January 25, 2023

सामाजिक व्यवहार परिवर्तन में रीति-रिवाज एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं

पारंपरिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों को अक्सर आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान और बायोमेडिकल सुझावों से उलट अंधविश्वास की तरह देखा जाता है, लेकिन ऐसा करना सही नहीं।
6 मिनट लंबा लेख

भारत एक उत्सव प्रिय देश है जहां हम लगभग सालभर ही तमाम तरह के त्यौहार मनाते हैं और रीति-रिवाजों का आनंद लेते हैं। लेकिन क्या ये रीति-रिवाज़ स्वास्थ्य व्यवहार में स्थायी परिवर्तन की कुंजी हो सकते हैं?

चलिए, पूजा की बात करते हैं। पूजा ग्रामीण बिहार में रहती हैं और उनकी उमर 24 वर्ष है। पूजा गर्भवती हैं और अपने समुदाय की कई अन्य महिलाओं की तरह वे भी खून की कमी से पीड़ित हैं। खून की कमी उनके और उनके बच्चे के स्वास्थ्य के लिए घातक हो सकती है। इससे बचने के लिए उन्हें अपने खाने में आयरन की मात्रा बढ़ाने की जरूरत है। अच्छी बात यह है कि इसके लिए आयरन और फॉलिक एसिड (आईएफ़ए) की खुराक का मिश्रण उपलब्ध है। यदि गर्भावस्था के प्रारंभिक चरण में इसका सेवन किया जाए तो यह बच्चे में मातृ रक्ताल्पता (मैटरनल एनिमिया) और न्यूरल ट्यूब दोष को कम करता है। पूजा को अपनी गर्भावस्था के दौरान हर दिन एक गोली लेने की जरूरत है। इन गोलियों की क़ीमत कम है और ये सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों द्वारा मुफ्त में मुहैया करवाई जाती हैं।

लेकिन पूजा जैसी गर्भवती महिलाएं सप्लीमेंट समय पर या लगातार पर्याप्त मात्रा में नहीं ले रही हैं। क्यों?

हमारे पास इस प्रश्न के कई सम्भावित उत्तर हैं: इलाज की ज़रूरत से जुड़ी धारणाएं, दुष्प्रभाव को लेकर चिंता, व्यवस्था में भरोसा, गोलियों की उपलब्धता की सुविधा और दवाइयों तथा स्वास्थ्य को लेकर मानसिकता। लेकिन क्या इस पहेली का कोई महत्वपूर्ण हिस्सा छूट रहा है?

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क्या होगा अगर हम आपको बताएं कि ग्रामीण बिहार में महिलाएं पहले से ही गर्भावस्था की महत्वपूर्ण अवधि के दौरान स्वास्थ्य जोखिमों को कम करने का प्रयास कर रही हैं? और, यह भी कि वे पहले से ही इसके समाधान खोज कर उन पर काम कर रही हैं? हम यह भी बता रहे हैं कि अब तक मौजूद बायोमेडिकल समाधान इस अंतर को कम नहीं कर रहे हैं लेकिन दूसरी सबसे अच्छी बात यह है कि महिलाओं को लगता है कि ये उनके लिए काम कर रहा है?

इस पहेली का छूट गया हिस्सा है रीति-रिवाज़। रीति-रिवाज़ सांस्कृतिक रूप से समूहों की परंपराएं हैं, जिनमें कुछ तय क्रियाओं का एक क्रम शामिल होता है जिनका एक मतलब होता है। ज्यादातर लोग रीति-रिवाज़ों को पिछड़ी, अंधविश्वासी प्रथाओं की तरह देखते हैं और सामाजिक व्यवहार परिवर्तन के लिए उनकी प्रासंगिकता पर विचार नहीं करते हैं। सामाजिक व्यवहार के कुछ पहलुओं को समझने के लिए रीति-रिवाज़ महत्वपूर्ण हैं। वे अतीत और वर्तमान के सभी मानव समाजों की एक खूबी हैं। रिवाज़ प्राचीन लिखित अभिलेखों का हिस्सा हैं और अपने नए स्वरूपों के साथ आधुनिक दुनिया में मौजूद हैं, जैसे विस्तृत जापानी व्यवसाय कार्ड विनिमय रिवाज़। रीति-रिवाज़ लोगों को दूसरों से जुड़ने में मदद करते हैं, सामाजिक रूप से उन्हें सुरक्षित बनाते हैं, और जोखिमों के प्रबंधन में लोगों की सहायता करते हैं।

एक थाली में अगरबत्ती जल रही है-रीति रिवाज़
जो परिवर्तन पूरे समुदाय द्वारा गहराई से स्वीकार नहीं किया गया हो वह स्थाई नहीं होता है | चित्र साभार: पिक्साबे

