August 2, 2023

महिलाओं को भूमि अधिकार दिलाने का मतलब उन्हें सशक्त बनाना होना चाहिए

समाजसेवी संस्थाओं को महिलाओं को सबसे पहले समझाना होगा कि भूमि अधिकार उनके सम्मान से जीने का अधिकार भी है।
7 मिनट लंबा लेख

भूमि अधिकार एक महत्वपूर्ण मानव अधिकार मुद्दा है क्योंकि यह भोजन, आश्रय और सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुंचने लायक बनाता है। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को प्राप्त करने के लिए यह मूलभूत है। लेकिन महिलाओं की गरिमा और सम्मान को ध्यान में रखे बिना भूमि अधिकारों से जुड़ी बातचीत अधूरी है क्योंकि ये सभी मानवाधिकर मुद्दों में शामिल हिस्से हैं। वास्तव में, सम्मान के साथ जीने का अधिकार भारतीय संविधान में निहित है, और सभी मनुष्यों के अंतर्निहित सम्मान को मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (यूएनएचआर) में मान्यता दी गई है।

गरीबी का सामना कर रहे लोगों को, कानून और नीतिगत साधनों का उपयोग कर, भूमि अधिकार दिलवाने के लिए काम करने वाली समाजसेवी संस्था लैंडेसा की शिप्रा देव का मानना है कि हर तरह के विकास के केंद्र में गरिमा को रखा जाना चाहिए। शिप्रा कहती हैं कि ‘यूएनएचआर, अपनी प्रस्तावना में, दुनिया में स्वतंत्रता, न्याय और शांति की नींव के रूप में सभी मनुष्यों की अंतर्निहित गरिमा, और समान और अविभाज्य अधिकारों को स्वीकार करता है। यह मान्यता कि गरिमा एक ऐसी चीज़ है जो मनुष्य होने के नाते सभी के पास है और किसी के भी अस्तित्व का अभिन्न अंग है, जो अधिकारों को हासिल करने के लिए जरूरी है।’ शिप्रा ज़ोर देकर कहती हैं कि मानवीय गरिमा की इस अवधारणा में समान मानव अधिकारों, या सभी व्यक्तियों की समानता की केंद्रीयता को स्थापित करने की क्षमता है। कहने का मतलब यह है कि ऐसा कोई अंतर्निहित कारण नहीं है कि कुछ लोगों को अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को साकार करने का अवसर मिले और कुछ को नहीं।

आदिवासी, दलित और एकल महिलाओं (अर्थात तलाकशुदा, विधवा, पति से अलग हो चुकी या अधिक उम्र की अविवाहित महिलाओं) को सशक्त बनाने पर काम करने वाले समाजसेवी संगठन ‘आस्था संस्थान’ के अश्वनी पालीवाल एक ऐसा उदाहरण देते हैं जो महिलाओं के भूमि अधिकारों पर होने वाली किसी भी चर्चा में सम्मान को जोड़ने के महत्व को दिखाता है। ‘हमने एक ऐसी महिला और उसकी बेटी के साथ काम किया जिसे उसके ससुराल वालों ने छोड़ दिया था। वह मज़दूरी करके और बिना किसी सुरक्षा के किसी धार्मिक संस्थान में रहकर अपना गुज़ारा कर रही थी। उसे हर समय अपनी और अपनी बेटी की सुरक्षा का डर रहता था।’ अश्वनी बताते हैं कि कैसे अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए वह महिला एकल नारी शक्ति संगठन (ईएनएसएस) (सशक्त एकल महिलाओं का संघ) में शामिल हो गई। समुदाय की मदद से, अपने ससुराल वालों से लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद उसे अपने पति की भूमि का स्वामित्व मिल सका। अश्वनी कहते हैं कि ‘इस भूमि के कारण उसे आश्रय मिला और वह अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकने में सक्षम हो सकी। इस प्रकार भूमि अधिकार, मानवीय गरिमा से जुड़े हैं – वे व्यक्ति के आत्म-सम्मान को बढ़ाने और व्यक्तित्व को बेहतर बनाने में मददगार होते हैं।’

