फ़ोटो निबंध: भारत की आदिवासी महिला नेता क्या अलग कर रही हैं?

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल आबादी का लगभग 8.6 फ़ीसद आबादी आदिवासी है। संविधान आदिवासी समुदायों को कुछ विशेष कानूनी प्रावधान प्रदान करता है। लेकिन फिर भी कई समुदाय शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और भूमि जैसे बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

आदिवासी समुदायों का, इन अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए आंदोलनों और विरोधों का, एक लंबा इतिहास रहा है, और महिलाओं ने इन संघर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन महिलाओं को अपने समुदाय के प्रतिरोध जैसी बाधाओं का भी सामना करना पड़ा है। इस फ़ोटो निबंध में हमने उन चार आदिवासी महिलाओं की उम्मीदों और सपनों के बारे में बताने का प्रयास किया है जो अपने-अपने समुदायों की मांगों और आवाज़ को बुलंद करने के लिए अथक प्रयास कर रही हैं।

आमना ख़ातून

बरगद के पेड़ के सामने खड़ी महिला-आदिवासी महिला नेता

आमना ख़ातून उत्तराखंड राज्य की एक खानाबदोश जनजाति वन्न गुज्जर समुदाय से आती हैं। वे अपने समुदाय की लड़कियों एवं महिलाओं की सशक्तिकरण के लिए काम करती हैं। उनका सपना एक ऐसे भविष्य का है जहां लड़कियां और महिलाएं अपने फ़ैसले खुद ले सकें और मर्दों द्वारा तय की गई परिभाषा से अलग हटकर अपना जीवन जी सकें। आमना महिलाओं के दृष्टिकोण से विभिन्न पारंपरिक प्रथाओं का दस्तावेजीकरण कर वन्न गुज्जर समुदाय की संस्कृति के संरक्षण में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी काम कर रही हैं। उनके अनुसार, रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों में वन्न गुज्जर महिलाओं की भूमिका का दस्तावेज़ीकरण नहीं हुआ है और न ही इस विषय पर किसी तरह की चर्चा होती है कि सदियों-पुरानी इन रीति-रिवाजों का उन पर कैसा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, उनके गांव में उनके अपने समुदाय में कुड़ी के बट्टे कुड़ी (लड़की के बदले लड़की) जैसी प्रथा है। इस प्रथा के अनुसार शादी के दौरान दो परिवारों में दुल्हनों की अदला-बदली होती है। अगर एक परिवार ने एक बेटी की शादी दूसरे से कर दी, तो वे भी अपने एक बेटे की शादी दुल्हन के परिवार की लड़की से करेंगे। लेकिन इसने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जहां दुल्हनों की किस्मत एक-दूसरे पर निर्भर थी। अगर एक दुल्हन के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता तो दूसरी दुलहन के ससुराल वाले भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करती, लेकिन अगर बात बिगड़ी तो दोनों लड़कियों को भुगतना पड़ता था। अब यह प्रथा समाप्त हो चुकी है लेकिन साथ ही इनसे जुड़ी कहानियां भी भुला दी गई हैं। आमना ऐसी परंपराओं से उभरती कहानियों को इकट्ठा करने का प्रयास कर रही हैं, जिससे कि प्रभावित महिलाओं को अपने अनुभव के बारे में बात करने का मौका मिल सके। वे चाहती हैं उनके काम का प्रभाव तीन स्तरों पर दिखे। पहला, इससे उन्हें वन्न गुज्जर समुदाय से जुड़ी विभिन्न प्रथाओं को दर्ज करने में मदद मिलेगी। दूसरा, महिलाओं की कहानियां महिलाओं की ज़ुबानी ही सामने आएंगी। और तीसरा, इससे समुदाय को इन प्रथाओं की भेदभावपूर्ण प्रकृति को सामने लाने और उन्हें बदलने या समाप्त करने में मदद मिलेगी।

जुलियाना पेड्रो फर्नांडीज सिद्दी

लाल पोशाक में एक महिला एक पेड़ के सामने खड़ी है-आदिवासी महिला नेता

जुलियाना पेड्रो फर्नांडीज सिद्दी, कर्नाटक के कारवार जिले में, जंगलों से घिरे और शहर से कटे गादगेरा नाम के एक गांव में रहती हैं। उनका संबंध सिद्दी समुदाय से है जिनके वंशज़ अफ्रीका के थे। भारत में, वे कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में बसे हुए हैं। कारवार जिले में जहां जुलियाना रहती है, 30-40 सिद्दी लोग एक बड़े समुदाय के रूप में रहते हैं। वे वही खाते हैं जो जंगल में उपलब्ध होता है या फिर खेती कर उगाते हैं। उनके गांव में ना तो बिजली है और ना ही शहर तक जाने के लिए कोई सड़क। इस समुदाय के लोगों के पास शिक्षा एवं राजनीतिक भागीदारी जैसे मौलिक अधिकार भी न के बराबर ही हैं। जुलियाना का कहना है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी का कारण लोगों के पास पहचान संबंधी दस्तावेज़ों का ना होना है। वे याद करते हुए बताती हैं कि जब वे 19 साल की थीं तब उनके गांव के सिद्दी लोगों ने उन्हें तालुक़ पंचायत का सदस्य बनने के लिए चुनाव में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन समुदाय के ज़्यादातर लोगों के पास पहचान से जुड़े दस्तावेज नहीं थे। नतीजतन उन्हें मतदान नहीं करने दिया गया और वे तीन मतों से हार गईं। जुलियाना का मानना है कि आईडी न होने के कारण भी सिद्दियों को सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभ और अन्य अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। राजनीतिक भागीदारी की महत्ता को समझते हुए जुलियाना अपने समुदाय की आवाज़ को बुलंद करने के लिए काम कर रही हैं। वे न सिर्फ़ समुदाय के लोगों को पहचान पत्र प्राप्त करने में उनकी मदद कर रही हैं बल्कि उनमें कई लोगों को स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों के लिए चुनाव लड़ने के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं। वे अपने समुदाय के लोगों को एकजुट करने के लिए पारम्परिक सिद्दी गीतों और नृत्यों का प्रयोग करती हैं। जुलियाना उन गीतों और नृत्यों का उपयोग अपने समुदाय, उनकी कहानियों और बड़े मंचों पर उनकी चुनौतियों पर ध्यान आकर्षित करने के साधन के रूप में भी कर रही है। उनका मानना है कि इससे उनके समुदाय के लोगों को ऐसे मंचों तक पहुंचने में आसानी होगी जहां तक पहुंचना उनके लिए दुर्लभ है और साथ ही इससे उनकी आवाज़ बुलंद होने में भी मदद मिलेगी।

आलिया जान

एक पेड़ के सामने टोपी, शर्ट और नीली जींस पहने एक महिला खड़ी है-आदिवासी महिला नेता

आलिया जान, कश्मीर के अनंतनाग जिले में भाजपा महिला मोर्चा की जिला अध्यक्ष हैं। वे अपने क्षेत्र और अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत आने वाले गुर्जर समुदाय, जिससे वे संबंधित हैं, के समग्र विकास पर काम कर रही हैं। हालांकि उनका प्राथमिक ध्यान शिक्षा, विशेष रूप से लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा पर है। इलाक़े में कॉलेज न होने के कारण बच्चों को पढ़ाई के लिए दूर शहर जाना पड़ता है और आमतौर पर लड़कियां पीछे छूट जाती हैं। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि ज़्यादातर माता-पिता आर्थिक रुप से उतने सशक्त नहीं होते कि अपने बच्चों को आगे पढ़ने के लिए शहर भेज सकें- उनके पास अक्सर ऑटो या बस के किराए, यूनिफ़ॉर्म और किताबों के लिए पैसे नहीं होते हैं। माता-पिता को अपनी लड़कियों को उतनी दूर भेजने में थोड़ा डर भी लगता है। इसके अलावा मौसम एक अलग बाधा है- बर्फ़बारी और कम तापमान से लम्बी यात्रा करना मुश्किल हो जाता है। आलिया की इच्छा है कि वे अपने ज़िले में ही एक कॉलेज बनवा सकें जहां बहुत कम शुल्क पर उनके ज़िले की लड़कियों को उच्च शिक्षा मिल सके। उनका मानना है कि समुदाय में अगली पीढ़ी की महिलाओं की बेहतरी के लिए शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि एक शिक्षित महिला न केवल अपने अधिकारों को लेकर जागरूक होती है बल्कि यह भी सुनिश्चित करती है कि उसकी बेटियां भी सशक्त बनें।

कल्पना चौधरी

लंबे बालों और चश्मे वाली महिला बगीचे में खड़ी है-आदिवासी महिला नेता

कल्पना चौधरी गुजरात के सूरत जिले की महुवा तहसील के कच्छल गांव में समरस ग्राम पंचायत की सरपंच हैं। इस पंचायत की सभी सदस्य महिलाएं हैं। जैसा कि इस तरह की पंचायतों में होता है, उन्हें चुनाव के बदले पंचायत सदस्यों ने निर्विरोध रूप से चुना है। कल्पना अपने गांव में सार्वजनिक विद्यालयों की स्थिति में सुधार लाने और शिक्षा को बेहतर करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रही हैं।

इसके अलावा, वे अपने गांव की 30 महिलाओं के साथ मिलकर प्रकृति केटरिंग सर्विस नाम की एक केटरिंग सर्विस भी चलाती हैं। कल्पना का कहना है कि महिलाएं रोज़ खाना पकाती हैं। और वे इस रोज़ किए जाने वाले काम को माध्यम बनाकर महिलाओं को अपने घरों से बाहर निकलने, एक दूसरे से बातचीत करने और पैसे कमाने का अवसर प्रदान करना चाहती थीं। प्रकृति के सदस्य के रूप में, महिलाएं शादियों और जन्मदिन की पार्टियों में खाना बनाती हैं, होम डिलीवरी करती हैं, और कभी-कभी कार्यक्रमों में अपना खुद का स्टॉल भी लगाती हैं। वे मुख्य रूप से पारंपरिक आदिवासी भोजन जैसे कि देखरा (हरी अरहर की पैटीज़), चोखा ना रोटला (चावल की रोटी) और पनेला (केले के पत्तों में कद्दू का पेस्ट लगाकर भाप से पकाई जाने वाली चीज़) पकाती हैं। वे प्रकृति से जो भी पैसा कमाती हैं, उसके दो हिस्से करती हैं – एक हिस्सा सभी महिलाओं में बांट दिया जाता है, बाकी आधा एक आपातकालीन कोष के रूप में अलग रखा जाता है। यदि किसी सदस्य को बहुत कम समय में पैसों की ज़रूरत पड़ती है तो वह इस कोष से पैसे ले सकता है या फिर अपने हिस्से के बदले बहुत कम ब्याज दर पर उधार ले सकता है। कल्पना ने बताया कि कैसे प्रकृति एक ऐसी सुरक्षित जगह बन गया है जहां महिलाएं एकजुट होती हैं और एक दूसरे से सीखती हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि अपने घरों से बाहर निकलकर काम करने और अपने पैसे कमाने से इन महिलाओं में आत्मविश्वास का स्तर बढ़ा है।

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समाजसेवी संस्थाओं में नेतृत्व बदलने की प्रक्रिया क्या और कैसी होनी चाहिए?

साल 1999 में मल्लिका दत्त ने ब्रेकथ्रू की अवधारणा बनाई और इसकी स्थापना की। इसके लिए सत्रह साल बाद हम स्कोल अवार्ड जीते और उसी साल मल्लिका ने संगठन के सीईओ पद से इस्तीफ़ा देने का फ़ैसला भी किया।

जब मल्लिका ने यह फ़ैसला लिया तब हम न्यूयॉर्क और दिल्ली दो जगहों पर काम कर रहे थे। एक नया सीईओ खोजने के लिए ब्रेकथ्रू के बोर्ड के सदस्यों और वरिष्ठ प्रबंधन की एक टीम गठित की गई। प्रक्रिया में हमारा मार्गदर्शन करने के लिए एक बाहरी फैसिलिटेटर को काम पर रखा गया था। हालांकि, तमाम चर्चाओं और प्रक्रियाओं के बावजूद, हम नहीं जानते थे कि नेतृत्व परिवर्तन क्या होता है और ना ही हम इससे जुड़ी अराजक स्थिति के लिए तैयार थे।

ब्रेकथ्रू की नेतृत्व संरचना में भारत और अमेरिका, दोनों ही देशों में एक-एक निदेशक होने के साथ एक अध्यक्ष और एक सीईओ भी होता है। मैं 2010 से ब्रेकथ्रू के साथ थी। पहले एक सलाहकार के रूप में और फिर 2014 से एक स्थायी कर्मचारी के तौर पर संसाधन जुटाने की इकाई स्थापित करने के लिए काम कर रही थी। इसलिए मैं संगठन की गतिशीलता और कार्यप्रणाली से परिचित थी। चूंकि दोनों ही देशों के तत्कालीन निदेशकों को सीईओ बनने में रूचि नहीं थी, इसलिए मैंने पद के लिए आवेदन करने का फैसला किया। पूरी प्रक्रिया में लगभग एक साल लग गया, और जब तक मुझे यह ज़िम्मेदारी दी गई, तब तक मल्लिका का ट्रांजिशन पीरियड खत्म हो चुका था और वे पूरी तरह से पद छोड़ चुकी थीं। हालांकि वे सवालों के जवाब देने के लिए उपलब्ध थीं, लेकिन आख़िर में मुझे इस परिवर्तन को अपने दम पर ही झेलना था।

करो या मरो वाली स्थिति थी

पदभार ग्रहण करने के बाद मुझे पता चला कि पिछले साल हमारे अमेरिकी कार्यक्रम का प्रदर्शन कुछ अच्छा नहीं था, और हम इसका विस्तार करने में सक्षम नहीं थे। इस बीच, भारत विकास के एक जरूरी मोड़ पर था। जब मैं इस स्थिति से निपटने की कोशिश में ही लगी थी कि तभी दोनों देशों के निदेशकों ने इस्तीफ़ा दे दिया। इसका सीधा अर्थ था कि मुझे एक ही समय में तीनों के काम का भार सम्भालना था। काम और संगठन की अधिक से अधिक जानकारी और अनुभव के बाद भी मैं दो स्थानों और तीन पदों को संभालने की जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं हो सकी। मैं लम्बे समय तक इम्पोस्टर सिंड्रोम की शिकार रही और कई बार इस्तीफ़ा देने के बारे में भी सोचा।

हर नेता अपने कार्यकाल में एक मिसाल कायम करता है—उनकी अपनी एक आवाज होती है और काम करने का एक तरीका होता है जिससे संगठन परिचित होता है। ब्रेकथ्रू इंडिया की पिछली कंट्री डायरेक्टर 13 साल से कंपनी के साथ जुड़ी थीं। मैं व्यवस्था में अंदर आकर उनका बनाया सब कुछ नष्ट नहीं कर सकती थी। इसलिए यह स्वाभाविक था कि मुझे ब्रेकथ्रू को अलग तरीके से सफलतापूर्वक चलाने की अपनी क्षमता पर संदेह था।

इसके अलावा, मेरा सबसे बड़ा डर भारत में वरिष्ठ प्रबंधन टीम में मेरे दोस्तों और साथियों का होना था जिनकी अब मैं बॉस बन चुकी थी। सौभाग्य से, इन सबको लेकर मुझे लंबे समय तक चिंता नहीं करनी पड़ी, क्योंकि उन सभी ने पूरे मन से मुझे अपने लीडर के रूप में स्वीकार कर लिया था। साझा नेतृत्व में मेरे विश्वास के साथ उनके रवैये ने मुझे भारत में एक सहज पदक्रम बनाने में मदद की, जिससे यह परिवर्तन कम तनावपूर्ण हो गया।

हालांकि, अमेरिका की कहानी एकदम अलग थी। वहां की कार्य संस्कृति, धन की आवश्यकताएं और बोर्ड की व्यस्तता सबकुछ पूरी तरह भारत से अलग था। भारत में फंडर्स को फंडिंग देने के लिए प्रस्तावों, रिपोर्टों और परिणामों की आवश्यकता होती है। लेकिन अमेरिका में यह अलग तरह से किया जाता है। फोन कॉल पर प्रस्तावों को फिर से नया किया जाता है और यह प्रक्रिया भारत के लिए बिल्कुल नई है। अमेरिका में बोर्ड भी बहुत गहरा शामिल था और निर्देशात्मक भूमिका निभा रहा था। यह भारतीय इकाई में बोर्ड के स्वतंत्र संबंध से बिल्कुल अलग था।

मैंने अमेरिकी कार्यक्रम के बारे में विस्तार से जानने के लिए कई महीने का समय लगाया। मैंने रिलेशनशिप बिल्डिंग, संस्कृति को समझकर काम करने और बोर्ड की इच्छाओं के बारे में जाना। दरअसल शुरू में मैंने अमेरिकी कार्यक्रम को बंद करने और इसे भारत के लिए फंडरेजिंग कार्यालय में बदलने पर विचार किया था। लेकिन बोर्ड की सोच मेरी सोच से भिन्न थी और इसलिए मैंने उनके नजरिए को समझने में समय लगाया।

पीले बोर्ड पर पिन और प्लास्टिक चिप्स-लीडरशिप एनजीओ
नेतृत्व परिवर्तन कभी सीधा या सरल नहीं होता। | चित्र साभार: रॉपिक्सेल्स

परिवर्तन को सफल बनाना

नेतृत्व परिवर्तन कभी सीधा या सरल नहीं होता। ब्रेकथ्रू में कार्यभार संभालने की प्रक्रिया से मिले अनुभव ने मुझे कुछ मूल्यवान सबक सिखाए।

1. अपने साथियों के साथ और संगठन में विश्वास बनाएं

मल्लिका साझा नेतृत्व, एक दृष्टिकोण और आचार-व्यवहार में विश्वास करती थीं और मैं भी इन चीजों को जारी रखना चाहती थी। साझा नेतृत्व संगठन में अन्य नेताओं को विशेषज्ञता के अपने क्षेत्रों में काम करने की स्वतंत्रता देकर, उन्हें उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराते हुए विश्वास की नींव रखने पर जोर देता है। यह मुश्किल हो सकता है, खासकर वरिष्ठ लोगों के लिए जो लंबे समय से संगठन के साथ हैं और जिनकी अपनी व्यक्तिगत शैली और तरीके हैं। लेकिन हमने कर दिखाया। एक-दूसरे में विश्वास पैदा करने और अपने कार्य क्षेत्रों में विश्वसनीय सहयोगियों के रूप में देखे जाने के लिए हमें सचेत प्रयास करना पड़ा जिसमें बहुत अधिक मेहनत और समय दोनों ही लगा।

