एफआरए के तहत सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों का दावा कैसे कर सकते हैं?

वन अधिकार अधिनियम, 2006 (फ़ॉरेस्ट राइट एक्ट – एफआरए) के तहत आदिवासी और अन्य परंपरागत वन-निवासी समुदाय, वनों पर व्यक्तिगत अधिकार, सामुदायिक अधिकार और अन्य वन अधिकारों का दावा कर सकते हैं। गांव की परंपरागत सीमा के भीतर आनेवाले आरक्षित वन, संरक्षित वन भूमि, अभ्यारण्य, राष्ट्रीय उद्यानों तथा सरकारी रेकॉर्ड में दर्ज हर किसान की वनभूमि पर एफआरए लागू होता है। एफआरए, इन क्षेत्र में आने वाले वन संसाधनों पर ग्रामसभा और गांव में रहनेवाले समुदायों का अधिकार होने की बात कहता है। इन्हें सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (कम्यूनिटी फ़ॉरेस्ट रिसोर्स राइट्स – सीएफआरआर) कहा जाता है।

एफआरए के तहत वन अधिकार हासिल करने के लिए आवेदक का 13 दिसंबर, 2005 या उससे पहले से इस वन भूमि पर काबिज होना एक मात्र शर्त है। इसके साथ ही, वन पर निर्भर अन्य परंपरागत निवासियों का वहां कम से कम तीन पीढ़ियों से रहना जरूरी है। वन अधिकार के दावों की जांच पहले ग्रामसभा, फिर उप-खंडा स्तर (सब-डिवीडनल लेवल) और जिला स्तर पर की जाती है। दावे के निरस्त होने की स्थिति में इसका कारण दर्ज कर दावेदारों को इसके बारे में सूचित किया जाता है ताकि वे इसके खिलाफ अपील कर सकें। कुल मिलाकर, कई पीढ़ियों से वन भूमि पर रह रहे, खेती कर रहे और वनोपज का लाभ ले रहे लोग जो अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर है, एफआरए के तहत वन अधिकारों की मांग कर सकते हैं।

एफआरए को लेकर अभी क्या स्थिति है?

फाउंडेशन फ़ॉर इकॉलॉजिकल सेक्योरिटी (एफईएस) एक ऐसी संस्था है जो देश में जल, जंगल और चारागाह के संरक्षण से जुड़े काम करती है। इसमें आदिवासी समुदायों को उनके वन अधिकार दिलाना भी प्रमुख रूप से शामिल है। छत्तीसगढ़ में एफईएस द्वारा ग्राम सभाओं की जागरूकता के लिए चलाए गए, ‘सामुदायिक वन संसाधन अधिकार अभियान’ के दौरान देखा गया कि एफआरए आने के कई सालों बाद भी, केवल शासकीय तंत्र के लिए ग्राम सभाओं तक इसकी जानकारी पहुँचाना और उन्हें समझाना चुनौती पूर्ण रहा है। एफआरए के सही पालन के लिए तीन महत्वपूर्ण विभाग जैसे राजस्व, वन और आदिम जाति विभाग में बेहतर समन्वय और आपसी संवाद की आवश्यकता है। जमीनी स्तर पर काम करने वाली स्थानीय संस्थाएं ऐसा काम नहीं कर पा रही थीं जिससे कि बहुत अधिक फर्क लाया जा सके।

जमीनी स्तर पर काम करने वाली स्थानीय संस्थाएं ऐसा काम नहीं कर पा रही थीं जिससे फर्क लाया जा सके।

ऐसे में दो विकल्प सामने आते हैं, लोग (या समुदाय) स्वयं सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों का दावा करें या समाजसेवी संस्था इस तरह के प्रयासों में सहयोग करें। लेकिन ऐसा करते हुए पहली बाधा होती है, कठिन क़ानूनी भाषा। किसी भी क़ानून को लागू करने की बात तो तब आएगी जब लोगों इसकी जानकारी और समझ होगी। यहां पर एफईएस जैसी समाजसेवी संस्थाएं कारगर साबित होती हैं। एफईएस ने सबसे पहले क़ानून की भाषा को सरल करने और उसे आम लोगों तक पहुंचाने पर काम किया है। यह आठ चरणों में बताता है कि जन समुदाय अपने वन अधिकारों को हासिल करने के लिए क्या कर सकता है।

वन अधिकार हासिल करने की प्रक्रिया क्या है

1. दावों की प्रक्रिया शुरू करने के लिए ग्राम सभा की बैठक का आयोजन करना

वन अधिकार हासिल करने के लिए ऊपर बताई गई शर्तें पूरी करने वाले लोग साथ आकर सामुदायिक वन अधिकारों का दावा कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले आपको ग्रामसभा बुलानी होगी। ग्रामसभा की इस बैठक में सामुदायिक वन संसाधन अधिकार दावे के लिए आवेदन करने और उसे स्वीकार करने से जुड़े फैसले किए जाते हैं। यानी, यह कि कौन कौनसा क्षेत्र इस दावे में आएगा और इनमे से कितना क्षेत्र व्यक्तिगत अधिकार के क्षेत्र में आते हैं जिन्हें अलग करना है। इस बैठक और उसमें शामिल विषयों की सूचना उप-खंड स्तरीय समिति (सब डिवीजनल लेवल कमेटी – एसडीएलसी) को दी जाती है। इस बैठक में वन अधिकार समिति (फ़ॉरेस्ट राइट्स कमेटी – एफआरसी) का गठन भी किया जाता है जो आवेदन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है और उसकी निगरानी करती है। इसमें ग्राम पंचायत, खास कर पंचायत सचिव समुदायों की मदद करते हैं। इसके बाद, परंपरागत सीमा के पहचान के लिए कोर समूह का गठन किया जाता है। इसके लिए, एफआरसी के अध्यक्ष और सचिव एक सूचना तैयार करते हैं जिसमें कोर समूह के सदस्यों के नाम, अगली बैठक की तारीख़, जगह और समय की जानकारी दी जाती है।

इस चरण में आनेवाली चुनौतियों की बात करें तो कई बार ऐसा होता है कि ग्रामसभा एफआरए का प्रस्ताव करने की बैठक करने जा रही होती है लेकिन पंचायत सचिव को इसकी जानकारी नहीं होती है और वो सहयोग नहीं कर पाते हैं। पंचायत सचिव उपस्थित हो भी तो जरूरी नहीं है कि उसे एफआरए या सीएफआरआर की जानकारी होगी ही। पटवारी और वन रक्षक जैसे सरकारी प्रतिनिधियों का होना भी जरूरी होता है जो कई बार कठिन क़वायद बन जाता है। चूँकि ब्लाक स्तर पर आवेदन को जमा करने की कोई एकल खिड़की का प्रावधान स्पष्ट नहीं है इसलिए अलग अलग राज्यों या जिलों ने अपने स्तर पर अलग अलग व्यवस्था बनायीं है। यह सब ग्राम सभा के लिए एक चुनौती हो जाती है। एफआरए की मांग करने वाले लोगों, समुदायों या समाजसेवी संस्थाओं को सबसे पहले इस बात की तैयारी रखनी चाहिए कि इस पूरी प्रक्रिया में आपको कई बार एक से दूसरे ब्लॉक स्तर के सरकारी दफ्तरों में जाना पड़ सकता है। इसका कारण यह है कि ज्यादातर राज्यों में इसे लेकर अभी तक कोई व्यवस्था या क्रम नहीं तय हो पाया है।

जंगल में औरतें काम करती हुई_सामुदायिक वन अधिकार
एफआरसी, कोर समूह और अपने गांव की सीमा से लगे सभी गांवों के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर गांव की परंपरागत सीमाओं का निर्धारण करती है। | चित्र साभार: एफईएस

2. एफआरसी की बैठक

दूसरा चरण वन अधिकार समिति की बैठक है जिसका आयोजन दावा प्रक्रिया शुरू करने के लिए होता है। इसमें दावों की तैयारी के चरण और तरीक़ों पर बात की जाती हैं और लोगों को अलग-अलग कामों की जिम्मेदारियां बांटी जाती हैं। ये लोग एफआरसी और कोर समूह के प्रति जवाबदेह होते हैं।

अगर आप एक समाजसेवी संस्था के तौर पर एफआरए के लिए काम कर रहे हैं तो आपको ध्यान रखना होगा कि इन प्रयासों पर काम करने वाले वॉलंटीयर उसी समुदाय के हों जिनके साथ काम किया जा रहा है। जमीन पर काम करने वाले जानकार अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि अब तक पेशेवर लोग इसमें सफल नहीं हो सके हैं। सिर्फ भाषा का ही उदाहरण लें तो बहुत सारे शब्द (टर्म) अलग-अलग इलाक़ों में बदल जाते हैं। ऐसे में क्षेत्रीय भाषा, प्रतीक और परंपरा को ध्यान में रखते हुए प्रक्रिया को अपनाना और लोगों को जिम्मेदारियां देना, बेहतर नतीजे देने वाला साबित हो सकता है।

3. गांव की सीमाओं का नजरी नक्शा

आम तौर पर गांव में रहने वाले लोग यह जानते हैं कि उनके गांव की सीमा कहां तक जाती है या इसके लिए उनके अपने चिन्ह होते हैं जिन्हें देखकर गांव की सीमा का अंदाज़ा लगाया जाता है। इसलिए इसे नजरी नक्शा कहा जाता है।

अगले चरण में एफआरसी, कोर समूह और अपने गांव की सीमा से लगे सभी गांवों के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर गांव की परंपरागत सीमाओं का निर्धारण करती है। ऐसा करने वालों में गांव के बुजुर्ग, महिलाएं और परंपरागत ज्ञान रखने वाले लोग होते हैं। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में बात करें तो इसमें वैद्य, सिरहा, चरवाहे वगैरह को शामिल किया जाता है। इसके लिए एफआरसी, जंगल विभाग के बीटगार्ड, पटवारी और पंचायत सचिव को भी बुलाती है। इसके लिए उन्हें सूचना (सरकार द्वारा तय प्रारूप 5 सी में) दी जाती है। इन सबकी मौजूदगी में पारंपरिक सीमाओं का नजरी नक्शा तैयार किया जाता है। इस के साथ ही, वन संसाधनों की सूची और दावा पत्र तैयार किया जाता है। इन दावों की जानकारी रखने के लिए एक रजिस्टर, जिसे दावा पंजी कहा जाता है, में इनका विवरण लिखा जाता है।

सुदूर जंगली इलाक़ों में स्मार्टफ़ोन की उपलब्धता भी सहज नहीं है।

इस चरण में आनेवाली चुनौतियों की बात करें तो जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि एफआरए पर काम करते हुए उस इलाक़े, वहां रहने वाले लोगों और उनकी परंपराओं की समझ होना जरूरी है। अगर नजरी नक्शा बनवाने के उदाहरण को लें तो बस्तर में अगर इसे किसी मंदिर को परंपरागत सीमा माना जाएगा तो हो सकता है जसपुर में यह कुछ और हो। हर गांव की परंपरा या मान्यता, अगले गांव से अलग हो सकती है जिसका ध्यान समुदायों और समाज सेवी संस्थाओं दोनों को ही रखना चाहिए। ऐसा न किए जाने पर कई बार सीमा विवाद खड़े हो जाते हैं। यहां पर आपके लिए यह जानना जरूरी है कि इस तरह के विवाद होने पर उन्हें उपविभाग स्तरीय समिति (एसडीएलसी) सुलझाती है।

4. अनापत्ति प्रमाण पत्र

उपविभाग स्तर की समिति को भेजे जाने वाले दावों का सत्यापन करने से पहले पारंपरिक सीमा के मुताबिक मानचित्र तैयार किए जाते हैं। इसके लिए जीपीएस मशीन की मदद ली जाती है जो जंगल विभाग के पास होती है। इस चरण में कई बार यह समस्या आती है कि जीपीएस मशीन उपलब्ध नहीं हो पाती है। ऐसी परिस्थितियों में मोबाइल फ़ोन एक विकल्प हो सकता है लेकिन इसका इस्तेमाल करने की सलाह नहीं दी जाती है क्यों कि सरकारी विभाग इससे मिली जानकारी को मान्यता नहीं देते हैं। इसकी दूसरी वजह यह भी है कि सुदूर जंगली इलाक़ों में स्मार्टफ़ोन की उपलब्धता भी सहज नहीं है।

इस चरण में मानचित्र के साथ, अन्य प्रमाण जैसे पड़ोसी गांवों के बुजुर्गों के कथन और उन गांवों की वन अधिकार समितियों से अनापत्ति प्रमाण पत्र भी हासिल किए जाते हैं कि सीमा का निर्धारण सही किया गया है और उन्हें इसपर आपत्ति नहीं है। सीमा का निर्धारण होने के बाद वन अधिकार समिति के द्वारा उप- खंड स्तरीय समिति को सूचना भेजी जाती है कि वो सत्यापन के लिए प्रतिनिधि भेजें। इसके अलावा, निस्तार पत्रक यानी समुदाय द्वारा वन भूमि का इस्तेमाल करने की पुष्टि करने वाले दस्तावेज भी इकट्ठा किए जाते हैं।

