February 22, 2024

14-18 साल के बच्चों से जुड़े कार्यक्रमों में मददगार असर रिपोर्ट के पांच बिंदु

अगर आप शिक्षा या युवा सेक्टर में काम करते हैं तो यहां असर 2023 बियॉन्ड बेसिक्स रिपोर्ट के पांच आंकड़े दिए गए हैं जो बेहतर रणनीति बनाने में मददगार साबित हो सकते हैं।
4 मिनट लंबा लेख

जनवरी के तीसरे हफ़्ते में समाजसेवी संस्था प्रथम ने भारत में शिक्षा की स्थिति बताने वाली अपनी सालाना रिपोर्ट, असर 2023 बियॉन्ड बेसिक्स शीर्षक के साथ जारी की। इस रिपोर्ट में देश के 26 राज्यों के 28 ज़िलों में, 14-18 साल आयु समूह के लगभग 35 हजार बच्चों पर किए गए सर्वे के आंकड़ों को शामिल किया गया है। यह सर्वे बताता है कि इस आयु वर्ग के ज़्यादातर बच्चों के नाम शैक्षणिक संस्थान में दर्ज होने के बाद भी ये बच्चे अपने दैनिक जीवन में इसका उपयोग करने लायक पढ़ना लिखना नहीं सीख पाए हैं। सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि पढ़ाई की बहुत अधिक इच्छा होने के बावजूद, महिलाओं का प्रदर्शन और उनके लिए संसाधनों की उपलब्धता का स्तर दोनों ही, पुरुषों की तुलना में ख़राब रहा है। इसके अलावा, तकनीकी माध्यमों जैसे स्मार्टफ़ोन, इंटरनेट, सोशल मीडिया वग़ैरह के सही और सुरक्षित इस्तेमाल से जुड़े आंकड़े भी रिपोर्ट में साझा किए गए हैं। अगर आप शिक्षा के क्षेत्र या युवा सेक्टर में काम करते हैं तो यहां पर कुछ ख़ास आंकड़ों का ज़िक्र किया गया है जिन्हें ध्यान में रखने से, आपको बेहतर रणनीति बनाने या प्रोग्राम डिज़ाइन करने में मदद मिल सकती है। 

लक्षित आयु समूह चुनते हुए 

असर की रिपोर्ट बताती है कि सर्वे में शामिल 14-18 साल के 86.6% बच्चों का नाम किसी न किसी शैक्षणिक संस्था में दर्ज है। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ नामांकन के आंकड़ें में उल्लेखनीय रूप से कमी दिखाई पड़ती है। लंबे समय से सरकार और समाजसेवी संस्थाओं के प्रयासों में अधिक से अधिक बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने वाला बिंदु शामिल रहा है। लेकिन यह रिपोर्ट इस ओर इशारा करती है कि अब नई चुनौती किशोर बच्चों और नवयुवाओं को शैक्षणिक संस्थानों में रोककर रखना है। रिपोर्ट के मुताबिक़, 14 साल की उम्र में केवल 3.9% बच्चे स्कूल छोड़ते हैं लेकिन 18 वर्ष तक आते-आते यह आंकड़ा 32.6% हो जाता है। इसे इस तरह से कहा जा सकता है कि 18 वर्ष के जितने भी युवा हैं, उनमें से एक तिहाई का नाम किसी भी स्कूल-कॉलेज में दर्ज नहीं है। शिक्षा संबंधी कार्यक्रम डिज़ाइन करते हुए, रणनीति बनाते हुए अधिक आयु (16-18 वर्ष) वाले किशोरों पर ध्यान देने से बड़े स्तर के बदलाव लाए जा सकते हैं। समाजसेवी संस्थाओं को इसके पीछे की आर्थिक, भौगोलिक और सामाजिक वजहों को पहचानने, और कार्यक्रमों को उनके मुताबिक़ डिज़ाइन करने की ज़रूरत है।

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18 वर्ष के जितने भी युवा हैं, उनमें से एक तिहाई का नाम किसी भी स्कूल-कॉलेज में दर्ज नहीं है। | चित्र साभार: पे‍क्सेल्स