अपनी तरफ से मैंने प्रत्येक वरिष्ठ सहयोगी के साथ अलग-अलग तरह से संवाद किया और उनके साथ व्यक्तिगत संबंध विकसित किया। हमने खुली संस्कृति को प्रोत्साहित करने का काम किया जहां टीम, ईमानदार प्रतिक्रिया देने में सहज महसूस करे, भले ही वह नकारात्मक ही क्यों न हो। हमने ‘दि फाइव फेल्यर्स ऑफ ए डिसफंक्शनल टीम’ नाम की एक गतिविधि भी शुरू की। साथ में, हमने अपनी मौजूदा कमियों को ढूंढा और विकास की सम्भावनाओं की पहचान की। इसमें भरोसे की कमी और जवाबदेही की पहचान मुख्य मुद्दे के रूप में सामने आए जिन्हें हमने हल करने का काम किया। मुझे सबसे पहले अपनी कमजोरियों के प्रति ईमानदार होना था, अपनी कमियों को स्वीकार करना था और सुधार के क्षेत्रों पर प्रतिक्रिया मांगनी थी ताकि मेरी टीम को मुझ पर विश्वास हो सके। इसके लिए मैंने टीम के भीतर ही एक समीक्षा व्यवस्था बना दी जहां टीम के सदस्य अपनी प्रतिक्रियाएं दे सकते थे जो सीधा बोर्ड के पास जाती थी और उसके बाद मेरे पास पहुंचती थी। इससे उन में इस बात का विश्वास पैदा हुआ कि मैं आलोचना सुनना चाहती हूं और अपनी कमियों पर काम करना चाहती हूं।

2. अपनी ताक़त और कमियों को स्वीकार करें

अपने पूर्ववर्ती से अपनी तुलना करना स्वाभाविक है। सिर्फ आप ही नहीं, पूरी संस्था और बाहरी लोग भी ऐसा करते हैं। इसलिए ऐसे समय में अपनी ताकत और कमजोरियों को पहचानना जरूरी है। मुझे पता था कि एक नेता और संस्थापक के रूप में मल्लिका ने क्या किया था। वे एक दूरदर्शी और मानव अधिकारों के लिए लड़ने वाली नेता होने के साथ ही एक बेहतरीन सार्वजनिक वक्ता भी थीं। मेरे पास विकास सेक्टर का 25 वर्षों से अधिक का अनुभव था लेकिन इस स्तर पर पहुंचने के बाद, अनुभव और विशेषज्ञता का कुछ ख़ास महत्व नहीं रह जाता है। स्थिति कुछ भी हो तुलना होती ही है। इसलिए आपसे पहले जो नेता था उसकी नक़ल करने की बजाय अपनी ताक़तों को पहचानना चाहिए और उससे काम लेना चाहिए। उदाहरण के लिए, मेरे पास सार्वजनिक तौर पर बोलने का बहुत अधिक अनुभव नहीं था, लेकिन मैं एक टीम को बेहतर तरीक़े से चला सकती हूं और अपने साथ काम कर रहे उस टीम के सदस्यों से सर्वश्रेष्ठ काम करवा सकती हूं। इससे मुझे उन क्षेत्रों की भरपाई करने में मदद मिली जिनमें मैं कमजोर थी – मैंने ऐसे लोगों को नियुक्त किया जिनसे मैं सीख सकती थी और जो उन कामों को सम्भाल सकते थे जिनके बारे में मुझे ज्ञान नहीं था।

इसी प्रकार, तकनीकी पहलू पर, मुझे रिसर्च, मॉनिटरिंग और मूल्यांकन की बहुत अच्छी समझ नहीं थी और न ही मैं संस्कृति परिवर्तन के लिए मीडिया के बारे में कुछ ख़ास जानती थी। इसके लिए भी मैंने इस क्षेत्र के विशेषज्ञों को नियुक्त किया और उनसे सीखा। इससे पूरे संगठन को उस प्रकार का ज्ञान हासिल करने में मदद मिली जिसकी कमी थी।

यदि आपको अपनी कमियों को स्वीकार करने में डर लगता है तब आप बाहरी सहायता नहीं लेंगे जो कि आगे चलकर बहुत काम आता है। इसका संबंध आपके पास पहले से मौजूद ज्ञान और उन चीजों के बीच की कमी को पाटने से भी है जिनके बारे में आप नहीं जानते हैं। उदाहरण के लिए, एक सीईओ के रूप में फंडरेजिंग मेरी मुख्य ज़िम्मेदारी है। मेरे पास संस्थागत फंड इकट्ठा करने का अनुभव था लेकिन खुदरा और सीएसआर फंडरेजिंग के बारे में मैं जरा भी नहीं जानती थी। हमने ऐसे कामों के लिए भी विशेषज्ञों की मदद ली जिन्हें करने में मैं सक्षम थी। ऐसा करने से हमने उनसे बहुत कुछ नया सीखा और नई जानकारियां हासिल कीं।

3. पहचानें कि कब कदम पीछे हटाना है

मेरी सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक ब्रेकथ्रू के यूएस और भारत संचालन को एक साथ संतुलित करना था। इनके टाइम ज़ोन्स, लोकेशन्स और संस्कृति बिल्कुल विपरीत थे। दुनिया के विपरीत किनारों पर दो पूर्णकालिक नौकरियों को संभालना, और लगातार यात्रा के साथ घर और परिवार से दूर रहना आसान नहीं है और मैं किसी और को ऐसा करने की सलाह भी नहीं देती हूं।

पीछे देखने से अब समझ में आता है कि यह सब कुछ सम्भालना कितना मुश्किल था और मैं नेतृत्व परिवर्तन का प्रयास कर रहे किसी व्यक्ति को सलाह दूंगी कि अपनी सीमाएं बनाए और कामकाज और व्यक्तिगत जीवन के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करते रहें। एक बार में ही बहुत काम करने से मौजूदा संदेह और बढ़ जाते हैं।

हालांकि हम अमेरिकी कार्यक्रम के लिए कुछ अनुदान जुटाने और इसे लागू करने में कामयाब रहे। लेकिन हमें भारत में एफसीआरए कानूनों में संशोधन के रूप में और अमेरिका में कामकाज का प्रबंधन करने के लिए सही तरह के नेतृत्व को चुनने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। अगस्त 2019 में जिस व्यक्ति को हमने कार्यक्रम का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया था उसने एक दूसरे संगठन से प्रस्ताव मिलने के कारण हमें छोड़ दिया। उस समय प्रबंधन की प्रगति कुछ समय के लिए धीमी पड़ गई। समय की कमी होने के कारण मैं अधीर होने लगी। नतीजतन मेरा ध्यान न तो अमेरिका में लग पा रहा था और न ही भारत में। इन सबके कारण मेरे अंदर अपने और अपने काम के प्रति असंतोष की भावना लगातार बढ़ रही थी। आखिरकार मैंने अमेरिका के कंट्री डायरेक्टर के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इस फ़ैसले के पीछे एक जुड़ा हुआ दूसरा कारण यह भी था कि कोविड-19 के कारण मैं अब अमेरिका की यात्रा नहीं कर सकती थी।

4. आवश्यकता पड़ने पर सहायता मांगे

परिवर्तन के दौरान मुझे विभिन्न स्रोतों से सहयोग प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। इनमें से प्रमुख तीन इस प्रकार हैं:

इस यात्रा को शुरू करने वाले लोगों को सलाह

एक सफल नेतृत्व परिवर्तन के पांच वर्षों में मैंने इस प्रक्रिया को बेहतर और सहज करने के लिए यह सीखा।

1. अपने पूर्ववर्ती को अपना मेंटॉर बनाए

पिछले नेता को कम से कम एक वर्ष तक नए नेता के लिए एक आधिकारिक और नियोजित सलाहकार के रूप में काम करना चाहिए। यह दर्शाता है कि दोनों नेताओं के पास संगठन के लिए एक समान दृष्टि और महत्वाकांक्षा है, और यह पूरे संगठन के लिए नए नेता को स्वीकार करना आसान बनाता है। इसके अलावा, इससे टीम को समायोजित होने का समय मिलता है और नेतृत्व परिवर्तन फंडर्स और अन्य बाहरी हितधारकों के सामने एक अचानक हुए परिवर्तन के रूप में सामने नहीं आता है। यह नए नेता को संगठन के तरीकों से प्रशिक्षित करने के लिए बोर्ड पर पड़ने वाले बोझ को भी कम करता है।

2. भविष्य के नेताओं को प्रशिक्षित करने की संस्कृति का निर्माण करें

यदि आप सबसे पहले संगठन के भीतर ही भावी नेता को ढूंढने का प्रयास करते हैं तो नेतृत्व परिवर्तन की प्रक्रिया सहज हो जाती है। उत्तराधिकारी को बनाने और तैयार करने की ज़िम्मेदारी हर वरिष्ठ नेता के काम का हिस्सा होना चाहिए। संगठन के भीतर ही दूसरी पंक्ति का नेतृत्व तैयार करना बहुत ही आवश्यक है और एक आदमी के चले जाने की स्थिति में काम रुकना नहीं चाहिए।

ब्रेकथ्रू में इस काम को करने के लिए 2018 में हमने उभरते हुए नेतृत्व टीम के रूप में 40 सीनियर लीडर्स का एक समूह बनाया। 40 में से हमने 10 लोगों का एक मुख्य समूह बनाया जिन्हें संगठन के लक्ष्य और दृष्टि को पाने के लिए बारी-बारी से इस पद की ज़िम्मेदारी निभानी थी। दो साल बाद 10 लोगों के एक दूसरे समूह ने इस ज़िम्मेदारी को उठाया। इस तरह हमारे पास वरिष्ठ सदस्यों का एक समूह था जो भविष्य में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिए तैयार था।

3. सुपरिभाषित लक्ष्य बनाएं

संगठन के लिए स्पष्ट लक्ष्य, एक संरचना और योजना बनाएं। हम एक साल के लिए अपने संगठनात्मक मील के पत्थर को गतिविधियों के एक सेट के माध्यम से परिभाषित करते हैं। इनमें से 80 प्रतिशत निश्चित और तय होते हैं और 20 प्रतिशत लचीले। यह अच्छी तरह से परिभाषित संरचना और लक्ष्य नए नेता की भी मदद कर सकते हैं। इससे उन्हें शुरुआत से शुरू नहीं करना पड़ता है और उन्हें मालूम होता है कि किस रास्ते पर आगे बढ़ना है।

4. अपने लिए समय निकालें

अंत में, एक ऐसे नेता के रूप में जिसने जिम्मेदारियों को जोड़ा है और जिसे बदलाव की अराजकता से जूझते हुए उम्मीदों पर खरा उतरना है, हर समय काम करने के लिए तैयार रहें। लेकिन अपने लिए भी समय निकालें। गैर-कामकाजी समय में भी ई-मेल की जांच करना और कॉल का जवाब देना हमारे सोच में शामिल है। हालांकि, यह समझना जरूरी है कि काम और जिम्मेदारियां कभी खत्म नहीं होती हैं। काम की मात्रा को पहचानने के बाद अपनी सेहत पर भी ध्यान देने की योजना बनाएं। पूरी तरह से ऊर्जाहीन हो जाने और मानसिक थकान की स्थिति भी होती है और ये कभी भी उत्पादक नहीं हो सकती।

अपने-आप को बेहतर बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित करने से आपको अपनी भूमिका को लंबे समय तक बनाए रखने में मदद मिलेगी। मेरी ही तरह की यात्रा पर जाने वाले साथियों को यही कहना है कि अपने परिवार और अपने दोस्तों से जुड़ाव रखें। इस तरह की भूमिकाओं को निभाने के लिए अपने परिवार का साथ होना बहुत आवश्यक है। ताकि वे कई-कई घंटे काम करने और छुट्टियों, पर्व-त्योहार, उत्सवों में उपस्थित न होने के कारण को समझ सकें। स्वयं को सामने आने वाले संकट, आपदा और बुरे समय के लिए ताक़त से भर लें। और अपने आत्म-विश्वास को बढ़ाए रखें क्योंकि निश्चित रूप से ऐसे मौके भी आएंगे जब आपको अपने ऊपर संदेह होगा।

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पुरुषों से महिलाओं के साथ हिंसा न करने की मांग करना भर काफी नहीं है

2016 में, वाईपी फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक के तौर पर काम करते हुए मैंने लखनऊ के एक कॉलेज में पुरुषत्व (मस्कुलिनिटी/मर्दानगी) पर एक संवाद कार्यक्रम आयोजित किया था। हमारे कार्यक्रम के पब्लिसिटी पोस्टर पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था ‘मर्दानगी क्या है?’; हम चाहते थे कि उस कॉलेज के लड़के इस सवाल का जवाब ढूंढने में हमारी मदद करें। दूसरी तरफ, लड़कों को उम्मीद थी कि हम उन्हें इसका जवाब देंगे। फ़िल्म स्क्रीनिंग और मर्दानगी और लैंगिकता पर बातचीत के बाद उन लड़कों ने कहा ‘लेकिन आपने हमें बताया नहीं कि मर्दानगी होती क्या है। फिर हम इसका प्रदर्शन कैसे कर सकते हैं?’ मैं चाहता था कि वे लड़के सोचें, सवाल करें और लिंग की धारणा को दोबारा जांचें; लेकिन वे चाहते थे कि मैं उन्हें बताऊं कि इसका बेहतर प्रदर्शन कैसे किया जाता है। यही वह चुनौती है जो भारत में पुरुषों के साथ काम कर रहे लैंगिक कार्यक्रमों के सामने आती है। 

भारत में लैंगिक कार्यक्रम एक लंबे समय से महिलाओं के खिलाफ हिंसा को कम करने के लिए पुरुषों को शामिल करते रहे हैं। इन कार्यक्रमों का दायरा ‘लैंगिक जागरुकता’ से ‘लैंगिक रूप से जवाबदेह’ बनाने तक और अब ‘लैंगिक बदलाव लाने वाला’ भी हो गया है। इन कार्यक्रमों में पुरुषों को ताकतवर और महिलाओं के साथ की जाने वाली हिंसा के अपराधियों के रूप में संबोधित किया जाता रहा है। वहीं, बाद के कार्यक्रमों में इन्हें सकारात्मक पुरुषत्व का ढांचा तैयार करने के लिए महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा से लड़ने वाले भागीदारों और सहयोगियों के रूप में देखा जाने लगा है।

यह भी है कि लैंगिक समानता से जुड़े कार्यक्रमों में शामिल होने वाले पुरुषों को इसमें किसी भी प्रकार की रुचि नहीं होती है। पुरुषों को ‘बेहतर लैंगिक व्यवहार’ सिखाने पर आधारित कार्यक्रम उबाऊ और उपदेशात्मक होते हैं और इनसे सही मायने में पुरुषों के सवालों का जवाब नहीं मिलता है। अब समय आ गया है कि पुरुषों को बदलने में लगायी जाने वाली ऊर्जा का कुछ हिस्सा, उनके लिए बनाए जाने वाले कार्यक्रमों को बदलने में लगाई जाए। लेकिन इस बदलाव के लिए यह ज़रूरी है कि लैंगिकता से जुड़े कार्यक्रमों का डिज़ाइन तैयार करने वाले लोगों में इसकी बेहतर समझ हो कि इसमें शामिल होने वाले लोग कौन हैं और उनके मुद्दे क्या हैं।

पुरुषों एवं लड़कों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है? 

कई सालों तक पुरुषों के साथ काम करने के बाद उनकी समस्या के बारे में मैंने यह समझा है:

1. लड़कों को सिखाया जाता है कि ‘हिंसा’ मर्दानगी है

अक्सर अपने परिवार, मूल्यों, समुदाय, जाति, धर्म, राष्ट्र और ऐसी ही कई चीजों की रक्षा एवं नियंत्रण के लिए पुरुषों से कहा जाता है कि ‘मर्द बन’। इसका सीधा संबंध हिंसात्मक रवैए से होता है। पुरुषों के आसपास की हर चीज़ आक्रामकता और ‘हर बात में जीतना ही है’ वाले मर्दवाद जैसी धारणाओं से प्रेरित होती है। शिक्षा, रोज़गार और कामकाज से जुड़ी प्रतिस्पर्धी व्यवस्थाएं, इस मर्दानगी को जल्द से जल्द सीखने और अपनाने पर ज़ोर देती हैं। इन कार्यक्रमों को चलाने वालों के तौर पर हम सहयोग, समुदाय और वैकल्पिक पुरुषत्व की जरूरत की बात तो करते हैं लेकिन अल्फ़ा मेल या कहें मर्द होने के कई वास्तविक फ़ायदे होते हैं। अपनी सामाजिक और सेक्शुअल मांग बनाए रखने, और इस तरह के अधिक मौके हासिल करने के लिए लकीर के फ़क़ीर की तरह व्यवहार करना, उस व्यक्तिगत संतुष्टि की तुलना में अधिक आकर्षक है जो अपने विशेषाधिकारों को छोड़ने वाला समानतावादी पुरुष बनने पर होती है। जब हम अपने कार्यक्रमों को बनाते हैं तो यह बात ध्यान में रखना बहुत जरूरी है।

2. मर्दवादी दुनिया में संवेदनशीलता के लिए जगह नहीं है

वाईपी फाउंडेशन द्वारा चलाए जा रहे एक साल के कार्यक्रम में 13 लोगों के एक छोटे से समूह में गहन अनुभव प्रक्रियाएं अपनाई गईं। लेकिन इसके बावजूद पुरुषों के लिए अपने डर और संदेह पर बातचीत करना आसान नहीं था। किसी के कुछ साझा करने की स्थिति में समूह के दूसरे लोग या तो उसका मजाक बना देते थे या फिर उससे ज़्यादा अच्छी कहानी सुना देते थे। उस कमरे में मर्दानगी की भावना इतनी प्रबल थी कि हमारी ज़्यादातर ऊर्जा उससे निपटने में ही लगी रह जाती थी और इसे परे करने में लंबा समय लगा। मर्दाना होने और मर्दानगी दिखाने पर अत्यधिक ध्यान देने के कारण लिंग और यौनिकता के दोहरे दृष्टिकोण से बाहर पहचान या इच्छाओं को समझने की प्रक्रिया के लिए बहुत कम जगह बच जाती है।

3. लैंगिक हिंसा अन्य प्रकार की हिंसा के साथ-साथ चलती है

हिंसा के संबंध पुरुष और पुरुष, पुरुष और सरकार, और पुरुष और जाति, वर्ग, या लिंग जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच देखने को मिलते हैं। वाईपी फ़ाउंडेशन द्वारा किए गए एक अध्ययन में भाग लेने वाले लोगों ने बताया कि कैसे बोर्डिंग स्कूल के अच्छे दोस्त, कॉलेज में आने पर जाति और समुदाय आधारित समूहों में बंट गए। इनमें से ज्यादातर ने जाति आधारित व्हाट्सएप ग्रुप में जोड़े जाने की बात कही।

जाति एक व्यक्ति के कामकाज, उसके एक से दूसरी जगह बसने, शारीरिक छवि, कामुकता और रोमांस को प्रभावित करती है। यह दबावपूर्ण और हिंसक होती है। ख़ासकर पुरुषों के लिए क्योंकि इस दमनकारी व्यवस्था में उन्हें संरक्षक के रूप में भी अपनी भूमिकाएं निभानी होती हैं। हिंसा से भरी इन विशाल व्यवस्थाओं को खत्म किए बग़ैर पुरुषों को महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा रोकने के लिए कहने भर से चाहे गए नतीजे नहीं मिल सकते हैं। असल में, यह व्यवस्था महिलाओं और अन्य लिंगों को किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंसा से सुरक्षित बनाने में सहयोग किए बिना ही ‘अपनी मां और बहन की रक्षा’ वाली भावना को तुष्ट करती है।

4. पुरुषों की यौन जिज्ञासा को अक्सर गलत नज़र से जाता है

यौन शिक्षा और अन्य लिंग के लोगों से संवाद न होने, और उनसे जुड़ी गलत सूचनाओं और मिथकों के प्रसार के कारण लड़कों के मन में कई सारे ऐसे सवाल होते हैं जिन्हें पूछने में उन्हें शर्म आती है। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य होता है कि लड़के सुरक्षित, जिम्मेदारी पूर्वक और दोतरफ़ा सहमति के साथ यौन संबंध बनाएं। लड़के भी अच्छा, आनंददायक यौन अनुभव चाहते हैं। वाईपी फाउंडेशन में, यौन शिक्षा कार्यक्रमों में शामिल होने वाले ग्रामीण एवं शहरी युवा अक्सर यह पूछते हैं, ‘मुझे कैसे पता चलेगा कि मेरे साथी को अच्छा लग रहा है?’ यह लड़कों के पूछने के लिए बहुत अच्छा प्रश्न है लेकिन पुरुषों को शामिल किए जाने वाले ज़्यादातार कार्यक्रमों में इस सवाल के जवाब में केवल इतना ही बताया जाता है कि ‘नहीं का मतलब नहीं होता है।’ यौन जिज्ञासाओं को स्वीकार करने और उन्हें इनके बारे में बताने के बजाय सहमति के एक संकीर्ण विचार को सिखाना एक स्वस्थ, पूर्ण और सुखी यौनिकता की सोच का अपमान है।

एक आदमी पीछे से दूसरे आदमी के कंधे पर हाथ रख रहा है-महिला हिंसा
भावनाओं और अस्वीकृति के अनुभवों पर चर्चा को प्रोत्साहित करने से पुरुषों को हिंसा का सहारा लिए बिना इन पर विचार करने का मौका मिल सकता है। | चित्र साभार: जेकब जंग / सीसी बीवाई

युवा पुरुषों की इन वास्तविकताओं को लेकर लिंग संबंधी कार्यक्रम क्या कर सकते हैं?

