पांच सौ साल पुराने गांववालों के वन अधिकारों में बाधा बनता गूगल

Location Iconउदयपुर जिला, राजस्थान

उदयपुर जिले के कोटड़ा ब्लॉक में स्थित गांव महाद लगभग 500 साल पुराना है। सन 1983 में इसे फुलवारी की नाल वन्य अभयारण्य में शामिल कर लिया गया था। तब से यह गांव अपनी मूलभूत सुविधाओं जैसे आजीविका, प्राथमिक विद्यालय, सड़क, पानी और बिजली के लिए जूझ रहा है।

साल 1983 में अभयारण्य घोषित किए जाने के फैसले की गंभीरता और असर का अंदाज़ा गांव वालों को तब हुआ, जब 2002 में वन विभाग ने उन्हें तेंदू पत्ता तोड़ने से मना कर दिया। कुछ लोग तेंदू पत्तों को व्यापारियों को बेच कर अपनी आजीविका चलाते थे। आखिरकार, साल 2006 में वन अधिकार अधिनियम (एफ़आरए) आने के बाद इलाके के लोगों में एक उम्मीद जगी कि अब उन्हें अपनी ज़मीन का पट्टा मिल सकेगा। लेकिन 2008 में कानून लागू होने के बाद से अब तक, यहां के 330 दावेदारों में बस 89 लोगों को ही ज़मीन का पट्टा मिला है। उनके लिए भी यह प्रक्रिया सहज नहीं रही है।

वन विभाग लोगों को यह अधिकार गूगल सैटेलाइट इमेज के आधार पर दे रहा है – मतलब दावे में लिखे ज़मीन के कोआर्डिनेट वन विभाग वाले गूगल अर्थ पर डालते हैं। उससे आई तस्वीरों का मुआइना करते हैं कि 2005 से पहले ज़मीन पर कोई बसा हुआ लग रहा है या नहीं, और उसके मुताबिक दावे को स्वीकार या अस्वीकार करते हैं। लेकिन कानून कहता है कि किसी भी तकनीक, जैसे सैटेलाइट इमेजरी, का उपयोग दावेदार द्वारा प्रस्तुत प्रमाण या सबूत के साथ केवल सहयोग के लिए किया जाना चाहिए। इसे इन अन्य सबूतों की जगह प्रमाण के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।

एफ़आरए का कानून 13 दिसम्बर, 2005 से पहले वन्य ज़मीन पर रहने वालों को अधिकतम लगभग 16 बीघा ( चार हेक्टेयर) ज़मीन पर हक देने की बात करता है जिससे उनकी आजीविका चल सके। आजीविका से मतलब यहां पर खेती-बाड़ी हो सके, या आदिवासी घास उगा सकें ताकि वे पशु-पालन कर सकें। लेकिन जब विभाग सैटेलाइट इमेज के आधार पर भूमि के इन टुकड़ों की रूपरेखा तैयार करता है और उन्हें हरियाली, जानवर और जुती हुई भूमि नहीं दिखते हैं। ऐसे में वे दावे को खारिज कर देते हैं। ऐसा होने से जहां गांव वालों ने 5-7 बीघा ज़मीन का पट्टा मांगा है, वहां उन्हें केवल डेढ़-दो बीघा ज़मीन ही मिल पाती है। गांववाले कहते हैं, ‘मान लीजिए मैंने दो बीघा जमीन पर खेती की और दो बीघा पशुओं के चारे के लिए छोड़ दी तो गूगल के अनुसार तो वह जमीन मेरी नहीं है क्योंकि वह जोती हुई नहीं दिख रही।’ वे आगे पूछते हैं कि ऐसे अधिकार पत्र से हमें क्या फ़ायदा? इस ज़मीन के सहारे हम अपना घर और आजीविका कैसे चलायें?

गांव के लोग बताते हैं कि ‘ये लड़ाई 15 वर्षों से जारी है, हमारी पीढ़ियां तो इसी जमीन में पनपीं, अब हमारे बच्चे यहां रह पाएंगे या नहीं ये ही चिंता खाए जाती है’। 

इस परिस्थिति को बदलने के लिए गांव वालों ने 2023 में धरना प्रदर्शन किया था। इसके बाद वन विभाग ने माना की मानवीय भूल के कारण गलती हो सकती है और उसमें सुधार करने की कोशिश की जाएगी।

सरफराज़ शेख़, राजस्थान और उत्तर गुजरात में सक्रिय संस्था कोटड़ा आदिवासी संस्थान से जुड़े हैं। धरमचन्द खैर आदिवासी विकास मंच में मुख्य संचालक संयोजक हैं।

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