखती हैं। इस प्रकार संगठन अपने छात्रों के बीच देने की संस्कृति भी विकसित करना चाहता है। सुधा ने इस बात पर जोर दिया कि छात्रों को देने के महत्व को समझाना बहुत महत्वपूर्ण है। वे कहती हैं कि ‘मैं हमेशा उन्हें (छात्रों को) कहती हूं कि कोई ऐसा जो आपको नहीं जानता था उसने आप पर भरोसा किया और वह आप में निवेश करना चाहता है। क्या आप भी किसी के लिए ऐसा कर सकते हैं?’ यह विचार कि जो लोग सहायता प्राप्त करते हैं वे संभावित दाता हो सकते हैं, केवल विशिष्ट प्रकार के कार्यक्रमों और उन समूहों के साथ काम करने वाले समाजसेवी संस्थाओं के लिए व्यवहारिक होगा जिनके पास भविष्य में देने की क्षमता होगी। फिर भी आजीविका और शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह एक बड़ी सलाह है।
सुधा कहती हैं कि ‘बहुत सारे संगठन कहते हैं कि उन्होंने 25 हज़ार लोगों को कुशल बनाया है, लेकिन क्या वे जानते हैं कि वे लोग आज कहां हैं? वे क्या कर रहे हैं?’ पिछले पांच वर्षों में, एफएफई पूरे वर्ष छात्रों के साथ जुड़ा रहा है (कौशल प्रशिक्षण, नेतृत्व और तकनीकी प्रशिक्षण, सेमिनार/वेबिनार और सलाह के माध्यम से)। इसके परिणामस्वरूप पिछले वर्षों की तुलना में छात्रों के साथ अधिक मजबूत संबंध बने हैं। पूर्व छात्रों के साथ संबंध ने उनके लिए वित्त पोषण का एक स्थायी स्रोत खोल दिया है और वे अपने वर्तमान छात्रों को प्रदान करने में सक्षम समर्थन को बढ़ाते हैं।
इसके अलावा, कुछ पूर्व छात्रों को विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में एफएफई के बोर्ड में शामिल किया गया है। जो लोग अपने कार्यक्रमों के माध्यम से नेतृत्व की भूमिकाओं में हैं, उन्हें स्थान देकर, संगठन यह सुनिश्चित करता है कि जिस समुदाय की हम सेवा करते हैं, उसका प्रतिनिधित्व निर्णय लेने के स्तर पर हो।
चूंकि एफएफई पहले से ही छात्रों के बीच देने की संस्कृति को विकसित करने का काम करता है, इसलिए वे पूर्व छात्र बनने के बाद छात्रों की वापस देने की इच्छा को प्रभावी ढंग से पूरा करने में सक्षम हैं। लेकिन मदद करने की इच्छा रखने के बावजूद ज़रूरी नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति हमेशा वापस देने के प्रति सक्रिय हो ही। यह कई कारणों में से एक है कि उनसे पूछने की प्रक्रिया एफएफई के मॉडल का एक अभिन्न अंग है।
सुधा कहती हैं कि ‘शुरुआत के कुछ वर्षों में पूर्व छात्र कार्यक्रम प्रभावी ढंग से काम नहीं कर सका क्योंकि हमने उनसे कभी मदद नहीं मांगी।’ सुधा यह भी कहती हैं कि अस्वीकृति स्पष्ट रूप से एक अलग संभावना है, उन्होंने कहा, ‘मुझे लगातार अस्वीकृति का सामना करना पड़ता है (दान के संबंध में), लेकिन मैं आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हूं। पहले, मैं अस्वीकृति को व्यक्तिगत रूप से लेती थी, लेकिन अब मैं खुद को याद दिलाती हूं कि यह मेरे लिए नहीं बल्कि संगठन के लिए है। इसलिए मुझे मदद मांगने में कोई झिझक नहीं होती है।’
ऐसे कई तरीकों की रूपरेखा तैयार करना महत्वपूर्ण है जिनसे व्यक्ति/संगठन मदद कर सकते हैं।
ऐसे कई तरीकों की रूपरेखा तैयार करना भी महत्वपूर्ण है जिनसे व्यक्ति/संगठन मदद कर सकते हैं। जैसा कि पहले भी बताया गया है, एफएफई विभिन्न प्रकार का समर्थन प्राप्त करने में सक्षम है क्योंकि वे मदद के लिए पूर्व छात्रों या संगठनों से संपर्क करते समय केवल दान नहीं मांगते हैं। जब पूर्व छात्र या संगठन परामर्श या प्रशिक्षण में सहायता करते हैं, तो यह एफएफई को लागत-गहन प्रयासों को बचाने में मदद करता है और साथ ही उस पक्ष की पेशकश करता है जो एफएफई के छात्रों के जीवन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने के अवसर के साथ सहायता प्रदान करता है।
जब अपने निवेश पर रिटर्न पाने की बात आती है तो दानकर्ताओं को दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यह देखते हुए कि कई संगठन लंबे समय से अपने समुदायों की स्थितियों में सुधार लाने पर काम कर रहे हैं, दानदाताओं के लिए तत्काल परिणाम की उम्मीद करना अव्यावहारिक है। सुधा कहती हैं कि ‘यदि आप संगठन और उद्देश्य में विश्वास करते हैं तो आपको उन पर भरोसा करना चाहिए कि वे अपने लिए बेहतर ही करेंगे।’
दानकर्ता आमतौर पर किसी कार्यक्रम विशेष की लागत के लिए दान देना चाहते हैं, लेकिन संगठनों को प्रतिभाओं को नियुक्त करने और प्रशिक्षित करने के लिए भी धन की आवश्यकता होती है। सुधा बताती हैं कि ‘कोई भी संगठन सही लोगों के बिना यह काम नहीं कर सकता। और यदि आप महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं तो आपको वेतन में कटौती क्यों करनी पड़ेगी?’ अपने बोर्ड पर प्रतिभाशाली लोगों को शामिल करने के अलावा, संगठनों को अपनी प्रक्रियाओं को सबसे कारगर बनाने की भी आवश्यकता होती है, जिसमें उपयुक्त तकनीक में निवेश भी शामिल हो सकता है। एफएफई द्वारा अपनाए गए पूर्व छात्र जुड़ाव मॉडल के लिए उन्हें एक व्यापक पूर्व छात्र डेटाबेस बनाने और उन्हें नियमित कॉल करने की आवश्यकता थी। संचालन को और बेहतर बनाने के लिए पूर्व छात्रों के जुड़ाव कार्यक्रम को सेल्सफोर्स में एकीकृत किया गया। पूर्व छात्र टीम का समर्थन करने के लिए अनुदान के बिना, पूर्व छात्र सहभागिता मॉडल काम नहीं कर पाता। अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए लोगों, प्रक्रियाओं, तकनीक और समय की आवश्यकता होती है।
किसी संगठन के विकास और लचीलेपन और मानव पूंजी के निर्माण के लिए अप्रतिबंधित अनुदान आवश्यक होता है। साथ ही, जैसा कि एफएफई के पूर्व छात्र कार्यक्रम में देखा गया है, यह लचीलेपन को प्रयोग करने की अनुमति भी देता है। सख्ती से प्रोग्रामेटिक फंडों ने एफएफई की इन प्रक्रियाओं को विकसित करने और सही रणनीति और तकनीक को अपनाने की संभावनाओं में बाधा उत्पन्न कर सकती थी। यहीं पर अप्रतिबंधित अनुदान से उन्हें काफी मदद मिली। दूरदर्शी दाताओं के पास समाजसेवी संस्थाओं को अप्रतिबंधित धन प्रदान करने की क्षमता होने के कारण सार्थक तरीकों से बड़े पैमाने पर प्रभाव डालने में मदद मिल सकती है। अन्य समाजसेवी संस्थाएं भी अप्रतिबंधित अनुदान द्वारा प्रदान किए गए लचीलेपन से लाभान्वित हो सकती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह उन्हें दीर्घकालिक रणनीति तैयार करने के लिए सुरक्षा प्रदान करेगा जो उनके संगठन को उनकी बेहतरी के लिए एक स्थायी ताकत के रूप में विकसित होने में मदद कर सकता है।
सुधा किदाओ फरवरी 2011 से फाउंडेशन फॉर एक्सीलेंस (एफएफई) इंडिया ट्रस्ट की मानद प्रबंध ट्रस्टी हैं। वे एफएफई-यूएसए की बोर्ड सदस्य भी हैं और 2005 से संगठन से जुड़ी हुई हैं जब उन्होंने कैलिफोर्निया में एफएफई के फंडिंग प्रयासों के लिए अपना समय स्वेच्छा से देना शुरू किया। सुधा ने टेक्सास विश्वविद्यालय से जीवविज्ञान (इम्यूनोलॉजी में विशेषज्ञता) में पीएचडी और मद्रास विश्वविद्यालय से प्राणीशास्त्र में बीएससी और एमएससी की पढ़ाई की है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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“मैं कल फील्ड पर ज़मीनी कार्यकर्ताओं की मदद के लिए जा रही हूं।”
“मेरे कमरे में छिपकली है! कोई और जगह ढूंढो, मुझे यहां नहीं रहना।”
“चलने के लिए बहुत ज्यादा है, सर्वे के लिए इतना दूर का गांव क्यों ले लिया!”
“ओ माई गॉड, अब क्या करूं? गांव में इतने सारे कुत्ते क्यों हैं!”
