मेरी शादी को दस साल से ज़्यादा हो चुके हैं और अब मेरी दो बेटियां भी हैं। बावजूद इसके हम दोनों पति-पत्नी पर, परिवार और समाज की तरफ से एक बेटा पैदा करने का दबाव लगातार बना रहता था। स्वाभाविक है कि इस दबाव का ज़्यादा असर मेरी पत्नी पर पड़ता रहा है क्योंकि आज भी हमारे समाज में बेटे या बेटी के जन्म की जिम्मेदारी महिलाओं की मानी जाती है। पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे में पिता की भूमिकाएं बहुत सीमित होती हैं। यहां तक कि जन्म के बाद बच्चे के पालन-पोषण और परिवार नियोजन जैसे मामलों में भी यह नदारद ही रहती है।
लम्बे समय से, डेवलपमेंट सेक्टर से जुड़े होने के कारण, और ब्रेकथ्रू संस्था के साथ लैंगिक समानता पर काम करने की वजह से लैंगिक समीकरणों पर मेरी समझ अलग रही है। मेरे भीतर लैंगिक भेदभाव को लेकर शुरू से ही एक प्रकार की जागरूकता थी। इसलिए दूसरी बेटी के जन्म के समय ही मैं नसबंदी करवाना चाहता था।
हमारे समाज में पुरुष नसबंदी से जुड़ी मानसिकता कैसी है, इसका अंदाज़ा आपातकाल के समय पुरुषों की जबरन की जाने वाली नसबंदी के क़िस्सों और पुरुष समूहों में इसे लेकर ‘मर्दों नामर्द बनो’ जैसे फ़िकरों का इस्तेमाल कर आपस में की जाने वाली चुहल से भी मिलता है। नतीजतन समाज में, विशेष रूप से पुरुषों के बीच इसे लेकर कलंक का भाव होता है। मैं यह बात इसलिए कह सकता हूं क्योंकि मैं आज भी मेरे हमउम्र दोस्तों में नसबंदी को लेकर झिझक देखता हूं।
हालांकि सरकारें समय-समय पर पुरुष नसबंदी को बढ़ावा देने के लिए तमाम तरह के अभियानों का आयोजन करती रही हैं लेकिन परिवार नियोजन का यह तरीक़ा अब भी उतना लोकप्रिय नहीं है। इस असफलता के पीछे समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा और नसबंदी को लेकर लोगों में व्याप्त कलंक और रूढ़िवादिता का भाव ही है।
नसबंदी से जुड़े इसी भाव के कारण मुझे नसबंदी करवाने के अपने फैसले पर शुरुआत में पत्नी का पूरा सहयोग नहीं मिला। कॉन्डोम की असफलता के कारण डेढ़ साल पहले मेरी पत्नी तीसरी बार गर्भवती हो गई थी। लेकिन अपनी दूसरी बेटी के जन्म के बाद ही हमने और बच्चे न करने का फ़ैसला ले लिया था। इसलिए भारी मन से हमने इस अनचाहे गर्भ का चिकित्सीय प्रबंधन किया। यह अनुभव हम दोनों के लिए बहुत दर्दनाक था। इस घटना के बाद एक बार फिर मैंने नसबंदी करवाने की बात अपनी पत्नी के सामने रखी और इस बार उन्हें राज़ी कर लिया।
मुझे अपने नज़दीकी डिस्पेंसरी पर नसबंदी के लिए ‘एम्स’ में आयोजित होने वाले तीन दिवसीय कैम्प की जानकारी मिली। रजिस्ट्रेशन के बाद अपने एरिया की आशा वर्कर के साथ मैं अगले दिन एम्स पहुंच गया। रास्ते में उन्होंने मुझे बताया कि उनके पांच साल के करियर में मैं उनका तीसरा केस हूं। इस जानकारी के बावजूद मुझे लग रहा था कि कैंप में मुझे लम्बी क़तार में खड़े होकर घंटों इंतज़ार करना पड़ेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। पूरे अस्पताल में मेरे सिवाय वहां कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था। मुझे अपनी बहादुरी पर नाज़ हो रहा था और मैं ख़ुश भी था कि मुझे किसी लम्बी क़तार में नहीं लगना पड़ा। वहीं, दूसरी तरफ़ मुझे यह देख हैरानी भी हो रही थी कि देश के सबसे बड़े अस्पताल में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किए गए इस तीन दिवसीय नसबंदी कैम्प में मेरे सिवाय एक भी पुरुष नहीं था। अस्पताल के कर्मचारी वहां किसी और वजह से आए मर्दों को नसबंदी करवाने के लिए मनाने का प्रयास कर रहे थे।
जरूरी औपचारिकताओं के बाद मेरी सर्जरी की प्रक्रिया हुई। 30 मिनट की इस प्रक्रिया में मुझे न तो दर्द का अनुभव हुआ और ना ही किसी विशेष देखभाल की ज़रूरत पड़ी। अगले कुछ घंटे बाद मैं अपने घर पर था।
हालांकि, मैंने अपनी बस एक जिम्मेदारी पूरी की (जिसका फैसला लेने में मुझे 3-4 साल लग गए),यह किसी भी नज़रिए से गर्व का विषय नहीं है। लेकिन जब हम खुद को अपने आसपास के संघर्ष, टैबू, पितृसत्ता, मर्दानगी के मानकों से हट कर कुछ नई पहल करते देखते हैं तो अपने लिए ख़ुशी होती है। मुझे अच्छा लगता है जब स्वास्थ्य विभाग के लोग मुझे अपने अनुभव साझा करने और लोगों को प्रेरित करने के लिए बुलाते हैं। मैं भी इन मीटिंग्स में इस उम्मीद से जाता हूं कि मेरे अनुभव के कारण पुरुष नसबंदी को लेकर लोगों की समझ बदले, अपने अनुभव साझा करने के साथ ही, मैं सामाजिक मान्यताओं पर भी लोगों से बातचीत करता हूं।
