November 20, 2023

प्राथमिक चिकित्सा का मतलब डॉक्टर और दवाखाना नहीं है

प्राथमिक चिकित्सा में कमी आगे चलकर क्षेत्रीय महामारियों की वजह बन सकती है, इससे बचने के लिए नियमित स्वास्थ्य जांच को लेकर जागरुकता लाने और इसके नए तरीक़े खोजने की ज़रूरत है।
5 मिनट लंबा लेख

हमारे दिमाग में यह धारणा बैठी हुई है कि गांव में अगर डॉक्टर आ गए और एक दवाखाना खुल गया तो प्राथमिक चिकित्सा तक हमारी पहुंच हो गई। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की वास्तविक ज़िम्मेदारी है, सभी को स्वस्थ रखना। लेकिन जब तक हम किसी जानलेवा बीमारी से ग्रसित नहीं हो जाते हैं, तब तक हमें यही लगता है कि हम पूरी तरह से स्वस्थ हैं। बीमारी की चपेट में आने से पहले डॉक्टर से मिलना तो दूर, हमें अपने आसपास के किसी दवाखाने की जानकारी से भी परहेज़ होता है। अगर हम अतीत में जाएं तो अपनी सी प्रवृत्ति के मूल के बारे में जान सकते हैं। यदि व्यक्ति अपनी मृत्यु और स्वास्थ्य को लेकर अत्यधिक सजग होता तो भयभीत हो कर हम सब गुफा में छुप कर ही बैठे रहते और जंगल का खतरा मोल लेने से इनकार कर देते। इस तरह पूरी मानव जाति का विकास नहीं हो पता और यह प्रजाति विलुप्त हो जाती।

प्राथमिक चिकित्सा के अभाव का असर

इस आदिम प्रवृति के फलस्वरूप, आज अपेक्षाकृत बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं वाले केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी डायबिटीज़ से पीड़ित ऐसे लोगों का अनुपात पिछले पांच वर्षों में दोगुना हो गया है। लेकिन इसके लिए उचित उपचार सुविधाएं उस दर से नहीं बढ़ पाई हैं। 2015-16 में ऐसे लोगों का अनुपात 6-7 फीसद था जो 2019-21 में बढ़कर 12-14 फ़ीसद तक पहुंच गया और इसमें लगातार वृद्धि ही आ रही है। केरल के तिरुवनंतपुरम और पथनमथिट्टा जिलों में यह 20 फ़ीसद के आंकड़े को पार कर चुका है। अगर इस स्थिति को जल्दी ही नियंत्रित नहीं किया गया तो इन जिलों में अंग विच्छेदन (लिंब ऍम्प्पुटेशन) और आघात (स्ट्रोक) एक महामारी का रूप ले  सकता है।

उत्तर भारत में जहां आज भी ग़रीबी का स्तर बहुत ऊंचा है, लोगों की इसी प्रवृति के कारण सरकार के कई वर्षों के प्रयत्न के बावजूद से 60 फ़ीसद से अधिक महिलाएं और बच्चे एनीमिया (खून में आयरन जैसे तत्वों की कमी) से पीड़ित हैं।

जमुई (बिहार), दक्षिण दिनाजपुर (पश्चिम बंगाल), और छोटा उदेपुर (गुजरात) जिलों में इस बीमारी का अनुपात 75 फ़ीसद से भी ज्यादा है। यह स्थिति काफ़ी चिंताजनक है। खून में आयरन की कमी से वजन के कम होने, हमेशा बहुत थकान महसूस होने जैसी समस्याएं रहती हैं और बच्चों के मानसिक विकास पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

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प्राथमिक चिकित्सा के कारगर समाधानों की शुरूआत

सौभाग्य से इन गंभीर बीमारियों के बारे में हमारी जानकारी अब बहुत बढ़ गयी है और पहले की तुलना में इनका निदान और उपचार आसान हो गया है। अब हर मरीज का व्यक्तिगत रुप से डॉक्टर से परीक्षण करवाना जरूरी नहीं रह गया है। अब एक प्रशिक्षित स्वास्थ्य सेविका स्वयं डॉक्टर न होकर भी इस काम को पूरे कौशल के साथ कर सकती है। फ़ोन के जरिये डॉक्टर दवाई का प्रिस्क्रिप्शन भी दे सकते हैं। कौन सी बीमारी है, कौन सी दवा देनी है, इन सवालों के जवाब अब काफी आसानी से प्राप्त हो सकते हैं। घर जा-जा कर लोगों को समझाना, उन्होंने दवाई ली की नहीं ली इस पर निगरानी रखना, और पूरी तरह से उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखने जैसे काम कठिन होते हैं। एक संवेदनशील स्वास्थ्य सेविका इन कामों में डॉक्टरों से भी ज्यादा माहिर हो सकती है।