5. सत्यापन समूह

अगले चरण में उपविभाग स्तर की समिति, दावों और दस्तावेज़ों के सत्यापन के लिए एक समूह को भेजती है। समूह के सदस्य, सामुदायिक वन अधिकार से जुड़े सभी प्रमाणों की जांच करते हैं और सत्यापन प्रतिवेदन को समिति के सामने रखते हैं। इन्हें ग्राम पंचायत के सामने रखने का ज़िम्मा एफआरसी का होता है।

6. ग्राम सभा में तैयार दावों की प्रस्तुति 

अगला चरण ग्रामसभा में दावे प्रस्तुत किए जाने का है। इस दौरान ग्राम सभा के सभी फ़ैसलों और सहमति का ब्यौरा एक प्रस्ताव रजिस्टर बनाकर उसमें दर्ज किया जाता है। इस पर सभी के हस्ताक्षर लेकर इसकी एक कॉपी, वन अधिकार दावा पंजी में रखी जाती है। इसे उपविभाग स्तर की समिति को सरकार द्वारा निर्धारित फ़ॉर्मेट में, सभी ज़रूरी दस्तावेज़ों के साथ भेजा जाता है।

7. उप-खंड स्तरीय समिति

उप-खंड स्तर की समिति, दावों की प्राप्ति के बाद संबंधित ग्रामसभा को तारीख़ समेत पावती देती है। इसके बाद यह अपने स्तर पर दावों की जांच करती हैं और सही पाए जाने पर इन्हें जिला स्तरीय समिति को भेज देती है।

8. जिला स्तरीय समिति

आख़िरी चरण में, जिला स्तरीय समिति, वन अधिकारों के दावे सही पाए जाने पर उन्हें मान्यता देने के लिए अधिकार पत्र देती है और अंतिम रूप देने के बाद उन्हें प्रकाशित करती है।

अगर आप एक समाज सेवी संस्था हैं तो आपको क्या ध्यान रखना है?

ओडिशा, झारखंड और तेलंगाना में सीएफआरआर अभियानों का नेतृत्व करने वालों का अनुभव रहा है कि वन अधिकार हासिल करने में, बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि किसी राज्य की सरकारी मशीनरी किस तरह से काम करती है। अपनी कोशिशों के दौरान संस्थाओं को सबसे पहले यह ध्यान रखना होता है कि यह एक केंद्रीय क़ानून है यानी देशभर में यह एक समान है। इसका मतलब है कि कोई भी राज्य इसके प्रावधानों में या इसे लागू करने के तरीके में अपने हिसाब से बदलाव नहीं कर सकता है। अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि पंचायत, सचिव वगैरह जैसे स्टेक होल्डर यह नहीं जानते थे कि इस क़ानून को कैसे लागू करना है। आप जिस किसी भी इलाक़े में काम कर रहे हों वहां आपको सरकारी विभागों के साथ किसी न किसी तरह का सहयोग कर के काम करना होता है। और, यह ध्यान में रखते हुए करना होता है कि सरकार के पास मैदानी अमले कम है। हमारा प्रयास यह होना चाहिए की ट्राइबल, फ़ॉरेस्ट और रेवन्यू डिपार्टमेंट जैसे तमाम विभागों का आपस में संवाद और तालमेल बढ़े और पालन को बल मिले।

प्रयासों की शुरूआत ज़िला स्तर पर रिसोर्स पर्सन बनाने, उन्हें प्रशिक्षण देने और फिर समुदायों के साथ उन्हें जोड़ने का काम किया जा सकता है। समाजसेवी संस्थाओं और रिसोर्स पर्सन को सरकारी विभागों के साथ साझेदारी बनाने और क़ानून को लागू करने के लिए उनके साथ मिलकर एक व्यवस्था बनाने की तैयारी रखनी चाहिए। इसके बाद वे उस चरण में पहुंच सकते हैं जहां लोगों को बता पाएं कि वे किस प्रक्रिया का पालन कर अपने वन अधिकार हासिल कर सकते हैं।

प्रक्रिया के चरण यहां से लिए गए हैं।

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भुंजिया महिलाएं: परंपरा से मिला अकेलापन

अपनी झोपड़ी के सामने खड़ी भुंजिया समुदाय की एक महिला_भूमि अधिकार
भुंजिया समुदाय की महिलाएं परंपराओं के चलते अकेले जीवन बिताती हैं। | चित्र साभार: वुमैनिटी फाउंडेशन

मुख्यरूप से ओडिशा और छत्तीसगढ़ में बसने वाली, भुंजिया जनजाति अपनी उन पारंपरिक प्रथाओं का पालन करती हैं जो उनके एकाकी जीवनशैली में योगदान देती हैं। खासतौर पर, इस समुदाय की महिलाएं एकाकी जीवन जीती हैं। बड़े पैमाने पर इनके समाज को देखने पर हम पाते हैं कि इस समुदाय में सत्ता का संतुलन पुरुषों के पक्ष में ही है। महिलाएं आमतौर पर, अपने घरों तक ही सीमित होती हैं और उन्हें केवल लाल बंगला में ही खाने की अनुमति है। यह एक पवित्र रसोई स्थल है जहां इस समुदाय के लोगों के लिए भोजन तैयार किया जाता है। इस जनजाति की भाषा भी अलग है, जिसके कारण अन्य स्थानीय समुदायों और इस जनजाति के बीच के अलगाव की एक और परत जुड़ जाती है।

जब लोक आस्था सेवा संस्था ने गरियाबंद जिले के हटमहुआ गांव में पहली बार समुदाय के लोगों के साथ बैठक आयोजित की तब इस बैठक में उपस्थित महिलाओं ने बातचीत में बिलकुल हिस्सा नहीं लिया था। चूंकि हम बाहरी थे इसलिए हम लोगों के साथ संवाद को लेकर उनके मन में झिझक थी और उनके पास हम पर भरोसा करने का कोई कारण भी नहीं था। समुदाय की महिलाओं के सशक्तिकरण के दौरान, हमने सबसे पहले इस काम में पुरुषों को शामिल किया और उनका भरोसा हासिल किया। हम लोगों ने समुदाय की महिलाओं के साथ भूमि अधिकारों, सरकारी योजनाओं और नेतृत्व जैसे विषयों पर नियमित रूप से बैठकों और प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन किया। नतीजतन वे महिलाएं अब धीरे-धीरे हमारे सामने खुलकर बात करने लगीं।

समुदाय से संवाद स्थापित करने के बाद हमने जाना कि वे वर्षों से अपने व्यक्तिगत वन अधिकारों के दावों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें अपने दावे पेश किए हुए 15 वर्ष हो गये लेकिन अब तक किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं मिली है। हम यह समझ गये कि लंबित दावे का समाधान समुदाय, विशेष रूप से महिलाओं के लिए बेहतर जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया होगा। हालांकि, हम यह भी समझ गये थे कि सशक्तिकरण के मार्ग में आने वाली अनगिनत बाधाओं को देखते हुए भूमि पर पहुंच और नियंत्रण को एक दीर्घकालिक लक्ष्य के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसके लिए हम पहले उनकी तत्काल जरूरतों को पूरा करके इस रास्ते पर आगे बढ़ सकते हैं। उदाहरण के लिए, उनके पास राशन कार्ड नहीं होने के कारण वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन स्कीम – पीडीएस) का भी लाभ नहीं उठा सकते थे। उन्हें मनरेगा के माध्यम से रोज़गार भी नहीं मिल सकता था क्योंकि उनके पास जॉब कार्ड नहीं थे। भुंजिया महिलाओं को विधवा पेंशन जैसे अपने अधिकारों के बारे में या तो पता नहीं था या फिर वे इसका लाभ उठाने में सक्षम नहीं थीं।

इसलिए हमने इन महिलाओं को जिला कलेक्टर के पास जाकर अपने मुद्दों के बारे में बताने के लिए प्रोत्साहित किया और इसके लिए आवेदन तैयार करने में उनकी मदद भी की। यह उनके लिए एक मुश्किल काम था क्योंकि इससे पहले इन महिलाओं ने अपने गांव की सीमा से बाहर ना तो कभी अपने पैर रखे थे। ना ही वे यह जानती थीं कि बाहर की दुनिया कैसी होगी। फिर भी, उन्होंने कलेक्टर के कार्यालय में जाकर उनसे बात करने का साहस जुटाया। कलेक्टर ने उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया दी और इससे उनका डर और अविश्वास काफी हद तक कम हो गया। हटमहुआ की महिलाओं के अनुभवों को देखकर वे हमारे काम की समर्थक बन गईं और उन्होंने जिले के अन्य गांवों की भुंजिया महिलाओं को हमारे साथ काम करने के लिए तैयार करने में भी हमारी मदद की। 2023 में, गांव के कुछ लोगों को उनके व्यक्तिगत वन अधिकार दावों को मान्यता देने वाले भूमि दस्तावेज मिले। लेकिन यह इस समुदाय के लिए एक शुरुआत भर है क्योंकि महिलाओं ने नेतृत्व की भूमिका में आना और अपने अधिकारों की मांग शुरू कर दी है और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित कर रही हैं।

लता नेताम छत्तीसगढ़-आधारित समाजसेवी संस्था लोक आस्था सेवा संस्थान की संस्थापक हैं। 

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अधिक जानें: जानें कि ओडिशा के गरियाबंद जिले की औरतें अपने लिए अलग जमीन की मांग क्यों कर रही हैं।

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एक सफल रेडियो अभियान के लिए क्या चाहिए?

वैश्विक स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग बढ़ गया है लेकिन इन गैजेट्स का अपना जीवन चक्र कम हो गया है। नतीजतन, इससे पैदा होने वाले ई-वेस्ट की मात्रा अब तक के सबसे उच्च स्तर पर पहुंच गई है। विश्व स्तर पर,  भारत ई-वेस्ट उत्पादन में तीसरे स्थान पर आता है, और स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों ही पर इसका बहुत गंभीर प्रभाव पड़ा है। एक अध्ययन के अनुसार, जहां ई-वेस्ट इकट्ठा किया जाता है या उनका निपटान किया जाता है, उन इलाक़ों के आसपास रहने वाले लोग अलग-अलग समस्याओं का सामना करते हैं। इनमें हार्मोन-स्तर में होने वाले परिवर्तन, डीएनए क्षति, वैक्सीन की प्रतिक्रिया में आने वाली बाधा और खराब रोग-प्रतिरोधक क्षमता मुख्यरूप से शामिल हैं।

इस समस्या का हल निकालने के लिए 2011 ई-वेस्ट नियम तय करते हुए, विस्तृत उत्पादन ज़िम्मेदारी (एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी) की अवधारणा पेश की गई। इसके मुताबिक, उत्पादकों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके उत्पाद के कारण पैदा होने वाले कचरे को औपचारिक रूप से एकत्रित और रिसायकल किया जाए। हालांकि अब भी अनौपचारिक क्षेत्र यानी घरों, दुकानों और छोटे व्यापारियों जैसे ग़ैर-थोक उत्पादकों से ई-वेस्ट इकट्ठा करना कम लागत वाला होता है। अनौपचारिक रूप से यह काम करने वाले लोग ई-वेस्ट को बेचकर अपनी आमदनी को बढ़ाना चाहते हैं। 2020 की एक रिपोर्ट बताती है कि कुल ई-वेस्ट का केवल पांच फ़ीसद कचरा ही आधिकारिक रिसायक्लरों द्वारा रिसायकल किया गया है।

इलेक्ट्रॉनिक सामानों का एक बड़ा हिस्सा ग़ैर-थोक उत्पादकों द्वारा उत्पादित किया जाता है – देश में उत्पन्न अनुमानित ई-कचरे का लगभग 82 फ़ीसद स्मार्टफोन और लैपटॉप जैसे व्यक्तिगत गैजेट के रूप में होता है। सही तरह के नियम लागू करना जहां एक बात है, वहीं छोटे स्तर के इन लाखों उत्पादकों के व्यवहार पर निगरानी रखना लगभग असंभव है।

खुदरा उत्पादक नियमों का पालन करें, इसके लिए रिसाइक्लिंग के दुष्प्रभावों के बारे में जागरुकता पैदा करना एक तरीका हो सकता है। साथ ही, उन्हें यह बताना भी ज़रूरी है कि कैसे ई-कचरे को बेचने से इसे औपचारिक रूप से संसाधित करना अव्यवहारिक हो जाता है। इस मामले को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए किए जा रहे प्रचार अभियान यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं कि लोग समझें कि ई-कचरे का जिम्मेदारीपूर्वक निपटान क्यों महत्वपूर्ण है और वे इसमें कैसे योगदान दे सकते हैं। इस मुद्दे से निपटने के लिए चलाए गए अभियानों को लंबी अवधि तक व्यापक दर्शकों का ध्यान आकर्षित करना चाहिए। यहीं पर प्रिंट, टेलीविजन और रेडियो जैसे जनसंचार माध्यमों के पारंपरिक तरीके काम आते हैं।

कचरा प्रबंधन पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन के रूप में साहस ने ई-कचरे के निपटान के बारे में अधिक जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो कैम्पेन और सामुदायिक सहभागिता के अन्य तरीकों को अपनाया। यह लेख दिसंबर 2021 से मई 2022 तक दो रेडियो अभियानों को चलाने के हमारे अनुभव से प्राप्त समझ को दिखाता है।

रेडियो ही क्यों?