पुरुषों के साथ कई मुद्दों पर एक साथ काम करने का मतलब उन दबावों के बारे में बात करना है जिनका वे सामना करते हैं और साथ ही उन्हें मिले विशेषाधिकारों पर भी चर्चा करना होता है। यह पुरुषों को केवल महिलाओं के ही संबंध में नहीं बल्कि एक सम्पूर्ण, कई चीजों को साथ लेकर चलने वाले मनुष्य के रूप में देखकर उनके साथ काम करने पर जोर देता है। इस संदर्भ में, हमें अपने-आप से यह ज़रूर पूछना चाहिए कि क्या हमारे कार्यक्रम संवादात्मक हैं और उन पुरुषों की बातों को शामिल कर रहे हैं जिनके लिए उन्हें डिजाइन किया गया है। इसके लिए, कार्यक्रमों को वास्तविक दुनिया की उन स्थितियों की जानकारी रखनी होगी और उन पर बात करनी होगी जिनसे आगे चलकर पुरुषों एवं लड़कों को निपटना है। लेकिन यह साफ है कि इनमें से कुछ उन क्षेत्रों से बाहर होंगे जिनके लिए विकास सेक्टर में फंडिंग हासिल करना और जिन्हें करना प्रमुख माना जाता है। पुरुषों और लड़कों के साथ लिंग या किसी अन्य मुद्दे पर आधारित कार्यक्रम बनाते और लागू करते समय कुछ संबंधित पहलुओं को ध्यान रखा जाना चाहिए:

1. किशोरों में विश्लेषण और तार्किक विचार क्षमता का विकास करना

मीडिया और सूचना के इस दौर में जरूरी है कि हम युवाओं (विशेष रूप से लड़कों और पुरुषों के लिए) को प्रचार, गलत सूचना और नकली सूचनाओं के ढेर से प्रामाणिक और तथ्यात्मक जानकारी को अलग करना सिखाएं। गलत सूचनाओं का प्रसार हमारे दैनिक जीवन के लगभग हर पहलू को प्रभावित करता है। भारत में कोविड-19 के बारे में लगातार गलत सूचनाओं की भरमार रही है, लेकिन यह कोई अपवाद नहीं है। किसी खास समूह के लिए गलत सूचनाओं और संदेशों के ऐसे कई पैटर्न रहे हैं जो लोगों के बीच लिंगवादी, जातिवादी और सांप्रदायिक विचारों को फैलाते हैं।

ख़बर एवं ग़लत सूचना के बीच की रेखा अक्सर बहुत पतली और धुंधली होती है।

युवक अक्सर जानकार होने पर गौरव महसूस करते हैं। असली खबर एवं ग़लत जानकारी के बीच की रेखा अक्सर बहुत ही पतली और धुंधली होती है। सभी सामाजिक बदलाव कार्यक्रमों के लिए मुख्य काम लोगों में तार्किक सोच और विश्लेषण क्षमता विकसित करना होना चाहिए ताकि वे सभी पहलुओं पर गौर करने और झूठ को सच से अलग करने में सक्षम हो सकें। ‘व्यावसायिक प्रशिक्षण’ और ‘रोजगार’ के युग में, हम शिक्षा के इस महत्वपूर्ण उद्देश्य को भूल जाते हैं या इसे प्राथमिकता सूची से हटा देते हैं।

2. विविधता के साथ जुड़ाव को प्रोत्साहित करें

दुनिया के साथ समग्र और विचारशील जुड़ाव के लिए विविधता (डायवर्सिटी) की वास्तविक और अनुभव संबंधी विवेचना करना जरूरी है। मुझे एक विश्वविद्यालय परिसर की घटना याद आ रही है जहां हम युवा छात्रों के साथ काम कर रहे थे। वहां एक राजनीतिक रैली हो रही थी और हमारे कार्यक्रम में दो विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से संबंध रखने वाले प्रतिभागी थे। पुरुष प्रतिभागियों में से एक ने खुद को दो महिला सह-प्रतिभागियों से राजनीतिक स्पेक्ट्रम के विपरीत छोर पर पाया। हमने पाया कि इस प्रतिभागी ने जब अपने साथियों को महिलाओं को लैंगिक गालियां देते देखा तब उसने महिलाओं के सार्वजनिक जीवन पर लिंग के असर के बारे में सोचना शुरू कर दिया। राजनीतिक दल के अपने साथियों द्वारा बहस के दौरान बार-बार लैंगिक अपशब्दों के प्रयोग ने उसे अपने राजनीतिक जुड़ाव पर भी सवाल करने को मजबूर कर दिया। यह पहली बार था जब उसकी दोस्ती महिलाओं या किसी अन्य धार्मिक पृष्ठभूमि या राजनीतिक विचारधारा के लोगों से हुई थी। उसके अनुभव एवं वास्तविक जीवन में नए जुड़ाव से उसकी सोच बदल गई और इससे दुनिया को देखने के उसके नज़रिए का विस्तार हुआ। अक्सर इस तरह के बदलाव लाने वाले अनुभवों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है क्योंकि लिंग संबंधी गतिविधियों से इनका सीधा जुड़ाव नहीं होता है।

ज़्यादातर पुरुष विभिन्न लिंगों, जातियों और समुदायों के लोगों के साथ दोस्ती नहीं रखते हैं। खासतौर पर ऐसे पुरुष जो विशेषाधिकार प्राप्त जातियों और समुदायों के परिवारों में पले-बढ़े होते हैं। हालांकि शहरी समृद्ध परिवारों में विविध लिंग, जाति और साम्प्रदायिकता से संबंध रखने वाले लोगों के साथ दोस्ती की अनुमति होती है। लेकिन वहां भी इसकी कमी है। हमें राजनीतिक विचारों, जातियों और अन्य सामाजिक पहचानों पर सीधे तौर पर बात शुरू करने की ज़रूरत है। फिर भले ही वे हमारे संकेतकों और परिणाम रूपरेखाओं के दायरे में फिट होते हों या नहीं।

3. पुरुषों के लिंग, कामुकता और इच्छाओं को उचित ठहराएं

कामुकता और इच्छाओं के क्षेत्र में सबसे पहली जरूरत गलत जानकारी से आए अपराधबोध, अयोग्यता और भ्रम की स्थिति पर बात करने की है। किशोर लड़के और युवक आत्म-संदेह और जिज्ञासाओं से ग्रस्त होते हैं। ‘अगर वह मना करती है तो मैं बिना डरे या चिढ़े उसे कितनी बार प्रोपोज कर सकता हूं?’, ‘क्या लड़कियों को भी सेक्स में मज़ा आता है?’, ‘उसने पूछा कि क्या मैं ब्लू फ़िल्में देखता हूं। अगर मैंने हां कहा तो क्या वह मुझे एक बुरा आदमी समझेगी लेकिन अगर मैंने ना कहा तो शायद उसे लगेगा कि मैं कूल नहीं हूं।’ कार्यक्रमों को युवा पुरुषों और लड़कों को परेशान करने वाले इन वास्तविक प्रश्नों पर बात करने की आवश्यकता है।

कामुकता और रिश्तों के प्रति एक अतिसाधारण ‘नहीं का मतलब नहीं’ वाला नजरिया अपनाना, सेक्शुअल पार्टनरों के बीच एक सुरक्षित, खुश और दोनों तरफ से साफ ‘हां’ की गुंजाइश खत्म कर देता है। भावनाओं और अस्वीकृति के अनुभवों पर चर्चा को प्रोत्साहित करने से पुरुषों को हिंसा का सहारा लिए बिना इन पर विचार करने की जगह मिल सकती है। लैंगिक कार्यक्रमों को लोगों में यह कौशल विकसित करना चाहिए कि वे अपने यौन साथियों के साथ सेक्स और अपनी इच्छाओं के बारे में बिना किसी भय के बातचीत कर सकें। यह युवाओं और विशेष रूप से युवा पुरुषों के जीवन के सकारात्मक और आवश्यक पहलू के रूप में कामुकता को स्वीकार करने वाले कार्यक्रमों से शुरू होता है। इसके अलावा, इसके लिए एक सुरक्षित स्थान की आवश्यकता होती है जहां एक समानुभूति वाली मानसिकता बनाना और सीखना हमेशा सही बात कहने से अधिक जरूरी होता है।

4. विशेषाधिकार प्राप्त पुरुषों के साथ काम करें

विकास कार्यक्रम हाशिए पर और उत्पीड़ित समुदायों पर केंद्रित होते हैं। लेकिन, मर्दानगी पर काम करने के लिए प्रमुख और विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों और पृष्ठभूमि वाले पुरुषों को शामिल करना आवश्यक है। अधिकांश संस्थान इन समुदायों और पृष्ठभूमि के लड़कों में शक्ति और अधिकार की भावना को मजबूत करना जारी रखते हैं, लेकिन विशेषाधिकार छोड़ने के काम में उन लोगों को शामिल करना चाहिए जो इसका सबसे अधिक लाभ उठाते हैं। इसी बिंदु पर विकास के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों को पुरुषों द्वारा सामना किए जाने वाले दबावों की स्वीकार्यता और उनके द्वारा की जाने वाली हिंसा की जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करना चाहिए। यह कई मुद्दों को संबोधित करने वाला काम है और इसके लिए पुरुषत्व और लिंग संबंधी कार्यक्रमों को स्वयं प्रतिबद्ध होना चाहिए। यह किसी भी तरह से विचारों का एक विस्तृत समूह नहीं है। यह मेरे अनुभव और पुरुषों और लड़कों के साथ जुड़ाव और लैंगिक कार्यक्रमों पर आधारित शुरुआत है। मुझे उम्मीद है कि यह पुरुषों के साथ कार्यक्रम के बारे में सोचने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक शुरुआती बिंदु हो सकता है, विशेष रूप से उनके लिए जो मर्दानगी और लिंग संबंधी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

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समाजसेवी संस्थाएं फंडरेजिंग की रणनीति कैसे बनाएं?  

1. अपने उद्देश्य और मूल्यों से जुड़े दानदाताओं की पहचान करने के लिए शोध में निवेश करें

ज़्यादातर संगठन फंडरेजिंग के लिए शोध को उचित महत्व नहीं देते हैं। नतीजतन उन्हें दानदाताओं की एक लंबी फेहरिश्त से गुजरना पड़ता है और उनके पास सम्भावित दानदाताओं को अपने वास्तविक दाताओं में बदलने का समय भी बहुत कम होता है। फंडरेजिंग से जुड़ी रणनीति की योजना बनाते समय अपने अधिकतम संभावना वाले दाताओं की पहचान करना और दान करने के उनके उद्देश्यों को जानना बहुत जरूरी है।

100 से अधिक फाउंडेशनों के डेटाबेस वाले कैंडिड जैसे प्लेटफ़ॉर्म आपके उद्देश्य और जगह (लोकेशन) के लिए सबसे उपयुक्त दानदाताओं की पहचान करने में आपकी मदद कर सकते हैं। इसी तरह, तमुकु एक सब्सक्रिप्शन पर आधारित मंच है जो फंडरेजिंग के लिए बेहतर गुणवत्ता और प्रासंगिक जानकारी, अवसरों, साधनों, और संसाधनों की पहचान करता है, इनकी व्यवस्था करता है और उपलब्ध करवाता है। उपयुक्त साबित हो सकने वाले हाई-नेट-वर्थ इंडिविजुअल्स (एचएनआई) की पहचान करने के लिए, आप वार्षिक हुरुन इंडिया परोपकार सूची देख सकते हैं।

संस्थाओं को फ़ंडिंग देने का फ़ैसला करने वाले लोगों, फ़ंडिंग देने की उनकी प्रेरणा, आपके उद्देश्यों के साथ मेल, बदलाव की परिकल्पना और अन्य समाजसेवी संस्थाओं के साथ जुड़ने के तरीके के बारे में विस्तार से जानें। सबसे अच्छा तरीका है कि आप उन्हें विभिन्न मंचों पर सुनें, सोशल मीडिया पर उन्हें फ़ॉलो करें, उनके विचारों को बताने वाले आधारित लेख पढ़ें, और उनके द्वारा पहले से सहयोग हासिल कर चुकी समाजसेवी संस्थाओं से बात करें। फिर दाताओं की एक सूची बनाएं और ई-मेल से मीटिंग में कम से कम 50 फ़ीसदी सफलता दर का लक्ष्य रखें।

2. अपने टारगेटेड दानदाताओं से सम्पर्क करें

अपने मनचाहे दाताओं तक पहुंचने का सबसे प्रभावी तरीक़ा यह है कि आप अपने नेटवर्क के भीतर ही कोई साझा संपर्क ढूंढें। इनमें विशेष रूप से सलाहकार और/या गवर्निंग बोर्ड के वे सदस्य हों जो आपको उनसे मिलवा सकते हैं। यदि एक साझा संपर्क सूत्र नहीं है तो उन साझा हितों को ढूंढें जो उनसे बातचीत शुरू करने में आपकी मदद कर सकती हैं। आप कई ऑनलाइन मंचों पर सीनियर कॉर्पोरेट लीडर्स और युवा समाजसेवियों को ढूंढ सकते हैं और वहां उनके साथ सामाजिक मुद्दों पर सार्थक संवाद का प्रयास भी कर सकते हैं।

फंडरेजिंग ‘दोस्त-बनाना’ भी है। इसलिए अपने संभावित दाताओं को अपने हितधारकों के लिए आयोजित किए जाने वाले राउंडटेबल बैठकों, वेबिनारों, सम्मेलनों या ऐसे ही ज्ञान के आदान-प्रदान वाले कार्यक्रमों में आमंत्रित करें। उन लोगों के लिए अवसर बनाएं जो अपने समय के साथ-साथ अपना योगदान देने में भी रुचि रखते हैं।

3. कई प्रकार के दानदाताओं के साथ विविधता लाएं (एचएनआई, सीएसआर और गैरसीएसआर फाउंडेशन, रिटेल)

हालांकि इसका कोई सटीक नुस्ख़ा या आदर्श स्थिति नहीं है लेकिन किसी एक दाता से कुल खर्चों का 25 फ़ीसदी से अधिक नहीं लिया जाना चाहिए। अलग-अलग दाता विभिन्न ज़रूरतों को पूरा करते हैं। इसलिए अपने दाताओं की सूची को जितना सम्भव हो उतनी विविध बनाने की आवश्यकता है।

यदि आपके संगठन का उद्देश्य उनके फ़ोकस एरिया से मिलता हो तो सीएसआर दाताओं तक पहुंचना आसान हो सकता है।

फ़िलैन्थ्रॉपी से जुड़े फ़ाउंडेशन मध्य से लम्बी अवधि के लिए अनुदान देते हैं लेकिन संगठन को खड़ा करने के लिए विश्वसनीयता एवं लचीलापन प्रदान करते हैं। वहीं, दूसरी ओर एचएनआई छोटी से मध्य अवधि वाले अनुदान देते हैं और इनमें अधिक लचीलापन होता है। इसके अलावा, इनके द्वारा दिया गया सहयोग साल दर साल बढ़ सकता है। हालांकि एचएनआई को एक दानदाता के रूप में जोड़ना काफ़ी मुश्किल होता है क्योंकि अक्सर संगठनों के पास ऐसे व्यक्तियों के पास पहुंचने का रास्ता नहीं होता है। यदि आपके संगठन का उद्देश्य उनके फोकस एरिया के साथ मिलता हो तो सीएसआर दाताओं तक पहुंचना आसान हो सकता है। लेकिन ये छोटी-अवधि (एक से तीन साल) के लिए ही अनुदान देते हैं। इसके अलावा उनके अनुदान पूरी तरह से कार्यक्रमों के लिए ही आरक्षित होते हैं और उनका एक सीमित हिस्सा ही क्षमता निर्माण के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।

लचीले अनुदान, कार्यक्रम संबंधी अनुदान की तुलना में काफी अधिक जरूरी हैं, इसलिए खुदरा दाताओं को साथ लाना, बनाए रखना और जोड़ना भी महत्वपूर्ण है। खुदरा फ़ंडिंग में ऑनलाइन एवं ऑफ़लाइन अभियानों तथा कार्यक्रमों के माध्यम से व्यक्तिगत दाताओं से मिलने वाला दान शामिल होता है। ऐसे दान बहुत अधिक लचीले होते हैं और इससे ब्रांड की दृश्यता बेहतर होती है। खुदरा फंडरेजिंग में अधिक संसाधन लगाने पड़ सकते हैं। लेकिन बिना शर्त मिले इस धन का उपयोग कोष निर्माण, क्षमता निर्माण और अन्य प्रयोगात्मक उपक्रमों के लिए किया जा सकता है, जो सशर्त अनुदानों के साथ सम्भव नहीं है।

4. दाताओं के साथ सार्थक रूप से जुड़ें

अपने दाताओं के लिए अपने कार्यक्रमों के प्रभाव का अनुभव करने और उनका योगदान करने के अवसरों के निर्माण से आपकी साझेदारी ठोस हो सकती है और इससे वे लम्बे समय तक आपके कारण का समर्थन कर सकते हैं। प्रत्येक संगठन में उनके दाताओं को बचाकर या रोककर रखने का दर कम से कम 70–80 फ़ीसदी होना चाहिए। इससे नए दानदाताओं की नजर में भी संगठन की विश्वसनीयता बढ़ती है। लेकिन इसके लिए त्रैमासिक या वार्षिक रिपोर्ट भेजने से कुछ ज्यादा करने की ज़रूरत होती है।

