November 16, 2022

भारत में पिछड़े समुदायों और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के बीच की दूरी कम क्यों नहीं हो रही है?

भारत में थैरेपिस्ट अक्सर मानसिक स्वास्थ्य में मदद चाहने वालों को अपने सामाजिक तबके से अलग मानते हैं। एक अध्ययन बताता है कि क्यों यह नजरिया कारगर नहीं है और इसे सही करने के लिए क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं।
9 मिनट लंबा लेख

विश्वभर में, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवरों ने (बहुत) धीरे-धीरे लोगों के सामाजिक वातावरण पर ध्यान देना शुरू किया है। अब किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बातचीत में राजनीति, इतिहास और अर्थशास्त्र जैसे विषय तेज़ी से शामिल होते जा रहे हैं। लेकिन एक इंसान के मानसिक स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों, जैसे भेदभाव, पक्षपात और पूर्वाग्रह, को बहुत कम शोधकर्ता और उससे भी कम मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सक स्वीकार करते हैं। नतीजतन, एक बड़ा तबका ऐसा रह गया है जिसे सिद्धांत और व्यवहार, दोनों में ही शामिल नहीं किया गया है।

ऐसे अनगिनत शोध हैं जो मानसिक स्वास्थ्य के अनुभवों में पहचान संबंधी असमानताओं पर चर्चा करते हैं। ये असमानताएं लिंग, जाति और धर्म, सेक्शुएलिटी से जुड़ी होती हैं।1,2 अल्पसंख्यक और समाज के पिछड़े समुदाय तनाव के कारकों से कहीं अधिक प्रभावित होते हैं। सामान्य आबादी की तुलना में इन तबकों में अवसाद और चिंता जैसे मानसिक विकार ज्यादा देखने को मिलते हैं। एक व्यक्ति की सामाजिक पहचान जैसे कि लिंग, धर्म, जाति और सेक्शुएलिटी आदि उसके व्यक्तिगत, आपसी और संस्थागत स्तरों पर उसके जीवन के अनुभवों को समृद्ध या कुंठित बनाती हैं। एक चिकित्सक (थैरेपिस्ट) मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपचार चाहने वालों को, उन व्यवस्थाओं के साथ सामंजस्य बिठाने में मदद कर सकता है जो उनके जीवन को परिभाषित करती हैं। साथ ही उनके स्वास्थ्य और आपसी संबंधों पर असर डालती हैं। लेकिन, वास्तविकता में, शायद ही कभी थैरेपिस्ट मरीज़ के सामाजिक ढांचे को भी पहचान पाते हैं। ऐसे में उस व्यक्ति पर पड़ने वाले इनके मनोवैज्ञानिक असर की बात तो छोड़ ही दी जानी चाहिए।

आमतौर पर थैरेपिस्ट यह मानते हैं कि ‘क्लाइंट सेंटर्ड’ नजरिया मरीज़ द्वारा अपने सामाजिक सच का सामना करने की किसी भी जरूरत को नज़रअंदाज़ कर देता है।

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कुछ ही पेशेवर किसी व्यक्ति की सामाजिक पहचान को ध्यान में रखते हुए, थैरेपी के दौरान उनसे जुड़ने, बचाव के तरीक़े तय करने और उनके बारे में जानने को महत्व देते हैं। अपनी प्रैक्टिस में ऐसा करने वाले थैरेपिस्ट्स की संख्या इससे भी कम है। इसके बजाय, प्रमुख समूहों के थैरेपिस्ट वन-साइज़-फिट-ऑल वाले तरीक़े को अपनाते हैं3 और दावा करते हैं कि व्यक्ति-केंद्रित होना भी सबको शामिल करने जैसा ही है। उदाहरण के लिए, थैरेपिस्ट अक्सर मानते हैं कि किसी व्यक्ति को उसके परिवेश से अलग करने वाले ‘व्यक्ति-केंद्रित‘ या ‘क्लाइंट-सेंटर्ड’ नज़रिए में, उसे उसके सामाजिक सच का सामना करने की किसी भी जरूरत को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। लेकिन क्या किसी व्यक्ति को ‘केंद्र में रखने’ का अर्थ उसके जीवन के अनुभवों को आकार देने वाली सभी सामाजिक परिस्थितियों को केंद्र में रखना नहीं है? आख़िरकार, व्यक्तिगत भी (गहराई में) राजनीतिक ही होता है।