नरेश कुमार साल 2014 से ब्रेकथ्रू के साथ काम कर रहे हैं। वे लैंगिक न्याय, बराबरी और इससे जुड़े साझे मुद्दों पर काम करते हैं। नरेश ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से सोशल वर्क में मास्टर्स किया है।
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डेडियापाड़ा – वसावा, भील, कोटवालिया और पाडवी जैसी जनजातियों का घर है। यह भारत के सबसे गरीब आदिवासी इलाकों में से एक है। इस तहसील में प्रचुर मात्रा में लेकिन अनियमित वर्षा होती है। पहाड़ी और ऊबड़-ख़ाबड़ इलाक़ा होने के कारण भूजल के दोबारा भरने की प्रक्रिया कठिन हो जाती है। कई जगहों पर, बहुत अधिक भूमि कटाव होने के कारण ऊपरी स्तर की मिट्टी की गुणवत्ता में कमी आई है।
नतीजतन, नर्मदा जिले के तीन अन्य तालुकाओं की तुलना में डेडियापाड़ा की कृषि उत्पादकता कम है। यहां के किसान एक साल में एक ही फसल का उत्पादन कर पाते हैं, जिससे न केवल उनकी आमदनी प्रभावित होती है बल्कि उनके पोषण पर भी असर पड़ता है। अनाज और सब्ज़ियां लोगों की पहुंच से बाहर हैं। डेडियापाड़ा के बेदादा गांव में जैविक खेती करने वाली उर्मिलाबेन वसावा के अनुसार कई परिवारों के पास पर्याप्त भोजन तक नहीं है।
सितम्बर 2022 में, ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय समावेशन और आजीविका वृद्धि पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था आगा ख़ान रुरल सपोर्ट प्रोग्राम (इंडिया) [एकेआरएसपी (आई)] की मदद से बेदादा में एक स्थानीय स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) ने अनाज बैंक की शुरुआत की। यह बैंक अनाज का भंडार बनाएगा और इस तरह प्राकृतिक आपदा या कम सामूहिक उत्पादन की अवधि के दौरान गरीब और हाशिए पर रहने वाले परिवारों को भुखमरी से बचाया जा सकेगा। बेदादा अनाज बैंक प्राथमिकता के आधार पर हाशिए पर रहने वाले समुदायों को रियायती दरों पर अनाज और दालें प्रदान करता है। अग्रिम भुगतान करने में असमर्थ परिवार आधी कीमत पर अनाज खरीद सकते हैं और बाकी का भुगतान अगले दो महीनों में कर सकते हैं।
एक बार जब अनाज बैंक चालू हो गया तो एसएचजी सदस्यों के सामने एक समस्या खड़ी हो गई। बैंक में जमा किए गए अनाजों की 13 क़िस्मों में समुदाय के लोग केवल पांच क़िस्में ही लेना पसंद करते थे: जोवर (ज्वार), नगली (उंगली बाजरा), माग (हरा चना), वताना (मटर) और तुवर (कबूतर मटर)। इन अनाजों की खपत इलाक़े में सबसे अधिक होती है। लोग अन्य पौष्टिक दालों के लिए भुगतान नहीं करना चाहते थे। इस समस्या से निपटने के लिए विनिमय (बार्टर) का तरीक़ा अपनाया गया। इस प्रणाली के अंतर्गत कम-आय वाले परिवार आमतौर पर घरों में खाए जाने वाली दालों और अनाजों में से एक किलो ला कर बदले में उतनी ही मात्रा में कोई दूसरा अधिक पौष्टिक अनाज ले जा सकते हैं।
धीरे-धीरे किचेन गार्डेन भी शुरू कर दिया गया ताकि समुदाय के सदस्य अपने घरों में ही सब्ज़ियां उगा सकें। अब स्थिति ऐसी है कि कुछ औरतें लौकी, टमाटर, भिंडी, बैंगन, पत्तागोभी आदि लेकर अनाज बैंक आती हैं और उसके बदले न केवल दाल बल्कि अपने घरों में न उपजने वाली सब्ज़ियां भी लेकर जाती हैं।
क्रिस्टी सैकिया एक विकास पेशेवर हैं और आजकल मॉनिटरिंग और इवैल्यूएशन (एम&ई) विशेषज्ञ के रूप में काम करती हैं।
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साल 2022 में असम में गम्भीर बाढ़ और भूस्खलन होने से जान और माल को बहुत अधिक नुकसान हुआ और सात लाख से अधिक लोग बेघर हो गए। ब्रह्मपुत्र में स्थित एक नदी-द्वीप माजुली इस बाढ़ और कटाव में बहुत तेज़ी से उभर कर सामने आया। पिछले कुछ सालों में इसके 69 गांव नदी तट के कटाव के कारण और 96 गांव बाढ़ की चपेट में आने के कारण ख़त्म हो गए।
माजुली के मिसिंग जैसे स्थानीय समुदाय ऐसे जलवायु-संबंधी खतरों से बहुत बुरी तरह से प्रभावित होते हैं और भारी मानसिक यातना झेलते हैं। समुदाय की सदस्य दीपा पायुन इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कैसे किसी के घर और पर्यावरण के नुकसान से दुख, स्वायत्तता की हानि और असहायता की भावना पैदा हो सकती है। ‘हमें बहुत दुःख हुआ था। पिछले कटाव के दौरान हमें पांच बार अपनी जगहों से विस्थापित होना पड़ा था। हर बार पुनर्वास के समय हमारा एक ही सवाल होता था – क्या यह जगह भी हमारे पिछले घर की तरह नष्ट हो जाएगी या बाढ़ में डूब जाएगी?’