दानदाताओं की ताक़त और उनकी विशेषज्ञता को पहचानने से शुरू करें और उनकी रुचि और उपलब्धता के बारे में जानें। उदाहरण के लिए अर्पण, डीआरके फाउंडेशन की संगठन के भीतर ही मौजूद विशेषज्ञता का उपयोग उनके परिवर्तन के सिद्धांत, लक्ष्य से जुड़े महत्वपूर्ण संकेतकों और प्रभाव मूल्यांकन ढांचे को बेहतर करने के लिए करता है। इससे अर्पण की टीम को अपने कार्यक्रम के प्रभावों की समीक्षा करने का नया नज़रिया मिलता है और उनके काम में दानदाताओं के विश्वास और भरोसे का स्तर बढ़ता हैं। इसी प्रकार डीआरके फाउंडेशन, अर्पण के साथ मिलकर उनके फंडरेजिंग और संचार से जुड़े कामों को बढ़ाने के लिए काम करता है। इससे अर्पण को अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए विशेष रूप से अंतर्राष्ट्रीय दानदाताओं की नजर में आने के लिए काम करने योग्य बनाता है। दूसरी ओर अंतरंग फ़ाउंडेशन अपने पूर्व छात्रों के साथ मेंटॉर या करियर कोच के रूप में जुड़ने के लिए अपने दानदाताओं की सूची से कॉर्पोरेट लीडर्स को आमंत्रित करता है। इससे दानदाताओं को सीधे छात्रों से संवाद करने और उनकी करियर से जुड़ी उम्मीदों को जानने का अवसर मिलता है। साथ ही, वे अंतरंग द्वारा प्रदान किए जाने वाले कैरियर मार्गदर्शन और परामर्श समर्थन के मूल्य को भी समझते हैं।

इसके अतिरिक्त, अपने प्रमुख दानदाताओं की पहचान करना और उन्हें महत्व देना भी उतना ही जरूरी है। ये वे लोग होते हैं जो आपके उतार-चढ़ाव के समय आपके साथ रहें और दूसरों को आपके उद्देश्य में शामिल करने और योगदान देने के उद्देश्य से हमेशा अपने नेटवर्क में आपके काम की सिफ़ारिश करते हैं। इन्होंने ही आपके संगठन की सफलता के लिए जड़ें जमाईं और दीर्घकालिक प्रभाव में निवेश किया। इन्हें अपने संगठन की रणनीति एवं विकास की योजना में शामिल करें।

रात में आसमान और एक सीढ़ी-समाजसेवी संस्था
फंडरेजिंग करने वाली एजेंसियों के साथ काम करने के बजाय घरेलू टीमों का निर्माण करना लम्बी अवधि में अधिक टिकाऊ होता है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

5. संस्था निर्माण को लेकर दाताओं को शिक्षित करें

समाजसेवी संस्थाओं के सामने बहुत सी चुनौतियां होती हैं। इनमें मानव संसाधन प्रबंधन, निगरानी और मूल्यांकन, फंडरेजिंग और संचार सहित उनके आधारभूत कामकाज तय करने के लिए धन जुटाना आम चुनौती है। वे इन ख़र्चों का वहन करने के लिए पर्याप्त धन जुटाने में विफल होते हैं और यह संगठन एवं उसके कार्यक्रमों की दीर्घकालिक स्थिरता को प्रभावित करता है।

अल्पकालिक समस्याओं के लिए मदद लेने से बचें।

पे व्हाट इट टेक्स सहयोग दानदाताओं को शिक्षित एवं प्रभावित करने के लिए काम कर रहा है। आप भी इसमें अपना योगदान दे सकते हैं। अपने दाताओं के साथ रिपोर्ट और केस स्टडी साझा करें और अपने संगठन की समान आवश्यकताओं के बारे में बातचीत शुरू करें। अल्पकालिक समस्याओं के लिए मदद लेने से बचें। इसकी बजाय क्षमता निर्माण के प्रयास के तीन से पांच साल के लिए एक रणनीति और परिचालन योजना विकसित करें और स्पष्ट सफलता मानकों के साथ इसे पेश करें। इसे शुरू करने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि आप अपने सभी ग़ैर-कार्यक्रमिक कामकाज की जरूरतों का आकलन करें और संगठन की ताक़त एवं चुनौतियों को समझें।

इस बात का संकेत देना भी लाभप्रद होगा कि आपका संगठन लागत को अवशोषित करने और दाता के जाने के बाद भी क्षमता निर्माण निवेश को बनाए रखने के लिए तैयार होगा।

6. भंडार और कोष बनाएं

एक वित्तीय रूप से लचीला संगठन बनाने के लिए आवश्यक है कि आपके पास भंडार (रिजर्व्स – छः महीने के लिए) और कोष (कॉर्पस – 12 महीने के लिए) हो जिसकी सहायता से आप विपरीत परिस्थितियों में भी अपना काम जारी रख सकें।

पहले से सुरक्षित भंडार किसी अप्रत्याशित मुश्किल दिन के लिए काम आने वाला धन है जो संगठन को अचानक लगने वाले झटकों से बचा सकता है। कॉर्पस, एक अलग से रखा आपातकालीन फंड होता है जिसे या तो अधिशेष से उठाया जा सकता है (कुल संगठनात्मक आय का 15 प्रतिशत या अधिशेष कॉर्पस को आवंटित किया जा सकता है) या दाता की लिखित सहमति के साथ दान के माध्यम से एकत्र किया जा सकता है। इस तरह के वित्तीय सहजता बनाने में वर्षों लग जाते हैं। लेकिन इस पर जल्द से जल्द काम करने की आवश्यकता होती है। आपके प्रमुख दानदाता और एचएनआई इस उद्देश्य के लिए धन उगाहने में आपकी मदद कर सकते हैं।

7. अपने लीडर्स को रणनीतिक रूप से जोड़ें और अपनी फंडरेजिंग टीम बनाएं

छोटे संगठनों में फंडरेजिंग का काम संस्थापक के ज़िम्मे होता है। इसमें उनका बहुत समय लगता है क्योंकि वे अपने संगठन के लिए डोनर बेस और दानदाताओं के साथ बेहतर संबंध बनाने की कोशिश में लगे होते हैं। हालांकि एक संगठन के परिपक्व एवं स्थिर होने के बाद, संस्थापकों को यह सलाह दी जाती है कि वे अपना 25 फ़ीसदी से अधिक समय फंडरेजिंग पर खर्च न करें। इसकी बजाय, वे संगठन की विकास रणनीति, अगली पीढ़ी की लीडरशिप और संस्कृति को विकसित करने में अपना समय लगा सकते हैं। इसलिए, फंडरेजिंग वाली एक टीम का बनाना आवश्यक है जो दाता पर शोध, आउटरीच और जुड़ाव का नेतृत्व कर सके।

ऐसी प्रतिभाओं या विशेषज्ञों को लाना आवश्यक है जो आपके मौजूदा टीम की कुशलताओं का पूरक होगा और कमियों को पूरा करेगा।

किसी वरिष्ठ संसाधन को नियुक्त करने से पहले आपको अपने संगठन की वर्तमान कुशलताओं, क्षमता और बैंडविड्थ गैप को स्पष्ट रूप से समझना चाहिए। विशेष रूप से तब जब आपका संगठन छोटे या मध्यम आकार का हो। आपको अपने संगठन की चुनौतियों की पहचान करना आवश्यक है। क्या आपको प्रस्तावों पर सोचने के लिए किसी प्रकार के सहायता की आवश्यकता है? क्या आपको मदद की ज़रूरत है? ऐसी प्रतिभाओं या विशेषज्ञों को लाना आवश्यक है जो आपके मौजूदा टीम कुशलताओं का पूरक होगा और कमियों को पूरा करेगा।

इसके अलावा, लंबी अवधि में फंडरेजिंग एजेंसियों के साथ काम करने की बजाय घरेलू टीमों का निर्माण करना अधिक स्थाई तरीक़ा होता है। आईएलएसएस फंडरेजिंग प्रोग्राम जैसे कोर्स टीम के उन सदस्यों को फायदा पहुंचा सकते हैं जिनके लिए फंडरेजिंग का काम नया है या फिर वे कॉर्पोरेट क्षेत्र से निकल चुके हैं। उन्हें सही टूलकिट और मेंटरशिप प्रदान करना और उन्हें सफलता के लिए स्थापित करना महत्वपूर्ण है। एटीई चंद्रा फ़ाउंडेशन के पोर्टफ़ोलियो संगठनों के लगभग 10 करोड़ रुपये के औसत बजट के हालिया विश्लेषण में, हमने देखा कि संगठन के कुल व्यय का लगभग 3 फ़ीसदी ही फंडरेजिंग में इस्तेमाल किया जाता है और यह निवेश के दो से तीन वर्षों के भीतर खुद के लिए भुगतान करना शुरू कर देता है। यदि आप खुदरा उपस्थिति बनाने में निवेश करते हैं तो यह लागत बढ़ सकती है।

8. अपने बोर्ड को सार्थक रूप से जोड़ें

अधिकतर संगठनों में बोर्ड के सदस्य ऐसे संसाधन होते हैं जिनका कम ही इस्तेमाल हो पाता है। इसलिए अपने वर्तमान बोर्ड की प्रभावशीलता को समझने के लिए एक बोर्ड गवर्नन्स मूल्यांकन करें। अपने बोर्ड को सार्थक रूप से जोड़ने के लिए एक भूमिका और जवाबदेही प्रणाली बनाएं और यह सुनिश्चित करने के लिए रोटेशन की संस्कृति विकसित करें कि ऐसे नए विचार और नए लोग जुड़ रहे हैं जिनका लाभ संगठन को मिल सकता है। यह बोर्ड के सदस्य को एक निश्चित कार्यकाल तक (पांच वर्ष से कम) जोड़े रखकर प्राप्त किया जा सकता है।

बोर्ड के ऐसे सदस्यों की पहचान करें जो आपके लिए फंडरेजिंग चैम्पियन बन सकते हैं और फंडरेजिंग की इस यात्रा में उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे स्पष्ट लक्ष्य होने चाहिए जिनमें उन्हें सक्रिय रूप से शामिल करने की आवश्यकता हो और केवल सलाह देने तक उनकी भूमिका को सीमित नहीं किया जाना चाहिए। आप अपनी मौजूदा संरचना की समीक्षा करने में सहायता के लिए आत्मा जैसे संगठनों को शामिल कर सकते हैं या बोर्ड के नए सदस्यों को लाने के लिए आईएलएसएस या आईएसडीएम द्वारा प्रस्तावित बोर्ड प्रशासन कार्यक्रम में शामिल हो सकते हैं।

9. आंतरिक सफलता सूचकांक का निर्माण करें

एक बार जब आप ऊपर दिए गए कुछ अभ्यासों को अमल में लाना शुरू कर देते हैं, तो आप सफलता को कैसे मापते हैं? फंडरेजिंग के प्रयास में शामिल हर व्यक्ति को जवाबदेह बनाए रखने के लिए कुछ महत्वपूर्ण संकेतकों पर नज़र बनाए रखने की सलाह दी जाती है। डोनर कन्वर्ज़न दर, जुड़ाव दर, रिटेंशन दर, फंडिंग विविधता (सीएसआर, एचएनआई आदि से फंडिंग का प्रतिशत), कुल वार्षिक व्यय के प्रतिशत के रूप में आरक्षित भंडार एवं कोष, और फंडरेजिंग में संस्थापकों द्वारा लगाये गये समय जैसे सरल आंकडों से शुरूआत करें। इन चीजों के सही तरीक़े से चलने से आपको अपनी क्षमता एवं प्रभावशीलता पर नज़र बनाए रखने में मदद मिलेगी।

फंडरेजिंग विशेष रूप से एक चुनौतीपूर्ण लेकिन लाभ पहुंचाने वाला काम है। इसमें निवेश पर उच्चतम रिटर्न हासिल करने की क्षमता है। किसी संगठन की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए फंडरेजिंग टीम को अनुसंधान, संचार, नेटवर्किंग और संबंध निर्माण प्रति उत्साहित होना चाहिए। प्रत्येक संगठन के परिपक्व होने का अपना समय होता है। इसलिए अपनी ताक़त एवं चुनौतियों के आधार पर आपको यह तय करना होता है कि कौन सी चीज़ आपके लिए सबसे अच्छी है। इसे शुरू करने का सबसे अच्छा तरीक़ा ब्रिजस्पैन द्वारा प्रदान की गई पद्धति का उपयोग करके अपने फंडिंग मॉडल का आकलन करना है। इसके बाद आप अगले वर्ष के लिए धन उगाहने की योजना इस तरह से बना सकते हैं जो आपके संसाधनों का प्रभावी ढंग से लाभ उठा सके।

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मनरेगा के बारे में वह सबकुछ जो आपको जानना चाहिए

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा), 2005 में भारत की संसद द्वारा पारित किया गया था। 2 फरवरी, 2006 को यह ‘रोजगार के अधिकार’ की गारंटी देने वाले एक सामाजिक और कानूनी कदम के तौर पर लागू हुआ। साल 2009 में, इसका नाम बदलकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट (मनरेगा) कर दिया गया। यह क़ानून अकुशल शारीरिक श्रम करने वाले लोगों को हर वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी देता है। इस अधिनियम की जड़ें महाराष्ट्र रोजगार गारंटी योजना (एमईजीएस), 1972 में हैं। इसमें सबसे पहले काम के अधिकार को मान्यता दी गई थी और इसी की सफलता ने मनरेगा का मार्ग प्रशस्त किया।

मनरेगा एक मांग आधारित कार्यक्रम है जिसकी परिकल्पना भारत के आर्थिक रूप से सबसे कमजोर परिवारों को आजीविका सुरक्षा देने के लिए की गई है। नागरिकों को केंद्र में रखते हुए, सरकारी प्रशासन के सबसे निचले स्तर से शुरूआत करते हुए इस योजना का नियोजन किया जाता है।

मनरेगा कैसे काम करता है?

पंचायती राज संस्थान (पीआरआई) इस अधिनियम के प्रावधानों की योजना बनाने और उन्हें लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह जमीनी स्तर पर विकेंद्रीकरण और निर्णय लेने के महत्व को दिखाता है। काम की प्रकृति एवं चुनाव का निर्धारण, सार्वजनिक रूप से ग्राम सभाओं में नागरिकों के परामर्श से किया जाता है और इसके बाद ग्राम पंचायत इसकी पुष्टि करती है। जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है और राज्य सरकारों के लिए धन के उपयोग की समीक्षा के लिए भी सोशल ऑडिट करना अनिवार्य है।

काम का आवंटन किसी बिचौलिए के बिना, सीधे सरकार द्वारा किया जाता है और इसमें अकुशल श्रमिकों को वरीयता दी जाती है। उन्हें गांव के पांच किलोमीटर के दायरे के भीतर ही काम दिया जाता है। यह अधिनियम चार मुख्य श्रेणियों के तहत वर्गीकृत 260 से अधिक परियोजनाओं की अनुमति देता है: ‘प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन से संबंधित सार्वजनिक कार्य’, ‘कमजोर वर्गों के लिए व्यक्तिगत संपत्ति’, ‘दीनदयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डीएवाई-एनआरएलएम) के लिए सामान्य बुनियादी ढांचा – अनुपालक स्वयं सहायता समूह’, और ‘ग्रामीण आधारभूत संरचना’।

मनरेगा के तहत काम के लिए आवेदन करने के इच्छुक परिवारों के लिए ग्राम पंचायत प्रमुख सहयोगी है। एक गैर-पंजीकृत परिवार को सबसे पहले अपनी ग्राम पंचायत के माध्यम से रोज़गार कार्ड के लिए आवेदन करना होता है। एक बार उनके दस्तावेजों का सत्यापन और उनकी पात्रता की पुष्टि हो जाने पर उन्हें रोज़गार कार्ड जारी कर दिया जाता है। इसके बाद उन्हें रोजगार के लिए एक आवेदन पत्र जमा करना होता है। आवेदन के 15 दिनों के भीतर काम और काम पूरा होने के 15 दिनों के भीतर मजदूरी देना ग्राम पंचायत की जिम्मेदारी है।

मनरेगा की फंडिंग कौन करता है?

केंद्र सरकार अकुशल शारीरिक कार्य करने वाले मजदूरों के लिए 100 फीसदी फंडिंग प्रदान करती है, और सामग्री लागत के कुल खर्च का 75 फीसदी वहन करती है। सामग्री लागत का पच्चीस फीसदी खर्च राज्य सरकारें उठाती हैं।

मनरेगा के लिए धन की उपलब्धता अनियमित रही है। वित्तवर्ष 2008-09 और वित्तवर्ष 2009-10 के बीच इससे जुड़े कोष में लगभग 25 फीसदी की वृद्धि हुई थी, लेकिन वित्तवर्ष 2011-12 के बाद इसमें तेजी से गिरावट आई। वित्तवर्ष 2014-15 से वित्तवर्ष 2019-20 तक फंड में लगातार वृद्धि हुई, लेकिन वित्तवर्ष 2020-21 में फिर से गिरावट आई है। पिछले कुछ वर्षों में, राज्यों द्वारा उपलब्ध धनराशि से अधिक, लंबित देनदारियों (संचित भुगतान) की राशि या किए गए व्यय में वृद्धि हो रही है। मजदूरी और सामग्री लागत दोनों के भुगतान में देरी के चलते ये देनदारियां इकट्ठा हो गई हैं और केंद्र सरकार द्वारा इसका भुगतान किया जाना है। मनरेगा के लिए उपलब्ध धन, खर्चों को पूरा करने में विफल रहा है और लगातार वित्तीय वर्ष के ख़त्म होने से पहले खत्म होता रहा है। पिछली योजनाएं अधूरी छूट जाने के बाद भी आगे लागू की जाने वाली नई परियोजनाओं को लगातार जोड़ा जाता रहा है। इससे धन का उचित उपयोग नहीं हो पाता है।

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graph depicting the gap between employment demanded and employment provided under mgnrega

वित्तवर्ष 2020-21 और 2021-22 के लिए मनरेगा बजट का विस्तृत सांख्यिकीय विश्लेषण यहां देखें। सरकारी भुगतान प्रणालियों की समस्याओं के कारण होने वाले विलम्ब के बारे में भी विस्तार से जानें

महामारी के दौरान मनरेगा की भूमिका कैसी रही?

