July 11, 2024

समाजसेवी संस्थाओं के जमीनी कार्यकर्ताओं की मुख्य चुनौतियां क्या हैं?

आईडीआर का एक अध्ययन बताता है कि ज़मीनी कार्यकर्ताओं को किन बिंदुओं पर समाजसेवी संस्थाओं से समर्थन की अपेक्षा होती है।
11 मिनट लंबा लेख

ज़मीनी कार्यकर्ता, भारत के गैर-सरकारी संगठनों की रीढ़ की तरह हैं। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) द्वारा साल 2012 में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सिविल सोसाइटी संगठन 27 लाख से ज़्यादा नौकरियां और 34 लाख फुल-टाइम वॉलंटीयर देते हैं। इनमें से ज़्यादातर देशभर में ज़मीनी कार्यकर्ता के तौर पर काम करते हैं।

भारत में ज़मीनी कार्यकर्ता कई तरह की परिस्थितियों में काम करते हैं। मसलन, घने शहरी इलाकों से लेकर उन ग्रामीण क्षेत्रों तक, जहां सेवाओं की पहुंच न के बराबर होती है। एक बड़ी संख्या में ज़मीनी कार्यकर्ता, अपनी संस्थाओं की तरफ से समुदाय को समझने और उनके साथ जुड़ने का काम करते हैं। इसके अलावा उनका काम स्थानीय सरकार के साथ बेहतर तालमेल बनाने का भी रहता है। ये ज़मीनी कार्यकर्ता अपनी संस्था और बाहरी हितधारकों को ज़मीनी हालात की जानकारी देते हैं। यही नहीं, समुदाय के सामने आने वाली चुनौतियों से भी ज़मीनी कार्यकर्ता ही सबसे पहले रूबरू होते हैं।

विकास सेक्टर में ज़मीनी कार्यकर्ताओं की भूमिका बेहद अहम है लेकिन उनकी चुनौतियों पर अक्सर कम ही बात होती है। यहां हम समझने की कोशिश करेंगे कि विकास सेक्टर में काम करने वाले इन ज़मीनी कार्यकर्ताओं की प्रभावशीलता और क्षमताओं को सामने लाने के लिए क्या किया जा सकता है? वे कौन से उपाय हैं जिनसे उनके काम को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है।

ज़मीनी कार्यकर्ताओं के काम और उनकी चुनौतियों को बेहतर तरीके से समझने के लिए हमने 40 ज़मीनी कार्यकर्ताओं पर केंद्रित ‘ज़मीनी कार्यकर्ताओं के काम की स्थिति’ बताने वाला एक अध्ययन किया। इसके अलावा इस लेख को तैयार करने के लिए सात अन्य कार्यकर्ताओं के साथ इंटरव्यू भी किए। इसके पीछे हमारी कोशिश थी कि हम उनके नज़रिये और समाधानों को विस्तार से समझ सकें।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

अध्ययन में राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों से आने वाले और शिक्षा, आजीविका और ग्रामीण विकास जैसे अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले ज़मीनी कार्यकर्ता शामिल हैं। इस अध्ययन के 43 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्तर की (3 से ज़्यादा राज्यों में सक्रिय) संस्थाओं और 57 प्रतिशत कार्यकर्ता क्षेत्रीय संस्थाओं से जुड़े थे। इनमें से कई ज़मीनी कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्तर की ऐसी बड़ी संस्थाओं का हिस्सा हैं जिनमें 100 से ज़्यादा कर्मचारी हैं। हमने जिन ज़मीनी कार्यकर्ताओं का सर्वेक्षण किया, उनमें से ज़्यादातर कार्यकर्ता बड़ी संख्या में अपने से नीचे लोगों को मैनेज करते हैं। यहां तक कि इनमें से 33 प्रतिशत कार्यकर्ता 20 से ज़्यादा लोगों को मैनेज करते हैं।

इस लेख में दी गई जानकारी को हमने अध्ययन के परिणाम और विभिन्न संस्थाओं के प्रमुख लोगों के साथ हमारी बातचीत से निकाला है।

प्रमुख चुनौतियां

इस अध्ययन में ज़मीनी कार्यकर्ताओं की छह प्रमुख चुनौतियां निकलकर सामने आईं हैं। अगर उनका समाधान किया जाए तो न केवल कार्यकर्ताओं की क्षमता में आवश्यक बढ़ोत्तरी हो सकती है बल्कि इससे समुदाय पर भी उनका सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकता है।

