‘पानी बरसे आधा पूस, आधा गेंहू आधा भूस’

भारतीय किसान के पारंपरिक ज्ञान का भंडार इतना भरा-पूरा कहा जा सकता है कि न केवल हर इलाक़े की जलवायु के मुताबिक खेती-किसानी के तरीके बदल जाते हैं बल्कि इससे जुड़े हर सवाल का जवाब भी इसमें मिल जाता है। यहां तक कि मौसम का अंदाज़ा लगाने, आपदाओं की चेतावनी देने और फसल से जुड़ी भविष्यवाणी करने में यह ज्ञान काम आता है। यह देखना बड़ा दिलचस्प है कि परंपरागत किसान हवाओं के रुख, पशु-पक्षियों के व्यवहार और पारंपरिक लग्न-मुहूर्त की जानकारी के सहारे यह सब बता सकते हैं। 

राजस्थान, देश का एक ऐसा राज्य है जहां मौसम और भौगोलिक दुर्लभताएं अपने चरम पर दिखाई देती हैं और यही बात यहां के खेतिहरों के व्यवहारिक और परंपरागत ज्ञान में विविधता लाती है। इस आलेख में यहां के अलग-अलग इलाक़ों और समुदायों के आपसी संवाद में शामिल रहने वाले इसी ज्ञान की झलक है। चलिए, देसी कहावतों के ऐसे कुछ उदाहरणों पर गौर करते हैं जो मौसम और जलवायु से जुड़े अंदाज़े लगाते हुए कही जाती हैं।

1. पेड़-पौधों पर दिखते प्रभाव से

नीम्बी सूक्त नीम पर, पड़ै न नीचे आय
अन्न न निपजै एक कण, काल पड़ैलो आय

अगर नीम के फल यानी निम्बोली पककर जमीन पर गिरने की बजाय पेड़ पर ही सूख जाएं तो उस साल फसल अच्छी नहीं होगी और यह समझ जाइए कि अकाल पड़ने ही वाला है।

2.  हवा की गति और दिशा से

सावण में तो सूरयो चालै, भादरवै परवाई
आसोजां में नाड़ां टांकण, भरभर गाड़ा लाई

सावन (जुलाई-अगस्त) के महीने में उत्तर-पश्चिम दिशा के बीच से, भादौं (अगस्त-सितंबर) के महीने में पूर्व दिशा से और आश्विन (सितंबर-अक्टूबर) के महीने में पश्चिम और दक्षिण दिशा के बीच से हवा चल रही हो तो उस साल अच्छी बारिश होने की संभावना होती है।

3. पशुपक्षियों और कीटों के व्यवहार से

चिड़िया नहाने धूल में, मेंढक बोले अपार
चींटी ले आंकड़ा चढ़ी तो बरखा होवे अपार

यानी चिड़िया अगर धूल-मिट्टी से नहाई हुई दिखने लगें, मेंढक लगातार आवाज़ें निकाल रहे हों और चींटी अपने अंडे लेकर भागती हुई दिख जाए तो समझिए बहुत जल्दी बारिश होने वाली है।

गिरगिट रंग बिरंग हौ, मक्खी चटका देह
मांकड़िया चह-चह करें, जद आतां जो मेह

गिरगिट बार-बार रंग बदलता दिखाई दे रहा हो, मक्खी लोगों के शरीर पर चिपकने लग जाए और मकड़ी बेचैनी से इधर-उधर घूमती दिखे तो बहुत अधिका बारिश होने की संभावना होती है।

खलिहान में हाथ में गेहूं के कुछ दानें_पर्यावरण राजस्थान
चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

4. बादलों के रूपरंग से

दिनूंग्यॉ री छींतरी, संझ्या रहा गडमेल
रात्यॅू तारा निर्मला, औ काला रहा खेल

दिन के समय, बिखरे हुए बादल आसमान पर छाएं रहें और शाम के समय ये घटाएं आपस में मिल जाएं लेकिन रात के समय आसमान साफ हो जाए और तारे दिखाई देने लगें तो यह मानना चाहिए कि अकाल पड़ने वाला है।

बदली बादल में गमसै, सुण भड्डली पानी बरसै
बादल ऊपर बाद धावै, सुण भड्डली जल आतुर आवै

बारिश आने से पहले धुएं की तरह उफनते हुए बादलों का आना खुशी की बात है। बादल अगर एक-दूसरे पर चढ़ते हुए टकराते हुए देखे जाएं तो यह माना जाना चाहिए की बारिश ज़रूर होगी।

5. ग्रहनक्षत्र और हिंदी महीनों से

चौथा चमका बीजला पॉचा गाजे गाजसातो तूड़ नपजै बरखा बरसे ज़ोर से उगन्ता परभात

आषाढ़ (जून-जुलाई) के महीने की चौथी तिथि को सुबह-सुबह बिजली चमके, पंचमी को बाद गरजे तो यह मानना चाहिए कि सभी फसलों की पैदावार अच्छी होगी।

चांद के कूड़ों व दूसरे दिन बाजे उड़ो

अगर चंद्रमा के चारों तरफ गोलाकार घेरा सा दिखाई दे तो दूसरे दिन, दिनभर आंधी-तूफ़ान चलता रहता है। अगर उस घेरे में तारा भी दिखाई दे तो यह मानना चाहिए कि अगले दो-चार दिनों बहुत अच्छी बारिश होने वाली है।

पानी बरसे आधा पूस, आधा गेंहू आधा भूस

जनविश्वास है कि अगर पौष (दिसंबर-जनवरी) के महीने में आधे समय तक पानी बरसता रह जाए तो आधी पैदावार ही मिलने की संभावना होती है।

डोरमैट बनाकर उद्यमिता का उदाहरण खड़ा करती उत्तर प्रदेश की महिला

रौशनी बेगम उत्तरप्रदेश, भदोही ज़िले के मोहम्मदपुर गांव में रहती हैं। महज़ 15 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी लेकिन अपने पति के प्रोत्साहन से वे 12वीं कक्षा तक पढ़ाई कर सकीं। परिवार में सबसे बड़ा होने के कारण घर और पांच भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी उनके पति पर आ गई जिसे रौशनी बेगम ने भी बांटा। उनके घर में बुनाई से बनने वाले कारपेट और डोरमैट (पायदान) बनाने का काम होता है। बुनाई से बनने वाली चीजों में समय लगता है और इसका कच्चा माल महंगा और बिक्री कठिन होती है। इस कारण उनके परिवार का काम भी कम हो गया। घर में लोगों की संख्या ज़्यादा होने और आर्थिक समस्याएं बढ़ने पर रौशनी को काम करना ज़रूरी लगा। साथ ही, उनका बचपन से अपना व्यवसाय करने का भी सपना था और यह काम उस सपने के तरफ पहला कदम था।

रौशनी बेगम के गांव के पास माधोपुर घुसिया नाम की एक जगह है जो अपने कारपेट बाज़ार के लिए मशहूर है। 2010-12 में उन्हें पता चला कि माधोपुर घुसिया में कपड़ों के टुकड़े जोड़कर डोरमैट बनाने का काम होता है। उन्होंने यह काम लिया और शुरूआत में डोरमैट में पाइपिंग (गोटा) लगाने का काम करने लगीं। इस काम के लिए उन्हें प्रति डोरमैट एक रुपया मिलता था। लेकिन इस काम में सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि उन्हें काम लेने और पूरा किए गए काम को पहुंचाने के लिए अपने गांव से माधोपुर घुसिया जाना पड़ता था और इसमें पैसे भी खर्च होते थे। कुल मिलाकर, इससे होने वाली आमदनी न के बराबर रह जाती थी।

बाज़ार में बिकने वाले फ्रेम से बने डोरमैट की तुलना में कतरन से बने डोरमैट सस्ते होते है।

हालांकि, इसके बावजूद रौशनी बेगम ने पाइपिंग लगाने का काम छोड़ा नहीं। बाज़ार में बिकने वाले फ्रेम से बने डोरमैट की तुलना में इनकी क़ीमत कम होती है। अपने पति का कारपेट का काम होने के कारण रौशनी बेगम के पास फ्रेम भी था जो डोरमैट बनाने में भी इस्तेमाल हो जाता है। लेकिन इससे बनने वाले डोरमैट की लागत ज़्यादा होती है, जिसके कारण यह महंगे होते है और इनकी बिक्री कम होती है। इसके मुक़ाबले कतरन से बने डोरमैट सस्ते होते है। इसकी कम कीमत के कारण रौशनी बेगम को इस काम के बढ़ने की संभावना दिखी।

उन्होंने विभिन्न लोगों (जिनसे वे माल लेती थीं) से चर्चा करके डोरमैट के व्यवसाय में अपनी जानकारी और समझ बढ़ाना शुरू किया कि कच्चा माल और ऑर्डर्स कैसे मिल सकते हैं।

डोरमैट की सिलाई करती हुई रौशनी बेगम_महिला उद्यमिता
कतरन से बने डोरमैट सस्ते होते है। | चित्र साभार: शुभा खड़के

रौशनी बेगम बताती हैं कि किसी भी व्यवसाय को शुरू करने में पूंजी एक बड़ी समस्या होती है क्योंकि कच्चा-माल और अन्य ज़रूरत की चीजों के लिए नक़द पैसे देने पड़ते हैं। डोरमैट व्यवसाय में भी कच्चा माल ख़रीदने, कटिंग करने, महिलाओं को मेहनताना देने, माल की लोडिंग-अनलोडिंग, गाड़ी का भाड़ा, धागे आदि का पैसा पहले ही देना पड़ता है। कई बार उत्पाद तैयार होने के बाद भी महीनों तक पड़ा रहता है। व्यापारी से पैसे सबसे आख़िर में मिलते हैं।

2018-19 में उन्हें डेवलपमेंट अल्टरनेटिव के वर्क-4-प्रोग्रेस कार्यक्रम के तहत कैपेसिटी बिल्डिंग का सहयोग मिला, जिससे वे सूक्ष्म वित्तीय संस्थाएं (एमएफआई) से छोटा सा ऋण ले पाई। जब उन्हें और पैसे की ज़रूरत महसूस हुई तब 2019 में उन्होंने बैंक से 13 प्रतिशत ब्याज़ पर एक लाख रुपये का मुद्रा ऋण लिया।

पूंजी की समस्या का समाधान होते ही रौशनी बेगम ने अपने इस काम में नज़दीकी गांव माधोपुर घुसिया में सिलाई करने वाली कुछ महिलाओं को अपने साथ जोड़ा। इस काम के लिए कच्चा माल पानीपत, रूद्रपुर जैसी जगहों से आता है। व्यापारी कारपेट, क़ालीन और वेलवेट के कतरनों को थोक भाव से ख़रीदने के बाद यहां आकर बेचते हैं। इस कच्चे माल की क़ीमत 25 रुपये प्रति किलो से लेकर अधिकतम 40 रुपये प्रति किलो तक होती है। एक किलो कपड़े में 3-5 डोरमैट बनते हैं। रौशनी बेगम ने इन्हीं व्यापारियों से कच्चा माल ख़रीदने के बाद, माधोपुर घुसिया से जुड़ने वाली 20 महिलाओं के साथ डोरमैट बनाने का काम शुरू किया। आज धीरे-धीरे बाज़ार में अपने संपर्क बढ़ाने के कारण उन्हें औसतन 400 से 5000 पीस के बीच का ऑर्डर मिल जाता है।

डोरमैट बनाने का काम आसान नहीं है, इसे बहुत ही बारीकी से करना पड़ता है।

रौशनी बेगम कहती हैं कि डोरमैट बनाने का काम आसान नहीं है, इसे बहुत ही बारीकी से करना पड़ता है। कच्चा माल खरीदने के बाद उसे व्यवस्थित रूप से काटा जाता है। इसके बाद, उन टुकड़ों को डोरमैट के आकार और डिज़ाइन के हिसाब से क्रम में रख, इंटरलॉक या सिलाई करके जोड़ते हैं। फिर दो डोरमैट को चिपकाया जाता है और अंत में पाइपिंग लगाई जाती है। रोशनी बेगम के पास इस समय काम के लिए दो सिलाई मशीन, एक इंटरलॉक मशीन, एक कटर मशीन और चार कैंचियां हैं।

पाइपिंग लगाने के लिए ही महिलाओं को जॉब वर्क दिया जाता है और सारा सामान, जैसे कपड़े/कारपेट के टुकड़े, पाइपिंग का कपडा, धागे और चिपकाने का सोल्युशन वगैहर उनके घर पहुंचाया जाता है। इस काम के प्रति पीस एक रुपये दिए जाते हैं। लेकिन कुछ महिलाएं को दो टुकड़ों को जोड़कर सोल्यूशन लगाने के बाद पाइपिन लगाती हैं तो उन्हें इसी काम के प्रति पीस 2-3 रुपये मिल जाते हैं। डोरमैट पूरा होने तक इकट्ठा किए गए पीस महिलाओं के घर पर रखे जाते है। तैयार हो चुका माल रोशनी बेगम के घर वापस भेज दिया जाता है। जब व्यापारी आता है तो उसको एक साथ पूरा माल दे दिया जाता है।

डोरमैट की मांग ठण्ड और बारिश में ज्यादा होती है। हालांकि इसे बनाने का काम गर्मी में करना ज्यादा बेहतर होता है क्योंकि कतरन गर्मी में जल्दी और आसानी से चिपक जाती है।

रौशनी बेगम के अनुसार डोरमैट के इस धंधे में सीजन में जहां 40 हजार रुपये प्रति माह का मुनाफ़ा होता है वहीं बाज़ार में मंदी के दिनों में यह रक़म घटकर 20 हजार रुपये प्रति माह रह जाती है। कोविड के दौरान उनका काम ना के बराबर हो गया था लेकिन उन्होंने काम को पूरी तरह से बंद नहीं होने दिया।

रौशनी बेगम का अपना ख़ुद का बचत खाता और उद्योग आधार भी है। वे चाहती हैं कि आने वाले सालों में वो 50-100 लोगो को रोजगार दे सकें और व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए माधोपुर घुसिया में ही अपना गोदाम खोल लें।

यह आलेख साथी वेंचर्स द्वारा आयोजित और सिडबी द्वारा सहयोग प्राप्त, उद्यमी साथी चैलेंज का हिस्सा है।

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भूमि अधिकारों तक महिलाओं की पहुंच मजबूत कैसे हो?

भूमि तक महिलाओं की पहुंच, स्वामित्व और नियंत्रण उन्हें वित्तीय सुरक्षा, आश्रय, आय और आजीविका के अवसर प्रदान कर सकता है। इसके बावजूद, भारत में इससे जुड़े प्रयासों के लिए आर्थिक मदद और महिलाओं के भूमि अधिकारों (वीमेन्स लैंड राइट्स – डब्ल्यूएलआर) से संबंधित हस्तक्षेप कार्यक्रमों की कमी बनी हुई है।

इस क्षेत्र में वुमैनिटी फाउंडेशन के काम के दौरान, हमने पाया कि ग्रामीण भारत में महिलाएं, कई मुद्दों जैसे घरेलू हिंसा, सरकारी योजनाओं तक पहुंच, कौशल निर्माण एवं विकास जैसे सहयोगों के लिए अक्सर अपने समुदाय से जुड़े संगठनों से संपर्क करती हैं। कहने का मतलब है कि जब महिलाएं के सामने भूमि अधिकारों की बात आती है तो ये समुदाय-आधारित संगठन ही उनके संपर्क का पहला केंद्र बन जाते हैं। दुर्भाग्यवश, इनमें से कई संगठन हस्तक्षेप करने और पर्याप्त सहायता प्रदान करने में असमर्थ होते हैं।

इसके समानांतर, डब्लूएलआर पारिस्थितिकी तंत्र को सशक्त आंकड़ों; व्यापक, कार्य-आधारित शोध, ओपन-सोर्स असेट्स; और सहयोग मंचों की जरूरत होती है जो चिकित्सकों, शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं, भूमि और लैंगिक मामलों के विशेषज्ञों और सरकारी अधिकारियों समेत विभिन्न हितधारकों को एक साथ लाते हैं।

यह साफ है कि इस तंत्र के विभिन्न पहलुओं को परिपक्व बनाने की आवश्यकता है। वुमैनिटी फाउंडेशन में, हम जमीनी स्तर पर भूमि अधिकार कार्यक्रमों को लागू करने के लिए विभिन्न समाजसेवी भागीदार संगठनों को फंड मुहैया करवाते हैं। हालांकि, हम इस व्यवस्था के भीतर समाजसेवी संस्थाओं और अन्य संगठनों के एक बड़े समूह के लिए जागरूकता और तकनीकी क्षमता के निर्माण की आवश्यकता और महत्व को भी पहचानते हैं। इस लक्ष्य की दिशा में, हमारी पहलों में से एक डब्ल्यूएलआर कोर्स से क्षमता निर्माण है जो सभी समाजसेवी संस्थाओं के लिए उपलब्ध है। नीचे, हम कोर्स को संचालित करने के अपने अनुभव को रेखांकित कर रहे हैं और बता रहे हैं कि कैसे हमारी सीख हमारे काम को समृद्ध कर रही है।