अकुशल श्रमिकों के लिए कोविड-19 की शुरुआत एक बड़ी चुनौती थी। भारत में लगभग 139 मिलियन घरेलू प्रवासी श्रमिक हैं, और उनमें से अधिकांश दिहाड़ी मजदूर हैं।

दिहाड़ी कमाने का संघर्ष, असंगठित रोज़गार, और वित्तीय सुरक्षा की कमी जैसे मुद्दे देश में घरेलू श्रमिकों के सामने लगातार रहने वाले मुद्दे हैं। महामारी के दौरान ये समस्याएं और अधिक बढ़ गईं क्योंकि लॉकडाउन के कारण हर जगह निर्माण-कार्य ठप हो गया था। इसलिए काम की कमी के कारण अपने गांव वापस लौटने वाले श्रमिकों की संख्या बहुत बढ़ गई।

इस संकट के दौरान, रोजगार के स्रोत के रूप में मनरेगा की क्षमता को पहचानते हुए, भारत सरकार ने अपने आत्मनिर्भर भारत प्रोत्साहन पैकेज के तहत इसके लिए अतिरिक्त 40,000 करोड़ रुपये आवंटित किए। इससे योजना का कुल बजट एक लाख करोड़ रुपए हो गया जो वित्तीय वर्ष 2020–21 के लिए भारत के जीडीपी का 0.48 फीसदी था। इसके बाद मज़दूरी को औसतन 182 रुपए प्रतिदिन से बढ़ाकर 202 रुपए प्रतिदिन कर दिया गया। हालांकि विश्व बैंक के अर्थशास्त्री सामान्य दिनों में जीडीपी के 1.7 फीसदी के बराबर मज़दूरी दिए जाने की सिफारिश करते हैं।

अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पाया गया है कि 2020-21 के दौरान, मनरेगा के तहत काम करने के इच्छुक सभी रोज़गार कार्ड धारक परिवारों में से लगभग 39 फीसदी परिवारों को एक भी दिन का काम नहीं मिला। जिन परिवारों को दोनों अवधियों (कोविड-19 से पहले और कोविड-19 के दौरान) में काम मिला, उनकी आय को हुए नुकसान की 20 से 80 फ़ीसदी भरपाई मनरेगा से हो सकी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मनरेगा ने सबसे कमजोर परिवारों को आय के भारी नुकसान से बचाते हुए एक उल्लेखनीय भूमिका निभाई है।

महामारी के दौरान मनरेगा तक प्रवासी श्रमिकों की पहुंच के बारे में विस्तार से यहां पढ़ें। कोविड-19 के दौरान मनरेगा के प्रदर्शन के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

पुरुष गाड़ी पर ईंटें लाद रहे हैं-मनरेगा
हालांकि यह अधिनियम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है, लेकिन काम मिलने का राष्ट्रीय औसत हमेशा 50 दिनों से नीचे ही रहा है। | चित्र साभार: ब्रिक किल्न/सीसी बीवाई

मनरेगा को लेकर भारत के राज्यों का प्रदर्शन कैसा है?

मनरेगा को पूरे देश में लागू किया गया है और विभिन्न राज्यों में इसका प्रदर्शन अलग-अलग है। ऐसे असमान नतीजों के ठोस कारण को जानने के लिए कई शोध एवं अध्ययन किए गए लेकिन कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल सका है। काम के लिए उच्च मांग उत्पन्न करने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा सरकार के वे प्रयास भी होते हैं जो वह अपने नागरिकों को सूचित करने और जुटाने के लिए करती है। आर्थिक, संगठनात्मक और मानव संसाधन के मामलों में अधिक क्षमता रखने वाले राज्य के पास अपने नागरिकों को योजनाओं से अवगत करवाने और उसे बेहतर तरीके से लागू करने के अच्छे अवसर उपलब्ध होते हैं।

हालांकि यह अधिनियम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है, लेकिन काम मिलने का राष्ट्रीय औसत हमेशा 50 दिनों से नीचे ही रहा है। बड़े राज्यों में, वित्तीय वर्ष 2020-21 में 18 दिनों के रोजगार के साथ छत्तीसगढ़ और जम्मू-कश्मीर में प्रति पंजीकृत व्यक्ति को सबसे अधिक औसत रोज़गार प्रदान किया गया। यह संख्या उत्तरपूर्वी राज्यों में अधिक है जहां मिज़ोरम में वित्तीय वर्ष 2020-21 में प्रति पंजीकृत व्यक्ति को 86 दिनों का एवं उसी वर्ष नागालैंड में 24 दिनों का रोज़गार दिया गया है।

वित्त-वर्ष 2020-21 में छत्तीसगढ़ में 14 फीसदी परिवारों को 100 दिनों का रोज़गार मिला है जो अधिकतम है। उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा चार फीसदी रहा है जबकि बिहार में केवल 0.17 फीसदी लोगों को वित्तीय वर्ष 2020–21 में 100 दिनों का रोज़गार मिल सका।

राजस्थान पर्सन-डेज़ की संख्या के मामले में शीर्ष प्रदर्शन करने वाला राज्य रहा है और 2022 में इसने एक शहरी नौकरी गारंटी योजना की शुरूआत की। महामारी के बाद से रोज़गार सृजन की आवश्यकता पर अधिक ध्यान देने के प्रयास के चलते तमिलनाडु, ओडिशाहिमाचल प्रदेश और झारखंड ने भी शहरी वेतन रोज़गार कार्यक्रम शुरू किए हैं।

मनरेगा कार्य के लिए उच्चतम दैनिक मजदूरी हरियाणा, गोवा और केरल राज्यों में भुगतान की जाती है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में मनरेगा के प्रदर्शन के बारे में विस्तार से पढ़ें।

क्या मनरेगा से महिलाओं को लाभ होता है?

अधिनियम के अनुसार, महिलाओं को इस तरह प्राथमिकता दी जाती है कि कम से कम एक तिहाई लाभार्थी महिलाएं हों। इन महिलाओं के लिए पंजीकरण और काम के लिए आवेदन करना जरूरी है। कामकाज में महिलाओं की भागीदारी की संभावना पर प्रवास, घर में काम करने वाले पुरुषों की संख्या, उच्चतम शिक्षा स्तर का नकारात्मक असर पड़ता है, और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सामाजिक समूहों और 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या से सकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।

आंकड़ों से पता चलता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के पास काम के दिनों का प्रतिशत लगातार अधिक है। 2015-16 और 2021-22 के बीच यह लगातार 53 फीसदी से अधिक देखा गया है। कुछ वर्षों में इसने 56 फीसदी के आंकड़े को भी पार किया है। कोविड-19 के बाद वर्ष 2020–21 एवं 2021–22 में महिलाओं की भागीदारी गिरकर 54.54 फीसदी हो गई जिससे ग्रामीण श्रमिक बाज़ार में आयी कमी का पता चलता है।

उत्तर प्रदेश में 2017 तक मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी की दर सबसे कम थी। लेकिन महिलाओं की भागीदारी और महिला साथियों (कार्यस्थल पर्यवेक्षकों) को प्रशिक्षण देने में लगातार वृद्धि हो रही है। मार्च 2021 में, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने योजना में सक्रिय हितधारकों के रूप में महिलाओं की बेहतर भागीदारी के लिए मनरेगा के तहत, महिला साथी कार्यक्रम की घोषणा की ताकि कार्यस्थल पर उनकी भूमिका केवल श्रमिक की भूमिका तक ही सीमित न रहे। 

अनुभव बताते हैं महिला साथियों ने अधिक पारदर्शिता लाने का काम किया है। 2020 में, मनरेगा के तहत महिलाओं को काम देने वाले राज्यों में केरल (91.41 फीसदी), पुडुचेरी (87.04 फीसदी) और तमिलनाडु (84.88 फीसदी ) शीर्ष स्थान पर रहे।

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क्या मनरेगा अब भी प्रासंगिक है?

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सुरक्षा तंत्र के रूप में मनरेगा ने उल्लेखनीय प्रदर्शन किया है। अधिनियम के लागू होने के बाद से, इसे मुद्रास्फीति के लिए समायोजित किए जाने के बाद भी कम मजदूरी दर, अपर्याप्त बजट आवंटन, नियमित भुगतान में देरी, श्रमिकों को दंडित करना, बैंकों के अधिकार सीमित किया जाना, दोषपूर्ण आंकड़े, निष्क्रिय आधारकार्ड और बेरोजगारी भत्ते का भुगतान न करने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा है। इसकी स्थापना के बाद से ही गंभीर आलोचनाओं और कार्यान्वयन और प्रभाव को लेकर मिले मिश्रित परिणामों के बावजूद, मनरेगा भारत में सबसे कमजोर लोगों के लिए एक सुरक्षा तंत्र के रूप में आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।

अधिनियम की प्रासंगिकता का विस्तृत विश्लेषण और अधिक प्रभाव पैदा करने के लिए इसमें लाए जाने वाले सुधार के बारे में विस्तार से यहां पढ़ें

ग्रामीण विकास और पंचायती राज की स्थायी समिति ने फरवरी, 2022 में अधिनियम का गंभीर विश्लेषण किया और कुछ समाधान सुझाए। इनमें कहा गया है कि कोविड-19 के मद्देनजर चुनौतियों का सामना करने के लिए इस योजना को नया रूप दिया जाना चाहिए, योजना के तहत काम के गारंटीशुदा दिनों को 100 दिनों से बढ़ाकर 150 दिन कर दिया जाना चाहिए और सभी राज्यों में समान मजदूरी दर लागू की जानी चाहिए।

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आशा कार्यकर्ता: जब अनिवार्य हैं तो औपचारिक क्यों नहीं?

ज़्यादातर विकासशील देशों की तरह भारत में भी लगातार अनौपचारिक रोज़गार की स्थिति बनी हुई है। इन रोज़गारों को क़ानून द्वारा पर्याप्त रूप से पंजीकृत, विनियमित या संरक्षित नहीं किए गए कामकाज की तरह देखा और परिभाषित किया जाता है। इसमें रोज़गार व्यवस्थाओं के अलग-अलग प्रकार शामिल हैं जिनमें दैनिक वेतनभोगी जैसे कि कृषि श्रमिक, अपना कामकाज करने वाले लोग जैसे फेरीवाले, और यहां तक ​​कि संविदा पर काम करने वाले श्रमिक भी शामिल हैं।

ऐसा अनुमान है कि भारत में 90 फ़ीसदी से अधिक रोज़गार अनौपचारिक की श्रेणी में आता है। श्रम बल में शामिल होने वाले लोगों की संख्या इस दशक में बढ़ने वाली है और अगर यही स्थिति बनी रही तो ये लोग अनौपचारिक रोज़गार के क्षेत्र में ही जाएंगे। यह गम्भीर चिंता का विषय है क्योंकि अनौपचारिक श्रमिकों को पर्याप्त कानूनी सुरक्षा के बिना और कई अनिश्चितताओं-असुरक्षाओं के साथ काम करना पड़ता है। जैसे कि मजदूरी भुगतान में शोषण, जोख़िम वाली परिस्थितियों में काम करना, सीमित सामाजिक सुरक्षा आदि। स्वाभाविक रूप से, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) जैसी एजेंसियों द्वारा नीतिगत प्रतिक्रियाओं और बहुपक्षीय कार्रवाई दोनों में अनौपचारिकता को कम करने पर ध्यान दिया जाता है।

अनौपचारिक सेक्टर की कमियां और अनिश्चितता, औपचारिक क्षेत्र में रोजगार के कई रूपों में भी देखने को मिलती हैं। इनमें कई ऐसे प्रमुख सरकारी कार्यक्रम भी शामिल हैं जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं काम करती हैं। इसका एक उदाहरण मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा) का है।

आशा कार्यकर्ताओं के ‘अनौपचारिक’ कामकाज को समझना

आशा कार्यकर्ता, महिला सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मचारी (सीएचडबल्यू) हैं जो ज़मीनी समुदायों और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बीच पहले- और कभी-कभी एकमात्र- सम्पर्क सूत्र के तौर पर काम करती हैं। समुदाय से ही आई हुई ये कार्यकर्ता जागरूकता लाने, स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच को सुविधाजनक बनाने और मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य को बढ़ावा देने जैसे कामों को करने के लिए प्रशिक्षित की जाती हैं। इन कामों में अक्सर, महामारी जैसे संकट की अवधि में या विशिष्ट स्वास्थ्य योजनाएं लागू करने की सूरत में अतिरिक्त ज़िम्मेदारियां जुड़ जाती हैं। उदाहरण के लिए, आशा कार्यकर्ता केंद्र सरकार के एनीमिया मुक्त भारत कार्यक्रम के तहत दवाइयों (टैब्लेट) के वितरण में शामिल हैं। राज्य स्तर पर होने वाले कार्यक्रमों में भी ये शामिल होती हैं। उदाहरण के लिए तेलंगाना का केसीआर किट योजना, जिसमें आशा कार्यकर्ताओं की मदद लेकर गर्भवती महिलाओं को किट वितरित किया जाता है।

कईकई घंटे काम करने के बावजूद भी आशा कार्यकर्ताओं का वेतन बहुत कम होता है।

आशा सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का एक अपरिहार्य हिस्सा हो गई हैं और इन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) का ग्लोबल हेल्थ लीडर्स अवार्ड भी जीता है। इसके बावजूद नियमित कर्मचारी के रूप में उनकी स्थिति विवादास्पद है। हालांकि सरकार की सांख्यिकीय शाखाओं द्वारा इन्हें श्रमिकों के रूप में गिना जाता है लेकिन व्यवहार में उन्हें नियमित कामगारों के बराबर नहीं माना जाता है। इसके बदले आशा कार्यकर्ताओं की नियुक्ति को रोज़गार के गैर-मानक श्रेणी में रखा जाता है। गैर-मानक रोज़गार के कई रूप हो सकते हैं जैसे आउटसोर्स, संविदात्मक, दैनिक वेतन, या स्वयंसेवी कार्य, और आशा कार्यकर्ताओं का काम इनमें से अंतिम श्रेणी में आता है। इसके कारण, अनौपचारिक श्रमिकों की तरह आशा कार्यकर्ताओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इनमें से कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:

1. काम के घंटे

आशा कार्यकर्ताओं को अंशकालिक (पार्ट-टाइम) कार्यकर्ता के रूप में देखा गया था जिन्हें दिन में केवल चार से पांच घंटे काम करना होता है। हालांकि ग्रामीण इलाक़ों में एक आशा कार्यकर्ता लगभग 1,000 लोगों की ज़िम्मेदारी सम्भालती है, जबकि यह आंकड़ा शहरी इलाक़ों में 2,500 का है। इस विशाल जनसंख्या की सेवा के लिए बहुत अधिक समय की आवश्यकता है। बीते कुछ सालो में, इन्हें दिए कामों, समुदाय के प्रति देखभाल कर्तव्यों, रिकॉर्ड रखने की ज़रूरतों, और विशेष रूप से, महामारी जैसी आपात स्थितियों के दौरान अतिरिक्त जिम्मेदारियों का मतलब है कि आशा कार्यकर्ता काम के तय घंटों की बजाय लगातार घंटों काम करती रहती हैं।

2. वेतन

कर्नाटक में एक सहायक नर्स/मिडवाइफ के लिए न्यूनतम वेतन 12,580 रुपये से लेकर 13,540 रुपये प्रति माह है। जबकि हिमाचल प्रदेश में एक अर्ध-कुशल स्वास्थ्य कार्यकर्ता का न्यूनतम वेतन 10,175 रुपये से 11,100 रुपये प्रति माह है। लेकिन आशा कार्यकर्ताओं की स्थिति ऐसी नहीं है जिन्हें पार्ट-टाइम स्वयंसेवकों के रूप में देखा जाता है और जिन्हें वेतन नहीं बल्कि प्रदर्शन-आधारित प्रोत्साहन राशि के साथ कुछ मानदेय दिया जाता है। मानदेय की यह राशि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। मीडिया रिपोर्टें बताती हैं कि आमतौर पर यह राशि कुछ हज़ार रुपए से अधिक की नहीं होती है। इसके अलावा कुछ हज़ार रुपए और प्रदर्शन-आधारित प्रोत्साहन के रूप में भी दिए जाते हैं। इसलिए काम के लम्बे घंटों के बावजूद भी आशा कार्यकर्ता बहुत कम कमाती हैं और उन्हें अपने ओवरटाइम के लिए भी किसी प्रकार का भुगतान नहीं मिलता है।

आशा कार्यकर्ताएं जमीनी समुदायों और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बीच संपर्क के पहले बिंदु के रूप में काम करती हैं। | चित्र साभार: पब्लिक सर्विस इंटरनैशनल / सीसी बीवाय

3. काम करने की स्थिति

बुनियादी अधिकारों को लागू करने के लिए विरोध प्रदर्शन का सहारा लेने, व्यावसायिक सुरक्षा और काम करने की स्थिति की बात आने पर आशा कार्यकर्ताओंं को बार-बार नीचा दिखाया गया है। उदाहरण के लिए, महामारी के दौरान, ‘कोविड योद्धा’ नाम दिए जाने के बावजूद, उन्हें व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों के लिए लड़ना पड़ा। यह केवल महामारी के कारण सामने आनी वाली तार्किक चुनौतियों को नहीं दिखाता है, बल्कि बड़े पैमाने पर मौजूद अव्यवस्था का संकेत है। महामारी से पहले भी, आशा ने परिवहन विकल्पों या भत्तों के प्रावधान के लिए (काफी हद तक अधूरी रह गई) मांगों को उठाया था। यह स्थिति तब है जब वे फ़ील्ड-वर्कर हैं और उन्हें विषम समय में और संभावित असुरक्षित वातावरण में मरीजों को देखना पड़ता है।

4. सामाजिक सुरक्षा

आशा कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) और कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ़) योजनाओं के प्रावधानों के अंतर्गत नहीं आती हैं, संगठनों द्वारा इनकी मांग उठाई गई है। ई-श्रम कार्यक्रम में उन्हें शामिल किया जाना शायद उनकी अनौपचारिकता को सबसे अच्छी तरह से दिखाता है, जिसकी शुरुआत विशेष रूप से असंगठित श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान के लिए एक डेटाबेस बनाने के लिए की गई है। हालांकि इसके द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा स्वागतयोग्य है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का अभिन्न अंग होने के बावजूद आशा कार्यकर्ताओं को असंगठित कामगार माना जाता है। इसी तरह, 2018 में, केंद्र सरकार ने आशा लाभ पैकेज पारित किया, जिसने दो योजनाओं के तहत योग्य आशा कार्यकर्ता को सामाजिक बीमा की सुविधा दी। हालांकि, ये सार्वजनिक बीमा योजनाएं हैं जो नागरिकों के लिए बहुत ही मामूली प्रीमियम पर उपलब्ध हैं। इसमें आशा के लिए एकमात्र लाभ यह है कि प्रीमियम सरकार द्वारा वहन किया जाता है। यह आशा कार्यकर्ताओं द्वारा की जाने वाली मांगों के पूरा होने से कोसों दूर है। आशा कार्यकर्ताओं के लिए सामाजिक सुरक्षा की कमी का मामला बड़े पैमाने पर तब सामने आया जब उन्होंने चिकित्सा कवरेज के विस्तार, बकाया भुगतान और वेतन में वृद्धि के लिए 2020 में देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किया। 

इन चुनौतियों के अलावा, आशा कार्यकर्ता एक ऐसे समाज में जमीनी महिला कार्यकर्ता हैं, जिसकी जड़ें पितृसत्तात्मक मानदंडों में गहरे धंसी हैं। इससे उन्हें समुदाय के सदस्यों द्वारा किए जाने वाले उत्पीड़न और कभी-कभी हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। महिलाओं के रूप में, उनके पास सामाजिक रूप से अपने परिवारों की देखभाल करने की, अतिरिक्त थोपी गई जिम्मेदारी भी होती है जो एक अवैतनिक कार्य है।

भविष्य की ओर देखना

यह अनौपचारिकता केवल आशाओं तक ही सीमित नहीं है। विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों में श्रमिकों की कई अन्य श्रेणियां हैं जिन्हें ऐसी ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इनमें आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और मिड-डे मील बनाने वाले भी शामिल हैं। अक्सर ही इसके पीछे का कारण इनके काम की अंशकालिक प्रवृति को माना जाता है। हालांकि सभी यह जानते और मानते हैं कि इनकी भूमिकाएं महज पार्ट-टाइम होने से कहीं अधिक हैं। उदाहरण के लिए, आंगनवाड़ी श्रमिक, एक स्वास्थ्य कर्मी और एक शिक्षा कर्मी दोनों के रूप में काम करते हैं। इसके अलावा, अक्सर ही इन्हें इनके क्षेत्र से बाहर के काम भी सौंपे जाते हैं जैसे कि दवा देना, विधवाओं और विकलांग व्यक्तियों की पहचान और सर्वेक्षण करना, और कुछ मामलों में मवेशियों का सर्वेक्षण करना भी इनके जिम्मे होता है।

हम इन श्रमिकों के लिए क्या बेहतर कर सकते हैं?