गर्भावस्था एक महिला के जीवन का सबसे तनावपूर्ण और जोखिम भरा समय होता है। हमारे शोध में हमने पाया कि वास्तव में यह समय रीति-रिवाज़ों से भरा हुआ होता है। केवल बिहार में ही हमने प्रसव काल के दौरान स्वास्थ्य, पोषण और बच्चे के पालन-पोषण को नियंत्रित करने वाले सैकड़ों रीति-रिवाजों को दर्ज किया। छठी (छठे दिन की रस्म) का अनुष्ठान बिहार में व्यापक रूप से किया जाता है और कई अन्य संस्कृतियों में भी ऐसी ही प्रथा देखने को मिलती है। यह नवजात को समुदाय से परिचित करवाता है और उसकी सुरक्षा करता है। इसका संबंध प्रसवकाल के अंत से भी है, जिसे आधुनिक चिकित्सा में भी बायोमेडिकल कारणों से महत्व दिया जाता है।

छठी जैसे ज़्यादातर पारम्परिक स्वास्थ्य अनुष्ठान बायोमेडिकल सलाहों के मुताबिक उचित हैं। दरअसल, पारम्परिक स्वास्थ्य अनुष्ठान और बायोमेडिकल सुझावों के मेल से अक्सर सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। स्तनपान शुरू करवाने से पहले नवजात शिशु के कानों में अज़ान (प्रार्थना के लिए मुसलमानों द्वारा दी जाने वाली आवाज़) देने के रिवाज़ को देखते हैं। अस्पतालों में प्रसव करवाने से पहले घरों में प्रसव करवाना आम बात थी और उस समय अज़ान पढ़ने के लिए मौलानाओं (सम्मानीय धार्मिक बुज़ुर्ग) को बुलाया जाता था। हालांकि हाल के दिनों में धार्मिक नेताओं को अस्पताल में बुलाना कठिन हो गया है। नतीजतन तुरंत स्तनपान में देरी हो जाती है। हमने तत्काल स्तनपान की बायोमेडिकल सलाह को लागू करने के लिए इस पारंपरिक स्वास्थ्य अनुष्ठान में लाई गई एक चतुराई भरे संशोधन को दर्ज़ किया। परिवार के लोग अब मौलानाओं को मोबाइल फ़ोन के ज़रिए उपलब्ध करवाते हैं ताकि वे नवजात के कानों में अज़ान पढ़ सकें।

ध्यान से देखने पर पता चलता है कि बायोमेडिकल सलाहें भी रीतिरिवाज बन गई हैं।

ध्यान से देखने पर पता चलता है कि बायोमेडिकल सलाहें भी रीति-रिवाज़ बन गई हैं। आपको दवा का तय शेड्यूल दिया जाता है। यह दवा कोई डॉक्टर या आपके भरोसे का कोई आदमी देता है – जरूरी नहीं कि आपको दवा या शेड्यूल के बायोमेडिकल कारणों की जानकारी हो ही। आप डॉक्टर के कहे अनुसार दवा निगल लेते हैं। ऐसा करने से आपको लगता है कि तनावग्रस्त परिस्थिति आपके नियंत्रण में हैं। सेहत में सुधार आने के साथ ही आपको डॉक्टर की पर्ची पर भरोसा होने लगता है और आप दूसरी बार भी उसका पालन करने लग जाते हैं। 

इसलिए, सवाल समुदाय को एक रीति-रिवाज़ को छोड़कर दूसरा (बायोमेडिकल) अपनाने के लिए तैयार करने का नहीं है। बल्कि यह मौजूदा रीति-रिवाजों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने और उनके साथ उपयुक्त जैव चिकित्सा पद्धतियों को एकीकृत करने के बारे में है ताकि लोग उनका पालन करने को अधिक महत्व दें। इस लिहाज से बिहार में हमारा काम अभी शुरुआती बिंदु पर है। हमारे द्वारा अध्ययन किए गए समुदाय की तरह ही हर समुदाय के अपने अलग रीति-रिवाज़ होते हैं जिन्हें हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। बायोमेडिकल विशेषज्ञों को स्थानीय सांस्कृतिक विशेषज्ञों के सम्पर्क – दाई, धार्मिक एवं सामुदायिक नेताओं से मिलकर राय बनाने की ज़रूरत होगी। ऐसा संभव है कि ये स्थानीय विशेषज्ञ बायोमेडिकल पृष्ठभूमि के नहीं हों। ये स्थानीय विशेषज्ञ समुदाय में मौजूदा रीति-रिवाजों की व्याख्या में मदद कर सकते हैं और साथ ही यह भी बता सकते हैं कि बायोमेडिकल समुदाय द्वारा बताए गए रीति-रिवाजों को शामिल करने के लिए इनमें किस तरह के बदलाव किए जा सकते हैं।

