June 29, 2023

अलवर की एक महिला जो नई बहुओं को पितृसत्ता से लड़ने के हथियार देती है

क्यों नवविवाहित महिलाओं के लिए शारीरिक, आर्थिक और मानसिक हिंसा को पहचानना जरूरी है।
6 मिनट लंबा लेख

मेरा जन्म राजस्थान के अलवर ज़िले के रसवाड़ा गांव में हुआ था। हमारे परिवार में मेरे अलावा छह और सदस्य थे – मेरी तीन बहनें, भाई और हमारे माता-पिता। जब मैं आठ साल की थी, तब बेहतर भविष्य की तलाश में मेरा पूरा परिवार गुरुग्राम आकर बस गया। जहां मैंने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और साल 2001 में 18 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई।

अब मैं राजस्थान के अलवर में अपने पति, एक बेटे और एक बेटी के साथ रहती हूं। मेरे पति एक दिहाड़ी-मज़दूर हैं – वे इमारतों में सफ़ेदी का काम करते हैं और उनकी रोज़ाना की आमदनी 600 रुपए है। शादी के कुछ ही दिनों बाद, मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि अपना घर चलाने के लिए मुझे भी काम करना पड़ेगा। हमारे घर में पानी और साफ-सफ़ाई से जुड़ी साधारण सुविधाएं भी नहीं थीं। 

मैंने बहुत कम उम्र में ही यह समझ लिया था कि महिलाओं को अपनी अलग पहचान बनाने की ज़रूरत है। मैंने किशोर लड़कियों को जीवन कौशल से जुड़ी शिक्षा देने के लिए समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम करना शुरू किया ताकि उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल तार्किक सोच और समस्याओं के समाधान के तरीके सीखने में मदद मिले। जल्दी ही मैंने यह भी जान लिया कि इस क्षेत्र में अपने काम को जारी रखने के लिए मुझे आगे पढ़ने की ज़रूरत है; इसलिए अपनी शादी के नौ सालों के बाद मैंने बीए और बीएड की पढ़ाई की। आजकल मैं राजस्थान के अलवर ज़िले में समाजसेवी संस्था इब्तिदा के लिए फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर और प्रशिक्षक के रूप में काम कर रही हूं। मैं युवा महिलाओं को करियर से जुड़ी सलाह देने, कम्प्यूटर शिक्षा की सुविधा मुहैया करवाने और खेल-कूद करवाने जैसे काम करती हूं। इसके साथ में नव-विवाहित महिलाओं के लिए चलाए जा रहे इब्तिदा के कार्यक्रम के लिए भी काम करती हैं जहां मैं महिलाओं को संवाद कौशल का प्रशिक्षण देती हूं और उन्हें पोषण ज़रूरतों और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियां देती हूं। इसके अलावा, मैं इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनके लिए मौके निकालने में उनकी मदद करती हूं और साथ ही कई स्तरों पर होने वाली लैंगिक हिंसा को समझने और उसका मुक़ाबला करने के बारे में भी बताती हूं। जहां मेरे जीवन से मेरे काम में मदद मिली है, वहीं विकास क्षेत्र में मेरे काम के अनुभवों का मेरे जीवन पर भी उतना ही प्रभाव पड़ा है। 

सुबह 6.30 बजे: मेरे दिन की शुरुआत सुबह 6.30 बजे होती है। जब तक मैं सोकर उठती हूं तब तक मेरे पति अपना योग और पूजा ख़त्म कर चुके होते हैं और हम दोनों के लिए चाय भी तैयार रखते हैं। उस दिन के काम की ज़रूरत के हिसाब से हम सब अपने-अपने हिस्से के काम बांट लेते हैं ताकि किसी को भी देर न हो। जैसे कि मेरे पति सब्ज़ियां काट देते हैं और मैं सुबह का नाश्ता तैयार कर लेती हूं। मेरा बेटा कपड़े धोने और इस्तरी करने के काम में कभी-कभी मदद कर देता है। इसके बाद बच्चे स्कूल के लिए तैयार होते हैं। जिस दिन मेरी बेटी को स्कूल नहीं जाना होता है, उस दिन वह खाना तैयार करने में मेरी मदद कर देती है। अपनी व्यस्तता के आधार पर या तो मेरे पति या मेरा बेटा मेरा स्कूटर झाड़-पोंछ देते हैं और मेरे लिए दोपहर के खाने का डब्बा तैयार कर देते है।

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साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला।

लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। शादी के लगभग 15 सालों तक घर के सभी कामों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर ही थी। साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला। मैंने अस्पताल और घर के खर्चे पूरे किए और अकेले ही पूरा घर सम्भाला। तभी उन्हें समझ में आया कि अगर मैं परिवार को आर्थिक रूप से सहारा दे सकती हूं, तो उन्हें भी घर के कामों में मेरी मदद करनी चाहिए और एक दूसरे को बराबर समझना चाहिए। उन्होंने यह भी समझा कि उनकी पत्नी केवल अपने लिए नहीं बल्कि सब के लिए कमा रही है।मेरे सास-ससुर को मेरा काम करना पसंद नहीं था और उन्होंने इसका विरोध किया। जब मेरे पति ने घर के कामों में मेरी मदद करनी शुरू की तब उन्होंने पति को फटकार लगाई और कहा कि वे मेरे इशारों पर नाचते हैं। लेकिन मेरे पति अपनी बात पर अड़े रहे। मैं जिन नवविवाहिताओं के साथ काम करती हूं, उनके घरों में भी ऐसा ही बदलाव देखना चाहती हूं।

महिलाएं एक समूह में घेरा बनाकर सांप-सीढ़ी का खेल खेलती हुई-नवविवाहित महिला पितृसत्ता
मैंने अपने जीवन के शुरुआती दौर में ही इस बात को समझ लिया था कि महिलाओं को अपनी पहचान बनाने की आवश्यकता है। | चित्र साभार: राज बाला वर्मा

सुबह 10.00 बजे: दफ्तर पहुंचने के बाद मैं अपने दिनभर के काम की योजना बनाती हूं। मैं नवविवाहित महिलाओं के कार्यक्रम में शामिल महिलाओं के समूह के साथ बैठक करती हैं। मैं इस समय ऐसे चार समूहों के साथ काम कर रहीं हूं जिनमें कुल 69 महिलाएं शामिल हैं।इनमें से तीन समूहों की शुरुआत मई 2023 में ही हुई है।

महिलाओं और उनके परिवारों को समझाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। उन्हें इस बात का यक़ीन दिलाना जरूरी है कि मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के केवल उनके लिए वहां पर हूं और मैं उनकी परिस्थितियों को समझती हूं। मैं उन्हें अपने जीवन का उदाहरण देती हूं ताकि उन्हें यह एहसास हो सके कि मुझे उनकी हालत के बारे में पता है। मैं उन्हें यह भी समझाती हूं कि परिवर्तन के धीमी प्रक्रिया है ताकि जब उनके घरों में पितृसत्तात्मक संरचना उनके जीवन को मुश्किल बनाएं तो वे जल्दी निराश न हों। व्यवहार में बदलाव लाने के लिए नियमित बातचीत और छोटे-छोटे कदम उठाने की ज़रूरत होती है।

मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं।

मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं, ताकि उन्हें भरोसा हो सके कि मैं उनकी मदद कर पाने में सक्षम हूं। उदाहरण के लिए, एक बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा कि कौन सी सामान्य शारीरिक घटना है जिससे महिलाएं निपटती हैं, तो उनका जवाब था ‘ल्यूकोरिया‘ जो कि सही भी है। लेकिन वे इसके कारण और इससे निपटने के तरीकों के बारे में नहीं जानती थीं। परिवार के लोग इसके लिए डॉक्टरी सलाह नहीं लेते हैं और लड़कियों को इतनी समझ नहीं होती कि वे इसके लक्षणों को पहचान सकें। मैं उन्हें उनके सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के बारे में परिवार के लोगों से बातचीत करने और ज़रूरत पड़ने पर इलाज करवाने के तरीक़ों के बारे में सिखाती हूं।

मैं बहुओं और उनकी सासों को एक साथ बुलाकर उनसे बातचीत करती हूं। इन बैठकों का मुख्य उद्देश्य विशेष रूप से सासों को समझाना होता है। आमतौर पर अपनी बहुओं के जीवन के सभी फ़ैसले सासें ही लेती हैं। मुझे अक्सर ही उनके और कभी-कभी उनके पतियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। वे मुझसे पूछते हैं कि मैं इन युवा महिलाओं को क्या सिखाने वाली हूं। मैं उनकी पूरी बात को शांति के साथ सुनती हूं और खुले दिमाग़ के साथ सभी मुद्दों पर बातचीत करती हूं।

सास पूछती है कि “आप मेरी बहू को क्या सिखाएंगी? उसके बदले उस समूह में आप मुझे ही क्यों नहीं शामिल कर लेती हैं?” मैं उन्हें समझाती हूं कि उनका जीवन अब उस पड़ाव को पार कर चुका है और उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है। मैं संवेदनशीलता और समझ के उनके स्तर पर जाकर उनसे बातचीत करती हूं और पूछती हूं कि “आपके बच्चों की शादी हो चुकी है, आपने अपना पूरा जीवन काम करने में लगा दिया। आप घर के सभी फ़ैसले लेती हैं, आपको ऐसे किसी समूह की जरूरत नहीं है। अब आपकी बहू को सीखने की ज़रूरत है कि घर कैसे चलाया जाता है। उसे सीखने की ज़रूरत है कि वह आपका सम्मान करे और आपसे किसी भी तरह की बहस या लड़ाई-झगड़ा न करे। आप नहीं चाहती हैं कि आपकी बहू आपके साथ राज़ी-ख़ुशी से रहे?”