ग़ैरसमावेशी चिकित्सा (नॉनइंक्लूसिव थैरेपी) में लोगों का विश्वास कम होता है

2022 की शुरुआत में, सामाजिक परिवर्तन और विकास के मिले-जुले नजरिए के साथ काम करने वाले एक सामाजिक उद्यम बिलॉन्ग ने 111 लोगों पर एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में उनकी सामाजिक पहचान, पहचान-आधारित भेदभाव और पूर्वाग्रह के अनुभवों के बारे में पूछा गया। साथ ही उनके मानसिक स्वास्थ्य और अतीत में ली गई किसी तरह की चिकित्सीय या मनोरोग सेवाओं जैसे मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल से जुड़े अनुभवों पर बात की गई। अध्ययन से पता चला कि 59.46 प्रतिशत प्रतिभागियों को अपने जीवन में पहचान-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ा था। इनमें से लगभग एक चौथाई को हर दिन ऐसी स्थितियों से गुजरना पड़ा था। भेदभाव से पीड़ित इन लोगों में से केवल आधे ही लोग मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग कर रहे थे। इन सेवाओं का लाभ न उठा पा रहे लोगों ने बताया कि ऐसा न कर पाने में इनका महंगा होना एक बड़ी बाधा है।
पहचान-केंद्रित भेदभाव से पीड़ित कोई व्यक्ति जब आर्थिक बाधाओं और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी धारणाओं से पार पाकर, किसी पेशेवर तक पहुंचता है तो नई क़िस्म की चुनौतियां वहां उसके इंतज़ार में होती हैं। उसका सामना उन थैरेपिस्ट्स से होता है जो विभिन्न सामाजिक समूहों को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए किसी थैरेपिस्ट द्वारा की गई जातिवादी टिप्पणी पीड़ित को उपचार में अपनी दलित पहचान को छुपाने के लिए प्रेरित करता है।

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एक महिला खुले दरवाज़े वाले एक कमरे में बैठी हुई_मानसिक स्वास्थ्य
प्रमुख समूहों के थैरेपिस्ट वन-साइज़-फिट-ऑल वाले तरीके को अपनाते हैं और दावा करते हैं कि व्यक्ति-केंद्रित होना भी समावेशी होने जैसा ही है। | चित्र साभार: पेक्सल्स

इस तरह अपने सामाजिक और राजनीतिक रुख की झलक दिखाकर मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों ने, इलाज चाहने वालों के लिए थैरेपी को एक मुश्किल काम बना दिया है। ये लोग वही हैं जो अभी ‘स्थिति को भांप’ ही रहे थे। 28 साल के क्वीर दलित अजय ने चिकित्सा में कुछ विषयों पर ध्यान दिलाने और उनकी जाति के लोगों को इससे बाहर रखने जैसी बातें सामने लाईं। ऐसा तब हुआ जब चिकित्सक की प्रतिक्रियाओं से जातिगत भेदभाव का पता चला। इसके अलावा, अध्ययन के प्रतिभागियों के अनुभव से यह भी पता चला कि क्वीर-अफ़रमेटिव थैरेपी अक्सर एकदम ग़लत दिशा ले लेती है। यह किसी व्यक्ति विशेष की सेक्शुएलिटी को मान्यता देती है वहीं किसी दूसरे को अमान्य बताती है जो संभवतः किसी व्यक्ति में अधिक मुखर होता है और उसकी पहचान का हिस्सा होता है। ऐसा तब भी होता है जब जाति-आधारित भेदभाव का किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। स्थिति तब और विकट हो जाती है जब ‘नीची’ जाति से जुड़ी पहचान और अल्पसंख्यक सेक्शुअल पहचान एक साथ आ जाती है।4

चिकित्सक सुरक्षित जगह कैसे बना सकते हैं?

