February 1, 2023

भारत में कामकाजी महिलाएं क्या और क्यों चाहती हैं?

एफएसजी का एक अध्ययन रोज़गार के प्रति महिलाओं के नज़रिए और प्राथमिकता को दिखाता है और श्रमबल में उनकी भागीदारी में परिवार और समाज की भूमिका पर बात करता है।
8 मिनट लंबा लेख

भारत में लैंगिक समानता को आगे बढ़ाने और समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि कम आय वाले परिवारों की अधिक से अधिक महिलाओं को रोजगार मिले। यदि केवल आर्थिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो कार्यबल की भागीदारी में लैंगिक समानता हासिल करने से भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 27 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। हालांकि श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी में कमी आ रही है। साल 2005 से 2019 के बीच भारत में महिला कार्यबल भागीदारी 45 फ़ीसद से घटकर 27 फ़ीसद हो गई है।

देश में कुल 35.4 करोड़ कामकाजी उम्र की महिलाएं हैं, जिनमें से 12.8 करोड़ शहरों में रहती हैं। इनमें से कुल 20 फ़ीसद ही कार्यबल का हिस्सा हैं। भारत की शहरी कामक़ाज़ी उम्र की महिलाओं में 83 फ़ीसद महिलाएं निम्न आय वाले घरों से आती हैं। निम्न आय वाले घरों से आने वाली महिलाओं में जहां 85 फ़ीसद महिलाएं कॉलेज तक नहीं पहुंच पाती हैं, वहीं 50 फ़ीसद महिलाएं अपनी 10वीं तक की पढ़ाई भी पूरी नहीं करती हैं। इसलिए, महिलाओं की भागीदारी को सार्थक रूप से बढ़ाने के लिए, निम्न-आय और निम्न-शिक्षा पृष्ठभूमि की महिलाओं को रोज़गार दिए जाने की आवश्यकता है।

भारतीय महिलाओं को आगे बढ़ने से क्या रोक रहा है? 

इस सवाल का जवाब देने के लिए, परिवार और समाज की उस भूमिका पर गौर करना जरूरी है जो वह महिलाओं की परवरिश और उनके सामाजिक मेलजोल में निभाता है। महिलाओं की फैसले लेने की क्षमता पारिवारिक प्रतिबद्धताओं और आस्थाओं से जुड़ी होती है। समाज बाधाएं थोपता है और महिलाओं की मानसिकता को भी प्रभावित करता है। 

श्रम बाज़ार भागीदारी, वेतनमान में अंतर और इसी तरह का सेकंडरी डेटा जहां ठीक-ठाक मात्रा में उपलब्ध हैं। वहीं, महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकने के पीछे की वजहों और रोज़गार से जुड़ी उनकी प्राथमिकताओं पर बारीक समझ को विकसित करना भी अभी बाक़ी है और उतना ही जरूरी है।

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एफ़एसजी में हमने 14 राज्यों के 16 शहरों में निम्न आय वर्ग वाले घरों की 6,600 कामकाजी-वर्ग की महिलाओं से बात की। हमारा लक्ष्य महिलाओं की आस्थाओं, प्रेरणाओं और रोज़गार की प्राथमिकताओं को समझना था। साथ ही, महिलाओं के उस वर्ग की पहचान करना था जो भविष्य में नौकरी करने की तरफ बढ़ सकती थीं। इसके अलावा, कार्यबल में इन महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने में मददगार साबित होने वाली रणनीतियां तय करना भी था।

हम यहां इस रिपोर्ट की कुछ मुख्य जानकारियां साझा कर रहे हैं।

1. महिलाओं को अभी भी काम करने के लिए पुरुषों से अनुमति लेनी पड़ती है

अपने इस सर्वे में हमने पाया कि 84 फ़ीसद महिलाओं को काम करने के लिए अपने परिवारों से अनुमति लेनी पड़ती है। ऐसी तीन में से एक महिला जो न तो काम कर रही हैं और ना ही काम की तलाश में हैं, उनकी इस स्थिति के पीछे का मुख्य कारण अनुमति प्राप्त न कर पाना या फिर समुदाय में ऐसे उदाहरणों की कमी होना है। 

2. प्रमुख निर्णयकर्ताओं का दृष्टिकोण केवल सैद्धांतिक रूप में प्रगतिशील होता है न कि व्यावहारिक रूप से

