क्या है एक रीसर्चर का काम

गाँव मे समस्याओं पर सर्वे_जमीनी हकीकत
गाँव मे समस्याओं पर रिसर्च_जमीनी हकीकत

राजसमंद की नारी अदालत: महिलाओं को न्याय दिलाने वाला अनोखा मंच

राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में बसे राजसमंद जिले में कुछ महिलाएं अपने अलग अंदाज में महिला अधिकारों एवं महिलाओं के साथ हुए अत्याचारों पर काम कर रही हैं।यहां की महिलाएं अपनी नारी अदालत चलाती हैं। इस नारी अदालत में वे महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों जैसे बलात्कार, महिला परित्याग, दहेज, नाता प्रथा, डायन प्रताड़ना वगैरह जैसी कई समस्याओं से जुड़े मामलों को अपने तरीक़े से सुलझाती हैं।

एक सदस्य अपने शब्दों में, नारी अदालत चलाने का कारण बताते हुए कहती हैं कि ‘गरीब महिला के पास वकील करने के लिए पैसे नहीं होते हैं, तारीख पर तारीख आती है और सामने वाला अगर ज्यादा पैसे वाला हो तो उनके लिए न्याय कभी होता ही नहीं।’ ऐसे मुद्दों को सुलझाने के लिए नारी अदालत का गठन हुआ।

वास्तव में, नारी अदालत एक दबाव समूह के रूप में काम करती है। जब कोई महिला अपना केस लेकर आती है तो वे अपने रिकार्ड में केस दर्ज करते हैं। दोनों पक्षों को अपनी बात रखने के लिए उन्हें निश्चित तारीख पर अपने ऑफिस में बुलाकर उन्हें सुनते हैं और मामले को आपसी समझाइश से सुलझाने का प्रयास करते हैं।

कई बार वे पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए दूसरे पक्ष पर जबरदस्त दबाव बनाते हैं और पीड़ित के लिए त्वरित सुनवाई और न्याय सुनिश्चित करते हैं। अब तक यह नारी अदालत ज़िले भर के 2000 से अधिक मामले सुलझा चुकी है। उन्हें अब अन्य जिले एवं राज्यों से आने वाले मामले भी मिलने लगे हैं।

लेकिन नारी अदालत के अपनी ऐसी पहचान बना पाना आसान नहीं था। शुरुआत में उन्हें अपने परिवार तक का विरोध झेलना पड़ा था, इलाके के लोगों से अभद्र शब्द भी सुनने पड़े, लेकिन आज वे ही लोग उनके जज्बे को सलाम करते हैं।     

पहले जहां ये महिलाएं अपने घर में भी नहीं बोलती थीं, आज लगातार प्रशिक्षण के बाद कहती हैं  कि ‘कई मामलों में पुलिसवालों तक पर दबाव डालना पड़ता है। उनको हम कहती हैं कि ये थाने-चौकी तो हमारे पीहर हैं।’

इन स्थानीय महिलाओं ने न केवल अपने घूंघट और घरों से बाहर निकलकर अपनी पहचान बनाई है। बल्कि, एक ऐसा मंच बनाया है जहां आसान और त्वरित न्याय मिलने के चलते अनगिनत महिलाओं के जीवन में भी रोशनी आ रही है। 

शकुंतला पामेचा राजसमंद महिला मंच की निदेशक हैं। उन्होंने साल 2000 में नारी अदालत की शुरुआत की थी। उनके इस मंच से विभिन्न जाति की महिलाएं जुड़ी हैं जो कई अलग-अलग गांवों से आती हैं।

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श्मशान भूमि के लिए कालबेलिया समुदाय का संघर्ष

राजस्थान के कई जिलों में बसा कालबेलिया समुदाय एक घुमंतू समुदाय के तौर पर जाना जाता रहा है। विशेष रूप से जोधपुर के गांवों की बात करें तो इस समुदाय के लोग अब एक जगह पर रहकर ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन अब इस समुदाय के लिए, मृत्यु के बाद अपने लोगों को जलाने के लिए श्मशान घाट की जमीन उपलब्ध नहीं है।

यहां तक कि जो लोग 20-25 सालों से भी एक जगह पर रह रहे हैं, उनके लिए आज भी श्मशान भूमि न मिल पाना एक समस्या बनी हुई है। ऐसे में उनके पास मृतकों को जलाने की बजाय उन्हें जमीन में दफनाने का ही विकल्प बचता है। जमीन न होने की वजह से लोग शवों को अपने घर के सामने ही दफ़नाने पर मजबूर हो रहे हैं। इस वजह से गांवों में हर कहीं कब्रें बनती जा रही हैं। कोविड-19 में तो यह समस्या और भी ज्यादा गंभीर हो गई थी।

कोरो इंडिया संस्था के माध्यम से हमने ऐसे लोगों की मदद करने की कोशिश की है जिन्हें शवों को जलाने के लिए जमीन नहीं मिल पा रही थी। अभी हम लगभग 35 गांवों में काम कर रहे हैं। हमने श्मशान घाट की जमीन की समस्या के लिए कालबेलिया समुदाय के लोगों को साथ लेकर कई बार प्रशासन के सामने धरना दिया है। हम वी, द पीपल अभियान के ज़रिये समुदाय के लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए, संविधान की जानकारी देते हैं। इसके फलस्वरूप, श्मशान के लिए कई गांवों में सरकार की ओर से जमीन भी मिल गई है। मैंने खुद अपनी संस्था के प्रयासों से सरकार से अपने गांव के लिए पांच बीघा भूमि आवंटित करवाई है। हालांकि अभी भी कुछ गांव ऐसे हैं जहां ज़मीन तो उपलब्ध हो पाई है मगर जमीन का पट्टा नहीं मिल पाया है और यहां तक कि सरकारी रिकार्ड में भी कालबेलिया समुदाय के लोगों का नाम जुड़ नहीं पाया है।

गांव के कुछ स्थानीय निवासियों का कहना होता है कि ये कालबेलिया समुदाय के लोग तो घुमंतू होते हैं, आज यहां रहेंगे तो कल कहीं और चले जाएंगे तो इसलिए इनको ज़मीन का पट्टा देने का कोई मतलब नहीं है। कई बार स्थानीय प्रतिनिधि भी इस तरह के लोगों के प्रभाव में आ जाते हैं और इस वजह से होने वाला काम बीच में रुक जाता है।

हमने कालबेलिया समुदाय की कुछ प्रमुख मांगें स्थानीय विधायक के सामने रखी हैं। इसमें श्मशान की जमीन का पट्टा दिलाना और हर पंचायत में कालबेलिया समाज के लोगों के लिए एक सामुदायिक भवन की व्यवस्था करना शामिल है। इस समुदाय के लोगों के पास, जब तक ज़मीन संबंधी कागज़ात नहीं होंगे तब तक ये घर बनाने के लिए सरकारी अनुदान, पानी, बिजली आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं से पूरी तरह से वंचित रहेंगे।

तिलोकनाथ कालबेलिया बीते पांच सालों से राजस्थान में कालबेलिया समुदाय के लिए काम कर रहे हैं।

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फोटो निबंध: सार्वजनिक भूमि को बचाए रखने में पूरे गांव की भूमिका होती है

राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के थाना गांव की हालत भी भारत के कई ग्रामीण समुदायों की तरह दयनीय ही थी: सीमित मात्रा में होने वाली वर्षा और क्षेत्र की गर्म एवं शुष्क जलवायु परिस्थितियों के कारण इलाक़े के लोग अपने मवेशियों के लिए पर्याप्त मात्रा में चारे का इंतज़ाम कर पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। इसके अलावा, चारागाह (सार्वजनिक भूमि) की अव्यस्वथा और अतिक्रमण के कारण यह समस्या लंबे समय तक दूर होती दिख नहीं रही थी। इस परिस्थिति के कारण उनके पास दो ही विकल्प बचते थे। पहला यह कि वे दूर-दराज के इलाक़ों से चारा आयात करें जो कि न केवल बहुत महंगा होता बल्कि सभी के लिए ऐसा कर पाना संभव भी नहीं था। और, दूसरा यह कि वे अपने मवेशियों को खुला छोड़ दें। पहले जब परिवहन एक चुनौती थी, ग्रामीणों के पास अपने मवेशियों के साथ लगभग 400 किमी दूर मध्य प्रदेश के मालवा तक पैदल चलने और उन्हें चरने के लिए वहां छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। हालांकि, 2006 में इस समस्या को समझने वाले और इसे अपने ग्रामीणों तक पहुंचाने वाले गांव के कुछ लोगों ने सामूहिक रूप से कार्रवाई की। अतिक्रमण करने वालों से अपने चरागाह को संरक्षित करने और उसे अपने मवेशियों के लिए खाद्य स्रोत के रूप में परिवर्तित करने के लिए वे समुदाय के रूप में एकजुट हुए। 

यह फ़ोटो निबंध समुदाय के सदस्यों की संरक्षण यात्रा को दर्शाने के साथ ही इस मॉडल को विकसित करने और बनाए रखने के दौरान उनके सामने आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालता है। यह पशुओं और पर्यावरण दोनों के प्रति समुदाय की अटूट प्रतिबद्धता को भी दर्शाता है क्योंकि वे अपनी सार्वजनिक भूमि के संरक्षण के लिए संघर्षरत हैं।

एक पहाड़ी जिस पर घास और छोटी झाड़ियां उगी हुई हैं_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
थाना गांव के लोगों द्वारा संरक्षित की गई सार्वजनिक भूमि।

मवेशियों एवं भूमि के लिए एकजुट होना

थाना गांव में लगभग 1,200 पशु हैं जिनमें मवेशी, भेड़ और बकरियां शामिल हैं। यहां रहने वाले अधिकांश लोगों की आजीविका का प्राथमिक स्रोत चारे की खेती करना है। इलाके में अक्सर ही सूखा पड़ता है और चारे की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करना, खासकर सर्दियों के अंत से लेकर गर्मियों के मध्य तक, एक बड़ी चुनौती है। इसी इलाके में रहने वाले श्याम गुज्जर कहते हैं कि ‘2022 में पड़े सूखे के दौरान भूख से कई जानवरों की मौत हो गई। ख़ासकर छोड़ दिये गये ऐसे जानवर जिन्होंने भूख के कारण प्लास्टिक खाना शुरू कर दिया था।’ श्याम के दोस्त कालू का कहना है कि ‘हमें आवारा पशुओं से सहानुभूति है लेकिन हमें अपने मवेशियों को ही खिलाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।’

इस दौरान, केवल जीवित रखने के लिए एक जानवर को खिलाने का खर्च 10,000 रुपये तक जा सकता है और उनके विकास के लिए इससे भी अधिक निवेश की ज़रूरत होती है। श्याम ने विस्तार में बताया कि, ‘इन महीनों में, गेहूं के चारे की कीमत 20 रुपये प्रति किलोग्राम या 600 रुपये प्रति 40 किलोग्राम तक चली जाती है। केवल एक पशु के ज़िंदा रहने के लिए कम से कम 600 से 700 किलोग्राम और उसके समुचित विकास के लिए 4,000 किलोग्राम चारे की ज़रूरत पड़ती है।’