अप्रत्याशित रूप से, बहुत कम प्रतिभागियों ने चिकित्सा में अपने पहचान-संबंधी अनुभवों पर चर्चा की। वे लोग जिन्होंने परिवार के सदस्यों, प्रोफेसरों साथियों आदि के साथ भेदभाव जैसे मुद्दों पर चर्चा की थी, उन्होंने अपने अपने अनुभवों को बाकियों की तुलना में ख़राब बताया।

भारतीय समाज तेजी से बंटता जा रहा है इसलिए पेशेवरों को सामाजिक सहिष्णुता और स्वीकृति के संकेत को मुखरता से वरीयता देनी चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि क्लाइंट-थैरेपिस्ट संबंध में बहुत अधिक शक्ति असंतुलन है। उन्हें इस धारणा से दूर हो जाना चाहिए कि उनका पेशेवर नाम और समानुभूति का वादा किसी व्यक्ति को केवल उनकी मौजूदगी भर से सुरक्षित महसूस करवा सकता है। इस अध्ययन में थैरेपी को अधिक समावेशी बनाने के कुछ तरीक़ों पर प्रकाश डाला गया है।

1. छोटे इशारे बड़ी बात कहते हैं

थैरेपिस्ट को समावेशी, दमन-विरोधी, या अधिकार दिलाने वाले के झंडाबरदार के तौर पर सामने आने की जरूरत नहीं है। 28 साल की क्वीर महिला मधु कहती हैं कि “कभी-कभी आपके कमरे में लगा सतरंगी झंडा भी व्यक्ति से कह देता है कि ‘दोस्त! मुझसे बात कर सकते हो।’ थैरेपिस्ट के कमरे में किसी ग़ैर-पश्चिमी देश की कला दिखाने वाली कोई चीज उनके बहु-सांस्कृतिक होने की बात कह देती है। उपचार करवाने वाले की सोच ऐसी बहुत साधारण चीजों से प्रभावित हो सकती है। पेशेवर कुछ छोटे-छोटे कदम उठा सकते हैं – जैसे कि अपने वेबसाइट पर एक पिन, एक पोस्टर या कुछ ऐसे शब्दों को जोड़ना जो उनके समावेशी नजरिए की तरफ इशारा करते हों।

2. नियमित रूप से होने वाले कौशल प्रशिक्षण बहुत ही जरूरी हैं

ख़ासतौर पर कुछ अल्पसंख्यक समूहों के साथ काम करने के लिए प्रशिक्षित किए गए और उनके साथ काम करके अनुभव हासिल करने वाले मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को, इस तरह से प्रशिक्षित न किए गए और ग़ैर-अनुभवी पेशवेरों की तुलना में बेहतर आंका जाता है। प्रतिभागियों द्वारा मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों से किए जाने वाले प्रश्न बहुत ही सरल थे। उनकी इच्छा थी कि पेशेवर मनोचिकित्सक अपने परिचय में छोटी से छोटी चीजों को शामिल करें। ऐसा करने से वे शुरूआती सत्रों में थैरेपिस्ट को समझने में खर्च होने वाले पैसे और ऊर्जा बचा सकते हैं। वे चाहते हैं कि पेशवेर सामाजिक रूप से अधिक जागरूक हों और वर्कशॉप के जरिए अपने ज्ञान और कौशल को अपडेट करते रहें।

3. थैरेपिस्ट की पहचान महत्वपूर्ण है

अध्ययन में हिस्सा लेने वाले भेदभाव से पीड़ित कुछ प्रतिभागियों को यह महसूस हुआ कि उनके और मानसिक चिकित्सा पेशेवरों के बीच बड़ा सामाजिक अंतर है। इस अंतर को किसी भी प्रशिक्षण, अपस्किलिंग और पढ़ाई-लिखाई से दूर नहीं किया जा सकता है। उत्तर-पूर्वी भारत से आने वाली एक 25 वर्षीय महिला को उसके धर्म और नस्लीय पहचान के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा। इस महिला ने कहा कि “थैरेपिस्ट, थैरेपी की जगह या बातचीत को कितना भी सहज बना ले, मुझे नहीं लगता है कि इससे कुछ मदद मिल सकती है।” इससे सहमत होते हुए मधु ने कहा “सहज महसूस करने के लिए मुझे अपने (क्वीर) समुदाय के किसी थैरेपिस्ट की ज़रूरत है।”