कई सरकारी एवं निजी इकाइयां, सामाजिक अभियानों और संदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए रेडियो को ही अपना माध्यम बनाती आई हैं। उदाहरण के लिए, भारत सरकार अपने ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान को देशभर के लोगों तक पहुंचाने के लिए रेडियो पर चलाती है। लैंसेट के एक अध्ययन ने बुर्किना फासो के ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियो के इस्तेमाल का मूल्यांकन किया और पाया कि प्रभावी ढंग से उपयोग में लाये जाने पर यह व्यवहार परिवर्तन के लिए एक सशक्त उपकरण हो सकता है। इसके अलावा, प्रसारण के माध्यम के रूप में, हमारे अभियानों के लिए रेडियो के कुछ अन्य फायदे भी हैं:

रेडियो के सामने बैठी हुई कुछ महिलाओं के हाथ_रेडियो अभियान
प्रसारण माध्यम के रूप में रेडियो प्रिंट और टेलीविजन की तुलना में सस्ता है। | चित्र साभार: यूके डिपारमेंट ऑफ इंटरनैशनल डेवलेपमेंट / सीसी बीवाय

दो अभियान, एक संदेश

हमारी टीम ने रेडियो सिटी चैनल को एक तय क्षेत्र में इसके व्यापक श्रोता आधार और इसके कुछ उद्घोषकों (आरजे) की लोकप्रियता के कारण चुना था। पहले अभियान में स्वयंसेवकों, स्कूली बच्चों, शिक्षकों और निवासी कल्याण संघों (आरडब्ल्यूए) के सदस्यों द्वारा 25-सेकंड के टेस्टीमोनियल शामिल थे जिसमें बताया गया था कि उन्होंने अपना ई-कचरा साहस संस्था को क्यों दिया। सभी संदेशों में स्पष्ट कार्रवाई के लिए कहा गया था जहां श्रोताओं को एक हेल्पलाइन नंबर के बारे में बताया गया, जिस पर वे अपना ई-कचरा दान करने के लिए संपर्क कर सकते थे। दूसरा अभियान अधिक रचनात्मक था, जिसमें मानवरूपी इलेक्ट्रॉनिक्स और उनके मालिकों के बीच की बातचीत को दर्शाया गया था। दोनों अभियानों के बीच का मुख्य अंतर यह था कि बाद की सामग्री श्रोताओं की भावनाओं को आकर्षित करने और अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए डिजाइन की गई थी।

हम लोगों ने आरजे मेंशन जैसे स्थानों को चुना, जहां आरजे हमारे द्वारा दिए गए बातचीत के बिंदुओं के आधार पर मुद्दे पर बात करेंगे।

हम लोगों ने दूसरे अभियान को चलाने के लिए संदर्भ के अनुसार प्रासंगिक दिवसों जैसे स्वास्थ्य दिवस, पृथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस को चुना। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, हमने अभियान की लंबाई कम कर दी और कुल रेडियो स्पॉट्स या प्रचारों की संख्या को बढ़ा दिया। हालांकि दूसरे अभियान की कुल समयावधि कम थी, प्रत्येक स्लॉट को लंबा रखा गया था और सप्ताहांतों पर स्लॉटों की संख्या बढ़ा दी गई थी।

पहले अभियान के परिणामस्वरूप साझा किए गए नंबर पर लगभग 21 कॉल्स आईं। कॉल करने वालों का कहना था कि उन्होंने रेडियो पर हमारे बारे में सुना था। पहला कॉल, पहला प्रोमो ऑन एयर होने के अगले दिन ही आया। कॉल में ई-कचरा संग्रहण और जागरूकता सत्र आयोजित करने के बारे में पूछताछ की गई थी। दूसरे अभियान के परिणामस्वरूप हमें 34 कॉल्स प्राप्त हुईं। अभियान शुरू होने के दो दिन बाद से ही हमें ये कॉल्स आने लगीं। दोनों अभियानों के बीच एकत्रित ई-कचरे की मात्रा और गुणवत्ता में काफी बदलाव आया। पहले अभियान के दौरान लगभग 266 किलोग्राम ई-कचरा संग्रह किया गया था जबकि दूसरे अभियान में 1,370 किलोग्राम ई-कचरा इकट्ठा हुआ।

हालांकि, पहले अभियान के दौरान इकट्ठा किए गये कचरे में मुख्य रूप से कम-मूल्य वाला ई-कचरा जैसे कि तार आदि अधिक मात्रा में थे, वहीं दूसरे अभियान के परिणामस्वरूप एकत्रित किए गये ई-कचरे में कम-मूल्य वाले कचरे के साथ सूचना, प्रौद्योगिकी और संचार (आईटीईडब्ल्यू) से जुड़ी वस्तुएं शामिल थीं। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि उपभोक्ताओं की नजर में आईटीईडब्ल्यू वस्तुओं का मूल्य अधिक होता है और वे आमतौर पर इसे मुफ्त में नहीं देते हैं, यह व्यवहार में आया एक बड़ा बदलाव था। हालांकि, इस बात पर गौर करना होगा कि दूसरा अभियान चाही गई प्रतिक्रिया प्राप्त करने के मामले में अधिक प्रभावी था, लेकिन इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि पहले अभियान ने दूसरे अभियान के बेहतर संग्रह के लिए गति बनाने में मदद की हो।

हमने जो सीखा

1. सही संदेश देना

हमारा मानना था कि किसी ऐसे अभियान के लिए रेडियो एक प्रभावी माध्यम हो सकता है जो किसी विशेष स्थान पर केंद्रित हो और जहां जनसांख्यिकी से परे, दिये जा रहे संदेश में एकरूपता हो। हमने एनसीआर के लिए अपने अभियानों को डिज़ाइन करके और यह सुनिश्चित करके इस परिकल्पना का परीक्षण किया कि कॉल टू एक्शन, उम्र या लिंग से परे, सभी प्रकर के श्रोताओं के लिए समान था। पहले अभियान ने ई-कचरा निपटान के लिए स्कूलों और आरडब्ल्यूए को साइन अप करने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया था, जबकि दूसरे में उपयोगकर्ताओं को ई-कचरा निपटान को एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया गया। दूसरे अभियान में प्राप्त उल्लेखनीय रूप से बेहतर प्रतिक्रिया ने हमारी प्रारंभिक परिकल्पना की पुष्टि की। साथ ही, यह भी संकेत दिया कि व्यक्तिगत जिम्मेदारी की भावना पैदा करने वाली कॉल टू एक्शन रेडियो मैसेजिंग के लिए अधिक अनुकूल है। यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि किसी सामाजिक या पर्यावरणीय मुद्दे के लिए अभियान चलाते समय, मुद्दे को गंभीर नहीं दिखना चाहिए। ऐसी स्थिति में लोग यह सोच सकते हैं कि इस मामले को लेकर उनके द्वारा उठाये गये कदम निरर्थक साबित होंगे। यह इस तथ्य से प्रदर्शित होता है कि हल्के-फुल्के प्रोमो की तुलना में प्रशंसापत्रों को मिलने वाली प्रतिक्रियाओं की संख्या कम थी।

2. फॉर्मेट का चुनाव अपने अभियान के लक्ष्य के अनुकूल ही करें

रेडियो पर लंबी और छोटी अवधि, दोनों तरह के स्पॉट इस्तेमाल किए जा सकते हैं। लंबी अवधि के संदेश उन विषयों के लिए बेहतर काम करते हैं, जहां दर्शकों को व्यापक स्तर पर आकर्षित करने की तुलना में गंभीर दर्शकों को आकर्षित करना अधिक महत्वपूर्ण होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लंबे स्पॉट को इतनी बार नहीं चलाया जा सकता है। परिणामस्वरूप इस प्रकार के अभियानों के सीमित दर्शकों तक ही पहुंचने की संभावना अधिक होती है। जहां हमने पहले अभियान में एक इंटरव्यू को भी शामिल किया था, वहीं दूसरे अभियान को अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाने के लिए हमने इसे लंबी अवधि का नहीं बनाया।

आरजे के पास अपनी एक फैन फॉलोइंग होती है जिससे वे व्यक्तिगत संदेश के माध्यम से सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।

हमने विभिन्न प्रकार के स्पॉट भी इस्तेमाल किए। उदाहरण के लिए, हमने आरजे मेंशन का उपयोग किया जहां आरजे अपनी ऑन-एयर बातचीत में मुद्दे पर चर्चा करते हैं। किसी प्रोमो के समय श्रोताओं के शांत होने की संभावना अधिक होती है, इसलिए आरजे मेंशन, जागरूक दर्शकों के सामने किसी मुद्दे पर चर्चा करने के एक तरीके के रूप में कारगर साबित हो सकता है। आरजे के पास एक समर्पित प्रशंसक भी है जो व्यक्तिगत संदेश के जरिए सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। हमने पूरे दिन चलने वाले छोटे प्रोमो भी शुरू किए जो अपने रिकॉल वैल्यू और बड़े दर्शकों तक पहुंचने की क्षमता के कारण उपयोगी थे।

3. गंभीर बातों को हल्के-फुल्के और रचनात्मक तरीक़ों से बताना

पहले अभियान के लिए हमारा उद्देश्य अनौपचारिक रीसाइक्लिंग के खतरों के बारे में जागरूकता पैदा करना था। इसे हासिल करने के लिए, हमने लोगों को ई-कचरे को जिम्मेदारी से संभालने के लिए प्रेरित करने के लिए स्कूली शिक्षकों, आरडब्ल्यूए के सदस्यों और रिसाइक्लर्स सहित विभिन्न हितधारकों के टेस्टीमोनियल प्रस्तुत किए। पहले अभियान की प्रतिक्रियाओं से हमने समझा कि अधिक रचनात्मक दृष्टिकोण से ही हम श्रोताओं को शिक्षित और जागरूक बना सकते हैं। इसलिए हमने अपने अभियान को उपदेशात्मक होने से बचाने के लिए अधिक उदार दृष्टिकोण अपनाया। अपने इस लक्ष्य को पाने के लिए हमने अपने दूसरे अभियानों को अनूठे संदेशों के साथ तैयार किया, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भावनाओं के साथ जीवित प्राणियों के रूप में चित्रित किये जाने वाले प्रोमो का इस्तेमाल किया गया।

संदेशों को सामयिक बनाने से भी मदद मिली। उदाहरण के लिए, हम लोगों का वैलेंटाइन डे वाला प्रोमो – जिसमें ‘प्रेमहीनता’ को उजागर किया जिसके साथ इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को त्याग दिया जाता है- ने दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया था। इसी तरह के सामयिक प्रोमो हमने पर्यावरण दिवस और स्वास्थ्य दिवस पर चलाये थे।

हमारे अनुभवों के आधार पर हम कह सकते हैं कि बड़े स्तर पर लोगों तक पहुंचाये जाने वाले सामाजिक संदेशों के प्रसार के लिए टेलीविजन और प्रिंट माध्यम की तुलना में रेडियो अधिक प्रभावी साबित होता है। हालांकि, हमारा लक्ष्य एक समान संदेश को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना था, वहीं आपके अभियान की जरूरतें भिन्न हो सकती हैं। इसलिए अपने अभियान के लिए अनुकूल और उचित प्लेटफॉर्म और माध्यम का चुनाव करते समय आपको सबसे पहले अभियान के उद्देश्य को उसके अपेक्षित प्रभाव के संबंध में परिभाषित करना चाहिए। इससे आपको सही माध्यम और मंच चुनने में मदद मिलेगी, और ऐसा संदेश तैयार करने में मदद मिलेगी जो आपके दर्शकों के लिए आकर्षक और प्रासंगिक, दोनों हो।

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‘पानी बरसे आधा पूस, आधा गेंहू आधा भूस’

भारतीय किसान के पारंपरिक ज्ञान का भंडार इतना भरा-पूरा कहा जा सकता है कि न केवल हर इलाक़े की जलवायु के मुताबिक खेती-किसानी के तरीके बदल जाते हैं बल्कि इससे जुड़े हर सवाल का जवाब भी इसमें मिल जाता है। यहां तक कि मौसम का अंदाज़ा लगाने, आपदाओं की चेतावनी देने और फसल से जुड़ी भविष्यवाणी करने में यह ज्ञान काम आता है। यह देखना बड़ा दिलचस्प है कि परंपरागत किसान हवाओं के रुख, पशु-पक्षियों के व्यवहार और पारंपरिक लग्न-मुहूर्त की जानकारी के सहारे यह सब बता सकते हैं। 

