November 23, 2022

ग्रामीण महिला किसानों को सशक्त बनाने वाला एक मॉडल जो उन्हीं से मज़बूत बनता है

कभी आपदाओं से निपटने के लिए बनाया गया यह स्वयं सहायता समूह आज ग्रामीण महिला किसानों को खाद्य सुरक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता से लेकर सार्वजनिक नेतृत्व तक के सबक़ सिखा रहा है।
8 मिनट लंबा लेख

1993 के लातूर भूकम्प के बाद एक पायलट परियोजना के तहत एक हजार से अधिक महिलाओं ने पुनर्वास कार्यों के लिए सरकार और अपने समुदायों के बीच सुविधाएं उपलब्ध करवाने वाले के रूप में अपनी भूमिका निभाई थी। इसके लगभग 30 साल बाद, सामुदायिक उद्देश्यों के लिए महिलाओं को संगठित करने वाले इस मॉडल ने भूकंप, सूनामी, चक्रवात, सूखा और हाल ही में महामारी के दौरान खुद को साबित किया है।

लातूर, मराठवाड़ा में पायलट प्रोजेक्ट के तहत विकसित संस्था, स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) का औपचारिक पंजीकरण 1998 में हुआ। इसकी संस्थापक और सामाजिक कार्यकर्ता स्वर्गीय प्रेमा गोपालन का मानना था कि त्रासदी महिलाओं को उनके समुदायों में नेतृत्व भूमिकाओं में आने का मौक़ा देती है। आज स्वयं शिक्षण प्रयोग ज़मीन पर बदलाव के एजेंट के रूप में काम कर रही 5,000 महिलाओं की सेना बन चुका है। सखी के नाम से जानी जाने वाली इन महिलाओं ने 3,00,000 महिलाओं को उद्यमी, किसान और समुदाय के नेता के तौर पर स्थापित करने का काम किया है।

जलवायु संकट के ख़िलाफ़ लड़ी जा रही लड़ाई में स्वयं शिक्षण प्रयोग की सखियां, एक बार फिर, ग्रामीण भारत में सबसे आगे की कतार में खड़ी दिख रही हैं। महाराष्ट्र का मराठवाड़ा जो किसानों की आत्महत्या के लिए कुख्यात है – जहां ऐसा कृषि संकट केवल इसलिए आया है क्योंकि इस सूखा प्रभावित इलाक़े में उपलब्ध संसाधनों के अत्यधिक दोहन से उपजाई जाने वाली नक़दी फसलों की खेती को प्राथमिकता दी गई। लगातार कई सालों तक होने वाली अनियमित बारिश और बाज़ार की मार ने भी इस पर अपना असर डाला है। इसके कारण अनगिनत किसान परिवारों को लगातार कई वर्षों तक बुरी पैदावार का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा। नतीजतन, इस इलाक़े के किसान कर्ज के बोझ तले दबने लगे और संकट प्रवास और भुखमरी के शिकार हो गए। इन्हीं इलाक़ों में एसएसपी की सखियों ने छोटे और पिछड़े महिला किसानों के बीच खेती के एक एकड़ मॉडल को बढ़ावा दिया। जलवायु-अनुकूलन को केंद्र में रखने वाला यह मॉडल ज़मीन के सिर्फ एक-एक एकड़ के टुकड़े में विभिन्न फसलों को पैदा करने के लिए जैविक अपशिष्टों और खाद का प्रयोग करता है। 

इस इलाक़े में एक एकड़ खेती करने वाली छोटी और सीमांत महिला किसानों की फसल उपज में 25 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गई है। गौरतलब है कि सूखे के सालों में, और महामारी के दौरान भी, ये महिला किसान अपने छोटे लेकिन उत्पादक जमीन के टुक्ड़ों से अपने परिवारों का भरण-पोषण करने में सक्षम रहीं थीं।

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एसएसपी के दृष्टिकोण में ऐसा क्या है जो इसे प्रभावशाली बनाता है?

महिलाओं द्वारा, महिलाओं के लिए

स्वयं शिक्षण प्रयोग की सखियों ने अपने समुदायों की विभिन्न ज़रूरतों को पूरा किया है। अपने काम के जरिए उन्होंने खुद अपनी क्षमताएं भी विकसित की हैं। संस्था का मुख्य लक्ष्य हाशिए पर रह रही ग्रामीण महिलाओं को मुख्यधारा में लाना और उन्हें सार्वजनिक भूमिकाओं में शामिल कर सशक्त बनाना है।