“यहां सब ठीक ही चल रहा है, मुझे अब वापस निकल जाना चाहिए, मेरे लिए गाड़ी का इंतजाम करो!”
विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
आज का शब्द है – जेंडर इनिक्वालटी या लैंगिक असमानता।
विकास सेक्टर में लैंगिक मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाएं अक्सर लैंगिक असमानता शब्द का इस्तेमाल करती दिखती हैं। असमानता या गैर-बराबरी जब किसी लिंग के आधार पर होती है तो उसे लैंगिक असमानता कहा जाता है।
लैंगिक असमानता वह स्थिति है जिसमें अधिकारों या अवसरों तक पहुंच में लिंग रुकावट बनता है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक लिंग को दूसरे से अधिक वरीयता या अधिकार दिए जाते हैं।
लैंगिक असमानता कई तरह से होती है। मसलन, दुनियाभर में महिलाएं घर पर पुरुषों की तुलना में तीन गुना अधिक अवैतनिक काम करती हैं। इनमें घरेलू काम, बच्चों और परिवार के सदस्यों की देखभाल करना शामिल है। इसके अलावा भी बहुत से उदाहरण हैं जहां मूलभूत सेवाओं के लिए भी लैंगिक आधार पर कई तरह के भेदभाव किए जाते हैं।
लेकिन भारत का संविधान, मौलिक अधिकारों के तहत अपने नागरिकों को लिंग, धर्म, जाति और जन्म स्थान के आधार पर किए जाने वाले हर तरह के भेदभाव को ग़लत बताते हुए समानता की बात करता है।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।
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किसी भी समाजसेवी संगठन में एक मज़बूत टीम संस्कृति विकसित करने के लिए किन चीजों की ज़रूरत होती है? जब आपको बजट और संसाधनों के लिए संघर्ष करते रहना पड़े तो आप इस काम को कैसे कर सकते हैं? और, आपको अपने टीम के सदस्यों को प्राथमिक शेयरधारकों के बराबर महत्व क्यों देना चाहिए? इन्हीं जैसे कुछ सवालों का जवाब खोजने के लिए आइये हम अर्पण की प्रतिभा प्रबंधन की यात्रा के बारे में जानते हैं। आज इस लेख में हम उनकी यात्रा की शुरुआत, आज वे जहां हैं वहां तक कैसे पहुंचे, और उनकी सफलता का कारणों के बारे में जानेंगे।
अर्पण मुंबई स्थित एक समाजसेवी संगठन है जो बाल यौन शोषण की रोकथाम के लिए काम करता है। क़रीब 15 वर्ष (2007 में) पहले जब उन्होंने इसकी शुरुआत की थी तब उनकी टीम में केवल तीन ही लोग थे। अगले छह सालों (2013 तक) में, टीम में कुल 18 लोग हो गये थे और संगठन में किसी भी तरह की ठोस एचआर प्रक्रिया या नीति का अभाव था। हालांकि, अंतिम 10 सालों में, उन्होंने 120 अन्य सदस्यों (टीम के आकार को लगभग 140 तक पहुंचाकर) को जोड़ने के साथ ही अपने बजट को 14 गुना बढ़ा दिया है जो 2013 में 1.2 करोड़ रुपये से 2023 में लगभग 16.5 करोड़ रुपये तक हो गया।
इस विकास के केंद्र में वह ख़ास निवेश है जो उन्होंने सोच-समझकर लोगों में किया है।
पूजा तपारिया (संस्थापक, सीईओ) कहती हैं कि एचआर की अवधारणा टीम के सदस्यों की ओर से ही आई थी। ‘जब हमारी टीम बढ़नी शुरू हो गई थी तब 2011 में हम लोगों ने एचआर के बारे में थोड़ा-बहुत सोचना शुरू कर दिया था। हमें किसी ना किसी तरह की प्रक्रिया की ज़रूरत महसूस होने लगी थी, टीम हमसे सवाल कर रही थी, लेकिन हमारे पास उन सवालों के जवाब नहीं थे। मुझे नहीं लगता है कि उन दिनों हमारे पास किसी तरह की उचित मूल्यांकन प्रणाली भी थी।’
यही वह समय था जब हेमेश शेठ (निदेशक, सपोर्ट ऑपरेशन) हमसे जुड़े। वे 2013 में संगठन में शामिल हुए और गंभीरता से एचआर और वित्त विभाग की ज़िम्मेदारी सम्भाली। उसके पहले तक कुछ सहायकों की मदद से पूजा अकेले ही इन चीजों को सम्भाल रही थीं। हेमेश के आने से टीम का विकास हुआ, प्रक्रियाओं को स्वरूप मिला, नीतियां मज़बूत हुईं और हमारे काम के प्रभाव को विस्तार मिला जो अन्यथा संभव नहीं था। (अर्पण को लगातार पांच सालों तक काम करने के लिए सबसे अच्छी जगह का प्रमाणपत्र भी मिल चुका है।)
आइये जानते हैं कि इसके लिए उन्होंने क्या-क्या किया।
बुनियादी स्तर पर ही, अर्पण ने यह सुनिश्चित किया कि वे देश के सभी क़ानूनों का पालन करेंगे। पूजा कहती हैं कि जैसे-जैसे देश में कानून बदले, संगठन ने उन सभी को शामिल कर लिया। उदाहरण के लिए, जब गर्भावस्था और पितृत्व से संबंधित क़ानूनों में बदलाव हुआ – वेतन के साथ मातृत्व अवकाश को तीन महीने से बढ़ाकर छह महीने किया गया, और पितृत्व अवकाश और गर्भपात लाभ कानून की शुरूआत की गई – तब अर्पण ने इन बदलावों को अपनी एचआर नीतियों में शामिल कर लिया। संगठन के पास पीओएसएच समिति और बाल संरक्षण नीति भी है जो कि अर्पण की तरह काम करने वाली किसी भी टीम के लिए क़ानूनी रूप से अनिवार्य और महत्वपूर्ण दोनों है।
हालांकि, एचआर से जुड़े क़ानूनों का पालन करने के अलावा, अर्पण को अन्य संगठनों से अलग करने वाली चीज विवेक और भरोसे पर दिये जाने वाले वे लाभ हैं जो संस्था अपने टीम के सदस्यों को प्रदान करती है। सभी कर्मचारियों को वार्षिक प्रशिक्षण भत्ता दिया जाता है ताकि वे अपने कौशल का विकास कर सकें। इसके अलावा, संगठन उन्हें चिकित्सीय भत्ता भी देता है जिसका निवेश वे अपने स्वास्थ्य को बेहतर करने में कर सकते हैं। ज़्यादातर अन्य संगठनों द्वारा सोचने से बहुत पहले अर्पण ने इन दोनों ही प्रावधानों को अपनाया और अब ये दोनों ही प्रावधान पिछले एक दशक से संगठन की नीतियों का हिस्सा हैं।
अर्पण द्वारा किए जाने वाले कठिन कामों के कारण कर्मचारियों में बर्नआउट की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए वे चिकित्सीय भत्ता देते हैं।
हेमेश कहते हैं कि पूजा, मानसिक स्वास्थ्य के महत्व को समझती हैं और इस पर ज़ोर देती हैं और इसी का परिणाम है कि टीम के स्वास्थ्य की बेहतरी और उनके कौशल विकास पर दिया जाने वाला विशेष ध्यान दिया जाता है। ‘वे हमारी क्वाटर्ली समीक्षाओं में भी काउंसिलिंग को बढ़ावा देती हैं। अब प्रत्येक तीन महीने में हम इस बात पर निगरानी बनाए रखते हैं कि कितने लोग इस भत्ते का लाभ उठा रहे हैं और उससे उन्हें किस तरह का लाभ मिल रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में निश्चित रूप से हम उनकी पहचान की गोपनीयता का पूरा ध्यान रखते हैं।’ अर्पण, टीम के प्रत्येक सदस्य को चिकित्सीय भत्ता के रूप में प्रति माह 1500 रुपये देता है।
पूजा कहती हैं कि अर्पण द्वारा किए जाने वाले कामों की प्रकृति कठिन होने के कारण कर्मचारियों में बर्नआउट की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए वे चिकित्सीय भत्ता देते हैं। इसके बावजूद भी, टीम का प्रत्येक सदस्य इसे नहीं लेता है। लोगों को अपनी-देखभाल की ज़रूरत को नहीं समझते हैं। वे कहती हैं कि ‘मेरा अनुमान है कि इसका संबंध संस्कृति से है, और विशेष रूप इसलिए क्योंकि अर्पण में महिलाओं की संख्या अधिक है, हम व्यक्तिगत रूप से अपनी देखभाल नहीं करते हैं। हमें हमेशा बच्चों, परिवार, और हर दूसरी चीज अधिक महत्वपूर्ण लगती है, और इससे आख़िरकार बर्नआउट की स्थिति पैदा हो जाती है।’
तमाम और संगठनों के विपरीत, अर्पण ने अपनी यात्रा की शुरुआत में ही दूसरी पंक्ति/निदेशक स्तर का निर्माण शुरू कर दिया था। 2014 में, संगठन ने प्रोग्रामैटिक के साथ-साथ एचआर, वित्त और निगरानी एवं मूल्यांकन जैसे सहायक कार्यों को देखने के लिए सीनियर लीडर्स को नियुक्त किया। नतीजतन, ऑर्गेनोग्राम बदल गया।
सीनियर लीडरशिप के साथ टीम में एक क्रम (हेरार्की) आया। अपने शुरुआती चार सालों में अर्पण जहां एक समान ढांचे पर काम करने वाला संगठन था वहीं जल्द ही उन्हें इस बारे में सोचना शुरू करना पड़ा कि काम की रिपोर्टिंग किसके पास करनी है और टीम को व्यवस्थित करने का सबसे सही तरीक़ा क्या था। साथ ही संगठन का आकार बढ़ने के कारण, ऑर्गेनोग्राम में भी लगातार बदलाव आ रहा था।