1. रिपोर्टिंग का बोझ बहुत ज़्यादा है

विकास सेक्टर में डेटा-आधारित रिपोर्टिंग की ज़रूरतों का प्रचलन बढ़ गया है। इसमें फ़ंडर रिपोर्टिंग, निगरानी और मूल्यांकन संबंधी रिपोर्टिंग, नियमित प्रोजेक्ट रिपोर्टिंग और संचार के लिए भी रिपोर्टिंग का प्रचलन बढ़ गया है। इसका सीधा असर ज़मीनी कार्यकर्ताओं पर बढ़ते हुए कामकाज के बोझ के रूप में दिखता है। अलवर जिले में आजीविका, पशुपालन और शिक्षा और अधिकारों पर काम करने वाले आनंद ने बताया, “मुझे अपने संगठन में रोज़ाना फ़ील्ड डेटा का प्रबंधन करना पड़ता है। डेटा से जुड़े लगभग 30-32 फ़ॉर्मेट हैं जिन्हें मुझे हर महीने भरना पड़ता है। इस वजह से मैं बहुत ज़्यादा बोझ महसूस करता हूं। अगर मेरी सहायता के लिए अतिरिक्त लोगों को नियुक्त किया जाए तो मेरा काम बहुत आसान हो जाएगा।” सर्वेक्षण में शामिल लगभग आधे (45 प्रतिशत) लोगों ने बताया कि रिपोर्टिंग का कोई एक कॉमन फ़ॉर्मेट नहीं है जिससे मालूम नहीं चलता कि किसी काम को कैसे करना है और उसमें बहुत सारा समय चला जाता है।

हमने जिन कार्यकर्ताओं का इंटरव्यू लिया, उन्होंने यह भी बताया कि रिपोर्टिंग में कई बार ज्यादा समय लग जाता है जिस वजह से फील्ड का काम प्रभावित होता है

एक प्रमुख गैर-लाभकारी संस्था के लिए काम करने वाले ज़मीनी कार्यकर्ता ने बताया कि उनके पास रिपोर्ट लिखने का कोई तय फ़ॉर्मेट नहीं है, इसलिए हर कार्यकर्ता अपने-अपने तरीके से रिपोर्ट भरता है। हमने जिन कार्यकर्ताओं का इंटरव्यू लिया, उन्होंने यह भी बताया कि रिपोर्टिंग में कई बार ज्यादा समय लग जाता है जिस वजह से फील्ड का काम प्रभावित होता है। 50 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि रिपोर्ट लिखने में अपेक्षा से अधिक समय लगता है जिससे उनके लिए समय को मैनेज करना दूसरी सबसे बड़ी चुनौती बन गई है।

2. काम से जुड़ी कुशलताओं में कमी को पहचानना

अध्ययन में पाया गया कि अलग-अलग सेक्टर से आने वाले ज़मीनी कार्यकर्ताओं को उनके दैनिक कार्यों की क्षमता बढ़ाने की बेहद आवश्यकता है। 75 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें रिपोर्ट लिखने का काम बेहतर करना है, 68 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें अपने काम से जुड़ी कुशलताएं और सीखनी हैं, वहीं 63 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें अंग्रेजी सीखने में मदद की ज़रूरत महसूस होती है। उदाहरण के लिए, प्रवासी श्रमिकों के क्षेत्र में काम करने वाले बुंदेलखंड जिले के गोकुल ने कहा, “स्थानीय समुदाय में मेरा काम हिंदी भाषा में होता है जिसका उपयोग पढ़ने और लिखने के लिए किया जाता है। लेकिन जब मुझे अपने मैनेजर को अपने काम की रिपोर्ट देनी होती है तो मुझे मेरे निष्कर्षों का अंग्रेजी में अनुवाद करना पड़ता है। मैं इसके लिए गूगल ट्रांसलेशन सॉफ्टवेयर का उपयोग करता हूं लेकिन इसके कारण कई गलतियां हो जाती हैं, जो मेरे लिए एक बड़ी समस्या है।”

सर्वे करती कुछ महिलायें_ज़मीनी कार्यकर्ता
भारत में ज़मीनी कार्यकर्ता कई तरह की परिस्थितियों में काम करते हैं। मसलन, घने शहरी इलाकों से लेकर उन ग्रामीण क्षेत्रों तक, जहां सेवाओं की पहुंच ना के बराबर होती है। | चित्र साभार: सौम्या खंडेलवाल