राजस्थान, देश का एक ऐसा राज्य है जहां मौसम और भौगोलिक दुर्लभताएं अपने चरम पर दिखाई देती हैं और यही बात यहां के खेतिहरों के व्यवहारिक और परंपरागत ज्ञान में विविधता लाती है। इस आलेख में यहां के अलग-अलग इलाक़ों और समुदायों के आपसी संवाद में शामिल रहने वाले इसी ज्ञान की झलक है। चलिए, देसी कहावतों के ऐसे कुछ उदाहरणों पर गौर करते हैं जो मौसम और जलवायु से जुड़े अंदाज़े लगाते हुए कही जाती हैं।

1. पेड़-पौधों पर दिखते प्रभाव से

नीम्बी सूक्त नीम पर, पड़ै न नीचे आय
अन्न न निपजै एक कण, काल पड़ैलो आय

अगर नीम के फल यानी निम्बोली पककर जमीन पर गिरने की बजाय पेड़ पर ही सूख जाएं तो उस साल फसल अच्छी नहीं होगी और यह समझ जाइए कि अकाल पड़ने ही वाला है।

2.  हवा की गति और दिशा से

सावण में तो सूरयो चालै, भादरवै परवाई
आसोजां में नाड़ां टांकण, भरभर गाड़ा लाई

सावन (जुलाई-अगस्त) के महीने में उत्तर-पश्चिम दिशा के बीच से, भादौं (अगस्त-सितंबर) के महीने में पूर्व दिशा से और आश्विन (सितंबर-अक्टूबर) के महीने में पश्चिम और दक्षिण दिशा के बीच से हवा चल रही हो तो उस साल अच्छी बारिश होने की संभावना होती है।

3. पशुपक्षियों और कीटों के व्यवहार से

चिड़िया नहाने धूल में, मेंढक बोले अपार
चींटी ले आंकड़ा चढ़ी तो बरखा होवे अपार

यानी चिड़िया अगर धूल-मिट्टी से नहाई हुई दिखने लगें, मेंढक लगातार आवाज़ें निकाल रहे हों और चींटी अपने अंडे लेकर भागती हुई दिख जाए तो समझिए बहुत जल्दी बारिश होने वाली है।

गिरगिट रंग बिरंग हौ, मक्खी चटका देह
मांकड़िया चह-चह करें, जद आतां जो मेह

गिरगिट बार-बार रंग बदलता दिखाई दे रहा हो, मक्खी लोगों के शरीर पर चिपकने लग जाए और मकड़ी बेचैनी से इधर-उधर घूमती दिखे तो बहुत अधिका बारिश होने की संभावना होती है।

खलिहान में हाथ में गेहूं के कुछ दानें_पर्यावरण राजस्थान
चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

4. बादलों के रूपरंग से

दिनूंग्यॉ री छींतरी, संझ्या रहा गडमेल
रात्यॅू तारा निर्मला, औ काला रहा खेल

दिन के समय, बिखरे हुए बादल आसमान पर छाएं रहें और शाम के समय ये घटाएं आपस में मिल जाएं लेकिन रात के समय आसमान साफ हो जाए और तारे दिखाई देने लगें तो यह मानना चाहिए कि अकाल पड़ने वाला है।

बदली बादल में गमसै, सुण भड्डली पानी बरसै
बादल ऊपर बाद धावै, सुण भड्डली जल आतुर आवै

बारिश आने से पहले धुएं की तरह उफनते हुए बादलों का आना खुशी की बात है। बादल अगर एक-दूसरे पर चढ़ते हुए टकराते हुए देखे जाएं तो यह माना जाना चाहिए की बारिश ज़रूर होगी।

5. ग्रहनक्षत्र और हिंदी महीनों से

चौथा चमका बीजला पॉचा गाजे गाजसातो तूड़ नपजै बरखा बरसे ज़ोर से उगन्ता परभात

आषाढ़ (जून-जुलाई) के महीने की चौथी तिथि को सुबह-सुबह बिजली चमके, पंचमी को बाद गरजे तो यह मानना चाहिए कि सभी फसलों की पैदावार अच्छी होगी।

चांद के कूड़ों व दूसरे दिन बाजे उड़ो

अगर चंद्रमा के चारों तरफ गोलाकार घेरा सा दिखाई दे तो दूसरे दिन, दिनभर आंधी-तूफ़ान चलता रहता है। अगर उस घेरे में तारा भी दिखाई दे तो यह मानना चाहिए कि अगले दो-चार दिनों बहुत अच्छी बारिश होने वाली है।

पानी बरसे आधा पूस, आधा गेंहू आधा भूस

जनविश्वास है कि अगर पौष (दिसंबर-जनवरी) के महीने में आधे समय तक पानी बरसता रह जाए तो आधी पैदावार ही मिलने की संभावना होती है।

मणिपुर हिंसा का एक कारण जिस पर बात नहीं हो रही है

एकता परिषद के भूमि अधिकार कार्यकर्ता के रूप में, मैं साल 2006 से मणिपुर आता-जाता रहा हूं। हाल में की गई मेरी एक सप्ताह लंबी यात्रा बहुत उदास करने वाली थी। जून में, राज्य में हुई हिंसा के दौरान मैंने अपने एक 24 वर्षीय सहकर्मी को खो दिया। बसंता उस समय शांति समिति के सदस्य के रूप में अपने गांव में गश्त लगा रहे थे जब एक स्नाइपर ने उन्हें गोली मार दी। वे एक भूमि अधिकार कार्यकर्ता भी थे और 2017 से हमारे साथ जुड़े हुए थे।

इस राज्य में हो रहे संघर्ष के कई जटिल, ऐतिहासिक कारण और तात्कालिक कारण हैं। हालांकि, मैतेई और कुकी के बीच चल रही हिंसा पर चर्चा करते समय, मैं मुख्य मुद्दों में से एक के बारे में सोचने से खुद को नहीं रोक पाता हूं। मणिपुर में भूमि अधिकारों को लेकर हमेशा ही अस्थिरता की स्थिति रही है और इस क्षेत्र पर इसके प्रभाव को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।

सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना रिपोर्ट (एसईसीसी), 2011, एक चौंकाने वाले आंकड़े का खुलासा करती है: मणिपुर में लगभग दो-तिहाई आबादी भूमिहीन या बेघर लोगों की है। यह आंकड़ा सभी  पूर्वोत्तर राज्यों में यहीं सबसे अधिक है। 1960 के मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम से राज्य में भूमि सुधार लाया जाना था, लेकिन इसका व्यावहारिक कार्यान्वयन न्यूनतम रहा है। हाल के वर्षों में, घाटी के जिलों में बढ़ती जनसंख्या के परिणामस्वरूप भूमि पर दबाव भी बहुत अधिक बढ़ गया है। बुनियादी ढांचे और रियल एस्टेट के लिए भी भूमि अधिग्रहण बड़े पैमाने पर हुआ है। पहाड़ियों और घाटी में, भूमि दावों को निपटाने के बजाय, सरकार ने वन अतिक्रमण से निपटने वाले कानून तैयार कर लिए हैं। इस कानून से सबसे अधिक प्रभावित वे लोग होंगे जो परंपरागत रूप से इन भूमियों के निवासी रहे हैं।

एकता परिषद में अपने काम के जरिए भूमि अधिकारों में एक दशक की भागीदारी से, हम समझ सके हैं कि भूमि शक्ति और स्थिरता का एक अभिन्न स्रोत है। साथ ही, हम यह भी जान चुके हैं कि भूमि की अनुपस्थिति में, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षाएं और कमजोरियां बढ़ती हैं। मणिपुर में, इन अस्थिरताओं के कई कारणों में भूमि से जुड़ी मदद और उपाय के उचित तरीकों की कमी भी शामिल है। 

भूमिहीनता के अलावा, मणिपुर में खाद्य संकट भी पैदा हो रहा है। सभी प्रकार के कृषि कार्य ठप हो गये हैं क्योंकि दोनों तरफ बंकर हैं। सुरक्षा और सैन्य बलों ने लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्हें घर पर रहने के लिए कहा है। स्थानीय किसान संगठनों द्वारा किए गए एक क्षेत्र-व्यापी सर्वेक्षण से पता चला है कि इस संकट के कारण वर्तमान में लगभग 30,000 एकड़ कृषि भूमि पर खेती नहीं हो रही है। यह वर्तमान में एक लंबे संघर्ष की तरह दिखने वाली स्थिति को जटिल बनाने वाला है।

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रमेश शर्मा भारत में भूमि और वन अधिकारों पर काम करने वाले एकता परिषद नाम के एक सामाजिक आंदोलन के राष्ट्रीय समन्वयक हैं। 

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लद्दाख का लोकप्रिय खेल आइस हॉकी ख़तरे में

समुद्र से 3,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित लद्दाख को आइस हॉकी के लिए आदर्श माना जाता है। यह इस इलाक़े का सबसे लोकप्रिय विंटर स्पोर्ट है। लगभग 50 साल पहले भारतीय सेना के जवानों ने पूर्वी लद्दाख में इसे डाउनटाइम गेम के तौर पर खेलना शुरू किया था। समय के साथ, इस खेल ने स्थानीय लोगों के बीच अच्छी-खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है।

लद्दाख में पले-बढ़े लोगों की बचपन की यादों में, सर्दियों की छुट्टियों में होने वाली आइस हॉकी का एक विशेष स्थान है। आज, लद्दाख में पुरुष एवं महिला, दोनों ही प्रकार की आइस हॉकी टीमों की संख्या 20 से अधिक है। दरअसल, भारतीय महिला आइस हॉकी टीम की 20 खिलाड़ियों में से 18 लद्दाख से हैं। हर साल, लेफ्टिनेंट गवर्नर कप और चीफ एग्जेक्यूटिव काउंसिलर कप जैसे लोकप्रिय शीतकालीन टूर्नामेंट यहां आयोजित किए जाते हैं जिनमें लद्दाख के विभिन्न हिस्सों से टीमें भाग लेती हैं। फरवरी में आइस हॉकी नेशनल चैंपियनशिप 2023 का आयोजन भी लद्दाख में ही हुआ था।

हालांकि जलवायु परिवर्तन, जिसके कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, इस लोकप्रिय खेल पर एक बड़े खतरे की तरह मंडरा रहा है। अतीत में, आमतौर पर खेलों का आयोजन करजू के प्राकृतिक बर्फीले तालाब (आइस पॉन्ड) में किया जाता था। खिलाड़ी इन तालाबों में अभ्यास भी करते थे। लेकिन बढ़ते तापमान ने इसे मुश्किल बना दिया है। हॉकी खिलाड़ी और लद्दाख महिला आइस हॉकी फाउंडेशन की सदस्य डेस्किट कहती हैं कि, ‘मैं लद्दाख में महिला हॉकी खिलाड़ियों की पहली पीढ़ी में से हूं। मैं साल 2016 से ही राष्ट्रीय टीम में डिफेंस में खेल रही हूं। चूंकि हमारे पास अनुकूल कृत्रिम आइस हॉकी रिंक नहीं है इसलिए हम पूरी तरह इन जमे हुए तालाबों पर ही निर्भर हैं। और, अब जलवायु परिवर्तन ने हमारे लिए एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है। जब मैंने पहली बार खेलना शुरू किया था, तब हमें सर्दियों में कम से कम दो से चार महीने का समय खेलने के लिए मिल जाया करता था, लेकिन अब, इस ठंडे प्रदेश में भी सर्दी काफी देर से आती है और जल्दी चली जाती है। नतीजतन, हमें खेलने के लिए केवल दो महीने ही मिलते हैं।”

पिछले कुछ दशकों में, वैज्ञानिकों ने लद्दाख में बर्फबारी और ग्लेशियर के घनत्व, दोनों में गिरावट दर्ज की है। पर्यटकों की बढ़ती संख्या ने भी इस मामले को जटिल ही बनाया है। डेस्किट कहती हैं कि ‘पूरे साल सभी तरह की सुविधा प्राप्त विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय टीमों की तुलना में हमें केवल सर्दी के मौसम में ही अभ्यास करने और अंतर्राष्ट्रीय चैंपियनशीप के लिए तैयारी करने का मौका मिलता है। इससे हमारा प्रशिक्षण और प्रदर्शन वास्तव में प्रभावित होता है।’

डेस्किट बताती हैं कि लद्दाख में कृत्रिम आइस हॉकी रिंक मुहैया करवाने का वादा किया गया था। वे अफसोस जताती हैं कि, ‘अगर कृत्रिम रिंक नहीं बनाया गया और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मौजूदा गति से जारी रहा तो हम इस बेहद पसंदीदा शीतकालीन खेल को खो देंगे।

