मैं मूलरूप से हरियाणा के सोनीपत जिले का रहने वाला हूं। मैं पिछले कई वर्षों से एक निजी कंपनी में नौकरी करता हूं। मैं कंपनी के सेल्स विभाग के कामों को देखता हूं इसलिए आमतौर पर मेरा दिन हमेशा ही बहुत व्यस्त रहता है। नौकरी करते हुए, पिछले कई सालों से मेरे दैनिक जीवन में तनाव लगातार बढ़ता जा रहा था। इसका कारण शायद यह था कि जो काम मैं कर रहा था, वह मेरे व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं था। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते केवल इसे ही करता चला जा रहा था। उम्र बढ़ने के साथ मेरे पास उतने विकल्प भी नहीं रह गए थे।
ज्यादातर लोगों की तरह, कोविड-19 के दौरान मैंने अपने जीवन को लेकर सोचना शुरू किया। मैंने खुद को टटोला कि आखिर मेरे अंदर ऐसा कौन सा स्किल है जिससे मैं अपने तनाव को कम कर सकता हूं। मुझे लगा कि अगर अब मैं अपनी रुचि से जुड़ी चीजों के लिए समय नहीं दूंगा तो मेरे लिए लंबे समय तक इतने तनाव के साथ काम करना मुश्किल होगा। यही सब सोचते और ऑनलाइन रिसर्च करते हुए मैंने निर्णय लिया कि मैं उन लकड़ियों का कुछ बेहतर इस्तेमाल करूंगा जिन्हें लोग अक्सर बेकार समझकर फेंक देते हैं।
मैंने धीरे-धीरे बेकार पड़ी लकड़ियों से कुछ चीजें बनाना शुरू किया। शुरूआत एक दीवार घड़ी बनाने से हुई। मैं जब भी कस्टमर विजिट पर जाता तो समय मिलते ही वहां आसपास की आरा मशीन पर जाकर देख-ताक करने लगता। मैंने वहां देखा कि आरा मशीन पर लकड़ियों की कटाई के बाद बेकार लकड़ियों को जलाने के लिए फेंक दिया जाता था। मैं वहां से कुछ लकड़ियां मांगकर घर ले आता जिन्हें साफ सुथरा कर मेरी पत्नी और बेटी उन्हें पेंट कर सजाती संवारती थीं।
मैं आज अपने ऑफिस के काम के साथ-साथ जहां भी जाता हूं, वहां के लोकल आरा मशीनों या किसी ढाबा वगैरह से बेकार लकड़ियों को घर लाकर दीवार घड़ी, पेन स्टैन्ड, घर की नेम प्लेट्स, हैंगिंग लाइटस जैसी कई सारी घरेलू चीजें बनाने लगा हूं।
आमतौर पर मैं रविवार के दिन उन लकड़ियों की कटाई, सफाई और वार्निश से जुड़ा काम करता हूं। इन्हें तैयार करने के लिए मैं कुछ मशीनों का इस्तेमाल करता हूं जो आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध हो जाती हैं। मैं बता नहीं सकता कि यह सब करके मुझे कितनी खुशी मिलती है। इस पूरे अनुभव से मुझे यह एहसास हुआ है कि भले ही थोड़े समय के लिए सही, लेकिन हमें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उन चीजों को जरूर शामिल करना चाहिए जो हमें वास्तव में प्रेरित करती रहें।
निखिल अरोड़ा एक निजी कंपनी में काम करते हैं।
आईडीआर पर इस जमीनी कहानी को आप हमारी टीम के साथी सिद्धार्थ भट्ट से सुन रहे थे।
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मध्य प्रदेश के सतना जिले में लैंटाना (वैज्ञानिक नाम – लैंटाना कैमरा) नाम के एक आक्रामक पौधे का प्रसार हो रहा है। इससे इलाके के आदिवासी समुदायों को पारंपरिक खाद्य पदार्थों की कमी हो रही है और लोगों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, नई पीढ़ी अपने कई परंपरागत वन उत्पादों के ज्ञान को खो रही है क्योंकि लैंटाना के फैलने से कई स्थानीय प्रजातियां और जड़ी-बूटियां उग नहीं पा रही हैं। लैंटाने पौधा, पानी और पोषक तत्वों को अन्य वनस्पतियों के मुकाबले जल्दी अवशोषित करता है जो मिट्टी की उर्वरकता को भी प्रभावित करता है। इस पौधे के पत्तों में पाए जाने वाले विषैले तत्वों के कारण चरने वाले जानवरों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
मझगवां ब्लॉक के चितहरा गांव के मवासी आदिवासी, रामेश्वर मवासी ने लैंटाना के आक्रामक फैलाव के कारण स्थानीय जंगल को धीरे-धीरे, अपने सामने ही खत्म होते देखा है। रामेश्वर बताते हैं, “मुझे अभी भी याद है कि हमने मझगवां जंगल से चिरौंजी इकट्ठा की थी ताकि हमारा परिवार मेरी बहन की शादी की दावत का खर्च उठा सके। मेरी मां, दो भाई और मैंने जंगल में चार दिन बिताए और 80 किलो चिरौंजी इकट्ठा की और उसे बाजार में जाकर बेचा। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। आप जंगल में कितने भी दिन बिता लो, आपको कुछ नहीं मिलेगा। दुख की बात है कि महुआ, चिरौंजी और अन्य जड़ी-बूटियां, लैंटाना जैसी आक्रामक प्रजातियों के कारण विनाश की कगार पर हैं।”