3. मैनेजर से पर्याप्त सहयोग न मिलना

महिला सशक्तिकरण और आजीविका क्षेत्र में काम करने वाली नेहा बताती हैं, “हमारे मैनेजर अक्सर ज़मीनी वास्तविकताओं के बारे में नहीं समझ पाते। वे हमारे रोजमर्रा के कार्यों को मैनेज करने के लिए पर्याप्त सहायता प्रदान नहीं करते हैं। अक्सर जब हम उन्हें कोई सुझाव देते हैं तो भी वे कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, भले ही वे सुझावों से सहमत भी हों।” नेहा की तरह, 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं का कहना था कि उनके मैनेजर, ज़मीनी स्तर पर उनकी चुनौतियों को नहीं समझते हैं। हमारे इंटरव्यू के दौरान हमें ज़मीनी कार्यकर्ता और उनके मैनेजर के बीच पद क्रम की व्यवस्था भी बहुत स्पष्ट देखने को मिली। ज़मीनी कार्यकर्ताओं को लगता है कि अगर मैनेजर समझते भी हैं तो भी उनकी चुनौतियों पर न के बराबर ही कार्रवाई की जाती है। उदाहरण के लिए बिहार की सोनी ने बताया, “हमारा ज़्यादातर काम समुदाय में होता है और तय समय रखने के बाद भी इन कामों में अक्सर अधिक समय लग जाता है। समुदाय के लिए हमारे काम की प्राथमिकता उनके अपने कामों के बाद होती है। इसलिए कई बार हमें एक घंटे के काम में चार घंटे भी लग जाते हैं। मगर इस वास्तविकता को मैनेजर नहीं समझ पाते हैं।”

4. स्थानीय सरकारी हितधारकों से समय ना मिलना

सरकारी हितधारकों के साथ काम करने में कितना समय लगेगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है। यह अनिश्चितता अधिकांश ज़मीनी कार्यकर्ताओं के दैनिक कार्यों में जुड़ी होती है और अक्सर उनकी कार्य-योजनाओं और जवाबदेही मानकों में इसका हिसाब नहीं होता है। 58 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि स्थानीय सरकारी अधिकारियों के साथ काम करने में अपेक्षा से ज़्यादा समय लगता है।

58 प्रतिशत ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि स्थानीय सरकारी अधिकारियों के साथ काम करने में अपेक्षा से ज़्यादा समय लगता है।

कार्यकर्ताओं को केवल मीटिंग तय करने में ही काफ़ी मेहनत करनी पड़ जाती है और अक्सर मीटिंग शुरू होने के लिए घंटों इंतज़ार भी करना पड़ता है। कार्यकर्ताओं ने बताया कि कई बार ऐसा भी होता है कि जब वे अधिकारियों के साथ अपनी निर्धारित मीटिंग में पहुंचते हैं तो उन्हें मालूम चलता है कि मीटिंग रद्द हो गई है। शिक्षा पर काम कर रहे राजगढ़ जिले के राहुल ने बताते हैं कि, “अक्सर, अधिकारियों से मीटिंग तय करने और मीटिंग शुरू होने का इंतज़ार करने में बहुत समय निकल जाता है। इस वजह से अक्सर दूसरे काम छूट जाते हैं।’

अध्ययन में कार्यकर्ताओं ने अपने काम में सरकारी हितधारकों के साथ अधिक समन्वय को लेकर भी बात की है। एक ज़मीनी कार्यकर्ता ने बताया कि अलग-अलग आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, सुपरवाइज़रों और सीडीपीओ के साथ काम करते हुए उन्हें रोज़ाना 80 से ज़्यादा एक्टिव व्हाट्सएप ग्रुपों को मैनेज करना पड़ता है।

इसलिए, हालांकि बाहरी प्रभाव और इकोसिस्टम को बदलने को लेकर शायद उतना कुछ किया नहीं जा सकता है। लेकिन संस्थाओं द्वारा अपने कार्यकर्ताओं के काम से जुड़ी परिस्थितियों को स्वीकार करना और ज़मीनी संभावनाओं को समझना ही समाधान की ओर पहला कदम बन सकता है।

5. समुदायों के साथ नियमित जुड़े रहने के लिए समय का अभाव

जैसे-जैसे डेवलपमेंट इकोसिस्टम में बड़े स्केल पर काम करने पर अधिक ज़ोर दिया जा रहा है, अब इसका प्रभाव स्थानीय समुदायों के साथ जुड़ाव को प्रभावित कर रहा है। उदयपुर, राजस्थान में आजीविका के मुद्दे पर काम करने वाले अमित कुमार बताते हैं कि “कुछ साल पहले की तुलना में अब हमें अधिक गांवों और लोगों को कवर करना होता है। ज्यादा सैम्पल बढ़ने से अब हमें उसी समुदाय के सदस्यों से दोबारा मिलने में महीनों लग सकते हैं। परिणामस्वरूप, पहले की तुलना में अब हमारे लिए उनके साथ रिश्ता बनाए रखना संभव नहीं रह गया है।”