किसी भी संगठन में लचीलापन को बनाने के लिए निदेशक स्तर पर सात से आठ लोगों का होना महत्वपूर्ण है।
पूजा बताती हैं कि ‘हमने वरिष्ठ नेतृत्व को मज़बूत बनाने की दिशा में काम किया। आमतौर पर 140 सदस्यों वाले किसी भी समाजसेवी संगठन में अधिकतम दो से तीन लोग [निदेशक/वरिष्ठ स्तर पर] होते हैं। हमारे पास किसी भी स्थिति और समय में सात से आठ लोग होते हैं। अगर हमें संगठन में लचीलेपन का निर्माण करना है तो उसके लिए यह महत्वपूर्ण है, ताकि किसी एक व्यक्ति के जाने की स्थिति में अगला व्यक्ति उसका कार्यभार सम्भाल सके और यह सुनिश्चित कर सके कि काम व्यवस्थित ढंग से हो रहा है। हमने यह भी महसूस किया कि जब एक विशिष्ट कार्यक्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करने वाले वरिष्ठ होते हैं तो इसमें निवेश किया गया समय कहीं अधिक होता है। यह पिछले दशक में होने वाली हमारी वृद्धि के बारे में बताता है।’
किसी भी संगठन में लचीलापन को बनाने के लिए निदेशक स्तर पर सात से आठ लोगों का होना महत्वपूर्ण है।
साल 2009 से 2018 तक, अर्पण ने 40 हज़ार बच्चों, अभिभावकों, और शिक्षकों तक पहुंचने के लिए अपने व्यक्तिगत सुरक्षा शिक्षा कार्यक्रम को 20 गुना बढ़ाया। उनके द्वारा निपटाए गए मामलों की संख्या 30 गुना बढ़ गई, और उन्होंने पूरे भारत में शिक्षकों और समाजसेवी पेशेवरों के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण प्रदान करना शुरू कर दिया। 2015 में एक हज़ार लोगों के साथ काम करने के बाद, अब वे देशभर में 35 हज़ार लोगों को प्रशिक्षित करते हैं।
पूजा और हेमेश दोनों का ही कहना है कि बिना गुणवत्ता से समझौता किए एक ही समय में कई तरह के काम करने की अर्पण की योग्यता का कारण एक सशक्त नेतृत्व टीम है। कई वर्षों के अनुभव वाले टीम के सदस्यों में निवेश करने से उन्हें अपने काम की पूरी तरह से निगरानी करने, गंभीर रूप से सोचने और जमीन पर काम करने वाले लोगों की क्षमताओं के निर्माण में निवेश करने का अवसर मिला। उदाहरण के लिए:
पूजा कहती हैं कि ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि उनके पास केंद्रित और विविध पहलुओं का नेतृत्व करने के लिए अलग-अलग लोग उपलब्ध हैं। ‘प्रत्येक व्यक्ति सब कुछ करने का प्रयास न करके केवल एक या दो चीजों पर ध्यान दे रहा है, क्योंकि आप सभी काम नहीं कर सकते हैं।’ पूजा और हेमेश दोनों ही इस बारे में बात करते हैं कि सही वरिष्ठ लोगों को नियुक्त करना कितना महत्वपूर्ण है। हेमेश का कहना है कि ‘जब हम विभिन्न स्तरों पर भर्ती करते हैं तो सांस्कृतिक रूप से फिट होना महत्वपूर्ण होता है लेकिन वरिष्ठ लोगों की नियुक्ति के समय यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। उनके मामले में, नियुक्ति की प्रक्रिया गंभीर हो जाती है और इसमें बहुत अधिक समय भी लगता है।’ इसमें बोर्ड शामिल होता है, उम्मीदवार को टेस्ट्स देने पड़ते हैं और टीम और अपने भावी साथियों दोनों के साथ संवाद करना पड़ता है। पूजा कहती हैं कि ‘यह एक लंबी प्रक्रिया है, और कभी-कभी हम ग़लत भी होते हैं, लेकिन वरिष्ठों की नियुक्ति के ज़्यादातर मामलों में हम सौभाग्यशाली रहे हैं।’ अर्पण में, जूनियर टीम के सदस्य की नियुक्ति में औसतन दो से तीन सप्ताह का समय लगता है, वहीं टीम के किसी वरिष्ठ सदस्य की नियुक्ति प्रक्रिया छह से आठ सप्ताह का समय लेती है।
अर्पण अपने सदस्यों को वार्षिक प्रशिक्षण भत्ता (ज्वाइनिंग के पहले वर्ष के लिए 5,000 रुपये और यह राशि हर साल बढ़ती है) प्रदान करता है जो टीम के सदस्यों को कौशल निर्माण में लगातार निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करता है। टीम का प्रत्येक सदस्य इस राशि का उपयोग संगठन में अपनी भूमिका से जुड़े किसी भी क्षेत्र में अपने कौशल विकास के लिए कर सकता है। इसके अलावा, अर्पण संगठन के भीतर ही सीखने के कई अवसरों का निर्माण करता है। इसी में से एक है टीम से केस स्टडी चर्चा करवाना। पूजा दसरा के नेतृत्व कार्यक्रम (डीएसआईएलपी) से एचबीआर केस अध्ययन की सुविधा प्रदान करती हैं, जिसका उपयोग टीम को नेतृत्व, प्रतिभा प्रबंधन, रणनीति और अन्य संगठनों से सीखने और अंतर्दृष्टि की एक श्रृंखला से अवगत कराने के लिए किया जाता है। पूजा बताती हैं कि, ‘हम वास्तव में इस बात में विश्वास करते हैं कि लोगों की क्षमताओं का निर्माण किए बग़ैर हम अच्छा काम नहीं कर सकते हैं। इसके अलावा, इससे उन्हें अगले नेतृत्व वाले दिशा में आगे बढ़ने में मदद मिलेगी जिसकी वे अकांक्षा कर रहे हैं।’
संगठन मैनेजर पद पर काम करने वाले सदस्यों और वरिष्ठ नेताओं को कोचिंग भी प्रदान करता है। पूजा कहती हैं कि इससे उन्हें रोज़मर्रा के जीवन में लोगों से जुड़े मामलों, समस्याओं को सुलझाने में मदद मिलती है। इसके बदले में, वरिष्ठ नेता वित्त और सरकार के साथ फंडरेजिंग और, निगरानी और मूल्यांकन जैसे विविध विषयों पर पूरे संगठन के लिए क्षमता निर्माण सत्र आयोजित करते हैं। पूरा संगठन इनका लाभ उठा सकता है और इनका उद्देश्य उन्हें उन क्षेत्रों को समझने में मदद करना है जिन पर वे काम नहीं करते हैं।
अंत में, अर्पण टीम का मनोबल बढ़ाने के लिए कई रणनीतियों का उपयोग करता है। इनमें से कुछ में वार्षिक प्रशंसा दिवस (जहां टीम के सदस्य एक-दूसरे के योगदान को स्वीकार करते हैं और सराहना करते हैं), पुरस्कारों के माध्यम से अच्छे प्रदर्शन को पुरस्कृत करना, और सभी टीम के सदस्यों (क्षेत्र और कार्यालय दोनों में) को काम पर आने-जाने से संबंधित खर्चों को भुगतान करना शामिल है।
अर्पण टीम मूल्यों की संस्कृति में विश्वास करता है। हेमेश और पूजा दोनों ही, इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि आपके संगठनात्मक मूल्यों पर स्पष्ट होना और यह सुनिश्चित करना कितना महत्वपूर्ण है कि उन्हें लगातार दोहराया जाए। अर्पण में, प्रत्येक वर्ष, संस्कृति, मूल्यों और दर्शन पर एक टीमव्यापी सत्र आयोजित करते हैं। इन सत्रों में केवल पावरप्वाइंट प्रेजेंटेशन नहीं होता है। हेमेश कहते हैं कि ‘हम लोगों को समूहों में बांटते हैं और उन्हें जीवन से जुड़ी व्यावहारिक चुनौतियां देते हैं। हम इनका उपयोग यह देखने के लिए करते हैं कि लोग काम करते समय किन मूल्यों का प्रदर्शन करते हैं।’ इसके अतिरिक्त, जब कोई नया व्यक्ति शामिल होता है तो मूल्यों से जुड़ी बातों पर जोर दिया जाता है, और उसके बाद दोबारा तिमाही समीक्षाओं के दौरान भी इस पर चर्चा की जाती है।
हेमेश आगे कहते हैं कि ‘संगठनात्मक मूल्यों की वास्तविक परीक्षा यह है कि आप उन्हें अपने रोज़मर्रा के कामों और फ़ैसलों में प्रदर्शित कर रहे हैं या नहीं। क्या वे आपके काम का प्रमुख आधार बनते हैं? इसे लगातार व्यक्त करना और टीम के लिए इसे दोहराना महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि अर्पण की मूल्य संस्कृति के प्रति एक कर्मचारी की सहजता को भी संगठन के प्रदर्शन प्रबंधन मेट्रिक्स में शामिल किया गया है।’
लोगों में निवेश करने की चुनौतियां कम नहीं हैं। पूजा और हेमेश के अनुसार, अर्पण ने जिन दो सबसे बड़ी समस्याओं का सामना किया है और कर रहा है, वे व्यक्तिगत विकास और कंपन्सेशन का प्रबंधन करना है।
एक चुनौती जिसका सामना कई संगठन अपने विकास के दौरान करते हैं, वह यह है कि जब वे लोग जो प्रारंभिक टीम का हिस्सा थे – संगठन के स्तंभ जो विरासत को आगे बढ़ाते हैं – संगठन के विस्तार के साथ कौशल का विकास नहीं कर पाते हैं तो क्या होता है?