दो लोग लंबी घास पर एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखे खड़े हैं_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
कालू (बाएं) और श्याम (दाएं), दोनों की उम्र 20 वर्ष से कुछ ज्यादा है और दोनों ही अपने गांव की सार्वजनिक भूमि के संरक्षण को लेकर गंभीर हैं।

समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से मज़बूत सदस्यों द्वारा सार्वजनिक भूमि के अतिक्रमण से छोटी जोत वाले किसानों की समस्या बढ़ जाती है। उन्हें मजबूर किया जाता है कि वे अपनी कमाई का एक हिस्सा चारा खरीदने में लगाएं। वहीं, यदि उनके जानवरों को स्वतंत्र रूप से चरने के लिए पर्याप्त ज़मीन मिल जाए तो यह एक ऐसा खर्च है जिससे वे बच सकते हैं।

सार्वजनिक भूमि के बिना समुदाय की भावना में भी कमी आ जाती है।

सार्वजनिक भूमि के बिना समुदाय की भावना में भी कमी आ जाती है। श्याम कहते हैं कि, ‘सामुदायिक स्वामित्व, व्यक्तिगत स्वामित्व से अलग होता है। एक व्यक्ति अपनी ज़मीन के चारों तरफ़ एक छह फुट ऊंची दीवार खड़ी कर सकता है और इस बात का भी फ़ैसला कर सकता है कि उसके भीतर कौन जा सकता है और कौन नहीं। लेकिन सार्वजनिक भूमि के मामले में, अमीर से अमीर और ग़रीब से ग़रीब दोनों ही तरह के व्यक्ति का उस पर समान अधिकार होता है। वे यह तय कर सकते हैं कि उन्हें इस ज़मीन का उपयोग किस प्रकार करना है; अमीर इसका उपयोग आराम और सुविधा के लिए कर सकते हैं, जबकि कम भाग्यशाली लोग इसके माध्यम से अपनी आजीविका कमा सकते हैं।’

साल 2006 में, श्याम के पिता बाबूलाल गुज्जर ने साझी ज़मीन पर हो रहे अतिक्रमण के विरोध में गांव के लोगों को एकजुट करने का नेतृत्व संभाला था। ग्रामीणों ने खाद्य सुरक्षा के लिए इन संसाधनों की सुरक्षा और सुधार के महत्वपूर्ण महत्व को पहचाना और पूरे दिल से इस पहल का समर्थन किया। उस साल, एक अनौपचारिक समिति का गठन किया गया, जिसने इन भूमियों के विकास के लिए स्थानीय अधिकारियों के साथ मिलकर सहयोग किया। निष्पक्ष निर्णय प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए, थाना गांव के लोगों ने एक संरचित प्रणाली की स्थापना की। वे प्रत्येक महीने की पांच और बीस तारीख को बैठकें आयोजित करते हैं। इन बैठकों में चराई के समय की अनुमति, गांव के लोगों के लिए चराई शुल्क और अतिक्रमण हटाने और नये अतिक्रमणों की पहचान से जुड़ी जानकारियों को साझा करने से जैसे महत्वपूर्ण मामलों पर निर्णय लिये जाते हैं।

लोगों के नाम और अंगूठे की छाप वाली एक खुली हुई पुस्तिका_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
चारागाह विकास समिति द्वारा अपनी द्विमासिक बैठकों के दौरान लिए गए निर्णयों को रिकॉर्ड करने के लिए एक रजिस्टर रखा जाता है।

हालांकि इसकी स्थापना अनौपचारिक थी, लेकिन समिति को आधिकारिक तौर पर मार्च 2021 में राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1996 के तहत चारागाह विकास समिति के रूप में पंजीकृत किया गया था। इस प्रकार स्थानीय संसाधनों, धन इकट्ठा करने और समुदाय के जीवन स्तर में सुधार लाने के उद्देश्य के साथ शुरू की गई इस समिति को विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए सरकारी समर्थन प्राप्त करने का क़ानूनी अधिकार प्राप्त हुआ। इस अधिनियम के तहत, समिति को इन भूमियों के प्रबंधन, सभी निवासियों के लिए समान पहुंच सुनिश्चित करने और भूमि उपयोग एवं पर्यावरण संरक्षण से संबंधित नियमों को लागू करने से जुड़े सभी निर्णय लेने के लिए कानूनी अधिकार प्राप्त हैं।

सार्वजनिक संसाधनों को फिर हासिल करना 

थाना गांव में लगभग 2,000 बीघा सार्वजनिक भूमि है, और एक ऐसा समय था जब लगभग यह पूरी कि पूरी ज़मीन अतिक्रमण का शिकार हो चुकी थी। चारागाह विकास समिति के निरंतर प्रयास से इस ज़मीन के 10 फीसद (200 बीघा) हिस्से पर से अतिक्रमण को सफलतापूर्वक हटा लिया गया है।

घास वाली एक पहाड़ी की ओर इशारा करता हुआ एक युवा_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
कालू चारागाह विकास समिति द्वारा पुनर्प्राप्त भूमि की सीमा की ओर इशारा करते हुए।

कालू का कहना है कि ‘इस भूमि पर वापस अपना दावा हासिल करना बहुत अधिक चुनौतीपूर्ण काम है क्योंकि अतिक्रमण करने वाले अक्सर ही साथी-संगी या फिर आसपास के, गांव के ही लोग होते हैं। हम पहले बातचीत से ज़मीन को हासिल करने का प्रयास करते हैं लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब हमें अपने संसाधनों का निवेश करना पड़ता है और यहां से 100 किमी दूर जाकर भीलवाड़ा में दोषियों के ख़िलाफ़ औपचारिक शिकायत दर्ज करनी पड़ती है।’

अतिक्रमण के तरीक़े अलग-अलग होते हैं। जहां कुछ लोग अपनी निजी संपत्ति की सीमा को धीरे-धीरे बढ़ाकर सार्वजनिक भूमि में मिला देते हैं, वहीं कुछ अपने मवेशियों के सार्वजनिक भूमि तक जाने के लिए पगडंडी बना लेते हैं। लोगों ने तो इस भूमि पर मठ और मंदिर का बनाने का भी प्रयास किया है। ऐसा ही एक उदाहरण है जिसमें एक बाबा (धार्मिक गुरु) को आमंत्रित करके इस भूमि में रहने के लिए कहा गया। इसके पीछे उन लोगों की सोच यह थी कि लोग उस बाबा के ख़िलाफ कुछ भी करने से डरेंगे और इस प्रकार भूमि पर अधिकार हासिल करने में वह मददगार साबित होगा।   

एक अधूरी संरचना और हरी घास_सार्वजनिक भूमि संरक्षण

चारागाह विकास समिति द्वारा प्रबंधित भूमि पर अतिक्रमण कर धर्मस्थल स्थापित करने का असफल प्रयास।

समिति इन अतिक्रमणों से निपटने के लिए विभिन्न तरीके अपनाती है। उदाहरण के लिए, जब उनका सामना भूमि पर अतिक्रमणकारियों द्वारा बनाई गई पत्थर की चारदीवारी से होता है, तो समिति के सदस्य उस चारदीवारी को तोड़ देते हैं और अन्य सार्वजनिक दीवारें बनाने के लिए उन पत्थरों का पुनरुपयोग करते हैं। रैंप के निर्माण से जुड़े मामलों में, उसे हटाने के लिए बुलडोजर जैसी भारी मशीनरी को बुलाया जाता है। जब पड़ोसी गांव के एक निवासी ने एक पत्थर का मंदिर बनाया तो कालू ने मामले को अपने हाथों में ले लिया, और उन पत्थरों को उठाकर उन लोगों के घरों के पास पहुंचा दिया, जिन्होंने मंदिर स्थापित करने का प्रयास किया था।

वे बताते हैं कि अतिक्रमणकारी ऐसी रणनीति अपनाते हैं क्योंकि तीर्थस्थल धार्मिक महत्व रखते हैं, जिससे किसी के लिए भी दैवीय प्रतिशोध के डर से उन्हें हटाना असंभव हो जाता है। श्याम ने इसमें अपनी बात जोड़ते हुए कहा कि, ‘सार्वजनिक भूमि पर बाबा के बस जाने वाले मामले में हम लोगों ने माइक्रोफ़ोन और ड्रम की सहायता से घोषणाएं की और पूरे गांव के लोग को इकट्ठा किया। जब तक हम सभी एकत्रित हुए बाबा उस क्षेत्र को छोड़कर भाग चुका था।’

पुनर्प्राप्त भूमि के विकास के लिए संसाधनों को सुरक्षित करना

जहां अतिक्रमण को हटाना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है वहीं फिर से हासिल की गई भूमि का विकास भी उतना ही महत्वपूर्ण है ताकि इसे उत्पादक बनाने के साथ ही मवेशियों के लिए खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने में इसकी भूमिका तय की जा सके। हालांकि, इस संदर्भ में विकास का अर्थ केवल वित्तीय संसाधन का निवेश नहीं है। श्याम ने जोर देते हुए कहा कि ‘धन के अलावा, लोगों ने इस भूमि को विकसित करने के लिए अपनी मेहनत का भी योगदान दिया है। निजी परिवारों ने चारदीवारी के एक हिस्से के निर्माण आदि जैसी विशिष्ट ज़िम्मेदारियां भी अपने कंधों पर ली।’

पत्थर की दीवार से लगे खड़ा एक युवा_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
थाना के लोगों द्वारा निर्मित पत्थर की एक चारदीवारी के बग़ल में श्याम।

आर्थिक योगदान और श्रम इनपुट के अलावा, संस्थागत समर्थन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और चारागाह विकास समिति इन प्रयासों को सुविधाजनक बनाती है। योजनाबद्ध भूमि विकास के लिए मनरेगा और मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन योजना जैसी सरकारी योजनाओं का कुशल उपयोग सुनिश्चित करने के लिए समिति ग्राम पंचायत, ब्लॉक और जिला विकास अधिकारियों के साथ सहयोग करती है। लंबे समय तक टिकने वाली चारदीवारी, तालाब, चेक डैम और आसपास की खाइयों (कंटोर ट्रेंचेज) के निर्माण सहित भूमि का अधिकांश विकास इन योजनाओं के समन्वित उपयोग के माध्यम से पूरा किया गया है।

एक तालाब और हरी घास_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
मनरेगा के तहत चारागाह में निर्मित एक छोटा सा तालाब।

श्याम ने बताया कि, ‘भूमि के विकास में असंख्य लोगों ने अपना योगदान दिया है। इसमें थाना गांव के लोगों के अलावा आसपास के गांवों के लोग भी शामिल हैं। कुछ लोग तो आठ किमी दूर से आकर इस भूमि में काम करते थे। हमारा अनुमान है कि एक करोड़ रुपये से अधिक लागत वाला काम पूरा हो चुका है जिससे कि स्थानीय समुदाय के लोग लाभान्वित हो रहे हैं। जहां प्रति व्यक्ति वित्तीय लाभ पर्याप्त नहीं हो सकता है, लेकिन यह किसी एक ठेकेदार के हाथों में जाने वाले पैसे की तुलना में कहीं अधिक न्यायसंगत है।’

