सामाजिक और ऐतिहासिक रूप से यह देखा गया है कि ज्ञान तक पहुंच एक ख़ास सामाजिक-आर्थिक तबके में आने वाले लोगों तक ही रही है। जाति, लिंग, वर्ग, धर्म या अन्य तरह के भेदभाव के चलते वंचित समुदाय लंबे समय तक औपचारिक शिक्षा से दूर रहे हैं। लेकिन इनके पास पीढ़ियों का संचित और अनुभव से आया ज्ञान है जो हमेशा से इनके जीवन का आधार रहा है।
अत्त दीप एकेडमी ऑफ ग्रासरूट लीडरशिप (एजीएल) एक ऐसी पहल है जो ज़मीन पर काम करने वाले लोगों और समुदाय के भीतर छिपे परंपरागत ज्ञान को उभारने का प्रयास करती है। इस ज्ञान का इस्तेमाल कर लोग अपनी आजीविका से लेकर शैक्षणिक, सामाजिक और मानवीय विकास तक की संभावनाएं खोज सकते हैं। समाजसेवी संस्था कोरो द्वारा राजस्थान और महाराष्ट्र के 40 ज़मीनी संगठनों के साथ मिलकर शुरू की गई इस पहल में हम कुछ इस तरह के सवालों के जवाब टटोल रहे हैं – ज्ञान क्या है? ज्ञान की परिभाषा क्या है? ज्ञान विकसित करने का अधिकार किसके पास है? और, सबसे ज़रूरी कि क्या ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में लोगों के अनुभवों का कोई स्थान है? ऐसा करते हुए, इस आलेख में हम ज़मीनी ज्ञान निर्माण के आर्थिक और सामाजिक पहलुओं से जुड़े अपने अनुभव और समझ साझा करेंगे।
जमीनी ज्ञान (ग्रासरूट नॉलेज) क्या है?
अलग-अलग इलाक़ों में अलग-अलग तरह की लोक कलाएं, खेल गाने, कहावतें वग़ैरह हैं जो उनके पारंपरिक ज्ञान की झलक देते हैं। गांव में जीवन के जो नैसर्गिक स्रोत हैं, उनके हिसाब से लोग अपना जीवन रच लेते हैं। उदाहरण के लिए मौसम या बारिश का अनुमान एक ऐसी ही चीज है। कितना पानी बरसेगा, और उसमें किस तरह की खेती के लिए कौन सा तरीक़ा सटीक होगा, इसके लिए लोगों के अलग-अलग पैमाने हैं। कई बार जब आप खेतिहर महिलाओं के पास जाते हैं, तो देखते हैं कि उन्हें अपने ही ज्ञान का अनुमान नहीं होता है। उनके लिए वह सहज होता है। हम लोग बाहर से जाकर देखते हैं तो हमें लगता है कि हां यह अलग है, इसे हम ग्रासरूट नॉलेज कहते हैं। इस आलेख में हमने इसके लिए ज़मीनी ज्ञान शब्द का इस्तेमाल किया है।
एक उदाहरण के तौर पर, पूर्वी महाराष्ट्र के भंडारा और गोंडिया जिलों में धीवर (मछुआरा) समाज की बात कर सकते हैं। इस इलाक़े में तीन-चार सेंटीमीटर की मछली पाई जाती है जिसे क्षेत्रीय भाषा में कलवली बोलते हैं। ब्रीडिंग सीज़न में, उसके पेट के बीचों बीच एक नारंगी लाइन आ जाती है। इस लाइन को देखकर लोग कहते हैं कि अब कलवली ने श्रृंगार कर लिया है यानी यह धान बोने के लिए सही समय है और अगले पांच-छह दिनों में बरसात होगी।
यह ज्ञान सिर्फ़ मौसम तक सीमित नहीं है। लोगों का यह ज्ञान विभिन्न प्रजातियों के जीवन, स्वास्थ्य और उनके पूरे परिवेश से उसके संबंध तक जाता है।
जमीनी ज्ञान का संरक्षण क्यों किया जाना चाहिए?