भोजन, आश्रय और आजीविका के बिना रहना गरिमापूर्ण जीवन के विपरीत है। शिप्रा इस बात पर जोर देती हैं कि किसी व्यक्ति का ज़मीन से रिश्ता उनके रोजमर्रा के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। वे कहती हैं कि ‘वे भूमि का उपयोग कैसे करते हैं, चाहे आजीविका के लिए या अस्तित्व के लिए, यह किसी व्यक्ति के अस्तित्व और गरिमा से गहराई से जुड़ा हुआ होता है।’

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गरिमा की अनदेखी से हमें क्या नुक़सान होता है?

भूमि अधिकारों की उपेक्षा महिलाओं और समाज के अन्य वंचित वर्गों को और अधिक हाशिये पर धकेल देती है। शिप्रा कहती हैं कि, ‘भूमि लोगों की पहचान का एक महत्वपूर्ण साधन है। उन स्थानों पर जहां भूमि अधिकार मिलना एक सामान्य बात है, महिलाओं को स्वतंत्र अधिकार न देना उन्हें एक व्यक्ति के रूप में अदृश्य बना देता है।’ इसी तरह, यह तथ्य कि सभी मौजूदा विरासत कानून बाइनरी भाषा में लिखे गए हैं, यह ट्रांस समुदाय के लिए उनके भूमि अधिकारों का दावा करने की गुंजाइश कम कर देता है। शिप्रा आगे जोड़ती हैं कि ‘जब हम इन लोगों को उचित सम्मान नहीं देते हैं तो उनकी पहचान खोने का खतरा पैदा होता है और इसका सीधा प्रभाव उनकी आजीविका, आवास, सुरक्षा और जीवन की गुणवत्ता पर पड़ता है।’ इसलिए, लैंडेसा के लिए भूमि अधिकारों पर काम करते समय पहला कदम महिलाओं को स्वतंत्र व्यक्ति के तौर पर मान्यता देना होता है।

महिलाओं को उनके भूमि अधिकार सुरक्षित करने में मदद करना उस स्थिति में अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है, जब महिलाएं स्वयं को भूमि अधिकार के योग्य नहीं समझती हैं। अश्वनी बताते हैं कि ‘महिलाएं [हम जिनके साथ काम करते हैं] आमतौर पर अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानती हैं और जब तक उन्हें [इसके बारे में] बताया न जाए, तब तक भूमि के स्वामित्व के बारे में सोचती भी नहीं हैं। भूमि अधिकार को प्राप्त करने का संघर्ष बहुत कठिन है। यदि उनका संकल्प मजबूत नहीं होता है तो वे अपनी भूमि का प्रभावी ढंग से उपयोग करने और उससे जुड़ी गरिमा हासिल करने का अवसर खो देती हैं।’ यदि उनके मन में प्राप्त भूमि के टुकड़े के माध्यम से सम्मानजनक जीवन जीने का विचार नहीं है तो भूमि पर स्वामित्व हासिल करना निरर्थक हो जाता है। लेकिन शिप्रा कहती हैं कि ‘भले ही उनके शब्दकोश में सम्मान और गरिमा जैसे शब्द न हों लेकिन महिलाएं अंत में समान अधिकारों वाला और सम्मानजनक जीवन चाहती हैं।’

गेहूं के खेत में मुस्कुराती खड़ी एक महिला_महिला भूमि अधिकार
सामाजिक दबाव और प्रचलित सांस्कृतिक प्रथाएं महिलाओं को भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने से रोकती हैं। | चित्र साभार: मीना कादरी / सीसी बीवाय