प्रशिक्षण के माध्यम से डब्ल्यूएलआर तंत्र को मजबूत करना

हमें बहुत पहले ही इस बात का एहसास हो गया था कि हमें समाजसेवी संस्थाओं के एक बड़े समूह को सक्रिय रूप से क्षमता-निर्माण सहायता प्रदान करके पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर किए जा रहे कार्यों को तेज करने और व्यापक बनाने की आवश्यकता है। इससे विशेष रूप से उन लोगों को लाभ होगा जो अनौपचारिक तरीके से भूमि अधिकार के मुद्दों से जुड़े हैं और जिनमें इससे अधिक गहराई से जुड़ने की क्षमता या आत्मविश्वास की कमी है।

ऐसा करने के लिए, हमने महिलाओं और भूमि स्वामित्व के लिए कार्य समूह (डब्ल्यूजीडब्ल्यूएलओ) के साथ साझेदारी में भारत में डब्ल्यूएलआर पर एक औपचारिक पाठ्यक्रम बनाया – 45 संगठनों का एक नेटवर्क जो 2002 से महिलाओं की भूमि तक पहुंच और स्वामित्व पर काम कर रहा है। इसका उद्देश्य डब्लूएलआर पर पूरी जानकारी देने वाला डिजाइन तैयार करना और डब्लूजीडब्ल्यूएलओ के सदस्य संगठनों की सीख को हितधारकों के एक बड़े समूह तक पहुंचाना था। इससे तैयार हुए 90-घंटों के इस पाठ्यक्रम को 2022 में 50 ऐसे समाजसेवी प्रैक्टिशनर द्वारा स्वीकार किया गया जो अपनी समझ को बढ़ाने और अपने प्रोग्रामिंग में डब्ल्यूएलआर को शामिल करने की इच्छा रखते थे।

अधिकांश प्रतिभागी ऐसे संगठनों से संबंधित थे जिन्होंने भूमि अधिकारों से जुड़ा कुछ काम किया था और वे डब्ल्यूएलआर पर काम करने के तरीकों पर विचार-विमर्श करना चाहते थे। प्रतिभागियों में मिडिल मैनेजर, प्रोग्राम मैनेजर, फ़ील्ड अधिकारी, शोधकर्ता और शिक्षाविद शामिल थे। समुदायों के साथ डब्ल्यूएलआर के बारे में बात करने और मुद्दे से संबंधित कानूनों और प्रक्रियाओं के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए सबसे कारगर रणनीतियों की खोज के अलावा, इस पाठ्यक्रम में एक व्यावहारिक तत्व भी शामिल है। प्रतिभागियों को उनके कामकाजी क्षेत्र के भीतर एक डब्लूएलआर परियोजना डिजाइन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इसके अलावा, डब्लूजीडब्ल्यूएलओ ने, आठ सप्ताह की अवधि में अपनी परियोजनाओं को विकसित करने और निष्पादित करने के लिए उनका मार्गदर्शन भी किया।

पाठ्यक्रम को अच्छी भागीदारी और प्रतिक्रिया मिली, और यह कुछ ऐसा है जिसका समर्थन हम साल 2023 में करना जारी रखेंगे। बहरहाल, हमने महसूस किया कि यह अकेले सभी हितधारकों तक नहीं पहुंच सकता है और न ही आवश्यक प्रभाव डाल सकता है; इसे क्षमता-निर्माण प्रयासों के अन्य तरीकों की मदद से पूरा किए जाने की जरूरत है।

एक समूह में कुछ महिलाएं_भूमि अधिकार
लैंगिक दृष्टिकोण को अपनाने से पर्यावरणीय समाधानों का निर्माण संभव हो सकता है। | चित्र साभार: यूएन वीमेन एशिया एंड द पैसिफिक /सीसी बीवाय

हमने जो सीखा

1. विविधता को शामिल करना

पाठ्यक्रम ने डब्लूएलआर के लिए एक परिचय के रूप में काम किया, विशेष रूप से यह समूह-1 में, कृषि भूमि और विरासत अधिकारों से संबंधित था। प्रतिभागियों से मिले फीडबैक के आधार पर, समूह-2 में अतिरिक्त घटक शामिल किए गए और कई तरह की भूमि और उन्हें नियंत्रित करने वाले कानूनों (उदाहरण के लिए, वन भूमि/वन अधिकार) को शामिल किया गया। लेकिन भविष्य के संस्करणों में विभिन्न धर्मों, जनजातियों और भौगोलिक क्षेत्रों की महिलाओं को शामिल किए जाने में अभी भी बढ़ोतरी की गुंजाइश है।

डब्लूएलआर पर काम करने वाले फील्ड कैडर – समुदायों के लिए संपर्क के प्राथमिक बिंदु – भी समरूप नहीं हैं। उदाहरण के लिए, समुदायों के साथ काम करने वाली कई महिलाएं बहुत अधिक पढ़ और लिख नहीं सकती हैं। इसलिए, यह पाठ्यक्रम अपने वर्तमान रूप में उनके लिए उपयुक्त नहीं है और इसमें बदलाव की जरूरत है। इसने हमें इस विषय पर अपनी सोच को विस्तृत करने के लिए मजबूर किया कि इन मुद्दों पर काम करने वाले विविध कैडरों को व्यक्तिगत तरीके से प्रशिक्षण कैसे दिया जा सकता है।

2. संदर्भ के महत्व को याद रखना

डब्ल्यूजीडब्ल्यूएलओ पाठ्यक्रम के माध्यम से सीखी गई बुनियादी बातों के अलावा, एक संगठन को उन कानूनों और प्रक्रियाओं के बारे में सीखने से लाभ होगा जो उस क्षेत्र में सबसे अधिक लागू होते हैं जहां वे काम करते हैं और जिन समुदायों के साथ वे काम करते हैं। यह उन्नत पाठ्यक्रमों के डिजाइन और वितरण को प्रभावित करता है, जिसे पर्याप्त रूप से प्रासंगिक बनाने की आवश्यकता होगी।

प्रासंगिक बनाने का अर्थ प्रासंगिक बनाने का अर्थ उनकी पहचान करना भी है जो स्थानीय रोल मॉडल और संसाधन होते हैं और जो इन संगठनों के साथ काम कर सकते हैं तथा स्थानीय भाषा में उनसे संवाद स्थापित करने में सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड के अल्मोडा में भूमि अधिकार मामले से निपटने वाले किसी संगठन के पास सहायता के लिए स्थानीय वकील से संपर्क करने का विकल्प है तो वह अपना काम अधिक कुशलता से करने में सक्षम होगा। इसलिए, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि संगठनों के पास ऐसे स्थानीय संसाधनों की उपलब्धता हो जो उन्हें अपने कामकाज के क्षेत्रों में डब्ल्यूएलआर कार्य करने में सक्षम बनाते हैं।

3. पाठ्यक्रम को प्रतिभागियों तक लेकर जाना

वास्तविक और प्रभावी जमीनी कार्यान्वयन के लिए, डब्ल्यूएलआर एजेंडा को समाजसेवी संस्थाओं के सभी स्तरों पर लागू करने की आवश्यकता होगी। प्रोग्रामिंग में अधिक व्यापक बदलाव के लिए संगठन और उनके फील्ड कैडरों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है, जिसमें मुख्य रूप से स्थानीय समुदायों की महिलाएं शामिल हैं। महिलाओं के इस कैडर की भाषा, समय की कमी आदि जैसी जरूरतों पर भी विचार करने की आवश्यकता है।

इसलिए, पाठ्यक्रम को सरल बनाने और उसे ऑनलाइन या इलाके, भाषा, भूमि के प्रकार आदि के लिए स्थानीयकृत बनाकर उन तक ले जाने की जरूरत है। इससे प्रतिभागी पाठ्यक्रम को अपनी गति के अनुसार पूरा कर सकेंगे और स्वतंत्र रूप से उसके विकास की प्रक्रिया पर निगरानी रखने में सक्षम होंगे। इसके अलावा, हम इसे स्थानीय लोगों के लिए ज्ञान को लोकतांत्रिक बनाने के एक कदम के रूप में देखते हैं, जो डब्ल्यूएलआर के काम को संगठनों से परे ले जाने में सक्षम बनाएगा। इससे हमें यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि समुदायों में महिलाओं की भूमि तक पहुंच हो और डब्ल्यूएलआर का काम जमीन पर हो रहा हो। और यही हमारा अंतिम लक्ष्य भी है। डब्लूएलआर को सक्षम करने के लिए हस्तक्षेप कार्यक्रमों को लागू करने और भूमि अधिकार परिदृश्य के बारे में संगठनों के ज्ञान में सुधार करने के लिए कैडरों की क्षमता को विकसित करने की जरूरत है। इसलिए, हमारा यह मानना है कि क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के अभ्यासकर्ताओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण के अन्य तरीकों को एक साथ अपनाया जाना चाहिए।

अन्य हितधारक क्या कर सकते हैं?

फंडिंग या भूमि अधिकारों पर काम करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसलिए, इस मुद्दे से जुड़े संगठन, विकास-आधारित दृष्टिकोण अपना सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, प्रकृति-आधारित आजीविका पर काम करने वाला एक संगठन भूमि-संबंधी मामलों में महिलाओं की भूमिका और निर्णय लेने की स्थिति को समझने के प्रयास से इसकी शुरुआत कर सकता है। इससे उन्हें मौजूदा स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने, समस्या के विस्तार की पहचान करने और जिस काम के लिए वे फंडिंग कर रहे हैं उसका दीर्घकालिक प्रभाव सुनिश्चित करने के लिए अपने हस्तक्षेप में बदलाव लाने में मदद मिल सकती है।

जब महिला किसानों के पास भूमि पर उनके स्वामित्व से जुड़े दस्तावेज उपलब्ध होते हैं तो उस स्थिति में भी उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ भी मिलता है। इसलिए, छोटी जोत वाली महिला किसानों के लाभ के लिए तैयार किए गए कार्यक्रम चलाने वाले संगठनों को निश्चित रूप से महिलाओं के स्वामित्व और उनकी भूमि पर नियंत्रण से जुड़े संकेतक बनाना चाहिए। जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय स्थिरता पर काम करने वाले संगठनों का समर्थन करने वाले फंडरों को उनके द्वारा डिजाइन किए गए समाधानों और शमन में महिलाओं की भूमिका पर विचार करना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि लैंगिक दृष्टिकोण अपनाने से कार्यान्वयन योग्य, टिकाऊ और समुदायों के ज्ञान और वास्तविकताओं पर आधारित पर्यावरणीय समाधानों का निर्माण संभव है।

आखिरकार, हमें सामान्य रूप से भूमि अधिकारों और विशेष रूप से महिलाओं के भूमि अधिकारों के बारे में हो रही चर्चा में परिवर्तन लाना होगा। वर्तमान में, यह क्षेत्र से अपरिचित लोगों के लिए कठिन हो सकता है और इससे इस क्षेत्र में काम करने वाले मुख्य लोगों को मूल कारण तक संसाधनों की पहुंच को संभव बनाने या उसे निर्देशित करने में मुश्किल होती है। नतीजतन, भूमि की पहुंच से जुड़े (और अक्सर आकस्मिक) कारणों का समर्थन करने के लिए उत्सुक हैं लेकिन डब्ल्यूएलआर के लिए प्रत्यक्ष फंडिंग बिखरी हुई है। डब्ल्यूएलआर से जुड़ी चर्चाओं कि दिशा बदलने से जमीनी स्तर पर वास्तविकताओं में होने वाले परिवर्तन की गति में वृद्धि आ सकती है।

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एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने का सबसे ज्यादा नुकसान किसे होगा?

साल 2023 के शुरूआती छह महीनों में 70 भारतीय स्टार्टअप कंपनियों से जब 17,000 कर्मचारियों (जिसमें 2500 लोग एडटेक कंपनी बायजू’ज से थे) को निकाला गया तो मीडिया में इसे अच्छी-ख़ासी कवरेज मिली। इस बहाने कंपनियों, कर्मचारियों, स्टार्टअप इकोसिस्टम और यहां तक कि अर्थव्यवस्था पर भी चर्चाएं हुईं। इसके उलट, जब इसी दौरान1 100 से अधिक समाजसेवी संगठनों ने एफसीआरए के नए नियमों के चलते विदेशों से मिलने वाली आर्थिक मदद गंवा दी है तो इस पर कोई बात करता नहीं दिखाई दे रहा है। इसकी गंभीरता इस बात से समझी जा सकती है कि महिलाओं और लड़कियों के लिए काम करने वाली समाजसेवी संस्था केयर (सीएआरई) से जुड़े लगभग 4000 लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी हैं जो बायजू’ज के आंकड़ों की तुलना में कहीं ज्यादा है।

अर्थव्यवस्था पर इसके असर की बात करें तो समाजसेवी संगठन देश की जीडीपी में दो प्रतिशत का योगदान देते हैं। ज़मीनी स्तर पर इन संगठनों के फैलाव, इसमें काम करने वाले कर्मचारियों (जिसका एक बड़ा हिस्सा गांवों और छोटे क़स्बों से आने वाले लोग हैं) की आजीविका और पिछड़े तबकों और इलाक़ों से आने वाले वे लाखों लोग जिनके लिए ये काम करते हैं, क्या इन सबकी बात नहीं होनी चाहिए?

एफसीआरए क्या है?

संक्षेप में, विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफ़सीआरए) की बात करें तो यह हमारे देश में स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी अनुदानों को नियंत्रित करने वाला कानून है। यह कानून तय करता है कि स्वयंसेवी संस्थाएं कहां से धन प्राप्त कर सकती है, इसका इस्तेमाल कौन कर सकता है और किस तरह के उद्देश्यों के लिए इस धन का उपयोग किया जा सकता है। पिछले साल यह अधिनियम तब एक बार फिर चर्चा में आ गया जब सरकार ने लगभग 6,000 स्वयंसेवी संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द कर दिए। यानी, अब ये संस्थाएं विदेशों से आर्थिक मदद नहीं ले सकती हैं। इन संस्थाओं में मदर टेरेसा’ज मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी, ऑक्सफ़ैम इंडिया, सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी दिल्ली और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं शामिल थीं।

यही सिलसिला अब आगे बढ़ रहा है जब तमाम संस्थाओं के लाइसेंस या तो रद्द कर दिए गए या उन्हें नवीनीकृत नहीं किया गया है। दुख की बात यह है कि लोगों की नौकरियां जाने के साथ अब ज़मीन पर इसका असर दिखाई देने लगा है।

अदृश्य सेक्टर

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा साल 2012 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक नागरिक संगठन देश में 27 लाख कर्मचारियों और 34 लाख फुलटाइम वॉलंटीयर्स के लिए रोज़गार पैदा करते हैं। सीएसओ कोअलिशिन@75 और गाइडस्टार इंडिया द्वारा 515 समाजसेवी संगठनों पर किए गए एक सर्वे में 47 फीसदी संगठनों ने यह बात कही है कि जिन इलाक़ों में काम करते हैं, उनमें वे सबसे अधिक नियमित नौकरियों का स्रोत हैं। इससे आगे बढ़कर, वे सरकार और लोगों के बीच पुल का काम करते हैं।

आधे से अधिक संस्थाएं स्थानीय स्तर पर, ग्रामीण इलाक़ों और नीति आयोग द्वारा घोषित आकांक्षी जिलों में काम करते हैं। इनका कार्यक्षेत्र आमतौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण, आजीविका, जल और स्वच्छता, पर्यावरण परिवर्तन, कृषि, महिला और बाल अधिकार, विकलांगता, नागरिक सहभागिता से जुड़ा होता है और ये विषय नागरिकों के जीवन पर सीधा असर डालते हैं।

ये संस्थाएं स्थानीय स्तर पर आजीविका के साधन पैदा करने, कुशलताएं हासिल करने, सामाजिक रूप से तरक्की करने और स्थानीय व्यापार को आगे बढ़ाने जैसे काम करती हैं। सर्वे में शामिल 50 फीसदी संस्थाएं सरकारी संस्थाओं (स्कूल, पंचायत, जनपद, आंगनबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र वगैरह) और स्वयं सहायता समूहों के साथ मिलकर काम करती हैं। समाजसेवी संस्थाओं को सशक्त बनाना असल में स्थानीय स्तर पर विकास को रफ्तार देने वाला साबित हो सकता है।

अपना एफसीआरए लाइसेंस गंवाने वाले एक संगठन के प्रमुख के मुताबिक, समाजसेवी संगठनों की नौकरियां प्राइवेट या सरकारी नौकरियों की तरह नहीं होती हैं और यह सिर्फ नौकरी नहीं है। वे कहते हैं कि ‘इस सेक्टर में नौकरियां खत्म होने का मतलब, पिछड़े और ज़रूरतमंद लोगों के जीवन से बेहतरी के मौक़ों का खत्म हो जाना भी है।’

समुदायों पर असर

संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने से कई तरह का कामकाज बंद पड़ गया है। बाल सुरक्षा, टीकाकरण, नवजात बच्चों में मौतों के रोकने, स्कूलों और आंगनबाड़ियों में स्वास्थ्य और पोषण सुविधाएं पहुंचाने, छोटे बच्चों को सिखाने के लिए टीचर ट्रेनिंग सामग्री तैयार करने, अभिभावकों को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए मनाने, युवाओं को कौशल और आजीविका के मौक़े दिलवाने, सरकारी योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने जैसे तमाम प्रयास जो समाजसेवी संगठन करते थे, अब रुक गए हैं। एक अंदाज़े के मुताबिक संगठनवार रूप से देखें तो 4000 से लेकर आठ लाख लोग तक, अब समाजसेवी संगठनों द्वारा दी जाने वाली सुविधाएं नहीं पा सकेंगे।2