यह वे कर्मचारी हैं जो अपने उद्देश्य और संगठन के प्रति समर्पित, वफादार और बहुत भावुक हैं। हालांकि, संगठन के आगे बढ़ने के साथ-साथ कुछ लोग अपने करियर में आगे बढ़ने और प्रबंधक बनने के लिए आवश्यक नए कौशल सीखने में कामयाब होते हैं। वहीं कई अन्य लोग भी संघर्ष करते हैं, और संगठन के भीतर करियर पथ की कल्पना करना मुश्किल हो जाता है। यह कर्मचारियों और लीडर्स, दोनों के लिए निराशाजनक हो सकता है। हेमेश कहते हैं कि ‘वे अगले स्तर तक पहुंचना चाहते हैं लेकिन पहुंचने के योग्य नहीं हैं क्योंकि संभव है कि उनकी क्षमता समाप्त हो गई है या वे खुद को अपग्रेड नहीं करना चाहते हैं। इसलिए आप उन्हें ग्रेड में ऊपर नहीं बढ़ा सकते हैं क्योंकि उनके पास उस स्तर पर काम करने के कौशल की कमी है।’
संगठन के आगे बढ़ने के साथ-साथ कुछ लोग अपने करियर में आगे बढ़ने और प्रबंधक बनने के लिए आवश्यक नए कौशल सीखने में कामयाब होते हैं।
पूजा बताती हैं कि, ‘हमने लोगों को विकल्प देने की कोशिश कि। उसमें से एक है दूसरी टीम के साथ काम करना ताकि उनकी भूमिका में बदलाव आए- इससे एकरसता को तोड़ने में मदद मिलती है। कई बार हमने यह भी महसूस किया कि जहां एक आदमी मैनेजर का पद सम्भालने के योग्य नहीं है वहीं व्यक्तिगत स्तर पर अधिक योगदान दे सकता है। इसलिए हम ऐसी भूमिकाएं बनाते हैं जिनसे वे ऐसा कर पाने में सक्षम होते हैं। हम ऐसी सभी चीजें करने का प्रयास करते हैं क्योंकि हम वास्तव में अपने कर्मचारियों को अपने साथ बनाए रखना चाहते हैं क्योंकि वे ही हमारी मूल संपत्ति हैं। लेकिन हमेशा ही ऐसा कर पाना हमारे लिए भी संभव नहीं होता है।’
हेमेश का कहना है कि वे टीम के इन सदस्यों को कौशल विकास के लिए उन्हें दिया जाने वाला वार्षिक प्रशिक्षण भत्ता का उपयोग करने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं। ‘यह पेचीदा है। आप उन्हें खोना नहीं चाहते हैं लेकिन यह एक व्यक्ति की भी ज़िम्मेदारी होती है कि वे संगठनात्मक विकास और अवसरों के लिए आगे बढ़ें।’
सेक्टर में वेतन का मानदंड तय करना एक मुश्किल काम है। कुछ भुगतान के अध्ययन हैं, लेकिन पूजा बताती हैं कि उनका उल्लेख करना कठिन है क्योंकि सेक्टर में मिलने वाला वेतन अक्सर संगठनों द्वारा किए जाने वाले कार्य, उनके स्थान, टीम और बजट आकार और कई अन्य मानकों के आधार पर काफी भिन्न होता है।
पूजा कहती हैं कि ‘यह देखने के लिए एक बेंचमार्क ढूंढना मुश्किल है कि आप मुआवजे के स्पेक्ट्रम पर कहां हैं। हमेशा ही कुछ ऐसे कर्मचारी होते हैं जो नाखुश रहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि दूसरे संगठन अधिक पैसा दे रहे हैं। अर्पण में लोगों का वेतन वास्तव में अच्छा है और हम स्पेक्ट्रम में सबसे ऊपर रहने की कोशिश करते हैं क्योंकि हमारे काम का क्षेत्र बहुत कठिन है लेकिन बावजूद इसके यह हमारे लिए एक लगातार बनी रहने वाली चुनौती है।’
हेमेश का कहना है कि वे उन संगठनों के साथ बेंचमार्क करने का प्रयास करते हैं जो बाल संरक्षण पर काम करते हैं। हालांकि उनमें से ज़्यादातर संगठन आकार में अर्पण के बराबर नहीं लेकिन बावजूद इसके ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी संरचना एक समान है। उनका यह भी कहना है कि ‘क्योंकि हम अपनी तुलना फ़ंडिंग संगठनों या सीएसआर के तहत मिलने वाले वेतन से नहीं कर सकते हैं।’ बावजूद इसके, अर्पण को बोर्ड की बैठकों में इतने सारे वरिष्ठ नेताओं और ‘उच्च’ वेतन की आवश्यकता पर विरोध का सामना करना पड़ा है। पूजा बताती हैं कि ‘वे हमारी तुलना अन्य काम करने वाले समाजसेवी संगठनों से करते हैं और उनका कहना है कि नेतृत्व स्तर पर हम लोगों को उच्च वेतन देते हैं। हमारे एक सीएसआर फ़ंडर ने इसे इस साल हमें फंड न देने के लिए एक कारण के रूप में इस्तेमाल किया।’
पूजा कहती हैं कि अपने संगठन में लोगों की देखभाल करना आपकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। ‘जब आप अपनी टीम की देखभाल करते हैं, उनसे मिलने वाले परिणाम बेहतर होते हैं। देखभाल की यह संस्कृति उन लोगों तक पहुंचती है जिनके लिए आप काम करते हैं। अगर आप ज़मीन पर अच्छा काम करना चाहते हैं तो आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि आपके टीम के सदस्यों की देखभाल हो रही है और उनका सम्मान किया जा रहा है।’
भले ही अधिक वेतन ही क्यों ना देना पड़े लेकिन बोर्ड में सही लोगों को शामिल करना बहुत अधिक महत्वपूर्ण होता है। पूजा का मानना है कि वरिष्ठ नेतृत्व वाले स्तर पर दिये जाने वाले वेतन (उदाहरण के लिए, कार्यक्रम निदेशक का वेतन) को कार्यक्रम बजट में शामिल किया जाना चाहिए। ‘हां, अलग-अलग लोगों को अलग-अलग वेतन देने से स्थिति थोड़ी सी बिगड़ ज़रूर सकती है लेकिन मौजूदा कर्मचारियों को अगले वित्तीय वर्ष में बराबर लाने के लिए बाजार में सुधार किया जा सकता है। आपके कार्यक्रम का खर्च बढ़ेगा लेकिन अगर आप चाहते हैं कि उसका प्रभाव हो तो ऐसा करना ही होगा। कुशल एवं अनुभवी लोगों की ज़रूरत है।’
एक बार जब ऐसे वरिष्ठ नेता बोर्ड में शामिल हो जाते हैं, तब संगठन को उन्हें बाक़ी की टीम से जोड़ने में, फ़ैसले लेते समय उनका समर्थन करने में समय का निवेश करना पड़ता है और साथ उन्हें वैसी सभी सहायताएं प्रदान करनी पड़ती है जिनसे अपनी भूमिकाओं को सफलतापूर्वक निभाने में मदद मिले।
संगठन में प्रतिक्रियाओं के लेन-देन के लिए एक उचित प्रणाली, कर्मचारियों की बातों को सुनना और गंभीरता से उनके सुझावों को स्वीकार करना बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। ‘हम बेहतरी के लिए लगातार ही अपने टीम से उनकी प्रतिक्रियाएं मांगते रहते हैं। अगर हम एक बेहतर कार्यस्थल वाले और अपने कर्मचारियों को बनाए रखने वाली समाजसेवी संस्था बनने का इरादा रखते हैं, तो उसके लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि वहां का वातावरण ऐसा हो कि लोगों को उस संगठन से जुड़कर काम करने में मज़ा आए। टीम से निरंतर संवाद करते रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। साथ ही उन्हें समय-समय पर बताया जाना चाहिए कि ‘हमने इन सुझावों पर काम किया है और अब हम इस स्थिति में हैं।’ अर्पण ने इन काम को विभिन्न तरीक़ों से किया है।’
जैसे ग्रेट प्लेस टू वर्क पहल में एक गुमनाम सुझाव/फीडबैक फॉर्म होता है, पूजा अर्पण में अलग से एक गुमनाम फीडबैक फॉर्म की व्यवस्था रखती हैं। इसके अलावा वह साल में एक बार पूरी टीम के साथ लेवल स्किप करती हैं। ‘पिछले साल हमारे एचआर सलाहकार ने प्रबंधक और निदेशक स्तर पर एक फीडबैक प्रक्रिया का आयोजन भी किया था। इसलिए निरंतर फीडबैक की व्यवस्था लागू की गई और हम लगातार टीम के लोगों की बातें सुनने लगे।’
छोटे आकार के संगठनों में, गतिविधियों और कार्य के लिए ठोस संरचना न होने पर भी चीज़ें काम करती हैं। लेकिन पूजा का कहना है कि जैसे ही आपका विस्तार होने लगता है और आपके कर्मचारियों की संख्या 20 तक पहुंच जाती है, तब एचआर नीतियों और संचार प्रक्रियाओं को लागू करना महत्वपूर्ण हो जाता है।
‘मुझे लगता है कि कर्मचारियों की सबसे बड़ी नाराजगी यह हो सकती है कि ‘यह मेरे लिए उचित नहीं है।’ लेकिन जब आपके पास एक तय प्रक्रिया और नीति होती है, तब बाहर ‘ऐसा सब के लिए है’ वाला संदेश जाता है। यह स्पष्टता बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। चाहे इसका संबंध इंडक्शन, भर्ती या काम से निकाले जाने जैसी बातों से हो, या फिर छुट्टियों या भुगतान से- सभी कुछ को एचआर दस्तावेज़ों में व्यवस्थित ढंग से दर्ज किया जाना चाहिए ताकि सभी तक इसकी पहुंच हो सके। साथ ही एक निश्चित समयांतराल पर इसकी समीक्षा की जानी चाहिए और लोगों को इसके बारे में बताया जाना चाहिए।’