मेरी इन बातों से उन्हें यह भरोसा हो जाता है कि मैं उनकी बहुओं को कुछ ऐसा नहीं सिखाने वाली हूं जो उनकी नजर में ‘ग़लत’ है बल्कि मैं उसे कुछ ऐसा सिखाने वाली हूं जिससे उनके पूरे घर को फायदा होगा।

मैं समूह की महिलाओं के साथ निजी स्तर पर जुड़कर समझ बनाती हूं ताकि वे मुझसे अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बात कर सकें। कभी-कभी वे अपनी सासों से बहुत परेशान रहती हैं। यहां तक कि उनके सास और पति भी मुझसे उनकी शिकायत करते हैं। ऐसी स्थिति में मेरा काम बिना किसी हस्तक्षेप के उन सभी की बातों को सुनना होता है। मैं उन्हें एक दूसरे की बातें नहीं बताती हूं क्योंकि इससे झगड़े की सम्भावना बढ़ सकती है। कभी-कभी मुझे मध्यस्थता भी करनी पड़ती है। अगर पति का कोई नजरिया है और वह उसके बारे में बताता है, तो मैं पत्नी को भी समझाने की कोशिश करती हूं। इस तरह मैं एक संतुलन बनाते हुए परिवार के सदस्यों के साथ भरोसेमंद रिश्ता क़ायम रखती हूं।

महिलाओं का एक समूह कक्षा में बैठकर पढ़ता हुआ-नवविवाहित महिला पितृसत्ता
अपने कार्यालय पहुंचने के बाद मैं उस दिन के काम की योजना बनाती हूं और नवविवाहित युवा महिला कार्यक्रम में महिलाओं के साथ मीटिंग का आयोजन करती हूं। | चित्र साभार: राज बाला वर्मा

दोपहर 12.00 बजे: मेरी दोपहर अलग-अलग तरह से बीतती है। कभी मैं कौशल प्रशिक्षण देने के लिए फ़ील्ड में जाती हूं, तो कभी मैं नई जुड़ने वाली महिलाओं के लिए स्वागत बैठक जैसा कुछ करते हैं।हम अपनी संस्था और उसके द्वारा किए जाने वाले काम के बारे में जानकारी देते हैं। परिवार के लोगों को नवविवाहित लड़कियों द्वारा किए जा रहे कामों का महत्व समझाने के लिए हम उन्हें लैंगिक शिक्षा पर केंद्रित विडियो दिखाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ नाम का वीडियो महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कामों की आर्थिक महत्व को दिखाता है और बताता है कि अगर पैसों में देखा जाए तो उनके काम की क़ीमत कम से कम 32,000 रुपए है। हमारा उद्देश्य महिलाओं के काम को प्रत्यक्ष बनाना है। इससे पुरुषों को महिलाओं के कामों की सराहना करने में मदद मिलती है, और वे उनकी सहायता भी करना शुरू कर देते हैं ताकि घर के पूरे काम की जिम्मेदारी केवल महिलाओं के कंधे पर न पड़े। 

परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं।

इसके बाद मैं दोपहर का खाना खाती हूं और अपना प्रशिक्षण ज़ारी रखती हूं। यदि कोई बहुत लम्बे समय से अनुपस्थित है तो मैं उनके घर जाकर इसके कारण का पता लगाती हूं। परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं। यदि इस प्रशिक्षण से उनके घर की व्यवस्था में थोड़ा-बहुत भी फेरबदल आने लगता है तो वे महिलाओं को भेजना बंद कर देते हैं। मुझ पर महिलाओं को भटकाने के आरोप भी लगे हैं। ऐसी परिस्थितियों में मेरा काम होता है कि मैं महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करूं और उन्हें अपनी पहचान बनाने के लिए कहूं, ताकि वे अपनी आवाज़ उठा सकें और परिवार के लोगों के साथ रहते हुए अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी कदम उठा सकें। मैंने उनसे कहा है कि मेरी कही गई बातों को घर पर बताने की बजाय उन्हें अपनी समझ बनाने की और समस्याओं से अपने तरीक़े से निपटने की ज़रूरत है।