सेवाएं बंद होना तो इसका एक पहलू भर है क्योंकि इसके साथ, दूसरी तरफ वह भरोसा भी खत्म हो जाएगा जो सालों से काम करने के चलते बन पाया था। अब समुदाय इस बात को लेकर आशंकित होंगे कि समाजसेवी संगठन उन्हें सशक्त बना सकते हैं या नहीं। एफसीआरए लाइसेंस गंवाने वाली एक अन्य संस्था के सीईओ कहते हैं कि ‘ऐसा नहीं है कि बस एक ही संस्था का काम रुक गया है, लोगों को लगेगा हमने उन्हें धोखा दिया है। अगली बार जब हम उनके पास जाएंगे और कहेंगे कि हम इतने समय में यह काम कर लेंगे तो वे शायद ही हम पर भरोसा कर सकें। इस नुकसान की भरपाई करना मुश्किल होगा।’

अदृश्य कार्यबल

समुदाय जहां अपने हाल पर छोड़ दिए जाएंगे, वहीं वे फ्रंटलाइन कार्यकर्ता जो इन संगठनों के कर्मचारी हैं और उनके परिवार इससे बुरी तरह प्रभावित होंगे।। नौकरी खोने वाले फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं में से ज्यादातर स्नातक और इनमें से कुछ इससे अधिक शिक्षा प्राप्त भी हैं। समुदायों का हिस्सा बनकर उनके लिए काम करने वाले ये लोग गांवों और क़स्बों में रहते हैं। दूसरी तरह से कहें तो ये वे लोग हैं जो रोज़गार के लिए शहरों में न जाकर गांव-क़स्बों में रहना चुनते हैं और यहीं अपना जीवन बनाते हैं। इनकी आजीविका और ताकत स्थानीय तंत्र का हिस्सा है और उससे प्रभावित होती है।

एक समाजसेवी संगठन के सीईओ, जिनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है, कहते हैं कि ‘ऐसे लोग समुदायों और समाजसेवी संस्थाओं के बीच की पहली कड़ी होते हैं। समुदाय में गहरी पहुंच और समझ रखने, उसमें शामिल होने के चलते ये संस्थाओं के लिए क़ीमती होते हैं। इसका मतलब यह भी हुआ कि उन्हें समाजसेवी संस्थाओं की जरूरत होती है और हमें समुदायों से जुड़ने के लिए उनकी।’

‘एफसीआरए को लेकर हर कोई ख़तरा महसूस कर रहा है। हर संस्था यह सोच रही है कि अगला नंबर उनका हो सकता है।’

वे इस बात की तरफ भी ध्यान दिलाते हैं कि ज्यादातर ग्रामीण सामुदायिक कार्यकर्ता जिन इलाक़ों में रहते हैं, वहां रोजगार के बहुत सीमित मौके होते हैं। ‘अगर उद्योग-धंधे और रोजगार के बाकी तरह के मौके इन तक पहुंच गए होते तो इनके पास विकल्प होते. सालों के अपने अनुभव के दौरान हमने जो देखा है वो यह है कि विकास सेक्टर से जुड़ना अक्सर लोगों की आख़िरी पसंद होती है। ज्यादातर लोग बेहतर वेतन, स्थायित्व और सुविधाओं के चलते सरकारी नौकरी या फिर किसी निजी कंपनी से खुद को जोड़ना पसंद करते हैं।’ एफसीआरए के रद्द होने और अचानक नौकरियां खत्म होने से समाजसेवी संगठनों में काम करने को लेकर होने वाली अनिश्चितता की भावना और मज़बूत  हो गई है।

रोजगार के विकल्प नहीं हैं

सीमा मुस्कान पटना में रहने वाली एक 35 वर्षीय शोधकर्ता हैं जो एक समाजसेवी संगठन के लिए काम करती थीं। उनके पास स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण के क्षेत्र में काम करने का 15 वर्षों से अधिक अनुभव है। जब मार्च, 2023 में उनके संगठन का एफसीआरए लाइसेंस रद्द हुआ तो उनकी नौकरी जाने के साथ उनकी पहचान और आर्थिक आज़ादी भी खत्म हो गई। सीमा अपने अनुभव बताते हुए कहती हैं कि उनके लिए नई नौकरी ढूंढना आसान नहीं है। ‘एफसीआरए को लेकर हर कोई ख़तरा महसूस कर रहा है।

हर संस्था यह सोच रही है कि अगला नंबर उनका हो सकता है। यह डर इतना अधिक है कि कहीं पर हायरिंग नहीं हो रही है।’ सीमा जोड़ती हैं कि प्रदान जैसे बड़े संगठनों में छत्तीसगढ़ या झारखंड में जाकर काम करने के विकल्प हैं लेकिन वे पटना में इसलिए रहना चाहती हैं क्योंकि उनके परिजन – पति, बच्चे और सास-ससुर – यहां पर हैं। वे कहती हैं कि ‘मेरे दो बच्चे हैं, जिनकी उम्र पांच साल और आठ साल है। मैं किसी दूसरे शहर में काम करने के लिए उन्हें नहीं छोड़ सकती हूं।’

सीमा यह भी कहती हैं कि ‘जब आपके पास नौकरी होती है तो आपकी एक पहचान होती है। आप समाज में अपनी जगह महसूस करते हैं, आपको आज़ादी होती है, आपके पास अपना पैसा होता है और आप अपने बच्चों की शिक्षा का खर्च बांट सकते हैं।’ सीमा अपने घर के कर्ज़ का ज़िक्र करते हुए कहती हैं कि ‘पहले मैं खर्च बांट सकती थी। अब मेरी कमाई न होने का मतलब है कि परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो सकती है और बच्चों की पढ़ाई पर इसका बुरा असर पड़ सकता है।’

सीमा को यह भी लगता है कि उनके पुरुष सहकर्मियों पर इसका कहीं अधिक बुरा प्रभाव पड़ा है, वे कहती हैं कि ‘भले ही मेरे पास नौकरी नहीं है लेकिन मेरे पति के बिज़नेस से कुछ पैसे तो आ रहे हैं। मेरे कई साथियों के लिए यह और भी बुरा रहा है क्योंकि अपने परिवार को चलाने वाले वही थे।’ गाइडस्टार इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में 64 फीसदी संगठनों का कहना था कि उनके कर्मचारी अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाले थे।

साड़ी में एक महिला किसी को हाथ दिखाकर पुकारते हुए_एफसीआरए
एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने और लोगों की नौकरियां जाने का नतीजा यह भी होगा कि लोग सेक्टर से बाहर काम तलाशने निकलेंगे। | चित्र साभार: पब्लिक सर्विसेज इंटरनेशनल / सीसी बीवाय

दिनेश कुमार का लगभग पूरा करियर सोशल सेक्टर में काम करते हुए बीता है। 18 साल के अनुभव के दौरान वे शिक्षा, बाल सुरक्षा, पोषण और पंचायती राज संस्थानों से जुड़े काम करते रहे हैं। इससे पहले वे जिस संस्था में काम करते थे, उनका काम कमजोर तबके की मदद करना था। वे लोगों को 40-50 सरकारी योजनाओं तक पहुंच मुहैया करवाते थे।

दिनेश कहते हैं कि जो काम वे करते थे, वह कुछ ही सामाजिक संगठन करते हैं। ऐसे में उनके ज्ञान और कौशल के उपयोग के लिए कुछ सीमित ही मौके हैं। वे कहते हैं कि ‘18 साल के अपने करियर के दौरान मैं कई खास कुशलताओं जैसे समुदायों के साथ काम करना, डेटा इकट्ठा करना, रिसर्च सर्वे मैनेज करना और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना वगैरह के साथ काम करता रहा हूं। लेकिन अगर समाजसेवी संगठन हायरिंग ही बंद कर देंगे तो हम कैसे सर्वाइव कर पाएंगे।’

नौकरियां कम और काम ज्यादा

अनगिनत फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के लिए नई नौकरी हासिल करना आसान काम नहीं है। दिनेश कहते हैं कि ‘अपना रेज्युमे कई जगहों पर भेजने के बाद भी मुझे नौकरी मिलने की संभावना कम है। पहले से ही देश में रोजगार की कमी है।’ ज्यादातर बार उन्हें सिर्फ इसलिए शॉर्टलिस्ट नहीं किया जाता है क्योंकि उनके पास एक खास तरह की कुशलताएं ही है। अन्य संगठन जिन्हें इन कुशलताओं की जरूरत है वे या तो हायरिंग नहीं कर रहे हैं या फिर उनके पास पहले से ही ढेर सारे आवेदन हैं। इसके अलावा, आवेदन करने की प्रक्रिया भी कठिन है।

जून, 2023 में नौकरी खोने वाले मुकेश, केयर संस्था के साथ जिला अकादमिक फ़ेलो थे। उन्होंने 12 साल पहले शिक्षा पर काम करने वाले एक संगठन के साथ बहुत निचले स्तर से काम करना शुरू किया था और अब जिला स्तर के कार्यकर्ता बन गए। मुकेश सेक्टर में अपने नेटवर्क में लोगों से बात करने के साथ-साथ डेवनेट, लिंक्डइन और यहां तक कि गूगल पर भी अपने जिले में मौजूद भर्तियों की जानकारी खोज रहे हैं। उनकी समस्या कम्प्यूटर और लैपटॉप न होने से और बढ़ जाती है।

वे कहते हैं कि ‘तकनीक भले ही आधुनिक और आसानी से पहुंच में आने वाली हो गई है लेकिन मेरे पास कम्प्यूटर ख़रीदने के पैसे ही नहीं है। इसका मतलब है कि संस्थाओं की भर्ती प्रक्रिया के दौरान जब मुझे टेस्ट असाइनमेंट दिया जाता है तो या तो मुझे उनके जवाब अपने मोबाइल फ़ोन पर टाइप करने होते हैं (जो करना बहुत मुश्किल है) या फिर उन्हें हाथ से लिखना होता है और फिर स्कैन कर मैं उन्हें मेल कर पाता हूं।’

दिनेश कहते हैं कि वे सोशल सेक्टर में काम करते रहना चाहते हैं लेकिन उन्हें आशंका है कि यह आगे संभव नहीं हो सकेगा। ‘सरकारी या निजी सेक्टर से अलग, हमारी पगार में बचत करने की गुंजाइश नहीं होती है। मुझे सोशल सेक्टर में काम करने में मजा आता है। समुदायों से रिश्ते बनाना और लोगों को जो मिलना चाहिए वह हासिल करने में उनकी मदद करना मुझे अच्छा लगता है। मैं यहां काम करते रहना चाहता हूं और अपनी तरफ से समाजिक सहयोग देते रहना चाहता हूं लेकिन अब मेरे पास कुछ नहीं है।’

मुकेश भी समुदाय में लोगों के भरोसे और रिश्तों की बात दोहराते हैं ‘हम परिवारों के साथ मिलकर काम करते थे ताकि उन्हें पता चलता रहे कि स्कूल में क्या चल रहा है, उनके बच्चों को सही शिक्षा मिल रही है या नहीं। हम एजुकेशन सिस्टम की कमियों को समझते हैं और इसके लिए सरकारी स्टाफ को जरूरत पड़ने पर प्रशिक्षण मुहैया करवाते हैं। हम पैरेंट-टीचर को आपस में बात करने, पैरेंट्स को यह समझने कि उन्हें बच्चों से कैसा व्यवहार करना चाहिए और भी इस तरह की तमाम काम करते थे। लोग हम पर भरोसा करते थे कि हम यह उनके फ़ायदे के लिए कर रहे हैं।’

अब वे कहां जाएं?

ज्यादातर समाजसेवी संगठन (उन बड़े कॉर्पोरेट संगठनों को छोड़कर जो खुद ही कार्यक्रमों को लागू करते हैं, बड़ी टीमों के साथ काम करते हैं और अच्छी फंडिंग हासिल कर चुके हैं) कार्यकर्ताओं की मदद नहीं कर सकते हैं। इसके कारणों पर जाएं तो पहली वजह यह है कि उनके खुद के पास संसाधनों की कमी है और उन्हें और लोगों की जरूरत नहीं है। दूसरी वजह ये है कि उन्हें भी अपने एफसीआरए लाइसेंस खोने का डर है और इस बात की चिंता भी कि इसका उनके अपने कर्मचारियों और समुदायों पर क्या असर पड़ेगा।

दिनेश कहते हैं कि लोग उन्हें व्यवसाय शुरू करने की सलाह दे रहे हैं। ‘लेकिन व्यवसायों को आगे बढ़ने में 5-10 साल लग जाते हैं। मैं पहले से ही 40 साल का हूं। जब तक मैं व्यवसाय करते हुए कहीं पहुंच सकूंगा, तब तक मैं 50 वर्ष का हो जाऊंगा। और, इस बीच मैं अपने बच्चों के बड़े होने और बढ़ते खर्चों को कैसे पूरा करूंगा?’

मुकेश के लिए स्थिति इतनी गंभीर है कि उन्होंने पिछले कुछ हफ्तों से मैकेनिक के रूप में काम करना शुरू कर दिया है। सीमा और दिनेश की तरह उसके पास भी शिक्षा, प्रशिक्षण, संबंध बनाने और संचार से जुड़े कौशल हैं, जिनमें से अधिकांश अब उन्हें ग़ैर जरूरी लगने लगे हैं। वे कहते हैं कि ‘मेरे दोस्त मुझ पर हंसते हैं। लेकिन मेरे पास क्या विकल्प हैं? मैं 35 साल का हूं, पत्नी है, तीन बच्चे और बूढ़े माता-पिता हैं। मुझे मात्र 21,500 रुपए की पगार मिलती थी। इसके बाद पिछले कुछ महीनों से मैं बेकार बैठा हूं वह भी तब जब मैं परिवार में अकेला कमाने वाला हूं। मेरे पास बिल्कुल पैसा नहीं बचा है। हमारा भविष्य अब अंधेरे में है।’

हमें चुप करवाकर वे आम लोगों की आवाज़ को दबाना चाहते हैं।

ग्रामीण समुदायों के साथ काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर कहते हैं कि एक साथ बहुत सारी संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने और लोगों की नौकरियां जाने का नतीजा यह भी होगा कि लोग सेक्टर से बाहर काम तलाशने निकलेंगे।वे कहते हैं कि ‘मुझे डर है कि कंपनियां इन फ्रंटलाइन कार्यर्ताओं की आर्थिक तंगी का फायदा उठा सकती हैं और उन्हें सोने या कर्ज के लिए रिकवरी एजेंट बनने जैसी नौकरियों का ऑफ़र दे सकती हैं। समुदायों के साथ जो करीबी संबंध उन्होंने बनाया है, फायनेंशियल कंपनियां उनका दुरुपयोग पैसों की वसूली के लिए कर सकती है। यानी, फ्रंटलाइन कार्यकर्ता अब तक जो करते रहे हैं, उसका ठीक उल्टा करने पर मजबूर हो सकते हैं।’

देश पीछे जाएगा

दिनेश बताते हैं कि एक संगठन जिसके लिए वे काम करते थे, वह आम आदमी के लिए आवाज़ उठाता था। ‘हम सुनिश्चित करते थे कि लोग अपने अधिकारों और योग्यता के मुताबिक चीजें हासिल कर पाएं फिर चाहे वह स्कॉलरशिप हो या विधवा पेंशन या फिर बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र। अब उनके लिए कौन बोलेगा, अब उनकी आवाज़ को सत्ता तक कौन लेकर जाएगा। हमें चुप करवाकर वे आम लोगों की आवाज़ को दबाना चाहते हैं।’

मुकेश भी लोगों के भरोसे का ज़िक्र करते हैं और कहते हैं ‘वे जानते थे कि हम उनके लिए काम कर रहे हैं, वे हम पर भरोसा कर सकते हैं कि हम सरकार तक उनके अधिकारों की बात पहुंचाएंगे, जब शिक्षा और स्वास्थ्य की बात आएगी तो उनके बच्चों के हितों का ध्यान रखेंगे और उनके और सरकार के बीच पुल का काम करेंगे।’ समाजसेवी संगठन के एक लीडर के मुताबिक, अगर समुदाय से जोड़ने वाले इन लोगों को खो देंगे तो आपको पिछड़े लोग भी दिखाई देना बंद हो जाएंगे। वे कहते हैं कि ‘यह समाजसेवी संगठन और ज़मीन पर काम करने वाले उनके कार्यकर्ता है जो हमारे देश में जन-भागीदारी वाले लोकतंत्र के विचार को जिंदा रखे हुए है।

इसके लिए ये कमजोर तबकों को सरकार या उनके मुद्दों को हल करने वाले मंचों और साधनों तक पहुंचाते रहे हैं। और, इसके साथ सरकारी सेवाओं को भी मज़बूती देते रहे हैं। इनके बग़ैर, कोई सक्रिय नागरिकता नहीं होगी और हम अपने उस पिछड़े अतीत की तरफ लौट जाएंगे जहां लोकतंत्र में इन समुदायों के पास कोई ताकत, कोई आवाज़ नहीं थी। इसके चलते, हम 2047 में खुद को एक विकसित देश की तरह देखने की बजाय एक ऐसे देश की तरह देखेंगे जो 25 साल पीछे चल रहा है।’

इस विषय पर आईडीआर पर अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख यहां पढ़ें

फुटनोट:

  1. 23 मार्च 2023 तक का डेटा उपलब्ध है।
  2. एक समाजसेवी संगठन का फ्रंटलाइन कार्यकर्ता औसतन कम से कम 40-50 परिवारों से जुड़ता है, जिनमें से प्रत्येक में चार लोग होते हैं। औसतन, सबसे छोटी समाजसेवी संस्थाएं किसी भी समय 15-20 सामुदायिक मोबिलाइज़र के साथ काम करती हैं, एसटीसी जैसी बड़ी समाजसेवी संस्थाएं 600-800 फ्रंटलाइन श्रमिकों के साथ काम कर सकती हैं, जबकि केयर जैसी बड़ी समाजसेवी संस्थाओं के पास लगभग 4,000 लोग उनके फ्रंटलाइन कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं।

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मध्य प्रदेश में आदिवासियों को उनके वन अधिकार क्यों नहीं मिल पा रहे हैं?