दीपा वे वजहें गिनाती हैं जिनके कारण मिसिंग समुदाय को इन भयावह अनुभवों से गुजरना पड़ा। ‘हमारे पास अपनी कोई ज़मीन नहीं है। हम अपने पूर्वजों को इस बात के लिए कोसते हैं कि उन्होंने रहने के लिए इन बाढ़ के मैदानों का चुनाव किया। वहीं ऊंची जाति के लोग ऊंचे इलाकों में रहते हैं।’
असम में बाढ़ नियंत्रण का उद्देश्य आम तौर पर शहरी आर्थिक केंद्रों की रक्षा करना है, जो ग्रामीण क्षेत्रों की कीमत पर होता है। माजुली में बांधों और तटबंधों की मदद से मिसिंग बस्तियों को छोड़कर राजस्व पैदा करने वाले गांवों की रक्षा की गई है।
मिसिंग समुदाय के लोगों को उनकी आर्थिक स्थिति, भूगोल और जातीयता के कारण हाशिए पर रखा गया है – ये सभी कारक एक-दूसरे से जुड़े हैं और उन्हें बेहद असुरक्षित बनाते हैं। लेकिन मिसिंग समुदाय के लोगों ने बाढ़ और कटाव से निपटने के लिए अपने स्थानीय ज्ञान, प्रथाओं और संसाधनों को उपयोग में लाया है। बार-बार आने वाली इस बाढ़ के प्रति उनकी प्रतिक्रिया लम्बे समय से जांची-परखी, प्रकृति-आधारित वैकल्पिक समाधानों पर आधारित है। उदाहरण के लिए, बाढ़ प्रतिरोधी चांगघर, मिसिंग लोगों के पारंपरिक घर, पर्यावरणीय खतरों के प्रति एक अद्वितीय स्वदेशी उपाय है। दीपा कहती हैं कि ‘चांग घर वास्तव में बहुत उपयोगी होते हैं, विशेषरूप से बारिश के दौरान। हम अपने रहने के लिए बांस के खंभों के सहारे चांग पर चांग (कई मंजिलें) बनाते हैं और नीचे अपना सामान (जैसे साइकिल) रखते हैं।’ ये घर बाढ़ के पानी, कीड़ों और जंगली जानवरों को दूर रख सकते हैं।
मिसिंग के जलवायु-संवेदनशील खेती के तरीके; उपयुक्त फसल किस्मों को उगाने में विशेषज्ञता; और कुछ लागत प्रभावी प्रथाओं का उपयोग, जैसे कि भारतीय कपास की लकड़ी, बांस, नारियल और सुपारी का रोपण, मिट्टी संरक्षण के लिए प्रकृति-आधारित समाधानों को सफलतापूर्वक बढ़ावा देता है। यह विशेष रूप से प्रासंगिक है क्योंकि तटबंध, बांध और रेत की बोरियां के टूटने और बहने की सम्भावना होती है।
दीपा तटबंध निर्माण जैसे तकनीकी-प्रबंधकीय बाढ़-नियंत्रण उपायों द्वारा स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों के हाशिए पर जाने की बात पर जोर देती हैं। वे कहती हैं कि ‘हमें नदियों के किनारे रहने का सालों का अनुभव है, फिर भी बाढ़ नियंत्रण से जुड़े कार्यक्रमों में इंजीनियर हमें शामिल नहीं करते हैं।’
ओलम्पिका ओजा मारीवाला हेल्थइनिशिएटिव (एमएचआई) में न्यू इनिशिएटिव में सहायक हैं।
यह आलेख आईडीआर के लिए संपादित किया गया है। मूल संस्करण एमएचआई के रीफ़्रेम: मेंटल हेल्थ एंड क्लाइमेट जस्टिस के पांचवें संस्करण में प्रकाशित किया गया था।
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बन्नी घास का मैदान, अपने समृद्ध वन्यजीव और जैव विविधता के लिए जाना जाता है। यह गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है। इस इलाक़े में मुख्य रूप से मालधारी समुदाय (पशुपालक) समुदाय के लोग रहते हैं जो बन्नी भैंस और कंकरेज मवेशियों सहित विभिन्न क़िस्म के मवेशियों को पालते हैं। मालधारी समुदाय के लोग अपनी संस्कृति और परंपरा के अनुसार पीढ़ियों से कंकरेज मवेशियों को पाल रहे हैं। ये अपने मवेशियों के चारा-पानी के लिए मौसमी प्रवास पर अपने घरों से दूर निकल जाते हैं।
हालांकि 1980 के दशक से क्षेत्र में दूध की डेयरी के आने के बाद इस इलाक़े में बहुत अधिक परिवर्तन आया है। अधिकांश पशुपालक और चरवाहे या तो बन्नी से बाहर जाकर बस गए हैं या फिर उन्होंने अपने पुराने मवेशियों को हटाकर उनकी जगह भैंसे पाल ली हैं। भैंस का दूध बेचने से मुनाफा अधिक होता है लेकिन इसके पीछे यही एक कारण नहीं है। दशकों से गैंडो बावर (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) नाम के खरपतवार के सेवन से गायों की आंत में होने वाली बीमारी से उनकी मौत हो जाती है। यह मामला तब और बदतर हो गया जब 2022 में बन्नी घास के मैदानों में होने वाली पहली बारिश से मवेशियों को गांठदार त्वचा रोग (लंपी स्किन डिजिज) होने लगा। इस बीमारी ने इलाक़े के पशुओं को बुरी तरह से अपनी चपेट में ले लिया। कच्छ जिले के मिसरियादो गांव में इस दौरान लगभग 100 गायें मर गईं।
मिसरियादो के निवासी मजना काका कहते हैं, ‘गायों को रखना बहुत मुश्किल हो गया है, क्योंकि मैंने अपने पूरे जीवनकाल में उन्हें इस तरह की बीमारी से पीड़ित नहीं देखा है।’ महज पांच से सात दिनों के अंतराल में उनकी 15-16 गायों की मौत हो गई। वे आगे जोड़ते हैं ‘इन गायों को पालना बहुत कठिन काम है – हम उनके लिए दूर-दूर तक यात्रा करते हैं, परिवार की तरह उनका पालन-पोषण करते हैं और दुर्भाग्य से फिर भी उन्हें बचा नहीं पाते हैं।’