पूजा का कहना है कि फंडर्स को वेतन में गड़बड़ी करने की बजाय उस काम पर ध्यान देना चाहिए जो एक संगठन कर रहा है, यह सवाल करते हुए कि उनके पास इतने सारे वरिष्ठ नेता क्यों हैं, या उन्हें प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण पर खर्च करने की आवश्यकता क्यों है। ‘इस मामले में हम सौभाग्यशाली हैं क्योंकि हमारे पास हमारे वेतन को लेकर सवाल करने वाले फ़ंडर अधिक संख्या में नहीं हैं। लेकिन मैं देखती हूं कि यह मामला बढ़ता ही जा रहा है, विशेष कर सीएसआर फ़ंडरों के मामले में। मैं उनसे यह कहना चाहती हूं कि ‘वेतन पर सवाल ना उठाएं। इसके बदले, उस काम को देखें जो किया जा रहा है। अगर आपको लगता है कि दोनों में किसी तरह का तालमेल नहीं है, यह कि काम अच्छा या प्रभावी नहीं है लेकिन इसके बावजूद भी संगठन अच्छा वेतन दे रहा है, तब आपको सवाल करने का पूरा हक़ है। लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो कृपया संगठन के फ़ैसले पर भरोसा बनाए रखें।’ इसके अलावा, बड़े पैमाने पर किए जा रहे काम को चलाए रखने के लिए किसी संगठन की टीम के कौशल और क्षमताओं को बढ़ाने की ज़रूरत होती है। इसलिए टीम की क्षमता निर्माण में निवेश करना भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। इसका मतलब है कि फंडर्स को प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण पर अपने अनुदान प्राप्तकर्ताओं की लागत का अनुमान नहीं लगाना चाहिए।’
एक बार जब कोई दानकर्ता किसी समाजसेवी संगठन के साथ काम कर लेता है और उनके काम के प्रभाव को देख लेता है, तब उन्हें लंबी-अवधि और मुख्य फ़ंडिंग के बारे में सक्रिय रूप से सोचना चाहिए। ऐसा करने से उन्हें क्षमता और ख़र्चों को बेहतर तरीक़े से योजनाबद्ध करने में सहायता मिलती है। यह तब और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब कोई संगठन एक मज़बूत नेतृत्व वाले टीम का निर्माण करना चाहता है।
पूजा कहती हैं कि ‘अगर आप बोर्ड में किसी वरिष्ठ सदस्य को रखना चाहते हैं तब एक साल की फ़ंडिंग मददगार नहीं होगी। फंडर्स को कम से कम तीन वर्षों की प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए। ऐसा करने से हम ऐसे अनुभवी लीडर्स को नियुक्त कर सकते हैं जिनके अंदर संगठन को आगे स्तर पर ले जाने की क्षमता होती है।’
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पूजा तपारिया भारत में बाल यौन शोषण के उन्मूलन की दिशा में काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था अर्पण की संस्थापक और मुख्य कार्यकारी निदेशक हैं। वे सोल के एआरसी के बोर्ड में भी हैं जो संघर्षरत शिक्षार्थियों द्वारा अनुभव की जाने वाली चुनौतियों का समाधान करता है और उनके जीवन परिणामों को बेहतर बनाने की दिशा में काम करता है।
हेमेश शेठ एक वरिष्ठ मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं जिनके पास मजबूत सेल्स एंड डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क, टीम प्रबंधन, व्यवसाय विकास, नेतृत्व और संगठन निर्माण में 25 से अधिक वर्षों का अनुभव है। उनके पास व्यवसाय योजना, संचालन और टीम निर्माण का व्यावहारिक अनुभव है। वे एक दशक से अधिक समय से अर्पण के साथ जुड़े हुए हैं और सहायता संचालन टीम का नेतृत्व करते हैं, जिसमें वित्त, मानव संसाधन, प्रशासन और आईटी कार्य शामिल हैं।
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भारत अब दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश हो गया है और यहां हर महीने दस लाख से अधिक नए श्रमिक कार्य-बल में शामिल होते हैं – यह स्वीडन की हर साल कार्य-बल में शामिल होने वाली पूरी जनसंख्या के बराबर है (ब्लूम एवं अन्य 2011, ग़नी 2018)। चूंकि यह स्थिति अगले दो दशकों तक जारी रहने की संभावना है, ऐसे में नौकरियों के सृजन की गति ही भविष्य में गरीबी की कमी की गति को निर्धारित करेगी।
हालांकि आर्थिक इतिहास के महान दिग्गजों ने रोज़गार सृजन और गरीबी में कमी के बीच के संबंध को पहचाना है, फिर भी अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। क्या नए और छोटे प्रतिष्ठान या बड़ी और स्थापित कम्पनियां रोज़गार सृजन में अधिक योगदान देती हैं? क्या विनिर्माण या सेवा क्षेत्र गरीबी को कम करने में अधिक योगदान देता है? क्यों कुछ शहरों में अधिक नौकरियों का सृजन होता है और वहां गरीबी तेज़ी से कम होती है?
कई शोध अध्ययनों ने उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, रोज़गार सृजन में उद्यमिता की भूमिका की जांच की है। लेकिन भारत के संदर्भ में ऐसे अनुभवजन्य साक्ष्य की बहुत कमी है। इस लेख में (ग़नी एवं अन्य 2011ए) हमने भारत के लगभग 600 जिलों में स्थित विनिर्माण और सेवा क्षेत्र, दोनों में उद्यमिता और नौकरियों के बीच सम्बन्ध की जांच की है।
यद्यपि उद्यमिता और रोज़गार सृजन के लिए भारत का आर्थिक परिवेश अभी भी विकसित हो रहा है, साक्ष्य दर्शाते हैं कि बड़े पैमाने पर नौकरियों का सृजन नए स्टार्ट-अप द्वारा किया जा रहा है, न कि बड़ी और पुरानी कम्पनियों द्वारा। दुर्भाग्य से, विकास के वर्तमान चरण को देखते हुए, भारत में नए स्टार्ट-अप की संख्या और उद्यमिता की दरें कम बनी हुई हैं (ग़नी एवं अन्य 2011बी)। तीन साल से कम पुराने उद्यमों की संख्या में समय के साथ थोड़ी बढ़ोतरी देखी गई है (डेसमेट एवं अन्य 2011), जबकि यह हर साल लाखों अपेक्षित नौकरियों के सृजन के लिए पर्याप्त नहीं है। देश के विभिन्न जिलों और राज्यों में स्टार्ट-अप के स्थानिक वितरण में भी भारी विषमताएं मौजूद हैं।
कौन से क्षेत्रीय और स्थानिक लक्षण भारत में नए स्टार्ट-अप और स्थानीय उद्यमिता को बढ़ावा देते हैं? इसका एक सम्भावित स्पष्टीकरण निवेश और उद्यमिता पर अलग-अलग ‘रिटर्न’ का होना है। दूसरा यह है कि नए उद्यमी स्थानीय बुनियादी ढांचे, शिक्षा, जनसंख्या घनत्व, व्यापार के अंतर-संपर्क और यहां तक कि जनसांख्यिकी में अंतर के अनुसार प्रतिक्रिया करते हैं, जबकि उनके पास व्याख्या करने की शक्ति सीमित होती है। कारणों की यह सूची किसी भी तरह से सम्पूर्ण नहीं है, लेकिन यह आर्थिक गतिविधियों के एकत्रीकरण और नए स्टार्ट-अप के विकास के लोकप्रिय स्पष्टीकरणों की सूची के समानांतर है।
हमने पाया कि नए स्टार्ट-अप और उद्यमिता का अनुमान लगाने वाले दो सबसे सुसंगत कारक हैं – स्थानीय शिक्षा का स्तर और स्थानीय भौतिक बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता। यह विनिर्माण और सेवा क्षेत्र, दोनों के संदर्भ में सच है। भारत में उद्यमिता और रोज़गार सृजन की गति को धीमा करने में कारक बाज़ार और पारिवारिक बैंकिंग गुणवत्ता भी अपनी भूमिकाएं निभाते हैं। दुर्भाग्य से, भारत में कारक बाज़ार अत्यधिक बिगड़ा हुआ है। भूमि और वित्तीय बाज़ार विशेष रूप से, श्रम बाज़ारों की तुलना में अधिक विकृत हैं (ड्यूरेंटन एवं अन्य 2016)। खराब पारिवारिक बैंकिंग माहौल के साथ ही, भूमि का खराब आवंटन भी स्टार्ट-अप को, खासकर नए और छोटे उद्यमों को, हतोत्साहित करता है।