इसका जवाब बहुत ही सरल है: हमें इनके श्रम की पहचान करनी चाहिए और उनकी कार्य स्थितियों को औपचारिक बनाना चाहिए।

उनके काम करने की स्थिति और वेतन को औपचारिक रूप देने से आशा को वह सुरक्षा मिलेगी जिसकी उन्हें जरूरत है और वे अपना काम बेहतर तरीके से करने में सक्षम होंगी।

और अनुभव ने हमें दिखाया है कि सरकारों के लिए ऐसा करना संभव है। पाकिस्तान में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का उदाहरण देखें जिनके काम को ऑल पाकिस्तान लेडी हेल्थ वर्कर्स (एलएचडबल्यू) एसोसिएशन के प्रयासों के चलते सफलतापूर्वक औपचारिक रूप दिया गया है। हालांकि वे अब भी कई अन्य प्रकार के संघर्षों और देर से मिलने वाले भुगतानों का सामना कर रही हैं, लेकिन उनकी औपचारिकता के कई सकारात्मक प्रभाव पड़े हैं। उदाहरण के लिए, इससे उन महिला स्वास्थ्य कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि हुई जो आमतौर पर आर्थिक रूप से पिछड़ी पृष्ठभूमि से आती हैं। चूंकि वे अपने घरों में अधिक कमाने वाली होती हैं, इस औपचारिकता का उनके बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों के प्रबंधन, और उनके घरों के दिन-प्रतिदिन के कामकाज पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। भारत में, ओडिशा सरकार ने हाल ही में यह घोषणा की है कि वह संविदा पर काम कर रहे श्रमिकों को नियमित करेगी जो यह दिखाता है कि औपचारिक बनाना संभव है। 

नीति निर्माताओं के लिए यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि आशा और ऐसे कई कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर आवश्यक कार्य करते हैं। उनके काम करने की स्थिति और वेतन को औपचारिक बनाने से उन्हें वह सुरक्षा मिलेगी जिसकी उन्हें जरूरत है और वे अपना काम बेहतर ढंग से करने में सक्षम होंगे। ये मूलभूत अधिकार हैं जिन्हें मानवाधिकारों के रूप में और आईएलओ के उचित कामकाज एजेंडे के तहत उपलब्ध कराया जाना चाहिए। आशा कार्यकर्ता स्वयं भी पिछले कुछ समय से इन मांगों को सामने रख रही हैं और कई महत्वपूर्ण हितधारक समूहों ने इन्हें अपना समर्थन भी दिया है। विभिन्न सरकारी योजनाओं (आशा सहित) में श्रमिकों की विभिन्न श्रेणियों के लिए काम करने की स्थिति, वेतन  और सामाजिक सुरक्षा पर भारतीय श्रम सम्मेलन के 45वें और 46वें दोनों ही सत्रों में चर्चा हुई। 46वें आईएलसी की सिफारिशों में ईएसआई और ईपीएफ के तहत आशा कार्यकर्ताओं को शामिल करने की बात की गई थी।

2020 में श्रम केंद्रित संसदीय स्थायी समिति ने भी कहा कि आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के काम को औपचारिक रूप दिया जाना चाहिए। प्रोत्साहन और मानदेय के आधार पर उनका वेतन तय किया जाना चाहिए, और उन्हें केवल मानदेय कार्यकर्ता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। 

हालांकि इन श्रमिकों को औपचारिक रूप देने से बेशक राज्यों के वित्तीय ढांचे पर प्रभाव पड़ेगा लेकिन उन्हें इसे स्वास्थ्य सेवा और अच्छे काम में लम्बे समय के लिए किए गए निवेश के रूप में देखना चाहिए। जैसा कि पाकिस्तान में एलएचडबल्यू के उदाहरण से देखा जा सकता है औपचारिक बनाने से वैध श्रमिकों के रूप में आशा कार्यकर्ताओं को बेहतर स्वीकृति और पहचान के साथ अधिक सार्वजनिक दृश्यता प्राप्त हो सकती है। उनके काम को औपचारिक बनाने का एक अर्थ यह भी है कि उनके काम को आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की महत्ता मिलेगी।

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भारत को और अधिक युवा उद्यमियों की जरूरत है

भारत रोजगार के संकट से गुजर रहा है। नवंबर 2022 में, देश में बेरोज़गारी की दर बढ़कर 8 फ़ीसदी हो गई थी। भारत में बेरोज़गारी के आंकड़ों पर तैयार एक प्रोफ़ाइल के अनुसार, मई-अगस्त 2022 से 20–24 वर्ष के युवाओं में बेरोज़गारी आश्चर्यजनक रूप से बढ़कर 43.36 फ़ीसदी हो गई। यह पिछले 45 वर्षों में बेरोज़गारी का सबसे ऊंचा आंकड़ा था। पारंपरिक रोजगार के मौकों में आए ठहराव को देखते हुए, नीति-निर्माताओं का ध्यान उद्यमियों को कुशल बनाने से हटकर नए उद्यमी तैयार करने पर केंद्रित हो गया है। यह प्रधान मंत्री मुद्रा योजना (पीएमएमवाई), सूक्ष्म और लघु उद्यमों के लिए क्रेडिट गारंटी फंड ट्रस्ट (सीजीटीएमएसई) और राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम (एनएसआईसी) द्वारा क्रेडिट सहायता योजना जैसी कई सरकारी योजनाएं लागू किए जाने से भी साफ होता है। ये योजनाएं पूंजी तक पहुंच प्रदान करने और उद्यमिता को बढ़ावा देने को ध्यान में रखकर तैयार की गई हैं। जहां तक कॉर्पोरेट की बात है तो वे अपनी ओर से, अपनी सीएसआर शाखाओं के माध्यम से सीड मनी, कौशल, मार्केट लिंकेज और इन्क्यूबेशन इकोसिस्टम प्रदान कर रहे हैं। देखा जाए तो उद्यमिता के लिए परिस्थितियां परिपक्व हैं। फिर भी, भारत में उद्यमियों की संख्या बहुत कम है।

युवाओं में प्रतिभा की भरमार लेकिन असफलता का डर है

ग्लोबल आंत्रप्रेन्योरशिप मॉनीटर (जीईएम) रिपोर्ट, 2020-21 भारत में उद्यमशील प्रतिभा की भरमार को सामने लाई है। इस रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 81 फ़ीसदी युवाओं के पास व्यवसाय शुरू करने के लिए आवश्यक कौशल और ज्ञान उपलब्ध है। लेकिन बहुत सारे युवाओं में जोखिम लेने का साहस नहीं होता है जो उद्यमिता का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इनमें 56 फ़ीसदी ऐसे युवाओं को असफल होने का डर है। इसमें व्यवसाय शुरू करने से जुड़ी आर्थिक अनिश्चितता को लेकर पारिवारिक चिंताएं और एक स्थाई करियर को लेकर सामाजिक दृष्टिकोण ने भी अपना योगदान दिया है। इसके कारण युवाओं में नया व्यवसाय शुरू करने को लेकर झिझक है और वे खुद को नौकरियों के विकल्पों की ओर धकेलते हैं। 2020–21 में महामारी के कारण उत्पन्न हुई चिंताओं ने स्थिति को और बदतर ही बनाया है। इसके बाद से केवल 20 फ़ीसदी युवाओं ने ही उद्यम शुरू करने की बात कही है, वहीं साल 2019–20 में यह आंकड़ा 33 फ़ीसद था।

यही कारण है कि भारत में बड़े पैमाने पर स्टार्ट-अप होने के मीडिया नरेटिव के बावजूद केवल 5 फ़ीसदी भारतीय जनता ही उद्यमी है। यह संख्या विश्व में सबसे कम है। इसकी तुलना में यूएस में 23 फ़ीसदी, ब्राज़ील में 17 फीसदी और चीन में 8 फ़ीसदी लोग उद्यमी  हैं।

एक्सपोजर और एजेंसी की कमी

युवाओं के साथ 28 वर्षों के कम्यूटिनी के व्यापक अनुभव से हमने जाना कि सूचनाओं तक पहुंच बढ़ने के कारण उनके दृष्टिकोण में भी बहुत अधिक बदलाव आया है। 2000 के शुरुआती सालों में प्रत्येक 10 युवाओं में से एक युवा सक्रिय नागरिकता की कोशिश करने के लिए तैयार था। लेकिन आज हम हर दस युवा में से चार से पांच को सामाजिक सरोकारों को उनकी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखा देखते हैं।

लेकिन अवसरों और वास्तविक-जीवन की परिस्थितियों में बहुत अधिक बदलाव देखने को नहीं मिलता है। वास्तव में हमारे काम में हमने देखा कि जमीनी अनुभवों के अवसरों की गुणवत्ता और मात्रा, जो प्रमुख जीवन में उपयोगी क्षमताएं विकसित करने में मदद करती हैं, और युवाओं को उनकी पूरी क्षमता का एहसास कराने में सहायक होती हैं, सुरक्षा चिंताओं के कारण घट गई हैं। जैसा कि जीईएम रिपोर्ट बताती है कि हिंसा एवं वास्तविक और डिजिटल सुरक्षा की कमी से जुड़ी खबरों से पैदा हुए भय के कारण पिछले कुछ सालों में युवाओं में जोखिम उठाने की क्षमता में कमी आई है। नतीजतन, उनके परिवार उन्हें ज़मीनी-अनुभव प्राप्त करने के लिए भेजने से डरते हैं। इसलिए युवाओं की एजेंसी (अधिकार और स्वतंत्रता) अब भी कम ही रह जाती है और फैसले लेने के लिए जरूरी शर्तों के मुताबिक नहीं होता है।

एक दफ़्तर के बाहर जमा हुए युवाओं की एक भीड़-युवा उद्यमी
निर्णय लेने वाले प्रत्येक स्थान पर युवाओं की भागीदारी भी होनी चाहिए। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स / सीसी बीवाई

हम जमीन पर उद्यमिता के विकास को कैसे बढ़ा सकते हैं?

यदि हम उम्मीद करते हैं कि युवा उद्यमिता से जुड़ी कई सरकारी योजनाओं का लाभ उठाएंगे, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे ऊंचनीच भरे और पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे में, उन्हें कई मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा गया है। ये अधिकार अलग-अलग पीढ़ियों तक पहुंच देते हैं जिसमें युवा अधिकार और स्वतंत्रता महसूस कर सकते हैं, महत्वपूर्ण निर्णय ले सकते हैं, और अपनी अधिकतम क्षमता तक पहुंच सकते हैं, और दुनिया में बदलाव भी ला सकते हैं। इन अधिकारों का न होना क्षमताओं को सीमित करता है और उद्यमिता और जोखिम-उठाने का इरादा भी कम होता हैं। हमारे युवा-केंद्रित विकास तंत्र के भीतर, 143 संगठनों से मिलकर, हमने एक सर्वेक्षण किया जहां सदस्यों द्वारा तीन प्रमुख युवा कर्तव्यों और अधिकारों पर प्रकाश डाला गया है:

अनुभव जो युवाओं में अधिकार, नियंत्रण और नेतृत्व क्षमता का निर्माण करते हैं, उन्हें युवाओं के लिए मुख्यधारा की नीतियों का हिस्सा बनना होगा। साथ ही, वयस्कों को युवाओं के साथ-साथ अपनी भूमिकाओं में संशोधन करने और इन अनुभवों के सूत्रधार बनने की आवश्यकता है। क्योंकि, उद्यमी पैदा नहीं होते – वे बनाए जाते हैं।

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घुमंतू और विमुक्त जनजातियों के मानसिक न्याय के लिए मानसिक स्वास्थ्य ज़रूरी है

मैं 22 सालों से सोशल सेक्टर में काम कर रही हूं। आप इसे मुझे मिले मौके कहिए या मेरा संघर्ष कहिए, मैं इस क्षेत्र से जुड़ सकी। अनगिनत संगठनों के साथ काम करते हुए मेरी विचारधारा बनी है और इसी दौरान मैंने बहुत सी बातें जानीं हैं। जैसे फेमिनिज़्म क्या है, जाति विरोधी आंदोलन क्या है, बॉडी पॉलिटिक्स क्या होती है, वगैरह। मैं घिसाडी गाड़िया लोहार समुदाय से आती हूं। क़रीब 14-15 साल सोशल सेक्टर में काम करने के बाद, मैंने पाया कि हमारी घुमंतू और विमुक्त जनजातियों (नोमैडिक एंड डिनोटिफाइट ट्राइब – एनटी-डीएनटी) तक समाजसेवी संगठन भी ठीक तरह से नहीं पहुंच पा रहे हैं। अंग्रेज़ी राज के दौरान घुमंतू और विमुक्त जनजातियों को बहुत ही अन्यायपूर्ण और गलत तरीके से अपराधी समुदाय घोषित कर दिया गया था। तब से ये समुदाय बदनामी और भेदभाव झेल रहे हैं। यहां तक कि 1952 में आपराधिक जनजाति अधिनियम को खत्म किए जाने के बाद भी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है।

सोशल सेक्टर की बात करें तो उनके पास घुमंतू और विमुक्त जनजातीय समुदायों से संवाद करने के लिए न तो भाषा है और न ही इनकी कठिनाइयों का अंदाज़ा लगा पाने के लिए जरूरी समझ। अक्सर जहां कल्याणकारी योजनाएं और विकास पहलें तैयार करते हुए इन समुदायों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। वहीं, इस तरह लगातार होने वाले भेदभाव और उपेक्षा का उनकी मानसिक सेहत पर क्या असर पड़ता है, इस पर भी बहुत कम बात की गई है। यह व्यवहार इतना आम हो गया है कि अब हमें भी इसकी आदत हो गई है। इसलिए मुझे लगता है कि मैं जहां से आई हूं, वहां पर मुझे काम करना चाहिए। जहां मानसिक स्वास्थ्य की बात है, मेरे पास एक सामुदायिक पहचान थी। मेरे बचपन के अनुभव ऐसे ही रहे हैं। चाहे घुमंतू होने की बात हो, शिक्षा, शादी या जीवन के बाक़ी छोटे-बड़े फैसले लेने की बात हो, हर चीज के लिए इन समुदायों द्वारा किए जा रहे संघर्ष और उनके मानसिक स्वास्थ्य को अलग-अलग रखकर नहीं देखा जा सकता है। ऐसे में, देश में इस समय मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जो रवैया है – जहां मानसिक सेहत को केवल एक मेडिकल विषय की तरह देखा जाता है – वहां इन समुदायों को कैसे शामिल किया जा सकेगा? वह भी तब जब इन समुदायों के मुद्दे कहीं ज्यादा जटिल और गहरे हैं।

यह चिकित्सकीय विमर्श से कुछ ज्यादा है

जब कोई बहुत आक्रामक होता है या बहुत उदासीन व्यवहार करता है तो यह कहा जाता है कि वह किसी तरह की मानसिक समस्या से पीड़ित है और इसके लिए उसे अपना इलाज करवाना चाहिए। या फिर ऐसे लोगों को चिंता (एंग्जायटी) या अवसाद (डिप्रेशन) से पीड़ित बता दिया जाता है। लेकिन ऐसा करना तो बस पोस्टमार्टम के बाद मौत का कारण बता देने जैसा हुआ, इससे यह थोड़ी पता चलता है कि किन कारणों से, किन परिस्थितियों में कोई मरने तक पहुंचा है। आज मानसिक स्वास्थ्य पर चल रहे विमर्श के मुताबिक आसानी से ऐसे लोगों को चिंता और अवसादग्रस्त बता दिया जाता है। लेकिन इस चिंता और अवसाद की जड़ को पहचानने का काम कौन करेगा? मैं कोई मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट नहीं हूं लेकिन मैंने इतिहास में ऐसे कई उदाहरण देखे हैं जो मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने के लिए कुछ ऐसे वैकल्पिक तरीके बताते हैं जो कारगर रहे हैं।

महिलाओं के लिए सावित्री बाई फुले ने जो काम किया है, उसके बारे में सोचिए। उन्हें हमेशा केवल शिक्षा से जोड़कर देखा जाता है लेकिन ज्यादातर लोग भूल जाते हैं कि उन्होंने अकेली महिलाओं, विधवाओं और यौन और घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं के लिए भी काम किया है। इस तरह की महिलाएं जब आत्महत्या करने के लिए जाती थीं तो सावित्री बाई फुले उन्हें मनाकर अपने घर ले आतीं थीं, उन्हें सुनतीं-समझती थीं। मैं सोचने लगी कि क्या सावित्री बाई फुले को हमने मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में देखा-समझा है? वे जब औरतों से बात करती थीं तो क्या वे सुसाइड प्रिवेंशन नहीं करती थीं, क्या काउंसिलिंग नहीं करती थीं? क्या उन्होंने संसाधन उपलब्ध नहीं करवाए? हो सकता है वे प्रोफेशनल काउंसलर की परिभाषा में फ़िट नहीं बैठती हों लेकिन उन्हें ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के साथ हो रहे अन्याय की समझ थी। उन्हें पता था कि हाशिए पर खड़े लोग किन मुश्किलों का सामना करते हैं और उनकी मुश्किलों को कैसे हल किया जाता है। इससे मुझे समझ आया कि इन नायकों ने मानसिक न्याय (मेंटल जस्टिस) के लिए बहुत काम किया है।

एक आदमी रिक्शा चला रहा है। पीछे एक पीले रंग की दीवार पर ग्राफिटी है और न्याय लिखा हुआ है-मानसिक स्वास्थ्य
पिछड़े समुदाय के सदस्य के तौर पर, हम अक्सर अपने आप से पूछते हैं कि मैं वह क्यों नहीं कर सकता/सकती जो दूसरे कर सकते हैं? | चित्र साभार: पे‍क्सेल्स

अन्याय को कोई जादुई छड़ी घुमाकर खत्म नहीं किया सकता है

मैं बारहवीं में दूसरे स्थान पर आई थी, फर्स्ट क्लास में पास होने के बाद भी मैं कई सालों तक हायर एजुकेशन के लिए नहीं जा पाई। मुझे लगातार लग रहा था कि मैं ही काबिल नहीं हूं। मुझे यह समझने में बहुत समय लग गया कि मेरे आत्मविश्वास में कमी की वजह व्यवस्थित रूप से किया जा रहा दमन था।

हज़ारों सालों से हमारे लोगों को यह बताया गया है कि वे कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से कमतर हैं।