पिछले कुछ वर्षों से खेल का आयोजन लेह में एनडीसी आइस हॉकी रिंक में किया जा रहा है; इस रिंक का निर्माण पहाड़ी क्षेत्रों में इस खेल के प्रति लोगों की बढ़ती रुचि और बेहतर भविष्य की इसकी संभावना को देखते हुए किया गया था। लेकिन आइस रिंक के निर्माण और विकास का काम अब भी अधूरा है। इस खेल को बचाए रखने के लिए कृत्रिम रिंक के निर्माण की मांग भी तेजी से बढ़ी है।

डीचन स्पाल्डन लेह, लद्दाख की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। मूल कहानी चरखा फीचर्स द्वारा प्रकाशित की गई थी।

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अधिक जानें: जानें की कश्मीर के तीन गांवों में सड़क के बजे कुश्ती के मैदानों की मांग क्यों की जा रही है।

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डोरमैट बनाकर उद्यमिता का उदाहरण खड़ा करती उत्तर प्रदेश की महिला

रौशनी बेगम उत्तरप्रदेश, भदोही ज़िले के मोहम्मदपुर गांव में रहती हैं। महज़ 15 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी लेकिन अपने पति के प्रोत्साहन से वे 12वीं कक्षा तक पढ़ाई कर सकीं। परिवार में सबसे बड़ा होने के कारण घर और पांच भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी उनके पति पर आ गई जिसे रौशनी बेगम ने भी बांटा। उनके घर में बुनाई से बनने वाले कारपेट और डोरमैट (पायदान) बनाने का काम होता है। बुनाई से बनने वाली चीजों में समय लगता है और इसका कच्चा माल महंगा और बिक्री कठिन होती है। इस कारण उनके परिवार का काम भी कम हो गया। घर में लोगों की संख्या ज़्यादा होने और आर्थिक समस्याएं बढ़ने पर रौशनी को काम करना ज़रूरी लगा। साथ ही, उनका बचपन से अपना व्यवसाय करने का भी सपना था और यह काम उस सपने के तरफ पहला कदम था।

रौशनी बेगम के गांव के पास माधोपुर घुसिया नाम की एक जगह है जो अपने कारपेट बाज़ार के लिए मशहूर है। 2010-12 में उन्हें पता चला कि माधोपुर घुसिया में कपड़ों के टुकड़े जोड़कर डोरमैट बनाने का काम होता है। उन्होंने यह काम लिया और शुरूआत में डोरमैट में पाइपिंग (गोटा) लगाने का काम करने लगीं। इस काम के लिए उन्हें प्रति डोरमैट एक रुपया मिलता था। लेकिन इस काम में सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि उन्हें काम लेने और पूरा किए गए काम को पहुंचाने के लिए अपने गांव से माधोपुर घुसिया जाना पड़ता था और इसमें पैसे भी खर्च होते थे। कुल मिलाकर, इससे होने वाली आमदनी न के बराबर रह जाती थी।

बाज़ार में बिकने वाले फ्रेम से बने डोरमैट की तुलना में कतरन से बने डोरमैट सस्ते होते है।

हालांकि, इसके बावजूद रौशनी बेगम ने पाइपिंग लगाने का काम छोड़ा नहीं। बाज़ार में बिकने वाले फ्रेम से बने डोरमैट की तुलना में इनकी क़ीमत कम होती है। अपने पति का कारपेट का काम होने के कारण रौशनी बेगम के पास फ्रेम भी था जो डोरमैट बनाने में भी इस्तेमाल हो जाता है। लेकिन इससे बनने वाले डोरमैट की लागत ज़्यादा होती है, जिसके कारण यह महंगे होते है और इनकी बिक्री कम होती है। इसके मुक़ाबले कतरन से बने डोरमैट सस्ते होते है। इसकी कम कीमत के कारण रौशनी बेगम को इस काम के बढ़ने की संभावना दिखी।

उन्होंने विभिन्न लोगों (जिनसे वे माल लेती थीं) से चर्चा करके डोरमैट के व्यवसाय में अपनी जानकारी और समझ बढ़ाना शुरू किया कि कच्चा माल और ऑर्डर्स कैसे मिल सकते हैं।

डोरमैट की सिलाई करती हुई रौशनी बेगम_महिला उद्यमिता
कतरन से बने डोरमैट सस्ते होते है। | चित्र साभार: शुभा खड़के

रौशनी बेगम बताती हैं कि किसी भी व्यवसाय को शुरू करने में पूंजी एक बड़ी समस्या होती है क्योंकि कच्चा-माल और अन्य ज़रूरत की चीजों के लिए नक़द पैसे देने पड़ते हैं। डोरमैट व्यवसाय में भी कच्चा माल ख़रीदने, कटिंग करने, महिलाओं को मेहनताना देने, माल की लोडिंग-अनलोडिंग, गाड़ी का भाड़ा, धागे आदि का पैसा पहले ही देना पड़ता है। कई बार उत्पाद तैयार होने के बाद भी महीनों तक पड़ा रहता है। व्यापारी से पैसे सबसे आख़िर में मिलते हैं।

2018-19 में उन्हें डेवलपमेंट अल्टरनेटिव के वर्क-4-प्रोग्रेस कार्यक्रम के तहत कैपेसिटी बिल्डिंग का सहयोग मिला, जिससे वे सूक्ष्म वित्तीय संस्थाएं (एमएफआई) से छोटा सा ऋण ले पाई। जब उन्हें और पैसे की ज़रूरत महसूस हुई तब 2019 में उन्होंने बैंक से 13 प्रतिशत ब्याज़ पर एक लाख रुपये का मुद्रा ऋण लिया।

पूंजी की समस्या का समाधान होते ही रौशनी बेगम ने अपने इस काम में नज़दीकी गांव माधोपुर घुसिया में सिलाई करने वाली कुछ महिलाओं को अपने साथ जोड़ा। इस काम के लिए कच्चा माल पानीपत, रूद्रपुर जैसी जगहों से आता है। व्यापारी कारपेट, क़ालीन और वेलवेट के कतरनों को थोक भाव से ख़रीदने के बाद यहां आकर बेचते हैं। इस कच्चे माल की क़ीमत 25 रुपये प्रति किलो से लेकर अधिकतम 40 रुपये प्रति किलो तक होती है। एक किलो कपड़े में 3-5 डोरमैट बनते हैं। रौशनी बेगम ने इन्हीं व्यापारियों से कच्चा माल ख़रीदने के बाद, माधोपुर घुसिया से जुड़ने वाली 20 महिलाओं के साथ डोरमैट बनाने का काम शुरू किया। आज धीरे-धीरे बाज़ार में अपने संपर्क बढ़ाने के कारण उन्हें औसतन 400 से 5000 पीस के बीच का ऑर्डर मिल जाता है।

डोरमैट बनाने का काम आसान नहीं है, इसे बहुत ही बारीकी से करना पड़ता है।

रौशनी बेगम कहती हैं कि डोरमैट बनाने का काम आसान नहीं है, इसे बहुत ही बारीकी से करना पड़ता है। कच्चा माल खरीदने के बाद उसे व्यवस्थित रूप से काटा जाता है। इसके बाद, उन टुकड़ों को डोरमैट के आकार और डिज़ाइन के हिसाब से क्रम में रख, इंटरलॉक या सिलाई करके जोड़ते हैं। फिर दो डोरमैट को चिपकाया जाता है और अंत में पाइपिंग लगाई जाती है। रोशनी बेगम के पास इस समय काम के लिए दो सिलाई मशीन, एक इंटरलॉक मशीन, एक कटर मशीन और चार कैंचियां हैं।

पाइपिंग लगाने के लिए ही महिलाओं को जॉब वर्क दिया जाता है और सारा सामान, जैसे कपड़े/कारपेट के टुकड़े, पाइपिंग का कपडा, धागे और चिपकाने का सोल्युशन वगैहर उनके घर पहुंचाया जाता है। इस काम के प्रति पीस एक रुपये दिए जाते हैं। लेकिन कुछ महिलाएं को दो टुकड़ों को जोड़कर सोल्यूशन लगाने के बाद पाइपिन लगाती हैं तो उन्हें इसी काम के प्रति पीस 2-3 रुपये मिल जाते हैं। डोरमैट पूरा होने तक इकट्ठा किए गए पीस महिलाओं के घर पर रखे जाते है। तैयार हो चुका माल रोशनी बेगम के घर वापस भेज दिया जाता है। जब व्यापारी आता है तो उसको एक साथ पूरा माल दे दिया जाता है।

डोरमैट की मांग ठण्ड और बारिश में ज्यादा होती है। हालांकि इसे बनाने का काम गर्मी में करना ज्यादा बेहतर होता है क्योंकि कतरन गर्मी में जल्दी और आसानी से चिपक जाती है।

रौशनी बेगम के अनुसार डोरमैट के इस धंधे में सीजन में जहां 40 हजार रुपये प्रति माह का मुनाफ़ा होता है वहीं बाज़ार में मंदी के दिनों में यह रक़म घटकर 20 हजार रुपये प्रति माह रह जाती है। कोविड के दौरान उनका काम ना के बराबर हो गया था लेकिन उन्होंने काम को पूरी तरह से बंद नहीं होने दिया।

रौशनी बेगम का अपना ख़ुद का बचत खाता और उद्योग आधार भी है। वे चाहती हैं कि आने वाले सालों में वो 50-100 लोगो को रोजगार दे सकें और व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए माधोपुर घुसिया में ही अपना गोदाम खोल लें।

यह आलेख साथी वेंचर्स द्वारा आयोजित और सिडबी द्वारा सहयोग प्राप्त, उद्यमी साथी चैलेंज का हिस्सा है।

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भूमि अधिकारों तक महिलाओं की पहुंच मजबूत कैसे हो?

भूमि तक महिलाओं की पहुंच, स्वामित्व और नियंत्रण उन्हें वित्तीय सुरक्षा, आश्रय, आय और आजीविका के अवसर प्रदान कर सकता है। इसके बावजूद, भारत में इससे जुड़े प्रयासों के लिए आर्थिक मदद और महिलाओं के भूमि अधिकारों (वीमेन्स लैंड राइट्स – डब्ल्यूएलआर) से संबंधित हस्तक्षेप कार्यक्रमों की कमी बनी हुई है।

इस क्षेत्र में वुमैनिटी फाउंडेशन के काम के दौरान, हमने पाया कि ग्रामीण भारत में महिलाएं, कई मुद्दों जैसे घरेलू हिंसा, सरकारी योजनाओं तक पहुंच, कौशल निर्माण एवं विकास जैसे सहयोगों के लिए अक्सर अपने समुदाय से जुड़े संगठनों से संपर्क करती हैं। कहने का मतलब है कि जब महिलाएं के सामने भूमि अधिकारों की बात आती है तो ये समुदाय-आधारित संगठन ही उनके संपर्क का पहला केंद्र बन जाते हैं। दुर्भाग्यवश, इनमें से कई संगठन हस्तक्षेप करने और पर्याप्त सहायता प्रदान करने में असमर्थ होते हैं।

इसके समानांतर, डब्लूएलआर पारिस्थितिकी तंत्र को सशक्त आंकड़ों; व्यापक, कार्य-आधारित शोध, ओपन-सोर्स असेट्स; और सहयोग मंचों की जरूरत होती है जो चिकित्सकों, शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं, भूमि और लैंगिक मामलों के विशेषज्ञों और सरकारी अधिकारियों समेत विभिन्न हितधारकों को एक साथ लाते हैं।

यह साफ है कि इस तंत्र के विभिन्न पहलुओं को परिपक्व बनाने की आवश्यकता है। वुमैनिटी फाउंडेशन में, हम जमीनी स्तर पर भूमि अधिकार कार्यक्रमों को लागू करने के लिए विभिन्न समाजसेवी भागीदार संगठनों को फंड मुहैया करवाते हैं। हालांकि, हम इस व्यवस्था के भीतर समाजसेवी संस्थाओं और अन्य संगठनों के एक बड़े समूह के लिए जागरूकता और तकनीकी क्षमता के निर्माण की आवश्यकता और महत्व को भी पहचानते हैं। इस लक्ष्य की दिशा में, हमारी पहलों में से एक डब्ल्यूएलआर कोर्स से क्षमता निर्माण है जो सभी समाजसेवी संस्थाओं के लिए उपलब्ध है। नीचे, हम कोर्स को संचालित करने के अपने अनुभव को रेखांकित कर रहे हैं और बता रहे हैं कि कैसे हमारी सीख हमारे काम को समृद्ध कर रही है।

प्रशिक्षण के माध्यम से डब्ल्यूएलआर तंत्र को मजबूत करना

हमें बहुत पहले ही इस बात का एहसास हो गया था कि हमें समाजसेवी संस्थाओं के एक बड़े समूह को सक्रिय रूप से क्षमता-निर्माण सहायता प्रदान करके पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर किए जा रहे कार्यों को तेज करने और व्यापक बनाने की आवश्यकता है। इससे विशेष रूप से उन लोगों को लाभ होगा जो अनौपचारिक तरीके से भूमि अधिकार के मुद्दों से जुड़े हैं और जिनमें इससे अधिक गहराई से जुड़ने की क्षमता या आत्मविश्वास की कमी है।

