August 18, 2022

तकनीक को लेकर सामाजिक क्षेत्र की सोच कैसे ग़लत है

सोशल सेक्टर में तकनीक का बेहतर ढंग से उपयोग करने के लिए दानदाताओं, स्वयंसेवी संस्थाओं और मध्यस्थ संगठनों को क्या करने की ज़रूरत है।
7 मिनट लंबा लेख

आज तकनीक सामाजिक क्षेत्र से जुड़े हर तरह के कामकाज का हिस्सा बन गई है—तमाम प्रक्रियाओं को लागू करने और उनकी गुणवत्ता तय करने, डेटा इकट्ठा करने से लेकर निगरानी, मूल्यांकन और संगठन को आगे बढ़ाने तक में यह मददगार है। कोरोना महामारी के दौरान यह तब साफ़तौर पर दिखाई दिया जब सभी संगठनों ने अपने समुदायों के संपर्क में रहने और कार्यक्रमों को उन तक पहुंचाने के लिए व्हाट्सएप औऱ ज़ूम जैसे साधनों का रुख किया। इसके बाद भी सोशल सेक्टर में तकनीक को एक अतिरिक्त साधन की तरह देखा जाता है। कार्यक्रमों का बजट बनाते हुए, स्वयंसेवी संस्थाओं (और दानदाताओं) को अपनी मानसिकता बदलने और तकनीक को इंफ़्रास्ट्रक्चर (मूलढांचे) की तरह देखने की ज़रूरत है। ऐसा ना करने पर संस्थाओं को नुक़सान होता है क्योंकि तकनीक का खर्च उन्हें यूं भी वहन करना ही पड़ता है। ऐसे में इसका समुचित उपयोग न कर पाना समझदारी नहीं है।

हम तकनीक को ठीक से नहीं समझते हैं

1. तकनीक सुविधा है, समाधान नहीं

टेक4डेव में अपने काम के दौरान हमने देखा कि जब तकनीक का इस्तेमाल करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं की बात आती है तो हमें कुछ गलतफहमियों या धारणाओं का सामना करना पड़ता है। सोशल सेक्टर में इससे जुड़ी पहली धारणा यह है कि तकनीक समाधान है। दरअसल तकनीक एक सुविधा है—यह एक प्रभावी, कुशल समाधान को संभव बनाती है। यह खुद किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती है। उदाहरण: मोबाइल डेटा कलेक्शन के लिए तकनीक का इस्तेमाल करना बढ़िया बात है। लेकिन प्रभावी तरीक़े से तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए संगठन के पास ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था होनी चाहिए जो सुनिश्चित करें कि कौन सा डेटा इकट्ठा करना है, किससे करना है। साथ ही इन प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं में प्रशिक्षित फ़ील्ड कर्मचारियों की भी ज़रूरत होती है जिन्हें डेटा संग्रहण और इससे जुड़ी समस्याओं के बारे में भी जानकारी हो। इस स्थिति में तकनीक की मदद से उच्च-गुणवत्ता वाला डेटा इकट्ठा किया जा सकता है लेकिन इसे कैसे करना है यह केवल संस्था को पता होता है।

2. संगठन के छोटे या बड़े होने से फर्क नहीं पड़ता है

एक दूसरी धारणा यह है कि तकनीक आधारित समाधान के क्रियान्वयन से पहले संगठन का एक विशेष आकार तक पहुंचना आवश्यक होता है। दूसरे शब्दों में तकनीक ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले छोटे संगठनों के लिए नहीं होता है। इस बारे में सोचने का बेहतर तरीक़ा यह है कि आप स्वयं से पूछें कि: क्या अभी मेरे पास इस समस्या का समाधान है, और क्या उस समाधान के क्रियान्वयन का कोई व्यवस्थित तरीक़ा अभी उपलब्ध है? यदि आपका जवाब हां है तो इस बात का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता है कि संगठन कितना बड़ा है। उदाहरण के लिए, हमने छोटे संगठनों को बहुत ही प्रभावी तरीक़े से गूगलशीट का इस्तेमाल करते देखा है। आप छोटे स्तर पर सस्ती तकनीक का इस्तेमाल कर सकते हैं, और आप बड़े स्तर पर भी सस्ती तकनीक का प्रयोग कर सकते हैं। हमने बड़े और छोटे दोनों ही स्तर के संगठनों में ख़राब तकनीक का इस्तेमाल भी देखा है। इसलिए इतना तो तय है कि तकनीक के इस्तेमाल का संबंध संगठन के आकार से नहीं बल्कि व्यवस्थात्मक दृष्टिकोण से होता है। तकनीक चीजों को आसान और कुशल तो बनाती है लेकिन यह उसकी जटिलता को बढ़ा भी देती है। इसका इस्तेमाल करने के लिए कर्मचारियों को कई नई बातें जानने और सीखने की ज़रूरत पड़ती है।