रीतिरिवाज़ों का अस्तित्व समुदाय के प्रभावशाली लोगों के एक जटिल नेटवर्क के कारण होता है।

रीति-रिवाज, समुदाय के प्रभावशाली लोगों के आपसी जुड़ाव के कारण बने रहते हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस जुड़ाव का एक प्रमुख बिंदु सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (जैसे आशा कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और अन्य सहयोगी नर्स दाइयां) हैं। हमारे शोध के दौरान हमने पाया कि सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता अपने कामकाज के क्षेत्र में बायोमेडिकल समुदाय और पारंपरिक स्वास्थ्य समुदाय के बीच एक प्रभावी पुल की तरह काम करती हैं। सांस्कृतिक सूत्रधार के तौर पर उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को समझना, यह सिखा सकता है कि बायोमेडिकल और परंपरागत स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को साथ कैसे लाया जा सकता है। इसके साथ ही यह रक्त की कमी जैसी न पता चलने वाली लेकिन गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को पहचानने और उनका हल करने में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भूमिका और प्रभाव को बढ़ा सकता है। 

स्थाई व्यवहार परिवर्तन लाना एक चुनौतीपूर्ण काम है। हम मानते हैं कि जब तक किसी समुदाय के लोग परिवर्तन को दिल से न स्वीकार कर लें तब तक कोई भी परिवर्तन स्थाई नहीं हो सकता है। समुदायों के निकट सहयोग से, साथ में विकसित होने वाले रीति-रिवाज़ हमें बदलाव हासिल करने का एक तरीका प्रदान कर सकते हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

  • सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता की प्रभावकारिता में सुधार के लिए रीति-रिवाजों के उपयोग के बारे में जानें
  • भारत के बिहार में स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के व्यवहार पर रीति-रिवाजों के प्रभाव के बारे में पढ़ें
  • ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की चुनौतियों पर हरियाणा की एक आशा कार्यकर्ता का यह साक्षात्कार पढ़ें।

लेखक के बारे में
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नीला ए सलदान्हा

नीला ए सल्दान्हा येल यूनिवर्सिटी के येल रिसर्च इनिशिएटिव ऑन इनोवेशन एंड स्केल (Y-RISE) की कार्यकारी निदेशक हैं। इससे पहले, वे अशोका विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर सोशल एंड बिहेवियर चेंज (CSBC) की संस्थापक निदेशक थीं। नीला फोर्ब्स पत्रिका की दस व्यवहार वैज्ञानिकों की सूची का हिस्सा रही हैं। उनका काम हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू, बिहेवियरल साइंटिस्ट, अपोलिटिकल, नेचर ह्यूमन बिहेवियर और द लैंसेट रीजनल हेल्थ में छपा है। उन्होंने व्हार्टन स्कूल से मार्केटिंग में पीएचडी और आईआईएम कलकत्ता से एमबीए किया है।

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क्रिस्टीन एच लेगेरे

डॉ क्रिस्टीन एच लेगेरे ऑस्टिन में टेक्सास विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की प्रोफेसर और सेंटर फॉर एप्लाइड कॉग्निटिव साइंस की निदेशक हैं। उनका शोध बताता है कि कैसे मन हमें संस्कृति को सीखने, बनाने और प्रसारित करने में सक्षम बनाता है। वे संज्ञानात्मक और सांस्कृतिक विकास के बारे में मूलभूत प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए उम्र, संस्कृति और प्रजातियों की तुलना करती हैं। डॉ लेगेरे को वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य, अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा, बाल विकास और संज्ञानात्मक विज्ञान में विशेषज्ञता हासिल है।

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फैज़ हाशमी

फैज़ हाशमी ऑस्टिन में टेक्सास विश्वविद्यालय से प्रायोगिक मनोविज्ञान में पीएचडी कर रहे हैं और सेंटर फॉर एप्लाइड कॉग्निटिव साइंस में शोध वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं। केयर इंडिया और प्रोजेक्ट कंसर्न इंटरनेशनल जैसे संगठनों के साथ उनका काम अंतर-सांस्कृतिक अनुसंधान, सामाजिक शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और मानव-केंद्रित डिजाइन के क्षेत्र में भी है। फैज ने डेवलपमेंट स्टडीज में एमए किया है। वे सार्वजनिक स्वास्थ्य और लिंग के विभिन्न पहलुओं पर संज्ञानात्मक और सांस्कृतिक कारकों के प्रभाव की खोज में रुचि रखते हैं।

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नचिकेत मोर

नचिकेत मोर मानसिक स्वास्थ्य पर काम करने वाली संस्था ‘बैन्यन’ से जुड़े हैं। साथ ही, उन्होंने केंद्र सरकार की स्वास्थ्य संबंधी सलाहकारी कमेटियों में भी योगदान दिया है।

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