पशु चिकित्सकों ने गायों को टीका लगाया, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। केवल 10 दिनों में अपनी 40 गायें खोने वाले पड़ोसी गांव नेरी के निवासी मियाल हेलपोत्रा बताते हैं कि ‘मैंने उन देसी उपचारों का सहारा लिया जिनका हम लम्बे समय से अभ्यास करते आ रहे हैं; लेकिन हम फिर भी उन्हें बचा पाने में असमर्थ हैं।’
वे अपनी गायों को चराने के लिए प्रवास की तैयारी कर रहे हैं लेकिन उन्हें लगता है कि वे बहुत कमजोर हो गई हैं। ‘गायें अब भी पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हुई हैं और कुछ के तो घाव अब तक नहीं भरे हैं। उनके साथ लम्बी दूरी की यात्रा पर निकलना कठिन है क्योंकि उन्हें चलने में भी दिक़्क़त होती है।’
पशुपालकों का मानना है कि उनके मवेशियों को होने वाली इस बीमारी का कारण हवा और मौसम में आने वाला बदलाव है। पिछले कई सालों में उनके घास के मैदान के क्षेत्रफल, घास की गुणवत्ता और पानी में कमी आई है लेकिन राज्य सरकार से किसी भी प्रकार का समर्थन नहीं मिला है। उन लोगों ने जिले के कलेक्टर ऑफ़िस में मदद और मुआवजे के लिए आवेदन भी दिया है लेकिन अब तक कोई राहत नहीं मिली है।
मालधारी बहुत ही प्रतिकूल परिस्थिति में रहते हैं। उनके पास स्वास्थ्य सुविधाओं और बच्चों के लिए स्कूल का अभाव है। वे अब भी अपने मवेशियों की देखभाल कर रहे हैं क्यों यह उनकी परंपरा का हिस्सा है। लेकिन किसी भी तरह के समर्थन या प्रोत्साहन के बिना वे अपनी इस परम्परा को कब तक बचा कर रख सकते हैं?
आस्था चौधरी और दीप्ति अरोड़ा उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संबंधों का अध्ययन करने वाली शोधार्थी हैं। वे दोनों कोएग्जिसटेंस कंसोर्टियम से जुड़ी हुई हैं।
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हाल के वर्षों में, असम में किसानों के बीच खेती के रासायनिक तरीक़ों और संकर (हाइब्रिड) बीजों को लेकर निर्भरता बढ़ी है। ज़मीन पर राज्य एवं केंद्र, दोनों ही सरकारें प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही तरीक़ों को बढ़ावा दे रही हैं। नतीजतन, समुदाय के लोगों के बीच एक भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। उदाहरण के लिए, किसानों में बीज-वितरण के समय कृषि विभाग वर्मीकम्पोस्ट किट भी देता है। हालांकि उसी समय विभाग के लोग नाइट्रोजन-फ़ॉस्फ़ोरस-पोटैशियम (एनपीके) खाद, जिंक और यूरिया के किट भी बांटते हैं।
इसके अलावा, जरूरी नहीं है कि यह धारणा सच ही हो फिर भी सरकार समुदायों को बता रही है कि खेती के प्राकृतिक तरीक़ों से उपज में कमी आ सकती है। उपज मिट्टी के स्वास्थ्य, सिंचाई, बीज की क्षमता और खरपतवार और कीटों की उपस्थिति सहित विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। मामला कुछ भी हो लेकिन किसानों ने इस कथन को स्वीकार कर लिया है और चूंकि उन्हें तुरंत परिणाम चाहिए इसलिए अब वे यूरिया जैसी रासायनिक खादों का अधिक इस्तेमाल करते हैं।
चिरांग जिले में सेस्टा जिन किसानों के साथ काम करता है, उनका कहना है कि वे कृषि पर रसायनों के नकारात्मक प्रभाव को समझते हैं। वे सभी इस बात को जानते हैं कि इन तरीक़ों से उपजाया गया खाद्य पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। यही कारण है कि इनमें से कई लोगों ने अपने खेतों को दो भागों में बांट लिया है। ज़मीन के एक टुकड़े पर वे प्राकृतिक तरीक़े से खेती करते हैं और उससे होने वाली उपज को अपने इस्तेमाल में लाते हैं। दूसरे हिस्से में रासायनिक विधियों से खेती की जाती है और उससे उपजने वाले अनाज को बाज़ार में बेच दिया जाता है।
कौस्तव बोरदोलोई सेस्टा में डिजिटल और संचार विशेषज्ञ के रूप में काम करते हैं, पोलाश पटांगिया सेस्टा के साथ साझेदारी में काम करते हैं और उसके संचार कार्यकारी हैं।
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असम में बोडो और आदिवासी समुदाय कई दशकों से एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। बोडो गांव भूटान की सीमा से लगे हैं। आदिवासियों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा दिहाड़ी मज़दूर है और उन्हें काम के लिए बोडो गांवों में जाना होता है जिसके लिए सीमा पार करनी पड़ती है। वहीं, बोडो जनजाति के लोग अपने खेतों में उगने वाली फसलों को बेचकर अपना गुजर-बसर करते हैं इसलिए उन्हें बाजार की ज़रूरत होती है। वहां पहुंचने के लिए उन्हें आदिवासी गांवों से गुजरना पड़ता है।