भूमि अधिकार और सम्मान के बीच संबंध

हालांकि भारत के संविधान के अनुसार सम्मानजनक जीवन मौलिक अधिकारों के अंतर्गत आता है लेकिन शिप्रा इस विरोधाभास की ओर इशारा करती हैं जो भूमि अधिकारों की बात करते समय हमारे संविधान के भीतर उभरता है। यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि कृषि भूमि को राज्य का विषय माना जाता है और विरासत एक समवर्ती सूची का विषय है। कभी कई विषयों को समाहित करने और कभी-कभी परस्पर विरोधी प्रावधानों वाले कानूनों की बहुलता महिलाओं को नुकसान पहुंचाती है।

अधिकांश अनुसूचित जनजातियों के परंपरागत क़ानूनों के अनुसार विधवाएं अपने पति की भूमि को अपने नाम नहीं करवा सकती हैं।

शिप्रा का कहना है कि ‘अनुसूचित जनजातियों की परंपराओं और पहचान की सुरक्षा के लिए संविधान द्वारा अनुसूची V और VI के तहत आने वाले क्षेत्रों के साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता है। नतीजतन, इन समुदायों में विरासत के मामले परंपरागत प्रथाओं द्वारा तय होते हैं न कि वैधानिक कानूनों द्वारा।’ वे इसके लिए झारखंड का उदाहरण देती हैं। ‘हमने पाया कि अधिकांश अनुसूचित जनजातियों के परंपरागत क़ानूनों के अनुसार विधवाएं अपने पति की भूमि को अपने नाम नहीं करवा सकती हैं। उसके पास केवल उस भूमि को बनाए रखने और उस पर आश्रित रहने का अधिकार होता है।’ ऐसी स्थिति में भूमि पर अंतिम दावा घर के पुरुष – जेठ या देवर या बेटे – का ही होता है। शिप्रा इन पुरुषों को ‘प्रतीक्षारत पुरुष’ का नाम देती हैं। अपने दावे को जल्द से जल्द साबित करने के लिए ये पुरुष हिंसा जैसे उपाय अपनाते हैं ताकि महिलाएं सम्पत्ति छोड़ने पर मजबूर हो जाएं। शिप्रा का कहना है कि ऐसा होना उस महिला की गरिमा पर सीधा हमला है।

ख़ासकर गांवों में भूमि स्वामित्व महिलाओं को न केवल व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करता है बल्कि समुदाय से जुड़े फ़ैसलों में उनकी सहभागिता और भागीदारी पर भी असर डालता है। अश्वनी ने बताया कि ‘गांव में एक महिला की पहचान तब बनती है, जब जमीन उसके नाम पर होती है। यह उसे कई अवसरों का लाभ उठाने के लिए सशक्त बनाता है।’ एक महिला अपनी भूमि का उपयोग अपने बच्चों की शिक्षा के लिए कर सकती है। भूमि स्वामित्व दस्तावेज़ीकरण से महिला किसानों को सरकारी योजनाओं तक पहुंचने में भी मदद मिल सकती है। अश्वनी जोर देते हुए कहते हैं कि ‘जब भूमि के प्रति उनका नजरिया बदलता है तो एक महिला अन्याय के खिलाफ खड़े होने में सक्षम होती है और सम्मानजनक जीवन जीने के रास्ते पर आगे बढ़ती है।’

भूमि अधिकारों में सम्मान को शामिल करने की चुनौतियां

सामाजिक दबाव और प्रचलित सांस्कृतिक प्रथाएं महिलाओं को भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने से रोकती हैं। अश्वनी कहते हैं कि ‘यदि सम्पत्ति उनके नाम पर है तो चाहे वह उनके माता-पिता के पक्ष में हो या उनके ससुराल पक्ष में, महिलाओं को अपना हिस्सा भाई (या परिवार के किसी अन्य पुरुष सदस्य) को देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।’ दरअसल, 2021 में, राजस्थान में एक सरकारी अधिकारी ने महिलाओं से पैतृक खेती वाली ज़मीन में मिलने वाले अपने हिस्से को अपने भाइयों को देकर ‘रक्षा बंधन को यादगार बनाने’ की अपील की थी।