नीति-निर्माताओं को रोज़गार सृजन और गरीबी में कमी के बीच के मज़बूत सम्बन्ध को पहचानने की ज़रूरत है। यह चिंताजनक है कि भारत में विकास के वर्तमान स्तर के अनुसार बहुत कम उद्यमी हैं। यदि भारत उद्यमियों को समर्थन देने के लिए कारक बाज़ार की विकृतियों को कम करने, भौतिक व मानव बुनियादी ढांचों दोनों को, विकसित करने और नेटवर्किंग तथा समूह अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देने के साथ-साथ, कुछ बुनियादी नीतिगत कदम उठाना जारी रखता है तो इन उपायों में व्यापार सृजन, नौकरी वृद्धि और गरीबी में कमी लाने की क्षमता है।
जिस गति से देश भौतिक पूंजी और भौतिक बुनियादी ढांचे को जमा कर सकते हैं, उसकी परिभाषित सीमाएं हैं, लेकिन जिस गति से मानव-बुनियादी-ढांचे और शिक्षा को बढ़ाया जा सकता है, और फिर ज्ञान में अंतर को समाप्त किया जा सकता है, उसकी सीमाएं कम स्पष्ट हैं। चूंकि शिक्षा, स्टार्ट-अप और नौकरियों के बीच मज़बूत आपसी सम्बन्ध हैं, नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे स्थानीय कॉलेजों और शैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता और वृद्धि को रोकने वाली सभी बाधाओं को दूर करें।
नीति-निर्माताओं को फर्मों के पीछे लगने (अर्थात अन्य स्थानों से बड़ी परिपक्व फर्मों को आकर्षित करने) में व्यस्त रहने की बजाय अपने समुदायों में उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। छोटा भी सुंदर और दमदार होता है, इसलिए रोज़गार सृजन में ‘नए और छोटे उद्यमों’ पर ज़ोर दिया जाना चाहिए। भारत के अनुभवों से पता चलता है कि नई और छोटी कम्पनियों के प्रारंभिक स्तर और उसके बाद नौकरी में वृद्धि और गरीबी में कमी के बीच एक मज़बूत आपसी सम्बन्ध है।
भारत में उद्यमशीलता की क्षमता सुनिश्चित करने, नौकरियों के निर्माण और गरीबी को कम करने में योगदान देने में शहर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि शहरों में अधिकांश नई नौकरियां सृजित करने और प्रति व्यक्ति आय में चार गुना वृद्धि लाने की क्षमता है (ग़नी एवं अन्य 2014)। ऐसे प्रतिस्पर्धी शहर जो रहने योग्य हों, जिनमें अच्छा बुनियादी ढांचा हो, ज्ञान सृजन और क्षमता निर्माण में व्यापक रूप से निवेश करते हों, अच्छी तरह से शासित हों, मज़बूत राष्ट्रीय शहरी नीति ढांचे का समर्थन करते हों और स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत सार्वजनिक और निजी भागीदारी के माध्यम से काम करते हों, उद्यमियों को भी आकर्षित करते हैं।
आर्थिक विकास के लिए उद्यमिता भी महत्वपूर्ण है। भारत में ऐतिहासिक रूप से उद्यमिता दर कम रही है, फिर भी स्थिति में सुधार हो रहा है और इस कमज़ोरी पर काबू पाना तेज़ आर्थिक और नौकरी वृद्धि के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा। भारत का आर्थिक परिवेश अभी भी विनियमन से पहले मौजूद स्थितियों को समायोजित कर रहा है और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों की तुलना में, यहां के स्थानिक परिणामों में बहुत अधिक भिन्नता मौजूद है। यह स्थानीय क्षेत्रों के समूहीकरण और शहरी अर्थव्यवस्थाओं से लाभ उठाने के लिए प्रभावी नीति डिज़ाइन के महत्व को भी रेखांकित करता है।
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यह आलेख मूलरूप से आइडिया फ़ॉर इंडिया पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।
क्या आप नीचे दिए गये चित्र में संस्थाओं के मूल्य खोज सकते हैं?
जनवरी के तीसरे हफ़्ते में समाजसेवी संस्था प्रथम ने भारत में शिक्षा की स्थिति बताने वाली अपनी सालाना रिपोर्ट, असर 2023 बियॉन्ड बेसिक्स शीर्षक के साथ जारी की। इस रिपोर्ट में देश के 26 राज्यों के 28 ज़िलों में, 14-18 साल आयु समूह के लगभग 35 हजार बच्चों पर किए गए सर्वे के आंकड़ों को शामिल किया गया है। यह सर्वे बताता है कि इस आयु वर्ग के ज़्यादातर बच्चों के नाम शैक्षणिक संस्थान में दर्ज होने के बाद भी ये बच्चे अपने दैनिक जीवन में इसका उपयोग करने लायक पढ़ना लिखना नहीं सीख पाए हैं। सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि पढ़ाई की बहुत अधिक इच्छा होने के बावजूद, महिलाओं का प्रदर्शन और उनके लिए संसाधनों की उपलब्धता का स्तर दोनों ही, पुरुषों की तुलना में ख़राब रहा है। इसके अलावा, तकनीकी माध्यमों जैसे स्मार्टफ़ोन, इंटरनेट, सोशल मीडिया वग़ैरह के सही और सुरक्षित इस्तेमाल से जुड़े आंकड़े भी रिपोर्ट में साझा किए गए हैं। अगर आप शिक्षा के क्षेत्र या युवा सेक्टर में काम करते हैं तो यहां पर कुछ ख़ास आंकड़ों का ज़िक्र किया गया है जिन्हें ध्यान में रखने से, आपको बेहतर रणनीति बनाने या प्रोग्राम डिज़ाइन करने में मदद मिल सकती है।
असर की रिपोर्ट बताती है कि सर्वे में शामिल 14-18 साल के 86.6% बच्चों का नाम किसी न किसी शैक्षणिक संस्था में दर्ज है। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ नामांकन के आंकड़ें में उल्लेखनीय रूप से कमी दिखाई पड़ती है। लंबे समय से सरकार और समाजसेवी संस्थाओं के प्रयासों में अधिक से अधिक बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने वाला बिंदु शामिल रहा है। लेकिन यह रिपोर्ट इस ओर इशारा करती है कि अब नई चुनौती किशोर बच्चों और नवयुवाओं को शैक्षणिक संस्थानों में रोककर रखना है। रिपोर्ट के मुताबिक़, 14 साल की उम्र में केवल 3.9% बच्चे स्कूल छोड़ते हैं लेकिन 18 वर्ष तक आते-आते यह आंकड़ा 32.6% हो जाता है। इसे इस तरह से कहा जा सकता है कि 18 वर्ष के जितने भी युवा हैं, उनमें से एक तिहाई का नाम किसी भी स्कूल-कॉलेज में दर्ज नहीं है। शिक्षा संबंधी कार्यक्रम डिज़ाइन करते हुए, रणनीति बनाते हुए अधिक आयु (16-18 वर्ष) वाले किशोरों पर ध्यान देने से बड़े स्तर के बदलाव लाए जा सकते हैं। समाजसेवी संस्थाओं को इसके पीछे की आर्थिक, भौगोलिक और सामाजिक वजहों को पहचानने, और कार्यक्रमों को उनके मुताबिक़ डिज़ाइन करने की ज़रूरत है।
ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं के सामने भाषा आमतौर पर बाधा नहीं बनती है क्योंकि वे क्षेत्रीय भाषा के जानकार होते हैं। लेकिन फैसिलिटेशन या प्रशिक्षण कार्यक्रमों के दौरान भाषा पर ध्यान देना ज़रूरी है। असर रिपोर्ट कहती है कि सर्वे के दौरान लगभग 25% युवा अपनी क्षेत्रीय भाषा में, कक्षा-2 का गद्य बिना अटके पढ़ने में असमर्थ मिले। अंग्रेज़ी के मामले में 57.3% युवा वाक्यों को पढ़ सके और इन्हें पढ़ सकने वालों में से तीन चौथाई उसके मायने बता सके। यह आंकड़ा बताता है कि युवाओं के लिए प्रशिक्षण सामग्री तैयार करते हुए भाषा को सरलतम रखे जाने की ज़रूरत है। इसके अलावा, कुछ रचनात्मक तरीक़ों या व्यावहारिक उदाहरणों का इस्तेमाल करना भी आपकी बात को उन तक बेहतर तरीक़े से पहुंचाने में मदद करेगा।
असर रिपोर्ट बताती है कि केवल 5.6% युवा सिलाई, ऑटोमोटिव रिपेयर, इलेक्ट्रीशियन, इंटीरियर डिजाइनिंग वग़ैरह जैसे व्यावसायिक प्रशिक्षण हासिल करते हैं। कॉलेज स्तर के युवाओं में व्यावसायिक प्रशिक्षण हासिल करने का प्रतिशत 16.25% तक जाता दिखता है। आजीविका प्रशिक्षण से जुड़े कार्यक्रम डिज़ाइन करते हुए इस आंकड़े को ध्यान में रखा जा सकता है। इसके अलावा परंपरागत प्रशिक्षण कार्यक्रमों से अलग युवाओं को आकर्षित करने वाले कुछ नए विकल्पों के बारे में सोचा जा सकता है? साथ ही, वे कौन से विकल्प होंगे जो कम आयु और शिक्षास्तर वाले युवाओं के लिए अधिक उपयुक्त होंगे। इस तरह के प्रयास ज़रूरी हैं क्योंकि 40.3% युवा लड़के और 28% लड़कियां अपने घरेलू कामकाज के अलावा बाहर जाकर भी काम करते हैं।
40.3% युवा लड़के और 28% लड़कियां अपने घरेलू कामकाज के अलावा बाहर जाकर भी काम करते हैं, लेकिन व्यक्तिगत रूप से उनकी आमदनी शून्य होती है।