जब भी इन दोनों समुदायों के बीच हिंसा की कोई घटना होती है तब इनकी जीविका कमाने से जुड़ी सभी गतिविधियां ठप्प पड़ जाती हैं। 2014 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था जब चिरांग जिले जैसे कई इलाकों में समुदायों के बीच जातीय संघर्ष हुए थे। इस संघर्ष में कई लोगों की जान चली गई थी। तत्काल प्रभाव से शांति स्थापित करने की जरूरत थी जिसके लिए समुदाय के लोगों को आमने-सामने बैठकर बात करनी थी। यही वह समय था जब खेल-कूद जुड़ाव के सूत्र के रूप में उभर कर आया।
इलाके के कई समुदायों में हर तरह के खेल की खासी लोकप्रियता थी। इसलिए यहां काम करने वाले कई स्थानीय और समाजसेवी संगठनों ने सोचा कि इसका फायदा उठाना चाहिए। बोडो और आदिवासियों को एक ही छत के नीचे लाने के लिए इन्होंने कुश्ती जैसे स्वदेशी खेलों का इस्तेमाल किया क्योंकि दोनों ही समुदायों के लोग पहले से ही इसे खेलना जानते थे। लेकिन एक खेल अल्टीमेट फ्रिस्बी भी था – एक ऐसा खेल जिसे स्थानीय लोगों ने कभी नहीं खेला था – जो बहुत जल्दी बहुत अधिक लोकप्रिय हो गया।
यह विदेश से आया एक खेल है। 2015 में मैंने अपने एक दोस्त से सुना कि अनीष मुखर्जी जो एक गांधी फ़ेलो हैं, इस खेल में पारंगत हैं। साथ ही, यह भी पता चला कि वे असम में समुदायों के साथ काम करना चाहते हैं। हमने उनसे सम्पर्क किया और इस पर चर्चा की कि क्या और कैसे यह खेल समुदायों के बीच के तनाव को ख़त्म करने में मददगार साबित हो सकता है?
चिरांग के लोगों के लिए अल्टीमेट फ़्रिस्बी एक एकदम नया खेल था। यह अपने साथ ऐसे मौके लेकर आया था जिनकी संघर्ष-ग्रस्त समुदायों को तत्काल आवश्यकता थी।उदाहरण के लिए, इसे लड़के एवं लड़कियों को एक साथ मिलकर खेलना था और उम्र की सीमा भी नहीं थी। जल्दी ही मां और बेटे, भाई और बहन एक साथ फ़्रिस्बी खेल रहे थे। इस खेल में कोई रेफ़री नहीं होता है इसलिए टीम के सदस्यों को सामूहिक रूप से मध्यस्थता करनी पड़ती थी और खेल के दौरान उभरे मुद्दों को हल करना होता था।
जातीय शत्रुता वाले क्षेत्र में यह एक महत्वपूर्ण अभ्यास था। इस खेल में एक ‘स्पिरिट सर्कल’ की अवधारणा भी है – हर बार खेल शुरू करने से पहले, खिलाड़ी रणनीति बनाने के लिए एक साथ मिलते हैं जिससे उनके बीच संवाद को बढ़ावा मिलता है। यह फुटबॉल जैसे किसी खेल के साथ सम्भव नहीं था जिनके बारे में समुदाय की अपनी अवधारणा है। फ़्रिस्बी लिंग, धर्म और भाषाई पहचान के मानदंडों से अछूता था और फैसिलिटेटर खेल के नियमों में सुधार कर सकते थे।
उदाहरण के लिए हमने एक नियम बनाया है जिसके अनुसार प्रत्येक टीम को तीन मातृभाषाओं और तीन धर्मों का प्रतिनिधित्व करना होता है। इससे खेलने वालों को जो कभी अपने गांव से बाहर नहीं गए थे, उन्हें अपनी टीम में लोगों को शामिल करने के लिए उनके पास जाने और उन्हें समझाने पर मजबूर होना पड़ा।
जेनिफर लियांग असम में ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था द एंट की सह-संस्थापक हैं।
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अधिक जानें: जानें किस तरह कुश्ती ने असम में युवा बोडो लोगों के बीच शराब की लत से लड़ने में मदद की।
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2015 में, युवा लोगों के साथ काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था के सदस्य के रूप में, मैं मेघालय के रिभोई जिले में स्थित मावियोंग गांव गया था। इस इलाक़े की सबसे बड़ी समस्या छात्रों का बीच में स्कूली पढ़ाई छोड़ देना बनी हुई थी और समुदाय के लोग इससे निपटने की कोशिश में लगे हुए थे।
गांव के मुखिया की बेटी छात्रों को उनकी पढ़ाई में मदद करने के लिए ट्यूशन पढ़ाती थी। उन्होंने सुझाव दिया कि एक पुस्तकालय से इस समस्या का हल हो सकता है क्योंकि छात्र वहां इकट्ठे होकर पढ़ाई कर सकते हैं। पुस्तकालय का निर्माण हुआ लेकिन इससे पढ़ाई छोड़ देने वाले छात्रों की संख्या में कोई कमी नहीं आई। गांव की लड़कियां अपनी पढ़ाई जारी रख रही थीं लेकिन लड़के 8वीं कक्षा के बाद स्कूल छोड़ रहे थे। पढ़ाई छोड़ने वाले ज़्यादातर लड़कों ने पास की ही एक खदान में दिहाड़ी मज़दूरी करनी शुरू कर दी थी। पढ़ाई में रुचि न रखने वाले लोगों को पुस्तकालय तक कैसे लाया जा सकता था, भला?