पिछड़े समुदाय के सदस्य के तौर पर, हम अक्सर अपने आप से पूछते हैं कि मैं वह क्यों नहीं कर सकता/सकती जो दूसरे कर सकते हैं? महिलाओं और युवाओं के साथ यह ज्यादा होता है। अपने सवालों के जवाब मिलना बहुत जरूरी है। जब हम अपने जवाब नहीं खोज पाते हैं और हमारी मदद करने वाला कोई नहीं होता है तो हम अपने आपको या अपने समुदाय को दोषी ठहराने लगते हैं। हम खुद को कमतर मानने लगते है। अपने बारे में ये धारणाएं कहां से आती हैं? क्या ये हमारे अंदर पनप रही मानसिक बीमारियों का नतीजा है? नहीं, यह भेदभाव और सामाजिक ऊंचनीच के कारण पैदा होता है। हमें उन संवादों की जरूरत हैं जो मानसिक दमन के कारणों की जड़ की बात करें।

हज़ारों सालों से हमारे लोगों को यह बताया गया है कि वे कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से कमतर हैं। उन्होंने अपनी रोजाना की बातचीत में अपनी जाति का मज़ाक़ बनते देखा है। उन्हें महसूस हुआ है कि उनके समुदाय का कोई वजन नहीं है। हमारी सहज भाषा में उनका अपमान शामिल होता है। उन्होंने ऐसे धर्मग्रंथ पढ़े और कहानियां सुनी हैं जिनमें असुर, बेताल, राक्षस वगैरह शैतान होते थे। इनका नाम सुनकर आपके दिमाग़ में आता है कि अरे ये तो दानव हैं। इससे नकारात्मक छवियां उभरती हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, ये सब समुदाय है। अगर आप झारखंड जाएं तो आपको पता चलेगा कि असुर एक जनजाति है जिसका अपना एक अलग सांस्कृतिक इतिहास है। आज भी विमुक्त जनजातियों के ख़िलाफ़ गलत मामले बनाए जाते हैं तो वे चोरी, ठगी और डकैती के होते हैं। यह उनके अपराध से जोड़ दिए गए अतीत की याद दिलाने जैसा होता है। हालिया कुछ उदाहरण भी बताते हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में शामिल होने, ज़मीन का अधिकार हासिल करने की कोशिश करने पर विमुक्त जनजातियों को मॉब लिंचिंग का शिकार होना पड़ा है। दशकों के संघर्ष और क़ानूनी मदद के बाद अगर वे ज़मीनों पर अधिकार हासिल कर भी लेते हैं तो इलाक़े के वर्चस्ववादी लोग उन पर हमला कर देते हैं जिसमें कइयों को जीवन से हाथ धोना पड़ता है। यह ऐसा जैसे हमें लगातार बताया जाए कि अगर हम अपनी सीमाओं को पार करेंगे और अपनी आवाज़ उठाएंगे तो हमें उसके नतीजे झेलने पड़ेंगे।

यह कहा जाता है कि अंग्रेजों ने घुमंतू और विमुक्त जनजातियों की ज़मीनें और संसाधन छीन लिए थे और यह सच भी है लेकिन असल में यह काम ज़मींदारों ने किया था। इसका मतलब क्या है कि वर्गभेद, जाति व्यवस्था और लैंगिक पक्षपात हाथों में हाथ डालकर काम करता है। यह आज भी जारी है। कई एनटी-डीएनटी समुदाय केवल अपने जीवन को बचाए रख सकने के लिए घुमंतू समाज में बदल गए, अगर आज वे कहीं बसना चाहें तो क्या उनके लिए ज़मीन उपलब्ध है? क्या बाक़ी का समाज उन्हें वह ज़मीन और संसाधन देने के लिए तैयार है जिनकी जरूरत उन्हें एक जगह पर बसने के लिए होगी?

मानसिक सेहत के मसले को सामाजिक न्याय के चश्मे से ही देखा जाना चाहिए।

आज, हम समाजसेवी संगठनों और मेंटल हेल्थ प्रैक्टिशनर्स को यह बात करते देखते हैं कि हमें समाज के पिछड़े तबके के लिए मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध करवाने की जरूरत है। यह एक बेहतरीन शुरूआत होगी लेकिन मानसिक सेहत के मसले को सामाजिक न्याय के चश्मे से ही देखा जाना चाहिए। और हमें मानसिक न्याय के लिए भी काम करने की जरूरत है। मानसिक न्याय, जैसा मैं इसे समझती हूं, इसमें लोगों के विकास, अवसर, सहभागिता और नेतृत्व के अधिकार की बात करना और उन तक इसकी पहुंच बनाने जैसी बातों को शामिल किया जाना चाहिए। इस मामले में कम से कम भारत के संविधान से मिले हमारे अधिकार तो कोई भेदभाव नहीं करते हैं। जैसे हम आर्थिक न्याय, सामाजिक न्याय, मौलिक अधिकारों की बात करते हैं, उतना ही जरूरी मानसिक न्याय पर बात करना भी है।

मानसिक न्याय की राह

एक व्यवस्था जो पिछड़े लोगों का दमन करती है, उसे बनने में एक लंबा वक्त लगा है। किसी समाजसेवी संगठन के लिए एक दिन, एक हफ्ते या कुछ सालों में भी खत्म कर पाना संभव नहीं होगा। लेकिन यह काम कहीं से तो शुरू होना चाहिए।

मैंने 2016 में अनुभूति ट्रस्ट की स्थापना की। इसका मक़सद विमुक्त समुदायों से जमीनी नेतृत्व खड़ा करना और उन्हें बदलाव के लिए तैयार करना था। वह बदलाव जिसकी उन्हें अपने अनुभवों के पीछे का सच जानने, अपने ताकतवर और विकासशील बहुजन इतिहास को दोबारा हासिल करने और अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए जरूरत थी। वे अपने सामने आने वाले संकटों से निपटना जानते हैं और व्यापक समझ, सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं में सहयोग करने में सक्षम होते हैं।

अपने काम के दौरान हमने जाना है कि मानसिक न्याय हासिल करने के लिए किसी को केवल मानसिक स्वास्थ्य पर काम करने की जरूरत नहीं होती है। कुछ ऐसे प्रयास हैं जो संगठन के चल रहे कामकाज में शामिल किए जा सकते हैं जो कि पिछड़े समुदायों को मानसिक न्याय दिलाने में एक बड़ी मदद कर सकते है। यहां पर इसके कुछ उदाहरणों पर बात की गई है:

1. शोध करें

अनुभूति में हमारी ज्यादातर समझ समुदायों के पास पहुंचने और उनके अनुभवों के बारे में बात करने से बनी है। हाल ही में जब थाणे, महाराष्ट्र में एनटी-डीएनटी समुदायों का सर्वे किया जा रहा था तब हमें पता चला कि इन समुदाय से आने वाले ज्यादातर लोग इस बात की उम्मीद भी नहीं करते हैं कि उन्हें शौचालयों या साफ-सफ़ाई की सुविधाएं मिल सकती हैं क्योंकि वे केवल अपने-आप के भरोसे जीवन बिता रहे थे और उनके पास कोई दस्तावेज नहीं थे। इससे हमने समझा कि उन्हें उनके मूल अधिकारों के बारे में बताए जाने और यह समझाने की जरूरत है कि इन्हें कैसे हासिल किया जा सकता है। औऱ इसके लिए उन्हे स्थानीय प्रतिनिधियों की जरूरत होती है जो उनके ही समुदाय से आते हों। समाजसेवी संगठन यह जरूरी सबक केवल समुदाय के साथ बात करने से सीख सकते हैं।

2. संवाद की एक भाषा चुनें

ग़ैर-लाभकारी संगठनों को इस तरह की भाषा इस्तेमाल करनी चाहिए जो समुदाय को आसानी से समझ में आ सके। स्वाभाविक है कि इसके लिए किसी को उस समुदाय की बोली बोलने में सक्षम होना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही उनकी ज़मीनी हक़ीक़त और उनके अनुभवों की समझ भी होनी चाहिए। संस्थानिक और औपचारिक भाषाएं यहां काम नहीं करती हैं। उन्हीं की भाषा में संवाद करते हुए उदाहरण और संस्मरणों को इस्तेमाल करना समुदायों तक बात को अच्छी तरह पहुंचाता है।

अनुभूति ने बहुत कुछ सीखा है और अब भी लगातार अपनी ग़लतियों से सीख रहा है। हमारे एक सलाहकार थे जिन्होंने एक बार किसी श्रमिक महिला को कामकाज के बाद किताबें पढ़ने की सलाह दी थी, बग़ैर यह जाने कि वह रात के तीन बजे तक काम करती है। इस तरह के तरीके लोगों के जीवन की वास्तविकताओं को नहीं शामिल कर पाते हैं। इसी से जुड़ी एक बात यह भी है कि हम अपने तरीक़ों में मानसिक स्वास्थ्य की चर्चा के साथ जुड़ी जटिलता को भी कम कर सकते हैं। अनुभूति में, हमने सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने शुरू किए जहां लोग पेंट करते हैं, गीत गाते हैं, कविताएं लिखते हैं और बाक़ी कई तरह से रचनात्मक अभिव्यक्ति के रास्ते खोजते हैं। यह उनके लिए अपने दुख या अकेलेपन के अनुभवों को अभिव्यक्त करने का साधन हो सकता है। और, साथ ही यह वह मौक़ा भी है जहां पर मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा बाहरी नरेटिव को थोपे बग़ैर की जा सकती है।

3. दोतरफ़ा संवाद की संस्कृति बनाएं

विकास और मानसिक स्वास्थ्य पर काम करने वालों को पिछड़े समुदायों से सीखने के लिए खुला नज़रिया अपनाना चाहिए। इससे पॉवर बैलेंस में मदद मिलती है जो कि आमतौर पर इस तरह के संवादों में शामिल होता ही है। यानी, यहां पर कोई बताने वाला और कोई समझने वाला नहीं होना चाहिए। होना यह चाहिए कि समुदाय के सदस्य आपकी बात समझने के साथ-साथ आपसे सहजता से सवाल पूछ सकें। इसके लिए समाजसेवी संगठनों में सुनने और सीखने के प्रति खुलापन होना बहुत जरूरी है। ख़ासकर तब जब आप समुदायों को स्वास्थ्य सुविधाएं, सामाजिक लाभ और ऐसी ही बाक़ी चीजें हासिल करने में मदद कर रहे हों। आख़िर में, किसी समस्या की जड़ पर बात किए बिना उसका कोई हल नहीं निकाला जा सकता है और इसका पता आपको तभी चलेगा जब आप समुदाय से भी सीखने-समझने के लिए तैयार होंगे।

4. नुक़सान पहुंचाने वाले नरेटिव को खत्म करें

डेवलपमेंट और मेंटल हेल्थ सेक्टर में यह प्रवृत्ति होती है कि वे पिछड़े समुदायों के संघर्ष की कहानी पर बहुत ज़ोर देते हैं, यहां तक कि लोगों से बात करते हुए भी उनका ध्यान वहीं रहता है। वे उनकी मानसिक गरिमा को निचोड़ देने वाले शोषण की बात करते हैं। यह नज़रिया ये दिखाता है कि लोग लाचार हैं और ऐसा दिखना समुदाय के हित में नहीं होता है। विमुक्त समुदायों के लोग अपनी पहचान और संस्कृति से जुड़े नुकसान पहुंचाने वाले नरेटिव के साथ बड़े होते हैं। ग़ैर-सरकारी संस्थाओं का ध्यान समुदाय की मदद करने की बजाय उनकी संस्कृति और विरासत की खूबियों और उनकी परिस्थितियों के मूल कारणों की अधिकार-आधारित समझ बनाने पर होना चाहिए।

आमतौर पर समाज यह मानकर चलता है कि घुमंतू समुदाय बिना किसी उद्देश्य के घूमते रहते हैं। इसके उलट सच्चाई यह है कि उनका अपना एक नक्शा और नदियों और मौसमों से जुड़ा उनका पारंपरिक ज्ञान होता है जो उन्हें राह दिखाता है। इन समुदायों के साथ संवाद इस तरह के सशक्त नरेटिव के आसपास बुना जाना चाहिए जो कि उन्हें खुद में भरोसा करना सिखा सके।

चूंकि अनुभूति बहुजन लोगों के साथ काम करता है, इसलिए हम बहुजन आंदोलन और अंबेडकरवादी राजनीति पर बातचीत करते हैं। हम बच्चों को सावित्री बाई फुले भिड़ेवाड़ा स्कूल, पुणे ले जाते हैं ताकि वे एक ऐसी जगह देख सकें जहां पहली पीढ़ी की बहुजन महिलाओं ने अपनी शिक्षा शुरू की थी। हम समझते हैं कि कमरों में भाषण सुनने की बजाय, ये फ़ील्ड विजिट्स और उनके बाद होने वाली बातचीत बच्चों, युवाओं, महिलाओं और समुदाय के नेताओं में नेतृत्व, विरासत और अपने समुदाय की मानसिक क्षमताओं की समझ जगा देती है। 

5. क़ानून, अधिकारों और राजनीति के बारे में जागरुक करें

भारत में विकासशील कानून हैं जैसे कि मेंटल हेल्थ ऐक्ट, 2017 जो कि हर ज़रूरतमंद को मेंटल हेल्थकेयर प्रदान करने के लिए लाया गया था। भारतीय संविधान एक और कारगर हथियार है जिसे पिछड़े समुदाय अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। हमारे मूल अधिकार लोगों में कोई भेदभाव नहीं करते हैं। हमें लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों के बारे में बताने और इन्हें हासिल करने में उनकी मदद करने की जरूरत है।

संगठनों को खुद नीतियां तय और लागू करनी चाहिए जो उनकी टीम और कार्यक्रम के भागीदारों को भेदभाव से सुरक्षित रख सकें।

इसके अलावा, संगठनों को खुद नीतियां तय और लागू करनी चाहिए जो उनकी टीम और कार्यक्रम के भागीदारों को भेदभाव से सुरक्षित रख सकें, फिर चाहे यह जातिभेद हो, लिंगभेद हो या कुछ और। साथ ही उनकी मानसिक स्थिति का भी ख़्याल रखा जाना चाहिए। जब एक संगठन नीतियां तय करता है, यह अपने सभी साझेदारों – फंडर्स, कर्मचारी, बोर्ड मेंबर और अन्य – के लिए उन्हें पढ़ने, समीक्षा करने और उन पर सवाल करने के मौके पैदा करता है। यह एक खुला, स्वस्थ और पारदर्शी तरीका है जो कामकाज के माहौल को मानसिक न्याय की तरफ ले जाने वाला बनाता है।

सोशल सेक्टर को अपनी प्राथमिकताएं फिर से तय करने की जरूरत है

पिछड़े समुदायों के साथ जुड़ाव का एक समावेशी मॉडल तैयार करने के लिए अभी सोशल सेक्टर को लंबी यात्रा करनी होगी। हम इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं कि सेक्टर अपने आप में उसी पितृसत्ता, जातिवाद, वर्गवाद और अन्य बुराइयों में फंस गया है जिससे यह लड़ना चाहता था। सोशल सेक्टर आज जिस दिशा में बढ़ रहा है वह ज्यादातर फंडर्स और फ़ंडिंग संस्थाओं द्वारा तय होती हैं। लेकिन सचमुच सबसे पिछड़े संगठनों की मदद करने के लिए, हमें यह याद रखने की जरूरत है कि फ़ंडिंग बस एक साधन है जो आगे का रास्ता बनाने में मदद करता है। अनुभूति में हम लगातार अपने आपको यह याद दिलाते रहते हैं कि हमें तय ढांचों, प्रोजेक्ट डेडलाइन के बोझ और फंडर की मांग को अपने उद्देश्यों पर हावी नहीं होने देना है। ख़ासकर तब जब हम समुदाय के बीच नारीवादी और जाति-विरोधी विचारधारा के साथ काम कर रहे हों।

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भारत में कामकाजी महिलाएं क्या और क्यों चाहती हैं?

भारत में लैंगिक समानता को आगे बढ़ाने और समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि कम आय वाले परिवारों की अधिक से अधिक महिलाओं को रोजगार मिले। यदि केवल आर्थिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो कार्यबल की भागीदारी में लैंगिक समानता हासिल करने से भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 27 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। हालांकि श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी में कमी आ रही है। साल 2005 से 2019 के बीच भारत में महिला कार्यबल भागीदारी 45 फ़ीसद से घटकर 27 फ़ीसद हो गई है।

देश में कुल 35.4 करोड़ कामकाजी उम्र की महिलाएं हैं, जिनमें से 12.8 करोड़ शहरों में रहती हैं। इनमें से कुल 20 फ़ीसद ही कार्यबल का हिस्सा हैं। भारत की शहरी कामक़ाज़ी उम्र की महिलाओं में 83 फ़ीसद महिलाएं निम्न आय वाले घरों से आती हैं। निम्न आय वाले घरों से आने वाली महिलाओं में जहां 85 फ़ीसद महिलाएं कॉलेज तक नहीं पहुंच पाती हैं, वहीं 50 फ़ीसद महिलाएं अपनी 10वीं तक की पढ़ाई भी पूरी नहीं करती हैं। इसलिए, महिलाओं की भागीदारी को सार्थक रूप से बढ़ाने के लिए, निम्न-आय और निम्न-शिक्षा पृष्ठभूमि की महिलाओं को रोज़गार दिए जाने की आवश्यकता है।

भारतीय महिलाओं को आगे बढ़ने से क्या रोक रहा है? 