जब हम संस्थागत तौर पर इस तरह के ज्ञान को संजोने की प्रक्रिया देखते हैं तो संस्था का नज़रिया भी बहुत अहम भूमिका निभाता है। हमारा अनुभव रहा है कि हम जब ख़ुद जानकार बनकर समस्या हल करने जाते हैं तो हल नहीं मिलता है। लेकिन अगर लोगों के ज्ञान को आधार बनाकर, हम समस्या को हल करने की कोशिश करते हैं तो बहुत मजबूत काम होता है।
1. ज़मीनी ज्ञान के जरिये विकासात्मक समाधान
ज़मीनी ज्ञान का संरक्षण अलग-अलग तरह के समाधान खोजने में मदद करता है। जैसे कि यह आजीविका के साधन तैयार करने में मददगार होता है। धीवर समुदाय के साथ काम करने के दौरान हमने समुदाय के साथ मिलकर तालाबों को ज़िंदा करने और मछली पालन का काम शुरू किया। दरअसल आजकल तालाबों में मछली उत्पादन कम होता जा रहा है और यह पूरे भारत में हो रहा है। प्रति हेक्टेयर मछली उत्पादन कम होने से मछुआरा समुदाय के सामने जीवन का संकट आ गया है। हमने अध्ययन किया तो पता चला कि तालाब मर रहे हैं। ज़मीन पर जाकर इसकी वजह टटोली और लोगों से पूछा कि इस समस्या का हल क्या हो सकता है? यहां पानी है और तालाब गहरे भी हैं फिर यहां मछली उत्पादन क्यों नहीं हो पा रहा है?
इन सवालों के जवाब समुदाय ने ही दिए कि सिर्फ़ पानी होने का मतलब तालाब ज़िंदा होना नहीं होता है। तालाब के ज़िंदा रहने के लिए कई तरह की वनस्पतियों और जीव-जंतुओं, मछलियों, पंछियों का होना ज़रूरी है।
हमने ऐसे तालाबों की जानकारी इकट्ठी करनी शुरू की। हमने विषय के जानकारों के साथ चर्चा कर समस्या और समाधान के बारे में जानकारी ली। इसके बाद हमें लगा कि सैद्धांतिक रूप से तो हम समुदाय को बता सकते थे कि तालाब ज़िंदा करने के लिए क्या चाहिए। लेकिन वास्तविक रूप से, ज़मीन पर यह काम करने के लिए हमें लोगों के साथ बैठना पड़ा। उनसे समझना पड़ा कि मिट्टी कैसी होनी चाहिए, कहां कौन सा पौधा उगता है, कितनी गहराई होनी चाहिए, वग़ैरह। आश्चर्य की बात बिल्कुल नहीं है कि इन लोगों के पास ये सारी जानकारी थी। सबने मिलकर योजना तैयार की और दो साल में तालाब को ज़िंदा कर दिया।
लोगों द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर हम मछलियों की स्वदेशी किस्मों जैसे शिंगुर, दादाक, सवादा और मोथारी को तालाब में दोबारा लाए। ये प्रजातियां सरकार की राज्य-प्रायोजित योजना के माध्यम से तालाबों को आबाद किए जाने वाली और तेजी से प्रजनन करने वाली कम पौष्टिक कतला और रोहू जैसी मछलियों की तुलना में अधिक कीमत की थीं। लेकिन इसने काम किया और जैसे-जैसे तालाब फले-फूले, पारंपरिक आजीविका भी फली-फूली। इसके बाद क़रीब तीस-चालीस गावों में भी यही तरीक़ा आज़माया गया।
आमतौर पर, वंचित समुदायों के लिए विकास योजनाएं बनाते हुए समाजसेवी संस्थाएं या सरकारों का रवैया सुधारक या आपूर्तिकर्ता वाला होता है। वे देखती हैं कि समुदायों की कमज़ोरियां क्या हैं, उनके पास किस चीज की कमी है। लेकिन ज़मीनी ज्ञान समुदाय की ताक़त है और इसीलिए इस ज्ञान को सहेजा जाना ज़रूरी हो जाता है।
2. सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य