ऐसा करने के लिए, हमने महिलाओं और भूमि स्वामित्व के लिए कार्य समूह (डब्ल्यूजीडब्ल्यूएलओ) के साथ साझेदारी में भारत में डब्ल्यूएलआर पर एक औपचारिक पाठ्यक्रम बनाया – 45 संगठनों का एक नेटवर्क जो 2002 से महिलाओं की भूमि तक पहुंच और स्वामित्व पर काम कर रहा है। इसका उद्देश्य डब्लूएलआर पर पूरी जानकारी देने वाला डिजाइन तैयार करना और डब्लूजीडब्ल्यूएलओ के सदस्य संगठनों की सीख को हितधारकों के एक बड़े समूह तक पहुंचाना था। इससे तैयार हुए 90-घंटों के इस पाठ्यक्रम को 2022 में 50 ऐसे समाजसेवी प्रैक्टिशनर द्वारा स्वीकार किया गया जो अपनी समझ को बढ़ाने और अपने प्रोग्रामिंग में डब्ल्यूएलआर को शामिल करने की इच्छा रखते थे।

अधिकांश प्रतिभागी ऐसे संगठनों से संबंधित थे जिन्होंने भूमि अधिकारों से जुड़ा कुछ काम किया था और वे डब्ल्यूएलआर पर काम करने के तरीकों पर विचार-विमर्श करना चाहते थे। प्रतिभागियों में मिडिल मैनेजर, प्रोग्राम मैनेजर, फ़ील्ड अधिकारी, शोधकर्ता और शिक्षाविद शामिल थे। समुदायों के साथ डब्ल्यूएलआर के बारे में बात करने और मुद्दे से संबंधित कानूनों और प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए सबसे कारगर रणनीतियों की खोज के अलावा, इस पाठ्यक्रम में एक व्यावहारिक तत्व भी शामिल है। प्रतिभागियों को उनके कामकाजी क्षेत्र के भीतर एक डब्लूएलआर परियोजना डिजाइन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसके अलावा, डब्लूजीडब्ल्यूएलओ ने, आठ सप्ताह की अवधि में अपनी परियोजनाओं को विकसित करने और निष्पादित करने के लिए उनका मार्गदर्शन भी किया।

पाठ्यक्रम को अच्छी भागीदारी और प्रतिक्रिया मिली, और यह कुछ ऐसा है जिसका समर्थन हम साल 2023 में करना जारी रखेंगे। बहरहाल, हमने महसूस किया कि यह अकेले सभी हितधारकों तक नहीं पहुंच सकता है और न ही आवश्यक प्रभाव डाल सकता है; इसे क्षमता-निर्माण प्रयासों के अन्य तरीकों की मदद से पूरा किए जाने की जरूरत है।

एक समूह में कुछ महिलाएं_भूमि अधिकार
लैंगिक दृष्टिकोण को अपनाने से पर्यावरणीय समाधानों का निर्माण संभव हो सकता है। | चित्र साभार: यूएन वीमेन एशिया एंड द पैसिफिक /सीसी बीवाय

हमने जो सीखा

1. विविधता को शामिल करना

पाठ्यक्रम ने डब्लूएलआर के लिए एक परिचय के रूप में काम किया, विशेष रूप से यह समूह-1 में, कृषि भूमि और विरासत अधिकारों से संबंधित था। प्रतिभागियों से मिले फीडबैक के आधार पर, समूह-2 में अतिरिक्त घटक शामिल किए गए और कई तरह की भूमि और उन्हें नियंत्रित करने वाले कानूनों (उदाहरण के लिए, वन भूमि/वन अधिकार) को शामिल किया गया। लेकिन भविष्य के संस्करणों में विभिन्न धर्मों, जनजातियों और भौगोलिक क्षेत्रों की महिलाओं को शामिल किए जाने में अभी भी बढ़ोतरी की गुंजाइश है।

डब्लूएलआर पर काम करने वाले फील्ड कैडर – समुदायों के लिए संपर्क के प्राथमिक बिंदु – भी समरूप नहीं हैं। उदाहरण के लिए, समुदायों के साथ काम करने वाली कई महिलाएं बहुत अधिक पढ़ और लिख नहीं सकती हैं। इसलिए, यह पाठ्यक्रम अपने वर्तमान रूप में उनके लिए उपयुक्त नहीं है और इसमें बदलाव की जरूरत है। इसने हमें इस विषय पर अपनी सोच को विस्तृत करने के लिए मजबूर किया कि इन मुद्दों पर काम करने वाले विविध कैडरों को व्यक्तिगत तरीके से प्रशिक्षण कैसे दिया जा सकता है।

2. संदर्भ के महत्व को याद रखना

डब्ल्यूजीडब्ल्यूएलओ पाठ्यक्रम के माध्यम से सीखी गई बुनियादी बातों के अलावा, एक संगठन को उन कानूनों और प्रक्रियाओं के बारे में सीखने से लाभ होगा जो उस क्षेत्र में सबसे अधिक लागू होते हैं जहां वे काम करते हैं और जिन समुदायों के साथ वे काम करते हैं। यह उन्नत पाठ्यक्रमों के डिजाइन और वितरण को प्रभावित करता है, जिसे पर्याप्त रूप से प्रासंगिक बनाने की आवश्यकता होगी।

प्रासंगिक बनाने का अर्थ प्रासंगिक बनाने का अर्थ उनकी पहचान करना भी है जो स्थानीय रोल मॉडल और संसाधन होते हैं और जो इन संगठनों के साथ काम कर सकते हैं तथा स्थानीय भाषा में उनसे संवाद स्थापित करने में सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड के अल्मोडा में भूमि अधिकार मामले से निपटने वाले किसी संगठन के पास सहायता के लिए स्थानीय वकील से संपर्क करने का विकल्प है तो वह अपना काम अधिक कुशलता से करने में सक्षम होगा। इसलिए, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि संगठनों के पास ऐसे स्थानीय संसाधनों की उपलब्धता हो जो उन्हें अपने कामकाज के क्षेत्रों में डब्ल्यूएलआर कार्य करने में सक्षम बनाते हैं।

3. पाठ्यक्रम को प्रतिभागियों तक लेकर जाना

वास्तविक और प्रभावी जमीनी कार्यान्वयन के लिए, डब्ल्यूएलआर एजेंडा को समाजसेवी संस्थाओं के सभी स्तरों पर लागू करने की आवश्यकता होगी। प्रोग्रामिंग में अधिक व्यापक बदलाव के लिए संगठन और उनके फील्ड कैडरों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है, जिसमें मुख्य रूप से स्थानीय समुदायों की महिलाएं शामिल हैं। महिलाओं के इस कैडर की भाषा, समय की कमी आदि जैसी जरूरतों पर भी विचार करने की आवश्यकता है।

इसलिए, पाठ्यक्रम को सरल बनाने और उसे ऑनलाइन या इलाके, भाषा, भूमि के प्रकार आदि के लिए स्थानीयकृत बनाकर उन तक ले जाने की जरूरत है। इससे प्रतिभागी पाठ्यक्रम को अपनी गति के अनुसार पूरा कर सकेंगे और स्वतंत्र रूप से उसके विकास की प्रक्रिया पर निगरानी रखने में सक्षम होंगे। इसके अलावा, हम इसे स्थानीय लोगों के लिए ज्ञान को लोकतांत्रिक बनाने के एक कदम के रूप में देखते हैं, जो डब्ल्यूएलआर के काम को संगठनों से परे ले जाने में सक्षम बनाएगा। इससे हमें यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि समुदायों में महिलाओं की भूमि तक पहुंच हो और डब्ल्यूएलआर का काम जमीन पर हो रहा हो। और यही हमारा अंतिम लक्ष्य भी है। डब्लूएलआर को सक्षम करने के लिए हस्तक्षेप कार्यक्रमों को लागू करने और भूमि अधिकार परिदृश्य के बारे में संगठनों के ज्ञान में सुधार करने के लिए कैडरों की क्षमता को विकसित करने की जरूरत है। इसलिए, हमारा यह मानना है कि क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के अभ्यासकर्ताओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण के अन्य तरीकों को एक साथ अपनाया जाना चाहिए।

अन्य हितधारक क्या कर सकते हैं?

फंडिंग या भूमि अधिकारों पर काम करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसलिए, इस मुद्दे से जुड़े संगठन, विकास-आधारित दृष्टिकोण अपना सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, प्रकृति-आधारित आजीविका पर काम करने वाला एक संगठन भूमि-संबंधी मामलों में महिलाओं की भूमिका और निर्णय लेने की स्थिति को समझने के प्रयास से इसकी शुरुआत कर सकता है। इससे उन्हें मौजूदा स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने, समस्या के विस्तार की पहचान करने और जिस काम के लिए वे फंडिंग कर रहे हैं उसका दीर्घकालिक प्रभाव सुनिश्चित करने के लिए अपने हस्तक्षेप में बदलाव लाने में मदद मिल सकती है।

जब महिला किसानों के पास भूमि पर उनके स्वामित्व से जुड़े दस्तावेज उपलब्ध होते हैं तो उस स्थिति में भी उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ भी मिलता है। इसलिए, छोटी जोत वाली महिला किसानों के लाभ के लिए तैयार किए गए कार्यक्रम चलाने वाले संगठनों को निश्चित रूप से महिलाओं के स्वामित्व और उनकी भूमि पर नियंत्रण से जुड़े संकेतक बनाना चाहिए। जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय स्थिरता पर काम करने वाले संगठनों का समर्थन करने वाले फंडरों को उनके द्वारा डिजाइन किए गए समाधानों और शमन में महिलाओं की भूमिका पर विचार करना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि लैंगिक दृष्टिकोण अपनाने से कार्यान्वयन योग्य, टिकाऊ और समुदायों के ज्ञान और वास्तविकताओं पर आधारित पर्यावरणीय समाधानों का निर्माण संभव है।

आखिरकार, हमें सामान्य रूप से भूमि अधिकारों और विशेष रूप से महिलाओं के भूमि अधिकारों के बारे में हो रही चर्चा में परिवर्तन लाना होगा। वर्तमान में, यह क्षेत्र से अपरिचित लोगों के लिए कठिन हो सकता है और इससे इस क्षेत्र में काम करने वाले मुख्य लोगों को मूल कारण तक संसाधनों की पहुंच को संभव बनाने या उसे निर्देशित करने में मुश्किल होती है। नतीजतन, भूमि की पहुंच से जुड़े (और अक्सर आकस्मिक) कारणों का समर्थन करने के लिए उत्सुक हैं लेकिन डब्ल्यूएलआर के लिए प्रत्यक्ष फंडिंग बिखरी हुई है। डब्ल्यूएलआर से जुड़ी चर्चाओं कि दिशा बदलने से जमीनी स्तर पर वास्तविकताओं में होने वाले परिवर्तन की गति में वृद्धि आ सकती है।

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प्लास्टिक कचरा: आग में जला नहीं सकते और पानी में गलता नहीं

सायरा बानो दिल्ली में भलस्वा लैंडफिल के पास रहती हैं। यह शहर की दूसरी सबसे बड़ी डंपिंग साइट है। सायरा कचरा बीनने का काम करती हैं जिसका मतलब है कि वे एक अनौपचारिक श्रमिक हैं। वे और उनके आस-पड़ोस के कई परिवार अपनी आजीविका के लिए भलस्वा में आने वाले कचरे को छांटने और बेचने का काम करते हैं। ये लोग देश की कचरा रिसाइकिलिंग की अनौपचारिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

सायरा बानो के घर के आसपास प्लास्टिक रैपर और रबर चप्पलों के ढेर देखे जा सकते हैं। वे कहती हैं कि ‘पहले हम सर्दियों में इन्हें जलाकर आग सेंकते थे या फिर इनसे निपटने के लिए इन्हें यूं ही बाक़ी कचरे के साथ जला देते थे। लेकिन जागरूकता अभियान में हमें यह बताया गया कि प्लास्टिक को जलाने से हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि हम फिर उसी हवा में सांस लेते हैं। लेकिन हम इन रैपरों को बेच नहीं सकते हैं और अब जला भी नहीं सकते हैं। हम सड़क पर झाड़ू लगाकर इन्हें किनारे एक जगह पर इकट्ठा कर देते हैं।’ जिस प्लास्टिक से चिप्स के रैपर बनते हैं, उस तरह के प्लास्टिक को रिसाइकल करना कठिन होता है क्योंकि यह कई परतों वाला प्लास्टिक (मल्टीलेयर प्लास्टिक) होता है और इनमें खाने-पीने की चीजों के टुक्ड़े भी रह जाते हैं। इसके अलावा, ये प्रसंस्करण मशीनरी को बाधित भी करते हैं और इसलिए इस प्रकार के प्लास्टिक के रिसाइकिल प्रक्रिया महंगी पड़ती है।

मल्टीलेयर प्लास्टिक को विघटित होने (गलने) में काफी समय लगता है और इनसे निकलने वाले रंग पानी में दुर्गंध पैदा करते हैं। सायरा बानो कहती हैं, “यह कचरा हमारी नालियों को रोक कर रहा है और आखिर में नदियों और समुद्रों तक पहुंचकर उन्हें भी प्रदूषित कर रहा है।” लेकिन साथ ही, सायरा बानो एक समाधान भी सुझाती हैं। वे कहती हैं कि ‘इन रैपरों में अपने उत्पाद बेचने वाली कंपनियों को इनकी रिसाइकिलिंग की जम्मेदारी भी उठानी चाहिए। उन्हें लोगों से बात करनी चाहिए और इसका समाधान निकालना चाहिए।’

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

सायरा बानो सफाई सेना की सदस्य हैं जो दिल्ली में अनौपचारिक कचरा श्रमिकों का संघ है।

अधिक जानें: जानें कि अहमदाबाद के कपड़ा कारीगरों पर जलवायु परिवर्तन का क्या असर हो रहा हैं।

अधिक करें: सायरा बानो के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने का सबसे ज्यादा नुकसान किसे होगा?