संख्याओं के साथ लेबल की गई कुकीज़ जो '1+2=4' की जोड़ की गलती को दर्शाता है-तकनीक स्वयंसेवी संगठन
हमें तकनीक के लिए एक ऐसा ज्ञानाधार बनाने की ज़रूरत है जिसे हर कोई स्वयंसेवी संस्था, दानकर्ता और सॉफ़्टवेयर पार्ट्नर सीख सके। | चित्र साभार: पिक्साबे

हम एक स्वयंसेवी संगठन के साथ काम कर रहे थे—चलिए इसका नाम टीम हेल्थ रख लेते हैं—इनके पास बहुत बड़ी संख्या में फ़ील्ड कर्मचारी थे जिनसे यह संगठन व्हाट्सएप, ईमेल और फ़ोन कॉल जैसे विभिन्न माध्यमों से डेटा प्राप्त कर रहा था। इसमें से एक भी डेटा मानक या व्यवस्थित नहीं था और न ही इसमें कोई भी डेटा रिकॉर्डेड था। टीम हेल्थ इसे बदलना चाहती थी। वे एक ऐसा ऐप चाहते थे जिसमें उनके सभी फ़ील्डकर्मचारियों को पता हो कि तकनीक की आवश्यकतानुसार जानकारी को सटीक तरीके से कैसे दर्ज करना है। इससे उन्हें अपनी ज़रूरत के अनुसार मानक डेटा प्राप्त हो जाएगा। लेकिन उस समय उनकी प्रक्रिया मानकीकृत नहीं थी और उनके फ़ील्डवर्कर को एक ख़ास तरीक़े से ही डेटा जमा करने की आदत थी, इसलिए इस ऐप से उनकी समस्या का समाधान नहीं होता। अगर उन्होंने ये तरीक़ा अपना लिया होता तो शायद उनके लिए स्थितियां और बुरी हो सकती थीं।

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3. दानदाताओं सेफंड टेकयानी तकनीक के लिए सहयोग मांगना

संगठनों के बीच तीसरी सबसे बड़ी धारणा यह है कि दानदाता तकनीक के लिए पैसे देने में संकोच करते हैं। दानदाताओं से ‘तकनीक के लिए फंड’ की मांग करने के बजाय स्वयंसेवी संस्थाओं को यह बताना चाहिए कि संगठन के संचालन के लिए तकनीक क्यों महत्वपूर्ण है। उन्हें इस बिंदु को अपने प्रस्तावों में इसी रूप में अवश्य शामिल करना चाहिए। इसे संभव बनाने के लिए हमें दानदाताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं, दोनों को ही इसके बारे में समझाने की ज़रूरत है।

चलिए, अब टीम सैनिटेशन नाम के एक संगठन का उदाहरण लेते हैं जो भारत में शहरी गरीब लोगों के लिए सामुदायिक शौचालय उपलब्ध करवाने का काम करता है। अपने दिन प्रति दिन के कामकाज के लिए यह संगठन डेटा संग्रहण और भौगोलिक सूचना व्यवस्था (जीआईएस) के लिए ठीक-ठाक मात्रा में तकनीक का इस्तेमाल करती है। इसलिए टीम सैनिटेशन ने अपने फ़ंडिंग प्रस्तावों में इन तकनीकों से जुड़े ख़र्चों (उदाहरण के लिए लाईसेंसिंग और संचालन लागत) को अनिवार्य प्रोजेक्ट खर्च के रूप में शामिल करना शुरू कर दिया। ऐसा करने पर उन्हें अपने दानदाताओं से किसी तरह के प्रतिरोध का भी सामना नहीं करना पड़ा। यदि एक संगठन अपने कार्यक्रमों के अनुरूप ही तकनीक की आवश्यकता का प्रदर्शन करता है तो ज़्यादातर दानदाताओं को ऐसे मुख्य ख़र्चों के लिए सहायता देने में समस्या नहीं होगी।