एसएसपी की एसोसिएट डायरेक्टर नसीम शेख़ लातूर की इस पायलट परियोजना से इसकी शुरुआत से ही जुड़ी हैं। नसीम कहती हैं कि “मैंने महिलाओं को मराठवाड़ा, तमिलनाडु, ओडिशा, श्रीलंका और तुर्की में आपदा पुनर्वास के दौरान काम करते देखा है। इन तमाम जगहों पर वे जिम्मेदारियां मिलने का इंतज़ार नहीं करतीं थीं। बल्कि खुद ही पहल कर अपने बच्चों, बुजुर्गों, परिवारों, समुदायों और पशुओं की जिम्मेदारियां उठाती थीं।”

खेती-किसानी की दुनिया में महिलाएं पुरुषों के कमाई के लिए कहीं और चले जाने या दूसरे पेशे से जुड़ जाने पर कामकाज का जिम्मा सम्भालती हैं। लेकिन उनकी भूमिकाओं को अक्सर मजदूरी तक ही सीमित कर दिया जाता है। उन्हें खेत के मालिक या किसानों के रूप में नहीं देखा जाता है। उपजाए जाने वाले फसलों के चयन, उनकी मात्रा, बिक्री और घर में उसके उपयोग से जुड़े फ़ैसलों में उनकी भूमिका आमतौर पर नहीं होती है।

एक ऐसा देश जहां महिलाओं को दो प्रतिशत से भी कम ज़मीन खेती के लिए मिलती है, वहां एक एकड़ मॉडल कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।

एसएसपी ने इसे बदलने का फ़ैसला किया। पिछले एक दशक में इन्होंने लगभग 75,000 महिला किसानों की मदद की और उनके परिवारों से उन्हें एक एकड़ ज़मीन का मालिकाना हक़ दिलवाया। महिला किसानों ने इस एक एकड़ ज़मीन में बाजरा, दाल और पत्तेदार सब्ज़ियां जैसी भोजन में पोषण बढ़ाने वाली फसलों को उगाना शुरू किया। ऐसा करना सम्भव ना होने पर कुछ महिलाओं ने बड़ी जोत की किसानों से किराए पर ज़मीन का एक टुकड़ा लेकर खेती की। एक ऐसा देश जहां महिलाओं को दो प्रतिशत से भी कम ज़मीन खेती के लिए मिलती है, वहां एक एकड़ मॉडल कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। महिलाओं ने यह दिखा दिया कि ज़मीन का यह छोटा सा टुकड़ा उस समय भी उनके परिवारों का भरण-पोषण कर सकता था, जब बड़ी जोत वाले किसानों की स्थिति अच्छी नहीं थी। इससे इलाके में महिला किसानों का प्रभाव बढ़ा।

स्वयं शिक्षण प्रयोग जिन ग्रामीण इलाक़ों में काम करता है, वहां सामाजिक प्रथाओं के कारण लड़कियों को या तो पढ़ाई छोड़नी पड़ती है या कम उम्र में ही उनकी शादी हो जाती है। नसीम का मानना है कि इनमें से कई लड़कियां एसएसपी द्वारा अपनी पहचान बनाने के मौके का फायदा उठाना चाहती हैं। एसएसपी का जन्म उस समय हुआ जब लातूर में पुनर्वास पर काम करने वाली महिला संवाद सहायकों (कम्यूनिटी रिसोर्सेज़ पर्सन) ने प्रेमा से कहा कि अब वे वापस ‘घर पर बैठने’ नहीं जाएंगी।

हिंदुस्तान यूनीलीवर फ़ाउंडेशन की पोर्टफ़ोलियो और पार्ट्नरशिप प्रमुख अनंतिका सिंह कहती हैं कि “हम कई संगठनों के साथ काम करते हैं। लेकिन ज़मीनी स्तर पर सखियों का असर बहुत गहरा है। कुछ संगठनों में महिलाएं लाभार्थी हैं लेकिन भागीदार नहीं। अन्य संगठनों में महिलाएं आगे बढ़ती हैं और हिस्सा लेती हैं। फिर बारी आती है एसएसपी की। एसएसपी में महिलाएं ही लीडर हैं। यहां उन्होंने उपस्थिति से भागीदारी और भागीदारी से नेतृत्व तक का सफ़र तय किया है।”

खेत में महिलाओं का एक समूह_महिला किसान
एसएसपी की सखियां अपने समुदायों की विविध ज़रूरतों को पूरा करती हैं। | चित्र साभार: एसएसपी

बाहर निकलना और आगे बढ़ना

प्रेमा का मानना था कि महिलाओं को प्रशिक्षण से अधिक मौकों की ज़रूरत है। नसीम का कहना है कि “हम सखियों को शिक्षित करने के लिए टेक्नोक्रेटिक टॉप-डाउन नजरिए या कक्षाओं का इस्तेमाल नहीं करते हैं। हमारा भरोसा अनौपचारिक तरीक़े से महिलाओं के साथ मिलकर सीखने (पीयर लर्निंग) में है।”