एक पेशे के रूप में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को समावेशी होने के लिए उसे आर्थिक रूप से स्थाई होना चाहिए।

लोगों को उनके समुदाय के एक पेशेवर से मिलाने के लिए, प्रणालीगत और संस्थागत बदलावों की जरूरत है। अल्पसंख्यक समुदायों के लिए शिक्षा को सुलभ बनाना एक कठिन काम है। इसी तरह एक पेशे के रूप में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को आर्थिक रूप से स्थाई होना चाहिए ताकि पिछड़े समुदायों के लोग भी इसकी ओर आकर्षित हो सकें। 

यह अध्ययन मानसिक स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में मौजूद कई कमियों की पहचान करता है। इनसे हाशिए पर जी रहे लोगों तक पेशेवर मदद पहुंचना मुश्किल हो जाता है। इन कमियों को दूर करने के लिए कई तरह के बदलावों की ज़रूरत है। इसमें छोटे बदलाव शामिल हैं जो मानसिक स्वास्थ्य देखभाल पेशेवर, मदद चाहने वालों के लिए अधिक समावेशी स्थान बनाकर कर सकते हैं। लेकिन बड़े, प्रणालीगत बदलाव, जैसे कि भारत की शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के कामकाज में बदलाव भी उतना ही आवश्यक होगा।

सारांश बिष्ट ने इस लेख में योगदान दिया।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

फुटनोट:

  1. एस मल्होत्रा एंड आर शाह, ‘वीमेन एंड मेंटल हेल्थ इन इंडिया: एन ओवरव्यू’, इंडियन जर्नल ओफ़ सायकाइयट्री, 57 (2), S205, (2015).
  2. जे आर वंडरेकर एंड ए एस निगडकर, ‘व्हाट डू वी नो अबाउट LGBTQIA + मेंटल हेल्थ इन इंडिया? ए रिव्यू ऑफ़ रिसर्च फ़्रॉम 2009 टू 2019’, जरनल ऑफ़ साइकोसेक्शुअल हेल्थ, 2(1), 26–36, (2020).
  3. सी लागो, ‘डायवर्सिटी, ऑप्रेशन, एंड सोसायटी: इमप्लिकेशंस फ़ॉर पर्सन-सेंटर्द एंड इक्स्पीरीएन्शल सायकोथिरेपीज, 10(4), 235–47, (2011).
  4. ए एस अस्करी एंड बी डूलिटिल, ‘अफ़र्मिंग, इंटरसेक्शनल स्पेसेज एंड पोज़िटिव रिलीजियस कोपिंग: एविडेन्स-बेस्ड स्ट्रेटेजिज टू इम्प्रूव द मेंटल हेल्थ ऑफ़ LGBTQ-आईडेनटीफ़ाईंग मुस्लिम्स’, थियोलॉजी एंड सेक्शूऐलिटी, 1–10, (2022).

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  • जानें कि समुदाय मानसिक स्वास्थ्य की ज़रूरतों की संस्थागतकरण से आगे बढ़कर सोचने और काम करने की ज़रूरत क्यों है।
  • समझें कि जलवायु आपदाएं समुदायों को मनोवैज्ञानिक रूप से कैसे प्रभावित करती हैं।
  • जानें कि जातिवाद कैसे भारत में सामाजिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।

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लेखक के बारे में
अनुग्रह रमन-Image
अनुग्रह रमन

अनुग्रह रमन बिलॉन्ग में सहयोगी हैं। उन्होंने टीआईएसएस से मनोविज्ञान में बीए किया है। वे हाशिए पर रह रहे तबकों के प्रति मनौवैज्ञानिक समझ विकसित करना चाहती हैं। उनका उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य में सुधार, स्वास्थ्य प्रणालियों को संवेदनशील बनाने, नीतियों को बेहतर बनाने और मानसिक स्वास्थ्य समानता लाना है। अनुग्रह नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व के स्वदेशी समुदायों के साथ भी काम कर चुकी हैं, मनोविकृति से पीड़ित महिलाओं पर शोध में सहायक रही हैं और शहरी झुग्गियों में किशोरों के साथ काम किया है।

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