हर समुदाय की परंपरा और भाषा उसकी पहचान होती है। जब कोई भाषा खत्म होती है, तो वह संस्कृति भी खत्म हो जाती है। अंग्रेजी एक अंतरराष्ट्रीय भाषा है, हिंदी पूरे देश में बोली जाती है, लेकिन गांव की भाषा गांव की सीमा पर ही समाप्त हो जाती है। स्थानीय बोलियां बाहर से जाने वाली संस्थाओं के संचार करने में बाधा बन सकती हैं। साथ ही, परंपरागत ज्ञान रखने वाले लोग भी, अपने से अलग भाषा बोलने वालों पर मुश्किल से भरोसा करते है। इसलिए उनसे उनकी भाषा में बात करना महत्वपूर्ण है। इसीलिए स्थानीय भाषाओं में पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण करके, हम इन संस्कृतियों, पहचानों और इतिहास को संरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं।
इतिहास और पौराणिक कथाएं न केवल किताबों और पत्थरों में संरक्षित हैं, बल्कि संस्कृति की विभिन्न अभिव्यक्तियों में भी संरक्षित हैं।
आराधी, महाराष्ट्र में देवी या देवी के लिए गाए जाने वाले पूजा गीतों की ऐसी ही एक संरक्षित शैली है। इन गीतों में हमारे मातृसत्तात्मक समाज का इतिहास शामिल है।
इस ज्ञान का संरक्षण करने के लिए हम गीतों के साथ-साथ संगीत वाद्ययंत्रों के सामाजिक इतिहास को भी एकत्रित और संरक्षित कर रहे हैं, जिनकी शिल्प संस्कृतियां लुप्त हो रही हैं। बिमानी या तबला कैसे बनता है? इसके लिए चमड़ा कहां से आता है? लकड़ी कहां से आती है? किस जानवर की खाल का उपयोग किया जाता है और वह जानवर कहां पाया जाता है? इन सभी सवालों के जवाबों का दस्तावेजीकरण आगे की पीढ़ियों के लिए काम आने वाला है।
3. गरिमा
जब लोग अपने पारंपरिक ज्ञान से आगे बढ़ने में सक्षम होते हैं तो उन्हें गरिमा की भावना महसूस होती है। यह विशेष रूप से उनके लिए सच है जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक शक्ति से वंचित रहे हैं। भले ही, उनके पास विशेष ज्ञान हो, लेकिन फिर भी ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदाय, उनके साथ होने वाले भेदभाव के चलते उचित सम्मान और अवसर नहीं हासिल कर पाए हैं।
अक्सर लोग रात में जत्रा (मेला) प्रदर्शन देखकर ताली बजाते हैं, लेकिन दिन में उसी गांव में, उसी कलाकार समुदाय के लिए नहाने और पीने का पानी जुटाना मुश्किल हो जाता है। हमारे कुछ लोक-कलाकारों एक अनुभव यह भी रहा कि एक बार उन्हें गांव वालों के साथ बैठाने की बजाय बाहर आंगन में अलग-अलग बर्तन में खाना परोसा गया था।
जब ऐसे समुदायों को उनके ज्ञान की शक्ति के बारे में बताया जाता है और इसे उनके काम में लागू करने के तरीके खोजे जाते हैं, तो उनमें आत्म-सम्मान की भावना होती है – और इससे न केवल वे लोग बल्कि पूरे समुदाय को फ़ायदा होता है।
गरिमा जिम्मेदारी की भावना और सांप्रदायिक चुनौतियों से लड़ने की हिम्मत में तब्दील हो जाती है। इसे बढ़ावा मिलेगा तो ये नया आत्मविश्वास और नेतृत्व – सामाजिक न्याय, आजीविका और पर्यावरण की बड़ी समस्याओं को हल करने के तरीके खोजेगा।
ज़मीनी और अकादमिक ज्ञान को जोड़ना क्यों ज़रूरी है?
