मैं गोलू बैगा, जमुआ गांव का रहने वाला हूं। मेरे छोटे से गांव में तकरीबन दो हज़ार लोग रहते हैं। इनमें से ज़्यादातर लोग मेरी तरह बैगा आदिवासी समुदाय से हैं। मेरी उम्र उन्नीस साल है और पिछले ग्यारह वर्षों से मेरे पैर मेरा साथ नहीं दे रहे हैं।
जब मैं आठ साल का था, तब मेरे पैरों ने अचानक काम करना बंद कर दिया था। शुरुआत में लगा कि कुछ दिनों में ठीक हो जाऊंगा। लेकिन फिर धीरे-धीरे यह अहसास हुआ कि अब शायद ज़िंदगी भर ऐसे ही रहना होगा। मेरा स्कूल जाना, दोस्तों के साथ खेलना, दौड़ना, सब एक झटके में बदल गया।
मेरे पिता बचपन में ही गुजर गए थे। उसके बाद मां भी छोड़कर चली गयी और दोनों बड़े भाई भी साथ नहीं रहे। अब घर में बस एक छोटा भाई और दादी हैं, जो मेरी पूरी दुनिया है। बुजुर्ग होने के नाते दादी काम नहीं कर सकती। लेकिन वो फिर भी हमारे लिए दिन-रात मेहनत करती हैं और बकरियां चराती हैं। इसके अलावा हमारी आमदनी का कोई ठोस जरिया नहीं है।
कुछ समय पहले मैंने दीवारें रंगने का काम शुरू किया था। लेकिन उठने-बैठने की बढ़ती दिक्कतों के चलते वह भी हाथ से छूट गया। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे ‘बेचारा’ न समझें। विकलांग होना मेरी पहचान नहीं है। यह तो बस मेरे जीवन का एक हिस्सा है। लेकिन समाज मुझे एक काबिल इंसान के रूप में नहीं, बल्कि बोझ की तरह देखता है। जब भी मैं गांव के किसी आयोजन में जाता हूं, तो लोग मुझे अजीब नजरों से देखते हैं।
हाल ही में मुझे शुभम भैया (स्थानीय पत्रकार) ने विकलांग पहचान दस्तावेज और आयुष्मान कार्ड बनवाने में काफी मदद की। उनके सहयोग के बाद ही सरकार से व्हीलचेयर भी मिली। हालांकि इसे गांव के पथरीले एवं कच्चे रास्तों पर चलाना बेहद मुश्किल है। इसे चलाने के लिए पीछे एक धकेलने वाला भी चाहिए।
मैंने विकलांग पेंशन के लिए सरपंच और पंचायत सचिव से कई बार गुहार लगायी है। कभी वेबसाईट के ठप होने तो कभी ओटीपी नहीं आने पर हमें दुबारा आने के लिए कहा जाता है। लेकिन एक विकलांग व्यक्ति के लिए बार-बार कहीं आना-जाना आसान नहीं होता है। उसे हर बार किसी को साथ चलने के लिए ढूंढना पड़ता है। हमें आश्वासन और हमदर्दी तो हर जगह खूब मिलती है, लेकिन समाधान नहीं।
मुझे किसी की दया नहीं, इज़्ज़त चाहिए। अगर कोई मेरी मदद भी करना चाहे, तो यह सोचकर करे कि मैं भी इसी समाज का हिस्सा हूं, कोई बोझ नहीं।
मेरा सपना था कि मैं पढ़ाई करूं, दुनिया घूमूं और लोगों की मदद करूं। लेकिन फिलहाल मेरी सबसे बड़ी इच्छा बस इतनी है कि मैं खड़ा हो सकूं, चल सकूं, ताकि मैं अपनी दादी का सहारा बन पाऊं। मैं चाहता हूं कि मेरे जैसे लोग इलाज के लिए किसी के मोहताज न रहें।
कानून कहता है कि विकलांग लोगों के लिए विशेष अधिकार हैं, इलाज की सुविधाएं मुफ्त होनी चाहिए, स्वरोजगार के लिए ऋण मिलना चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि मैं और मेरे जैसे कई लोग इन योजनाओं से कोसों दूर हैं। मेरी कहानी बस मेरी नहीं है। यह उन लाखों विकलांग लोगों की कहानी है, जो सिर्फ सम्मान से जीना चाहते हैं। सवाल यह है कि कब तक हमें समाज की उदासीनता झेलनी होगी और सरकारी योजनाओं के ज़मीन पर लागू होने का इंतज़ार करना पड़ेगा?
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