इस सवाल का जवाब देने के लिए, परिवार और समाज की उस भूमिका पर गौर करना जरूरी है जो वह महिलाओं की परवरिश और उनके सामाजिक मेलजोल में निभाता है। महिलाओं की फैसले लेने की क्षमता पारिवारिक प्रतिबद्धताओं और आस्थाओं से जुड़ी होती है। समाज बाधाएं थोपता है और महिलाओं की मानसिकता को भी प्रभावित करता है। 

श्रम बाज़ार भागीदारी, वेतनमान में अंतर और इसी तरह का सेकंडरी डेटा जहां ठीक-ठाक मात्रा में उपलब्ध हैं। वहीं, महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकने के पीछे की वजहों और रोज़गार से जुड़ी उनकी प्राथमिकताओं पर बारीक समझ को विकसित करना भी अभी बाक़ी है और उतना ही जरूरी है।

एफ़एसजी में हमने 14 राज्यों के 16 शहरों में निम्न आय वर्ग वाले घरों की 6,600 कामकाजी-वर्ग की महिलाओं से बात की। हमारा लक्ष्य महिलाओं की आस्थाओं, प्रेरणाओं और रोज़गार की प्राथमिकताओं को समझना था। साथ ही, महिलाओं के उस वर्ग की पहचान करना था जो भविष्य में नौकरी करने की तरफ बढ़ सकती थीं। इसके अलावा, कार्यबल में इन महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने में मददगार साबित होने वाली रणनीतियां तय करना भी था।

हम यहां इस रिपोर्ट की कुछ मुख्य जानकारियां साझा कर रहे हैं।

1. महिलाओं को अभी भी काम करने के लिए पुरुषों से अनुमति लेनी पड़ती है

अपने इस सर्वे में हमने पाया कि 84 फ़ीसद महिलाओं को काम करने के लिए अपने परिवारों से अनुमति लेनी पड़ती है। ऐसी तीन में से एक महिला जो न तो काम कर रही हैं और ना ही काम की तलाश में हैं, उनकी इस स्थिति के पीछे का मुख्य कारण अनुमति प्राप्त न कर पाना या फिर समुदाय में ऐसे उदाहरणों की कमी होना है। 

2. प्रमुख निर्णयकर्ताओं का दृष्टिकोण केवल सैद्धांतिक रूप में प्रगतिशील होता है न कि व्यावहारिक रूप से

हमने एक महिला के परिवार में प्रमुख निर्णय लेने वाले की पहचान, परिवार के उस सदस्य के रूप में की जिससे उसे नौकरी या व्यवसाय करने के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता है। 90 फ़ीसद से अधिक प्रमुख निर्णयकर्ता इस बात से सहमत मिले कि आत्मनिर्भर होने के लिए एक महिला के पास नौकरी होनी चाहिए। साथ ही, उनका यह भी मानना है कि एक कामकाजी महिला परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ाने में मददगार साबित हो सकती है। लेकिन बात जब उनके अपने परिवार की महिलाओं की आती है, तब चार में से एक मुख्य निर्णयकर्ता का ऐसा मानना है कि महिलाओं को बिल्कुल भी काम नहीं करना चाहिए। वहीं, बाक़ी बचे लोगों में 72 फ़ीसद ऐसा मानते हैं कि महिलाओं को केवल अपने घरों से ही काम करना चाहिए या फिर छोटे-मोटे व्यवसाय तक ही सीमित रहना चाहिए ताकि अधिक से अधिक समय घर की देखभाल में लगाया जा सके।

3. महिलाएं परिवार के सहयोग की वजह से नहीं बल्कि अभाव के कारण काम कर रही हैं

कामकाजी महिलाओं वाले घरों में भी, 41 फ़ीसद प्रमुख निर्णयकर्ताओं का मानना ​​है कि घर से बाहर काम करने वाली महिलाएं अपने परिवार और घरों की ठीक से देखभाल नहीं कर पाती हैं। वहीं, 21 फ़ीसद चाहते हैं कि उनके घरों में महिलाएं बिल्कुल भी काम न करें। 77 फ़ीसद का कहना है कि महिलाएं घर से काम करें या कोई छोटा व्यवसाय चला लें जिससे कि वे घर पर अधिक समय दे पाएंगीं। घरेलू कामों और बच्चों की देखभाल का बोझ भी ग़ैर-अनुपातिक ढंग से महिलाओं पर ही पड़ता है। कामकाजी और ग़ैर-कामकाजी दोनों ही तरह की महिलाएं प्रतिदिन चार घंटे से अधिक समय अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों जैसे कि खाना पकाना, साफ़-सफ़ाई और कपड़े धोने को पूरा करने में लगाती हैं। इसमें बच्चों की देखभाल, स्कूल का काम करने में उनकी मदद या फिर उन्हें स्कूल छोड़ने और वहां से लाने जैसे काम शामिल नहीं हैं। दूसरी तरफ़ शहरी पुरुष औसतन प्रतिदिन मात्र 25 मिनट का समय ही अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों को निभाने में लगाता है।

4. बच्चों की देखभाल महिला की ज़िम्मेदारी मानी जाती है

महिलाओं का मानना ​​है कि मांओं को घर से बाहर काम करना चाहिए जबकि पुरुष ऐसा नहीं सोचते हैं। हमारे शोध से यह बात सामने आई है कि 88 फ़ीसद महिलाएं मानती हैं कि बच्चे के जन्म के बाद भी एक महिला बाहर जाकर काम कर सकती है। 52 फ़ीसद महिलाएं सोचती हैं कि छः वर्ष से कम आयु वाले बच्चों की मांएं घर से बाहर जाकर काम करने में सक्षम हैं। इसके विपरीत 61 मुख्य निर्णयकर्ताओं की सोच यह है कि छोटे बच्चों (छः वर्ष से कम आयु वाले) की मांओं को घर से बाहर जाकर काम की तलाश नहीं करनी चाहिए। 

5. अधिकांश शहरी माताएं पैसे दे कर डेकेयर की सुविधाएं नहीं लेना चाहती हैं

12 वर्ष या उससे कम उम्र के बच्चों के लिए, एक फ़ीसद से कम कामकाजी मांओं (वर्तमान या पूर्व) ने सशुल्क चाइल्डकैअर सेवाओं का उपयोग किया है। अपने काम की प्रकृति के बावजूद, 89 फ़ीसद माताएं सशुल्क डे-केयर पर विचार करने को तैयार नहीं हैं। इसलिए कि उनमें से 41 फ़ीसद मांओं का ऐसा विश्वास है कि बच्चों की देखभाल करना उनका अपना काम है। 38 फ़ीसद महिलाएं डे-केयर सेवाओं पर भरोसा नहीं करती हैं। इसके अलावा, 75 फ़ीसद प्रमुख निर्णयकर्ताओं ने कहा कि वे बच्चों को पेड डे-केयर में भेजने की अनुमति नहीं देंगे। 

इसके पीछे सामर्थ्य की कमी कोई बड़ी वजह नहीं है। केवल 15 फ़ीसद मांओं और एक फ़ीसद प्रमुख निर्णयकर्ताओं ने सशुल्क डे-केयर का विकल्प न चुनने के कारण सामर्थ्य की कमी का हवाला दिया। इन 15 फ़ीसद में से आधे लोगों का कहना था कि वे अपने बच्चों को आंगनवाड़ी नहीं भेजना चाहते हैं। आंगनवाड़ी सरकार द्वारा दिन में कुछ सीमित घंटों के लिए बच्चों के लिए दी जाने डे-केयर की सुविधा है। इसके पीछे असुरक्षित माहौल और परिवार की तरह का देखभाल न होने जैसे कारण हैं।

6. महिलाओं को लैंगिक व्यवसायों में प्रशिक्षित किया जाता है

30 फ़ीसद से अधिक महिलाओं ने एक स्तर तक व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त किया है। वहीं 85 फ़ीसद प्रशिक्षित महिलाओं ने सिलाई या टेलरिंग, सौंदर्य या मेकअप सेवाओं, और मेहंदी आवेदन जैसे लिंग संबंधी नौकरियों में प्रशिक्षण लिया है। निम्न-आय और निम्न-शिक्षा पृष्ठभूमि की कुछ महिलाएं गैर-पारंपरिक नौकरियों के लिए इच्छुक होती हैं। दो में से एक महिला ऐसे वातावरण में काम करने में सहज है जहां 90 फ़ीसद पुरुष हैं। 42 फ़ीसद महिलाएं व्यक्तिगत रूप से ग्राहकों को उत्पाद बेचने को तैयार हैं। वहीं 72 फ़ीसद का मानना ​​है कि वे 15 किलोग्राम तक का भार उठा सकती हैं।

7. महिलाएं व्यवसाय करने से अधिक नौकरी को तरजीह देती हैं

कम आय वाले परिवारों में अधिकांश प्रमुख निर्णय निर्माताओं को लगता है कि उनके अपने परिवारों में महिलाओं को छोटे-मोटे व्यवसाय करने चाहिए जिससे कि वे घर में अधिक समय दे पाएंगीं। जबकि 59 महिलाएं उद्यमिता से अधिक नौकरी को तरजीह देती हैं और दो तिहाई महिलाएं ऐसी हैं जो काम करना पसंद करती हैं। इसके अलावा, 93 फ़ीसद महिलाएं दैनिक वेतन से अधिक निश्चित वेतन को प्राथमिकता देती हैं।

भारतीय महिला एक पुरुष के पीछे स्मार्टफोन लिए खड़ी है-भारतीय महिलाएं रोज़गार
जबकि महिलाओं का मानना ​​है कि मांओं को घर से बाहर काम करना चाहिए वहीं पुरुषों की सोच ऐसी नहीं है। | चित्र साभार: एडम कोहन / सीसी बीवाई

बाधाओं के बावजूद महिलाएं काम करना चाहती हैं

हमारा शोध कहता है कि इन बाधाओं के बावजूद भी 33 फ़ीसद गैर कामकाजी महिलाएं काम करने की इच्छुक हैं। वहीं दो में से एक महिला या तो नौकरी कर रही है या नौकरी की तलाश कर रही है। इसके अलावा, 64 फ़ीसद महिलाओं का दृढ़ विश्वास है कि आत्मनिर्भर होने के लिए काम करना जरूरी है। बावन फ़ीसद कामकाजी महिलाओं का कहना है कि उन्हें काम करने में मज़ा आता है, और 90 फ़ीसद कामकाजी महिलाओं का मानना ​​है कि नौकरी करना सही है।

आज अधिक संख्या में महिलाएं शिक्षित हो रही हैं। उन्हें अपनी क्षमताओं पर भरोसा है। 90 फ़ीसद से अधिक महिलाओं के काम करने या नौकरी की तलाश के पीछे का प्रमुख कारण अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक खर्च उठाना है। महिलाएं आर्थिक कारणों से काम करना शुरू करती हैं, लेकिन आर्थिक आवश्यकता से परे भी वह काम करना जारी रखना चाहती हैं। केवल 20 फ़ीसद महिलाओं ने ही कहा कि आर्थिक तंगी नहीं होने की स्थिति में वे काम करना बंद कर देंगी। वहीं, 78 फ़ीसद रिटायरमेंट की उम्र में पहुंचने तक या स्वास्थ्य ठीक रहने तक काम करने की इच्छुक हैं। नौकरी की तलाश कर रही महिलाओं में भी केवल 32 फ़ीसद ने कहा कि आर्थिक तंगी समाप्त हो जाने की स्थिति में काम ढूंढ़ना बंद कर देंगी। 

मददगार साबित न होने वाले सामाजिक मानदंड, बच्चों की देखभाल से जुड़े गहरे बैठे मानसिक मॉडल और प्रचलित पूर्वाग्रह महिलाओं की नौकरी में काम करने की प्रवृत्ति को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। लेकिन इन कारकों से सभी महिलाएं समान रूप से प्रभावित नहीं होती हैं। बिन बच्चों वाली महिलाओं, बड़े उम्र के बच्चों वाली महिलाओं और कामकाजी महिलाओं के सम्पर्क में रहने वाली महिलाओं में काम या नौकरी करने की उच्च प्रवृति पाई जाती है।

हम इन बाधाओं को कैसे दूर कर सकते हैं?

अनगिनत हितधारकों की ओर से किया गया एक ठोस प्रयास महिलाओं को शामिल करने वाली अधिक उपयुक्त इकोसिस्टम बना सकता है। लोगों, खासतौर पर पुरुषों को काम पर महिलाओं की जरूरतों पर धारणा बनाने से बचना चाहिए और इसकी बजाय उनकी प्रमुख और बदल रही जरूरतों को समायोजित करने के लिए लचीला होना चाहिए। कंपनियों को जेंडर-डाइवर्स वर्कफोर्स के व्यावसायिक लाभों को साझा करके पूर्वाग्रहों या कथित जोखिमों पर बात करनी चाहिए। सरकारें मातृ अवकाश को पैतृक अवकाश से बदलकर नीतियों को अधिक समावेशी बना सकती हैं।

फ़िलैन्थ्रॉपी करने वाली संस्थाएं सार्वजनिक जागरूकता अभियानों को फंड कर सकती हैं, जिसमें चाइल्डकैअर को जीवनसाथी या घरेलू भागीदारों की साझा जिम्मेदारी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। हमारे शोध से प्राप्त जानकारी का उपयोग करते हुए, एफ़एसजी के ग्रोइंग लाइवलीहुड ऑपर्च्युनिटीज़ फॉर वीमेन (GLOW) प्रोग्राम का उद्देश्य कंपनियों की मानसिकता और प्रथाओं को बदलकर कम आय वाले परिवारों की दस लाख से अधिक महिलाओं को नौकरियों में रखना है। 

वर्तमान लैंगिक-असमान व्यवस्था हमारे सामूहिक विकल्पों और दृष्टिकोणों का परिणाम है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम बेहतर विकल्प का चुनाव करें और भारत को अधिक लैंगिक-समानता वाला समाज और कार्यबल बनाने का प्रयास करें।

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समाजसेवी संगठन वॉलंटीयरिंग का सही इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं?

2002 के संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव में वॉलंटीयरिंग को कुछ इस तरह परिभाषित किया गया है “आमलोगों की भलाई के लिए की जाने वाली पारस्परिक सहायता और स्व-सहायता के परंपरागत तरीक़ों, औपचारिक सेवा वितरण और नागरिक भागीदारी के अन्य प्रकारों समेत गतिविधियों की वह श्रृंखला जिन्हें किसी आर्थिक भुगतान की प्रेरणा से नहीं किया जाता है।”

यदि वॉलंटीयरिंग सही ढंग से किया जाए तो यह स्वयंसेवकों और वे जिस समाजसेवी संस्था के लिए काम कर रहे हैं, दोनों के लिए लाभकारी होता है। दरअसल स्टेट ऑफ़ द वर्ल्ड्स वालंटियरिज़्म रिपोर्ट (एसडबल्यूवीआर) 2011 के अनुसार “इतिहास में कभी भी लोगों के पास कभी प्रमुख कर्ता-धर्ता बनने की इतनी ताकत नहीं रही कि वे कुछ न कर सकने और केवल देखते रहने की बजाय अपने भविष्य को आकार देने वाली घटनाओं को इतना प्रभावित कर सकें।”

प्रथम में लीडरशीप टीम के ज़्यादातर सदस्यों ने अपनी यात्रा एक वॉलंटीयर के रूप में ही शुरू की थी और धीरे-धीरे वे देश भर में बड़े-पैमाने पर होने वाले कार्यक्रमों का नेतृत्व करने लगे। वॉलंटीयरिंग से जुड़ी गतिविधियों में शामिल होने से हर नेता के लिए अलग-अलग तरह के आयाम खुले हैं। इनमें उनकी रुचियों को लेकर बेहतर समझ, करियर से जुड़े निर्णय लेते समय विस्तृत जानकारी और नेटवर्क बनाया जाना भी शामिल है।

प्रथम ने 25 से अधिक वर्षों में वॉलंटीयर इंगेजमेंट के तहत देश भर में (20,000 समुदायों से जुड़े हुए) एक लाख से अधिक वॉलंटीयरों के साथ काम किया है। इस अनुभव के आधार पर हम यहां कुछ सबसे कारगर तरीक़ों के बारे में बता रहे हैं।

1. प्रभावी ढंग से “क्यों, कैसे और कब” के बारे में बात करें

वॉलंटीयरिज्म की पूरी मूल्य श्रृंखला में यह शायद सबसे महत्वपूर्ण काम है। कार्यक्रम की रूपरेखा को साफ तरह से बताना, समुदाय को इससे होने वाले फ़ायदे, और भाग लेने पर स्वयंसेवकों को फायदा होना आवश्यक है। स्वयंसेवक के समय और प्रतिभा का प्रभावी ढंग से उपयोग करना संगठन की जिम्मेदारी है। ऐसा करने के लिए, संगठन एक प्रस्ताव कार्यक्रम बना सकते हैं जिसमें निम्नलिखित बातों को शामिल किया जाता है:

2. गतिविधि, सोच-विचार, प्रतिक्रिया (एक्टिविटी, रिफ्लेक्शन, फ़ीडबैक – एआरएफ) प्रशिक्षण पद्धति को अपनाएं

गतिविधि-केंद्रित पद्धतियों के साथ छोटी अवधि का प्रशिक्षण वॉलंटीयरों के लिए सबसे अधिक कारगर होता है। प्रथम में हम लोग अपने ज़्यादातर वॉलंटीयर प्रशिक्षण के लिए एआरएफ़ पद्धति अपनाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि वॉलंटीयरों को ग्राम-स्तरीय सर्वे करना है तब उनकी गतिविधि में साथी वॉलंटीयरों के साथ सर्वेक्षण करना और डमी सरपंच हितधारकों के साथ बातचीत में भूमिका निभाना शामिल होता है। समीक्षा सत्रों में, हर वॉलंटीयर को जोड़ियों/समूहों के बीच शिक्षाओं, शंकाओं और प्रश्नों को साझा करने के लिए कहा जाता है। हमने पाया है कि इस तरह से प्रशिक्षण आपस में संवाद करने वाला बनाना गहरे अनुभव को हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण है।

3. कार्यों, भूमिकाओं और जिम्मेदारियों में नवीनता लाएं

विभिन्न अंतरालों पर अलग-अलग कामों में वॉलंटीयरों को शामिल करने से उनके उत्साह को बनाए रखने में मदद मिलती है। इन कार्यों में एक सर्वेक्षण आयोजित करना, समुदाय के सदस्यों का एक वीडियो टेस्टीमोनियल रिकॉर्ड करना, एक प्रदर्शनी का आयोजन करना, सामुदायिक बच्चों के साथ शिक्षण शिविर आयोजित करना और अपशिष्ट प्रबंधन अभियान आयोजित करना शामिल हो सकता है।

गांव में सर्वे करते स्वयंसेवक-एनजीओ स्वयंसेवक
विभिन्न अंतरालों पर विभिन्न कार्यों में वॉलंटीयरों को शामिल करने से उनके उत्साह को बनाए रखने में मदद मिलती है। | चित्र साभार: प्रथम

4. सीख-आधारित प्रोत्साहन प्रदान करें

कभी-कभी, वॉलंटीयरों को आर्थिक प्रोत्साहन देने से बजट पर असर पड़ सकता है। ऐसे समय में, हमने पाया कि ग़ैर-मौद्रिक प्रोत्साहन से वॉलंटीयरों की रुचि को लम्बे समय तक बनाए रखने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए प्रथम अपने वॉलंटीयरों को सात अलग-अलग उद्योग ट्रेडों के मूल सिद्धांतों पर लघु शिक्षण मॉड्यूल प्रदान करता है। ये पाठ्यक्रम अलग-अलग क्षेत्रों में उपलब्ध विभिन्न करियर विकल्पों की एक झलक पेश करते हैं। हमने पाया है कि वॉलंटीयर इनमें रुचि लेते हैं। ग़ैर-मौद्रिक प्रोत्साहन के लिए संगठन अन्य विकल्पों का रुख भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए डिजिटल टूल्स के लिए अपस्किलिंग सेशन, बेसिक एमएस ऑफ़िस कौशल, या कुछ भी ऐसा जो वॉलंटीयर सीखना चाहते हैं। इसके अलावा, प्रमाणपात्रों का भी बहुत अधिक महत्व होता है।

5. सामूहिक विकास को साझा करें

परियोजना और वॉलंटीयर प्रगति को साझा करने के लिए नियमित बैठकें आयोजित करने से नियंत्रण की भावना पैदा करने में मदद मिलती है। हर फ़ील्ड लीडर को परियोजना के प्रभाव को वॉलंटीयरों के साथ साझा करना चाहिए, साथ ही सुधार के लिए उनके इनपुट और सुझाव भी लेने चाहिए। वॉलंटीयरों को सेवाओं में आने वाली कमियों की पहचान करने और सामुदायिक चुनौतियों को हल करने हेतु नए विचार उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

यह लेख मूल रूप से प्रथम द्वारा प्रकाशित किया गया था

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