February 22, 2023

मनरेगा के बारे में वह सबकुछ जो आपको जानना चाहिए

मनरेगा योजना से महिला और प्रवासी मज़दूरों को क्या लाभ मिल रहे हैं और तमाम राज्यों में इसका प्रदर्शन कैसा है?
14 मिनट लंबा लेख

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा), 2005 में भारत की संसद द्वारा पारित किया गया था। 2 फरवरी, 2006 को यह ‘रोजगार के अधिकार’ की गारंटी देने वाले एक सामाजिक और कानूनी कदम के तौर पर लागू हुआ। साल 2009 में, इसका नाम बदलकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट (मनरेगा) कर दिया गया। यह क़ानून अकुशल शारीरिक श्रम करने वाले लोगों को हर वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी देता है। इस अधिनियम की जड़ें महाराष्ट्र रोजगार गारंटी योजना (एमईजीएस), 1972 में हैं। इसमें सबसे पहले काम के अधिकार को मान्यता दी गई थी और इसी की सफलता ने मनरेगा का मार्ग प्रशस्त किया।

मनरेगा एक मांग आधारित कार्यक्रम है जिसकी परिकल्पना भारत के आर्थिक रूप से सबसे कमजोर परिवारों को आजीविका सुरक्षा देने के लिए की गई है। नागरिकों को केंद्र में रखते हुए, सरकारी प्रशासन के सबसे निचले स्तर से शुरूआत करते हुए इस योजना का नियोजन किया जाता है।

मनरेगा कैसे काम करता है?

पंचायती राज संस्थान (पीआरआई) इस अधिनियम के प्रावधानों की योजना बनाने और उन्हें लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह जमीनी स्तर पर विकेंद्रीकरण और निर्णय लेने के महत्व को दिखाता है। काम की प्रकृति एवं चुनाव का निर्धारण, सार्वजनिक रूप से ग्राम सभाओं में नागरिकों के परामर्श से किया जाता है और इसके बाद ग्राम पंचायत इसकी पुष्टि करती है। जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है और राज्य सरकारों के लिए धन के उपयोग की समीक्षा के लिए भी सोशल ऑडिट करना अनिवार्य है।

काम का आवंटन किसी बिचौलिए के बिना, सीधे सरकार द्वारा किया जाता है और इसमें अकुशल श्रमिकों को वरीयता दी जाती है। उन्हें गांव के पांच किलोमीटर के दायरे के भीतर ही काम दिया जाता है। यह अधिनियम चार मुख्य श्रेणियों के तहत वर्गीकृत 260 से अधिक परियोजनाओं की अनुमति देता है: ‘प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन से संबंधित सार्वजनिक कार्य’, ‘कमजोर वर्गों के लिए व्यक्तिगत संपत्ति’, ‘दीनदयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डीएवाई-एनआरएलएम) के लिए सामान्य बुनियादी ढांचा – अनुपालक स्वयं सहायता समूह’, और ‘ग्रामीण आधारभूत संरचना’।

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मनरेगा के तहत काम के लिए आवेदन करने के इच्छुक परिवारों के लिए ग्राम पंचायत प्रमुख सहयोगी है। एक गैर-पंजीकृत परिवार को सबसे पहले अपनी ग्राम पंचायत के माध्यम से रोज़गार कार्ड के लिए आवेदन करना होता है। एक बार उनके दस्तावेजों का सत्यापन और उनकी पात्रता की पुष्टि हो जाने पर उन्हें रोज़गार कार्ड जारी कर दिया जाता है। इसके बाद उन्हें रोजगार के लिए एक आवेदन पत्र जमा करना होता है। आवेदन के 15 दिनों के भीतर काम और काम पूरा होने के 15 दिनों के भीतर मजदूरी देना ग्राम पंचायत की जिम्मेदारी है।

मनरेगा की फंडिंग कौन करता है?