भूमि अधिकारों के जरिए सम्मान प्राप्त करना एक लम्बी अवधि की प्रक्रिया है, और यह इस उद्देश्य के लिए एक चुनौती है। शिप्रा के अनुसार, सम्मान पर जोर देने के लिए प्रक्रिया में भाग लेने वाले सभी लोगों को मानव जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता होगी क्योंकि उनका काम सीधे महिलाओं के अधिकारों और गरिमा को प्रभावित करता है।

उदाहरण के लिए, हालांकि पुलिस की मदद से एक महिला का संपत्ति का अधिकार सुरक्षित किया जा सकता है, लेकिन यदि उसके बाद कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो भूमि तक उनकी पहुंच खतरे में पड़ जाती है। अश्वनी आगे जोड़ते हैं कि ‘यदि महिला का आधार पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं है तो पुरुष सदस्य संपत्ति पर दोबारा कब्ज़ा कर सकते हैं। यही कारण है कि ईएनएसएस और अन्य समुदाय-आधारित संगठन भूमि से जुड़े दस्तावेज हस्तांतरित होने के बाद भी महिला को निरंतर सहायता प्रदान करते हैं ताकि उसके स्वामित्व को खतरा न हो। यदि पुलिस और परिवार के पुरुष सदस्य ऐसे मामलों में महिला के अधिकारों और सम्मान के प्रति जागरूक होते हैं तो निरंतर हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है।

शिप्रा बताती हैं कि संगठनात्मक दृष्टिकोण से भी, परिणाम-आधारित फ़ंडिंग पर चलने वाले विकास कार्यक्रमों की निर्भरता उनकी योजना और कार्यान्वयन पर प्रभाव डालता है। यह अधिकार के साथ सम्मान भी दिलाने की कोशिशों में बाधा के तौर में सामने आता है क्योंकि यह एक अंतहीन परिणाम है और इसके लिए अक्सर दूरदर्शी सोच और प्रयासों की आवश्यकता होती है।

सम्मान का दृष्टिकोण कैसा होता है

गरिमापूर्ण दृष्टिकोण अपनाने के लिए इस प्रक्रिया में शामिल सभी लोगों की प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। शिप्रा कहती हैं कि ‘हमें सरकार, नीति-निर्माताओं, ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले संगठनों, महिलाओं तथा पुरुषों, और समुदायों में परम्परागत तथा चयनित नेताओं के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सोच और काम करने के तरीके में सभी मनुष्यों की आंतरिक गरिमा को पहचानने और उसे प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।’

महिलाओं के बीच संपत्ति का स्वामित्व परंपरागत रूप से अस्तित्वहीन या नगण्य रहा है।

अश्वनी ने सभी स्तरों पर जागरूकता फैलाने के महत्व का उल्लेख करते हुए बताया कि कैसे संपत्ति हस्तांतरण की प्रक्रिया में शामिल आधिकारी तबका अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता के कारण महिलाओं की अपीलों को नजरअंदाज करता है। वे आगे जोड़ते हैं कि ‘बेटियों को पैतृक संपत्ति में विरासत का अधिकार हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 से ही दिया गया था। इस प्रावधान के लागू होने से पहले, महिलाओं को अक्सर लंबी कानूनी प्रक्रियाओं को अपनाकर, ऐसी भूमि पर अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ता था।’ आज, महिलाओं के भूमि अधिकारों को मुख्यधारा में लाने की मांग करने वाले संगठनों को यह चुनौतीपूर्ण लग सकता है क्योंकि महिलाओं के बीच संपत्ति का स्वामित्व परंपरागत रूप से अस्तित्वहीन या नगण्य रहा है। इसलिए, आगे की योजना बनाना और महिलाओं के जीवन की गरिमा-सम्मान और उनके भूमि अधिकारों के बीच संबंध स्थापित करना सभी के लिए जरूरी है।