चरागाह के उचित रखरखाव के लिए 2.5-3 लाख रुपये के अनुमानित वार्षिक बजट की आवश्यकता होती है।

धन जुटाने के लिए, समिति मानसून के मौसम के बाद काटी गई घास और फलों की नीलामी करती है, जिससे उन्हें लगभग 50,000 रुपये की कमाई होती है। इस पैसे से एक साल में कई महीनों के लिए एक सुरक्षा गार्ड को काम पार रखा जाता है जिसकी ज़िम्मेदारी यह सुनिश्चित करना होती है कि कोई भी आवारा पशु चारागाह में प्रवेश ना करे और साथ ही कोई भी व्यक्ति बिना अनुमति के अपने मवेशियों को चराने के लिए चारागाह में न ले जाए। इस गार्ड को प्रति माह 6,000 रुपये वेतन के रूप में दिये जाते हैं।

नीलामी के अलावा, समिति के पास नियमित आय के स्रोत की कमी है। श्याम का अनुमान है कि चारागाह के समुचित रखरखाव के लिए सालाना 2.5–3 लाख रुपये की ज़रूरत है। चारदीवारी की मरम्मत, पौधारोपण और पूरे साल सुबह-शाम दोनों समय के लिए सुरक्षा गार्ड को काम पर रखने के लिए इन पैसों की ज़रूरत है। कालू ने ज़ोर देते हुए कहा कि सरकार या परोपकारी संस्थाओं के समर्थन से इन प्रयासों में काफी मदद मिलेगी।

गोल और हरे फल वाले पौधे को पकड़े हुए एक हाथ_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
बकरियों और भेड़ों दोनों द्वारा खाया जाने वाला दारा नाम का एक स्थानीय फल।

संरक्षण का फल

जब चरागाह के विकास से प्राप्त लाभों की बात आती है, तो इसकी दो अलग-अलग श्रेणियां होती हैं। सबसे पहले, मुख्य रूप से महत्वपूर्ण महीनों के दौरान विस्तारित चारे की आपूर्ति के रूप में मिलने वाला प्रत्यक्ष लाभ। इससे अधिक नहीं भी तो प्रति पशु लगभग 6,000 रुपये की पर्याप्त वार्षिक बचत होती है। दूसरा, मनरेगा के माध्यम से रोज़गार के अवसरों में वृद्धि हुई है, जिससे ना केवल आय बढ़ी है बल्कि पशुओं को पोषक चारा मिल रहा है और वे स्वस्थ हो रहे हैं। गांव में और उसके आसपास रहने वाले लोगों के लिए, पुनर्प्राप्त और दोबारा उपयोग में लाई जा रही यह भूमि शांति और आराम प्रदान करने वाली एक जगह बन गई है। 

श्याम बताते हैं कि ‘कालू और मैं अक्सर ही यहां के शांत में माहौल में बैठने और चिड़ियों की चहचहाहट सुनने के लिए आते हैं।’ कालू ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा, ‘यह जगह इतनी पवित्र है कि यदि आप खाली पेट भी यहां आयेंगे तो आने के बाद अपनी भूख के बारे में भूल जाएंगे।’

एक तालाब में तैरते दो पुरुष_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
सार्वजनिक भूमि में बने एक तालाब में तैरते हुए कालू और श्याम।

भूमि के स्वामित्व और लगाव की यह गहरी भावना इस बात से उपजती है कि उनके श्रम का प्रतिफल स्वयं समुदाय के सदस्यों को ही मिलता है। इसके लाभार्थी केवल यहां रहने वाला मानव समुदाय ही नहीं है। गांव के घरेलू जानवरों के साथ वन्य जीव जैसे कि नीलगाय और पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां इस भूमि की प्रचुरता का आनंद उठाती हैं।

खुर के निशान के बगल में सैंडल वाले पैर_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
नील गाय के पैरों के निशान।

श्याम और कालू कहते हैं कि ‘हम इस भूमि पर विभिन्न प्रकार के फल और पेड़ लगाते हैं। इससे असंख्य वन्य जीव एवं पक्षी लाभान्वित होते हैं और उन्हें पौष्टिक आहार मिलता है और ये सब कुछ जैव विविधता के समग्र संरक्षण में योगदान देता है।’

एक हाथ एक पौधा_सार्वजनिक भूमि संरक्षण
एक स्थानीय पौधा। विकसित होने के बाद इसमें फूल एवं फल लगते हैं जो जानवरों और पक्षियों की विविध प्रजातिओं के लिए भोजन का स्रोत बनते हैं।

इस प्रयास को और बढ़ाने के लिए चारागाह विकास समिति के प्रावधानों को मजबूत करना जरूरी है। कालू और श्याम कहते हैं कि, ‘नियमित आय का एक स्रोत हमारे द्वारा यहां विकसित की गई प्रणाली को सुदृढ़ करने में मदद कर सकता है। यदि सरकार वार्षिक बजट आवंटित कर सकती है [सार्वजनिक भूमि के रखरखाव के लिए], तो यह अधिक से अधिक पंचायतों को हमारी तरह समितियां स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करेगी – जिससे सामान्य रूप से अधिक लोगों, जानवरों और पर्यावरण की मदद होगी। यहां तक ​​कि निजी संस्थान और समाजसेवी संस्थाएं भी विशिष्ट पहल के लिए धन की सहायता कर सकते हैं या संरक्षण ज्ञान साझा करके और हमारी समिति की कार्यक्षमता को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं।’

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एक सफल डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन के लिए क्या चाहिए

डिजिटाईजेशन, या डिजिटल टूल के उपयोग से संगठनों को आसान तरीके से डेटा एकत्र करने, उसे प्रबंधित करने और साझा करने में मदद मिल सकती है। यह दैनिक कार्यों को भी सुव्यवस्थित कर सकता है, जिससे उन्हें कम बोझिल और अधिक विस्तृत और व्यापक बनाया जा सकता है। इसे भारत में बैंकिंग, खुदरा व्यापार, बीमा, मनोरंजन, और यात्रा जैसे विभिन्न उद्योगों में देखा गया है और सामाजिक सेक्टर पर भी यह इसी अनुपात में लागू होता है।

रणनीतिक ढंग से क्रियान्वित किये जाने पर मुख्य प्रक्रियाओं का डिजिटाईजेशन किसी भी समाजसेवी संस्था के डिजिटल परिवर्तन की दिशा में पहला कदम होता है। समाजसेवी संस्थाओं के मामले में, यह न केवल उनके संचालन बल्कि कार्यक्रम के परिणामों में भी सुधार लेन में मददगार साबित हो सकता है। डिजिटल परिवर्तन का संगठनात्मक संस्कृति पर भी बहुत महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है: यह संगठन को अपेक्षाकृत अधिक आंकड़ा-संचालित बना सकता है, पारदर्शिता, जवाबदेही और संख्यात्मक समावेशिता को बढ़ा सकता है। चूंकि दानकर्ता डिजिटाईजेशन को सकारात्मक नज़रिए से देखते हैं, इसलिए यह धन जुटाने के प्रयासों के दौरान भी फायदेमंद होता है।

हालांकि सही डिजिटल उपकरण लागू करने के बहुत अधिक फ़ायदे हैं, वहीं इस परिवर्तन की राह आसान नहीं है। कोईटा फाउंडेशन ने तकनीकी समाधानों के निर्माण पर 20 से अधिक समाजसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर फ्रंट-एंड फील्ड संचालन को डिजिटल बनाने और प्रबंधन अनुप्रयोगों के साथ-साथ बिजनेस एनालिटिक्स प्लेटफॉर्म का निर्माण करने जैसी परियोजना पर काम किया है।

अपने अनुभवों के आधार पर हम यहां एक सफल डिजिटल परिवर्तन के लिए आवश्यक छह कारकों के बारे में बता रहे हैं।

1. सीईओ को डिजिटल परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए

किसी समाजसेवी संस्था में तकनीक को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, उस संगठन के सीईओ के पास डिजिटल परिवर्तन के लिए एक दृष्टिकोण होना चाहिए। पूरी टीम, विशेष रूप से कार्यक्रम से जुड़े लोगे को प्रोत्साहित करने यह महत्वपूर्ण है, और साथ ही इससे यह सुनिश्चित करने में भी मदद मिलती है कि सभी लोग एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए काम कर रहे हैं।

इसके अलावा, सीईओ की स्थायी और स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने वाली प्रतिबद्धता आवश्यक है- इसका कोई विकल्प नहीं है। इसमें डिज़ाइन चरण के दौरान प्रमुख निर्णयों का हिस्सा बनना और कार्यान्वयन चरण और उसके बाद पहल को चलाना या सक्रिय रूप से समीक्षा करना शामिल है। ज़्यादातर तकनीकी परियोजनाएं तब सफल हो जाती हैं जब टीम नई व्यावसायिक प्रक्रियाओं का अनुपालन नहीं करती हैं – यह एक ऐसी समस्या जिसका समाधान केवल सीईओ ही कर सकता है।

हमने एक महत्वपूर्ण बात यह सीखी कि सीईओ को नई प्रक्रियाओं के लाइव होने के बाद केवल सिस्टम-जनरेटेड डेटा और रिपोर्ट की समीक्षा करने पर जोर देना चाहिए। यह तभी संभव है जब टीम के सभी सदस्य सिस्टम का सही तरीके से उपयोग करें।

सीईक्यूयूई की सीईओ उमा कोगेकर ने अपने संगठन की डिजिटलीकरण यात्रा के दौरान इस दृष्टिकोण को अपनाया था। सिस्टम-जनरेटेड डेटा की समीक्षा के अलावा, उमा टीम के सदस्यों को बुलाकर ‘शो-एंड-टेल’ नाम का अभ्यास भी करने को कहा – इससे उन्हें इस बात पर विचार करने को मिला कि डेटा उन्हें क्या दिखा रहा है, और वे इससे क्या अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं। इसने टीम के सदस्यों के बीच जागरूकता का स्तर भी बढ़ा और साथ ही इसने यह भी सुनिश्चित किया कि वे सिस्टम का प्रभावी ढंग से उपयोग करें।

एक महिला एक पुरुष को कंप्यूटर के इस्तेमाल के बारे में सिखाते हुए_डिजिटल परिवर्तन
मुख्य प्रक्रियाओं का डिजिटलीकरण किसी समाजसेवी संस्था के डिजिटल परिवर्तन की दिशा में पहला कदम है। | चित्र साभार: सुबोध कुलकर्णी / सीसी बीवाय

2. परिवर्तन के पहले चरण के लिए सही क्षेत्रों की पहचान करें

डिजिटल परिवर्तन कई चरणों वाली और कई वर्षों तक चलने वाली एक यात्रा है। इसलिए, पहले चरण को क्रियान्वित करने के लिए सही क्षेत्र चुनना महत्वपूर्ण है ताकि वांछित परिणाम प्राप्त किया जा सके। यह परिवर्तन के बाद के चरणों के लिए गति पैदा करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। डिजिटलीकरण के पहले चरण का आकार बड़ा होना चाहिए ताकि ठोस परिणाम प्राप्त किया जा सके, लेकिन इसका आकार इतना बड़ा भी नहीं होना चाहिए कि इसे किसी भी प्रकार का परिणाम देने में बहुत अधिक समय लग जाए।