ज़मीनी कार्यकर्ताओं के अनुसार समुदायों की अपेक्षाएं भी पहले से कहीं अधिक बढ़ गई हैं। उनके पास अब तकनीक के ज़रिये मिलने वाली सूचनाओं और ज़मीनी स्तर पर सरकार की बढ़ती पहुंच ने भी ज़मीनी कार्यकर्ताओं के लिए अपनी मौजूदगी और ज़रूरत को साबित करना मुश्किल बना दिया है।

6. नौकरी में असुरक्षा और अनिश्चित वेतन

इस अध्ययन में शामिल 35 प्रतिशत कार्यकर्ताओं का कहना था कि उन्हें उनके काम में निश्चित वेतन नहीं मिलता है। यहां तक कि 37 प्रतिशत कार्यकर्ताओं ने नौकरी में असुरक्षा महसूस करने की बात भी मानी है। उन्हें डर है कि एक साल से भी कम के समय में उनकी नौकरी जा सकती है। विकलांगता और लैंगिक मुद्दों पर काम करने वाले, बड़वानी के अमित कहते हैं, “संस्था में मेरा मासिक वेतन 15,000 रुपये है। लेकिन मुझे अपना पूरा वेतन पाने के लिए हर महीने संगठन में काम से जुड़े लक्ष्य हासिल करने होते हैं। ये लक्ष्य हासिल करना कई बार मुश्किल हो जाता है। इस वजह से, मुझे आमतौर पर लगभग 12,000 रुपये ही वेतन मिल पाता है।” कई ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने बताया कि उन्हें संस्था की लगातार बदलती प्राथमिकताओं की वजह से अपनी नौकरी गंवाने का डर है। इस अध्ययन में कुछ ज़मीनी कार्यकर्ता ऐसे भी थे जो अकेले परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। ऐसे में उनकी नौकरी जाना उनकी आजीविका के लिए बहुत बड़ा जोखिम होगा।

गैरसरकारी संगठन अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की सहायता के लिए क्या कर सकते हैं?

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एक बार संस्था के तौर पर जब आप अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की ताकत और कमियों का जान लेंगे तो उनके काम को बेहतर मैनेज कर पाएंगे। | चित्र साभार: आईडीआर

1. अपने कार्यकर्ताओं की नब्ज को पहचानें

संस्थाओं को ऐसे सिस्टम तैयार करना चाहिए, जहां वे अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की मनोस्थिति को समझ सकें। उन्हें इस तरह से सक्षम बना पाएं कि वो बिना डरे खुलकर अपने अनुभव साझा कर सकें। एक बार संस्था के तौर पर जब आप अपने ज़मीनी कार्यकर्ताओं की ताकत और कमियों का जान लेंगे तो उनके काम को बेहतर मैनेज कर पाएंगे। साथ ही, समुदाय के साथ उनके संबंधों की स्थिति को समझना भी आपके लिए बेहतर समाधान खोजने में मददगार होगा।

2. चुनौतियों को तीन श्रेणियों में बांटे

  1. ज़मीनी कार्यकर्ताओं के लिए क्षमता निर्माण/प्रशिक्षण कार्यक्रम करना। उदाहरण के तौर पर उन्हें मजबूत कम्युनिकेशन, कंप्यूटर से जुड़े स्किल्स और उनके काम से जुड़ी मैनेजमेंट तकनीकें वग़ैरह सिखाई जा सकती हैं।
  2. संस्था द्वारा ऐसी प्रक्रियाएं और मापदंड तैयार करना, जिनसे ज़मीनी कार्यकर्ताओं के दैनिक काम को आसान बनाया जा सके। इसमें रिपोर्टस के लिए प्रारूप और टेम्पलेट तैयार करना, रोज़मर्रा के काम में प्रक्रियाओं को सरल बनाने जैसी बातें शामिल की जा सकती हैं।
  3. संस्था में ज़मीनी कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षित जगह तैयार करना और ऐसी पहल शुरू करना जहां कार्यकर्ता और मैनेजमेंट एक साथ बैठकर जमीनी चुनौतियों और समाधानों को नियमित रूप से आपस में साझा कर सकें। इससे एक ऐसा माहौल तैयार होगा जहां ज़मीनी स्तर से ऊपर की ओर निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे लीडरशिप से लेकर ज़मीनी स्तर की टीमों के बीच अनुभव साझा करने के संवाद चैनल ज्यादा सुगम होते हैं।