लेकिन यह कोई जादू की छड़ी नहीं है। सखियों को उनका काम करने में सक्षम बनाने के लिए उन्हें सरकारी अधिकारियों, ग्राम पंचायतों और बड़ी जोत वाले किसानों से सम्पर्क करना सिखाना होता है। इन सार्वजनिक भूमिकाओं को निभाने के लिए जरूरी कौशल और आत्मविश्वास हासिल करने में अक्सर दो साल का समय लग जाता है।

इतने सालों के अनुभव से एसएसपी ने अपनी सखियों के लिए एक प्रशिक्षण मॉडल को तैयार किया है। लेकिन नसीम के अनुसार महिलाओं का घर से बाहर निकलना और बाहरी ज्ञान हासिल करना सबसे अहम है। “सबसे पहले, हम सखियों को उनका जीवन सुरक्षित करने में मदद करते हैं। फिर उन्हें उनके समुदाय के अंदर भूमिकाएं दी जाती हैं। धीरे-धीरे वे दूसरे गांवों का दौरा करती हैं और नए समूहों के साथ बातचीत करती हैं। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। समय के साथ, वे ब्लॉक स्तर पर सरकारी अधिकारियों से मिलने जाती हैं।” एसएसपी के एक ट्रेनर काका अडसुले का कहना है कि महिलाओं के लिए आवश्यक सॉफ्ट स्किल हासिल करने के लिए एक रोल मॉडल का होना बहुत जरूरी है।  

संगठन पहले प्रत्येक सखी को उसकी वित्तीय और सामाजिक चुनौतियों का समाधान करने में मदद करता है। इससे एक ऐसी व्यवस्था बनती है जिसमें महिलाओं को इसे आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाता है।

सीखने के लिए प्रयोग

संगठन का नाम – स्वयं शिक्षण प्रयोग – जिसका शाब्दिक अर्थ है खुद को सिखाना और प्रयोग करना, और यह संगठन के हर काम में देखने को मिलता है। एसएसपी सखियों को उनके खेतों और व्यवसायों को प्रयोगशालाओं की तरह इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित करता है। जहां वे नई-नई तरह से अनगिनत प्रयोग करती हैं और फिर उन्हें अपने गांव वालों के साथ साझा करती हैं।

महिला किसानों ने उर्वरक के रूप में अजोल जैसी चीजों के उपयोग वाले पारंपरिक तरीकों को वापस लाने का काम किया है।

एक ओर, सरकार के कृषि विज्ञान केंद्र नॉलेज नेटवर्क के विशेषज्ञ लैब से लेकर ज़मीन तक के परीक्षणों में सखियों की मदद करते हैं। दूसरी ओर, महिलाएं अपने साथ कौशल और पारंपरिक ज्ञान को लेकर आती हैं। उदाहरण के लिए, जब सखियों को ड्रिप सिंचाई की विधि सिखाई जा रही थी, लेकिन उनके पास बाज़ार से इन प्रणालियों को ख़रीद कर लाने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने छेद वाले पाइप का इस्तेमाल स्प्रिंकलर के रूप में करना शुरू कर दिया। यह सस्ता और आसान दोनों था। महिला किसानों ने उर्वरक के रूप में अजोल और अनाज भंडारण के समय इसे कीड़ों से बचाने के लिए नीम के पत्तों जैसी चीजों का उपयोग करने के पारंपरिक तरीकों को वापस लाने का काम किया है।

प्रशिक्षक वैशाली बालासाहेब घुगे कहती हैं कि वे दूसरे किसानों को किसी भी नई चीज़ का सुझाव देने से पहले स्वयं उसका इस्तेमाल करके देखती हैं। वे याद करते हुए बताती कि जब उन्होंने खुद एक एकड़ मॉडल वाली खेती शुरू की थी, तब उनके रिश्तेदार उनके अलग तरीक़ों को लेकर आश्चर्य जताते थे लेकिन अब वे उनसे सलाह लेते हैं। जब उन्होंने वर्मीकंपोस्टिंग शुरू किया था, तब उनका सबसे बड़ा सहारा आम का वह पेड़ था जिसके नीचे उन्होंने पूरी व्यवस्था की थी। बेशक, वह पेड़ इतनी अच्छी तरीक़े से फला-फूला कि उन्होंने दूसरे किसानों को भी उनकी फसलों और खेत के लिए इस नए तरीके को अपनाने के लिए तैयार कर लिया।

नसीम बताती हैं कि किसी नई परियोजना पर काम करने से पहले एसएसपी की टीम के सदस्य न केवल समुदाय के साथ बांटे जाने वाले ज्ञान पर आधारित योजना तैयार करते हैं बल्कि यह भी देखते हैं कि इससे क्या सीखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि “कोई भी विशेषज्ञ या बाहरी आदमी समुदाय के भीतर की संरचना और समीकरण को नहीं समझ सकता है।” सखी को बोर्ड पर लाने के साथ, एसएसपी एक ग्राम एक्शन ग्रुप का गठन करता है जिसमें ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि और पिछड़े समूहों के लोगों सहित विभिन्न हितधारक शामिल होते हैं।

जीवन, कामयाबी और नेतृत्व

जब एसएसपी ने एक-एकड़ ज़मीन मॉडल के जरिए महिला किसानों की मदद करनी शुरू की थी तब उनका प्राथमिक लक्ष्य इन परिवारों को खाद्य सुरक्षा दिलाना था। अब इसने अपने प्रयासों में विस्तार किया है और फ़ूड वैल्यू चेन के स्तर पर जाकर किसानों की मदद कर रहा है। इससे जुड़ी कुछ महिला किसानों ने दाल और अनाज जैसे स्थानीय उत्पादों की प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित कर ली है। अन्य महिलाएं वर्मीकम्पोस्ट जैसे खेती में इस्तेमाल होने वाली दूसरी चीजों का उत्पादन कर रही हैं या कुछ किसान बीजों की विलुप्त हो रही प्रजातियों के लिए बीज गार्डियन या बीज माता बन चुकी हैं। उन्होंने ख़रीद, प्रोसेसिंग और मार्केटिंग से लाभ उठाने के लिए समूहों का भी निर्माण कर लिया है। कुछ संबंधित व्यवसायों जैसे पशुपालन, मुर्गी पालन और डेयरी का काम भी करने लगी हैं।

ब्लॉक कोऑर्डिनेटर अर्चना माने ने बताया कि कैसे उनके एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय की शुरुआत हुई और अब उनकी सालाना आय 10 लाख रुपए तक पहुंच गई है। एसएसपी का प्रशिक्षण और मेंटॉरशीप इकोसिस्टम महिलाओं को व्यवसाय कौशल, मार्केटिंग में सहायता, वित्तीय शिक्षा, स्टार्ट-अप के लिए पूंजी और लास्ट-माइल डिस्ट्रिब्यूशन वाली व्यवस्था के जरिए बड़ी कम्पनियों से सम्पर्क बनाने का रास्ता प्रदान करता है। अर्चना कहती हैं कि “इसने मेरी ज़िंदगी बदल दी है। बहुत अच्छी नौकरी के बदले भी मैं अपना यह कामकाज नहीं छोड़ सकती हूं।”  

जो काम आपदा प्रबंधन के रूप में शुरू हुआ था, वह लम्बे समय तक चलने वाला सफल टिकाऊ मॉडल साबित हुआ है। नसीम कहती हैं कि “यदि एसएसपी न भी हो तो भी सखी अपने समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में कार्यरत रहेगी।” 

प्रेमा ने सखी आंदोलन को ‘बिल्डिंग बैक बेटर’ यानी समुदाय को आपदाओं और अन्य संकटों के लिए तैयार करने के इरादे से शुरू किया था। इस विचार में अब देश में महिलाओं को सामुदायिक संसाधन के रूप में देखने का विचार भी प्रभावी रूप से शामिल हो गया है। एसएसपी ने एक अनुकरणीय रास्ता बनाया है, जो एक समुदाय की चुनौतियों का जवाब देते हुए, योजना और निर्णय लेने का नियंत्रण महिलाओं के हाथों में देता है। यह उनमें विश्वास पैदा करता है कि उनका सार्वजनिक नेतृत्व की भूमिकाएं निभाना बहुत जरूरी है। इस मुहिम में शामिल होने वाली हर सखी और लाभान्वित होने वाले हर समुदाय के साथ प्रेमा का यह विचार जीवित रहने वाला है।

देबोजीत दत्ता ने इस लेख में अपना योगदान दिया है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

  • एक-एकड़ खेती के मॉडल के बारे में विस्तार से जानने के लिए कॉमिक किताब रेनड्रॉप इन ड्राउट: गोदावरी डांगे पढ़ें।
  • समझें कि सामाजिक परिवर्तन के लिए तैयार किए जाने वाले कार्यक्रमों में ज़मीनी स्तर के ज्ञान को शामिल करना क्यों महत्वपूर्ण है।

लेखक के बारे में
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सलोनी मेघानी

सलोनी मेघानी आईडीआर में संपादकीय सलाहकार हैं। वे 25 वर्षों से अधिक समय से पत्रकार, संपादक और लेखिका हैं। उन्होंने द टेलीग्राफ, द टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई मिरर, नेटस्क्राइब, टाटा ग्रुप, आईसीआईसीआई और एनवाईयू जैसे संगठनों के साथ काम किया है। सलोनी ने मुंबई विश्वविद्यालय से साहित्य में स्नातकोत्तर और न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय से क्रिएटिव राईटिंग में एमएफए किया है।

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