अस्पताल के आपातकाल द्वार का दृश्य_प्राथमिक चिकित्सा
केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी डायबिटीज़ से पीड़ित ऐसे लोगों का अनुपात पिछले पांच वर्षों में दोगुना हो गया है, लेकिन उचित उपचार सुविधाएं उस दर से नहीं बढ़ पाई हैं। | चित्र स्रोत: फ्लिकर

इन कारणों और तथ्यों को समझते हुए ईरान और अमेरिका के अलास्का प्रदेश ने, पिछले 50 सालों में, अपनी प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली को पूरी तरह से बदल दिया है। इन देशों में डॉक्टरों की बजाय स्वास्थ्य सेविकाओं को मुख्य भूमिका दी गई है और डॉक्टरों को कहा गया है कि वे दूर बैठ कर, उनकी सहायता करें। भारत की तरह ही इन देशों के डॉक्टर भी सुदूर इलाक़ों में रहकर काम करने के प्रति बहुत अधिक उत्सुक नहीं होते हैं। स्वास्थ्य सेविकाओं की भूमिकाओं को बढ़ाने जैसी पहलों से उन्हें डॉक्टरों का अभाव महसूस नहीं हुआ और उनकी स्वास्थ्य सेवाओं में भी सुधार आया।

ईरान में इन स्वास्थ्य सेविकाओं को बेहवार्ज़ (फ़ारसी में बेहवार्ज़ का मतलब है, एक अच्छे कौशल वाली महिला) कहा जाता है। प्रत्येक गांव के लोग अपने-अपने बेहवार्ज़ का चुनाव करते हैं। चुने गये प्रत्याशी को सरकार दो साल का प्रशिक्षण देने के बाद, पूरे वेतन पर एक सरकारी कर्मी बनाकर, वापस उसी गांव भेज देती है। इन बेहवार्ज़ों की सहायता से ईरान ने मधुमेह और ब्लड प्रेशर जैसी गंभीर बीमारियों पर नियंत्रण पा लिया है। अलास्का में इन्हें कम्युनिटी हेल्थ ऐड के नाम से पुकारा जाता और उन्हें चार भागों में विभाजित चार हफ़्तों के एक प्रशिक्षण सत्र से गुजरना पड़ता है। इन्हें भी पूरा वेतन मिलता है और ये एक कम्युनिटी हेल्थ ऐड मैन्युअल के भरोसे काम करतीं है। उन्हें इस मैन्युअल को पूरी तरह से समझ के उसका सख़्ती से पालन करना पड़ता है। अलास्का के छोटे से छोटे गांवों में, चाहे वहां साल के ग्यारह महीने बर्फ ही क्यों ना पड़ती हो, इस तरीके को अपनाकर गांव वालों को एक समग्र प्राथमिक सेवा उपलब्ध करावाई गई है।

ये स्वास्थ्य सेविकाएं इन परिवारों के प्रत्येक सदस्य और गांव की पूरी आबादी का ध्यान रखती हैं – सिर्फ उनका नहीं जो खुद चल कर दवाखाना पहुंच जाते हैं।

जिन परिवारों के स्वास्थ्य सेवाओं की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी जाती हैं, कम्युनिटी हेल्थ ऐड की सदस्य उन परिवारों के साथ व्यक्तिगत रूप से जान-पहचान बढ़ाती हैं और उन्हें तथा उनकी प्रवृतियों को समझने का प्रयास करती हैं। ऐसा करके वह उनकी स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने का अपना दायित्व निभाती हैं। ये स्वास्थ्य सेविकाएं इन परिवारों के प्रत्येक सदस्य और गांव की पूरी आबादी का ध्यान रखती हैं – सिर्फ उनका नहीं जो खुद चल कर दवाखाना पहुंच जाते हैं। अधिक गंभीर मरीज़ों से ये स्वास्थ्य सेविकाएं बार-बार मिलती हैं। फिर उन्हें बहलाकर, फुसलाकर, जरूरत पड़ी तो डांटकर, उनके स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए आवश्यक निर्णय लेती हैं।

भारत में संभावनाएं

भारत में भी कुछ ऐसी संस्थाएं हैं जो इस तरह का काम कर रहीं हैं। उदाहरण के लिए द्वार हेल्थ नामक एक संस्था जिला सातारा (महाराष्ट्र) में काम कर रही है। इन्होंने उसी जिले के गांवों से अपनी स्वास्थ्य सेविकाओं का चयन किया है और उन्हें सखी नाम दिया है। इनकी सखियों ने देखा कि इनके गांवों में करीबन 35 फ़ीसद लोगों का रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) सामान्य से काफी ज्यादा है। ढाई फ़ीसद लोगों का ब्लड प्रेशर इतना ज्यादा है कि उन्हें कभी भी दिल का दौरा पड़ सकता है – इसे हाइपरटेन्सिव क्राइसिस कहते हैं। सखियों ने तुरंत ही सब लोगों का इलाज शुरू करवाया और जहां जरूरत पड़ी, वहां अपने सुपरवायज़री डॉक्टर की सहायता और विशेषज्ञों से सलाह ली। इन सभी लोगों का उपचार अब भी चल रहा है लेकिन चार महीनों के बाद उच्च रक्तचाप की शिकायत वाले लोगों में से 45 फ़ीसद और हाइपरटेन्सिव क्राइसिस की समस्या वाले लोगों में से 70 फ़ीसद की स्थिति में अब काफी सुधार है।

