मैं 22 सालों से सोशल सेक्टर में काम कर रही हूं। आप इसे मुझे मिले मौके कहिए या मेरा संघर्ष कहिए, मैं इस क्षेत्र से जुड़ सकी। अनगिनत संगठनों के साथ काम करते हुए मेरी विचारधारा बनी है और इसी दौरान मैंने बहुत सी बातें जानीं हैं। जैसे फेमिनिज़्म क्या है, जाति विरोधी आंदोलन क्या है, बॉडी पॉलिटिक्स क्या होती है, वगैरह। मैं घिसाडी गाड़िया लोहार समुदाय से आती हूं। क़रीब 14-15 साल सोशल सेक्टर में काम करने के बाद, मैंने पाया कि हमारी घुमंतू और विमुक्त जनजातियों (नोमैडिक एंड डिनोटिफाइट ट्राइब – एनटी-डीएनटी) तक समाजसेवी संगठन भी ठीक तरह से नहीं पहुंच पा रहे हैं। अंग्रेज़ी राज के दौरान घुमंतू और विमुक्त जनजातियों को बहुत ही अन्यायपूर्ण और गलत तरीके से अपराधी समुदाय घोषित कर दिया गया था। तब से ये समुदाय बदनामी और भेदभाव झेल रहे हैं। यहां तक कि 1952 में आपराधिक जनजाति अधिनियम को खत्म किए जाने के बाद भी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है।
सोशल सेक्टर की बात करें तो उनके पास घुमंतू और विमुक्त जनजातीय समुदायों से संवाद करने के लिए न तो भाषा है और न ही इनकी कठिनाइयों का अंदाज़ा लगा पाने के लिए जरूरी समझ। अक्सर जहां कल्याणकारी योजनाएं और विकास पहलें तैयार करते हुए इन समुदायों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। वहीं, इस तरह लगातार होने वाले भेदभाव और उपेक्षा का उनकी मानसिक सेहत पर क्या असर पड़ता है, इस पर भी बहुत कम बात की गई है। यह व्यवहार इतना आम हो गया है कि अब हमें भी इसकी आदत हो गई है। इसलिए मुझे लगता है कि मैं जहां से आई हूं, वहां पर मुझे काम करना चाहिए। जहां मानसिक स्वास्थ्य की बात है, मेरे पास एक सामुदायिक पहचान थी। मेरे बचपन के अनुभव ऐसे ही रहे हैं। चाहे घुमंतू होने की बात हो, शिक्षा, शादी या जीवन के बाक़ी छोटे-बड़े फैसले लेने की बात हो, हर चीज के लिए इन समुदायों द्वारा किए जा रहे संघर्ष और उनके मानसिक स्वास्थ्य को अलग-अलग रखकर नहीं देखा जा सकता है। ऐसे में, देश में इस समय मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जो रवैया है – जहां मानसिक सेहत को केवल एक मेडिकल विषय की तरह देखा जाता है – वहां इन समुदायों को कैसे शामिल किया जा सकेगा? वह भी तब जब इन समुदायों के मुद्दे कहीं ज्यादा जटिल और गहरे हैं।
यह चिकित्सकीय विमर्श से कुछ ज्यादा है
जब कोई बहुत आक्रामक होता है या बहुत उदासीन व्यवहार करता है तो यह कहा जाता है कि वह किसी तरह की मानसिक समस्या से पीड़ित है और इसके लिए उसे अपना इलाज करवाना चाहिए। या फिर ऐसे लोगों को चिंता (एंग्जायटी) या अवसाद (डिप्रेशन) से पीड़ित बता दिया जाता है। लेकिन ऐसा करना तो बस पोस्टमार्टम के बाद मौत का कारण बता देने जैसा हुआ, इससे यह थोड़ी पता चलता है कि किन कारणों से, किन परिस्थितियों में कोई मरने तक पहुंचा है। आज मानसिक स्वास्थ्य पर चल रहे विमर्श के मुताबिक आसानी से ऐसे लोगों को चिंता और अवसादग्रस्त बता दिया जाता है। लेकिन इस चिंता और अवसाद की जड़ को पहचानने का काम कौन करेगा? मैं कोई मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट नहीं हूं लेकिन मैंने इतिहास में ऐसे कई उदाहरण देखे हैं जो मानसिक स्वास्थ्य पर बात करने के लिए कुछ ऐसे वैकल्पिक तरीके बताते हैं जो कारगर रहे हैं।
महिलाओं के लिए सावित्री बाई फुले ने जो काम किया है, उसके बारे में सोचिए। उन्हें हमेशा केवल शिक्षा से जोड़कर देखा जाता है लेकिन ज्यादातर लोग भूल जाते हैं कि उन्होंने अकेली महिलाओं, विधवाओं और यौन और घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं के लिए भी काम किया है। इस तरह की महिलाएं जब आत्महत्या करने के लिए जाती थीं तो सावित्री बाई फुले उन्हें मनाकर अपने घर ले आतीं थीं, उन्हें सुनतीं-समझती थीं। मैं सोचने लगी कि क्या सावित्री बाई फुले को हमने मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में देखा-समझा है? वे जब औरतों से बात करती थीं तो क्या वे सुसाइड प्रिवेंशन नहीं करती थीं, क्या काउंसिलिंग नहीं करती थीं? क्या उन्होंने संसाधन उपलब्ध नहीं करवाए? हो सकता है वे प्रोफेशनल काउंसलर की परिभाषा में फ़िट नहीं बैठती हों लेकिन उन्हें ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के साथ हो रहे अन्याय की समझ थी। उन्हें पता था कि हाशिए पर खड़े लोग किन मुश्किलों का सामना करते हैं और उनकी मुश्किलों को कैसे हल किया जाता है। इससे मुझे समझ आया कि इन नायकों ने मानसिक न्याय (मेंटल जस्टिस) के लिए बहुत काम किया है।