हालांकि इसका समाधान जल्द ही मिल गया। गांव के लोगों को फुटबॉल खेलना पसंद था। जहां बुजुर्ग और वयस्क दर्शक की भूमिका में थे, वहीं युवा लड़के केवल खेलने के लिए भी अपनी स्कूल की कक्षाओं से अनुपस्थित रहा करते थे।
हालांकि इसका समाधान जल्द ही मिल गया। गांव के लोगों को फुटबॉल खेलना पसंद था। जहां बुजुर्ग और वयस्क दर्शक की भूमिका में थे, वहीं युवा लड़के केवल खेलने के लिए भी अपनी स्कूल की कक्षाओं से अनुपस्थित रहा करते थे।
इसे देखते हुए स्कूल में लड़कों के फुटबॉल खेलने के लिए बेहतर सुविधाएं और उपकरण उपलब्ध करवाए गए। इसके बदले में उन्हें कुछ नियमों का पालन भर करना था। जैसे कि यदि वे फुटबॉल को बार-बार पंचर करेंगे तो उन्हें खेलने के लिए नई गेंद नहीं दी जाएगी। वे केवल खेलने के लिए स्कूल नहीं जा सकते हैं, उनके लिए कक्षाओं में भी उपस्थित रहना अनिवार्य रखा गया। स्कूल में लड़कों की उपस्थिति बढ़ने लगी क्योंकि वे खेलना चाहते थे। जल्द ही, इस खेल को सभी छात्रों के लिए उपलब्ध करवा दिया गया ताकि लड़के और लड़कियां एक साथ खेल सकें। शुरुआत में लड़कों ने इसका विरोध किया लेकिन जब उन्होंने देखा कि लड़कियां न केवल अधिक पेशेवर तरीके से खेल रही हैं बल्कि गांवों के बीच होने वाले टूर्नामेंटों में भी भाग ले रही हैं तो उन्होंने विरोध छोड़ किया।
जैसे-जैसे स्कूल में छात्रों की उपस्थिति में सुधार आया, वैसे-वैसे पुस्तकालय में पढ़ाई में भागीदारी भी बढ़ी। पुस्तकालय छात्रों को स्कूल तक लेकर नहीं आई बल्कि स्कूल ने फुटबॉल के बहाने छात्रों को पुस्तकालय का रास्ता दिखाया।
सोनल रोशन यूथ इन्वॉल्व में कोऑर्डिनेटर और एक्सोम स्टेट कलेक्टिव में राज्य प्रबंधक हैं।
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अधिक जानें: जानें कि अल्टीमेट फ्रिस्बी का खेल असम में दो जनजातियों के बीच की असहमति को दूर करने में किस प्रकार मददगार साबित हो रहा है।
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मल्कानगिरी ओडिशा के दक्षिणी हिस्से में स्थित एक पहाड़ी जिला है जो आंध्रप्रदेश के बेहद क़रीब है। मल्कानगिरी जहां स्थित है, वहां राज्य के अन्य हिस्सों की तुलना में अधिक वर्षा होती है। राज्य के सभी जिलों की तरह मल्कानगिरी के गांवों में भी रागी, बाजरा (पर्ल मिलेट) और फॉक्सटेल मिलेट जैसे अनाजों की उपज होती थी। लेकिन हरित क्रांति के बाद इस इलाक़े के किसान बेहतर दाम और आमदनी के लिए चावल और गेहूं जैसी नक़दी फसलें उगाने लगे हैं।
मल्कानगिरी के एक किसान मुका पदियामी कहते हैं कि “हमारे पूर्वज खेती के पारम्परिक तरीक़ों का उपयोग कर रागी जैसे तमाम अनाज उपजाते थे। लेकिन बाजार में इनके अच्छे दाम नहीं मिलते थे इसलिए उन लोगों ने ज्यादा एमएसपी वाले चावल और गेहूं की खेती शुरू कर दी।”
मल्कानगिरी चावल जैसी फसलों को उगाने के लिए एक आदर्श जगह थी क्योंकि यहां अच्छी वर्षा होती थी। लेकिन पानी के बहाव के कारण लंबे समय तक ऐसा करना सम्भव नहीं हो सका, जो कि पहाड़ियों के ऊपरी इलाक़ों में रहने वाले किसानों के लिए आम बात है। इसके साथ ही, वर्षा चक्र में भी अंतर आया है और इससे इलाक़े में लम्बे समय तक सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है। नतीजतन, पानी की अधिक खपत वाली फसलों को नुक़सान पहुंचता है। ओडिशा मिलेट मिशन (ओएमएम) पर ओडिशा सरकार के कार्यक्रम सचिवालय के साथ काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था वासन के कार्यक्रम प्रबंधक अभिजीत मोहंती कहते हैं कि “पानी के बहाव के कारण मिट्टी का कटाव होता है और खेतों की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। पहले इन पहाड़ियों में रहने वाली जनजातियां मोटे अनाज की खेती करती थी जिनकी जड़ें ज़मीन में गहरे होतीं थीं और मिट्टी को पकड़कर रखती थीं। इससे मिट्टी का कटाव नहीं हो पाता था।”