कार्यक्रम में, हम हिंसा को लेकर समुदाय के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने का भी प्रयास करते हैं। यह एक आम समझ है कि हिंसा केवल एक ही प्रकार की होती है – शारीरिक। लेकिन महिलाओं को केवल शारीरिक हिंसा का ही सामना नहीं करना पड़ता है, बल्कि वे मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा का भी शिकार होती हैं। मैं उन्हें बताती हूं जब आप किसी को गाली देते हैं, कोई जातीय टिप्पणी करते हैं, छेड़ते हैं या बिना मर्ज़ी के किसी को छूते हैं तो इन सभी परिस्थितियों में आप हिंसा कर रहे होते हैं। 

जब मैं छोटी थी तो मैंने अपनी मां को इन सबसे गुजरते देखा था। मेरे पिता अक्सर उन्हें दूसरी शादी कर लेने की धमकी देते थे क्योंकि हम चार बहनें थीं और मेरे पिता को बेटा चाहिए था। मुझे अपनी मां की दुर्दशा तब समझ में आई जब मैंने भी पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का अनुभव किया।जब आप अपने जीवन में हिंसा का अनुभव कर चुके होते हैं तो उस स्थिति में आप चुपचाप बैठकर किसी और को पीड़ित होता नहीं देख सकते हैं। इसलिए अब मैं जहां भी हिंसा होता देखती हूं, चाहे मेरे घर में  या फ़िर आस-पड़ोस में, मैं उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाती हूं। उदाहरण के लिए, घर पर मैं उन महिलाओं के मामलों को तेज आवाज़ में पढ़ती हूं जिनके साथ मैं काम करती हूं ताकि मेरे परिवार के सदस्य भी सीख सकें। इससे न केवल उनके व्यवहार में बल्कि मेरे सास-ससुर के बर्ताव में भी बदलाव आया है।

खेत में खड़ी महिलाओं का एक समूह-नवविवाहित महिला पितृसत्ता
दोपहर के समय मैं आमतौर पर कोई निश्चित कार्यक्रम या योजना नहीं बनाती हूं, कभी-कभी मैं कौशल प्रशिक्षण के लिए क्षेत्र का दौरा करती हूं। | चित्र साभार: राज बाला वर्मा

शाम 6.30 बजे: पूरा दिन काम करने के बाद मैं घर वापस लौटती हूं। मेरे दोनों बच्चे मुझसे पहले घर पहुंचने की कोशिश करते हैं ताकि रात का खाना वे तैयार कर सकें। मेरी बेटी सब्ज़ी बनाती है और मैं चपाती। हम बर्तन धोने का काम अपनी-अपनी थकान और व्यस्तता के आधार पर आपस में बांट लेते हैं। हमारा शाम का अधिकांश समय इन्हीं कामों में चला जाता है। मेरी बेटी डॉक्टर बनना चाहती है लेकिन उसे इंजेक्शन से डर लगता है और इंजेक्शन लेने के समय वह चिल्लाना शुरू कर देती है। मेरा बेटा सीमा सुरक्षा बल में शामिल होना चाहता है क्योंकि उसे वर्दियों से प्यार है; मैं उसे लगातार कहती रहती हूं कि उसे इस बारे में एक बार फिर से सोचना चाहिए।

सारा काम ख़त्म होने के बाद मैं और मेरी बेटी साथ बैठकर टीवी पर ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ नाम का धारावाहिक देखते हैं। इसमें जीवन के सुख और दुख दोनों दिखाते हैं। हमें यह अपने जीवन जैसा लगता है और इस धारावाहिक को देखे बिना हमें अपना दिन अधूरा लगता है। मुझे पुराने गाने सुनना भी पसंद है, इससे मुझे अच्छा महसूस होता है। मैं कम्प्यूटर की पढ़ाई करने की कोशिश कर रही हूं और अपने इस कोर्स के लिए समय निकालना चाहती हूं। लेकिन दिन ख़त्म होते-होते मैं इतना थक चुकी होती हूं कि रात के 11-12 बज़े तक मुझे नींद आ जाती है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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लेखक के बारे में
राज बाला वर्मा-Image
राज बाला वर्मा

राज बाला वर्मा इब्तिदा के साथ जुड़कर फील्ड कोऑर्डिनेटर और प्रशिक्षक के रूप में काम करती हैं। उन्होंने जी डी कॉलेज, अलवर से बीए और विश्व भारती कॉलेज, जम्मू और कश्मीर से बीएड किया है। राजबाला ने बोध शिक्षा समिति में शिक्षिका के रूप में भी काम किया है।

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