इसमें एक बड़ा हिस्सा अपने घर पर खेती-बाड़ी से जुड़े काम करने वाले युवाओं का है। इसका एक मतलब यह भी है कि इससे उनके परिवार की आय में तो सहयोग मिलता है लेकिन व्यक्तिगत रूप से उनकी आमदनी शून्य होती है। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि कार्यक्रम बनाने के दौरान शैक्षणिक योग्यता के साथ-साथ युवाओं के समय की उपलब्धता का भी ध्यान रखना, उनके लिए सुविधाजनक हो सकता है। इसके अलावा, यह आंकड़ा महिलाओं के लिए अधिक संख्या में और अधिक उपयुक्त आजीविका प्रशिक्षण कार्यक्रमों की गुंजायश होने की बात को भी स्पष्ट करता है।
स्मार्टफोन के संदर्भ में सर्वे यह जानकारी देता है कि लगभग 90% युवाओं के घर पर स्मार्टफ़ोन हैं और वे इसका उपयोग करना जानते हैं। लड़कियों के पास उनका निजी मोबाइल फ़ोन होने का आंकड़ा जहां 19.8% था, वहीं लड़कों के मामले में यह दोगुने से अधिक यानी 43.7% था। कम्प्यूटर लैपटॉप की उपलब्धता के मामले में आंकड़ा 9% पर ही रुक जाता है। इसके अलावा, लगभग आधे युवा स्मार्टफ़ोन के सुरक्षित इस्तेमाल के बारे में नहीं जानते हैं। इनमें सोशल मीडिया पर किसी को रिपोर्ट या ब्लॉक करना, प्राइवेट प्रोफ़ाइल बनाना और पासवर्ड बदलने जैसी बातें शामिल हैं।
मात्र एक चौथाई युवा ही डिजिटल भुगतान, ऑनलाइन आवेदन करने, बिल भरने और टिकट बुक करने जैसे काम कर पाते हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि डिजिटल साधनों तक लोगों की पहुंच तो है लेकिन उनका इस्तेमाल करने के लिए उनके पास पर्याप्त कुशलताएं नहीं हैं। समाजसेवी संस्थाओं को यह ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि युवाओं, ख़ासतौर पर युवा लड़कियों के लिए डिज़ाइन किया गया कोई भी कार्यक्रम न तो पूरी तरह से डिजिटल रखा जा सकता है और न ही इसमें बहुत जटिल तकनीक (ख़ासतौर पर इंटरफ़ेस) का इस्तेमाल किया जा सकता है। डिजिटल फ़र्स्ट कार्यक्रमों में भी ऑफ़लाइन विकल्पों की उपलब्धता उनके सफल होने के मौक़े बढ़ा सकता है।
असर रिपोर्ट के आंकड़े बड़ी स्पष्टता से दिखाते हैं कि पढ़ने-समझने, जीवन में गणित का इस्तेमाल करने और डिजिटल उपयोग के मामले में पुरुषों ने महिलाओं से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है। यहां तक कि सर्वे के दौरान दिए गए टास्क को करने से मना करने में भी 8.7% पुरुषों के मुकाबले 13.3% महिलाएं रहीं। एक उदाहरण से देखें तो गूगल मैप्स की मदद से किसी जगह जैसे बस स्टैंड तक पहुंचने के टास्क को करने से जहां केवल 32% पुरुषों ने मना किया था, वहीं 55% यानी आधे से अधिक महिलाओं ने इसके लिए ना कहा। रिपोर्ट कहती है कि महिलाओं ने इसे करने का तरीक़ा समझने में भी न के बराबर रुचि दिखाई। इसका एक कारण महिलाओं में आत्मविश्वास की कमी भी हो सकती है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आज भी उन्हें घर से बाहर निकालने के अवसर बनाने की जरूरत है। इन अवसरों का इस्तेमाल उन्हें नए प्रयोग करने की जगह देने और उनका आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए किया जा सकता है।
इस आंकड़े से ऐसा अनुमान भी लगाया जा सकता है कि किसी कार्यक्रम की शुरूआत में उससे जुड़ने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम और रफ़्तार बहुत धीमी हो सकती है। हालांकि रिपोर्ट यह भी बताती है कि लड़कियों में पढ़ने की इच्छा लड़कों की तुलना में अधिक होती है और मौक़ा मिलने पर वे अपेक्षाकृत अधिक समय तक शैक्षणिक संस्थान में बनी रहती हैं। लेकिन साथ ही उनके पास संसाधनों और अवसर दोनों की कमी स्पष्टत रूप से से दिखाई देती है। इसके लिए संस्थाओं में अतिरिक्त और नए तरह के प्रयासों की गुंजायश होनी चाहिए।
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वैश्विक जलवायु शासन (ग्लोबल क्लाइमेट गवर्नेंस) राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, निजी क्षेत्र, गैर सरकारी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच हमेशा चलने वाली एक संवाद प्रक्रिया है। इसके जटिल तंत्र के केंद्र में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफ़सीसीसी) के तहत बुलाए गए पक्षों का सम्मेलन यानी कांफ्रेंस ऑफ़ द पार्टीज़ (कॉप) होता है। दूसरी तरह से कहें तो यह सम्मलेन जलवायु मुद्दों से जुड़े वैश्विक प्रयासों का केंद्र है।
कॉप सम्मेलनों की सार्थकता को समझने के लिए, हमें पहले जलवायु परिवर्तन के तंत्र को समझना होगा। पृथ्वी पर जलवायु संतुलन बिगड़ रहा है क्योंकि जीवाश्म ईंधन जलाने, वनों की कटाई और औद्योगिक प्रक्रियाओं जैसी मानवीय गतिविधियों के कारण कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। ग्रीन हाउस गैसों के कारण वैश्विक तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। वैश्विक तापमान में इस वृद्धि के कई परिणाम होते हैं। इनमें मुख्य रूप से वर्षा और ऋतुओं में परिवर्तन, मौसम में बदलाव, गर्मी की लहर, ध्रुवीय बर्फ की चोटियों का तेज़ी से पिघलना शामिल है, जिसके परिणामस्वरूप समुद्र का स्तर बढ़ता है और कठिन मौसमी घटनाएं बार-बार और अधिक तीव्रता से होने लगी हैं। महज़ सुर्ख़ियां बनने से परे, ये परिणाम दुनिया भर में कई लोगों के लिए दैनिक वास्तविकता बन गए हैं। ये परिणाम दुनियाभर के पारिस्थितिकी तंत्र, अर्थव्यवस्थाओं और समुदायों को प्रभावित कर रहे हैं और स्वास्थ्य, आजीविका और समग्र अस्तित्व पर गहरा प्रभाव डाल रहे हैं। जलवायु परिवर्तन, वह भयावह शक्ति जो हमारी दुनिया को नया आकार दे रही है, अब कोई दूर का खतरा नहीं है – यह यहीं है, हमारे समुदायों को प्रभावित कर रही है। राष्ट्र डूब रहे हैं, अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित हो रही हैं, लोग विस्थापित हो रहे हैं और संस्कृतियां खो रही हैं।
जलवायु परिवर्तन के अनुरूप ढलना हमेशा संभव नहीं होता है इसलिए इससे जुड़े शमन, अनुकूलन और नुकसान पर बात करना जलवायु चर्चा के प्रमुख स्तंभ बन गए हैं।
विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में अनोखी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को अनुकूलित करने या कम करने के लिए उनके पास अक्सर सीमित संसाधन होते हैं। उदाहरण के लिए, भारत और वैश्विक दक्षिण के कई देशों में, आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा कृषि पर निर्भर करता है, जो जलवायु परिवर्तनशीलता के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। इन देशों में चक्रवात, बाढ़ और सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाओं के प्रभाव का खतरा भी अधिक है जो आजीविका और बुनियादी ढांचे पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकते हैं।
यदि सरल शब्दों में कहा जाये तो कॉप, यानि कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़, एक सहयोगात्मक प्रयास का प्रतिनिधित्व करता है जहां वैश्विक नेताओं, नीति निर्माताओं, कॉर्पोरेट्स, गैर-सरकारी संगठन और समुदाय के प्रतिनिधियों समेत लगभग हर देश के प्रतिनिधि सामूहिक जलवायु कार्रवाई की दिशा में रणनीतियों पर चर्चा में भाग लेते हैं।
संवादों से परे, इसका प्राथमिक उद्देश्य संयुक्त वैश्विक साझेदारी बनाना है जो दुनिया को लंबे समय तक चलने वाले तरीक़ों (सस्टेनेबल प्रैक्टिसेज) और जलवायु लचीलेपन की ओर ले जाए। यह वैश्विक लक्ष्य निर्धारित करने, प्रगति की समीक्षा करने और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को निर्धारित करने के लिए बनाया गया एक मंच है।