3. समाधान लागू करें

आप शुरुआत में सिर्फ़ एक महत्वपूर्ण एक्शन एरिया के लिए समाधान लागू कर सकते हैं। अपनी संस्था में समाधान लागू करने से पहले, अपने आप से निम्नलिखित प्रश्न पूछें:

  1. क्या यह समाधान हमारे सेक्टर के कार्यकर्ताओं के भविष्य को बेहतर बनाने में लाभकारी साबित होगा?
  2. क्या यह समाधान बड़े पैमाने पर सेक्टर के कार्यकर्ताओं द्वारा आसानी से अपनाया जा सकता है? क्या सेक्टर के कार्यकर्ताओं और मैनेजर्स ने अपने विचारों और चिंताओं को साझा करने के लिए इस पर पर्याप्त रूप से विचार किया है?
  3. क्या संस्था के तौर पर इस समाधान को अपेक्षाकृत आसानी और जल्दी से अगले एक या दो महीनों में शुरू किया जा सकता है?
  4. क्या इस समाधान के लिए अतिरिक्त फंडिंग की आवश्यकता है? क्या हमारे पास कोई मौजूदा फंडर है जो इन प्रयासों के लिए फिलैंथ्रॉपिक फंड देने के लिए तैयार हो सकता है?

हमें उम्मीद है कि इन परिणामों से आप हस्तक्षेप के संभावित क्षेत्रों की पहचान कर सकेंगे और अपने सेक्टर के ज़मीनी कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले काम को और बेहतर बना पाएंगे।

यदि आपने अपनी संस्था में ज़मीनी स्तर पर प्रभावी समाधान लागू किए हैं तो हम आपसे उनके बारे में ज़रूर जानना चाहेंगे। हम आपके उन समाधानों को अन्य संस्थाओं और अन्य हितधारकों तक पहुंचाने में मदद करेंगे जिन्हें आपके अनुभवों से लाभ हो सकता है। इसके लिए आप हमसे [email protected] या [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं।

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लेखक के बारे में
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इंद्रेश शर्मा

इंद्रेश शर्मा आईडीआर में मल्टीमीडिया संपादक हैं और वीडियो सामग्री के प्रबंधन, लेखन निर्माण व प्रकाशन से जुड़े काम देखते हैं। इससे पहले इंद्रेश, प्रथम और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च संस्थाओं से जुड़े रहे हैं। इनके पास डेवलपमेंट सेक्टर में काम करने का लगभग 12 सालों से अधिक का अनुभव है जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, पोषण और ग्रामीण विकास क्षेत्र मुख्य रूप से शामिल रहे हैं।

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तेजस पहलाजानी

तेजस पहलाजानी इक्विस्ट के फाउंडर हैं। उन्हें टेक महिंद्रा, दसरा, सत्व कंसल्टिंग और कॉग्निजेंट सहित कॉर्पोरेट तथा विकास सेक्टर में काम करने का लगभग 16 वर्षों का अनुभव है। तेजस, इक्विस्ट में व्यक्तिगत और टीम प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए संगठनों को कोचिंग प्रदान करते है। उनके पास कंप्यूटर इंजीनियरिंग में बीई और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस से एमबीए की डिग्री है।

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रजिका सेठ

रजिका सेठ आईडीआर हिंदी की प्रमुख हैं, जहां वह रणनीति, संपादकीय निर्देशन और विकास का नेतृत्व सम्भालती हैं। राजिका के पास शासन, युवा विकास, शिक्षा, नागरिक-राज्य जुड़ाव और लिंग जैसे क्षेत्रों में काम करने का 15 वर्षों से अधिक का अनुभव है। उन्होंने रणनीति प्रशिक्षण और सुविधा, कार्यक्रम डिजाइन और अनुसंधान के क्षेत्रों में टीमों का प्रबंधन और नेतृत्व किया। इससे पहले, रजिका, अकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में क्षमता निर्माण कार्य का निर्माण और नेतृत्व कर चुकी हैं। रजिका ने टीच फॉर इंडिया, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी और सीआरईए के साथ भी काम किया है। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में बीए और आईडीएस, ससेक्स यूनिवर्सिटी से डेवलपमेंट स्टडीज़ में एमए किया है।

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