हमने एक महिला के परिवार में प्रमुख निर्णय लेने वाले की पहचान, परिवार के उस सदस्य के रूप में की जिससे उसे नौकरी या व्यवसाय करने के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता है। 90 फ़ीसद से अधिक प्रमुख निर्णयकर्ता इस बात से सहमत मिले कि आत्मनिर्भर होने के लिए एक महिला के पास नौकरी होनी चाहिए। साथ ही, उनका यह भी मानना है कि एक कामकाजी महिला परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ाने में मददगार साबित हो सकती है। लेकिन बात जब उनके अपने परिवार की महिलाओं की आती है, तब चार में से एक मुख्य निर्णयकर्ता का ऐसा मानना है कि महिलाओं को बिल्कुल भी काम नहीं करना चाहिए। वहीं, बाक़ी बचे लोगों में 72 फ़ीसद ऐसा मानते हैं कि महिलाओं को केवल अपने घरों से ही काम करना चाहिए या फिर छोटे-मोटे व्यवसाय तक ही सीमित रहना चाहिए ताकि अधिक से अधिक समय घर की देखभाल में लगाया जा सके।

3. महिलाएं परिवार के सहयोग की वजह से नहीं बल्कि अभाव के कारण काम कर रही हैं

कामकाजी महिलाओं वाले घरों में भी, 41 फ़ीसद प्रमुख निर्णयकर्ताओं का मानना ​​है कि घर से बाहर काम करने वाली महिलाएं अपने परिवार और घरों की ठीक से देखभाल नहीं कर पाती हैं। वहीं, 21 फ़ीसद चाहते हैं कि उनके घरों में महिलाएं बिल्कुल भी काम न करें। 77 फ़ीसद का कहना है कि महिलाएं घर से काम करें या कोई छोटा व्यवसाय चला लें जिससे कि वे घर पर अधिक समय दे पाएंगीं। घरेलू कामों और बच्चों की देखभाल का बोझ भी ग़ैर-अनुपातिक ढंग से महिलाओं पर ही पड़ता है। कामकाजी और ग़ैर-कामकाजी दोनों ही तरह की महिलाएं प्रतिदिन चार घंटे से अधिक समय अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों जैसे कि खाना पकाना, साफ़-सफ़ाई और कपड़े धोने को पूरा करने में लगाती हैं। इसमें बच्चों की देखभाल, स्कूल का काम करने में उनकी मदद या फिर उन्हें स्कूल छोड़ने और वहां से लाने जैसे काम शामिल नहीं हैं। दूसरी तरफ़ शहरी पुरुष औसतन प्रतिदिन मात्र 25 मिनट का समय ही अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों को निभाने में लगाता है।

4. बच्चों की देखभाल महिला की ज़िम्मेदारी मानी जाती है

महिलाओं का मानना ​​है कि मांओं को घर से बाहर काम करना चाहिए जबकि पुरुष ऐसा नहीं सोचते हैं। हमारे शोध से यह बात सामने आई है कि 88 फ़ीसद महिलाएं मानती हैं कि बच्चे के जन्म के बाद भी एक महिला बाहर जाकर काम कर सकती है। 52 फ़ीसद महिलाएं सोचती हैं कि छः वर्ष से कम आयु वाले बच्चों की मांएं घर से बाहर जाकर काम करने में सक्षम हैं। इसके विपरीत 61 मुख्य निर्णयकर्ताओं की सोच यह है कि छोटे बच्चों (छः वर्ष से कम आयु वाले) की मांओं को घर से बाहर जाकर काम की तलाश नहीं करनी चाहिए। 

5. अधिकांश शहरी माताएं पैसे दे कर डेकेयर की सुविधाएं नहीं लेना चाहती हैं

12 वर्ष या उससे कम उम्र के बच्चों के लिए, एक फ़ीसद से कम कामकाजी मांओं (वर्तमान या पूर्व) ने सशुल्क चाइल्डकैअर सेवाओं का उपयोग किया है। अपने काम की प्रकृति के बावजूद, 89 फ़ीसद माताएं सशुल्क डे-केयर पर विचार करने को तैयार नहीं हैं। इसलिए कि उनमें से 41 फ़ीसद मांओं का ऐसा विश्वास है कि बच्चों की देखभाल करना उनका अपना काम है। 38 फ़ीसद महिलाएं डे-केयर सेवाओं पर भरोसा नहीं करती हैं। इसके अलावा, 75 फ़ीसद प्रमुख निर्णयकर्ताओं ने कहा कि वे बच्चों को पेड डे-केयर में भेजने की अनुमति नहीं देंगे। 