मुका जैसे किसान अब फिर से मोटे अनाजों की खेती की तरफ़ लौट रहे हैं। मुका कहते हैं कि “मैं पिछले कई वर्षों से रागी की खेती कर रहा हूं और बाजरा की खेती करते हुए भी मुझे तीन साल हो गए हैं। जब मैंने रागी और बाजरा की खेती करनी शुरू की तब गांव के लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया था। लेकिन अब वे भी मेरे नक़्शे-कदम पर चलने लगे हैं क्योंकि अब हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। यहां वर्षा अनियमित होती है, और बाजरे को बहुत कम पानी की जरूरत होती है।”
पिछले कुछ वर्षों में सरकार द्वारा बाजरे की खेती के लिए किए गए प्रोत्साहन से वास्तव में मदद मिली है। ओडिशा के आदिवासी विकास सहकारी निगम द्वारा स्थापित स्थानीय मंडी (बाजार) में मुका जैसे किसान अब एमएसपी पर एक क्विंटल बाजरा के लिए 3,400 रुपये कमा रहे हैं। वे नए और पुराने तरीक़ों को मिलाकर खेती कर रहे हैं। मुका कहते हैं कि “हमारे पूर्वज उतना ही अनाज उगाते थे जितना हमारे घर के लिए पर्याप्त होता था।”
मल्कानगिरी में बाजरा किसानों की नई पीढ़ी उन्नत कृषि विधियां अपना रही है। बेहतर उत्पादकता और उपज के लिए, वे जीवामृत, घनजीवामृत और बीजामृत जैसे जैव-इनपुट का उपयोग करते हैं। बहुत सारी रासायनिक खाद की जरूरत वाली चावल की फसल के विपरीत बाजरे के लिए ज्यादा खाद वगैरह की ज़रूरत नहीं होती है।
मल्कानगिरी के समुदायों के लिए, बाजरा की खेती एक से अधिक तरीकों से उनकी आजीविका में मदद पहुंचा रही है। यहां वर्षा पर आधारित खेती करने वाले किसान आय के अन्य स्त्रोत के रूप में पशुपालन करते हैं। बाजरे की फसल के अवशेष पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
अभिजीत मोहंती वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क (वासन), भुवनेश्वर में प्रोग्राम मैनेजर हैं। मुका पदियामी ओडिशा मिलेट मिशन (ओएमएम) द्वारा सहयोग प्राप्त एक प्रगतिशील बाजरा किसान-सह-प्रशिक्षक है।
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मैं जनवरी 2021 से असम के माजुली जिले में स्थित हमिंगबर्ड स्कूल में शिक्षक हूं। मैं कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों को विज्ञान पढ़ाता हूं। हमारे यहां आसपास के कई गांवों से बच्चे पढ़ने आते हैं। सीखने में उनकी मदद करने के लिए वीडियो और तस्वीरों का उपयोग करने के अलावा हम उनसे कई तरह के व्यावहारिक प्रयोग भी करवाते हैं। इन प्रयोगों का उद्देश्य उन्हें यह दिखाना होता है कि विज्ञान किस तरह से हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है।
अपने स्कूल के छात्रों को खमीर और सूक्ष्मजीवों के काम के बारे में सिखाने के लिए, हम उनसे राइस बियर बनाने के लिए कहते हैं। राइस बियर एक ऐसी चीज़ है जो यहां के स्थानीय लोग घर पर ही बनाते हैं। माजुली में अचार एक लोकप्रिय चीज़ है इसलिए हम छात्रों को नमक वाले और बिना नमक वाले अचार बनाने को भी कहते हैं। इससे उन्हें खाने को लम्बे समय तक संरक्षित रखने में नमक की भूमिका समझने में मदद मिलती है।
छात्र हर चीज़ पर सवाल करते हैं, यहां तक कि समुदाय की परम्पराओं और आस्थाओं पर भी। उदाहरण के लिए, एक बार हम लोग धारणाओं और उन्हें प्रमाणित और अप्रमाणित करने के विषय पर चर्चा कर रहे थे। छात्रों ने पास के कोलमुआ गांव में भूत होने की अफ़वाह पर हमसे बात की। इस गांव के स्थानीय लोगों ने गांव में नदी से सटे एक इलाक़े को भुतहा घोषित कर उसे प्रतिबंधित कर दिया था। ऐसा कहा जाता है कि इस गांव की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली थी और उसे वहीं दफ़नाया गया था। कई लोगों का दावा था कि उन्होंने उस लड़की को रात में नदी के तट पर घूमते देखा है इसलिए उन्हें वहां जाने से डर लगता है। अब धारणा यह थी कि भूतों का अस्तित्व है, लेकिन हम इसे अप्रमाणित कैसे कर सकते हैं? एक छात्र ने सुझाव दिया कि हमें रात में वहां जाकर देखना चाहिए कि भूत है या नहीं।