4. यह मानना कि आपकी समस्या किसी और की समस्या नहीं है

कई संगठन चौथी सबसे आम गलती, यह सोचने की करते हैं कि उन्हें कस्टम टेक सॉल्यूशन यानी उनके लिए ख़ासतौर पर तैयार किए गए तकनीक समाधानों पर एकदम शून्य से काम करने की ज़रूरत है। इसके बारे में सोचने से पहले स्वयंसेवी संस्थाओं को उनकी समस्याओं और ज़रूरतों को परिभाषित करने की ज़रूरत होती है। उनकी प्रमुख समस्याएं क्या हैं, वे महत्वपूर्ण क्यों हैं, और वे जिस काम को करने की कोशिश कर रहे हैं तकनीक उसे कैसे प्रभावित करती है। यह जानकारी उन्हें यह समझने में सहायक होगी कि तकनीक किन परिस्थितियों में उनकी मदद कर सकती है और किन परिस्थितियों में नहीं। यदि तकनीक ही असली समाधान है तो वास्तव में बहुत कम स्वयंसेवी संस्थाओं के पास ऐसी अलग औऱ मुश्किल समस्याएं होंगी जिन्हें हल किए जाने की ज़रूरत है। संदर्भ, समुदाय और संसाधन भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मूल रूप से जिस समस्या का हल एक स्वयंसेवी संगठन ढूंढने का प्रयास कर रहा है, संभव है कि उसका समाधान किसी अन्य व्यक्ति द्वारा ढूंढ़ा जा चुका होगा।

तकनीकी समाधानों के लिए शून्य से शुरूआत करने की बजाय मौजूदा समाधानों और उपकरणों को खोजना बेहतर है।

उदाहरण के लिए, एक ऐसे संगठन को लेते हैं जो प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए काम करता है। संगठन को पता चलता है कि इतने बड़े पैमाने पर, शिक्षकों को व्यक्ति रुप से प्रशिक्षित करना बहुत महंगा है। निश्चित रूप से ऐसे और संगठन भी होंगे जिन्हें लागत और बड़े पैमाने पर काम करने से जुड़ी इन चुनौतियों का सामना करना पड़ा होगा और उन्होंने इसके समाधान के लिए प्रयास किए होंगे। लेकिन इसके बाद भी नॉन-प्रॉफिट सेक्टर में कस्टम टेक प्लेटफ़ॉर्म बनाने का एक चलन है। दानदाता और स्वयंसेवी संस्थाओं दोनों को ही इसका खर्च उठाना पड़ता है और फिर कोई समाधान मिल पाता है। कुछ मामलों में असफल होने पर निवेश रद्द कर दिया जाता है और कुछ में इतनी प्रगति नहीं हुई होती कि जिसे दिखाया जा सके। कस्टम तकनीक न केवल संसाधनों, समय और प्रयास की बर्बादी है बल्कि इसे बड़े पैमाने पर कर पाना भी मुश्किल होता है। इस कारण से, शुरू से समाधान खोजने में संसाधनों के निवेश की बजाय पहले से मौजूद ऐसे समाधानों और उपकरणों को खोजना बेहतर है जिन्हें अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ बदला जा सकता हो। हमने विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं में मोबाइल डेटा संग्रह प्लेटफ़ॉर्म, केस मैनेजमेंट सिस्टम और ग्राहक संबंध प्रबंधन (सीआरएम) सिस्टम के कई कस्टम बिल्ड देखे हैं, जिनमें से अधिकांश वर्तमान समय में मौजूद ओपन-सोर्स और व्यावसायिक रूप से उपलब्ध समाधानों की तुलना में कमतर और अपर्याप्त थे। ‘रिसर्च बिफोर बिल्ड’ एक ऐसा मंत्र है जिसका हम टेक4डेव में निष्ठापूर्वक पालन करते हैं।

हमें सहयोग और ज्ञान साझा करने वाली एक ऐसी संस्कृति बनाने की जरूरत है जहां सभी को लाभ हो

कई स्वयंसेवी संस्थाएं जिन समस्याओं को हल करने की कोशिश कर रही हैं अगर उनके समाधान पहले से ही मौजूद हैं तो सवाल यह उठता है कि ऐसी जानकारी तक पहुंचने के रास्ते में कौन सी बाधाएं हैं?

अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाओं के पास ऐसा तकनीकी ज्ञान या विशेषज्ञता नहीं है जो यह समझने में सहायक हो कि उनकी किसी ख़ास समस्या के लिए कौन से उपकरण उपयोगी हो सकते हैं। समस्या और संभावित उपयोगी तकनीकों के बीच के बिंदुओं को जोड़ने की ज़िम्मेदारी आमतौर पर सॉफ़्टवेयर पार्टनर की होती है। हालांकि सॉफ़्टवेयर पार्टनरों के पास अक्सर सोशल सेक्टर में सीमित अनुभव होता है इसलिए संगठन की समस्या के प्रति उनका दृष्टिकोण केवल स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए एक समाधान भर तैयार करना होता है। यह आदर्श स्थिति से बहुत अलग है। हमें न केवल ऐसे सॉफ़्टवेयर पार्टनर की ज़रूरत है जो सोशल सेक्टर और स्वयंसेवी संस्थाओं के उद्देश्यों दोनों से वाक़िफ़ हो बल्कि हमें ऐसे स्वयंसेवी संगठनों की भी ज़रूरत है जो तकनीक की अपनी समझ को मज़बूत बनाएं।

इस क्रम में, हमें तकनीक के लिए एक ऐसा ज्ञानाधार बनाने की ज़रूरत है जिससे हर कोई सीख सके—स्वयंसेवी संस्था, दानकर्ता और सॉफ़्टवेयर पार्टनर। इस तरह का खुला इकोसिस्टम फ़ंडर को यह महसूस करने में भी मदद करेगा कि वे किन बिंदुओं पर एक ही समाधान के लिए कई संगठनों में निवेश कर रहे हैं और इससे संगठनों को भी एक दूसरे के काम से सीखने में मदद मिलेगी।

हमें काम के ओपन-सोर्स प्रकाशन को प्राथमिकता देनी होगी

तकनीक के समाधान स्वयंसेवी संगठनों के लिए सुलभ हों, ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए पहला कदम मौजूदा ज्ञान को सभी संबंधित हितधारकों के साथ बांटना है। स्वयंसेवी संगठनों को अपने कार्यक्रम, चुनौतियों, समाधानों और अनुभवों को आम जनता के साथ साझा करना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई स्वयंसेवी संगठन अपने एक प्रोजेक्ट में 300 घंटे काम करता है तो उसे कम से कम 10 घंटे का समय ओपन-सोर्स सामग्री तैयार करने में लगाना चाहिए। इससे लोगों को उनके द्वारा किए जा रहे काम को समझने में मदद मिल सकेगी।

संगठनों को अपने ‘ट्रेड सीक्रेट’ को दूसरों के साथ साझा करने के डर से आगे बढ़ना चाहिए।

सोशल सेक्टर में काम कर रहे संगठनों के लिए ओपन-सोर्स सामग्रियों के जरिए जागरूकता फैलाना जरूरी है ताकि वे एक-दूसरे की मदद कर सकें और एक-दूसरे से सीख सकें। लेकिन यह तुरंत नहीं हो सकता है। जैसे-जैसे और अधिक संगठन तकनीकी विशेषज्ञता साझा करने लगेंगे वैसे-वैसे सोशल सेक्टर का अपना व्यापक इकोसिस्टम तेज़ी से बनने लगेगा। संगठनों को अपने ‘ट्रेड सीक्रेट’ को दूसरों के साथ साझा करने के डर से आगे बढ़ना चाहिए और इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि इसमें निवेश से उन्हें भविष्य में लम्बे समय में लाभ होगा।