इस मूलभूत पृष्ठभूमि के साथ-साथ, जलवायु परिवर्तन बहस के मूलभूत स्तंभों को समझना भी महत्वपूर्ण है। ये वैश्विक शिखर सम्मेलनों के दौरान की गई चर्चाओं और निर्णयों का मूल आधार बनते हैं। प्रमुख स्तंभों में शामिल हैं:
शमन (मिटिगेशन): शमन से जुड़े प्रयास जलवायु संकट के लिए ज़िम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने पर केंद्रित होते हैं। यह ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में योगदान देने वाले स्रोतों से दूर जाने, स्वच्छ ऊर्जा विकल्पों, अर्थव्यवस्थाओं में टिकाऊ प्रथाओं को लागू करने के साथ-साथ उत्सर्जन में कमी करने वाले तकनीकी नवाचार को बढ़ावा देने के बारे में बात करता है।
अनुकूलन (ऐडप्टेशन): जलवायु परिवर्तन की कड़वी वास्तविकता और निश्चितता को वैज्ञानिक रूप से स्थापित किया जा चुका है। जलवायु संकट गहराने के साथ, इससे प्रभावी ढंग से निपटने के लिए स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर तैयारी सुनिश्चित करना आवश्यक हो जाता है। अनुकूलन रणनीतियों में कई प्रकार के घटक शामिल हो सकते हैं। जैसे- लचीले बुनियादी ढांचे के निर्माण से लेकर, जलवायु स्मार्ट कृषि पद्धतियों को विकसित करने तक, यह सुनिश्चित करने के लिए कि समुदाय और प्रणालियाँ उभरती पर्यावरणीय परिस्थितियों के बीच विकसित हो सकें।
वित्त (फाइनेंस): जलवायु कार्रवाई की जीवनधारा के रूप में कार्य करते हुए, वित्त वह आधारशिला है जो एक सुरक्षित दुनिया (सस्टेनेबल वर्ल्ड) की ओर न्यायसंगत परिवर्तन का समर्थन करता है। इस स्तम्भ की चर्चा में, जलवायु संबंधी चुनौतियों से निपटने में विकासशील और कम आय वाले देशों को समर्थन देने पर विशेष ध्यान दिया गया है।
हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज): जलवायु परिवर्तन के अनुरूप ढलना हमेशा संभव नहीं होता है। इसलिए इससे हुए नुकसान और क्षति पर बात करना, जलवायु चर्चा का एक और प्रमुख स्तंभ बन गया है। इस चर्चा में विभिन्न प्रकार के नुकसानों की बात की जाती है, कुछ वित्तीय तो कुछ गैर आर्थिक नुकसान। स्थानीय स्तर पर ऐसे नुकसान के उदाहरणों में संस्कृति, भावनात्मक स्थानों, विरासत, भाषा आदि की क्षति शामिल है। हानि और क्षति जलवायु न्याय और समानता की अवधारणा से निकटता से जुड़ा हुआ विषय भी है क्योंकि दुनिया के सबसे अधिक जलवायु-संवेदनशील देश अक्सर ग्रीनहाउस गैसों के सबसे कम उत्सर्जक होते हैं। इससे यह सवाल उठता है कि इन देशों में जहां संसाधन सीमित हैं, नुकसान और क्षति के लिए वास्तव में किसे भुगतान करना चाहिए।
कॉप बैठकें वैश्विक जलवायु कार्रवाई के लिए एक पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए राजनयिकों, वैज्ञानिकों, नीति विशेषज्ञों की एक विविध सभा को एकत्रित करती हैं। इन विचार-विमर्शों में बने संकल्प और वैश्विक समझौते जलवायु कार्रवाई पर वैश्विक कथा को आकार देते हैं। कॉप का एक प्रमुख कार्य पार्टियों द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय संचार और उत्सर्जन सूची की समीक्षा करना है। इस जानकारी के आधार पर, कॉप पार्टियों द्वारा उठाए गए उपायों के प्रभावों और कन्वेंशन के अंतिम उद्देश्य को प्राप्त करने में हुई प्रगति का आकलन करता है।
राजनयिक क्षेत्र से परे, कुछ गैर-सरकारी संगठन पर्यवेक्षकों के तौर पर समानांतर तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।पर्यवेक्षक का दर्जा कुछ संगठनों को प्रदान किया गया एक विशेष दर्जा है जो उन्हें यूएनएफ़सीसीसी की गतिविधियों में सक्रियता से भाग लेने का अवसर प्रदान करता है। इस तरह गैर-सरकारी संगठन, पर्यावरण समूह और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के समर्थक सम्मेलन में होने वाली चर्चाओं में सक्रिय रूप से भाग लेते है और होने वाली चर्चाओं और विचार-विमर्श और विकास पर सतर्क नज़र रखते हैं। उनकी भूमिका चर्चाओं में भाग लेने से लेकर अपनी प्रतिबद्धताओं के साथ यह सुनिश्चित करने करने की है कि कॉप सम्मेलनों में लिए गए निर्णय न केवल समावेशी हों, बल्कि सबसे कमजोर लोगों की ज़रूरतों और अधिकारों को भी ध्यान में रखें। ये संगठन व्यवसाय और उद्योग, पर्यावरण समूहों, खेती और कृषि, स्वदेशी आबादी, स्थानीय सरकारों और नगरपालिका अधिकारियों, अनुसंधान और शैक्षणिक संस्थानों, श्रमिक संघों, महिलाओं और लिंग और युवा समूहों जैसे कई हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
हालांकि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक खतरा है, इसके सभी पर पड़ने वाले इसके प्रभाव समान नहीं हैं। जलवायु परिवर्तन के परिणाम, वर्तमान उत्सर्जन में न्यूनतम योगदान देने के बावजूद, कम आय वाले और विकासशील देशों को असमान रूप से प्रभावित कर रहे हैं। इसके विपरीत, विकसित देशों ने पहले ही अपनी अर्थव्यवस्थाएं स्थापित कर ली हैं जिन्हें बनाने के लिए किया गया उत्सर्जन मौजूदा जलवायु संकट के लिए मुख्यरूप से ज़िम्मेदार है। कई परस्पर जुड़े कारक समुदायों और प्रणालियों की भेद्यता (यानी, पर्यावरणीय परिवर्तनों या आपदाओं से उनके प्रभावित होने का कितना खतरा है) को निर्धारित करते हैं। परिणामस्वरूप, जलवायु चर्चाओं के भीतर न्याय सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण हो जाता है और कॉप के मंच पर यह एक सशक्त मुद्दा रहा है।
जमीनी स्तर के संगठनों के लिए, यूएनएफसीसीसी कॉप एक महत्वपूर्ण वैश्विक मंच के रूप में कार्य करता है जहां जलवायु नीतियों पर चर्चा की जाती है। जमीनी संगठन उभरती जलवायु राजनीति, वैश्विक प्राथमिकताओं और रुझानों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए लिए कॉप की कार्यवाही पर बारीकी से नजर रख सकते हैं।अपनी पहलों को विश्व स्तर की कार्रवाइयों और राष्ट्रीय रणनीतियों के साथ जोड़कर, ये संगठन यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनके प्रयास व्यापक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुरूप हैं।
इसके अलावा, कॉप जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन में नवीन समाधानों और सबसे कारगर तरीकों (बेस्ट प्रैक्टिसेज) को प्रदर्शित करने के लिए एक मंच प्रदान करता है। यहां जमीनी स्तर के संगठन दुनियाभर में लागू सफल परियोजनाओं, बेस्ट प्रैक्टिसेज और नीतियों के बारे में जानकारी पा सकते हैं। सीखों को शामिल करके और सिद्ध रणनीतियों को अपने स्थानीय संदर्भ में अपनाकर, ये संगठन अपनी पहलों की प्रभावशीलता को बढ़ा सकते हैं।
इसके अतिरिक्त, जलवायु संकट की तात्कालिकता और दुनियाभर में इस खतरे के बारे में बढ़ती जागरूकता के कारण, विकास परियोजनाओं से जुड़ी कईं फंडिंग जलवायु-संबंधित चुनौतियों से निपटने पर केंद्रित है। जमीनी संगठन इन फंडिंग अवसरों का पता लगा सकते हैं और उन्हें अपनी संसाधन जुटाने की रणनीतियों में एकीकृत कर सकते हैं। कॉप से उत्पन्न वित्तीय परिदृश्य को समझने से इन संगठनों को अपनी परियोजनाओं को बढ़ाने के लिए संभावित दाताओं, साझेदारियों और फंडिंग स्रोतों की पहचान करने में मदद मिल सकती है।
इसके अलावा, कॉप नेटवर्किंग के अवसरों को बढ़ावा देता है, जिससे जमीनी संगठनों को समान विचारधारा वाली संस्थाओं से जुड़ने, अनुभव साझा करने और सामान्य लक्ष्यों पर जुड़कर काम करने के अवसर मिलते हैं। जमीनी स्तर के संगठन इस वैश्विक नेटवर्क का लाभ उठा सकते हैं और अपनी क्षमता और प्रभाव को मजबूत करने के लिए उपलब्ध संसाधनों, विशेषज्ञता और समर्थन का पता लगा सकते हैं।
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