प्रशिक्षण सामग्री तैयार करते हुए

ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं के सामने भाषा आमतौर पर बाधा नहीं बनती है क्योंकि वे क्षेत्रीय भाषा के जानकार होते हैं। लेकिन फैसिलिटेशन या प्रशिक्षण कार्यक्रमों के दौरान भाषा पर ध्यान देना ज़रूरी है। असर रिपोर्ट कहती है कि सर्वे के दौरान लगभग 25% युवा अपनी क्षेत्रीय भाषा में, कक्षा-2 का गद्य बिना अटके पढ़ने में असमर्थ मिले। अंग्रेज़ी के मामले में 57.3% युवा वाक्यों को पढ़ सके और इन्हें पढ़ सकने वालों में से तीन चौथाई उसके मायने बता सके। यह आंकड़ा बताता है कि युवाओं के लिए प्रशिक्षण सामग्री तैयार करते हुए भाषा को सरलतम रखे जाने की ज़रूरत है। इसके अलावा, कुछ रचनात्मक तरीक़ों या व्यावहारिक उदाहरणों का इस्तेमाल करना भी आपकी बात को उन तक बेहतर तरीक़े से पहुंचाने में मदद करेगा।

आजीविका से जुड़े कार्यक्रम बनाते हुए

असर रिपोर्ट बताती है कि केवल 5.6% युवा सिलाई, ऑटोमोटिव रिपेयर, इलेक्ट्रीशियन, इंटीरियर डिजाइनिंग वग़ैरह जैसे व्यावसायिक प्रशिक्षण हासिल करते हैं। कॉलेज स्तर के युवाओं में व्यावसायिक प्रशिक्षण हासिल करने का प्रतिशत 16.25% तक जाता दिखता है। आजीविका प्रशिक्षण से  जुड़े कार्यक्रम डिज़ाइन करते हुए इस आंकड़े को ध्यान में रखा जा सकता है। इसके अलावा परंपरागत प्रशिक्षण कार्यक्रमों से अलग युवाओं को आकर्षित करने वाले कुछ नए विकल्पों के बारे में सोचा जा सकता है? साथ ही, वे कौन से विकल्प होंगे जो कम आयु और शिक्षास्तर वाले युवाओं के लिए अधिक उपयुक्त होंगे। इस तरह के प्रयास ज़रूरी हैं क्योंकि 40.3% युवा लड़के और 28% लड़कियां अपने घरेलू कामकाज के अलावा बाहर जाकर भी काम करते हैं।

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40.3% युवा लड़के और 28% लड़कियां अपने घरेलू कामकाज के अलावा बाहर जाकर भी काम करते हैं, लेकिन व्यक्तिगत रूप से उनकी आमदनी शून्य होती है।

इसमें एक बड़ा हिस्सा अपने घर पर खेती-बाड़ी से जुड़े  काम करने वाले युवाओं का है। इसका एक मतलब यह भी है कि इससे उनके परिवार की आय में तो सहयोग मिलता है लेकिन व्यक्तिगत रूप से उनकी आमदनी शून्य होती है। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि कार्यक्रम बनाने के दौरान शैक्षणिक योग्यता के साथ-साथ युवाओं के समय की उपलब्धता का भी ध्यान रखना, उनके लिए सुविधाजनक हो सकता है। इसके अलावा, यह आंकड़ा महिलाओं के लिए अधिक संख्या में और अधिक उपयुक्त आजीविका प्रशिक्षण कार्यक्रमों की गुंजायश होने की बात को भी स्पष्ट करता है।

डिजिटल माध्यमों को अपनाने से पहले

स्मार्टफोन के संदर्भ में सर्वे यह जानकारी देता है कि लगभग 90% युवाओं के घर पर स्मार्टफ़ोन हैं और वे इसका उपयोग करना जानते हैं। लड़कियों के पास उनका निजी मोबाइल फ़ोन होने का आंकड़ा जहां 19.8% था, वहीं लड़कों के मामले में यह दोगुने से अधिक यानी 43.7% था। कम्प्यूटर लैपटॉप की उपलब्धता के मामले में आंकड़ा 9% पर ही रुक जाता है। इसके अलावा, लगभग आधे युवा स्मार्टफ़ोन के सुरक्षित इस्तेमाल के बारे में नहीं जानते हैं। इनमें सोशल मीडिया पर किसी को रिपोर्ट या ब्लॉक करना, प्राइवेट प्रोफ़ाइल बनाना और पासवर्ड बदलने जैसी बातें शामिल हैं।