धीरे-धीरे यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि डॉक्टर-प्लस-क्लिनिक मॉडल, जो बाह्य रोगी सेवाएं प्रदान करने वाले एक छोटे आकार के अस्पताल के अलावा और कुछ नहीं है, को अब प्राथमिक चिकित्सा सेवा नहीं माना जा सकता है। इसे हम केवल एक अस्पताल का छोटा स्वरूप समझ सकते हैं। एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित स्वास्थ्य सेविका (या सेवक) ही लोगों को उच्च स्तरीय प्राथमिक चिकित्सा प्रदान कर सकती है। ये सेविकाएं (सेवक), जो न सिर्फ निदान के आधुनिक तरीकों से अवगत हैं और उससे जुड़े हुए तंत्रों के उपयोग में माहिर है, बल्कि उन्हें घर-घर जा कर, संवेदनशीलता से, परिवार के हर सदस्य को अपने स्वास्थ्य को अच्छा रखने के लिए जागरूक करना भी आता है।

भारत में स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर चुके ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो लोगों की सेवा करना चाहते हैं।

यह दृष्टिकोण अनीमिया से पीड़ित उस महिला के लिए भी उतना ही आवश्यक है जिसे आयरन की गोली खाने से मितली आती है, जितना कि उस व्यक्ति के लिए जिसे मधुमेह है लेकिन वह न तो मेटफोर्मिन लेता है और न ही रोज 30मिनट के सैर की तकलीफ उठाना चाहता है क्योंकि उसे लगता ही नहीं है कि वह बीमार है। इसके अलावा, यह दृष्टिकोण 40 की उम्र पार कर चुकी उन महिलाओं के लिए भी समान रूप से आवश्यक है जो कैंसर की संभावना के डर से अपने स्तनों की जांच करवाने से बचती हैं।

ऊपर बताये गये प्रत्येक मामले में यह निर्धारित करना आसान है कि चिकित्सीय रूप से क्या करने की ज़रूरत है। लेकिन मुश्किल है लोगों तक पहुंचना और उन्हें मेडिकल सलाह मानने के लिए तैयार करना।

भारत में स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर चुके ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो लोगों की सेवा करना चाहते हैं। यहां तक कि आदिवासी समाज में भी ऐसे युवाओं की संख्या बहुत है। ओडिशा के कालाहांडी में आदिवासियों के साथ काम करने वाली स्वास्थ्य स्वराज नाम की संस्था उन्हीं क्षेत्रों से चुनी गई युवतियों को दो साल का प्रशिक्षण देती है। प्रशिक्षण पूरा होने के बाद ओडिशा की सेंचूरियन यूनिवर्सिटी से उन्हें कम्युनिटी हेल्थ प्रैक्टिशनर (सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मी) का डिप्लोमा मिलता है। प्रशिक्षण के बाद ये स्वास्थ्य सेविकाएं प्राथमिक चिकित्सा से जुड़े सभी काम कर सकती हैं। इच्छा होने पर आगे चलकर ये सेविकाएं उच्चतर स्तर की नर्सिंग ट्रेनिंग मेडिकल प्रशिक्षण भी प्राप्त कर सकती हैं। भारत में यदि युवाओं को इस प्रकार के प्रशिक्षण देने के बाद उन्हें रोज़गार दिया जाए तो इन्हें अच्छा काम भी मिलेगा, जिसकी इन्हें सख्त जरूरत है, और साथ ही साथ ये सामाजिक सुधार के एक शक्तिशाली औजार बन जाएंगे।

यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी में डक्कन हेराल्ड में प्रकाशित हुआ है।

नचिकेत मोर द बैनियन एकेडमी ऑफ लीडरशिप इन मेंटल हेल्थ, चेन्नई में विजिटिंग साइंटिस्ट हैं। (सिंडिकेट द बिलियन प्रेस )

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नचिकेत मोर

नचिकेत मोर मानसिक स्वास्थ्य पर काम करने वाली संस्था ‘बैन्यन’ से जुड़े हैं। साथ ही, उन्होंने केंद्र सरकार की स्वास्थ्य संबंधी सलाहकारी कमेटियों में भी योगदान दिया है।

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राजकुमारी मोर

राजकुमारी मोर एक लेखिका हैं और सामाजिक विषयों पर इनका गहरा चिंतन रहा है।

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