अन्याय को कोई जादुई छड़ी घुमाकर खत्म नहीं किया सकता है
मैं बारहवीं में दूसरे स्थान पर आई थी, फर्स्ट क्लास में पास होने के बाद भी मैं कई सालों तक हायर एजुकेशन के लिए नहीं जा पाई। मुझे लगातार लग रहा था कि मैं ही काबिल नहीं हूं। मुझे यह समझने में बहुत समय लग गया कि मेरे आत्मविश्वास में कमी की वजह व्यवस्थित रूप से किया जा रहा दमन था।
हज़ारों सालों से हमारे लोगों को यह बताया गया है कि वे कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से कमतर हैं।
पिछड़े समुदाय के सदस्य के तौर पर, हम अक्सर अपने आप से पूछते हैं कि मैं वह क्यों नहीं कर सकता/सकती जो दूसरे कर सकते हैं? महिलाओं और युवाओं के साथ यह ज्यादा होता है। अपने सवालों के जवाब मिलना बहुत जरूरी है। जब हम अपने जवाब नहीं खोज पाते हैं और हमारी मदद करने वाला कोई नहीं होता है तो हम अपने आपको या अपने समुदाय को दोषी ठहराने लगते हैं। हम खुद को कमतर मानने लगते है। अपने बारे में ये धारणाएं कहां से आती हैं? क्या ये हमारे अंदर पनप रही मानसिक बीमारियों का नतीजा है? नहीं, यह भेदभाव और सामाजिक ऊंचनीच के कारण पैदा होता है। हमें उन संवादों की जरूरत हैं जो मानसिक दमन के कारणों की जड़ की बात करें।
हज़ारों सालों से हमारे लोगों को यह बताया गया है कि वे कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से कमतर हैं। उन्होंने अपनी रोजाना की बातचीत में अपनी जाति का मज़ाक़ बनते देखा है। उन्हें महसूस हुआ है कि उनके समुदाय का कोई वजन नहीं है। हमारी सहज भाषा में उनका अपमान शामिल होता है। उन्होंने ऐसे धर्मग्रंथ पढ़े और कहानियां सुनी हैं जिनमें असुर, बेताल, राक्षस वगैरह शैतान होते थे। इनका नाम सुनकर आपके दिमाग़ में आता है कि अरे ये तो दानव हैं। इससे नकारात्मक छवियां उभरती हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, ये सब समुदाय है। अगर आप झारखंड जाएं तो आपको पता चलेगा कि असुर एक जनजाति है जिसका अपना एक अलग सांस्कृतिक इतिहास है। आज भी विमुक्त जनजातियों के ख़िलाफ़ गलत मामले बनाए जाते हैं तो वे चोरी, ठगी और डकैती के होते हैं। यह उनके अपराध से जोड़ दिए गए अतीत की याद दिलाने जैसा होता है। हालिया कुछ उदाहरण भी बताते हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में शामिल होने, ज़मीन का अधिकार हासिल करने की कोशिश करने पर विमुक्त जनजातियों को मॉब लिंचिंग का शिकार होना पड़ा है। दशकों के संघर्ष और क़ानूनी मदद के बाद अगर वे ज़मीनों पर अधिकार हासिल कर भी लेते हैं तो इलाक़े के वर्चस्ववादी लोग उन पर हमला कर देते हैं जिसमें कइयों को जीवन से हाथ धोना पड़ता है। यह ऐसा जैसे हमें लगातार बताया जाए कि अगर हम अपनी सीमाओं को पार करेंगे और अपनी आवाज़ उठाएंगे तो हमें उसके नतीजे झेलने पड़ेंगे।
यह कहा जाता है कि अंग्रेजों ने घुमंतू और विमुक्त जनजातियों की ज़मीनें और संसाधन छीन लिए थे और यह सच भी है लेकिन असल में यह काम ज़मींदारों ने किया था। इसका मतलब क्या है कि वर्गभेद, जाति व्यवस्था और लैंगिक पक्षपात हाथों में हाथ डालकर काम करता है। यह आज भी जारी है। कई एनटी-डीएनटी समुदाय केवल अपने जीवन को बचाए रख सकने के लिए घुमंतू समाज में बदल गए, अगर आज वे कहीं बसना चाहें तो क्या उनके लिए ज़मीन उपलब्ध है? क्या बाक़ी का समाज उन्हें वह ज़मीन और संसाधन देने के लिए तैयार है जिनकी जरूरत उन्हें एक जगह पर बसने के लिए होगी?
