साल 2019 में, पंजाब के संगरूर जिले में पड़ने वाले चंगाली वाला गांव की 10 भूमिहीन महिलाओं के एक समूह ने गांव की 1.5 एकड़ सामूहिक भूमि पर जैविक खेती शुरू की थी। उनका उद्देश्य रासायनिक खाद और कीटनाशकों से मुक्त फसल की पैदावार करना और बेहतर आय हासिल करना था। इनमें से नौ महिलाएं रामदासिया सिखों के दलित समुदाय से आती थीं। उन्होंने अनुसूचित जाति वाले समुदायों के लिए आरक्षित जमीन पर खेती करने का फैसला किया। इसके लिए सभी ने मिलकर पैसे जुटाए और 55,000 रुपये देकर जमीन लीज पर ले ली।
महिलाओं ने इस जमीन पर धान, फूल और सब्जियों की खेती की और इन्हें सड़क किनारे एक छोटी सी दुकान लगाकर बेचना शुरू किया। समूह की एक किसान मंजीत कौर बताती हैं कि ‘लोग हमारी सब्जियां बाजार भाव से दोगुनी कीमत पर भी खरीदकर खुश थे क्योंकि ये जैविक सब्जियां थीं।
इन महिलाओं ने सभी काम खुद संभाले जैसे, घास या सरसों की डंठल से मिट्टी की क्यारी तैयार करना, काले बेर, नींबू, और अमरूद के पत्तों को, फलों के छिलकों और मिर्च के साथ उबालकर जैविक कीटनाशक बनाना। उन्होंने फसल को कीड़ों से बचाने के लिए खट्टे मठे का पानी और नीम की पत्तियों का स्प्रे भी इस्तेमाल किया।
पहले साल में महिलाओं को जैविक खेती से लगभग 60,000 रुपये का मुनाफा हुआ। हालांकि, दूसरे साल यानी मार्च 2020 तक कोविड-19 के दौरान लगे लॉकडाउन में ग्राहकों की संख्या कम हो गई। इसके अलावा, सामूहिक भूमि की लीज राशि बढ़कर 78,000 रुपये हो गई जिससे उनकी आय पर असर पड़ा।
खेती करने में मुश्किल ना आए इसलिए महिलाओं ने अपने मुनाफे की राशि को फिर से निवेश कर दिया। इतना ही नहीं उन्हें, परिवार की आय से भी पैसे निकालने पड़े। इसके चलते पहले से सीमित साधनों पर दबाव और बढ़ गया। इस आर्थिक बोझ के कारण चार सदस्य समूह से अलग हो गईं। तीसरे साल तक, जब लीज राशि 84,000 रुपये हो गई तो दो और महिलाओं ने इस पहल से बाहर निकलने का फैसला किया। लीज की कीमतों में और बढ़ोतरी होने पर अगले साल महिलाओं को इस पहल को छोड़ना पड़ा।
किसान सिंदर कौर बताती हैं कि बढ़ती हुई लीज दरों ने जैविक खेती की मुहिम को मुश्किल कर दिया। महिलाओं का मानना है कि उन्हें ग्राम पंचायत और सरपंच से पर्याप्त समर्थन नहीं मिला। ऐसा तब हुआ जब वे एक ही समुदाय से थे और लीज दरों को स्थिर बनाए रख सकते थे।
पंजाब के ग्राम सामूहिक भूमि (विनियमन) अधिनियम, 1961 के तहत, हर गांव की एक-तिहाई कृषि योग्य भूमि अनुसूचित जाति (एससी) समुदायों के लिए आरक्षित की जाती है। स्थानीय प्रशासन हर साल अप्रैल और मई में भूमि की नीलामी करता है।
दलितों के भूमि अधिकारों के लिए काम करने वाले और जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के अध्यक्ष, मुकेश मालाौध बताते हैं कि इस कानून के तहत पंचायतों और ब्लॉक अधिकारियों को सामूहिक भूमि को अनुसूचित जाति समुदाय के लोगों को तीन साल तक लीज पर देने का अधिकार है। इसमें हर साल 10 प्रतिशत तक बढ़ोतरी की अनुमति होती है।
समिति के अनुसार, संगरूर जिले में दलित संगठनों के बड़े प्रदर्शनों के कारण गांव की सामूहिक भूमि की लीज दरों में कमी आई है। अब यहां दलितों के लिए आरक्षित भूमि की दर प्रति एकड़ औसतन 20,000-22,000 रुपये हैं जबकि बिना आरक्षित भूमि की लीज दर 65,000-70,000 रुपये प्रति एकड़ है।
लेकिन भूमि लीज पर लेने में अक्सर सामाजिक दिक्कतें भी आती हैं, खासतौर पर दलित महिलाओं के लिए यह और भी मुश्किल है। मुकेश ने कहते हैं कि, ‘गांव में महिलाओं के अपने आप आगे बढ़कर खेती करने के फैसले ने समुदाय में एक तरह से असहजता का माहौल बना दिया। ऐसा नहीं है कि गांव के लोग दलित महिलाओं के खेतों में काम करने का विरोध करते हैं, बल्कि दिक्कत ये है कि अब दलित महिलाएं भूमि मालिकों के खेतों में कम मजदूरी पर काम नहीं कर रही हैं।
संस्कृति तलवार एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो जेंडर, मानवाधिकार और सस्टेनिबिलिटी जैसे विषयों पर लिखती हैं। यह लेख 101 रिपोर्टर्स पर पहले प्रकाशित हो चुके एक लेख का संपादित अंश है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: सूखे फूलों से सफलता की खुशबू बिखेरती नागालैंड की महिला उद्यमी
अधिक करें: लेखक के काम के बारे में और अधिक जानने और उनके काम का समर्थन करने के लिए लिंक्डइन पर जुड़ें।