साल 2023 के शुरूआती छह महीनों में 70 भारतीय स्टार्टअप कंपनियों से जब 17,000 कर्मचारियों (जिसमें 2500 लोग एडटेक कंपनी बायजू’ज से थे) को निकाला गया तो मीडिया में इसे अच्छी-ख़ासी कवरेज मिली। इस बहाने कंपनियों, कर्मचारियों, स्टार्टअप इकोसिस्टम और यहां तक कि अर्थव्यवस्था पर भी चर्चाएं हुईं। इसके उलट, जब इसी दौरान1 100 से अधिक समाजसेवी संगठनों ने एफसीआरए के नए नियमों के चलते विदेशों से मिलने वाली आर्थिक मदद गंवा दी है तो इस पर कोई बात करता नहीं दिखाई दे रहा है। इसकी गंभीरता इस बात से समझी जा सकती है कि महिलाओं और लड़कियों के लिए काम करने वाली समाजसेवी संस्था केयर (सीएआरई) से जुड़े लगभग 4000 लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी हैं जो बायजू’ज के आंकड़ों की तुलना में कहीं ज्यादा है।

अर्थव्यवस्था पर इसके असर की बात करें तो समाजसेवी संगठन देश की जीडीपी में दो प्रतिशत का योगदान देते हैं। ज़मीनी स्तर पर इन संगठनों के फैलाव, इसमें काम करने वाले कर्मचारियों (जिसका एक बड़ा हिस्सा गांवों और छोटे क़स्बों से आने वाले लोग हैं) की आजीविका और पिछड़े तबकों और इलाक़ों से आने वाले वे लाखों लोग जिनके लिए ये काम करते हैं, क्या इन सबकी बात नहीं होनी चाहिए?

एफसीआरए क्या है?

संक्षेप में, विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफ़सीआरए) की बात करें तो यह हमारे देश में स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी अनुदानों को नियंत्रित करने वाला कानून है। यह कानून तय करता है कि स्वयंसेवी संस्थाएं कहां से धन प्राप्त कर सकती है, इसका इस्तेमाल कौन कर सकता है और किस तरह के उद्देश्यों के लिए इस धन का उपयोग किया जा सकता है। पिछले साल यह अधिनियम तब एक बार फिर चर्चा में आ गया जब सरकार ने लगभग 6,000 स्वयंसेवी संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द कर दिए। यानी, अब ये संस्थाएं विदेशों से आर्थिक मदद नहीं ले सकती हैं। इन संस्थाओं में मदर टेरेसा’ज मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी, ऑक्सफ़ैम इंडिया, सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी दिल्ली और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं शामिल थीं।

यही सिलसिला अब आगे बढ़ रहा है जब तमाम संस्थाओं के लाइसेंस या तो रद्द कर दिए गए या उन्हें नवीनीकृत नहीं किया गया है। दुख की बात यह है कि लोगों की नौकरियां जाने के साथ अब ज़मीन पर इसका असर दिखाई देने लगा है।

अदृश्य सेक्टर

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा साल 2012 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक नागरिक संगठन देश में 27 लाख कर्मचारियों और 34 लाख फुलटाइम वॉलंटीयर्स के लिए रोज़गार पैदा करते हैं। सीएसओ कोअलिशिन@75 और गाइडस्टार इंडिया द्वारा 515 समाजसेवी संगठनों पर किए गए एक सर्वे में 47 फीसदी संगठनों ने यह बात कही है कि जिन इलाक़ों में काम करते हैं, उनमें वे सबसे अधिक नियमित नौकरियों का स्रोत हैं। इससे आगे बढ़कर, वे सरकार और लोगों के बीच पुल का काम करते हैं।

आधे से अधिक संस्थाएं स्थानीय स्तर पर, ग्रामीण इलाक़ों और नीति आयोग द्वारा घोषित आकांक्षी जिलों में काम करते हैं। इनका कार्यक्षेत्र आमतौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण, आजीविका, जल और स्वच्छता, पर्यावरण परिवर्तन, कृषि, महिला और बाल अधिकार, विकलांगता, नागरिक सहभागिता से जुड़ा होता है और ये विषय नागरिकों के जीवन पर सीधा असर डालते हैं।

ये संस्थाएं स्थानीय स्तर पर आजीविका के साधन पैदा करने, कुशलताएं हासिल करने, सामाजिक रूप से तरक्की करने और स्थानीय व्यापार को आगे बढ़ाने जैसे काम करती हैं। सर्वे में शामिल 50 फीसदी संस्थाएं सरकारी संस्थाओं (स्कूल, पंचायत, जनपद, आंगनबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र वगैरह) और स्वयं सहायता समूहों के साथ मिलकर काम करती हैं। समाजसेवी संस्थाओं को सशक्त बनाना असल में स्थानीय स्तर पर विकास को रफ्तार देने वाला साबित हो सकता है।

अपना एफसीआरए लाइसेंस गंवाने वाले एक संगठन के प्रमुख के मुताबिक, समाजसेवी संगठनों की नौकरियां प्राइवेट या सरकारी नौकरियों की तरह नहीं होती हैं और यह सिर्फ नौकरी नहीं है। वे कहते हैं कि ‘इस सेक्टर में नौकरियां खत्म होने का मतलब, पिछड़े और ज़रूरतमंद लोगों के जीवन से बेहतरी के मौक़ों का खत्म हो जाना भी है।’

समुदायों पर असर

संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने से कई तरह का कामकाज बंद पड़ गया है। बाल सुरक्षा, टीकाकरण, नवजात बच्चों में मौतों के रोकने, स्कूलों और आंगनबाड़ियों में स्वास्थ्य और पोषण सुविधाएं पहुंचाने, छोटे बच्चों को सिखाने के लिए टीचर ट्रेनिंग सामग्री तैयार करने, अभिभावकों को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए मनाने, युवाओं को कौशल और आजीविका के मौक़े दिलवाने, सरकारी योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने जैसे तमाम प्रयास जो समाजसेवी संगठन करते थे, अब रुक गए हैं। एक अंदाज़े के मुताबिक संगठनवार रूप से देखें तो 4000 से लेकर आठ लाख लोग तक, अब समाजसेवी संगठनों द्वारा दी जाने वाली सुविधाएं नहीं पा सकेंगे।2

सेवाएं बंद होना तो इसका एक पहलू भर है क्योंकि इसके साथ, दूसरी तरफ वह भरोसा भी खत्म हो जाएगा जो सालों से काम करने के चलते बन पाया था। अब समुदाय इस बात को लेकर आशंकित होंगे कि समाजसेवी संगठन उन्हें सशक्त बना सकते हैं या नहीं। एफसीआरए लाइसेंस गंवाने वाली एक अन्य संस्था के सीईओ कहते हैं कि ‘ऐसा नहीं है कि बस एक ही संस्था का काम रुक गया है, लोगों को लगेगा हमने उन्हें धोखा दिया है। अगली बार जब हम उनके पास जाएंगे और कहेंगे कि हम इतने समय में यह काम कर लेंगे तो वे शायद ही हम पर भरोसा कर सकें। इस नुकसान की भरपाई करना मुश्किल होगा।’

अदृश्य कार्यबल

समुदाय जहां अपने हाल पर छोड़ दिए जाएंगे, वहीं वे फ्रंटलाइन कार्यकर्ता जो इन संगठनों के कर्मचारी हैं और उनके परिवार इससे बुरी तरह प्रभावित होंगे।। नौकरी खोने वाले फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं में से ज्यादातर स्नातक और इनमें से कुछ इससे अधिक शिक्षा प्राप्त भी हैं। समुदायों का हिस्सा बनकर उनके लिए काम करने वाले ये लोग गांवों और क़स्बों में रहते हैं। दूसरी तरह से कहें तो ये वे लोग हैं जो रोज़गार के लिए शहरों में न जाकर गांव-क़स्बों में रहना चुनते हैं और यहीं अपना जीवन बनाते हैं। इनकी आजीविका और ताकत स्थानीय तंत्र का हिस्सा है और उससे प्रभावित होती है।

एक समाजसेवी संगठन के सीईओ, जिनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है, कहते हैं कि ‘ऐसे लोग समुदायों और समाजसेवी संस्थाओं के बीच की पहली कड़ी होते हैं। समुदाय में गहरी पहुंच और समझ रखने, उसमें शामिल होने के चलते ये संस्थाओं के लिए क़ीमती होते हैं। इसका मतलब यह भी हुआ कि उन्हें समाजसेवी संस्थाओं की जरूरत होती है और हमें समुदायों से जुड़ने के लिए उनकी।’

‘एफसीआरए को लेकर हर कोई ख़तरा महसूस कर रहा है। हर संस्था यह सोच रही है कि अगला नंबर उनका हो सकता है।’

वे इस बात की तरफ भी ध्यान दिलाते हैं कि ज्यादातर ग्रामीण सामुदायिक कार्यकर्ता जिन इलाक़ों में रहते हैं, वहां रोजगार के बहुत सीमित मौके होते हैं। ‘अगर उद्योग-धंधे और रोजगार के बाकी तरह के मौके इन तक पहुंच गए होते तो इनके पास विकल्प होते. सालों के अपने अनुभव के दौरान हमने जो देखा है वो यह है कि विकास सेक्टर से जुड़ना अक्सर लोगों की आख़िरी पसंद होती है। ज्यादातर लोग बेहतर वेतन, स्थायित्व और सुविधाओं के चलते सरकारी नौकरी या फिर किसी निजी कंपनी से खुद को जोड़ना पसंद करते हैं।’ एफसीआरए के रद्द होने और अचानक नौकरियां खत्म होने से समाजसेवी संगठनों में काम करने को लेकर होने वाली अनिश्चितता की भावना और मज़बूत  हो गई है।

रोजगार के विकल्प नहीं हैं

सीमा मुस्कान पटना में रहने वाली एक 35 वर्षीय शोधकर्ता हैं जो एक समाजसेवी संगठन के लिए काम करती थीं। उनके पास स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण के क्षेत्र में काम करने का 15 वर्षों से अधिक अनुभव है। जब मार्च, 2023 में उनके संगठन का एफसीआरए लाइसेंस रद्द हुआ तो उनकी नौकरी जाने के साथ उनकी पहचान और आर्थिक आज़ादी भी खत्म हो गई। सीमा अपने अनुभव बताते हुए कहती हैं कि उनके लिए नई नौकरी ढूंढना आसान नहीं है। ‘एफसीआरए को लेकर हर कोई ख़तरा महसूस कर रहा है।

हर संस्था यह सोच रही है कि अगला नंबर उनका हो सकता है। यह डर इतना अधिक है कि कहीं पर हायरिंग नहीं हो रही है।’ सीमा जोड़ती हैं कि प्रदान जैसे बड़े संगठनों में छत्तीसगढ़ या झारखंड में जाकर काम करने के विकल्प हैं लेकिन वे पटना में इसलिए रहना चाहती हैं क्योंकि उनके परिजन – पति, बच्चे और सास-ससुर – यहां पर हैं। वे कहती हैं कि ‘मेरे दो बच्चे हैं, जिनकी उम्र पांच साल और आठ साल है। मैं किसी दूसरे शहर में काम करने के लिए उन्हें नहीं छोड़ सकती हूं।’