मानसिक सेहत के मसले को सामाजिक न्याय के चश्मे से ही देखा जाना चाहिए।
आज, हम समाजसेवी संगठनों और मेंटल हेल्थ प्रैक्टिशनर्स को यह बात करते देखते हैं कि हमें समाज के पिछड़े तबके के लिए मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध करवाने की जरूरत है। यह एक बेहतरीन शुरूआत होगी लेकिन मानसिक सेहत के मसले को सामाजिक न्याय के चश्मे से ही देखा जाना चाहिए। और हमें मानसिक न्याय के लिए भी काम करने की जरूरत है। मानसिक न्याय, जैसा मैं इसे समझती हूं, इसमें लोगों के विकास, अवसर, सहभागिता और नेतृत्व के अधिकार की बात करना और उन तक इसकी पहुंच बनाने जैसी बातों को शामिल किया जाना चाहिए। इस मामले में कम से कम भारत के संविधान से मिले हमारे अधिकार तो कोई भेदभाव नहीं करते हैं। जैसे हम आर्थिक न्याय, सामाजिक न्याय, मौलिक अधिकारों की बात करते हैं, उतना ही जरूरी मानसिक न्याय पर बात करना भी है।
मानसिक न्याय की राह
एक व्यवस्था जो पिछड़े लोगों का दमन करती है, उसे बनने में एक लंबा वक्त लगा है। किसी समाजसेवी संगठन के लिए एक दिन, एक हफ्ते या कुछ सालों में भी खत्म कर पाना संभव नहीं होगा। लेकिन यह काम कहीं से तो शुरू होना चाहिए।
मैंने 2016 में अनुभूति ट्रस्ट की स्थापना की। इसका मक़सद विमुक्त समुदायों से जमीनी नेतृत्व खड़ा करना और उन्हें बदलाव के लिए तैयार करना था। वह बदलाव जिसकी उन्हें अपने अनुभवों के पीछे का सच जानने, अपने ताकतवर और विकासशील बहुजन इतिहास को दोबारा हासिल करने और अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए जरूरत थी। वे अपने सामने आने वाले संकटों से निपटना जानते हैं और व्यापक समझ, सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं में सहयोग करने में सक्षम होते हैं।
अपने काम के दौरान हमने जाना है कि मानसिक न्याय हासिल करने के लिए किसी को केवल मानसिक स्वास्थ्य पर काम करने की जरूरत नहीं होती है। कुछ ऐसे प्रयास हैं जो संगठन के चल रहे कामकाज में शामिल किए जा सकते हैं जो कि पिछड़े समुदायों को मानसिक न्याय दिलाने में एक बड़ी मदद कर सकते है। यहां पर इसके कुछ उदाहरणों पर बात की गई है:
1. शोध करें
अनुभूति में हमारी ज्यादातर समझ समुदायों के पास पहुंचने और उनके अनुभवों के बारे में बात करने से बनी है। हाल ही में जब थाणे, महाराष्ट्र में एनटी-डीएनटी समुदायों का सर्वे किया जा रहा था तब हमें पता चला कि इन समुदाय से आने वाले ज्यादातर लोग इस बात की उम्मीद भी नहीं करते हैं कि उन्हें शौचालयों या साफ-सफ़ाई की सुविधाएं मिल सकती हैं क्योंकि वे केवल अपने-आप के भरोसे जीवन बिता रहे थे और उनके पास कोई दस्तावेज नहीं थे। इससे हमने समझा कि उन्हें उनके मूल अधिकारों के बारे में बताए जाने और यह समझाने की जरूरत है कि इन्हें कैसे हासिल किया जा सकता है। औऱ इसके लिए उन्हे स्थानीय प्रतिनिधियों की जरूरत होती है जो उनके ही समुदाय से आते हों। समाजसेवी संगठन यह जरूरी सबक केवल समुदाय के साथ बात करने से सीख सकते हैं।
2. संवाद की एक भाषा चुनें