यहां वन विभाग साल में दो बार लैंटाना को साफ करने का प्रयास करता है। साल 2021 में वन विभाग ने लैंटाना को काटकर सतना जिले के एक सीमेंट प्लांट को भेजना शुरू किए ताकि कोयले की जगह इसे एक ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।
यहां ग्राम वन समिति (विलेज फॉरेस्ट कमेटी – वीएफसी) का भी गठन किया गया जिसमें गांव के सभी निवासी सदस्य हैं। इन सदस्यों को वन क्षेत्र से लैंटाना झाड़ियों को उखाड़ने का काम सौंपा गया था। इस काम के लिए वीएफसी सदस्यों को कटी हुई लैंटाना झाड़ियों के लिए प्रति मीट्रिक टन 1,200 रुपये दिए जाते हैं। पहले तीन महीनों में, 29.87 मीट्रिक टन लैंटाना निकाला गया जिसके लिए गांव के लोगों को करीब 35 हजार 844 रुपये मिले। अब इस परियोजना को उन जिलों में भी लाया जा रहा है जहां लैंटाना पौधों का आक्रमण है।
जिले के एक अन्य निवासी कुशराम मवासी का कहना है कि “लैंटाना को हटाने के बाद पलाश, जामुन, रेला, धावा और करोंदा जैसे स्थानीय पेड़ उगने लगे हैं। अब जंगल में जानवरों के लिए चारा भी मिल जाता है। साथ ही जंगली सूअर, हिरण और चीतल फसल को अब पहले जितना, नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं।”
सनव्वर शफ़ी भोपाल, मध्य प्रदेश में बतौर स्वतंत्र पत्रकार काम करते हैं।
यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित हुआ था।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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मैं मिजोरम के मामित जिले के दमपरेंगपुई गांव का एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हूं। मैं ब्रू समुदाय से ताल्लुक रखता हूं, इसलिए बचपन से घर पर ब्रू भाषा में ही बात करना सीखा। मैंने स्कूल में मिज़ो भाषा सीखी क्योंकि यह सभी छात्रों के लिए अनिवार्य थी, और राज्य में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए यह पर्याप्त थी। मिज़ो यहां सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है और लोग आमतौर पर अपनी ही भाषा में बातचीत करना पसंद करते हैं। हालांकि, 2016 में मैंने तय किया कि मुझे हिंदी सीखनी है।
मुझे लगा कि हिंदी जानना राज्य के भीतर और बाहर रोजगार के अवसरों को ढूंढने के लिए अहम है, और यह मिज़ोरम के बाहर के लोगों से जुड़ने, बातचीत करने और विचारों का आदान-प्रदान करने का माध्यम भी है।
हिंदी सीखने के लिए मैं उसी साल गुवाहाटी, असम चला गया और अलग-अलग होटलों और रेस्टोरेंट में काम करना शुरू किया। मैंने संचालकों से कहा कि मुझे हिंदी भाषा सीखनी है, इसलिए कोई भी काम करने के लिए तैयार हूं। मेरी पहली नौकरी एक मिज़ो रेस्टोरेंट में थी, जहां मैंने रसोई में काम किया। चूंकि ये भाषा सीखने के शुरुआती दिन थे तो एक परिचित माहौल में रहना मेरे लिए मददगार साबित हुआ। मैं वहां काम करने वाले सभी लोगों से हिंदी में बात करने का आग्रह करता था, और उनसे कहता था कि अगर मैं कोई गलती करूं तो मुझे सुधार दें। धीरे-धीरे जब मैंने भाषा को समझना शुरू किया तो मुझे रसोई से हटा कर रिसेप्शन पर काम दे दिया गया क्योंकि इसमें ग्राहकों के साथ बातचीत शामिल थी, जिनमें से कई अन्य राज्यों के केवल हिंदी बोलने वाले टैक्सी ड्राइवर थे। जब मेरी भाषा में और सुधार हुआ, तो मैंने एक गैर-मिज़ो रेस्टोरेंट में शेफ (बावर्ची) की नौकरी कर ली, जिससे मुझे अच्छा वेतन मिला। भाषा जानने से मुझे एक अंजान शहर में भी आसानी से घूमने-फिरने में मदद मिली। बाहरी होते हुए भी मैं ऑटो ड्राइवरों और दुकानदारों से बात कर सकता था और इस बात का ध्यान रखता था कि कोई मुझसे ज्यादा पैसे न ले।