हमारे अनुभवों और सीख के आधार पर, हमारा मानना है कि इस प्रारंभिक चरण में ‘फ्रंट-एंड’ प्रक्रियाओं को डिजिटल बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए – कहने का अर्थ यह है कि वे जिनमें फ्रंटलाइन कार्यकर्ता शामिल हैं और जिन समुदायों को लक्षित किया जा रहा है – उन क्षेत्रों में जहां तकनीक का स्पष्ट और ठोस प्रभाव हो सकता है। साथ ही, इस चरण का दायरा ऐसा होना चाहिए कि परिणाम छह से नौ महीने के भीतर प्राप्त हो जाएं।

अंतरंग फाउंडेशन का करियरअवेयर कार्यक्रम इसका एक उदाहरण है। अंतरांग 10वीं और 12वीं कक्षा के छात्रों के साथ साइकोमेट्रिक परीक्षण आयोजित करता है ताकि उन्हें उनकी योग्यता और इच्छाओं के आधार पर उपयुक्त करियर का पता लगाने में मदद मिल सके। चूंकि पूरी प्रक्रिया मैनुअल थी, इसलिए वे प्रति वर्ष केवल 3,000 छात्रों के साथ इस अभ्यास को संचालित कर पाते थे। छात्रों की जानकारी इकट्ठा करने के लिए तकनीक का उपयोग करके और कैरियर की सिफारिशें और रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक एल्गोरिदम विकसित करके, अंतरंग केवल एक वर्ष में अपने कार्यक्रम को 10 गुना तक बढ़ाकर 30,000 से अधिक युवाओं को सेवा प्रदान करने में सक्षम था।

3. डिजिटलीकरण से पहले मौजूदा प्रक्रियाओं को परिष्कृत करें

संगठनों में अक्सर कुछ ऐसी अकुशल प्रक्रियाएं होती हैं जो समय के साथ विकसित होती हैं और अंतर्निहित हो जाती हैं। नए उपकरण बनाने से पहले इन प्रक्रियाओं को पहचानना और उनमें सुधार लाना महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, हमने जिस एक समाजसेवी संस्था के साथ काम किया था, उसकी फ़ील्ड टीम हाथ से लिखे फॉर्म को स्कैन करने के बाद उसे प्रति महीने डेटा एंट्री के लिए मुख्य कार्यालय भेजती थी। जहां एक ओर नई प्रणाली विकसित की जा रही थी, वही तो इस प्रक्रिया को फिर से तैयार किया गया ताकि डेटा अपलोड दैनिक या साप्ताहिक होने लगे। इस बदलाव के लिए नई प्रणाली तैयार होने से पहले ही फील्ड टीम के साथ काम करने और डेटा के प्रति दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता थी।

हमने जिस एक समाजसेवी संस्था के साथ काम किया था, उसकी फ़ील्ड टीम हाथ से लिखे फॉर्म को स्कैन करने के बाद उसे प्रति महीने डेटा एंट्री के लिए मुख्य कार्यालय भेजती थी।

इसी तरह, हमने बलवाड़ी में नामांकित छात्रों के प्रदर्शन के मूल्यांकन के लिए एक नई स्कोरिंग प्रणाली शुरू करने पर विप्ला फाउंडेशन के साथ काम किया। यह नई प्रणाली विप्ला टीम को अपने कार्यक्रमों की सफलता की निगरानी करने में भी मदद करती है। इसलिए, प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने का संबंध उतना ही मौजूदा तरीकों को सरल बनाने से है जितना कि नए, तकनीक-सक्षम तरीकों को विकसित करने से। बिना इस चरण के, आप बस एक अव्यवस्थित प्रक्रिया का डिजिटलीकरण करेंगे, जो बदले में डिजिटल प्रक्रिया को अप्रभावी बना सकता है।

4. डिज़ाइन और विकास चरण में अंतिम उपयोगकर्ताओं को सक्रिय रूप से शामिल करें

नई तकनीकी उत्पाद जब उपयोगकर्ताओं की आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से पूरा नहीं करते हैं तब आमतौर पर उन्हें अपनाने में महत्वपूर्ण समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अक्सर यह अपर्याप्तता, डिज़ाइन चरण के दौरान उपयोगकर्ताओं के सुझाव को शामिल ना करने के कारण होता है। इसलिए, टीम के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी तकनीक-संबंधी ज़रूरतों को स्पष्ट रूप से बताए। चूंकि अंतिम उपयोगकर्ताओं को ही इन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, इसलिए उनके सुझावों को शुरुआती चरणों में ही डिज़ाइन में शामिल किया जाना चाहिए। इसके अलावा,  प्रोजेक्ट टीम को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एप्लिकेशन की मॉक-अप स्क्रीन अंतिम उपयोगकर्ताओं के साथ साझा की जाए और उनकी जांच की जाए। इस दृष्टिकोण से न केवल एक बेहतर एप्लिकेशन का विकास सक्षम हो पाता है, बल्कि एप्लिकेशन के निर्माण से पहले ही अंतिम उपयोगकर्ताओं में सकारात्मक उम्मीदें और उत्साह भी पैदा करता है।

5. पूरे संगठन में स्वामित्व की भावना को विकसित करें

डिजिटल परिवर्तन के लिए एक मजबूत क्रॉस-फंक्शनल टीम को एक साथ रखना महत्वपूर्ण है। टीम का नेतृत्व एक ऐसे मज़बूत नेता को करना चाहिए जिसे व्यवसाय और उसके संचालन की गहरी समझ हो और जो आगे की सोच रखने वाला हो। आवश्यकताओं को सही करने, शुरू से अंत तक डिजाइन करने, विक्रेताओं के साथ बातचीत करने, और कार्यान्वयन और उपयोगकर्ता समर्थन जैसे परियोजना के विभिन्न पहलुओं को आगे बढ़ाने के लिए मुख्य टीम के अन्य सदस्यों को संगठन के अन्य हिस्सों से लिया जाना चाहिए।

6. चरणबद्ध कार्यान्वयन और कार्यान्वयन के बाद समर्थन की योजना बनाएं

एक बार जब आपका तकनीकी समाधान विकसित हो जाता है और आप उसकी जांच कर लेते हैं तो अब उसके लागू करने का समय आ जाता है। एक विस्तृत कार्यान्वयन योजना – जो कार्यक्रमों और भौगोलिक क्षेत्रों में काम करने वाले विभिन्न उपयोगकर्ता समूहों की जरूरतों को ध्यान में रखती है – इस स्तर पर महत्वपूर्ण है। कार्यान्वयन योजना में उपयोगकर्ता प्रशिक्षण, डेटा माइग्रेशन, प्रासंगिक हार्डवेयर की ख़रीद और स्थापना आदि शामिल होनी चाहिए।

नियमित ज़ूम कॉल या व्हाट्सएप समूहों के माध्यम से कार्यान्वयन के बाद की सहभागिता भी आवश्यक है और इसमें तकनीक टीम के सदस्य और अंतिम उपयोगकर्ता दोनों को शामिल किया जाना चाहिए। यह पूर्व उपयोगकर्ता को सीधे और समय पर अंतिम उपयोगकर्ता के मुद्दों के बारे में जानने और हल करने में सक्षम बनाता है।

ऐसे ‘मजबूत’ उपयोगकर्ताओं की पहचान करना जो ऐप या डिजिटल उत्पाद को चैंपियन बनाने में अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

इसके अलावा ऐप के उपयोग पर नज़र रखना और शुरुआती उपयोग को बढ़ावा देने वाले टीम के सदस्यों को मान्यता देना भी सर्वोत्तम अभ्यास (बेस्ट-प्रैक्टिस) का हिस्सा है। उदाहरण के लिए, विप्ला फाउंडेशन में, सभी उपयोगकर्ताओं की सामूहिक सफलता का जश्न मनाये जाने वाले एक आयोजन में टीम के उन सदस्यों को एक सम्मान समारोह में पुरस्कृत किया गया जो सबसे अधिक उत्साह के साथ ऐप का उपयोग कर रहे थे। ऐसे ‘मजबूत’ उपयोगकर्ताओं की पहचान करना जो ऐप या डिजिटल उत्पाद को चैंपियन बनाने में अपनी भूमिका निभा सकते हैं, एक अच्छा अभ्यास है – ये ‘चैंपियन’ अपने साथियों के बीच संदेश फैला सकते हैं और ऐप या तकनीक को अपनाने को बढ़ावा दे सकते हैं।

प्रदर्शन और पैमाने को बढ़ाने के लिए डिजिटल परिवर्तन एक महत्वपूर्ण रणनीतिक टूल है और सीईओ और नेतृत्व टीम के लिए यह प्राथमिकता होनी चाहिए। सोच-समझकर तैयार, विकसित और लागू किए गए समाधान किसी भी समाजसेवी संस्था के लिए वास्तविक और दीर्घकालिक प्रभाव पैदा कर सकते हैं।

डिजिटल परिवर्तन चेकलिस्ट
> सही समस्याओं की पहचान करना जिसका समाधान एक ऐसी तकनीक की मदद से की जा सके जो संगठन के लिए प्रासंगिक हो और जिसका उस पर अधिकतम प्रभाव पड़े।
> डिजिटलीकरण आपके संगठन के लिए कैसे काम कर सकता है, इसके लिए एक दृष्टिकोण बनाएं
> एक सशक्त प्रोजेक्ट टीम का निर्माण करें और उसका नेतृत्व एक ऐसे आदमी के हाथों में सौंपे जिसे उस व्यापार और उसके संचालन की समझ है और जो प्रत्येक टीम के साथ काम कर सकता है।
> वेंडर के चुनाव में पर्याप्त समय लगाएं।
> डिज़ाइन की प्रक्रिया के दौरान तकनीक टीम और अंतिम उपयोगकर्ता दोनों को शामिल करें।
> सभी मुख्य हितधारकों के सामने मॉकअप स्क्रीन पेश करें और उनकी सहमति लें।
> एक विस्तृत कार्यान्वयन योजना बनाएं।
> कठोर प्रशिक्षण, उपयोगकर्ता परीक्षण और उपयोगकर्ता दस्तावेज़ीकरण को सुनिश्चित करें।
> संरचनात्मक समीक्षा आधारित टेलीफ़ोनिक बातचीत और व्हाट्सएप समूहों के माध्यम से कार्यान्वयन के बाद समर्थन को सुनिश्चित करें।
> पूरे संगठन में दैनिक आधार पर नए ऐप्स या तकनीकी समाधान के उपयोग की निगरानी करें.
> अच्छा काम करने वाली पहचान करें और उनकी सराहना करें।

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दर्द-ए-डेडलाइन

विकास सेक्टर में काम कर रहे लोग अक्सर एक साथ कई तरह की ज़िम्मेदारियां निभाते हैं। इसमें
फील्ड-वर्क से लेकर सोशल मीडिया मार्केटिंग, एचआर तक के काम करते हुए यह सुनिश्चित करना
भी शामिल होता है कि ऑफिस में काम भर के स्नैक्स हैं या नहीं। और, ऐसा करते हुए कभी-कभी हम
डेडलाइन से थोड़ा (अच्छा चलो, बहुत!) पीछे रह जाते हैं।