अत्त दीप से जुड़ी हमारी शुरूआती बातचीत में ही हमने साफ़ समझ लिया था कि ज़मीनी ज्ञान और अकादमिक ज्ञान को हमें दो छोरों की तरह नहीं देखना चाहिए। यह जमीनी कार्यकर्ताओं पर निर्भर करता है कि वे ज्ञान धाराओं की पहचान करें और फिर समुदाय के साथ बातचीत के माध्यम से इसे औपचारिक रूप से विकसित करने का काम करें। ऐसा करने के चरण कुछ इस तरह हो सकते हैं:
- ज्ञान का पता लगाएं, ट्रैक करें और लेख, ऑडियो और वीडियो जैसे विभिन्न रूपों में उनका दस्तावेज़ीकरण करें।
- अपने विषय पर शोध करें और जमीनी स्तर के ज्ञान को एकीकृत करने के उद्देश्य से नीति निर्माताओं, और फाउंडेशनों और अकादमियों के साथ संवाद करें।
- जमीनी स्तर के ज्ञान को पाठ्यक्रम बनाकर प्रकाशनों, आयोजनों, सम्मेलनों, सेमिनारों आदि के ज़रिए प्रसारित करें।
हम सरकार, मीडिया, शिक्षा जगत, फंडिंग और नीति निर्धारण आदि से जुड़ रहे हैं, ताकि वे इस ज्ञान और अनुभव को समझें और इसे अपनी सामाजिक परिवर्तन प्रक्रियाओं में शामिल करें। पारंपरिक आर्द्रभूमि प्रबंधन, वन अधिकार आंदोलनों और जाति-विरोधी गीतों के पाठों को गांव से बाहर ले जाने में सक्षम बनाने के लिए, उन्हें संस्थागत बनाया जाना चाहिए, और संरचित किया जाना चाहिए।
जाति-विरोधी गीतों के पाठों को गांव से बाहर ले जाने में सक्षम बनाने के लिए, उन्हें संस्थागत बनाया जाना चाहिए।
इसका एक उदाहरण नवयान महाजलसा एकैडमी का काम है जो शाहिरी (काव्य लेखन) और लोककला पर कोर्सेज बना रही है। ये जितनी भी लोककलाएं हैं, उनकी शुरूआत, इतिहास, इसमें योगदान करने वाले लोगों के नाम, कितने समय से यह चल रहा है, इसके कितने प्रकार होते हैं जैसी तमाम बातें उस सिलेबस में रहेंगी। यहां तक कि वाद्ययंत्रों से जुड़े एक शोध में लुप्त होते जा रहे वाद्यों के बनने के कहानी, उनकी प्रक्रिया और उनका तात्कालिक समाजिक महत्वों को भी यह एकैडमी दर्ज कर रही है। इस तरह की जानकारी को जब विश्वविद्यालयों और उनमें पढ़ने वालों तक पहुंचाया जा सकेगा, तब बात बन सकेगी। इस तरह के जुड़ाव ही, दोनों सिरों को साथ लाना ही एक माध्यम हो सकता है। ज़मीनी ज्ञान के प्रति जो नकारात्मकता और अस्वीकार है, उससे पार पाने का रास्ता इसी में खोजना पड़ेगा।
जमीनी स्तर के लोग खुद को ज्ञान धारक और ज्ञान निर्माता के रूप में नहीं सोचते हैं। लोकप्रिय धारणा यह है कि हम पढ़ते नहीं हैं, हम लिखते नहीं हैं, इसलिए हम जानकार नहीं हैं। समाज ने ही इस धारणा को पुष्ट किया है। हमें इस ग़लतफ़हमी को दूर करना होगा और लोगों को अपने बारे में अलग तरह से सोचने में सहयोग देना होगा।
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