केंद्र सरकार अकुशल शारीरिक कार्य करने वाले मजदूरों के लिए 100 फीसदी फंडिंग प्रदान करती है, और सामग्री लागत के कुल खर्च का 75 फीसदी वहन करती है। सामग्री लागत का पच्चीस फीसदी खर्च राज्य सरकारें उठाती हैं।

मनरेगा के लिए धन की उपलब्धता अनियमित रही है। वित्तवर्ष 2008-09 और वित्तवर्ष 2009-10 के बीच इससे जुड़े कोष में लगभग 25 फीसदी की वृद्धि हुई थी, लेकिन वित्तवर्ष 2011-12 के बाद इसमें तेजी से गिरावट आई। वित्तवर्ष 2014-15 से वित्तवर्ष 2019-20 तक फंड में लगातार वृद्धि हुई, लेकिन वित्तवर्ष 2020-21 में फिर से गिरावट आई है। पिछले कुछ वर्षों में, राज्यों द्वारा उपलब्ध धनराशि से अधिक, लंबित देनदारियों (संचित भुगतान) की राशि या किए गए व्यय में वृद्धि हो रही है। मजदूरी और सामग्री लागत दोनों के भुगतान में देरी के चलते ये देनदारियां इकट्ठा हो गई हैं और केंद्र सरकार द्वारा इसका भुगतान किया जाना है। मनरेगा के लिए उपलब्ध धन, खर्चों को पूरा करने में विफल रहा है और लगातार वित्तीय वर्ष के ख़त्म होने से पहले खत्म होता रहा है। पिछली योजनाएं अधूरी छूट जाने के बाद भी आगे लागू की जाने वाली नई परियोजनाओं को लगातार जोड़ा जाता रहा है। इससे धन का उचित उपयोग नहीं हो पाता है।

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graph depicting the gap between employment demanded and employment provided under mgnrega

वित्तवर्ष 2020-21 और 2021-22 के लिए मनरेगा बजट का विस्तृत सांख्यिकीय विश्लेषण यहां देखें। सरकारी भुगतान प्रणालियों की समस्याओं के कारण होने वाले विलम्ब के बारे में भी विस्तार से जानें

महामारी के दौरान मनरेगा की भूमिका कैसी रही?

अकुशल श्रमिकों के लिए कोविड-19 की शुरुआत एक बड़ी चुनौती थी। भारत में लगभग 139 मिलियन घरेलू प्रवासी श्रमिक हैं, और उनमें से अधिकांश दिहाड़ी मजदूर हैं।

दिहाड़ी कमाने का संघर्ष, असंगठित रोज़गार, और वित्तीय सुरक्षा की कमी जैसे मुद्दे देश में घरेलू श्रमिकों के सामने लगातार रहने वाले मुद्दे हैं। महामारी के दौरान ये समस्याएं और अधिक बढ़ गईं क्योंकि लॉकडाउन के कारण हर जगह निर्माण-कार्य ठप हो गया था। इसलिए काम की कमी के कारण अपने गांव वापस लौटने वाले श्रमिकों की संख्या बहुत बढ़ गई।

इस संकट के दौरान, रोजगार के स्रोत के रूप में मनरेगा की क्षमता को पहचानते हुए, भारत सरकार ने अपने आत्मनिर्भर भारत प्रोत्साहन पैकेज के तहत इसके लिए अतिरिक्त 40,000 करोड़ रुपये आवंटित किए। इससे योजना का कुल बजट एक लाख करोड़ रुपए हो गया जो वित्तीय वर्ष 2020–21 के लिए भारत के जीडीपी का 0.48 फीसदी था। इसके बाद मज़दूरी को औसतन 182 रुपए प्रतिदिन से बढ़ाकर 202 रुपए प्रतिदिन कर दिया गया। हालांकि विश्व बैंक के अर्थशास्त्री सामान्य दिनों में जीडीपी के 1.7 फीसदी के बराबर मज़दूरी दिए जाने की सिफारिश करते हैं।

अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पाया गया है कि 2020-21 के दौरान, मनरेगा के तहत काम करने के इच्छुक सभी रोज़गार कार्ड धारक परिवारों में से लगभग 39 फीसदी परिवारों को एक भी दिन का काम नहीं मिला। जिन परिवारों को दोनों अवधियों (कोविड-19 से पहले और कोविड-19 के दौरान) में काम मिला, उनकी आय को हुए नुकसान की 20 से 80 फ़ीसदी भरपाई मनरेगा से हो सकी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मनरेगा ने सबसे कमजोर परिवारों को आय के भारी नुकसान से बचाते हुए एक उल्लेखनीय भूमिका निभाई है।