मध्य प्रदेश, देश की सबसे अधिक अनुसूचित जनजाति आबादी वाला राज्य है। आमतौर पर आदिवासी समुदायों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती-किसानी और जंगलों से मिलने वाले उत्पाद (वनोपज) होते हैं। लेकिन बीते कुछ समय से जनजातियों लिए जंगल के जरिए अपनी आजीविका को चला पाना उतना आसान नहीं रह गया है। राज्य में आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासी, पीढ़ियों से वन भूमि पर खेती करते आ रहे हैं और कई साल पहले उन्हें इसका अधिकार देने वाला क़ानून – वन अधिकार अधिनियम – भी बन गया है। फिर भी ये लोग बीते कई सालों से अपने वन अधिकारों के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।

वन अधिकार अधिनियम, 2006 (एफआरए) के तहत आदिवासी और वन-निवासी समुदाय, वनों पर व्यक्तिगत अधिकार, सामुदायिक अधिकार और अन्य वन अधिकारों का दावा कर सकते हैं। इसके लिए उनका 13 दिसंबर, 2005 या उससे पहले से इस वन भूमि पर काबिज होना एकमात्र शर्त है। इसके तहत, एक आदिवासी परिवार अधिकतम 10 एकड़ जमीन के लिए दावा कर सकता है। इन दावों की जांच पहले ग्रामसभा, फिर उप-विभागीय स्तर और जिला स्तर पर की जाती है। यदि दावे को निरस्त किया जाता है तो इसका कारण दर्ज कर दावेदारों को सूचित किया जाता है ताकि वे इसके खिलाफ अपील कर सकें।

एफआरए में समस्या शुरू कहां से होती है?

साल 2008 में वन्यजीवों के संरक्षण के लिए काम करने वाले तीन संगठनों ‘वाइल्डलाइफ ट्रस्टी’, ‘नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी’ और ‘टाइगर रिसर्च एंड कंजर्वेशन ट्रस्ट’ ने एफआरए की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी। इस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने सभी राज्यों को निर्देश जारी किए कि वे उन सभी लोगों को वन भूमि से बेदखल कर दें जिनके दावे खारिज किए जा चुके हैं। इस आदेश के चलते देशभर के 20 राज्यों में 1,191,273 आदिवासी बेघर होने की कगार पर आ गए। लेकिन जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) की याचिका के चलते कोर्ट ने दो सप्ताह बाद ही बेदख़ली के आदेश पर रोक लगा दी और सभी राज्यों को एफआरए के दावों की जांच दोबारा करने के निर्देश दिए।

इसी क्रम में, मध्य प्रदेश सरकार ने दिसंबर 2019 में एफआरए के तहत निरस्त किए गए दावों की समीक्षा करने और उनके निराकरण की प्रक्रिया को सरल बनने के लिए मप्र वनमित्र पोर्टल और मोबाइल एप लॉन्च किया था। यह पोर्टल आदिवासी समुदायों की सुविधा के लिए बनाया गया था लेकिन अब इससे उन्हें फ़ायदे की बजाय नुकसान ज्यादा हो रहा है। इस पोर्टल के जरिए मिलने वाले दावों में से 51 प्रतिशत दावों को ख़ारिज कर दिया गया है।

वन अधिकारों को हासिल करने का संघर्ष कई सालों से चल रहा है क्योंकि ज्यादातर आवेदन बार-बार ख़ारिज हो जाते हैं। | चित्र साभार: पिक्सहाइव

दावा ख़ारिज होने के नुकसान क्या हैं?

मंडला जिले के मोहगांव ब्लॉक के 12 गांवों में आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी अपने वन अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दिसंबर, 2022 में यहां के 300 से अधिक आदिवासियों ने एक अभियान चलाकर कलेक्टर को व्यक्तिगत ज्ञापन दिया है। इसमें शामिल रहे सियाराम झारिया कहते हैं कि ‘मैं जब पैदा भी नहीं हुआ था, तब से करीब आठ एकड़ की इस जमीन पर मेरा परिवार किसानी कर रहा है और यह जमीन ही मेरी एक मात्र आजीविका है।’ उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए सहदेव भवेदी कहते हैं कि ‘हमारी सरकार से मांग है कि वो हमारी जमीन का पट्टा बनाए, पट्टा नहीं होने पर किसी भी तरह की योजना का लाभ नहीं मिल पाता है। दूसरी तरफ वन विभाग की टीम भी मनमानी कार्रवाई करती है। इससे हमें काफी नुकसान होता हैं, हमें न पीएम-सीएम सम्मान निधि मिलती है और न ही खाद-बीज आदि पर सब्सिडी मिल पाती है। इतना ही नहीं हमें बिजली कनेक्शन भी नहीं मिल सका है।’

संघर्ष इतना लंबा क्यों चला?

वन अधिकारों को हासिल करने का संघर्ष कई सालों से चल रहा है क्योंकि ज्यादातर आवेदन बार-बार ख़ारिज हो जाते हैं। आवेदनों के ख़ारिज होने की समस्या कुछ इस तरह है कि बुरहानपुर जिले के सुनोद गांव में रहने वाली भिलाला जनजाति की 75 वर्षीय तुलसिया बाई वनभूमि के अधिकार के तीन बार व्यक्तिगत दावे कर चुकी हैं। वे बताती हैं कि उन्होंने पहली बार 2010 में और दूसरी बार 2013 में ऑफलाइन आवेदन, और फिर 2020 में वनमित्र पोर्टल से ऑनलाइन आवेदन किया था। ये सब रद्द किर दिए गए। 90 बरस के तुकाराम का भी यही क़िस्सा है जो अपनी आठ एकड़ जमीन के लिए बीते दस सालों से सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं। वे कहते हैं कि ‘साल 2013 में मेरे आवेदन को उप-मंडल स्तरीय समिति (एसडीएलसी) द्वारा निरस्त किया गया। वनमित्र पोर्टल से उम्मीद थी पर कुछ नहीं हो सका। मेरा बीस लोगों का परिवार अगर जमीन से बेदख़ल हो गया तो उनके पास कमाने का कोई साधन नहीं रह जाएगा।’ भिलाला के अलावा, बुरहानपुर में रहने वाली अन्य जनजातियों भील, बरेला, गोंड और कोरकू की भी यही स्थिति है।

वन अधिकार कानून एक आदिवासी परिवार को 10 एकड़ तक जमीन का दावा करने का अधिकार देता है।

बुरहानपुर जिले की नेपानगर तहसील की सिवले, ग्राम पंचायत की वन अधिकार समिति (वनाधिकार दावों की भौतिक सत्यापन करने वाली समिति का पहला स्तर) के सचिव अंतराम अवासे बताते हैं कि ‘पंचायत सचिव (ग्रामसभा द्वारा निर्वाचित वन अधिकार समिति के सदस्य) को तालुकदार और वन विभाग के बीट गाइड के साथ दावे की भौतिक जांच के लिए क्षेत्र का दौरा और उसका सत्यापन करना होता है, लेकिन ज्यादातर बार वे ऐसा नहीं करते हैं। ग्रामसभा को इसकी जानकारी भी नहीं देते हैं। इतना ही नहीं, वे अपनी आधिकारिक यूजर आईडी से पोर्टल पर लॉगिन कर नकली प्रस्ताव और पुराने फोटो अपलोड कर दावे खारिज कर देते हैं।’

दूसरे पक्ष पर गौर करें तो सिवले पंचायत के सचिव सुनील पटेल इन तमाम बातों से इनकार करते हुए कहते हैं कि ‘अधिकतर दावे निरस्त होने के पीछे जमीन का खेल होता है। वन अधिकार कानून एक आदिवासी परिवार को 10 एकड़ तक जमीन का दावा करने का अधिकार देता है। लेकिन आदिवासी परिवार जंगल काटकर 20 से 25 एकड़ या उसे ज्यादा की जमीन पर काबिज हो जाते हैं। फिर जब वे दावा करते हैं तो उन्हें नियम की जानकारी मिलती है। नियमों के मुताबिक उस परिवार को 10 एकड़ जमीन का अधिकार मिलने के बाद भी वे उसे छोड़ना नहीं चाहते और परिवार के दूसरे सदस्य के नाम से दावा करते हैं जो ख़ारिज कर दिया जाता है।’

आदिवासी कल्याण विभाग, बुरहानपुर के सहायक आयुक्त लखन अग्रवाल बताते हैं कि ‘2019 में सुप्रीम कोर्ट ने 5,944 खारिज (ऑफलाइन) किए गए दावों की दोबारा जांच के आदेश दिए थे। अब नए दावों के चलते पोर्टल पर इनकी संख्या बढ़कर 10,173 हो गई है। इसके बाद जिले में जून 2020 को पोर्टल बंद कर दिया गया।’

टाइटल डीड का लंबा इंतजार

लेकिन लड़ाई केवल आवेदन स्वीकार हो जाने पर खत्म नहीं हो जाती है। वन अधिकार अधिनियम के दावों की जांच के लिए ग्रामसभा, उप-विभागीय स्तर और जिला स्तर पर की जाती है। यदि दावे को निरस्त किया जाता है तो इसका कारण दर्ज कर दावेदारों को सूचित भी किया जाता है, ताकि वे इसके खिलाफ अपील कर सकें। लेकिन बीते कुछ समय से देखा जा रहा है कि प्रदेश में अक्सर दावेदारों को यह मौक़ा नहीं दिया जा रहा है यानी उन्हें दावा निरस्त होने की सूचना तक नहीं दी जा रही है। यहां तक कि जिन लोगों का नाम एफआरए के अनुसार व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) दावा स्वीकार भी कर लिया गया है, उन्हें एक और समस्या का सामना करना पड़ रहा हैं –  उन्हें टाइटल डीड की कॉपी नहीं मिल रही है।

टाइटल डीड हासिल करना भी लोगों के लिए एक अलग संघर्ष है। टाइटल डीड एक ऐसा दस्तावेज है जो आदिवासियों या किसी भी भूमि मालिक को उसकी जमीन पर पूरा अधिकार देता है। ये अधिकार उन्हें भूमि के मनचाहे उपयोग और विभिन्न सरकारी योजनाओं के योग्य बनाते हैं। विदिशा जिले में, गंजबासौदा तहसील के लमन्या गांव में रहने वाले रतन सिंह बताते हैं कि साल 2009 में किसी सरकार कार्यक्रम में उन्हें और 28 अन्य आदिवासियों को मुख्यमंत्री से एक पत्र मिला था। वे कहते हैं कि ‘हम कृषि संबंधित सभी योजनाओं का लाभ पाने के हकदार हैं क्योंकि हमें कुछ साल पहले वन भूमि अधिकार के नाम पर एक सरकारी पत्र दिया गया था। लेकिन आज तक खेती से संबंधित किसी भी योजना का लाभ हमें नहीं मिल सका है।’

दरअसल, रतन सिंह को मुख्यमंत्री से मिलने वाला पत्र टाइटल डीड नहीं बल्कि एक शुभकामना पत्र जिसमें लिखा है कि वे जंगल के हक़दार है। यह समस्या अकेले रतन सिंह की नहीं हैं बल्कि ऐसे तमाम लोगों की है जिन्हें वन अधिकार के लिए पात्र घोषित किया गया है लेकिन टाइटल डीड की कॉपी नहीं सौंपी गई है। इस वजह से वे अधिकार हासिल करने के बाद भी कई बार न तो भूमि का उपयोग कर पाते हैं और न ही सरकारी योजनाओं के लाभ ले पाते हैं क्योंकि उन्हें पता ही नहीं होता कि कहां पर और कौन सी जमीन उन्हें आवंटित की गई है। बिना कानूनी हक के उनके लिए खेती करना मुश्किल होता जा रहा है। रतन सिंह कहते है, ‘हमें कुएं-पंप और खाद के लिए सब्सिडी नहीं मिल सकती हैं, हम प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए आवेदन भी नहीं कर सकते हैं। इतना ही नहीं हमें तो पीएम-सीएम किसान सम्मान निधि योजना का लाभ भी नहीं मिल रहा हैं।’

रतन सिंह के पड़ोस में रहने वाली तुलसाबाई औतार और अन्य आदिवासी भी यह दोहराते दिखते हैं कि उन्हें वन अधिकार पत्र तो मिले हैं, लेकिन वे उनके किसी काम के नहीं हैं। तुलसाबाई के मुताबिक ‘इस पत्र में कहीं पर भी यह नहीं लिखा कि हमें कितनी जमीन का अधिकार दिया गया है, इसकी वजह से किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल रहा हैं।’ वहीं, बड़वानी जिले की ग्राम पंचायत सिदड़ी ग्राम खड़क्यामूह फूलवंती बाई कहती हैं कि ‘मेरा 6 एकड़ जमीन का दावा साल 2020 में मंजूरी हो चुका हैं लेकिन मुझे अभी दावा पत्र नहीं मिला है। वे अफसोस जताते हुए कहती हैं कि ‘जब तक हमारे पास कागज नहीं होंगे, हम प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत कुआं नहीं खोद सकते या घर के लिए आवेदन नहीं कर सकते। इसकी वजह से सब कुछ अटका हुआ है।’

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एफसीआरए क्या है और समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह महत्वपूर्ण क्यों है?

विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम या एफसीआरए भारतीय संविधान का वह अधिनियम है जो किसी व्यक्ति या संगठन या कंपनी को विदेशों से मिलने वाले सहयोग या आर्थिक सहायता को विनयमित (नियंत्रित) करता है।1 यह किसी ऐसे सहयोग को स्वीकार करने और उसका उपयोग करने से रोकता है जो राष्ट्रहित में नुक़सानदेह साबित हो सकते हैं। यह अधिनियम इससे संबंधित सभी गतिविधियों की निगरानी करता है। सरल शब्दों में, एफसीआरए भारत में विदेशी योगदान या सहायता के प्रवाह को नियंत्रित करता है। इस क़ानून को गृह मंत्रालय द्वारा लागू किया जाता है। 

एफसीआरए भारत में विदेशी योगदान या सहायता के प्रवाह को नियंत्रित करता है।

अधिनियम का उद्देश्य विदेशी संगठनों (ताक़तों) को भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक विमर्श पर हावी होने देने और उन्हें प्रभावित करने से रोकना है। ऐसे कुछ प्रभावों के उदाहरण हैं: भारत में धर्मांतरण कार्यक्रम चलाने वाले धार्मिक समूह, या बड़े बांधों या परमाणु संयंत्रों के खिलाफ विरोध करने वाले भारतीय कार्यकर्ताओं को धन देने वाले संगठन। एफसीआरए कुछ खास लोगों और संस्थाओं को कोई भी विदेशी सहायता स्वीकार करने से रोकता है। इनमें मुख्यरूप से राजनीतिक दल, सरकारी कर्मचारी, प्रिंट या विज़ुअल मीडिया आउटलेट इत्यादि शामिल हैं। जिन कंपनियों को विदेशी धन प्राप्त करने की अनुमति है, वे पंजीकरण प्राप्त करने के बाद ही ऐसा कर सकती हैं।यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारतीय व्यवसायों के लिए वस्तुओं या सेवाओं के भुगतान के रूप में देश में आने वाले विदेशी धन को एफसीआरए के दायरे से बाहर रखा गया है।

एफसीआरए का इतिहास क्या है?

एफसीआरए को पहली बार, संसदीय चुनावों में विदेशी फंड के संभावित उपयोग पर हुए विवाद के बाद साल 1976 में लागू किया गया था। मूल अधिनियम में समाजसेवी संगठनों को स्वतंत्र रूप से विदेशी दान प्राप्त करने की अनुमति दी गई थी, लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी वार्षिक आय और व्यय की राशि का ब्यौर देना अनिवार्य कर दिया गया था।

साल 1984 में, समाजसेवी संस्थाओं को प्राप्त धन के प्रवाह को बेहतर तरीके से विनियमित करने के लिए इस कानून में संशोधन किया गया। इस संशोधन के बाद, संगठनों और संस्थाओं के लिए किसी भी प्रकार की विदेशी सहायता प्राप्त करने से पहले पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया गया। इसके साथ ही, इस बदलाव के बाद से वे विदेशी सहायता के रूप में प्राप्त धन को किसी अन्य ग़ैर-पंजीकृत संस्था या संगठन को भी नहीं दे सकते हैं। इस संशोधन के पीछे, सरकार का यह मानना था कि कुछ समाजिक संगठनों का उपयोग विदेशी संस्थाओं द्वारा भारतीय राजनीतिक दलों को धन मुहैया कराने के लिए किया जा रहा था।

लगभग 20 साल बाद, सरकार ने मूल बिल में छूट गई कुछ कमियों को दूर करने के लिए एफसीआरए को फिर से तैयार करने की प्रक्रिया शुरू की। विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 – जो अब भी प्रभावी है – मई 2011 में अपनाया गया था। नए अधिनियम में कई नए प्रावधान और नियम शामिल किए गए हैं। उदाहरण के लिए, 1976 का अधिनियम मीडिया संस्थानों की बात करते समय केवल समाचार पत्रों को ही शामिल करता है। लेकिन 2010 अधिनियम में मीडिया के नये और आधुनिक रूपों जैसे कि टेलीविज़न और इंटरनेट का भी उल्लेख किया गया है। इस अधिनियम के तहत कोई भी संगठन को अपनी कुल प्रशासनिक लागत का 50 फ़ीसद से अधिक विदेशी सहायता हासिल या उपयोग नहीं कर सकता है।

एफसीआरए भारतीय समाजसेवी संस्थाओं को कैसे प्रभावित करता है?