मात्र एक चौथाई युवा ही डिजिटल भुगतान, ऑनलाइन आवेदन करने, बिल भरने और टिकट बुक करने जैसे काम कर पाते हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि डिजिटल साधनों तक लोगों की पहुंच तो है लेकिन उनका इस्तेमाल करने के लिए उनके पास पर्याप्त कुशलताएं नहीं हैं। समाजसेवी संस्थाओं को यह ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि युवाओं, ख़ासतौर पर युवा लड़कियों के लिए डिज़ाइन किया गया कोई भी कार्यक्रम न तो पूरी तरह से डिजिटल रखा जा सकता है और न ही इसमें बहुत जटिल तकनीक (ख़ासतौर पर इंटरफ़ेस) का इस्तेमाल किया जा सकता है। डिजिटल फ़र्स्ट कार्यक्रमों में भी ऑफ़लाइन विकल्पों की उपलब्धता उनके सफल होने के मौक़े बढ़ा सकता है।

लैंगिक समानता से जुड़े प्रयासों के दौरान

असर रिपोर्ट के आंकड़े बड़ी स्पष्टता से दिखाते हैं कि पढ़ने-समझने, जीवन में गणित का इस्तेमाल करने और डिजिटल उपयोग के मामले में पुरुषों ने महिलाओं से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है। यहां तक कि सर्वे के दौरान दिए गए टास्क को करने से मना करने में भी 8.7% पुरुषों के मुकाबले 13.3% महिलाएं रहीं। एक उदाहरण से देखें तो गूगल मैप्स की मदद से किसी जगह जैसे बस स्टैंड तक पहुंचने के टास्क को करने से जहां केवल 32% पुरुषों ने मना किया था, वहीं 55% यानी आधे से अधिक महिलाओं ने इसके लिए ना कहा। रिपोर्ट कहती है कि महिलाओं ने इसे करने का तरीक़ा समझने में भी न के बराबर रुचि दिखाई। इसका एक कारण महिलाओं में आत्मविश्वास की कमी भी हो सकती है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आज भी उन्हें घर से बाहर निकालने के अवसर बनाने की जरूरत है। इन अवसरों का इस्तेमाल उन्हें नए प्रयोग करने की जगह देने और उनका आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए किया जा सकता है।

इस आंकड़े से ऐसा अनुमान भी लगाया जा सकता है कि किसी कार्यक्रम की शुरूआत में उससे जुड़ने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम और रफ़्तार बहुत धीमी हो सकती है। हालांकि रिपोर्ट यह भी बताती है कि लड़कियों में पढ़ने की इच्छा लड़कों की तुलना में अधिक होती है और मौक़ा मिलने पर वे अपेक्षाकृत अधिक समय तक शैक्षणिक संस्थान में बनी रहती हैं। लेकिन साथ ही उनके पास संसाधनों और अवसर दोनों की कमी स्पष्टत रूप से  से दिखाई देती है। इसके लिए संस्थाओं में अतिरिक्त और नए  तरह के प्रयासों की गुंजायश होनी चाहिए।

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लेखक के बारे में
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अंजलि मिश्रा

अंजलि मिश्रा, आईडीआर में हिंदी संपादक हैं। इससे पहले वे आठ सालों तक सत्याग्रह के साथ असिस्टेंट एडिटर की भूमिका में काम कर चुकी हैं। उन्होंने टेलीविजन उद्योग में नॉन-फिक्शन लेखक के तौर पर अपना करियर शुरू किया था। बतौर पत्रकार अंजलि का काम समाज, संस्कृति, स्वास्थ्य और लैंगिक मुद्दों पर केंद्रित रहा है। उन्होंने गणित में स्नातकोत्तर किया है।

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