महामारी के दौरान मनरेगा तक प्रवासी श्रमिकों की पहुंच के बारे में विस्तार से यहां पढ़ें। कोविड-19 के दौरान मनरेगा के प्रदर्शन के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

पुरुष गाड़ी पर ईंटें लाद रहे हैं-मनरेगा
हालांकि यह अधिनियम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है, लेकिन काम मिलने का राष्ट्रीय औसत हमेशा 50 दिनों से नीचे ही रहा है। | चित्र साभार: ब्रिक किल्न/सीसी बीवाई

मनरेगा को लेकर भारत के राज्यों का प्रदर्शन कैसा है?

मनरेगा को पूरे देश में लागू किया गया है और विभिन्न राज्यों में इसका प्रदर्शन अलग-अलग है। ऐसे असमान नतीजों के ठोस कारण को जानने के लिए कई शोध एवं अध्ययन किए गए लेकिन कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल सका है। काम के लिए उच्च मांग उत्पन्न करने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा सरकार के वे प्रयास भी होते हैं जो वह अपने नागरिकों को सूचित करने और जुटाने के लिए करती है। आर्थिक, संगठनात्मक और मानव संसाधन के मामलों में अधिक क्षमता रखने वाले राज्य के पास अपने नागरिकों को योजनाओं से अवगत करवाने और उसे बेहतर तरीके से लागू करने के अच्छे अवसर उपलब्ध होते हैं।

हालांकि यह अधिनियम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है, लेकिन काम मिलने का राष्ट्रीय औसत हमेशा 50 दिनों से नीचे ही रहा है। बड़े राज्यों में, वित्तीय वर्ष 2020-21 में 18 दिनों के रोजगार के साथ छत्तीसगढ़ और जम्मू-कश्मीर में प्रति पंजीकृत व्यक्ति को सबसे अधिक औसत रोज़गार प्रदान किया गया। यह संख्या उत्तरपूर्वी राज्यों में अधिक है जहां मिज़ोरम में वित्तीय वर्ष 2020-21 में प्रति पंजीकृत व्यक्ति को 86 दिनों का एवं उसी वर्ष नागालैंड में 24 दिनों का रोज़गार दिया गया है।

वित्त-वर्ष 2020-21 में छत्तीसगढ़ में 14 फीसदी परिवारों को 100 दिनों का रोज़गार मिला है जो अधिकतम है। उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा चार फीसदी रहा है जबकि बिहार में केवल 0.17 फीसदी लोगों को वित्तीय वर्ष 2020–21 में 100 दिनों का रोज़गार मिल सका।

राजस्थान पर्सन-डेज़ की संख्या के मामले में शीर्ष प्रदर्शन करने वाला राज्य रहा है और 2022 में इसने एक शहरी नौकरी गारंटी योजना की शुरूआत की। महामारी के बाद से रोज़गार सृजन की आवश्यकता पर अधिक ध्यान देने के प्रयास के चलते तमिलनाडु, ओडिशाहिमाचल प्रदेश और झारखंड ने भी शहरी वेतन रोज़गार कार्यक्रम शुरू किए हैं।

मनरेगा कार्य के लिए उच्चतम दैनिक मजदूरी हरियाणा, गोवा और केरल राज्यों में भुगतान की जाती है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में मनरेगा के प्रदर्शन के बारे में विस्तार से पढ़ें।

क्या मनरेगा से महिलाओं को लाभ होता है?