यदि भूत नहीं दिखता है तो वे मान लेंगे कि कहानी ग़लत है। हमने तय किया कि हम वहां जाएंगे और उस स्थान से थोड़ी दूरी पर अपना टेंट लगाएंगे। वहां मुझे मिलाकर तीन शिक्षक और कुल 14 बच्चे थे। कुछ बच्चे बहुत ज़्यादा डरे हुए थे, लेकिन कुछ में उत्साह था। डरने वाले बच्चों से हमने कहा कि वे हम में से एक शिक्षक के साथ टेंट में ही रुकें और बाक़ी के लोग रात के दस बजे टेंट से बाहर निकल गए।
हमने अगले आधे घंटे तक भूत को उसके नाम से पुकारा लेकिन वह हमारे सामने प्रकट नहीं हुआ। इस तरह हमने इस डरावनी कहानी को ग़लत साबित किया और वापस लौट आए। छात्र तो इतने गर्व के साथ उछल रहे थे, मानो वे युद्ध में जीत हासिल कर लौटने वाले योद्धा हों।
दीपक राजपूत असम के माजुली में हमिंग बर्ड स्कूल में विज्ञान के शिक्षक हैं।
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ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित द्वीप, माजुली 1950 के दशक में 1250 वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ था लेकिन अब यह सिकुड़ कर 483 वर्ग किलोमीटर रह गया है। कभी यह क्षेत्र दुनिया के सबसे बड़े नदी द्वीप के नाम से प्रसिद्ध था। लेकिन अब इस क्षेत्र की मिट्टी नदी में आने वाली बाढ़ के कारण नष्ट हो रही है। इसका गम्भीर प्रभाव यहां के निवासियों के भरण-पोषण पर पड़ रहा है। माजुली में काम कर रहे SeSTA के इग्ज़ीक्यूटिव कीशम बलदेव सिंह का कहना है कि “मैंने एक साल के भीतर ही [लगभग] 500 मीटर का कटाव देखा है। पिछले साल हमने श्री लुहित पंचायत के पास पिकनिक का आयोजन किया था। इस साल वह जगह गायब हो चुकी है।”
सरकार ने मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए नदी के तट पर जियोबैग और कंक्रीट के तिकोने ढांचों का निर्माण करवाया है जिसे पर्क्यूपाईन या साही कहा जाता है। लेकिन इन समाधानों का प्रभाव सीमित है। कटाव के कारण कई गांव ढह गए हैं और वहां के निवासियों को विस्थापित होना पड़ा है। क्षेत्रफल में आई कमी के कारण जानवर अब गांवों का रुख़ करने लगे हैं। इसके चलते उनके और स्थानीय किसानों के बीच टकराव के मामले भी सामने आए हैं।
बाढ़ के कारण क्षेत्र में उपजाऊ जमीन की उपलब्धता और वन्यजीव के प्राकृतिक आवास भी प्रभावित हुए हैं। उदाहरण के लिए, माजुली में पहले बंदर दिखाई नहीं पड़ते थे लेकिन पिछले कुछ सालों में वे गांवों की तरफ़ आ गए हैं और किसानों की फसल को नुक़सान पहुंचाने लगे हैं। माजुली के आसपास फलों का कोई बगीचा या घने जंगल वाला इलाक़ा नहीं है जहां ये बंदर रह सकें और अपना पेट भर सकें। इसलिए वे किसानों की फसल खा जाते हैं और कभी-कभी न खाने लायक़ फसलों को जड़ से उखाड़कर बर्बाद कर देते हैं। अपनी आजीविका को बचाने के लिए किसानों के पास उन बंदरों को मार कर भगाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता है।
फसल के लिए उपलब्ध सीमित भूमि ने इलाक़े के अनगिनत किसानों को पशुपालन अपनाने की तरफ भेज दिया है। बेलोगुरी गांव में मुर्गीपालन करने वाली सपना घोष बताती हैं कि मवेशियों को पालने की अपनी चुनौतियां हैं। गांव के भीतर घुस चुकी जंगली बिल्लियों के लगातार हमलों के कारण उसके मुर्गीपालन व्यापार का आकार बहुत छोटा हो गया है। इसलिए उन्होंने अपनी मुर्गियों के लिए एक आश्रय बनवाया है और अपनी मेहनत पर पानी फेरने वाले उन शिकारी बिल्लियों को पकड़ने के लिए पिंजरे भी लगवाए हैं। सपना कहती हैं कि “मैं क्या कर सकती हूं? मैंने पिंजरा बनवाया और तीन जंगली बिल्लियों को पकड़ा। लेकिन पिछले कुछ दिनों से एक भी बिल्ली पकड़ में नहीं आई है। अब वे पिंजरे में नहीं घुसती हैं।”
इंसानों और जानवरों के बीच इस विवाद का मुख्य कारण भूमि पर किया जाने वाला क़ब्ज़ा है। द्वीप का तेज़ी से हो रहा क्षरण इसके निवासियों के बीच स्वामित्व और अस्तित्व के प्रश्न को उठा रहा है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
कीशम बलदेव सिंह असम के माजुली में SeSTA के इग्ज़ेक्युटिव हैं। सपना घोष असम के माजुली में मुर्गीपालन का काम करती हैं।
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