जब मिज़ोरम वापस आया, तो मैंने ऐसे कोर्स और फेलोशिप्स की तलाश शुरू की जो मुझे बेहतर कौशल सिखा सके, भले ही इसके बदले एक बार फिर घर से दूर रहना हो। मुझे साल 2022 में ग्रीन हब फेलोशिप के लिए चुना गया, जो पर्यावरणीय फिल्म निर्माण पर आधारित एक आवासीय कार्यक्रम है। एक बार फिर मैंने नियमित रूप से हिंदी बोलना शुरू किया। चूंकि कक्षाओं का संचालन अंग्रेजी और हिंदी में होता था, हिंदी जानने से मुझे अपने विचार और राय सही तरीके से व्यक्त करने में मदद मिली और फिल्म निर्माण के बारे में लोगों से बातचीत करने का मौका मिला। जब मैंने फेलोशिप पूरी की और मिज़ोरम से एक नए बैच के फेलो शामिल हुए, तो मैं उनके और मेंटर्स के बीच एक सेतु बन गया, जब तक कि वे फेलो हिंदी या अंग्रेजी में बातचीत करना नहीं सीख गए।
इस फेलोशिप ने मुझे डॉक्यूमेंट्री बनाने का तरीका सिखाया और वन्यजीव संरक्षण में मेरी रुचि भी बढ़ाई। इस तरह देखा जाए तो मैंने एक भाषा सीखी और इसने मुझे और कुछ नया सीखने का रास्ता दिखाया। आजकल, जब मैं डॉक्यूमेंट्री नहीं बना रहा होता, तो स्कूलों में पर्यावरण जागरूकता कार्यशालाएं आयोजित करता हूं। मैं हमारे गांव आने वाले वन्यजीव प्रेमियों के साथ भी जाता हूं और उनके लिए दुभाषिए का काम करता हूं, जिससे मुझे कुछ पैसे कमाने और ज्ञान का आदान-प्रदान करने का मौका मिलता है।
रोडिंगलिआन आईडीआर नॉर्थईस्ट मीडिया फेलो 2024-25 हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के कुशलगढ़ ब्लॉक के गांवों में आदिवासी किसान महिलाएं परंपरागत ज्ञान का प्रयोग कर खेती के साथ-साथ परंपरागत बीजों के संरक्षण और उन्हें बढ़ावा देने के लिए भी कर रही हैं। इन बीजों के जरिए महिलाएं परिवार की पोषण की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ इलाके में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर, ग्रामीण विकास में अपना योगदान दे रही हैं।
ये महिलाएं उन बीजों का सरंक्षण करती हैं जो पहले आमतौर पर खाए जाने वाले स्थानीय अनाज (जैसे रागी, कांगनी) थे। बीज इकट्ठा करने से लेकर उनके सरंक्षण का तरीका, पुरानी परंपराओं, स्थानीय समझ और इनके नवाचारों पर आधारित है। फसल में सबसे अच्छे और पहले आने वाले बीजों को चुनकर महिलाएं उन्हें राखी बांध देती हैं या एक रुमाल में बांधकर सुरक्षित रख लेती हैं। इससे कटाई के समय ये अलग से दिखाई देते हैं और उन्हें ही बीजों के रूप में संरक्षित किया जाता है।
मुख्य रूप से, यहां देसी मक्का, बाजरा, और कोदरा जैसे बीजों को प्राथमिकता दी जाती है और महिलाएं माइनर मिलेट्स या छोटे अनाजों (जैसे रागी, कंगनी) को भी सहेजकर रखती हैं। इस तरह लुप्त होते बीजों को बचाने के इन प्रयासों से जैव विविधता भी संरक्षित होती है और आने वाली पीढ़ियों के लिए परंपरागत फसलों की उपलब्धता भी।
इन बीजों को वे रक्षाबंधन जैसे त्योहारों पर अन्य महिलाओं को भी उपहार के रूप में देती हैं। इसे वे ‘बीज-बंध’ कहती हैं, महिलाएं साल दर साल ये बीज समुदाय में बांटकर अपनी संस्कृति और परंपरा को जीवित रख पा रही हैं, और समुदाय में अपनी पहचान भी बना रही हैं। बीजों को अगली फसल तक बचाए रखना भी एक खास तकनीक है जो हर बीज के लिए अलग तरीके से काम करती है। कुछ को फल के भीतर रखकर सुखाना होता है, कुछ के लिए राख और नीम के पत्तों का उपयोग करना होता है तो कुछ को बाहर सुखाना पड़ता है।
ये महिलाएं एक साथ कई फसलों की खेती करती हैं, जिसे स्थानीय भाषा में ‘हंगनी खेती’ कहा जाता है। यह प्रणाली मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने और जल संरक्षण में भी मददगार है क्योंकि अलग-अलग फसलों की जड़ें मिट्टी में नमी को बनाए रखने में मदद करती हैं और वाष्पीकरण को कम करती हैं। हालांकि, बड़ी कंपनियों द्वारा हाइब्रिड बीजों का बढ़ता दबाव और बाजार की मजबूरी जैसी चुनौतियां हैं लेकिन महिलाएं अपने बीजों पर भरोसा करती हैं। लोग हाइब्रिड बीज ज्यादा खरीदते हैं क्योंकि उनकी मार्केटिंग बहुत अच्छी होती है। ये एक बार इस्तेमाल के बाद बेकार हो जाते हैं जबकि महिलाओं द्वारा तैयार देसी बीज कई पीढ़ियों तक चल सकते हैं। अगर सरकार स्थानीय बीजों को खरीदने और पीडीएस के तहत वितरित करने की पहल करे तो महिला किसानों को एक स्थायी बाजार मिलेगा और उनका बीज संरक्षण कार्य भी मजबूत होगा।
सोहन नाथ वाग्धारा संस्था में यूनिट लीडर के तौर पर काम करते हैं।
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मैं मध्य प्रदेश भोपाल की निवासी हूं। मैंने जून 2024 में, यहां के एक कॉलेज से अपना मास्टर ऑफ सोशल वर्क (एमएसडब्ल्यू) पूरा किया है। अब जब मैं पढ़ाई ख़त्म करने के कुछ ही महीने बाद सामाजिक क्षेत्र के नौकरी बाजार में प्रवेश कर रही हूं तो मैं महसूस कर रही हूं कि हमारी शिक्षा हमें सेक्टर में काम करने के लिए ठीक तरह से तैयार नहीं कर पाई है।
शिक्षार्थियों के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती पाठ्यक्रम की फीस है। एमएसडब्ल्यू के दो साल की कुल फीस 30 हज़ार रुपए है जो अन्य कोर्सेज से दोगुनी है। उदाहरण के लिए समाजशास्त्र में मास्टर्स करने के लिए आपको दो साल में महज 12 हज़ार रुपए देने पड़ते हैं। इस कारण जहां समाजशास्त्र में 100 छात्र थे, एमएसडबल्यू में हम केवल आठ ही लोग थे। यह फीस जुटाना मेरे और मेरे जैसे और लोगों के लिए उतना आसान नहीं था। उस समय, मेरी एक प्रोफेसर ने मदद की और कहा कि वे वक्त पर फीस भर देंगी जिसे मैं बाद में लौटा दूं।
मेरा यह पाठ्यक्रम जन भागीदारी द्वारा भी संचालित था। जन भागीदारी पाठ्यक्रमों में अतिथि शिक्षकों द्वारा कोर्स पूरा किया जाता है। अतिथि शिक्षकों का चयन कोई विशेष भर्ती प्रक्रिया या पात्रता परीक्षा से नहीं होता है। ऐसे में, अतिथि शिक्षकों में अपने काम के लिए जवाबदेही या उसमें रुचि अक्सर स्थाई शिक्षकों की तुलना में कम ही देखने को मिलती है।
साथ ही, कॉलेज में एजुकेशनल टूर के लिए साधन सुविधाओं का अभाव भी एक बड़ा कारण था जिसने मुझे सोशल वर्क के व्यावहारिक ज्ञान की गहराइयों में जाने से वंचित रखा। हम हर सेमेस्टर में जो प्रोजेक्ट बनाते थे वह महज दो बार के एजुकेशनल टूर के आधार पर बनाया जाता था। कोर्स के दौरान दो सालों में, हमें केवल आठ फील्ड विजिट करवाई गई, वह भी सिर्फ एक या दो घंटे की होती थी। इसकी बड़ी वजह यह थी कि हमारे कॉलेज के पास अपनी बस नहीं थी। हमें कहीं भी जाना हो तो उसके लिए गाड़ियां बुक करनी पड़ती थीं जो एक निश्चित समय के लिए ही उपलब्ध हो पाती थीं। अंतर-विद्यालय (इंटर-स्कूल) एक्सचेंज प्रोग्राम की सुविधा भी हमें नहीं मिली जिससे हम दूसरे संस्थानों के प्रायोगिक कार्यों को देख-समझ सकते थे। इस क्षेत्र में काम करने के लिए हमें सबसे ज़्यादा यह समझने की ज़रूरत है कि समुदाय में काम कैसे करते हैं लेकिन फील्ड में न जाने से हम ये कौशल विकसित नहीं कर पाते।
आज जब हम कहीं नौकरी करने जाते हैं तो सबसे पहले अनुभव से जुड़े सवाल ही पूछे जाते हैं। लेकिन कॉलेज में ये सब सुविधाएं ना होने के कारण, हमें ना नौकरी नहीं मिल पाती है ना कोई अच्छा प्लेसमेंट। हम चाहते हैं कि हमें अंतर-विद्यालय एक्सचेंज प्रोग्राम की सुविधा भी मिले जिससे हमारे कॉलेज में प्लेसमेंट और नौकरी के अधिक अवसर आ सकें। मेरे कई दोस्त हैं जो डिग्री लेने के बाद आज भी बेरोजगार हैं।
मुझे कुछ मौके मिले लेकिन उन्हीं लोगों के जरिये जिन्हें मैंने अपना नंबर फील्ड दौरे के समय दिया था। लंबे समय तक इंटरनेट पर खोजते-खोजते मुझे एक फेलोशिप मिली जिसके लिए मैं दिल्ली गई। दिल्ली में मुझे नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा जैसे रिपोर्ट लिखने, समुदाय के साथ बात करने का कौशल मुझे काम करते हुए सीखना पड़ा। अगर मैंने कोर्स के दौरान फील्ड विजिट किए होते तो मेरे लिए यह सब करना आसान होता।
मैं अभी भी नौकरी खोज रहीं हूं। मैं इस सेक्टर में प्रवेश करने और लोगों के लिए काम करने के लिए उत्साहित थी। मेरी उम्मीद थी कि एमएसडब्ल्यू मुझे वहां पहुंचने में मदद करेगा लेकिन पूरी तरह से ऐसा नहीं हो सका। मुझे जो मौके मिले वे मेरी खुद की कोशिशों के चलते मिले हैं। आखिर में, इतना सब करने के बाद भी नौकरी मिलने में दिक्कत ही हो रही है।
शिवाली दुबे प्रवाह की फेलो रह चुकी हैं।
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अधिक जानें: जानें की वंचित समुदायों के युवाओं को डर से उबरने में क्या मदद करता है?
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हम यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) संस्था के अंतर्गत महाराष्ट्र के 21 जिलों में अनुभव शिक्षा केंद्र नामक एक युवा-केंद्रित कार्यक्रम चलाते हैं। अनुभव शिक्षा केंद्र, नए-नए तरीकों से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के वंचित समुदाय के युवाओं में लीडरशिप का निर्माण करता है।
शहरी क्षेत्रों में रहने वाले युवाओं के साथ बातचीत में हमने पाया कि बहुत से ऐसे हैं जिनमें नौकरी ढूंढने से जुड़े कामों में अधिक संघर्ष और तनाव के कारण आत्मविश्वास की काफी कमी होती है।
चूंकि शहरी युवाओं के लिए रोजगार एक बड़ी चिंता है, इसलिए युवा संस्था उन्हें नौकरी के लिए रेफरल (सिफारिश) देकर मदद करता है। एक इसी से जुड़े मामले में, मुंबई के उपनगर मलाड के मालवणी से लगभग 22-23 साल के तीन लड़कों को एक प्रमुख बीमा कंपनी में बैक-ऑफिस की नौकरी मिल गई। वे उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी, बस्ती और गोंडा जिलों से आए थे और तीन साल से मुंबई में रह रहे थे। उनके परिवार जरी का काम करते थे। दो युवाओं ने 12वीं कक्षा पूरी कर ली थी और एक बी.कॉम. की पढ़ाई कर रहा था।
नौकरी मिलने के बाद, लड़कों को ट्रेनिंग के लिए बीमा ऑफिस जाना था। लेकिन बाद में हमें पता चला कि वे ऑफिस के रिसेप्शन से आगे भी नहीं गए। जब हमने पूछा कि क्या हुआ, तो उन्होंने हमें बताया, “ऑफिस एक बहुत बड़ी कांच की इमारत में था और हम ये सब देखकर घबरा गए क्योंकि हम इससे पहले कभी ऐसी जगह पर नहीं गए थे। जब हम रिसेप्शन पर गए और हमने वहां फ्रंट-डेस्क पर बैठी मैडम से बात करनी चाही तो उन्होंने हमसे अंग्रेजी में बात करना शुरू कर दिया। इस सबसे हम डर गए और परेशान हो रहे थे कि हम उनकी बात का जवाब कैसे दें। इसलिए, हमने ट्रेनिंग पूरी न करने का फैसला किया और वापस आ गए।”
हमने ये महसूस किया कि रोजगार के मौकों के अलावा युवाओं में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए उन्हें नए संदर्भों व परिस्थितियों को पहचानने के लिए बाहरी दुनिया से परिचित कराना भी बहुत जरूरी है।
इस घटना को लेकर हमने अपनी सप्ताह में होने वाली बैठक अनुभव कट्टा में चर्चा की, जहां युवाओं ने चकाचौंध (एलीट) वाली जगहों में जाने से अपने डर के बारे में बात साझा की।
इसको लेकर युवाओं ने खुद ही एक समाधान निकाला कि वे मॉल में इस तरह की बड़ी-बड़ी दुकानों पर जाकर उस माहौल के बारे में जानेंगे। उन्होंने यह फैसला इसलिए किया ताकि उन जगहों पर जाने से उनके मन में जो डर रहता है उस पर काबू पाने में काफी मदद मिलेगी।
इसलिए मैं खुद 20-25 युवाओं को अपने साथ मलाड के इन्फिनिटी मॉल में गया। वहां जाकर मैंने उन्हें एस्केलेटर पर चढ़ने, ट्रेंड्स और क्रोमा जैसे स्टोर में जाने, कपड़े परखने और दुकानें चलाने वाले लोगों से बात करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनमें से कई युवा कपड़ों की दुकानों पर गए, लेकिन वे सैलून आदि से जुड़ी दुकानों में जाने से हिचकिचा रहे थे क्योंकि उन्हें लगा कि वहां काम करने वाले लोग उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया रखते हैं क्योंकि वे उन्हें अपने नियमित ग्राहकों जैसे दिखाई नहीं पड़ते थे। लेकिन हमने उनसे कहा, “भले ही दूसरे व्यक्ति को लगे कि आप उनकी दुकान में कुछ ना भी खरीदना चाहते हों, फिर भी आपको इस तरह की दुकान में जाना चाहिए।” इस तरह उन्होंने ठीक ऐसे ही किया।
ये सब के बाद जब हमने उनके अनुभवों पर चर्चा की तो उन्हें सच में एहसास हुआ कि इस तरह की बड़ी जगहों पर जाने का डर सिर्फ उनके मन में ही था। क्योंकि जब वे वास्तव में उन जगहों पर गए तो यह उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
युवाओं को अपने स्थानीय इलाकों में ऐसी जगहें तलाश करनी चाहिए, जहां वे खुद को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ अपने मन में बैठे डर को दूर करने का समाधान भी खुद ही ढूंढ पायें। हालांकि, खासकर वंचित समुदायों में अक्सर इसकी कमी देखने को मिलती है। अगर इस तरह की असुरक्षाओं के लिए काउंसलर उनके साथ बात भी करते हैं, तब भी वे अपनी चर्चाओं में इन बातों को सामने लाने से हिचकिचाते हैं।
हमने नगर निगम कार्यालयों में भी यही तरीका अपनाया है। हम युवाओं को बीएमसी कार्यालय ले जाते हैं ताकि उन्हें उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जा सके। इसके लिए हम उन्हें अधिकारियों के साथ बात करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। हालांकि, उन्हें वहां भी डर लगता है, लेकिन इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। इससे उन्हें स्थानीय शासन में शामिल होने में मदद मिलती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हें एहसास होता है कि वे सक्रिय नागरिक (एक्टिव सिटीजन) के तौर पर शासन व्यवस्था से जुड़ सकते हैं।
जहां तक तीनों लड़कों की बात है, उनमें से दो अब ई-कॉमर्स कंपनियों में काम करते हैं और एक मलाड में थोक की दुकान चलाते हैं।
सचिन नचनेकर, यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) में कार्यक्रम प्रमुख हैं।
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अधिक जानें: जानें कि क्यों युवाओं की जरूरतों को नहीं, बल्कि उनकी इच्छाओं को समझना जरूरी है।
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मैं पिछले 7 सालों से हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहीं हूं। आंगनवाड़ी केंद्र में एक बार नामांकित होने के बाद प्रत्येक बच्चे की पढ़ाई के साथ-साथ उसकी आयु के अनुरूप विकास जैसे ऊंचाई, वजन व सीखने की क्षमता आदि की नियमित तौर पर जांच की जाती है। जो बच्चे अपनी आयु के हिसाब से विकसित नहीं हो पाते, उनके लिए अतिरिक्त पोषण का ध्यान रखा जाता है। नियमित तौर पर बच्चों को सुबह का नाश्ता व दिन में गरम भोजन दिया जाता है जो मैं आंगनवाड़ी सहायिका की मदद से करती हूं। हम इन सभी पहलुओं पर प्रशिक्षित होते हैं।
लेकिन भारत सरकार की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 आने के बाद काफी कुछ बदला है।
इस नीति के आने से पहले छ: वर्ष पूरा होने तक बच्चे आंगनवाड़ी केंद्र में ही आते थे और उसके बाद ही वे विद्यालय में नामांकित होते थे। मेरे अपने आंगनवाड़ी केंद्र में पहले लगभग 25 से 30 बच्चे आते थे।
लेकिन अब इसकी वजह से अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों को तीन साल पूरे होने के बाद सीधे या तो निजी विद्यालयों में नामांकित कर दिया जाता है या फिर सरकारी विद्यालयों में प्री-प्राइमरी कक्षा में भेज दिया जाता है।
इसका सीधा असर मेरी तरह अन्य सभी आंगनवाड़ी केंद्रों पर पड़ा है। अब मेरे पास महज 7-8 बच्चे ही नामांकित हैं और इनमें से भी कुछ बच्चे अपनी आयु के अनुसार प्री-प्राइमरी कक्षा में जाने के लिए तैयार हैं। अब अगर केंद्र में बच्चे ही नहीं आएंगे तो फिर हम लोग वहां क्या करेंगे?
क्या प्री-प्राइमरी कक्षा में बच्चों के पोषण पर इतना जोर दिया जाएगा?
अगर सरकार हम आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को शिक्षा विभाग में सम्मिलित करके प्री-प्राईमरी की कक्षाओं के लिए नियुक्त कर दे, तो इससे न केवल सरकार को प्री-प्राइमरी कक्षा के बच्चों के लिए प्रशिक्षित कार्यकर्ता मिल जाएंगी बल्कि हमारे भविष्य के संकट का भी समाधान हो पाएगा।
कविता 7 साल से एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के तौर पर काम कर रहीं हैं।
आईडीआर पर इस ज़मीनी कहानी को आप हमारी टीम की साथी जूही मिश्रा से सुन रहे थे।
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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि पोषण ट्रैकर ऐप के साथ आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
आरा-तारी एक खास तरह की कढ़ाई का काम है। इसे हमारे कलंदर समुदाय के लोगों ने अपनी जीविका चलाने के लिए सीखा है। कलंदर समुदाय, घुमंतू या विमुक्त जनजातियों के अंतर्गत आता है। पहले हमारे परिवार के पुरुष भालू का तमाशा दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते थे और उसी से आजीविका कमाते थे। मगर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 लागू होने के बाद यह काम बंद हो गया। इसके बाद टोंक की कलंदर बस्ती की महिलाओं और लड़कियों ने परिवार की मदद करने के लिए आरा-तारी का काम सीखना शुरू किया।
साल 2006 में मेरे ससुर, जो एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, उन्होंने वाइल्डलाइफ एसओएस की मदद से इस आरा-तारी केंद्र की स्थापना की। इस नए कौशल को सीखने के बाद हमें जीविका का एक नया साधन मिला क्योंकि हमारा पुराना काम छिन चुका था। घर की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो चुकी थी। हम में से अधिकतर ने पांचवीं या आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की है, फिर हम काम पर लग गए। ज्यादातर परिवारों में किसी न किसी को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी है ताकि छोटे भाई-बहन पढ़ाई जारी रख सकें। मैंने भी अपने छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई पूरी करवाई और अन्य कई लोगों ने भी ऐसा ही किया।
अब हम सिर्फ पैसे नहीं कमा रहे, बल्कि अपने परिवार और समुदाय से सम्मान भी पा रहे हैं, क्योंकि हम परिवार की आर्थिक मदद कर रहे हैं। इस काम से हमें प्रति पीस 300 से 400 रुपये तक की कमाई हो जाती है। हमें यह काम बेहद पसंद है, खासकर जब हम इसे एक साथ करते हैं। केंद्र में आमतौर पर दस से बारह लोग साथ काम करते हैं। कोई सेठ कच्चा माल लाता है जिसे फैक्ट्री में तैयार किया जाता है और हमें इसके बदले मजदूरी मिलती है। हम डिजाइन चुनते हैं, उत्पाद बनाते हैं, और फिर उसे वापस कर देते हैं। वे कपड़ा इकट्ठा करते हैं और हमें भुगतान करते हैं, जिससे हमारे परिवारों की जिंदगी थोड़ी आसान हो जाती है।
अब यह काम हमारे समुदाय में फैल चुका है। अगर इसी तरह के केंद्र अन्य बड़े घुमंतू समुदायों में भी स्थापित किए जाएं तो और युवाओं को रोजगार मिलेगा और हमारे समुदाय में बड़ा बदलाव आएगा। युवा खाली नहीं बैठेंगे, इधर-उधर घूमने या झगड़े में अपना समय बर्बाद नहीं करेंगे। वे काम करेंगे, पैसे कमाएंगे और सम्मान के साथ अपने परिवार की आर्थिक मदद करेंगे। पहले जब हम तंबुओं या झुग्गियों में रहते थे, जहां न घर थे न शिक्षा, तब से अब तक काफी बदलाव आया है। हमारे भालू छिन जाने के बाद हमारे पास कोई काम नहीं बचा था, और आज भी कई लोग बिना काम के संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन आरा-तारी केंद्र जैसे प्रयासों से हमारी स्थिति में सुधार आ रहा है, और हमें उम्मीद है कि यह बदलाव और भी तेजी से आएगा।
नूरजहां कलंदर आरा-तारी का काम करती हैं और अपना परिवार चलाने में मदद करती हैं।
नूर मुहम्मद कलंदर, अपने समुदाय के हक के लिए आवाज उठाते हैं और घुमंतू साझा मंच के नाम से एक संगठन चलाते हैं।
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मामित जिला, मिज़ोरम के डम्पारेंगपुई में रहने वाले बिआकथंग, बांस से चीजें बनाने वाले एक कलाकार हैं। वे ब्रू समुदाय से आते हैं और पिछले कई दशकों से रोजाना इस्तेमाल होने वाली चीजें जैसे नोहखाई (सब्ज़ी और चावल ले जाने की टोकरी) और तोइलंगा (पानी की बोतलों और बर्तनों की टोकरी), लेखो (छोटी टोकरी) और बाइलेंग (चावल साफ करने का बर्तन) वगैरह बना रहे हैं।
अपनी पिछली पीढ़ियों की तरह बिआकथंग ने भी बचपन में ही बांस हस्तशिल्प (बैम्बू हैंडीक्राफ्ट) की कला सीखी थी। वे बताते हैं कि “हर ब्रू परिवार के कुछ सदस्य नोहखाई बनाना जानते थे। लेकिन इस पीढ़ी के लोग नहीं जानते कि इसे कैसे बनाया जाता है।”
रबर और प्लास्टिक से बनी चीजों ने भी ब्रू-लोगों के घरों में जगह बना ली है। बिआकथंग इसकी वजह विकल्पों की मौजूदगी और आवागमन की सुविधा को बताते हैं। साथ ही, वे यह भी जोड़ते हैं कि संरक्षण के अभाव में जंगल के संसाधनों का नष्ट होना भी एक बड़ी वजह है। वे बताते हैं कि “हमारा समुदाय पहले (हैंडीक्राफ़्ट के लिए) रायसोह, सालांग और राई जैसे वन संसाधनों का उपयोग करता था। लेकिन ये अब आसानी से नहीं मिलती हैं और अब हमारे पास पहले की तरह विशाल वन क्षेत्र भी नहीं है। हमने जंगलों को नष्ट कर दिया है और अब जिन सामग्रियों की हमें जरूरत है वे केवल गहरे जंगल में ही मिलती हैं।”
उनके अनुसार, हस्तशिल्प एक महत्वपूर्ण पारंपरिक प्रथा है, इनका खत्म होना ब्रू परंपराओं के खत्म होने जैसा है। बिआकथंग के दरवाज़े हमेशा उन लोगों के लिए खुले हैं जो यह कला सीखना चाहते हैं। वे कहते हैं, “पिछले साल मैंने अपने से बड़ी उम्र के एक व्यक्ति को (नोहखाई बनाना) सिखाया है। अगर तुम कल से सीखना चाहते हो तो मेरे घर आ जाना।” लेकिन वे समझते हैं कि परंपरा के संरक्षण में उनके व्यक्तिगत प्रयास बहुत सीमित ही हैं, इसके लिए समुदाय और सरकार को साथ आना चाहिए और मिलकर प्रयास करना चाहिए।