सीमा यह भी कहती हैं कि ‘जब आपके पास नौकरी होती है तो आपकी एक पहचान होती है। आप समाज में अपनी जगह महसूस करते हैं, आपको आज़ादी होती है, आपके पास अपना पैसा होता है और आप अपने बच्चों की शिक्षा का खर्च बांट सकते हैं।’ सीमा अपने घर के कर्ज़ का ज़िक्र करते हुए कहती हैं कि ‘पहले मैं खर्च बांट सकती थी। अब मेरी कमाई न होने का मतलब है कि परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो सकती है और बच्चों की पढ़ाई पर इसका बुरा असर पड़ सकता है।’

सीमा को यह भी लगता है कि उनके पुरुष सहकर्मियों पर इसका कहीं अधिक बुरा प्रभाव पड़ा है, वे कहती हैं कि ‘भले ही मेरे पास नौकरी नहीं है लेकिन मेरे पति के बिज़नेस से कुछ पैसे तो आ रहे हैं। मेरे कई साथियों के लिए यह और भी बुरा रहा है क्योंकि अपने परिवार को चलाने वाले वही थे।’ गाइडस्टार इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में 64 फीसदी संगठनों का कहना था कि उनके कर्मचारी अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाले थे।

साड़ी में एक महिला किसी को हाथ दिखाकर पुकारते हुए_एफसीआरए
एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने और लोगों की नौकरियां जाने का नतीजा यह भी होगा कि लोग सेक्टर से बाहर काम तलाशने निकलेंगे। | चित्र साभार: पब्लिक सर्विसेज इंटरनेशनल / सीसी बीवाय

दिनेश कुमार का लगभग पूरा करियर सोशल सेक्टर में काम करते हुए बीता है। 18 साल के अनुभव के दौरान वे शिक्षा, बाल सुरक्षा, पोषण और पंचायती राज संस्थानों से जुड़े काम करते रहे हैं। इससे पहले वे जिस संस्था में काम करते थे, उनका काम कमजोर तबके की मदद करना था। वे लोगों को 40-50 सरकारी योजनाओं तक पहुंच मुहैया करवाते थे।

दिनेश कहते हैं कि जो काम वे करते थे, वह कुछ ही सामाजिक संगठन करते हैं। ऐसे में उनके ज्ञान और कौशल के उपयोग के लिए कुछ सीमित ही मौके हैं। वे कहते हैं कि ‘18 साल के अपने करियर के दौरान मैं कई खास कुशलताओं जैसे समुदायों के साथ काम करना, डेटा इकट्ठा करना, रिसर्च सर्वे मैनेज करना और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना वगैरह के साथ काम करता रहा हूं। लेकिन अगर समाजसेवी संगठन हायरिंग ही बंद कर देंगे तो हम कैसे सर्वाइव कर पाएंगे।’

नौकरियां कम और काम ज्यादा

अनगिनत फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के लिए नई नौकरी हासिल करना आसान काम नहीं है। दिनेश कहते हैं कि ‘अपना रेज्युमे कई जगहों पर भेजने के बाद भी मुझे नौकरी मिलने की संभावना कम है। पहले से ही देश में रोजगार की कमी है।’ ज्यादातर बार उन्हें सिर्फ इसलिए शॉर्टलिस्ट नहीं किया जाता है क्योंकि उनके पास एक खास तरह की कुशलताएं ही है। अन्य संगठन जिन्हें इन कुशलताओं की जरूरत है वे या तो हायरिंग नहीं कर रहे हैं या फिर उनके पास पहले से ही ढेर सारे आवेदन हैं। इसके अलावा, आवेदन करने की प्रक्रिया भी कठिन है।

जून, 2023 में नौकरी खोने वाले मुकेश, केयर संस्था के साथ जिला अकादमिक फ़ेलो थे। उन्होंने 12 साल पहले शिक्षा पर काम करने वाले एक संगठन के साथ बहुत निचले स्तर से काम करना शुरू किया था और अब जिला स्तर के कार्यकर्ता बन गए। मुकेश सेक्टर में अपने नेटवर्क में लोगों से बात करने के साथ-साथ डेवनेट, लिंक्डइन और यहां तक कि गूगल पर भी अपने जिले में मौजूद भर्तियों की जानकारी खोज रहे हैं। उनकी समस्या कम्प्यूटर और लैपटॉप न होने से और बढ़ जाती है।

वे कहते हैं कि ‘तकनीक भले ही आधुनिक और आसानी से पहुंच में आने वाली हो गई है लेकिन मेरे पास कम्प्यूटर ख़रीदने के पैसे ही नहीं है। इसका मतलब है कि संस्थाओं की भर्ती प्रक्रिया के दौरान जब मुझे टेस्ट असाइनमेंट दिया जाता है तो या तो मुझे उनके जवाब अपने मोबाइल फ़ोन पर टाइप करने होते हैं (जो करना बहुत मुश्किल है) या फिर उन्हें हाथ से लिखना होता है और फिर स्कैन कर मैं उन्हें मेल कर पाता हूं।’

दिनेश कहते हैं कि वे सोशल सेक्टर में काम करते रहना चाहते हैं लेकिन उन्हें आशंका है कि यह आगे संभव नहीं हो सकेगा। ‘सरकारी या निजी सेक्टर से अलग, हमारी पगार में बचत करने की गुंजाइश नहीं होती है। मुझे सोशल सेक्टर में काम करने में मजा आता है। समुदायों से रिश्ते बनाना और लोगों को जो मिलना चाहिए वह हासिल करने में उनकी मदद करना मुझे अच्छा लगता है। मैं यहां काम करते रहना चाहता हूं और अपनी तरफ से समाजिक सहयोग देते रहना चाहता हूं लेकिन अब मेरे पास कुछ नहीं है।’

मुकेश भी समुदाय में लोगों के भरोसे और रिश्तों की बात दोहराते हैं ‘हम परिवारों के साथ मिलकर काम करते थे ताकि उन्हें पता चलता रहे कि स्कूल में क्या चल रहा है, उनके बच्चों को सही शिक्षा मिल रही है या नहीं। हम एजुकेशन सिस्टम की कमियों को समझते हैं और इसके लिए सरकारी स्टाफ को जरूरत पड़ने पर प्रशिक्षण मुहैया करवाते हैं। हम पैरेंट-टीचर को आपस में बात करने, पैरेंट्स को यह समझने कि उन्हें बच्चों से कैसा व्यवहार करना चाहिए और भी इस तरह की तमाम काम करते थे। लोग हम पर भरोसा करते थे कि हम यह उनके फ़ायदे के लिए कर रहे हैं।’

अब वे कहां जाएं?

ज्यादातर समाजसेवी संगठन (उन बड़े कॉर्पोरेट संगठनों को छोड़कर जो खुद ही कार्यक्रमों को लागू करते हैं, बड़ी टीमों के साथ काम करते हैं और अच्छी फंडिंग हासिल कर चुके हैं) कार्यकर्ताओं की मदद नहीं कर सकते हैं। इसके कारणों पर जाएं तो पहली वजह यह है कि उनके खुद के पास संसाधनों की कमी है और उन्हें और लोगों की जरूरत नहीं है। दूसरी वजह ये है कि उन्हें भी अपने एफसीआरए लाइसेंस खोने का डर है और इस बात की चिंता भी कि इसका उनके अपने कर्मचारियों और समुदायों पर क्या असर पड़ेगा।

दिनेश कहते हैं कि लोग उन्हें व्यवसाय शुरू करने की सलाह दे रहे हैं। ‘लेकिन व्यवसायों को आगे बढ़ने में 5-10 साल लग जाते हैं। मैं पहले से ही 40 साल का हूं। जब तक मैं व्यवसाय करते हुए कहीं पहुंच सकूंगा, तब तक मैं 50 वर्ष का हो जाऊंगा। और, इस बीच मैं अपने बच्चों के बड़े होने और बढ़ते खर्चों को कैसे पूरा करूंगा?’

मुकेश के लिए स्थिति इतनी गंभीर है कि उन्होंने पिछले कुछ हफ्तों से मैकेनिक के रूप में काम करना शुरू कर दिया है। सीमा और दिनेश की तरह उसके पास भी शिक्षा, प्रशिक्षण, संबंध बनाने और संचार से जुड़े कौशल हैं, जिनमें से अधिकांश अब उन्हें ग़ैर जरूरी लगने लगे हैं। वे कहते हैं कि ‘मेरे दोस्त मुझ पर हंसते हैं। लेकिन मेरे पास क्या विकल्प हैं? मैं 35 साल का हूं, पत्नी है, तीन बच्चे और बूढ़े माता-पिता हैं। मुझे मात्र 21,500 रुपए की पगार मिलती थी। इसके बाद पिछले कुछ महीनों से मैं बेकार बैठा हूं वह भी तब जब मैं परिवार में अकेला कमाने वाला हूं। मेरे पास बिल्कुल पैसा नहीं बचा है। हमारा भविष्य अब अंधेरे में है।’

हमें चुप करवाकर वे आम लोगों की आवाज़ को दबाना चाहते हैं।

ग्रामीण समुदायों के साथ काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर कहते हैं कि एक साथ बहुत सारी संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने और लोगों की नौकरियां जाने का नतीजा यह भी होगा कि लोग सेक्टर से बाहर काम तलाशने निकलेंगे।वे कहते हैं कि ‘मुझे डर है कि कंपनियां इन फ्रंटलाइन कार्यर्ताओं की आर्थिक तंगी का फायदा उठा सकती हैं और उन्हें सोने या कर्ज के लिए रिकवरी एजेंट बनने जैसी नौकरियों का ऑफ़र दे सकती हैं। समुदायों के साथ जो करीबी संबंध उन्होंने बनाया है, फायनेंशियल कंपनियां उनका दुरुपयोग पैसों की वसूली के लिए कर सकती है। यानी, फ्रंटलाइन कार्यकर्ता अब तक जो करते रहे हैं, उसका ठीक उल्टा करने पर मजबूर हो सकते हैं।’

देश पीछे जाएगा

दिनेश बताते हैं कि एक संगठन जिसके लिए वे काम करते थे, वह आम आदमी के लिए आवाज़ उठाता था। ‘हम सुनिश्चित करते थे कि लोग अपने अधिकारों और योग्यता के मुताबिक चीजें हासिल कर पाएं फिर चाहे वह स्कॉलरशिप हो या विधवा पेंशन या फिर बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र। अब उनके लिए कौन बोलेगा, अब उनकी आवाज़ को सत्ता तक कौन लेकर जाएगा। हमें चुप करवाकर वे आम लोगों की आवाज़ को दबाना चाहते हैं।’

मुकेश भी लोगों के भरोसे का ज़िक्र करते हैं और कहते हैं ‘वे जानते थे कि हम उनके लिए काम कर रहे हैं, वे हम पर भरोसा कर सकते हैं कि हम सरकार तक उनके अधिकारों की बात पहुंचाएंगे, जब शिक्षा और स्वास्थ्य की बात आएगी तो उनके बच्चों के हितों का ध्यान रखेंगे और उनके और सरकार के बीच पुल का काम करेंगे।’ समाजसेवी संगठन के एक लीडर के मुताबिक, अगर समुदाय से जोड़ने वाले इन लोगों को खो देंगे तो आपको पिछड़े लोग भी दिखाई देना बंद हो जाएंगे। वे कहते हैं कि ‘यह समाजसेवी संगठन और ज़मीन पर काम करने वाले उनके कार्यकर्ता है जो हमारे देश में जन-भागीदारी वाले लोकतंत्र के विचार को जिंदा रखे हुए है।

इसके लिए ये कमजोर तबकों को सरकार या उनके मुद्दों को हल करने वाले मंचों और साधनों तक पहुंचाते रहे हैं। और, इसके साथ सरकारी सेवाओं को भी मज़बूती देते रहे हैं। इनके बग़ैर, कोई सक्रिय नागरिकता नहीं होगी और हम अपने उस पिछड़े अतीत की तरफ लौट जाएंगे जहां लोकतंत्र में इन समुदायों के पास कोई ताकत, कोई आवाज़ नहीं थी। इसके चलते, हम 2047 में खुद को एक विकसित देश की तरह देखने की बजाय एक ऐसे देश की तरह देखेंगे जो 25 साल पीछे चल रहा है।’

इस विषय पर आईडीआर पर अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख यहां पढ़ें

फुटनोट:

  1. 23 मार्च 2023 तक का डेटा उपलब्ध है।
  2. एक समाजसेवी संगठन का फ्रंटलाइन कार्यकर्ता औसतन कम से कम 40-50 परिवारों से जुड़ता है, जिनमें से प्रत्येक में चार लोग होते हैं। औसतन, सबसे छोटी समाजसेवी संस्थाएं किसी भी समय 15-20 सामुदायिक मोबिलाइज़र के साथ काम करती हैं, एसटीसी जैसी बड़ी समाजसेवी संस्थाएं 600-800 फ्रंटलाइन श्रमिकों के साथ काम कर सकती हैं, जबकि केयर जैसी बड़ी समाजसेवी संस्थाओं के पास लगभग 4,000 लोग उनके फ्रंटलाइन कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं।

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