शिप्रा ने बताया कि कैसे महिलाओं से यह पूछने पर कि उनके लिए जमीन का क्या मतलब है, उनके बीच की बातचीत इस बिंदु पर पहुंची कि महिलाओं की गरिमा जमीन से कैसे जुड़ी हुई है। यहां तक कि जमीन के मालिक होने का विचार भी महिलाओं को आश्चर्य में डालने वाला और सशक्त बनाने वाला हो सकता है क्योंकि ज़मीन एक बड़ी सम्पत्ति होती है। अश्वनी रेखांकित करते हैं कि महिलाओं को न केवल उनके भूमि अधिकारों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए बल्कि यह भी बताया जाना चाहिए कि कैसे उनका सम्मान इस अधिकार से जुड़ा हुआ है। इससे वे भूमि को अपने सम्मानजनक जीवन जीने के एक माध्यम के रूप में देख पाएंगी जिसकी उन्हें आकांक्षा भी होती है और जिस तक पहुंचा भी जा सकता है।

शिप्रा के अनुसार, महिलाओं को सशक्त बनाने वाले सभी कार्यक्रमों को अपने दायरे में भूमि अधिकारों को शामिल करने के बारे में सोचना चाहिए क्योंकि भूमि व्यक्ति की पहचान और अस्तित्व से गहरे जुड़ी होती है। व्यक्तिगत एवं संस्थागत दोनों ही स्तरों पर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाए जाने की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि गरिमा और सम्मान, इस तरह के हस्तक्षेप कार्यक्रमों का एक अभिन्न पहलू है, विशेष रूप से उन कार्य-योजनाओं का जिन्हें सबसे कमजोर वर्ग के लोगों के लिए डिज़ाइन किया जाता है। भूमि, महिलाओं की पहचान, स्वतंत्रता, अधिकार और आजीविका का मूलभूत आधार है। यदि हम भूमि अधिकारों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं तो हम महिलाओं के लिए सम्मान और समानता के जीवन का मार्ग प्रशस्त करने वाले एक महत्वपूर्ण घटक को पीछे छोड़ रहे हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

शिप्रा देव महिलाओं और भूमि के बीच संबंधों को मजबूत करने वाली संस्था लैंडेसा का नेतृत्व करती हैं।विभिन्न पृष्ठभूमि वाली महिलाओं और सभी प्रकार की भूमि के बीच के संबंध और अलगाव को समझने में शिप्रा की गहरी रुचि है।शिप्रा लड़कियों के लिए समान विरासत की हिमायती हैं और चाहती हैं कि भूमि प्रशासन और कानून लैंगिक भेदभाव को दूर करने वाले हों।

अश्वनी पालीवाल राजस्थान के उदयपुर में स्थित एक समाजसेवी संस्थान आस्था के सचिव हैं। उनके पास सामाजिक क्षेत्र का 40 से अधिक वर्षों का अनुभव है। वे मुख्य रूप से सामुदायिक विकास और मानव अधिकार से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं।हाल के दिनों में अश्वनी राजस्थान सहित पूरे भारत में एकल महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में हो रहे काम में अपना सहयोग दे रहे हैं।

अधिक जानें 

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लेखक के बारे में
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डेरेक जेवियर

डेरेक जेवियर आईडीआर में सहायक सम्पादक हैं और लेख लिखने, सम्पादन और प्रकाशन से जुड़े काम देखते हैं। इससे पहले डेरेक ने कैक्टस कम्यूनिकेशन्स और फ़र्स्टपोस्ट में सम्पादक की हैसियत से काम किया है। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऐम्स्टर्डैम से मीडिया स्टडीज़ में एम और मुंबई के सेंट जेवियर कॉलेज से समाजशास्त्र और मानवविज्ञान में बीए की पढ़ाई की है।

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सृष्टि गुप्ता

सृष्टि गुप्ता आईडीआर में एक सम्पादकीय विश्लेषक हैं और लेख लिखने, सम्पादन और अनुवाद से जुड़े काम करती हैं। इससे पहले सृष्टि ने स्प्रिंगर नेचर में संपादन से जुड़ा काम किया है। उन्होंने राजनीति विज्ञान में एमए किया है और लिंग, सामाजिक न्याय, सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर शोध करने में रुचि रखती हैं।

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