1984 के संशोधन के बाद एफसीआरए को अब समाजसेवी संस्थाओं पर नज़र रखने वाला वाला कानून माना जाता है। हालांकि संभव है कि संशोधन या साल 2010 के नए अधिनियम के पीछे का मुख्य उद्देश्य यह न हो, लेकिन एफसीआरए विभाग अपने कुल समय का एक बड़ा हिस्सा समाजसेवी संगठनों से निपटने में ही खर्च करता है।

एफसीआरए के मुताबिक निश्चित सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक या सामाजिक गतिविधियों में संलग्न कोई भी संगठन विदेशी योगदान तभी स्वीकार कर सकता है, जब वह केंद्र सरकार से पंजीकरण प्रमाणपत्र प्राप्त कर ले। प्रत्येक समाजसेवी संस्था को एक एफसीआरए पंजीकरण संख्या दी जाती है। 2015-16 में, भारत में 23,802 एफसीआरए-पंजीकृत समाजसेवी संस्थाएं थीं। भारत में समाजसेवी संस्थाओं द्वारा किया जाने वाले लगभग सभी काम ऊपर बताई गई पांच श्रेणियों में से एक में आते हैं। लेकिन स्वास्थ्य, खेलकूद या विज्ञान जैसे कुछ विषयों को इस सूची में शामिल नहीं किया गया है।

इस बात को लेकर भी किसी तरह की स्पष्टता नहीं है कि एफसीआरए इन और अन्य गैर-सूचीबद्ध क्षेत्रों में काम करने वाली समाजसेवी संस्थाओं पर लागू होता है या नहीं। समाजसेवी संस्थाओं पर एफसीआरए का एक दूसरा प्रभाव यह भी है कि अब सभी समाजसेवी संस्थाओं के लिए वार्षिक रिटर्न दाखिल करना अनिवार्य कर दिया गया है। विदेशी दान प्राप्त करने की अनुमति प्राप्त किसी संगठन के लिए विदेशों से प्राप्त योगदानों के लिए अलग से खाता बनाना आवश्यक है। उन्हें एक चार्टर्ड अकाउंटेंट द्वारा प्रमाणित वार्षिक रिटर्न जमा करना होगा, जिसमें विदेशी योगदान की प्राप्ति और उद्देश्य-वार उपयोग का विवरण देना होगा। वार्षिक रिटर्न दाखिल न करने वाली संस्था या संगठन पर जुर्माना लग सकता है या पंजीकरण रद्द हो सकता है।

रैक में रखी कुछ पुरानी फाइल_एफसीआरए विदेशी फंडिंग
अब सभी समाजसेवी संस्थाओं के लिए वार्षिक रिटर्न दाखिल करना अनिवार्य कर दिया गया है। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

एफसीआरए प्रमाणपत्र प्राप्त करने की आवश्यक योग्यता क्या है?

एफसीआरए प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आवश्यक मानदंड इस प्रकार हैं:

एफसीआरए प्रमाणपत्र प्राप्त करने की वास्तविक प्रक्रिया क्या है?

अकाउंटेबल हैंडबुक एफसीआरए 2010 के लेखक और ऑडिट फ़र्म, ‘संजय आदित्य एंड एसोसिट्स’ के प्रमुख संजय अग्रवाल कहते हैं कि: ‘एफसीआरए पंजीकरण प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए किसी संगठन या संस्था को fcraonline.nic.in पर उपलब्ध FC-3 फॉर्म भरकर ऑनलाइन आवेदन करना होगा। इसमें संलग्न की जाने वाली आवश्यक दस्तावेजों की सूची दी गई है और साथ ही, एक तय शुल्क भी है जिसका भुगतान ऑनलाइन ही करना होगा। इस वेबसाइट पर फॉर्म भरने के तरीक़े के बारे में एक ट्यूटोरियल भी उपलब्ध है।

इसके तुरंत बाद, एफसीआरए विभाग की स्थानीय खुफिया इकाई (एलआईयू) समाजसेवी संस्था से संपर्क करती है और एक क्षेत्रीय जांच और साक्षात्कार को आयोजित करती है। इसमें आमतौर पर 1-4 सप्ताह का समय लगता है, लेकिन कुछ मौक़ों पर 2-3 महीने भी लग सकते हैं। इसके बाद एलआईयू अपनी रिपोर्ट स्टेट ऑफिस को सौंपता है जो आगे फिर इसे विभाग को भेज देता है। इसके बाद पूरी प्रक्रिया थोड़ी धीमी हो जाती है और इसमें 8-12 महीने तक लग सकते हैं। यदि समाजसेवी संगठन के निदेशक नॉन-रेसिडेंट (अप्रवासी) हैं तो उस स्थिति में उस देश में स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से जांच शुरू की जाती है, जिससे प्रक्रिया में देरी हो सकती है। यदि निदेशक विदेशी (या भारतीय मूल के नहीं) हैं तो उस स्थिति में पंजीकरण को तुरंत अस्वीकार कर दिया जाएगा।

एफसीआरए विभाग ने इस प्रक्रिया को सभी के लिए स्पष्ट बनाने के लिए बहुत अधिक मेहनत की है, लेकिन समाजसेवी संस्थाएं अक्सर भ्रमित रहती हैं। उदाहरण के लिए, समाजसेवी संस्थाओं को तीन साल के ऑडिटेड खाते संलग्न करने की आवश्यकता होती है, जिसमें कम से कम 10 लाख रुपये कार्यक्रमों पर खर्च किए गये हों। समाजसेवी संस्थाएं अक्सर प्रशासनिक और वैतनिक खर्चों को कार्यक्रम में किए जाने वाले खर्च के रूप में देखती हैं लेकिन एफसीआरए ऐसा नहीं मानता है। कुछ समाजसेवी संस्थाएं, जिला मजिस्ट्रेट से अनुशंसा प्रमाणपत्र प्राप्त करने का प्रयास भी करती हैं, जबकि इसकी आवश्यकता नहीं होती। अक्सर समाजसेवी संस्थाएं विभाग द्वारा उठाए गये प्रश्नों का उत्तर देने में विफल हो जाती हैं।

एफसीआरए विभाग सभी दिशानिर्देशों को सार्वजनिक करने के पक्ष में नहीं रहता है ताकि शर्तों को नज़रअन्दाज़ ना किया जा सके। उदाहरण के लिए, पहले, समाजसेवी संस्थाएं न्यूनतम गतिविधि के दिशानिर्देशों को पूरा करने के वैकल्पिक समाधान के रूप में नकद दान को दिखा देती थी। लेकिन विभाग अब नक़द दान को नज़रअन्दाज़ कर देता है। कभी-कभी समाजसेवी संस्थाएं यह भी दावा करती हैं कि उनका गठन पंजीकरण के तीन वर्ष पहले हुआ था, लेकिन विभाग अब पंजीकरण तिथि को प्रारंभिक बिंदु मानता है। बोर्ड में रिश्तेदारों का होना, या ऐसे बोर्ड सदस्यों का होना, जो अन्य एफसीआरए-पंजीकृत संगठनों के बोर्ड में भी हों, को उचित नहीं माना जाता है, लेकिन ऐसा संभव है कि समाजसेवी संस्थाओं को इसकी जानकारी न हो।

कुल मिलाकर, यदि समाजसेवी संस्था ने वास्तव में ज़मीन पर काम किया है; इसका कोई राजनीतिक (जिसमें ऊर्जा, पर्यावरण और मानव अधिकार जैसे संवेदनशील क्षेत्र भी शामिल हैं) झुकाव नहीं है; न ही इसके बोर्ड का कोई भी सदस्य पत्रकार, राजनेता या विदेशी नागरिक है; यह किसी विदेशी संस्था की शाखा या उससे नियंत्रित संगठन नहीं है; तब ऐसी स्थिति में इस संस्था को एफसीआरए पंजीकरण मिलने में एक वर्ष का समय लगने की संभावना होती है।’

‘पूर्व अनुमति’ और ‘पूर्व अनुमोदन’ क्या है?

पूर्व अनुमति

यह समाजसेवी संस्थाओं के लिए एकमुश्त विदेशी दान प्राप्त करने का प्रावधान है। ऐसे संगठन जो तीन वर्ष से कम पुराने हैं, जिनके पास एफसीआरए पंजीकरण नहीं है, या उनका पंजीकरण रद्द या निलंबित कर दिया गया है, वे पूर्व अनुमति प्रमाणपत्र के लिए आवेदन कर सकते हैं। उन्हें अपना उद्देश्य, दानदाताओं के नाम और वे जिस दान की उम्मीद कर रहे हैं उसकी राशि के बारे में जानकारी देनी होगी। संस्थाओं के लिए दाता की ओर से समान विवरणों वाला एक प्रतिबद्धता पत्र भी जमा करना अनिवार्य होता है। यदि बीच में उद्देश्य या दाता में किसी तरह का परिवर्तन होता है तो ऐसी स्थिति में अनुमति रद्द हो जाती है और उसे फिर से प्रमाणित करना पड़ता है।

एफसीआरए प्रमाणपत्र की तुलना में पूर्व अनुमति प्राप्त करना अक्सर अधिक कठिन हो सकता है, क्योंकि इस मामले में दाता संगठन की भी जांच की जाती है। भारतीय समाजसेवी संस्था और विदेशी दाता (उदाहरण के लिए, एक सामान्य बोर्ड सदस्य या कर्मचारी) के बीच पाया गया कोई भी संबंध एक खतरे का संकेत है।

पूर्व अनुमति पर निर्णय देने में सरकार को आमतौर पर आठ से पंद्रह महीने का समय लगता है। इससे यह सुनिश्चित करने में अतिरिक्त कठिनाई होती है कि आवेदन करने से लेकर उसके स्वीकार होने तक की पूरी प्रक्रिया के दौरान दाता आर्थिक मदद देने के लिए राज़ी रहे।

पूर्व अनुमति के लिए आवेदन करने वाली समाजसेवी संस्थाओं की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है जो 2003 में 604 समाजसेवी संस्थाओं से घटकर 2017 में नौ हो गई है।

पूर्व अनुमोदन

यह एक सूची है जिस पर केंद्र सरकार एक विदेशी दाता को रख सकती है। इस सूची में शामिल लोगों को किसी भारतीय समाजसेवी संस्था को दिये जाने वाले प्रत्येक दान के लिए सरकार की मंजूरी लेनी होगी। पूर्व अनुमोदन सूची में लगभग 20 दानदाता हैं। शोध में पाया गया है कि सूची में शामिल दानदाताओं द्वारा कम संख्या में समाजसेवी संस्थाओं को फंड दिया जाता है। इसके अलावा, इन दानदाताओं द्वारा किए गए दान की मात्रा 2012-13 में 327 करोड़ रुपये से गिरकर 2016-17 में 49 करोड़ रुपये रह गई है।

भारत में समाजसेवा के लिए विदेशों से कितना धन आता है?

2015-16 में, भारतीय समाजसेवी संस्थाओं को 17,620 करोड़ रुपये का विदेशी दान मिला था। यह आंकड़ा पिछले साल के मुकाबले 16 फीसद ज्यादा था। यह आंकड़ा भारतीय राज्यों के बीच विदेशी दान के असमान वितरण को दर्शाता है। 2016-17 में प्राप्त सभी विदेशी फंडों का 59 फ़ीसद दिल्ली, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र में वितरित किया गया था2, जो कुल एफसीआरए-पंजीकृत समाजसेवी संस्थाओं का 38 फ़ीसद और देश की आबादी का केवल 16 फ़ीसद है। इसके अलावा, पिछले आठ वर्षों में औसतन भारत में एफसीआरए पंजीकृत समाजसेवी संस्थाओं में से 45 फ़ीसद संस्थाओं को एफसीआरए फ़ंडिंग नहीं मिली है। 2016-17 में, शीर्ष 20 प्राप्तकर्ता सभी समाजसेवी संस्थाओं के केवल 0.1 फ़ीसद थे, लेकिन उन्हें लगभग 15 फ़ीसद विदेशी दान प्राप्त हुआ।

जैसा कि ऊपर बताया गया है, समाजसेवी संस्थाएं पांच सूचीबद्ध उद्देश्यों में से एक के तहत विदेशी दान प्राप्त करने के लिए अपना पंजीकरण करवाती हैं। 2015 से 2017 तक के आंकड़ों से पता चलता है कि सबसे अधिक 59 फीसदी दान ‘सामाजिक’ श्रेणी के तहत लिया गया था।

एफसीआरए से जुड़े विवाद की जड़ें क्या हैं?

संजय अग्रवाल कहते हैं: ‘पहली बात तो यह है कि सभी राजनीतिक दल आम तौर पर गैर-लाभकारी संस्थाओं में विदेशी योगदान के खिलाफ हैं – यह सरकारी नीति में भी स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, वामपंथी शासन के दौरान विदेशी मदद प्राप्त समाजसेवी संस्थाओं के लिए पश्चिम बंगाल और केरल में संवेदनशील मुद्दों पर काम करना मुश्किल हो गया था।’ कुछ लोग तर्क देते हैं कि वर्तमान सरकार लोक-लुभावन काम करना चाहती है और इसीलिए विदेशी वित्त पोषित संगठनों और एफसीआरए समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई की जा रही है।

सरकार ने एफसीआरए से जुड़े चार काम किए:

निष्क्रिय एफसीआरए पंजीकरणों को थोकभाव में रद्द किया गया है जिसे कुछ लोग राजनीति से प्रेरित मानते हैं। इसे मीडिया ने भी खूब उछाला है जबकि यह लगभग 25 वर्षों से चल रहा है। समाजसेवी क्षेत्र भी इस बहस में शामिल हो गया है। सामाजिक क्षेत्र में भी यह धारणा है कि एफसीआरए फंडिंग में भारी गिरावट आई है जबकि वास्तव में, तथाकथित कार्रवाई के बावजूद, विदेशी फंड पिछले 3-4 वर्षों में बढ़े ही हैं।

कुल मिलाकर, नियामक और विनियमित के बीच इन मुद्दों को लेकर मुक्त और समझदारी भरी बातचीत न के बराबर हुई है। मीडिया ने भी या तो इस मुद्दे का राजनीतिकरण किया है या फिर उसका उद्देश्य इसे महज़ सनसनीख़ेज़ बनाना ही रहा है।’

इसका भारत में समाजसेवी संस्थाओं पर क्या प्रभाव पड़ा है?

2011 में विदेशी मदद हासिल करने वाली समाजसेवी संस्थाओं के लिए नए नियम निर्दिष्ट किए जाने के बाद, सरकार द्वारा कई एफसीआरए पंजीकरण रद्द कर दिए गए थे। इसके पीछे के प्राथमिक कारण के रूप में यह बताया गया कि संस्थाएं व्यय रिपोर्ट को समय-समय पर दाखिल करने जैसे नियमों का अनुपालन नहीं कर रही थीं।

हालांकि, समाजसेवी संस्थाएं इसे असहमति या विरोध पर प्रतिबंध लगाने के प्रयास के रूप में देखती हैं। मानव अधिकार संगठनों को इन रद्दीकरणों का खामियाजा भुगतना पड़ा, क्योंकि उनके काम को ‘राजनीतिक’ वर्ग में रखा गया और इसलिए वे विदेशी दान पाने के लिए योग्य नहीं थे।

2014 में, इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट में कहा गया कि विदेशी फंड द्वारा संचालित समाजसेवी संस्थाएं भारत में ‘आर्थिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं।’ रिपोर्ट में  ग्रीनपीस नाम की एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समाजसेवी संस्था को ‘राष्ट्रीय आर्थिक सुरक्षा के लिए ख़तरा’ बताया गया है। इसमें कहा गया है कि यह संगठन परमाणु और कोयला बिजली संयंत्रों जैसी परियोजनाओं का विरोध करके भारत की आर्थिक प्रगति को प्रभावित कर रहा है। इसके कारण ग्रीनपीस के एफसीआरए पंजीकरण को पहले निलंबित और फिर रद्द कर दिया गया और उसे किसी भी प्रकार के विदेशी दान को प्राप्त करने से रोक दिया गया।

हाल ही में, अमेरिका-आधारित ईसाई धर्माथ संगठन और कभी भारत में सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय दानदाता रहे- कंपैशन इंटरनैशनल (सीआई) को सरकार की पूर्व अनुमोदान सूची में रखा गया था। अब उन्हें भारत में किसी भी प्रकार के दान के लिए अनुमति लेनी होगी। 2017 तक सीआई द्वारा किए गए दान में लगातार गिरावट देखी गई और उसके बाद सीआई ने भारत में अपने संचालन को पूरी तरह से बंद कर दिया।

अगले कुछ वर्षों में एफसीआरए को लेकर किस तरह का माहौल रहेगा?