रोडिंगलिआन, आईडीआर में नॉर्थ-ईस्ट मीडिया फेलो 2024-25 हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं महाराष्ट्र के पुणे जिले में ‘इंडिया लेबर लाइन’ के केंद्र में काम करता हूं। यह देश के नौ राज्यों में सक्रिय, मजदूरों के लिए एक हेल्पलाइन नंबर और मदद केंद्र है। इस पर संपर्क करने वाले लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता दी जाती है।
हम पुणे शहर के उन लेबर नाकों पर भी जाते हैं जहां असंगठित मजदूर इकट्ठा होते हैं। यहां से ठेकेदार या मालिक जिन्हें मजदूरों की जरूरत होती है, वे उनसे मजदूरी तय करते हैं और काम की जगह पर ले जाते हैं। इन नाकों पर कई बार बंधुआ मजदूर भी होते हैं जिनसे हम उनकी कहानी सुनते हैं। हम इन लोगों के बीच श्रम कानून के बारे में जागरुकता बढ़ाने का काम करते हैं।
नाकों पर हम ऐसे कई बंधुआ मजदूरों से मिले है जिनके मामले कभी दर्ज ही नहीं हुए। सुरेश*, एक बंधुआ मजदूर बताते हैं, “हम जिस जगह काम करने गए थे, वहां से वापस जाने की बात करने पर या अपना फोन मांगने पर हमें मारा जाता था। हम वहां से रात में खेतों से होते हुए भागकर आए हैं।”
इस घटना को लेकर वे केस दर्ज नहीं करना चाहते हैं। उन्हें यह मालूम ही नहीं था कि इस पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है।
ऐसा ही एक केस लेबर लाइन के ज़रिए अमित पटेल* का आया। गुजरात के बड़ौदा शहर के निवासी अमित पिछले 22 सालों से महाराष्ट्र के पुणे जिले में एक रसोइए के तौर पर अलग-अलग जगहों पर काम कर रहे थे।
लगातार काम ना मिलने के कारण गरीबी से तंग आकर उन्होंने पुणे स्टेशन के पास लेबर नाके पर जाकर एक ठेकेदार से काम के लिए मदद मांगी। ठेकेदार ने उन्हें 1000 रुपये प्रति दिन की नौकरी देने का वादा किया और पुणे से 70 किमी दूर स्थित एक रेस्टोरेंट में नौकरी दिला दी।
लेकिन वहां भी समय पर वेतन नहीं मिला। आवाज़ उठाने पर मालिक ने अमित का मोबाइल जब्त कर लिया गया और उन्हें बहुत अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया।
अमित का खाना बंद कर दिया गया और उन पर निगरानी रखे जाने लगी जिसके चलते डर के कारण वे वहां से बाहर निकलने में असहाय महसूस करने लगे। उन्होंने मालिक से साफ कह दिया कि वे वहां काम नहीं करना चाहते हैं और जल्द से जल्द उन्हें मुक्त करने की मांग की। लेकिन मालिक ने उन्हें मुक्त करने से मना कर दिया। वहां दिनभर लोगों से काम करवाने के बाद रात में उन्हें कमरे में बंद कर दिया जाता था।
कुछ समय बाद मोबाइल वापस मिलने पर अमित ने अपने एक दोस्त से बात की जिसने उन्हें आजीविका ब्यूरो की इंडिया लेबर लाइन के बारे में बताया और मदद केंद्र का नंबर दिया।
बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के लिए हम जिला मजिस्ट्रेट, उप-विभागीय मजिस्ट्रेट, तहसीलदार या पुलिस स्टेशन की भी मदद ले सकते हैं। बचाए गए बंधुआ मज़दूरों को जिला मजिस्ट्रेट या उप-विभागीय मजिस्ट्रेट द्वारा बंधुआ मजदूर मुक्ति प्रमाणपत्र जारी किया जाता है। यह अपेक्षा की जाती है कि इस प्रमाणपत्र से उन्हें अपना जीवन फिर से शुरू करने के लिए आजीविका और नौकरी की सुरक्षा हासिल करने में केंद्र सरकार की योजनाओं से मदद मिलेगी।
यह जानकारी मिलने के बाद हम पुलिस अधिकारी को लेकर अमित के होटल पहुंचे, तब भी मालिक ने अमित को छोड़ने से मना कर दिया। लेकिन कानूनी धाराओं और पुलिस की चेतावनी के बाद, उसने 1000 रुपये दिन की बजाय 400 रुपये दिन की दर से भुगतान किया और उन्हें मुक्त कर दिया।
भारत में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1976 में लागू हुआ था, तब से बंधुआ मजदूरी अवैध है। फिर भी देश में बहुत सारे मजदूरों के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनकी शिकायतें कहीं दर्ज तक नहीं होती हैं।
*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिये गए हैं।
आकाश तनपुरे आजीविका ब्यूरो के साथ काम करते हैं।
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