यहां आपके डेडलाइन से जुड़े दुखों के लिए शाहरुख़ खान के सात खूबसूरत एक्सप्रेशन्स है, आपके लिए
एक ख़ास तोहफ़ा! अब अगर किंग ऑफ रोमांस आपके दर्द को कम नहीं कर सकता, तो समझिए कोई
नहीं कर सकता।

1

दो महीने हो गए हैं और आपने अभी तक अपना रिम्बरसेमेंट फॉर्म नहीं भरा है। फाइनेंस टीम ने
हार मान ली है और अब आपको कोई भी भुगतान न करने की धमकी दे रही है।

आप, जब आपको पता है कि आपने कई इनवॉइस गुमा दिए हैं:

माफ़ी माँगते हुए शाहरुख़_सोशल सेक्टर में शाहरुख खान
जिफ़ साभार: जिफ़ी

2

आपने अपने सीईओ से वादा किया था कि आप उनके लिए एक लेख लिखेंगे। लेकिन यह 10
महीने पहले की बात है, और आपके पास केवल कोरा डॉक्युमेंट है जिस पर एक कामचलाऊ
शीर्षक लिखा है।

आप, ‘अनुभव’ की आड़ में इसे नए इंटर्न पर थोपने की योजना बना रहे हैं:

षड्यन्त्र रचाते हुए शाहरुख़_सोशल सेक्टर में शाहरुख खान
जिफ़ साभार: जिफ़ी

3

आपकी मैनेजर आपको कॉल करती हैं और बहुत खेद से बताती हैं – आखिरी समय में रणनीति में
बदलाव हुआ है और आपको जो पीपीटी बनानी थी, मीटिंग में अब उसकी ज़रूरत नहीं होगी।

आप, जो डेडलाइन से ठीक एक रात पहले काम करने वाले थे:

नाचते हुए शाहरुख़_सोशल सेक्टर में शाहरुख खान
जिफ़ साभार: जिफ़ी

4

शुक्रवार को, आपके प्रोजेक्ट लीड ने आपको बताया कि आपको एक क्लाइमेट कॉन्फ़्रेंस में
ग्रीन इन्वेस्टमेंट पर बोलने के लिए ‘चुना’ गया है। वे इस बात पर जोर देते हैं कि आप अपने
संगठन का प्रतिनिधित्व करेंगे, और उम्मीद करते हैं कि आप बहुत खुश होंगे। कॉन्फ़्रेंस
सोमवार को है।

आप, मन ही मन:

दुख मनाते हुए शाहरुख़_सोशल सेक्टर में शाहरुख खान
जिफ़ साभार: जिफ़ी

5

आपका सहकर्मी टीम को बताते हुए यह संदेश भेजता है कि उसने इंपैक्ट डेटा (आपके हिस्से
का भी) साफ़ कर दिया है क्योंकि वो सफ़ाई के मूड में था।

आप, जो प्लेग की तरह एक्सेल की हर चीज़ से बचते हैं:

ख़ुशी से घायल होते हुए शाह रुख़_सोशल सेक्टर में शाहरुख खान
जिफ़ साभार: जिफ़ी

6

एक वेंडर कई हफ्तों से आपसे संपर्क करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसके ई-मेल
आपके 127 अनपढ़े ई-मेलों के ढेर में सबसे नीचे जब जाते हैं।

आप, एक महीने बाद उनके इनबॉक्स में जाकर यह दिखावा कर रहे हैं कि आपने अभी-अभी
उनका ई-मेल देखा है:

काजोल को मनाते हुए शाहरुख़_सोशल सेक्टर में शाहरुख खान
जिफ़ साभार: जिफ़ी

7

आपकी संस्था एक नया प्रोजेक्ट लाने पर विचार कर रही है, वही प्रोजेक्ट जिसे आप तबसे करना
चाहते हैं जबसे आप सोशल सेक्टर में आए हैं।

आप, इसके लिए वॉलंटीयर करते हुए जबकि आप कल ही तीन डेडलाइन मिस कर चुके हैं:

अपनी बात समझाते हुए शाहरुख़_सोशल सेक्टर में शाहरुख खान
जिफ़ साभार: जिफ़ी

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भारतीय संविधान के बनने की कहानी क्या है?

यह शॉर्ट फ़िल्म भारतीय संविधान के बनने का सफ़र बताती है। यह संविधान निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, संविधान सभा, संविधान पर हुई चर्चाओं और इससे जुड़े कुछ दिलचस्प तथ्यों पर बात करती है। फैसिलिटेटर्स और शिक्षकों के लिए यह वीडियो नागरिक शास्त्र/सामाजिक विज्ञान और राजनीतिक व्यक्तित्वों से जुड़ी जानकारी देने के लिए उपयोगी हो सकता है।

यह वीडियो मूल रूप से वी, द पीपल अभियान में प्रकाशित हुआ है।

सामाजिक उद्यमी कैसे बनें?

सामाजिक उद्यमिता को कई बार समाजसेवा भर से जोड़कर देखा जाता है लेकिन यह इतने तक ही सीमित नहीं है। इसकी आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक़, किसी सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर विकास, फंडिंग, ज़मीनी समाधान को लेकर काम करना सामाजिक उद्यमिता कहलाता है। सरल शब्दों में, सामाजिक उद्यमिता से मतलब, उस उपक्रम से है जो आर्थिक लाभ की बजाय किसी सामाजिक भलाई को हासिल करने के उद्देश्य से किया जाता है। उदाहरणों से समझने के लिए विकास सेक्टर में ग़रीबी, बेरोज़गारी, लैंगिक असमानता और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर हो रहे कामकाज पर गौर किया जा सकता है। ये मुद्दे आमतौर पर किशोरों और युवाओं को अधिक प्रभावित करते हैं, इसलिए इनसे जुड़ी परियोजनाओं का प्रभाव (इम्पैक्ट) अनंत संभावनाओं वाला होता है।

सामाजिक उद्यमिता की ज़रूरत पर गौर करें तो बात यहां से शुरू की जा सकती है कि आज के समय में भारतीय युवा कई तरह के अलगाव झेलता है। मुख्यधारा से यह अलगाव आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर हो सकता है। इसके अलावा, बढ़ती बेरोज़गारी ने पहले से ही हाशिये पर खड़े तबकों के युवा को और अधिक दरकिनार कर दिए जाते हैं। नीति निर्माता भी युवाओं को उपभोक्ता या कामगार की सीमित आर्थिक भूमिकाओं में ही देखते रहे हैं। ऐसे में सामाजिक उद्यमिता के जरिए, न केवल भारतीय युवाओं को देश और दुनिया के विकास का हिस्सा बनाया जा सकता है बल्कि एक नागरिक के तौर पर भी उनमें अधिक आत्मविश्वास पैदा किया जा सकता है।

लेकिन, अगर कोई आम युवा सामाजिक उद्यमी बनना चाहे तो इसके लिए उसे कुछ कुशलताओं, समझ और साधनों की जरूरत पड़ती है। इसी विषय पर वार्तालीप कोअलिशन का काम रहा है। वार्तालीप, अलग-अलग सेक्टर में काम करने वाले संगठनों का एक समूह है जो कि युवा केंद्रित  विकास पर काम करता है। इसके द्वारा संचालित कार्यक्रम चेंजलूम्स, अनगिनत युवा मंचों की एक ऐसी साझी पहल है जो सामाजिक उद्यमियों का सहयोग करने और उद्यमिता से जुड़ा एक तंत्र विकसित करने पर काम कर रही है।

कुछ साल पहले आई, वर्ल्ड इकनॉमिक फ़ोरम की एक रिपोर्ट के मुताबिक 38.3% सामाजिक उद्यम एक साल से कम समय में, लगभग आधे यानी 45.2% सामाजिक उद्यम एक से तीन साल में और 8.7% उद्यम चार से छह साल में बंद हो जाते हैं। केवल 5.2% उद्यम 10 साल से अधिक समय तक, बतौर एक संस्था अपना अस्तित्व बनाए रख पाते हैं। सामाजिक उद्यमियों की असफलताओं का कारण गिनवाते हुए मुख्य रूप से जो चार बातें कही जाती हैं, वे हैं –  उद्देश्य का स्पष्ट न होना, ज़रूरी कुशलताओं का अभाव, बदलते समाज और बाज़ार की समझ न होना और सही मूल्यांकन और बेहतरी के प्रयासों का अभाव।

अगर आप एक नए सामाजिक उद्यमी हैं और इन नतीजों से बचना चाहते हैं, या फिर, अगर आप एक युवा हैं और करियर के तौर पर सामाजिक उद्यमिता में रुचि रखते हैं तो नीचे दी गई बातों पर गौर कर सकते हैं –

सामाजिक उद्यमिता के लिए जरूरी कौशल

1. किसी उद्देश्य के लिए लगातार प्रेरणा हासिल कर पाना

सामाजिक उद्यमी बनने के लिए युवाओं में सबसे जरूरी चीज उनके अंदर अपने उद्देश्य के लिए जुनून का होना है। उनमें बदलाव लाने की ज़िद होनी चाहिए। हमने देखा है जब कोई युवा इसकी शुरूआत करता है तो शुरू में तो वह बहुत जोश के साथ काम करता है। लेकिन समय के साथ यह जोश कम होता है जाता है। शुरूआती दौर में संस्था से जुड़ने वालों के साथ भी ऐसा हो सकता है। इंदौर में हद-अनहद संस्था की शुरूआत में हमने यह अनुभव किया संस्था से जुड़े वॉलंटीयर, जिन्हें हम सेकंड लाइन ऑफ लीडरशिप की तरह भी देख रहे थे, धीरे-धीरे अपनी रुचि खोने लगे। ऐसे में आप अपनी प्रेरणा बनाए रख सकें यह भी लीडर्स के लिए एक जरूरी कुशलता बन जाती है।

बतौर सामाजिक उद्यमी हममें एक ऐसी जगह बनाने का हुनर होना चाहिए जहां पर युवा कुछ सीख सके। इस मंच पर हमें उनके लिए इस तरह के मौके तैयार करने की ज़रूरत होती है जहां वे प्रयोग कर सकें और असफल भी हो सकें। इसके साथ ही, इस पूरी प्रक्रिया के दौरान उन्हें लगातार समर्थन देने की क्षमता भी हममें होनी चाहिए। यह प्रक्रिया तय करना और इसे बड़े पैमाने पर कर पाना बहुत ज़रूरी है।

किसी बिज़नेस आइडिया की तरह मुद्दों की पहचान करने और उन पर काम किए जाने की जरूरत है। | चित्र साभार: शिल्पा झवर

2. समस्या को गहराई से समझना और उसके नए हल निकालना

आप जिस भी मुद्दे को लेकर काम करना चाह रहे हैं, उसके बारे में गहराई से जानना जरूरी है। हमें समस्या की जड़ों और उसे बनाए रखने वाले कारकों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत होती है।

