दिल्ली की फेरीवालियों को समय की क़िल्लत क्यों है?

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पश्चिमी दिल्ली के बक्करवाला इलाके की रहने वाली रमा ने 15 साल की उम्र में ही फेरीवाली के रूप में काम करना शुरू कर दिया था। वे दिल्ली की उन कई फेरीवालियों में से एक हैं जो ख़ुद को गुजरात के देवीपूजक समुदाय से जोड़ता है। उनके काम में कैलाश नगर, कुतुब रोड, गांधी नगर और पूर्वी दिल्ली के अन्य इलाकों से इस्तेमाल किए गए कपड़े इकट्ठा करना और उन्हें पश्चिमी दिल्ली के रघुबीर नगर के स्थानीय बाजारों में बेचना शामिल है। कपड़ों के बदले में फेरीवालियां इन इलाक़ों में रहने वाले लोगों को बर्तन देती हैं। साल 2001 में दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा उनकी बस्ती (झुग्गी) को ध्वस्त करने से पहले तक फेरीवालियों के लिए यह एक सरल और टिकाऊ आजीविका थी।

उनकी यह बस्ती रघुबीर नगर के क़रीब थी इसलिए उन्हें केवल आस-पड़ोस तक के ही इलाक़ों में जाना पड़ता था। लेकिन बस्ती के उजड़ जाने के बाद उन्हें दिल्ली के सुदूर इलाक़ों का चक्कर लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन्हें बस्ती से लगभग 15 किलोमीटर दूर बक्करवाला के एक इलाके में बसाया गया, जहां से रघुबीर नगर तक पहुंचने के लिए उन्हें बहुत लंबी यात्रा करनी पड़ती है।

फेरीवालियों के पास अपने काम का इलाक़ा बदलने का विकल्प नहीं है क्योंकि वे इन इलाक़ों में पिछले तीस सालों से काम कर रही हैं और इन इलाक़ों के लोगों के साथ उनके भरोसेमंद रिश्ते बन गए हैं। रमा बताती हैं कि ‘हम बहुत लंबे समय से उनके पास जाते रहे हैं और कभी-कभी जब उनके पास देने वाले कपड़ों का ढेर लग जाता है तो वे लोग ही ख़ुद हमसे संपर्क करते हैं। नया घर या नया क्षेत्र दोनों की तलाश चुनौतीपूर्ण है। आपने उन बड़ी-बड़ी कॉलोनियों में खड़े उन चौकीदारों को देखा है ना? वे हमें भीतर भी घुसने नहीं देते हैं।’

रमा कहती हैं कि ‘मैं सुबह लगभग 3-4 बजे जागती हूं और अपने दोस्तों के साथ रघुबीर नगर के लिए निकल जाती हूं। उस समय किसी भी सार्वजनिक परिवहन के ना होने के कारण बाज़ार तक पहुंचने के लिए महिलों को कैब लेनी पड़ती है। इसका खर्च लगभग तीन से चार सौ रुपये तक का आता है।

कपड़ों की बदो-बड़ी गठरियों के साथ दिन के इस पहर में फेरीवालियों के लिए मेट्रो की सवारी करना सुविधाजनक नहीं होता है। इसी काम को करने वाली ज्योति यात्रा के कारण उनके काम और आमदनी पर पड़ने वाले असर के बारे में बताती हैं कि ‘हम आमतौर पर बस लेकर रात 8 से 9 बजे के बीच कॉलोनियों से वापस लौटते हैं। साफ़-सुथरे, इस्त्री किए हुए और रंग चढ़े हुए कपड़ों की क़ीमत अच्छी मिलती है। लेकिन रात में वापस लौटने के बाद हमारे पास ऐसे कपड़ों की छटनी करने का समय तक नहीं होता है।’

अनुज बहल एक शहरी शोधकर्ता और प्रैक्टिशनर हैं।

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