संजय अग्रवाल कहते हैं कि ‘अगले कुछ वर्षों में व्यापक सरकारी नीतियों में बदलाव की संभावना नहीं है। उनका प्रभाव पहले ही कुछ हद तक समाजसेवी संस्थाओं पर पड़ चुका है। कम से मध्यम समयावधि में, आंशिक रूप से विनिमय दर में आने वाले बदलाव के कारण विदेशी फ़ंडिंग में वृद्धि आएगी और यह स्थिर गति से बढ़ता रहेगा। हालांकि, विदेशी फ़ंडिंग का एक हिस्सा कम मीडिया एक्टिविज्म के साथ सरल और साधारण उद्देश्यों के लिए काम करेगा ताकि अत्यधिक जांच से बचा जा सके। लंबे समय में, ऐसी संभावना है कि विदेशी अंशदान अप्रासंगिक हो जाए क्योंकि संभव है कि स्थानीय या सीएसआर फ़ंडिंग इनकी जगह ले ले।’

फुटनोट:

1. फ़ॉरेन हॉस्पिटैलिटी (विदेशी सहयोग) विदेशी योगदान का एक वैकल्पिक रूप है, जिसमें एक विदेशी संस्था किसी व्यक्ति की मेजबानी करती है। साथ ही, उनकी यात्रा, लॉज, चिकित्सा उपचार आदि के खर्च का वहन करती है। यह किसी विधायिका के सदस्यों, न्यायाधीशों या जैसे लोगों पर लागू होता है और संभव है कि समाजसेवी संगठनों के लिए प्रासंगिक न हो।
2. इसका मुख्य कारण यह है कि कई दान एजेंसियां दिल्ली, चेन्नई, बंगलुरु और मुंबई में स्थित हैं। ये अन्य राज्यों में फंड को फिर से आवंटित करती हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

लेख में दिए गए सभी आंकड़े अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फिलैंथ्रोपी (सीएसआईपी) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘एस्टिमेटिंग फ़िलंथ्रोपिक कैपिटल इन इंडिया‘ से लिए गए है।

इस लेख में साहिल केजरीवाल ने भी अपना योगदान दिया है।

सागर को गागर

चित्रण में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर जमीनी समझ और सलाहकारों का ज्ञान कई बार मेल नहीं खाते हैं। एक वर्ष का काम का अनुभव वाला हॉर्वर्ड का एक स्नातक, जीवन भर के अनुभव और स्थानीय ज्ञान वाले किसानों को जैविक खेती के बारे में पढ़ाते हुए_जलवायु
चित्र साभार: शौर्य दुबे

कैसे समाजसेवी संगठन अपनी कहानी सकारात्मकता से कह सकते हैं? 

पिछले 30 वर्षों से विकलांगता पर काम कर रहे एक संगठन के रूप में, लतिका खूबियों पर ज़ोर देने वाले नज़रिए (स्ट्रेंथ-बेस्ड अप्रोच) के साथ काम करती है: जब हम विकलांग बच्चों और उनके परिवारों से मिलते हैं तो हम इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि उनके मामले में सकारात्मक पहलू क्या हैं। फिर उस पर काम करते हैं। हम कभी भी समस्या के साथ आगे नहीं बढ़ते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि हम समस्या को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यहां पर हम इस बात का दिखावा नहीं कर रहे हैं कि बच्चे की समस्या को सकारात्मक रवैये और खिलखिलाती मुस्कान की मदद से दूर किया जा सकता है। दुनिया लोगों को कई तरह से अक्षम महसूस करवाती है और इससे निपटने और परिवारों के आगे बढ़ने के तरीके खोजने में मदद करने के लिए हमारी टीम की ढेरी सारी रचनात्मकता और कौशल लगता है। लेकिन हम ताक़त पर ज़ोर देते हुए कोशिश करना शुरू करते हैं न कि कमियों या चुनौतियों के साथ। 

तो फिर, जब हम अपने काम को फंडर्स या आम जनता के सामने पेश करते हैं तो हम आगे बढ़ने के लिए सबसे बुरे नतीजों की संभावना (वर्स्ट केस सिनारियो) का सहारा क्यों लेते हैं? आपने कितनी बार ऐसे वाक्य पढ़े या लिखे हैं: ‘ऐसी दुनिया में बड़े होने की कल्पना कीजिए, जहां अवसरों की कमी है और आपको उनसे वंचित किया जाता है, इसलिए नहीं क्योंकि आप योग्य नहीं है बल्कि इसलिए क्यों आप एक लड़की के रूप में पैदा हुई हैं!’ हमारी नज़र हमेशा ही इस तरह के जुमलों पर पड़ती है और हम स्वयं भी ऐसी कुछ बातें लिखने के दोषी भी हैं। दरअसल, दुख, आक्रोश और नैतिक श्रेष्ठता की भावना विकास सेक्टर में होने वाले संवादों की पहचान हैं।

एक सेक्टर के रूप में, हमें समस्या बताने के साथ आगे बढ़ने के लिए तैयार किया जाता है। हमारे दानदाता हमें प्रस्तावों और पिच के लिए प्रदान किए गए प्रारूपों में, इस दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हमें प्रशिक्षित करते हैं; फंडरेजिंग के विशेषज्ञ भी ऐसा ही करते हैं। उनकी सलाह होती है कि: अपनी ऑडियंस को समस्या के बारे में जितना सम्भव हो उतना नाटकीय ढंग से बताएं, उसके बाद उन्हें बताएं कि क्यों आप ही इसे ठीक करने वाले हैं।

और, वे ग़लत नहीं हैं। समस्या पर बात करना बहुत प्रभावशाली होता है। मूल मुद्दे पर उनका बहुत अधिक ज़ोर देना यह सुनिश्चित करता है कि समस्या वही है जो हमें बाद में भी याद रह जाएगा। लेकिन ऐसा करना जहां कम समय के लिए कारगर हो सकता है, वहीं हमारे उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करता है। अपनी कहानियों को स्पष्ट, काले और सफेद शब्दों में तैयार करके, हम उन लोगों के साहस और क्षमताओं को नजरअंदाज कर देते हैं जिनके साथ हम काम करते हैं। ऐसा करके हम इस बात से भी इनकार कर देते हैं कि पहले से ही कितना कुछ बदल चुका है जिसमें बहुत कुछ अच्छा भी है।

विकल्प

अमेरिका स्थित सामाजिक उद्यमी और लेखक ट्रैबियन शॉर्टर्स लोगों का परिचय उनकी सीमाओं और समस्याओं के आधार पर देने से इनकार करते हैं। लोगों की अक्षमताओं की बजाय उनकी आकांक्षाओं और योगदान पर ध्यान केंद्रित करते हुए काम करने के अपने नजरिए को वे ‘असेट फ़्रेमिंग’ कहते हैं। शॉर्टर्स कहते हैं कि ‘वास्तविकता यही है, हम सभी को एक ही चीज़ चाहिए। और, दुखभरी कहानियां और कलंक के भाव हमें एक-दूसरे की उपयोगिता देखने से रोक देते हैं। सामाजिक कार्य करने वालों की जिम्मेदारी है कि इस भावना को मजबूत न होने दें।’ वे आगे कहते हैं कि ‘हमें एक ऐसे नरेटिव की जरूरत है जो कहता है कि वास्तव में हम सभी के साझा हित हैं।’

अब, इस बात पर गौर करें कि कैसे 2016 में विकलांगजन सशक्तीकरण विभाग (विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण विभाग) का आधिकारिक नाम बदलकर, दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग कर दिया गया। यहां पर विकलांग शब्द को दिव्यांग (दिव्य) से बदल दिया गया। दिव्यांग शब्द के इस्तेमाल के खिलाफ मद्रास उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर (जिसे रद्द कर दिया गया) की गई थी क्योंकि इस मुद्दे पर होने वाली चर्चाओं में विकलांगों को शामिल नहीं किया गया था, और वे नहीं चाहते कि उन्हें किसी ‘दिव्य व्यक्ति’ के रूप में देखा जाए।

लेकिन, सवार यह है कि सशक्तीकरण की शुरुआत उन्हें ‘दिव्य’ कह कर क्यों की जानी चाहिए? ऐसा करना विकलांगों को एक उंचा स्थान तो देता है लेकिन साथ ही उन्हें उन अधिकारों और विशेषाधिकारों से बाहर कर देता है जिन्हें सक्षम शरीर वाले या सामान्य बुद्धिक्षमता लोग अपना अधिकार मानते हैं। ‘साझा हितों’ से शॉर्टर्स का तात्पर्य शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और सार्वजनिक स्थानों तक बराबर पहुंच से है – वर्तमान में ये सभी विकलांगों की पहुंच से बाहर हैं।

उन्हें ‘दिव्य’ की उपाधि देने की बजाय, इस बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि कैसे हमारे आसपास का माहौल उन्हें हमसे अलग करता है, हमें इन बाधाओं को दूर करने पर काम करना चाहिए। नजरिए में यह बदलाव, नई समझ देता है और हम अपनी योजना, फंडिंग और उद्देश्य पर भरोसा हासिल करने के तरीके बदलते हैं।

भूरे रंग की पृष्ठभूमि पर दो काले माइक_सामाजिक संस्था संचार
एक क्षेत्र के रूप में, हमें समस्या कथन के साथ आगे बढ़ने के लिए तैयार किया गया है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

हम समस्याओं के साथ आगे क्यों बढ़ते हैं?

समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने की अपनी आदत को तोड़ने पर विचार करते समय हमें यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए कि हम में से अधिकांश लोगों को एक तबके को कमतर बताने वाली यह सोच (डेफिसिट थिंकिंग) क्यों पसंद है।

1. तथ्यों की बजाय धारणाओं को प्राथमिकता: फंड रेज करने और जागरूकता बनाने के लिए नकारात्मक चीजों पर ध्यान केंद्रित करना आसान होता है – क्योंकि हमें ऐसा करने का ही प्रशिक्षण दिया गया है। लेकिन जब हम ऐसा करते हैं, तब हम यह देखने में असफल हो जाते हैं कि वह कौन सी चीज है जो कारगर साबित हो रही है। उदाहरण के लिए, इस तथ्य को लें कि भारत में जीवन प्रत्याशा और बाल मृत्यु दर में सुधार हुआ है।

2. हमें अपने हिस्से की ही मदद मिल पाएगी: चाहे हमारा कारण कुछ भी हो, हम यह मानते हैं कि पैसों और ध्यान के लिए किसी दूसरे समाजसेवी संगठन से हमारी प्रतिस्पर्धा नहीं है। वास्तव में, ऐसी अस्पष्ट तस्वीर बनाने से हमें दानदाताओं, नीति निर्माताओं और आम लोगों के बीच खड़े होने की संभावना अधिक दिखाई पड़ती है।

3. तात्कालिकता: यह हमने विज्ञापन उद्योग से सीखा है— अपने ग्राहकों को इस बात का अहसास दिलाएं कि यदि उन्होंने अभी इसे नहीं ख़रीदा तो कल यह उपलब्ध नहीं रहेगा। संदेश जितना अधिक निराशाजनक होगा, हमारी ऑडियंस द्वारा प्रतिक्रिया देने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।

कहानी में बदलाव

क्या हम अपने समस्या-केंद्रित दृष्टिकोण को भूल सकते हैं? शॉर्टर्स के पास कमतर समझने (डेफिसिट थिंकिंग) से खूबियों पर ज़ोर देने (असेट फ्रेमिंग) की तरफ जाने के लिए एक सरल तीन-सूत्रीय योजना है:

1. यह आपके कहने के बारे में नहीं बल्कि आपके सोचने के तरीक़े से संबंधित है

क्या आप लोगों की क्षमता, उनकी आकांक्षाओं और उनके सपनों को ध्यान में रखते हुए, उन्हें अपने परिवार के किसी बच्चे की तरह देखते हैं? इस बात की कल्पना करना भी महत्वपूर्ण है कि एक बार समस्याओं के हल निकल जाने के बाद दुनिया कैसी हो जाएगी और उन समाधानों के बारे में सोचना भी ज़रूरी है जिससे ऐसा करना सम्भव हो सकेगा। जब कोई विकलांग बच्चा हमारे शुरुआती प्रोग्राम सेंटर ‘नन्हे’ में आता है, तब हम पहले दिन से ही उसे दोस्तों, स्कूल बैग, प्रसन्न माता-पिता के साथ देखते हैं। हम किसी अवास्तविक ‘उपचार’ की तलाश में नहीं है बल्कि एक ऐसे बच्चे की तलाश कर रहे हैं जो अपनी दुनिया में खुशी से रह रहा है, और फिर हम इसे वास्तविक बनाने के लिए काम करते हैं।

2. समस्याओं के साथ शुरुआत न करें

लोगों के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने की आवश्यकता बताना जरूरी है, लेकिन हमारी शुरुआत यहां से नहीं होती है। उदाहरण के लिए, एक बस के लिए फंडरेजिंग करते समय हमने इस बात से अपनी शुरुआत की कि आवागमन की सुविधा की कमी के कारण भारत में बहुत सारे विकलांग बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। इसकी एसेंट-फ़्रेमिंग करने के बाद, हमने इसे इस प्रकार लिखा: ‘विकलांग बच्चों को स्कूल से बहुत प्यार है! दूसरे बच्चों की तरह ही, वे भी दोस्त बनाना, पढ़ना सीखना और खेलना चाहते हैं। लेकिन उनमें से कई बच्चे नियमित रूप से स्कूल नहीं जा सकते क्योंकि परिवहन एक बहुत बड़ी चुनौती है।’

3. लेकिन समस्याओं को नज़रअंदाज़ भी न करें

अगर हम लोगों के सपनों के रास्ते में आने वाली बाधाओं के बारे में ध्यानपूर्वक नहीं सोचते हैं तो हम उनके सामने आने वाली वास्तविक प्रणालीगत चुनौतियों को मौक़ा दे देते हैं। विकलांग बच्चे नियमित रूप से मुख्यधारा के स्कूल में असफल इसलिए नहीं होते क्योंकि वे बेवक़ूफ़ हैं। बल्कि वे इसलिए असफल हो जाते हैं क्योंकि इन स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक उन तरीक़ों से पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं जिनसे इन बच्चों को मदद मिलती है। यह अस्तित्व से नहीं बल्कि प्रणाली से जुड़ी समस्या है। एक बार जब हम प्रणाली में इन समस्याओं की पहचान कर लेंगे, तब हम इसे कम करने की दिशा में काम कर सकते हैं।

संकीर्ण से विस्तृत दृष्टिकोण की ओर

इसलिए बजाय यह कहने के कि ‘ऐसी दुनिया में बड़े होने की कल्पना करें जहां अवसरों की कमी है और आप उससे वंचित हैं, इसलिए नहीं क्योंकि आप काबिल नहीं है बल्कि इसलिए क्योंकि आपका जन्म एक लड़की के रूप में हुआ है!’ हम क्यों न इसे तरह कहें कि “एक कम-आय वाले देश में, 89 फ़ीसद लड़कियां प्राथमिक विद्यालय में नामांकित हैं और ऐसा माना जाता है कि लड़कियों को शिक्षित करना ‘दुनिया के अब तक के सबसे बेहतरीन विचारों में से एक है’। लेकिन प्राथमिक विद्यालय की पढ़ाई पूरी करने और हायर सेकंडरी तथा कॉलेज में नामांकन के मामले में लड़के अब भी लड़कियों से आगे हैं। और, बोर्डरूम में भी लड़कियां अल्पसंख्यक ही बनी हुई हैं। आपके सहयोग से ये लड़कियां अपनी शिक्षा पूरी कर सकती हैं और दुनिया में अपना सही स्थान हासिल कर सकती हैं।”

इस तरह की भाषा का प्रयोग कर, हम समस्या को इस तरह से परिभाषित कर रहे हैं, जो हमारी सामूहिक प्रगति को स्वीकार करने के साथ आज भी मौजूद रह गई समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधान भी सुझाता है।

लेकिन असेट फ़्रेमिंग का संबंध हमारे सोचने के तरीक़े को बदलने से है, न कि हमारे बोलने और लिखने के तरीक़े से, और फिर शब्दों के अपने मायने होते हैं।

लतिका में, कमतर बताने वाली भाषा को खोजते हुए हम अपने ब्रोशर, प्रस्तावों, प्रशिक्षण सामग्री और वेबसाइट का सावधानीपूर्वक अध्ययन कर रहे हैं। यह स्वीकार करना शर्मनाक है कि अपनी इन सामग्रियों में हमें इससे संबंधित कितना कुछ मिला है। एक उदाहरण हम यहां दे रहे हैं: ‘अपनी इच्छाओं और ज़रूरतों को व्यक्त करने में होने वाली कठिनाई, उत्तेजना की स्थिति में संवेदनशीलता और पूर्वानुमान की आवश्यकता से ऑटिस्टिक बच्चों को ऐसी स्थिति में अतिउत्साही महसूस करवा सकती है और परिणामस्वरूप वे मंद हो सकते हैं, जिसे नियंत्रित करना उनके लिए कठिन होता है।” इस पर लंबी और अनगिनत चर्चाओं के बाद, हमें अहसास हुआ कि हम एक महत्वपूर्ण सच से चूक रहे थे। ऑटिस्टिक बच्चों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाएं स्वीकार्य व्यवहार पर हमारे अपने विचारों से निर्धारित होती हैं, फिर भी कई मायनों में, ऑटिस्टिक बच्चे – ‘स्वीकार्यता’ को लेकर कम चिंतित होते हैं- हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। असेट फ़्रेमिंग की मदद से हम यह जान पाए कि हमारे पास सीखने के लिए कितना कुछ बचा है।

आज इसी कथन को मैं इस प्रकार लिखती हूं: ‘ऑटिस्टिक बच्चे अलग और रचनात्मक तरीक़ों से संवाद करते हैं, जिसमें अराजकता और संवेदी बोझ के प्रति तीव्र नकारात्मक प्रतिक्रियाएं शामिल हैं, जिनके प्रति लोगों ने खुद को असंवेदनशील बना लिया है। कई मायनों में, वे खदान में कनारी पक्षी की तरह हैं।’

आइए, एक अच्छे जासूसों की तरह, हम अपनी वेबसाइट, प्रस्तावों, प्रशिक्षण सामग्रियों और दस्तावेज़ों पर और सबसे ज्यादा अपने मन की नकारात्मकता का पता लगाएं। इस प्रक्रिया में हम जो भी सीखते हैं, उसका उपयोग अपनी स्वयं की धारणाओं और निष्कर्षों पर सवाल उठाने के लिए करें। हमें अपने कारणों को इतना गंभीर दिखाना बंद करना होगा जिससे कि लोग निराश हो जाएं और कार्रवाई करने से ही इनकार कर दें।

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बीते तीन महीनों से मणिपुर में हो रही हिंसा के प्रभाव की कहानी

मणिपुर पिछले तीन महीनों से हिंसा की आग में जल रहा है और आज तक भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आ सकी है। इस साल मई महीने की शुरुआत से ही राज्य में हिंसा, विस्थापन, निर्दोष मौतों के साथ आजीविका और संपत्ति को हो रहे नुक़सान ने यहां पर स्थिति को असामान्य बना दिया है। इस आलेख में हम उन संसाधनों और स्त्रोतों की जानकारी दे रहे हैं जिनकी मदद से आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि कई महीनों से लगातार चल रहा यह संघर्ष यहां के लोगों के जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है और आप उनकी मदद के लिए क्या कर सकते हैं।

मणिपुर में हो रही हिंसा से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें

मणिपुर की राजधानी इंफाल के क़रीब, चुराचंदपुर शहर में मैतेई समुदाय और कुकी जनजाति के बीच 3 मई, 2023 को हिंसा भड़क उठी थी। इन झड़पों का तात्कालिक कारण गैर-आदिवासी मैतेई लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की उनकी मांग बताई गई है। मैतेई और कुकी जनजाति के बीच के संबंधों का एक जटिल इतिहास रहा है जो कभी भी मधुर नहीं रहे हैं। जहां एक ओर मैतेई समुदाय के लोग कुकी जनजाति के लोगों को बाहरी और नशीले पदार्थों का तस्कर मानते हैं, वहीं कुकी जनजाति ख़ुद को मैतेइयों द्वारा सताया हुआ मानता है। उनका कहना है कि राज्य में राजनीतिक और प्रशासनिक पदों पर भी उनका ही वर्चस्व है।

पिछले कुछ वर्षों से, दोनों समुदायों के बीच संघर्ष के कई मामले लगातार सामने आते रहे हैं। फ़िलहाल, पूरे राज्य में फैल चुके दंगों और हिंसा के मौजूदा दौर का लोगों के स्वास्थ्य, आजीविका और शिक्षा पर गंभीर प्रभाव पड़ता दिख रहा है।

हिंसा लोगों के जीवन को कैसे प्रभावित करती है?

1. स्वास्थ्य

केंद्र सरकार का दावा है कि राज्य में पीड़ितों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त क्षमता और सुविधाएं उपलब्ध हैं लेकिन कई मीडिया रिपोर्टों में डॉक्टरों और दवाओं की कमी होने की बात बार-बार दोहराई गई है। मणिपुर की स्वास्थ्य प्रणाली में संसाधनों की कमी है। यह अब भी कोविड-19 के असर से निकलने के लिए संघर्षरत है; इसके अलावा समुदायों के बीच बढ़े अविश्वास से लोगों ने ‘अपने लोगों’ के अलावा किसी दूसरे से किसी भी तरह की चिकित्सीय मदद लेना बंद कर दिया है।

इसके अलावा, राज्य की अधिकांश स्वास्थ्य सेवाएं घाटी में स्थित हैं, जिसने पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले कुकी समुदाय के लोगों को इस समय खासतौर पर असुरक्षित कर दिया है। समाजसेवी संस्थाओं द्वारा पहुंचाई जा रही राहत अब बहुत सारे लोगों के लिए एकमात्र समाधान बन गई है, लेकिन इन राहत समूहों को सरकार से सहयोग नहीं मिल पा रहा है। दूसरी तरफ लोगों की मदद करने के लिए, इन राहत कार्यकर्ताओं द्वारा भीड़ की हिंसा और नाकेबंदी से निपटने के भी कई मामले सामने आये हैं। इससे महिलाएं और बच्चे गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं। एक सरकारी अनुमान के मुताबिक “24 जुलाई, 2023 तक, 319 गर्भवती महिलाओं को प्रसवपूर्व जरूरी देखभाल दी गई। इनमें 19 महिलाएं उच्च जोखिम श्रेणी में शामिल थीं, जबकि राज्य में मौजूदा संकट की शुरुआत के बाद से 139 गर्भवती महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया है।”

हालांकि जिस बात का उल्लेख नहीं किया जा रहा है, वह है – महिलाओं और नई मांओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाला हिंसा और तनाव का प्रभाव। अनगिनत महिलाओं ने अपने घरों और अपनों को खो दिया है। वहीं, एक बड़ी संख्या उन महिलाओं की भी है जिन्हें शारीरिक और यौन हिंसा का शिकार होना पड़ा है। असम टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, ‘महिलाओं को विभिन्न स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें स्तनपान कराने के लिए दूध पैदा करने की क्षमता में कमी, स्वच्छता और गोपनीयता की कमी, वृद्ध महिलाओं में गर्मी लगना और अनिद्रा शामिल हैं।

मणिपुर के एक राहत शिविर में मौजूद एक वॉलंटियर अपने अनुभव से कहते हैं कि ‘स्तनपान करवाने वाली ज़्यादातर महिलाओं को स्तनपान के लिए दूध की कमी के अनुभव से गुजरना पड़ा है, संभव है कि बिना उपयुक्त भोजन और अपने घर से नज़दीकी सुरक्षित स्थान तक पहुंचने के लिए की जाने वाली तनावपूर्ण और लंबी यात्रा इसके पीछे का मूल कारण हो।’

इस हिंसा का लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर दीर्घ-कालिक प्रभाव पड़ने वाला है। द नेशनल हेराल्ड ने एक राजनेता एनके प्रेमचंद्रन के हवाले से कहा, “बच्चे इन शिविरों में बड़े हो रहे हैं। वे लगभग तीन महीने से इन शिविरों में हैं। उन्हें लंबे समय तक अपने आस-पास भोजन की कमी और गंदगी से भरा माहौल याद रह जाएगा। छात्रों की स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई छूट रही है और वे अपनी कक्षाओं में उपस्थित नहीं हो पा रहे हैं। इन शिविरों में, शौचालयों की संख्या भी बहुत कम है। चिकित्सा सहायता भी नहीं है। इन सभी शिविरों में चिकित्सीय और मनोवैज्ञानिक मदद की आवश्यकता होगी। लगभग खत्म होने की कगार पर पहुंच चुके जीवन के इस दुखद अनुभव का असर लोगों पर लंबे समय तक रहेगा।

2. आजीविका

मणिपुर में आजीविका का प्राथमिक स्रोत कृषि है। जहां घाटी में रहने वाले समुदाय स्थायी रूप से खेती करते हैं, वहीं पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले लोग स्थानांतरित खेती करते हैं जो उनकी भौगोलिक स्थिति के अनुकूल है। इन पहाड़ी इलाक़ों में घाटी की तुलना में कम उपज होती है, इसलिए यहां बसने वाले लोग घाटियों में होने वाली पर्याप्त से अधिक उपज पर आश्रित होते हैं। ऐसा होना घाटी को आर्थिक व्यापार का केंद्र बनाता है। दंगों के शुरू होने के बाद से यहां के लोगों की आजीविका पर लगातार हमले हुए हैं जिनमें खेती वाली ज़मीन पर आग लगाना और पशुधन की हत्या जैसे कृत्य शामिल हैं।

घाटी में होने वाली खेती पर हिंसा के प्रभाव का विवरण देने वाली एक रिपोर्ट में द क्विंट ने लिखा है कि ‘इस संघर्ष ने राज्य में कृषि प्रथाओं को गंभीर रूप से प्रभावित किया है, जिससे उन्हें न केवल फसल बोने से रोका जा रहा है बल्कि सिंचाई और भंडारण सुविधा प्रणाली को भी संघर्ष ने तहस-नहस कर दिया है। शांति के दिनों में, खेती का काम आमतौर पर जून के पहले सप्ताह में शुरू हो जाता है, लेकिन अगर कुछ मामलों में देरी होती है तो यह महीने के आख़िरी में शुरू हो जाता है। लेकिन इस बार, 8 जुलाई के आसपास सुरक्षाकर्मियों के आने के बाद ही खेती शुरू हो सकी… राज्य के कुछ इलाक़ों से अब भी हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हैं, जिससे किसान खेती को लेकर चिंताग्रस्त हो गए हैं।

न्यूज़लॉन्ड्री के मुताबिक, राजधानी इम्फाल सहित घाटी में काम करने वाले पहाड़ी लोगों को अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। राज्य सरकार के कर्मचारियों को दोहरा झटका तब लगा, जब 27 जून को प्रशासन ने घोषणा की कि यदि कर्मचारी अपने कार्यस्थल पर नहीं लौटे तो उनके वेतन में कटौती की जाएगी। बहुत से लोग अब देश के अन्य हिस्सों में उन जरूरी दस्तावेजों के बग़ैर ही आजीविका के नये स्रोतों की तलाश में लग गये हैं जिन्हें उन्हें घर पर पीछे छोड़ना पड़ गया।

3. शिक्षा

आजीविका की तरह, मणिपुर में अधिकांश छात्रों के लिए शिक्षा भी ठप हो गई है। यह वे छात्र हैं जो महामारी के कारण शिक्षा में आई कमी के बाद हाल ही में स्कूल वापस लौटे थे। स्कूलों को अब छात्रों के लौटने पर उनके मानसिक और वित्तीय संघर्षों का भी ख्याल करना होगा। हालांकि, राज्य में अंदरूनी और बाहरी हिंसा के कारण लगभग 4,700 छात्र विस्थापित हुए हैं। समाजसेवी संस्थाएं, समूह और अन्य राज्यों की सरकारें दिल्ली और मिजोरम जैसे राज्यों में छात्रों के पुनर्वास में मदद कर रही हैं। राहत और पुनर्वास प्रयासों में मदद करने वाले महिला समूह की सदस्य सुश्री किम कहती हैं, “हम दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग के संपर्क में हैं – यह बिना किसी योजना के प्रवेश की अनुमति देता है, जो मददगार रहा है।”

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के कारण, कक्षा 1-8 तक के बच्चों के लिए प्रवेश प्रक्रिया आसान हो गई है। लेकिन कक्षा 9-12 के छात्रों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इनमें से ज्यादातर के पास प्रवेश लेने के लिए जरूरी वे दस्तावेज़ नहीं होते हैं जिन पर स्कूल कभी-कभी ज़ोर देते हैं। हम उनके माता-पिता को अपने बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाने के तरीके ढूंढने में मदद करने का प्रयास कर रहे हैं।” इसके अलावा, किम जिस समूह के साथ काम करती हैं, वह बच्चों को ट्रॉमा काउंसिलिंग और हिंदी सीखने में मदद कर रहा है, जो उन्हें अपने नए वातावरण में संवाद करने में सक्षम बनाएगा।

अपनी ओर से, मणिपुर सरकार ने मुख्यमंत्री कॉलेज छात्र पुनर्वास योजना (सीएमसीएसआरएस) 2023 की घोषणा भी की है। यह मणिपुर में विश्वविद्यालयों के बीच आंतरिक रूप से विस्थापित स्नातक छात्रों के स्थानांतरण, मुफ्त प्रवेश और छूट की सुविधा प्रदान करती है। लेकिन छात्र इससे खुश नहीं हैं। हिंसा जारी रहने के कारण, पहाड़ियों में रहने वाले छात्र अब घाटी के विश्वविद्यालयों में नहीं लौट सकते हैं। ऐसा होने पर, उन्हें अपनी पढ़ाई में पिछड़ने का डर है क्योंकि विश्वविद्यालयों ने नियमित कक्षाएं फिर से शुरू कर दी हैं। उनकी मांग है कि उन्हें केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थानांतरण की अनुमति दी जाए।

शुरुआत में एक विकल्प के रूप देखी जाने वाली ऑनलाइन कक्षाएं भी, राज्य में लगने वाले इंटरनेट प्रतिबंध के कारण छात्रों के लिए अब कोई विकल्प नहीं रह गई हैं। इसके अलावा यह भी एक सच्चाई है कि ग्रामीण इलाक़ों में इंटरनेट कनेक्टिविटी बहुत ख़राब है। 

नॉर्थईस्ट लाइव की रिपोर्ट में एक छात्र के हवाले से कहा गया है, ‘कक्षाएं फिर से शुरू हो गई हैं लेकिन हम कक्षाओं में शामिल नहीं हो सकते हैं। कुकी छात्रों के लिए ऑफ़लाइन कक्षाएं संभव नहीं हैं और इंटरनेट के बिना ऑनलाइन कक्षाएं असंभव हैं। हमारी चिंता यह है कि प्रवेश-फॉर्म भरा जाना शुरू हो चुका है और अंतिम तिथि 31 जुलाई है।’ छात्रों पर, डिजिटल ऐक्सेस पर लगने वाले प्रतिबंध का प्रभाव कई तरह से पड़ रहा है। जहां राज्य में रहने वाले छात्र कक्षाओं में उपस्थित होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं बाहर रह रहे छात्रों को आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उनके माता-पिता अब उन्हें पैसे नहीं भेज पा रहे हैं।

क्या आप मदद करने की इच्छा रखते हैं?

नीचे कुछ ऐसे संगठनों के नाम दिये गये हैं जिनका सहयोग आप मणिपुर में हिंसा से निपटने वाले लोगों को सहायता प्रदान करने के लिए कर सकते हैं। यदि आप मणिपुर में सहायता प्रदान करने पर काम कर रहे अन्य समाजसेवी संगठनों के बारे में जानते हैं, तो हमें [email protected] पर एक ई-मेल भेज सूचित करें और हम उन्हें इस सूची में शामिल कर लेंगे।

युवा आदिवासी महिला नेटवर्क: पूर्वोत्तर की आदिवासी महिलाओं का एक समूह मणिपुर में विस्थापित ग्रामीणों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों के लिए काम कर रहा है। ये मणिपुर के शिविरों में प्रभावित समुदायों को राहत सामग्री प्रदान कर रहे हैं और दिल्ली के स्कूलों में विस्थापित छात्रों के पुनर्वास में भी मदद कर रहे हैं। इनकी पहल में अपना सहयोग देने के लिए आप यहां दान कर सकते हैं।

ग्रामीण महिला उत्थान समिति: मणिपुर स्थित एक समाजसेवी संस्था जो क्षमता निर्माण, जागरूकता बढ़ाने, प्रशिक्षण और वकालत के जरिए जमीनी स्तर के समुदायों को सशक्त बनाने का काम करती है। यह मणिपुर के विभिन्न जिलों में स्थित शिविरों में राहत सामग्री प्रदान कर रही है और गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों की सहायता पर ध्यान केंद्रित कर रही है। इस संस्था की मदद में अपना योगदान देने के लिए आप यहां दान दे सकते हैं।

फार्म2फ़ूड: एक समाजसेवी संस्था जो समुदायों के साथ साझेदारी बनाती है और उन्हें कृषि और खाद्य उद्यमिता में संलग्न करके टिकाऊ, कृषि-आधारित आजीविका अपनाने के लिए प्रशिक्षण और उपकरण प्रदान करती है। संगठन अपने स्वयंसेवकों और जमीनी स्तर पर काम कर रहे सहयोगियों के जरिए हिंसा प्रभावित समुदायों को भोजन और दवाएं वितरित कर रहा है। आप फार्म2फूड के प्रयासों में अपना योगदान देने के लिए यहां क्लिक कर सकते हैं।

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महिलाओं को भूमि अधिकार दिलाने का मतलब उन्हें सशक्त बनाना होना चाहिए

भूमि अधिकार एक महत्वपूर्ण मानव अधिकार मुद्दा है क्योंकि यह भोजन, आश्रय और सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुंचने लायक बनाता है। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को प्राप्त करने के लिए यह मूलभूत है। लेकिन महिलाओं की गरिमा और सम्मान को ध्यान में रखे बिना भूमि अधिकारों से जुड़ी बातचीत अधूरी है क्योंकि ये सभी मानवाधिकर मुद्दों में शामिल हिस्से हैं। वास्तव में, सम्मान के साथ जीने का अधिकार भारतीय संविधान में निहित है, और सभी मनुष्यों के अंतर्निहित सम्मान को मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (यूएनएचआर) में मान्यता दी गई है।

गरीबी का सामना कर रहे लोगों को, कानून और नीतिगत साधनों का उपयोग कर, भूमि अधिकार दिलवाने के लिए काम करने वाली समाजसेवी संस्था लैंडेसा की शिप्रा देव का मानना है कि हर तरह के विकास के केंद्र में गरिमा को रखा जाना चाहिए। शिप्रा कहती हैं कि ‘यूएनएचआर, अपनी प्रस्तावना में, दुनिया में स्वतंत्रता, न्याय और शांति की नींव के रूप में सभी मनुष्यों की अंतर्निहित गरिमा, और समान और अविभाज्य अधिकारों को स्वीकार करता है। यह मान्यता कि गरिमा एक ऐसी चीज़ है जो मनुष्य होने के नाते सभी के पास है और किसी के भी अस्तित्व का अभिन्न अंग है, जो अधिकारों को हासिल करने के लिए जरूरी है।’ शिप्रा ज़ोर देकर कहती हैं कि मानवीय गरिमा की इस अवधारणा में समान मानव अधिकारों, या सभी व्यक्तियों की समानता की केंद्रीयता को स्थापित करने की क्षमता है। कहने का मतलब यह है कि ऐसा कोई अंतर्निहित कारण नहीं है कि कुछ लोगों को अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को साकार करने का अवसर मिले और कुछ को नहीं।

आदिवासी, दलित और एकल महिलाओं (अर्थात तलाकशुदा, विधवा, पति से अलग हो चुकी या अधिक उम्र की अविवाहित महिलाओं) को सशक्त बनाने पर काम करने वाले समाजसेवी संगठन ‘आस्था संस्थान’ के अश्वनी पालीवाल एक ऐसा उदाहरण देते हैं जो महिलाओं के भूमि अधिकारों पर होने वाली किसी भी चर्चा में सम्मान को जोड़ने के महत्व को दिखाता है। ‘हमने एक ऐसी महिला और उसकी बेटी के साथ काम किया जिसे उसके ससुराल वालों ने छोड़ दिया था। वह मज़दूरी करके और बिना किसी सुरक्षा के किसी धार्मिक संस्थान में रहकर अपना गुज़ारा कर रही थी। उसे हर समय अपनी और अपनी बेटी की सुरक्षा का डर रहता था।’ अश्वनी बताते हैं कि कैसे अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए वह महिला एकल नारी शक्ति संगठन (ईएनएसएस) (सशक्त एकल महिलाओं का संघ) में शामिल हो गई। समुदाय की मदद से, अपने ससुराल वालों से लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद उसे अपने पति की भूमि का स्वामित्व मिल सका। अश्वनी कहते हैं कि ‘इस भूमि के कारण उसे आश्रय मिला और वह अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकने में सक्षम हो सकी। इस प्रकार भूमि अधिकार, मानवीय गरिमा से जुड़े हैं – वे व्यक्ति के आत्म-सम्मान को बढ़ाने और व्यक्तित्व को बेहतर बनाने में मददगार होते हैं।’

भोजन, आश्रय और आजीविका के बिना रहना गरिमापूर्ण जीवन के विपरीत है। शिप्रा इस बात पर जोर देती हैं कि किसी व्यक्ति का ज़मीन से रिश्ता उनके रोजमर्रा के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। वे कहती हैं कि ‘वे भूमि का उपयोग कैसे करते हैं, चाहे आजीविका के लिए या अस्तित्व के लिए, यह किसी व्यक्ति के अस्तित्व और गरिमा से गहराई से जुड़ा हुआ होता है।’

गरिमा की अनदेखी से हमें क्या नुक़सान होता है?

भूमि अधिकारों की उपेक्षा महिलाओं और समाज के अन्य वंचित वर्गों को और अधिक हाशिये पर धकेल देती है। शिप्रा कहती हैं कि, ‘भूमि लोगों की पहचान का एक महत्वपूर्ण साधन है। उन स्थानों पर जहां भूमि अधिकार मिलना एक सामान्य बात है, महिलाओं को स्वतंत्र अधिकार न देना उन्हें एक व्यक्ति के रूप में अदृश्य बना देता है।’ इसी तरह, यह तथ्य कि सभी मौजूदा विरासत कानून बाइनरी भाषा में लिखे गए हैं, यह ट्रांस समुदाय के लिए उनके भूमि अधिकारों का दावा करने की गुंजाइश कम कर देता है। शिप्रा आगे जोड़ती हैं कि ‘जब हम इन लोगों को उचित सम्मान नहीं देते हैं तो उनकी पहचान खोने का खतरा पैदा होता है और इसका सीधा प्रभाव उनकी आजीविका, आवास, सुरक्षा और जीवन की गुणवत्ता पर पड़ता है।’ इसलिए, लैंडेसा के लिए भूमि अधिकारों पर काम करते समय पहला कदम महिलाओं को स्वतंत्र व्यक्ति के तौर पर मान्यता देना होता है।

महिलाओं को उनके भूमि अधिकार सुरक्षित करने में मदद करना उस स्थिति में अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है, जब महिलाएं स्वयं को भूमि अधिकार के योग्य नहीं समझती हैं। अश्वनी बताते हैं कि ‘महिलाएं [हम जिनके साथ काम करते हैं] आमतौर पर अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानती हैं और जब तक उन्हें [इसके बारे में] बताया न जाए, तब तक भूमि के स्वामित्व के बारे में सोचती भी नहीं हैं। भूमि अधिकार को प्राप्त करने का संघर्ष बहुत कठिन है। यदि उनका संकल्प मजबूत नहीं होता है तो वे अपनी भूमि का प्रभावी ढंग से उपयोग करने और उससे जुड़ी गरिमा हासिल करने का अवसर खो देती हैं।’ यदि उनके मन में प्राप्त भूमि के टुकड़े के माध्यम से सम्मानजनक जीवन जीने का विचार नहीं है तो भूमि पर स्वामित्व हासिल करना निरर्थक हो जाता है। लेकिन शिप्रा कहती हैं कि ‘भले ही उनके शब्दकोश में सम्मान और गरिमा जैसे शब्द न हों लेकिन महिलाएं अंत में समान अधिकारों वाला और सम्मानजनक जीवन चाहती हैं।’

गेहूं के खेत में मुस्कुराती खड़ी एक महिला_महिला भूमि अधिकार
सामाजिक दबाव और प्रचलित सांस्कृतिक प्रथाएं महिलाओं को भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने से रोकती हैं। | चित्र साभार: मीना कादरी / सीसी बीवाय

भूमि अधिकार और सम्मान के बीच संबंध

हालांकि भारत के संविधान के अनुसार सम्मानजनक जीवन मौलिक अधिकारों के अंतर्गत आता है लेकिन शिप्रा इस विरोधाभास की ओर इशारा करती हैं जो भूमि अधिकारों की बात करते समय हमारे संविधान के भीतर उभरता है। यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि कृषि भूमि को राज्य का विषय माना जाता है और विरासत एक समवर्ती सूची का विषय है। कभी कई विषयों को समाहित करने और कभी-कभी परस्पर विरोधी प्रावधानों वाले कानूनों की बहुलता महिलाओं को नुकसान पहुंचाती है।

अधिकांश अनुसूचित जनजातियों के परंपरागत क़ानूनों के अनुसार विधवाएं अपने पति की भूमि को अपने नाम नहीं करवा सकती हैं।

शिप्रा का कहना है कि ‘अनुसूचित जनजातियों की परंपराओं और पहचान की सुरक्षा के लिए संविधान द्वारा अनुसूची V और VI के तहत आने वाले क्षेत्रों के साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता है। नतीजतन, इन समुदायों में विरासत के मामले परंपरागत प्रथाओं द्वारा तय होते हैं न कि वैधानिक कानूनों द्वारा।’ वे इसके लिए झारखंड का उदाहरण देती हैं। ‘हमने पाया कि अधिकांश अनुसूचित जनजातियों के परंपरागत क़ानूनों के अनुसार विधवाएं अपने पति की भूमि को अपने नाम नहीं करवा सकती हैं। उसके पास केवल उस भूमि को बनाए रखने और उस पर आश्रित रहने का अधिकार होता है।’ ऐसी स्थिति में भूमि पर अंतिम दावा घर के पुरुष – जेठ या देवर या बेटे – का ही होता है। शिप्रा इन पुरुषों को ‘प्रतीक्षारत पुरुष’ का नाम देती हैं। अपने दावे को जल्द से जल्द साबित करने के लिए ये पुरुष हिंसा जैसे उपाय अपनाते हैं ताकि महिलाएं सम्पत्ति छोड़ने पर मजबूर हो जाएं। शिप्रा का कहना है कि ऐसा होना उस महिला की गरिमा पर सीधा हमला है।

ख़ासकर गांवों में भूमि स्वामित्व महिलाओं को न केवल व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करता है बल्कि समुदाय से जुड़े फ़ैसलों में उनकी सहभागिता और भागीदारी पर भी असर डालता है। अश्वनी ने बताया कि ‘गांव में एक महिला की पहचान तब बनती है, जब जमीन उसके नाम पर होती है। यह उसे कई अवसरों का लाभ उठाने के लिए सशक्त बनाता है।’ एक महिला अपनी भूमि का उपयोग अपने बच्चों की शिक्षा के लिए कर सकती है। भूमि स्वामित्व दस्तावेज़ीकरण से महिला किसानों को सरकारी योजनाओं तक पहुंचने में भी मदद मिल सकती है। अश्वनी जोर देते हुए कहते हैं कि ‘जब भूमि के प्रति उनका नजरिया बदलता है तो एक महिला अन्याय के खिलाफ खड़े होने में सक्षम होती है और सम्मानजनक जीवन जीने के रास्ते पर आगे बढ़ती है।’

भूमि अधिकारों में सम्मान को शामिल करने की चुनौतियां

सामाजिक दबाव और प्रचलित सांस्कृतिक प्रथाएं महिलाओं को भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने से रोकती हैं। अश्वनी कहते हैं कि ‘यदि सम्पत्ति उनके नाम पर है तो चाहे वह उनके माता-पिता के पक्ष में हो या उनके ससुराल पक्ष में, महिलाओं को अपना हिस्सा भाई (या परिवार के किसी अन्य पुरुष सदस्य) को देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।’ दरअसल, 2021 में, राजस्थान में एक सरकारी अधिकारी ने महिलाओं से पैतृक खेती वाली ज़मीन में मिलने वाले अपने हिस्से को अपने भाइयों को देकर ‘रक्षा बंधन को यादगार बनाने’ की अपील की थी।

भूमि अधिकारों के जरिए सम्मान प्राप्त करना एक लम्बी अवधि की प्रक्रिया है, और यह इस उद्देश्य के लिए एक चुनौती है। शिप्रा के अनुसार, सम्मान पर जोर देने के लिए प्रक्रिया में भाग लेने वाले सभी लोगों को मानव जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता होगी क्योंकि उनका काम सीधे महिलाओं के अधिकारों और गरिमा को प्रभावित करता है।

उदाहरण के लिए, हालांकि पुलिस की मदद से एक महिला का संपत्ति का अधिकार सुरक्षित किया जा सकता है, लेकिन यदि उसके बाद कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो भूमि तक उनकी पहुंच खतरे में पड़ जाती है। अश्वनी आगे जोड़ते हैं कि ‘यदि महिला का आधार पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं है तो पुरुष सदस्य संपत्ति पर दोबारा कब्ज़ा कर सकते हैं। यही कारण है कि ईएनएसएस और अन्य समुदाय-आधारित संगठन भूमि से जुड़े दस्तावेज हस्तांतरित होने के बाद भी महिला को निरंतर सहायता प्रदान करते हैं ताकि उसके स्वामित्व को खतरा न हो। यदि पुलिस और परिवार के पुरुष सदस्य ऐसे मामलों में महिला के अधिकारों और सम्मान के प्रति जागरूक होते हैं तो निरंतर हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है।

शिप्रा बताती हैं कि संगठनात्मक दृष्टिकोण से भी, परिणाम-आधारित फ़ंडिंग पर चलने वाले विकास कार्यक्रमों की निर्भरता उनकी योजना और कार्यान्वयन पर प्रभाव डालता है। यह अधिकार के साथ सम्मान भी दिलाने की कोशिशों में बाधा के तौर में सामने आता है क्योंकि यह एक अंतहीन परिणाम है और इसके लिए अक्सर दूरदर्शी सोच और प्रयासों की आवश्यकता होती है।

सम्मान का दृष्टिकोण कैसा होता है

गरिमापूर्ण दृष्टिकोण अपनाने के लिए इस प्रक्रिया में शामिल सभी लोगों की प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। शिप्रा कहती हैं कि ‘हमें सरकार, नीति-निर्माताओं, ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले संगठनों, महिलाओं तथा पुरुषों, और समुदायों में परम्परागत तथा चयनित नेताओं के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सोच और काम करने के तरीके में सभी मनुष्यों की आंतरिक गरिमा को पहचानने और उसे प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।’

महिलाओं के बीच संपत्ति का स्वामित्व परंपरागत रूप से अस्तित्वहीन या नगण्य रहा है।

अश्वनी ने सभी स्तरों पर जागरूकता फैलाने के महत्व का उल्लेख करते हुए बताया कि कैसे संपत्ति हस्तांतरण की प्रक्रिया में शामिल आधिकारी तबका अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता के कारण महिलाओं की अपीलों को नजरअंदाज करता है। वे आगे जोड़ते हैं कि ‘बेटियों को पैतृक संपत्ति में विरासत का अधिकार हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 से ही दिया गया था। इस प्रावधान के लागू होने से पहले, महिलाओं को अक्सर लंबी कानूनी प्रक्रियाओं को अपनाकर, ऐसी भूमि पर अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ता था।’ आज, महिलाओं के भूमि अधिकारों को मुख्यधारा में लाने की मांग करने वाले संगठनों को यह चुनौतीपूर्ण लग सकता है क्योंकि महिलाओं के बीच संपत्ति का स्वामित्व परंपरागत रूप से अस्तित्वहीन या नगण्य रहा है। इसलिए, आगे की योजना बनाना और महिलाओं के जीवन की गरिमा-सम्मान और उनके भूमि अधिकारों के बीच संबंध स्थापित करना सभी के लिए जरूरी है।

शिप्रा ने बताया कि कैसे महिलाओं से यह पूछने पर कि उनके लिए जमीन का क्या मतलब है, उनके बीच की बातचीत इस बिंदु पर पहुंची कि महिलाओं की गरिमा जमीन से कैसे जुड़ी हुई है। यहां तक कि जमीन के मालिक होने का विचार भी महिलाओं को आश्चर्य में डालने वाला और सशक्त बनाने वाला हो सकता है क्योंकि ज़मीन एक बड़ी सम्पत्ति होती है। अश्वनी रेखांकित करते हैं कि महिलाओं को न केवल उनके भूमि अधिकारों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए बल्कि यह भी बताया जाना चाहिए कि कैसे उनका सम्मान इस अधिकार से जुड़ा हुआ है। इससे वे भूमि को अपने सम्मानजनक जीवन जीने के एक माध्यम के रूप में देख पाएंगी जिसकी उन्हें आकांक्षा भी होती है और जिस तक पहुंचा भी जा सकता है।

शिप्रा के अनुसार, महिलाओं को सशक्त बनाने वाले सभी कार्यक्रमों को अपने दायरे में भूमि अधिकारों को शामिल करने के बारे में सोचना चाहिए क्योंकि भूमि व्यक्ति की पहचान और अस्तित्व से गहरे जुड़ी होती है। व्यक्तिगत एवं संस्थागत दोनों ही स्तरों पर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाए जाने की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि गरिमा और सम्मान, इस तरह के हस्तक्षेप कार्यक्रमों का एक अभिन्न पहलू है, विशेष रूप से उन कार्य-योजनाओं का जिन्हें सबसे कमजोर वर्ग के लोगों के लिए डिज़ाइन किया जाता है। भूमि, महिलाओं की पहचान, स्वतंत्रता, अधिकार और आजीविका का मूलभूत आधार है। यदि हम भूमि अधिकारों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं तो हम महिलाओं के लिए सम्मान और समानता के जीवन का मार्ग प्रशस्त करने वाले एक महत्वपूर्ण घटक को पीछे छोड़ रहे हैं।

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शिप्रा देव महिलाओं और भूमि के बीच संबंधों को मजबूत करने वाली संस्था लैंडेसा का नेतृत्व करती हैं।विभिन्न पृष्ठभूमि वाली महिलाओं और सभी प्रकार की भूमि के बीच के संबंध और अलगाव को समझने में शिप्रा की गहरी रुचि है।शिप्रा लड़कियों के लिए समान विरासत की हिमायती हैं और चाहती हैं कि भूमि प्रशासन और कानून लैंगिक भेदभाव को दूर करने वाले हों।

अश्वनी पालीवाल राजस्थान के उदयपुर में स्थित एक समाजसेवी संस्थान आस्था के सचिव हैं। उनके पास सामाजिक क्षेत्र का 40 से अधिक वर्षों का अनुभव है। वे मुख्य रूप से सामुदायिक विकास और मानव अधिकार से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं।हाल के दिनों में अश्वनी राजस्थान सहित पूरे भारत में एकल महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में हो रहे काम में अपना सहयोग दे रहे हैं।

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