किसी संस्था के सफल संचालन के लिए इसे पहली शर्त माना जाना चाहिए। इसके लिए लोगों या समुदाय के साथ लगातार संवाद करने की कुशलता होना बहुत काम आता है। आपके उद्देश्यों का स्पष्ट होना और इस पर लगातार बात होते रहना, आपको नए समाधानों की दिशा में ले जाता है। कई बार व्यक्तिगत या सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन की वजह, हमारे उन प्रयासों से एकदम अलग हो सकती है जिन्हें हम एकमात्र समाधान मानकर कर रहे होते हैं।

असम में फार्म टू फ़ूड फाउंडेशन के सह-संस्थापक दीप ज्योति सोनू ब्रह्मा का कामकाज इसका एक उदाहरण है। दीपज्योति बताते हैं कि ‘जब तक युवा समस्या को ठीक तरह नहीं समझता है, वह उसके हल का हिस्सा नहीं बनता है। बदलाव की ज़िम्मेदारी में भागीदार नहीं बनता है। ऐसा होने तक उनमें किसी तरह का मानसिक बदलाव लाना संभव नहीं है। अपने फाउंडेशन में हम बच्चों के साथ काम करते हैं। बच्चे अपने स्कूल में न्यूट्रीशन गार्डन बनाते हैं। पढ़ाई में जहां वे इसे साइंस-मैथ्स लैब की तरह इस्तेमाल करते हैं। वहीं जलवायु परिवर्तन, आर्थिक गतिविधियों की समझ और उनका आत्मविश्वास बढ़ाने का काम भी इससे हुआ है। अब ये बच्चे कहीं भी रहेंगे, हमेशा खेती से जुड़े रहेंगे।’

दीप ज्योति आगे जोड़ते हैं कि ‘इसका एक दिलचस्प नतीजा यह रहा कि बच्चों में ओनरशिप का भाव आया। एक बच्ची सिर्फ इसलिए करेला खाने लगी क्योंकि वह उसे उगा रही थी। समस्या को पूरी तरह से समझने पर ही, सही और नई तरह के समाधान निकल पाते हैं।’

3. आपसी सहयोग

एक सामाजिक उद्यमी के तौर पर आपको लोगों को साथ लाने की ज़रूरत होती है। यह प्रयास दो स्तरों पर किया जा सकता है, एक समुदाय के स्तर पर और दूसरा संस्थाओं के स्तर पर। समुदाय के स्तर पर बात करें तो ज़्यादातर लोग, ख़ासकर युवा अपने एक सीमित दायरे में रहते हैं और उनका विमर्श भी उसी में सीमित होता है। लोगों को उनके वर्ग, समुदाय, आर्थिक-शैक्षणिक स्तर से परे एक ऐसे मंच पर लाने की ज़रूरत होती है जहां वे खुलकर बात कर सकें। सामाजिक उद्यमियों का काम यह मंच तैयार करना है।

समुदाय के स्तर पर आपसी सहयोग का एक उदाहरण यह हो सकता है कि विशेष समुदाय के बच्चों का, किसी यूनिवर्सिटी-कॉलेज के छात्रों के साथ संवाद संभव करवाना। यह दो दुनियाओं को एक साथ लाने जैसा हो सकता है। ऐसा करते हुए, हमारे लीडर्स इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि कार्यक्रम के दौरान वे आपस में कितना सीख रहे हैं। यानी, अपने साथियों को देखकर सीखने की प्रक्रिया (पीयर लर्निंग) चल रही है या नहीं। बतौर लीडर आपको सुनिश्चित करना होगा कि यह सीखना-सिखाना दो लोगों और दो संस्थाओं दोनों के स्तर पर चलते रहना चाहिए।

जानकारी युवाओं के पास है, उन्हें उस जानकारी के सही इस्तेमाल के बारे में बताना है।

सोशल मीडिया पर हर किसी ने अपने इकोचैंबर बना लिए हैं। आज युवाओं को गाइड की जरूरत है, और तकनीक को इस्तेमाल करते हुए आपको उन्हें रास्ता दिखाना है। जानकारी उनके पास है, उन्हें उस जानकारी के सही इस्तेमाल के बारे में बताना है। यही सहयोग युवा को चाहिए। एक सामाजिक उद्यमी के तौर पर आप खुद को बेहतर बनाने के लिए कौन सी जानकारी हासिल कर रहे हैं, वह कितनी विश्वसनीय है और उसका स्रोत क्या है, इस पर भी आपका ध्यान हमेशा होना चाहिए। इसके लिए अपने जैसी अन्य संस्थाओं से जुड़ना और चर्चा करना, आपसी सहयोग का बेहतरीन तरीक़ा है।

4. अनिश्चितता से निपटना

अनिश्चितताओं से निपटने की क्षमता किसी भी तरह के उद्यमी की सबसे बड़ी खूबी होती है। स्वाभाविक है कि यह सामाजिक उद्यम की शुरूआत में हासिल की जाने वाली कुशलता नहीं हो सकती है और समय के साथ आपको इसे विकसित करना होगा। कई सर्वे बताते हैं कि लीडरशिप की क्षमता का आकलन पहले जहां रणनीति बनाने, योजना तैयार करने और उसे लागू करने को लेकर होता था, अब इसकी जगह लचीलेपन ने ली है। यानी बदलती हुई परिस्थितियों में कैसे तत्काल फैसले लेकर अधिकतम परिणाम हासिल किए जा सकते हैं, इससे लीडर की क्षमता तय होती है। फिर चाहे वह कोविड-19 महामारी, वैश्विक मंदी के चलते आया बदलाव हो या सरकारी नीतियों के बदल जाने से उपजी परिस्थितियां।

5. शक्ति असंतुलन पर काम करना

बतौर एक युवा लीडर आपको शक्ति असंतुलन की समझ होनी चाहिए। यह असंतुलन शिक्षा, लिंग, जाति-समुदाय, गांव-शहर किसी भी स्तर पर हो सकता है। इस असंतुलन के होने की जानकारी होना या समुदाय तक पहुंचाना, इसे कम करने की दिशा में पहला कदम हो सकता है। लखनऊ में यह एक सोच फाउंडेशन के फ़ाउंडर और कन्वीनर मोहम्मद ज़ीशान अंसतुलन को समझने और उसकी वजहों को स्वीकार करने पर जोर देते हैं। वे कहते हैं कि ‘हमारे कार्यक्रम के चार हिस्से हैं। सोच, समझ, संवाद और समावेश। युवाओं की सोच को जानना, उसे समझने की कोशिश करना, उनसे लगातार संवाद करना और उन्हें स्वीकार करना। हम यूथ अड्डा करते हैं लोगों से तमाम विषयों पर चर्चा करते हैं। ऐसी जगहों पर ही हमें पिछड़े समुदायों के युवा लीडर्स मिलते हैं जो समय के साथ अपने समुदाय के पॉइंट पर्सन बन जाते हैं। आगे चलकर वे किसी खास मुद्दे को लेकर काम करते हैं और सशक्तीकरण करते हैं। ऐसे लोगों को ताकतवर बनाकर, उनका हाथ थामे रहकर हम शक्ति असंतुलन को कम कर सकते हैं।’

सामाजिक उद्यमियों के सामने आने वाले चुनौतियां

1. इकोसिस्टम का न होना

सिनर्जी संस्थान के सह-संस्थापक अजय पंडित बताते हैं कि ‘युवा उद्यमियों के सामने पहली चुनौती अपनी संभावनाओं को पहचानना होता है। इस के बाद उन्हें अपने परिजनों को भी इसके लिए राज़ी करना पड़ता है। ग्रामीण इलाक़ों में युवाओं के साथ यह कर पाना खासतौर पर मुश्किल होता है। परिवार के विरोध के अलावा, खुद अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर आना उनके लिए बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। यहीं पर हमें सामाजिक उद्यमिता से जुड़े इकोसिस्टम की जरूरत होती है। संस्थाएं जो अपने आप में मज़बूत हों और युवाओं को भी मज़बूत बनाएं।’ इस तरह युवा सामाजिक उद्यमियों को इकोसिस्टम की अनुपस्थिति से उपजी असुविधाओं को झेलते हुए, यह इकोसिस्टम बनाने की दिशा में बढ़ना होता है।

नीति निर्माताओं से आपको जहां पर सबसे अधिक सहयोग की जरूरत है, वह यही मोर्चा है। हमें युवा नेतृत्व और भागीदारी को सुनिश्चित करने के एक देशव्यापी इकोसिस्टम बनाने की जरूरत है। इसमें सरकारें युवाओं को ज़मीनी शिक्षा और संसाधनों तक पहुंच मुहैया करवा सकें तो कमाल हो सकता है।

2. सामाजिक धारणा

मोहम्मद ज़ीशान कहते हैं कि ‘सामाजिक उद्यमिता को किसी स्वयंसेवी कार्यक्रम की तरह देखा जाता है। यह कुछ हद तक सही होने के बाद भी बहुत अलग है। किसी बिज़नेस आइडिया की तरह मुद्दों की पहचान करने और उन पर काम किए जाने की जरूरत है। फिर उस पर अभियान बनाने और चलाने की प्रक्रियाओं बात होनी चाहिए। हमें यह समझने-समझाने की जरूरत है कि यह सिर्फ एनजीओ का काम नहीं है।’ समाजिक उद्यमिता को समाजसेवा या परोपकार के काम से अलग करके देखे जाने की जरूरत है। इसके लिए नीतिगत सहयोग और सामाजिक जागरुकता दोनों की जरूरत है।

3. अकेलापन

सामाजिक उद्यमियों के सामने आने वाली एक व्यक्तिगत चुनौती है, अकेलापन। किसी भी अन्य क्षेत्र के लीडर की तरह सामाजिक उद्यमियों को भी लगातार मानसिक दबाव, शारीरिक थकान और असंतुलित जीवनशैली का सामना करना पड़ता है। एक आंकड़े के मुताबिक 70 प्रतिशत से अधिक सामाजिक लीडर यह महसूस करते हैं कि उन्हें उनके काम का पर्याप्त भुगतान नहीं मिल रहा है। आपको ऐसा मंच और माहौल तैयार करने की भी जरूरत होगी जहां आप अपनी तरह के अन्य लोग जो इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं, उनके साथ मिलकर एक समुदाय बनाएं। अपनी चुनौतियां, सीख, नवाचार उनसे साझा करके समाधान निकालने की कोशिश करें।

इस आलेख को तैयार करने में वार्तालीप कोअलिशन के सदस्यों – अजय पंडित, दीप ज्योति सोनू ब्रह्मा और मोहम्मद ज़ीशान ने सहयोग दिया है।

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बेटियों के साथ संवाद से उनकी शिक्षा सुनिश्चित करना

मां और पुलिसकर्मी के साथ खड़ी लड़कियां_बालिका शिक्षा
सुरक्षा पैनल को पता था कि खुलेपन और विश्वास की भावना को बढ़ावा देने के लिए लड़कियों और उनकी मांओं के बीच बातचीत को सुविधाजनक बनाना महत्वपूर्ण है। | चित्र साभार: आंगन

बिहार के पटना जिले के खुसरूपुर की किशोर लड़कियों को अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। आंगन में अपने काम से मैंने यह महसूस किया कि इसके कई कारण हैं जिसमें इन लड़कियों की सुरक्षा एक महत्वपूर्ण कारण है।

साल 2021 से, आंगन जिला पुलिस के साथ ‘सुरक्षा पैनल’ बनाने के लिए काम कर रहा है। ये ऐसे समूह हैं जो समुदाय की महिलाओं और लड़कियों से बने होते हैं और स्थानीय थाने से जुड़े होते हैं। मैं खुसरूपुर सुरक्षा पैनल की सदस्य हूं, और हम सार्वजनिक स्थानों को लड़कियों के लिए सुरक्षित बनाने सहित बाल सुरक्षा के मुद्दों पर काम करने के लिए अपने स्थानीय पुलिस स्टेशन के साथ सक्रियता और सहयोगपूर्ण भावना के साथ काम करते हैं।

लड़कियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए उनकी बातों को सुनना महत्वपूर्ण है। जब हमारी सुरक्षा पैनल ने खुसरूपर में मिडिल स्कूल में पढ़ाई करने वाली कुछ लड़कियों से बात की तो हमने पाया कि उनमें से कुछ लड़कियों को स्कूल में लड़कों से बात करने के कारण निलंबित कर दिया गया था। प्रधानाध्यापक के अनुसार, लड़कियों को दंडित करके ही स्कूल में मर्यादा और अनुशासन को बरकरार रखा जा सकता था। हालांकि, ऐसी परिस्थितियों में लड़कों के निलंबन के एक भी उदाहरण नहीं पाये गये। हमने प्रधानाध्यापक से इस भेदभावपूर्ण नीति की समीक्षा करने का निवेदन किया।

अतीत में, निलंबन के बाद घर पर उन लड़कियों के साथ और भी कठोर कार्रवाई की जा चुकी है। अभिभावकों ने उन लड़कियों के वापस स्कूल लौटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उनकी पढ़ाई बंद करवा दी गई। कुछ लड़कियों की तो शादी भी कर दी गई थी।

लड़कियों की शिक्षा के रास्ते में अन्य बाधाएं भी हैं। उदाहरण के लिए, स्कूल जाने और स्कूल से लौटने के रास्ते में उनका पीछा किया जाता है उन्हें परेशान किया जा सकता है, जिससे उनकी उपस्थिति और ग्रेड प्रभावित होते हैं। ऐसे मामलों में भी, अपनी बेटियों के कम अंकों को देखकर अभिभावक उन्हें स्कूल से निकाल लेते हैं।

अपनी पढ़ाई के रुक जाने की संभावना को देखते हुए लड़कियों को अपने शिक्षकों या माता-पिता से अपनी समस्याओं के बारे में बातचीत करने में झिझक होती है। उनका कहना है कि, ‘स्कूल जाने से रोके जाने के डर से हम पीछा करने या उत्पीड़न के बारे में अपने माता-पिता से बात नहीं कर सकते हैं।’ वे इस ग़लत तथ्य से और भी हतोत्साहित हो जाते हैं कि एक-दूसरे से बात करने के लिए केवल उन्हें ही डांटा जाता है, लड़कों को नहीं।

उनकी चिंताओं और असुरक्षाओं से अवगत, सुरक्षा पैनल को पता था कि खुलेपन और विश्वास की भावना को बढ़ावा देने के लिए लड़कियों और उनकी माताओं के बीच बातचीत को सुविधाजनक बनाना महत्वपूर्ण है। और इसलिए हमने एक कार्यक्रम शुरू किया जिसने मांओं को अपनी बेटियों की समस्याओं और आकांक्षाओं के बारे में जानने के लिए उनकी बातें सुनने के लिए प्रोत्साहित किया गया। युवा लड़कियां, अपने पिता की तुलना में अपनी मां के साथ अपनी समस्याओं पर चर्चा करने में अपेक्षाकृत अधिक सहज महसूस करेंगी। अपनी बेटियों के जैसा अनुभव रखने वाली मांओं में उनके प्रति अधिक सहानुभूति पाई गई। घर के भीतर बातचीत शुरू करने के अलावा, स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर उन रास्तों पर गश्त लगाने का काम शुरू किया गया, जहां से लड़कियां आमतौर पर स्कूल जाती हैं। इन सभी प्रयासों के माध्यम से उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर उत्पीड़न से भी बचाया जाता है। ये सरल हस्तक्षेप सफल साबित हुए हैं क्योंकि वे न केवल मुट्ठी भर लड़कियों के लिए बल्कि एक समुदाय के रूप में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।

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पूनम माई 2021 से बिहार के खुसरूपुर में आंगन के साथ काम कर रही हैं। 

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डिजिटल तकनीक से सीमित संसाधनों में पढ़ाई कैसे संभव है

कहा जाता है कि एक बच्चे को पालने में पूरा गांव लगता है। यह कथन बच्चे के सामाजिक और भावनात्मक विकास में समुदाय और रोल मॉडल के महत्व को दिखाता है। हमने कोविड-19 महामारी के दौरान, तब इस बात को सच होते देखा, जब घर बच्चों की अस्थायी कक्षा में बदल गये, और बच्चे के डिजिटल शिक्षा हासिल करने के दौरान माता-पिता और शिक्षकों को कहीं स्पष्ट भूमिकाएं निभानी पड़ीं। लेकिन यह बदलाव आसान नहीं था। सीखने के स्तर और जगहों से परे, शिक्षकों ने ऑनलाइन कक्षा के दौरान छात्रों के दुर्व्यवहार और ढिलाई की शिकायत की है।

कमजोर इंटरनेट कनेक्टिविटी, बाधित बिजली आपूर्ति, पुराने उपकरण और तकनीकी साक्षरता की कमी और ऐसे ही तमाम मुद्दों का सामना शिक्षकों ने अपने सीमित वित्तीय संसाधनों और भौगोलिक स्थिति के कारण किया। ऐसी स्थितियां ज़्यादातर ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में स्थित स्कूलों या शहरों के सरकारी स्कूलों में देखने को मिलीं। 2020 में छह भारतीय राज्यों में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 36 फीसद शिक्षकों ने स्कूलों में तकनीकी बुनियादी ढांचे की कमी को दूरस्थ शिक्षा में बाधा बताया है।

दूरस्थ शिक्षा को मजबूत करने की चर्चा काफी हद तक छात्रों के अनुभवों पर केंद्रित रही है, लेकिन शिक्षकों को भी इस प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए। एडटेक (शैक्षिक तकनीक) समाधानों में बड़े पैमाने पर गुणवत्ता प्रदान करने और एक लचीली शिक्षा प्रणाली में योगदान करने की अपार क्षमता और संभावना है। हालांकि, इस क्षमता को केवल शिक्षकों की सक्रिय भागीदारी से ही पूरी तरह से साकार किया जा सकता है। एडटेक उत्पादों को यूज़र फ़्रेंडली, किफ़ायती और आकर्षक बनाने की प्रक्रिया में निवेश ज़रूरत है ताकि शिक्षकों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।

पहुंच को व्यापक बनाने का समाधान मिल गया है, अब इसके बाद क्या?

महामारी के शुरुआती महीनों में, शिक्षकों और स्कूलों के सामने मुख्य चुनौती प्रशिक्षण और संसाधनों को लेकर थी। भारत के शहरी एवं ग्रामीण, दोनों ही क्षेत्रों के सरकारी स्कूल फंड, उपकरणों और तैयारी की कमी के कारण दूरस्थ शिक्षा के इस अचानक आये बदलाव के लिए तैयार नहीं थे। महामारी के दौरान, लगभग 50 फीसद शिक्षक स्कूल के बंद होने की तुलना में शिक्षण सामग्रियों पर अधिक पैसा खर्च कर रहे थे। जहां उपकरण उपलब्ध थे, वहां भी कनेक्टिविटी की समस्या थी।

सरकार और निजी क्षेत्र तेज़ी से कार्रवाई कर रहे थे। 2020 से 2022 तक एडटेक उत्पादों का बाज़ार 0.75 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2.8 अरब अमेरिकी डॉलर का हो गया। 2025 तक यह आंकड़ा चार अरब अमेरिकी डॉलर तक बढ़ने का अनुमान है। दीक्षा और राष्ट्रीय डिजिटल लाइब्रेरी तक मुफ्त पहुंच जैसी सार्वजनिक पहलों से अत्यावश्यक प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है। लॉकडाउन के दौरान शिक्षा से संबंधित फ़ोन ऐप्स पर बिताए गए स्क्रीन समय में 30 फीसद की वृद्धि हुई। इसके अलावा, एडटेक के लिए यूज़र बेस में वृद्धि हुई, विशेष रूप से के-12 खंड (प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा) के लिए, जो इस दौरान 4.5 करोड़ से बढ़कर नौ करोड़ हो गया।

बांस की झोपड़ी में बच्चों को पढ़ा रहा एक आदमी_एडटेक से शिक्षा
संस्थाएं एक राज्य या जिले में काम कर गए हस्तक्षेप टेम्प्लेट को दूसरे राज्य या जिले में कॉपी-पेस्ट नहीं कर सकते हैं। | चित्र साभार : यूरोपीय सिविल सुरक्षा और मानवीय सहायता / सीसी बाय

व्यापक स्तर पर पहुंच हासिल करने के बाद एडटेक प्रदाताओं को अब अपने समाधानों की गुणवत्ता बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। इसमें स्थानीय संदर्भों को समझना, राज्य पाठ्यक्रम के साथ तालमेल बिठाना और बच्चों के मुताबिक पाठ योजनाएं बनाना शामिल है। उत्पादों को उपयोगकर्ता-केंद्रित नज़रिए को अपनाना चाहिए ताकि इसके उपयोग की संभावना में वृद्धि हो सके। हमारा अनुभव कहता है कि चार प्रक्रियाओं को व्यवस्थित ढंग से अपनाने से शिक्षकों के बीच एडटेक समाधानों की पहुंच को अधिकतम किया जा सकता है।

1. बदलाव एजेंट की पहचान करना

स्थानीय समुदाय के साथ अपने मौजूदा संबंध के कारण समुदाय में शामिल हितधारक जैसे स्वयं सहायता समूह या आंगनवाड़ी कार्यकर्ता (एडब्ल्यूडब्ल्यू) अधिकतम प्रभाव डाल सकते हैं। यह विशेष रूप से ग्रामीण या कम-साक्षरता वाले वातावरण में सच है, जहां बाहरी संगठनों या गैर-लाभकारी संस्थाओं पर संदेह किया जा सकता है। भारत में 13.9 लाख आंगनवाड़ी केंद्र हैं, जो आबादी के एक बड़े हिस्से की जरूरतों को पूरा करते हैं और बच्चों के शुरुआती दिनों की देखभाल और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिहाज़ से जरूरी हैं। हमारा अपना अनुभव बताता है कि एडब्ल्यूडब्ल्यू कार्यकर्ता जिज्ञासु और साधन संपन्न होती हैं और समुदाय के लोगों के साथ उनके संबंध बहुत हद तक आत्मीय होते हैं, जिनके कारण वे परिवर्तन के लिए एक आदर्श एजेंट हो सकती हैं।

हालांकि, हस्तक्षेप कार्यक्रम तैयार करने और उनका क्रियान्वयन करने में उन्हें शामिल करना ही पर्याप्त नहीं है; संगठनों को बड़े स्तर पर समुदाय का मत हासिल करने के लिए उन कार्यकर्ताओं का विश्वास भी जीतना होगा। उदाहरण के लिए, कई शिक्षक सहकर्मी समूह का संचालन करने वाले रॉकेट लर्निंग फ़ेसिलिटेटर सीखने की दैनिक गतिविधियों को साझा करते हैं और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता उन कार्यों को करने वाले छात्रों के वीडियो रूप में जवाब देते हैं। खेल-आधारित शिक्षा आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की सक्रियता और सहभागिता को प्रोत्साहित करती है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की आकांक्षाओं और प्रेरणाओं का लाभ उठाना भी उनकी पूर्ण भागीदारी का रास्ता है। इनमें से कई लोग उन संसाधनों से सशक्त होना चाहते हैं जो उन्हें बुनियादी शिक्षा प्रदान करने और शिक्षकों के रूप में गंभीरता से लेने की अनुमति देते हैं। कार्यक्रम के डिज़ाइन में ज़मीन पर काम कर रहे श्रमिकों और ज़मीनी कार्यान्वयन करने वालों के लिए कौशल बढ़ाने के अवसरों को शामिल करना और इस प्रक्रिया में श्रमिकों के व्यक्तिगत विकास को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।

2. शिक्षकों को सही आचरण की ओर प्रेरित करना

व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर शिक्षकों को प्रोत्साहित करने की प्रक्रिया कक्षाओं के भीतर होने वाली गतिविधियों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसमें व्यक्तिगत मूल्यांकन रिपोर्ट से लेकर प्रदर्शन को ट्रैक करने वाले डिजिटल बैज या प्रमाणपत्र तक शामिल हो सकते हैं जो भागीदारी को पुरस्कृत करते हैं। ये तंत्र एडटेक उत्पादों में एक ‘मानवीय’ तत्व जोड़ते हैं और इच्छित व्यवहार को सुदृढ़ करते हैं।

संख्यात्मक आंकड़ों से केवल जानकारी को डिज़ाइन करने में बल्कि उन्हें सही तरह से इस्तेमाल करने के लिए पैटर्न तैयार करने में भी मदद मिल सकती है।

एक प्रभावी प्रेरणा प्रक्रिया तैयार करने के लिए गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों तरह के ठोस आंकड़ों की आवश्यकता होती है। मानव-केंद्रित सर्वेक्षण और गुणात्मक अनुसंधान स्थानीय संदर्भों में मूल हस्तक्षेप में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षकों की दैनिक, साप्ताहिक और मासिक गतिविधियों, प्राथमिकताओं और जरूरतों पर नज़र रखने से संगठनों को दोगुना करने के लिए बिंदुओं (टचप्वाइंट) की पहचान करने में मदद मिल सकती है।

इस बीच, मात्रात्मक आंकड़ों से न केवल जानकारी को डिज़ाइन करने में बल्कि उन्हें सही तरह से इस्तेमाल करने के लिए पैटर्न तैयार करने में भी मदद मिल सकती है। आंकड़े एडटेक प्रदाताओं को सबसे पसंदीदा संचार चैनलों (यूट्यूब, व्हाट्सएप, आदि), फॉरमैट (आवाज, शब्द, या मल्टीमीडिया), या दिन के विभिन्न समय पर ध्यान केंद्रित करने और अधिकतम प्रभाव के लिए इन प्राथमिकताओं का लाभ उठाने की अनुमति दे सकता है। निगरानी और मूल्यांकन बदलते पैटर्न समझने में मदद करते हैं और समय के साथ इन्हें अपडेट और दुरुस्त करते हैं। यह शिक्षकों और अभिभावकों को बच्चों के साथ विभिन्न गतिविधियां संचालित करने, पूरा होने का प्रमाण साझा करने और लक्ष्य प्राप्त करने पर ‘पुरस्कार’ या ‘प्रमाणपत्र’ प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

3. समग्र डिजिटल समुदाय का निर्माण

सीखने की प्रक्रिया शिक्षक-छात्र के बीच मौन संबंध या सीमित बातचीत में संभव नहीं हो सकती है। शिक्षकों और अभिभावकों के लिए यह आवश्यक है कि वे छात्रों के सीखने की प्रक्रिया और उपलब्धियों के साथ तालमेल बिठाएं, विशेष रूप से सुदूर और दूरस्थ इलाक़ों वाली परिस्थितियों में जहां घर और कक्षा के बीच की सीमाएं लगभग मिट गई हैं।

आधे से अधिक छात्रों और 89 फ़ीसद शिक्षकों द्वारा उपयोग किया जाने वाला व्हाट्सएप संचार के सबसे लोकप्रिय चैनल के रूप में सामने आया है।

डिजिटल समुदायों की स्थापना करते समय, मौजूदा ढांचे का उपयोग करने के लिए कम क्षमता वाली सेटिंग्स ही आदर्श होती हैं। उदाहरण के लिए, आधे से अधिक छात्रों और 89 फ़ीसद शिक्षकों द्वारा उपयोग किया जाने वाला व्हाट्सएप संचार के सबसे लोकप्रिय चैनल के रूप में सामने आया है। इन पैटर्नों के आधार पर सरल समाधान डिज़ाइन करना कम लागत वाला होता है और भागीदारी की संभावना को बढ़ाता है। यह उन माता-पिता के लिए भी विशेष रूप से फायदेमंद है जो दैनिक मजदूरी पर निर्भर हैं और अपने काम की प्रकृति के कारण भौतिक रूप से होने वाली बैठकों में शामिल नहीं हो सकते हैं।

शिक्षकों और अभिभावकों के बीच एक निरंतर प्रतिक्रिया प्रणाली (फीडबैक लूप) बनाना सकारात्मक अभिभावक-शिक्षक, शिक्षक-पर्यवेक्षक और शिक्षक-छात्र संबंध स्थापित करने में प्रभावी रूप से मददगार साबित होता है। इससे एक सहायक समुदाय का निर्माण भी होता है जिसमें माता-पिता और शिक्षक बच्चे की सीखने की यात्रा के बारे में अपनी चिंताओं और दृष्टिकोण को साझा कर सकते हैं।

4. विभिन्न सरकारों के साथ प्रभावी ढंग से काम करना

बड़े पैमाने पर प्रभाव डालने के लिए सरकारों के साथ काम करना सबसे अच्छा तरीका है। बाज़ार-संचालित एमटेक समाधान उन उपयोगकर्ताओं को प्राथमिकता देते हैं जो उनके उत्पादों के लिए भुगतान कर सकते हैं। इस बीच, हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सेवाएं देने की इच्छा रखने वाली संस्थाओं को अक्सर सीमित संसाधन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सरकारी समर्थन, इरादे और प्रभाव के बीच के इस अंतर को पाट सकता है, जिससे छात्र उपयोग, सीखने की गतिविधियों और शिक्षक प्रशिक्षण के मामले में निष्पक्षता सुनिश्चित हो सकती है। इसके बावजूद ऐसे कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने के लिए राज्य की इच्छा और क्षमता सुनिश्चित करने में समय लग सकता है। इसके अलावा, सरकारी स्कूलों में समाधान लागू करने की चाहत रखने वाले एडटेक संस्थाओं को विभिन्न राज्यों में अलग-अलग प्रकार के औपचारिक नियमों और अनौपचारिक प्रथाओं से जूझना पड़ता है। हार्डवेयर, उत्पाद और पाठ योजनाओं को मौजूदा पब्लिक स्कूल इकोसिस्टम में शामिल करने के लिए अक्सर कई स्तरों पर अनुमतियों और बातचीत की आवश्यकता होती है।

इन क्षेत्रों में काम करने वाले संगठनों और सरकारों को शिक्षकों को हस्तक्षेप के प्रतिनिधि के रूप में पेश करना चाहिए।

राज्य की प्राथमिकताओं के साथ तालमेल बिठाना और शासन के पदानुक्रम में – आंगनवाड़ी शिक्षक और उनके पर्यवेक्षक से लेकर परियोजना, जिला और राज्य स्तर के अधिकारियों तक को ध्यान में रखकर हस्तक्षेप डिजाइन करना – व्यवस्था को शामिल रखने के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, संगठन एक राज्य या जिले में काम करने वाले हस्तक्षेप के तरीक़ों (टेम्पलेट्स) को दूसरे राज्य में  उसी रूप में लागू नहीं कर सकते हैं। किसी भी प्रकार का दृष्टिकोण तैयार करने से पहले प्रत्येक प्रशासन की इच्छाओं और प्राथमिकताओं का आकलन करना आवश्यक है। योजना को तैयार करने के लिए राज्य की विशिष्ट आवश्यकताओं और कामकाज के वातावरण को पहचानना एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे कि सार्थक सहभागिता सुनिश्चित की जा सकती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में बिना अनुभव या तकनीकी ग्रहणशीलता वाले शिक्षकों के बीच एडटेक की पहुंच सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण लेकिन आवश्यक है।

ग्रामीण क्षेत्रों में बिना अनुभव या तकनीकी ग्रहणशीलता वाले शिक्षकों के बीच एडटेक की पहुंच सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण लेकिन आवश्यक है। विश्व बैंक का एडटेक रेडीनेस इंडेक्स इसे मान्यता देता है, और शिक्षकों को नीति और अनुप्रयोग में बेस्ट प्रैक्टिसेज के लिए मजबूत किए जाने वाले छह स्तंभों में से एक के रूप में सूचीबद्ध करता है। शिक्षकों की प्रेरणाओं और दृष्टिकोणों को प्राथमिकता देना और व्यापक मानसिकता में बदलाव पर जोर दिया जाना चाहिए। इस तरह की पहलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।

सबसे महत्वपूर्ण बात, तकनीक से जुड़े डर और शंका को दूर करना आवश्यक है। एडटेक सेवाओं को शिक्षकों के प्रतिस्थापन के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। बल्कि उन्हें एक ऐसे संसाधन के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए जो शिक्षकों के कार्यभार को कम और उनके काम को बेहतर करेगा। इस क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों और सरकारों को जितना संभव हो सके शिक्षकों को हस्तक्षेप के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिए। हम केवल शिक्षकों की भागीदारी और सहभागिता के माध्यम से ही एडटेक की पूरी शक्ति का उपयोग छात्रों के जीवन को बदलने और एक लचीले एजुकेशन इकोसिस्टम तैयार करने की दिशा में काम करने के लिए कर सकते हैं।

शिक्षकों की सहभागिता को बनाने और बनाए रखने के लिए, तकनीक और एडटेक को ऐसे उपकरण के रूप में स्थापित करना अनिवार्य है जो शिक्षक क्षमता का निर्माण कर सके और उसे आगे बढ़ा सके। हमें शिक्षक व्यवहार के संदर्भ में सकारात्मक लूप बनाने और एडटेक समाधानों की डिजाइन-से-कार्यान्वयन यात्रा के लिए क्षेत्र-विशिष्ट बारीकियों से अवगत होने के लिए ऐसे समाधानों से आंकड़े का लाभ उठाने की आवश्यकता है।

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