दान दाताओं और मध्यस्थ संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है

आईडीइन्सायट जैसे संगठनों ने अपने काम को समय-समय पर प्रकाशित कर बहुत ही शानदार काम किया है। यह उनके ब्लॉग और लिंक्डइन पेज पर देखा जा सकता है। इस जानकारी को साझा करने से इकोसिस्टम के विविध खिलाड़ियों को मदद मिलती है जिससे एक मज़बूत इकोसिस्टम तैयार होता है। दानदाता इन संगठनों को अपने काम को प्रकाशित करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान को जल्द से जल्द प्रसारित करने में मदद करना है। हमें तब तक इंतजार नहीं करना चाहिए जब तक कि सही और अच्छी तरह से तैयार की गई रिपोर्ट न बन जाए। काम की प्रगति के साथ ही उसे प्रकाशित करना उन परियोजनाओं का एक और मंत्र है जिन्हें हम टेक4डेव में चलाते हैं।

वर्तमान में भारत में एक इकोसिस्टम बनाने की जिम्मेदारी स्वयंसेवी संस्थाओं की तुलना में दानदाताओं और मध्यस्थ संगठनों पर अधिक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि स्वयंसेवी संस्थाओं के पास संसाधनों की कमी है और वे अपने अधिकांश प्रयासों को अपने कार्यक्रमों के प्रति ही समर्पित रखते हैं। इसके अलावा, उनके पास उस तरह का प्रभाव और दबदबा नहीं है जो दानदाताओं के पास है, और सम्भव है कि उनमें इस काम के लिए पर्याप्त कौशल की भी कमी हो।

पहला कदम जो दानदाता उठा सकते हैं, वह पारंपरिक अनुबंधों से दूर जाना है जो सामग्रियों और बौद्धिक संपदाओं (आईपी) के वितरण पर रोक लगाते हैं और सार्वजनिक डोमेन में आईपी साझा करने की दिशा में बढ़ना है। इसके अलावा, यह देखते हुए कि दानदाता आमतौर पर एक विशिष्ट क्षेत्र के भीतर कई संगठनों के साथ काम करते हैं, वे यहां एक बड़ी तस्वीर तैयार कर सकते हैं। वे स्वयंसेवी संस्थाओं को सॉफ़्टवेयर पार्टनर चुनने में भी मदद कर सकते हैं। यहां उन्हें फ़ंडर-नॉनप्रॉफिट वाली पावर डायनामिक की विषमताओं के प्रति संवेदनशील रहना होगा और एक निर्देश देने वाली भूमिका से निकलकर सहयोगी की भूमिका में आना होगा। सोशल सेक्टर के भीतर ही तकनीकी इकोसिस्टम को मज़बूत बनाने के लिए फ़ंडर बहुत कुछ कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश बहुत कम दानदाता और संगठन इस इकोसिस्टम पर ध्यान देते हैं। हमें इकोसिस्टम और प्लेटफार्मों को बहुत तेज़ी से बनाने और उन्हें बनाए रखने के लिए पर्याप्त सहायता प्रदान करने की दिशा में अधिक प्रयास करने की ज़रूरत है। सोशल सेक्टर को इसकी ज़रूरत है ताकि संगठन अपने द्वारा किए जाने वाले कामों में तकनीक को बेहतर और अधिक सुनियोजित तरीके से शामिल कर सकें।

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लेखक के बारे में
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डॉनल्ड लोबो

लोबो चिंटू गुड़िया फ़ाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक हैं। यह अमेरिका के सैन फ़्रैन्सिस्को में स्थित एक निजी पारिवारिक फ़ाउंडेशन है। यह फ़ाउंडेशन अमरीका-स्थित स्वयंसेवी संस्थाओं और संगठनों को समाज की बेहतरी के लिए ओपन-सोर्स सॉफ़्टवेयर विकसित करने में आर्थिक सहायता देता है। वर्तमान में यह संगठन भारत में स्थित स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम करने पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है। डॉनल्ड CiviCRM के सह-संस्थापक और लीड डेवलपर भी हैं।

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संजीव धरप

संजीव धरप एक उद्यमी और स्टार्ट-अप सलाहकार हैं, और उन्होंने सिलिकॉन वैली में 25 से अधिक वर्षों तक काम किया है। उन्होंने भारत के पुणे यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइयन्स में एमटेक और पेन स्टेट यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइयन्स में पीएचडी की है। वह 2019 की शुरुआत से टेक4डेव से जुड़े हुए हैं।

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