ग़ैर-लाभकारी संगठनों को इस तरह की भाषा इस्तेमाल करनी चाहिए जो समुदाय को आसानी से समझ में आ सके। स्वाभाविक है कि इसके लिए किसी को उस समुदाय की बोली बोलने में सक्षम होना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही उनकी ज़मीनी हक़ीक़त और उनके अनुभवों की समझ भी होनी चाहिए। संस्थानिक और औपचारिक भाषाएं यहां काम नहीं करती हैं। उन्हीं की भाषा में संवाद करते हुए उदाहरण और संस्मरणों को इस्तेमाल करना समुदायों तक बात को अच्छी तरह पहुंचाता है।
अनुभूति ने बहुत कुछ सीखा है और अब भी लगातार अपनी ग़लतियों से सीख रहा है। हमारे एक सलाहकार थे जिन्होंने एक बार किसी श्रमिक महिला को कामकाज के बाद किताबें पढ़ने की सलाह दी थी, बग़ैर यह जाने कि वह रात के तीन बजे तक काम करती है। इस तरह के तरीके लोगों के जीवन की वास्तविकताओं को नहीं शामिल कर पाते हैं। इसी से जुड़ी एक बात यह भी है कि हम अपने तरीक़ों में मानसिक स्वास्थ्य की चर्चा के साथ जुड़ी जटिलता को भी कम कर सकते हैं। अनुभूति में, हमने सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने शुरू किए जहां लोग पेंट करते हैं, गीत गाते हैं, कविताएं लिखते हैं और बाक़ी कई तरह से रचनात्मक अभिव्यक्ति के रास्ते खोजते हैं। यह उनके लिए अपने दुख या अकेलेपन के अनुभवों को अभिव्यक्त करने का साधन हो सकता है। और, साथ ही यह वह मौक़ा भी है जहां पर मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा बाहरी नरेटिव को थोपे बग़ैर की जा सकती है।
3. दो–तरफ़ा संवाद की संस्कृति बनाएं
विकास और मानसिक स्वास्थ्य पर काम करने वालों को पिछड़े समुदायों से सीखने के लिए खुला नज़रिया अपनाना चाहिए। इससे पॉवर बैलेंस में मदद मिलती है जो कि आमतौर पर इस तरह के संवादों में शामिल होता ही है। यानी, यहां पर कोई बताने वाला और कोई समझने वाला नहीं होना चाहिए। होना यह चाहिए कि समुदाय के सदस्य आपकी बात समझने के साथ-साथ आपसे सहजता से सवाल पूछ सकें। इसके लिए समाजसेवी संगठनों में सुनने और सीखने के प्रति खुलापन होना बहुत जरूरी है। ख़ासकर तब जब आप समुदायों को स्वास्थ्य सुविधाएं, सामाजिक लाभ और ऐसी ही बाक़ी चीजें हासिल करने में मदद कर रहे हों। आख़िर में, किसी समस्या की जड़ पर बात किए बिना उसका कोई हल नहीं निकाला जा सकता है और इसका पता आपको तभी चलेगा जब आप समुदाय से भी सीखने-समझने के लिए तैयार होंगे।
4. नुक़सान पहुंचाने वाले नरेटिव को खत्म करें
डेवलपमेंट और मेंटल हेल्थ सेक्टर में यह प्रवृत्ति होती है कि वे पिछड़े समुदायों के संघर्ष की कहानी पर बहुत ज़ोर देते हैं, यहां तक कि लोगों से बात करते हुए भी उनका ध्यान वहीं रहता है। वे उनकी मानसिक गरिमा को निचोड़ देने वाले शोषण की बात करते हैं। यह नज़रिया ये दिखाता है कि लोग लाचार हैं और ऐसा दिखना समुदाय के हित में नहीं होता है। विमुक्त समुदायों के लोग अपनी पहचान और संस्कृति से जुड़े नुकसान पहुंचाने वाले नरेटिव के साथ बड़े होते हैं। ग़ैर-सरकारी संस्थाओं का ध्यान समुदाय की मदद करने की बजाय उनकी संस्कृति और विरासत की खूबियों और उनकी परिस्थितियों के मूल कारणों की अधिकार-आधारित समझ बनाने पर होना चाहिए।
आमतौर पर समाज यह मानकर चलता है कि घुमंतू समुदाय बिना किसी उद्देश्य के घूमते रहते हैं। इसके उलट सच्चाई यह है कि उनका अपना एक नक्शा और नदियों और मौसमों से जुड़ा उनका पारंपरिक ज्ञान होता है जो उन्हें राह दिखाता है। इन समुदायों के साथ संवाद इस तरह के सशक्त नरेटिव के आसपास बुना जाना चाहिए जो कि उन्हें खुद में भरोसा करना सिखा सके।