इसके पीछे सामर्थ्य की कमी कोई बड़ी वजह नहीं है। केवल 15 फ़ीसद मांओं और एक फ़ीसद प्रमुख निर्णयकर्ताओं ने सशुल्क डे-केयर का विकल्प न चुनने के कारण सामर्थ्य की कमी का हवाला दिया। इन 15 फ़ीसद में से आधे लोगों का कहना था कि वे अपने बच्चों को आंगनवाड़ी नहीं भेजना चाहते हैं। आंगनवाड़ी सरकार द्वारा दिन में कुछ सीमित घंटों के लिए बच्चों के लिए दी जाने डे-केयर की सुविधा है। इसके पीछे असुरक्षित माहौल और परिवार की तरह का देखभाल न होने जैसे कारण हैं।

6. महिलाओं को लैंगिक व्यवसायों में प्रशिक्षित किया जाता है

30 फ़ीसद से अधिक महिलाओं ने एक स्तर तक व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त किया है। वहीं 85 फ़ीसद प्रशिक्षित महिलाओं ने सिलाई या टेलरिंग, सौंदर्य या मेकअप सेवाओं, और मेहंदी आवेदन जैसे लिंग संबंधी नौकरियों में प्रशिक्षण लिया है। निम्न-आय और निम्न-शिक्षा पृष्ठभूमि की कुछ महिलाएं गैर-पारंपरिक नौकरियों के लिए इच्छुक होती हैं। दो में से एक महिला ऐसे वातावरण में काम करने में सहज है जहां 90 फ़ीसद पुरुष हैं। 42 फ़ीसद महिलाएं व्यक्तिगत रूप से ग्राहकों को उत्पाद बेचने को तैयार हैं। वहीं 72 फ़ीसद का मानना ​​है कि वे 15 किलोग्राम तक का भार उठा सकती हैं।

7. महिलाएं व्यवसाय करने से अधिक नौकरी को तरजीह देती हैं

कम आय वाले परिवारों में अधिकांश प्रमुख निर्णय निर्माताओं को लगता है कि उनके अपने परिवारों में महिलाओं को छोटे-मोटे व्यवसाय करने चाहिए जिससे कि वे घर में अधिक समय दे पाएंगीं। जबकि 59 महिलाएं उद्यमिता से अधिक नौकरी को तरजीह देती हैं और दो तिहाई महिलाएं ऐसी हैं जो काम करना पसंद करती हैं। इसके अलावा, 93 फ़ीसद महिलाएं दैनिक वेतन से अधिक निश्चित वेतन को प्राथमिकता देती हैं।

भारतीय महिला एक पुरुष के पीछे स्मार्टफोन लिए खड़ी है-भारतीय महिलाएं रोज़गार
जबकि महिलाओं का मानना ​​है कि मांओं को घर से बाहर काम करना चाहिए वहीं पुरुषों की सोच ऐसी नहीं है। | चित्र साभार: एडम कोहन / सीसी बीवाई

बाधाओं के बावजूद महिलाएं काम करना चाहती हैं

हमारा शोध कहता है कि इन बाधाओं के बावजूद भी 33 फ़ीसद गैर कामकाजी महिलाएं काम करने की इच्छुक हैं। वहीं दो में से एक महिला या तो नौकरी कर रही है या नौकरी की तलाश कर रही है। इसके अलावा, 64 फ़ीसद महिलाओं का दृढ़ विश्वास है कि आत्मनिर्भर होने के लिए काम करना जरूरी है। बावन फ़ीसद कामकाजी महिलाओं का कहना है कि उन्हें काम करने में मज़ा आता है, और 90 फ़ीसद कामकाजी महिलाओं का मानना ​​है कि नौकरी करना सही है।

आज अधिक संख्या में महिलाएं शिक्षित हो रही हैं। उन्हें अपनी क्षमताओं पर भरोसा है। 90 फ़ीसद से अधिक महिलाओं के काम करने या नौकरी की तलाश के पीछे का प्रमुख कारण अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक खर्च उठाना है। महिलाएं आर्थिक कारणों से काम करना शुरू करती हैं, लेकिन आर्थिक आवश्यकता से परे भी वह काम करना जारी रखना चाहती हैं। केवल 20 फ़ीसद महिलाओं ने ही कहा कि आर्थिक तंगी नहीं होने की स्थिति में वे काम करना बंद कर देंगी। वहीं, 78 फ़ीसद रिटायरमेंट की उम्र में पहुंचने तक या स्वास्थ्य ठीक रहने तक काम करने की इच्छुक हैं। नौकरी की तलाश कर रही महिलाओं में भी केवल 32 फ़ीसद ने कहा कि आर्थिक तंगी समाप्त हो जाने की स्थिति में काम ढूंढ़ना बंद कर देंगी। 

मददगार साबित न होने वाले सामाजिक मानदंड, बच्चों की देखभाल से जुड़े गहरे बैठे मानसिक मॉडल और प्रचलित पूर्वाग्रह महिलाओं की नौकरी में काम करने की प्रवृत्ति को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। लेकिन इन कारकों से सभी महिलाएं समान रूप से प्रभावित नहीं होती हैं। बिन बच्चों वाली महिलाओं, बड़े उम्र के बच्चों वाली महिलाओं और कामकाजी महिलाओं के सम्पर्क में रहने वाली महिलाओं में काम या नौकरी करने की उच्च प्रवृति पाई जाती है।

हम इन बाधाओं को कैसे दूर कर सकते हैं?

अनगिनत हितधारकों की ओर से किया गया एक ठोस प्रयास महिलाओं को शामिल करने वाली अधिक उपयुक्त इकोसिस्टम बना सकता है। लोगों, खासतौर पर पुरुषों को काम पर महिलाओं की जरूरतों पर धारणा बनाने से बचना चाहिए और इसकी बजाय उनकी प्रमुख और बदल रही जरूरतों को समायोजित करने के लिए लचीला होना चाहिए। कंपनियों को जेंडर-डाइवर्स वर्कफोर्स के व्यावसायिक लाभों को साझा करके पूर्वाग्रहों या कथित जोखिमों पर बात करनी चाहिए। सरकारें मातृ अवकाश को पैतृक अवकाश से बदलकर नीतियों को अधिक समावेशी बना सकती हैं।

फ़िलैन्थ्रॉपी करने वाली संस्थाएं सार्वजनिक जागरूकता अभियानों को फंड कर सकती हैं, जिसमें चाइल्डकैअर को जीवनसाथी या घरेलू भागीदारों की साझा जिम्मेदारी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। हमारे शोध से प्राप्त जानकारी का उपयोग करते हुए, एफ़एसजी के ग्रोइंग लाइवलीहुड ऑपर्च्युनिटीज़ फॉर वीमेन (GLOW) प्रोग्राम का उद्देश्य कंपनियों की मानसिकता और प्रथाओं को बदलकर कम आय वाले परिवारों की दस लाख से अधिक महिलाओं को नौकरियों में रखना है। 

वर्तमान लैंगिक-असमान व्यवस्था हमारे सामूहिक विकल्पों और दृष्टिकोणों का परिणाम है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम बेहतर विकल्प का चुनाव करें और भारत को अधिक लैंगिक-समानता वाला समाज और कार्यबल बनाने का प्रयास करें।

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  • विस्तृत रिसर्च रिपोर्ट यहां पढ़ें
  • वीमेन इन लेबर पॉडकास्ट सुनें जो महिलाओं, काम, परिवार और शक्ति से संबंधित वर्जित विषयों की पड़ताल करता है।
  • इस लेख को पढ़ें और समझें कि महिलाओं के लिए बनाए गए कार्यक्रमों के सकारात्मक प्रभावों को कैसे प्रतिबंधित लिंग मानदंड कम कर सकते हैं। 

लेखक के बारे में
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विक्रम जैन

विक्रम जैन एफएसजी में पहल के प्रबंध निदेशक हैं। यह एक मिशन-संचालित परामर्श फर्म है जो कॉर्पोरेशनों और फाउंडेशनों के साथ समान व्यवस्था परिवर्तन बनाने के लिए साझेदारी करती है। विक्रम एफएसजी के प्रोग्राम टू इंप्रूव प्राइवेट अर्ली एजुकेशन (PIPE) का नेतृत्व करते हैं, जिसका लक्ष्य भारत के सभी 3,00,000 किफायती निजी स्कूलों में रटंत शिक्षा को गतिविधि-आधारित शिक्षा से बदलना है। एफ़एसजी के ग्रोइंग लाइवलीहुड ऑपर्च्युनिटीज़ फॉर वीमेन (GLOW) कार्यक्रम का उद्देश्य कंपनियों की मानसिकता और प्रथाओं में बदलाव लाकर निम्न आय वाले परिवारों की दस लाख से अधिक महिलाओं को स्थाई नौकरियां दिलवाना है।

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