अधिनियम के अनुसार, महिलाओं को इस तरह प्राथमिकता दी जाती है कि कम से कम एक तिहाई लाभार्थी महिलाएं हों। इन महिलाओं के लिए पंजीकरण और काम के लिए आवेदन करना जरूरी है। कामकाज में महिलाओं की भागीदारी की संभावना पर प्रवास, घर में काम करने वाले पुरुषों की संख्या, उच्चतम शिक्षा स्तर का नकारात्मक असर पड़ता है, और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सामाजिक समूहों और 10 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या से सकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।

आंकड़ों से पता चलता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के पास काम के दिनों का प्रतिशत लगातार अधिक है। 2015-16 और 2021-22 के बीच यह लगातार 53 फीसदी से अधिक देखा गया है। कुछ वर्षों में इसने 56 फीसदी के आंकड़े को भी पार किया है। कोविड-19 के बाद वर्ष 2020–21 एवं 2021–22 में महिलाओं की भागीदारी गिरकर 54.54 फीसदी हो गई जिससे ग्रामीण श्रमिक बाज़ार में आयी कमी का पता चलता है।

उत्तर प्रदेश में 2017 तक मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी की दर सबसे कम थी। लेकिन महिलाओं की भागीदारी और महिला साथियों (कार्यस्थल पर्यवेक्षकों) को प्रशिक्षण देने में लगातार वृद्धि हो रही है। मार्च 2021 में, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने योजना में सक्रिय हितधारकों के रूप में महिलाओं की बेहतर भागीदारी के लिए मनरेगा के तहत, महिला साथी कार्यक्रम की घोषणा की ताकि कार्यस्थल पर उनकी भूमिका केवल श्रमिक की भूमिका तक ही सीमित न रहे। 

अनुभव बताते हैं महिला साथियों ने अधिक पारदर्शिता लाने का काम किया है। 2020 में, मनरेगा के तहत महिलाओं को काम देने वाले राज्यों में केरल (91.41 फीसदी), पुडुचेरी (87.04 फीसदी) और तमिलनाडु (84.88 फीसदी ) शीर्ष स्थान पर रहे।

पढ़ें कि महिलाओं के लिए मनरेगा कैसे काम करता है। लिंग-समावेशी रोजगार में सहयोग दे सकने वाले नीतिगत कार्यक्रमों के बारे में पढ़ें

क्या मनरेगा अब भी प्रासंगिक है?

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सुरक्षा तंत्र के रूप में मनरेगा ने उल्लेखनीय प्रदर्शन किया है। अधिनियम के लागू होने के बाद से, इसे मुद्रास्फीति के लिए समायोजित किए जाने के बाद भी कम मजदूरी दर, अपर्याप्त बजट आवंटन, नियमित भुगतान में देरी, श्रमिकों को दंडित करना, बैंकों के अधिकार सीमित किया जाना, दोषपूर्ण आंकड़े, निष्क्रिय आधारकार्ड और बेरोजगारी भत्ते का भुगतान न करने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा है। इसकी स्थापना के बाद से ही गंभीर आलोचनाओं और कार्यान्वयन और प्रभाव को लेकर मिले मिश्रित परिणामों के बावजूद, मनरेगा भारत में सबसे कमजोर लोगों के लिए एक सुरक्षा तंत्र के रूप में आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।

अधिनियम की प्रासंगिकता का विस्तृत विश्लेषण और अधिक प्रभाव पैदा करने के लिए इसमें लाए जाने वाले सुधार के बारे में विस्तार से यहां पढ़ें

ग्रामीण विकास और पंचायती राज की स्थायी समिति ने फरवरी, 2022 में अधिनियम का गंभीर विश्लेषण किया और कुछ समाधान सुझाए। इनमें कहा गया है कि कोविड-19 के मद्देनजर चुनौतियों का सामना करने के लिए इस योजना को नया रूप दिया जाना चाहिए, योजना के तहत काम के गारंटीशुदा दिनों को 100 दिनों से बढ़ाकर 150 दिन कर दिया जाना चाहिए और सभी राज्यों में समान मजदूरी दर लागू की जानी चाहिए।

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अधिक जानें

  • 2020, 2021, और 2022 में मनरेगा के लिए केंद्रीय बजट प्रावधानों के बारे में पढ़ें। 
  • पढ़ें कि अंतर्निहित किए गए प्रयोगों से मिले सबूतों पर आधारित नीतियां किस तरह खतरनाक हो सकती हैं।
  • पांच भारतीय राज्यों में ग्रामीण रोजगार की स्थिति के बारे में जानें

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