चूंकि अनुभूति बहुजन लोगों के साथ काम करता है, इसलिए हम बहुजन आंदोलन और अंबेडकरवादी राजनीति पर बातचीत करते हैं। हम बच्चों को सावित्री बाई फुले भिड़ेवाड़ा स्कूल, पुणे ले जाते हैं ताकि वे एक ऐसी जगह देख सकें जहां पहली पीढ़ी की बहुजन महिलाओं ने अपनी शिक्षा शुरू की थी। हम समझते हैं कि कमरों में भाषण सुनने की बजाय, ये फ़ील्ड विजिट्स और उनके बाद होने वाली बातचीत बच्चों, युवाओं, महिलाओं और समुदाय के नेताओं में नेतृत्व, विरासत और अपने समुदाय की मानसिक क्षमताओं की समझ जगा देती है।
5. क़ानून, अधिकारों और राजनीति के बारे में जागरुक करें
भारत में विकासशील कानून हैं जैसे कि मेंटल हेल्थ ऐक्ट, 2017 जो कि हर ज़रूरतमंद को मेंटल हेल्थकेयर प्रदान करने के लिए लाया गया था। भारतीय संविधान एक और कारगर हथियार है जिसे पिछड़े समुदाय अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। हमारे मूल अधिकार लोगों में कोई भेदभाव नहीं करते हैं। हमें लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों के बारे में बताने और इन्हें हासिल करने में उनकी मदद करने की जरूरत है।
संगठनों को खुद नीतियां तय और लागू करनी चाहिए जो उनकी टीम और कार्यक्रम के भागीदारों को भेदभाव से सुरक्षित रख सकें।
इसके अलावा, संगठनों को खुद नीतियां तय और लागू करनी चाहिए जो उनकी टीम और कार्यक्रम के भागीदारों को भेदभाव से सुरक्षित रख सकें, फिर चाहे यह जातिभेद हो, लिंगभेद हो या कुछ और। साथ ही उनकी मानसिक स्थिति का भी ख़्याल रखा जाना चाहिए। जब एक संगठन नीतियां तय करता है, यह अपने सभी साझेदारों – फंडर्स, कर्मचारी, बोर्ड मेंबर और अन्य – के लिए उन्हें पढ़ने, समीक्षा करने और उन पर सवाल करने के मौके पैदा करता है। यह एक खुला, स्वस्थ और पारदर्शी तरीका है जो कामकाज के माहौल को मानसिक न्याय की तरफ ले जाने वाला बनाता है।
सोशल सेक्टर को अपनी प्राथमिकताएं फिर से तय करने की जरूरत है
पिछड़े समुदायों के साथ जुड़ाव का एक समावेशी मॉडल तैयार करने के लिए अभी सोशल सेक्टर को लंबी यात्रा करनी होगी। हम इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं कि सेक्टर अपने आप में उसी पितृसत्ता, जातिवाद, वर्गवाद और अन्य बुराइयों में फंस गया है जिससे यह लड़ना चाहता था। सोशल सेक्टर आज जिस दिशा में बढ़ रहा है वह ज्यादातर फंडर्स और फ़ंडिंग संस्थाओं द्वारा तय होती हैं। लेकिन सचमुच सबसे पिछड़े संगठनों की मदद करने के लिए, हमें यह याद रखने की जरूरत है कि फ़ंडिंग बस एक साधन है जो आगे का रास्ता बनाने में मदद करता है। अनुभूति में हम लगातार अपने आपको यह याद दिलाते रहते हैं कि हमें तय ढांचों, प्रोजेक्ट डेडलाइन के बोझ और फंडर की मांग को अपने उद्देश्यों पर हावी नहीं होने देना है। ख़ासकर तब जब हम समुदाय के बीच नारीवादी और जाति-विरोधी विचारधारा के साथ काम कर रहे हों।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
गोपनीयता बनाए रखने के लिए आपके ईमेल का पता सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *