January 11, 2023

क्या बिहार का बिमहास मानसिक अस्पतालों को लेकर आम नज़रिए को बदल सकता है?

बिहार सरकार द्वारा स्थापित बिमहास, उत्तर भारत में सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य का केंद्र बन सकता है। इसके लिए मनोसामाजिक विकलांगता को लेकर जागरुकता अभियान और सहयोग की भी जरूरत होगी।
6 मिनट लंबा लेख

सितंबर, 2022 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के पहले और नवनिर्मित मानसिक अस्पताल, ‘बिहार मानसिक स्वास्थ्य एवं सम्बद्ध विज्ञान संस्थान (बिहार इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड अलाइड साइंसेज़ – बिमहास)’ का उद्घाटन किया। ऐसा करते हुए उन्होंने राज्य में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य को सुलभ बनाने के लिए जरूरी हर संभव प्रयास करने का वादा भी किया।

272 बिस्तरों की उपलब्धता वाला यह अस्पताल राजधानी से लगभग 40 किलोमीटर दूर कोइलवर में, पटना और आरा के बीच स्थित है। इससे पहले यह इलाक़ा अब्दुल बाड़ी रेल-सड़क पुल के लिए जाना जाता था। 1862 में सोन नदी पर बनाया गया यह पुल आज भी उपयोग में है। इससे जुड़ा एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि इसे 1982 में बनी और ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित फिल्म ‘गांधी’ में भी दिखाया गया है। अब उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में कोइलवर देशभर में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के केंद्र के रूप में भी जाना जाएगा।

साल 2000 में जब बिहार और झारखंड का विभाजन हुआ तो न केवल बड़ी मात्रा में खनिज और राजस्व का बंटवारा हुआ बल्कि रांची में स्थित दो महत्वपूर्ण मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, ‘सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ साइकेट्री (सीआईपी)’ और ‘रांची इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूरो साइकाइट्री ऐंड अलाइड सायेंसेज (रिनपास)’ भी झारखंड के हिस्से में चले गए। सन 1918 में रांची में यूरोपियन लुनाटिक असायलम खोला गया था जो बाद में सीआईपी हो गया। इसके बाद रांची के कांके में ही सन 1925 में एक और मानसिक अस्पताल, इंडियन मेंटल हॉस्पिटल की स्थापना की गयी जो अब रिनपास कहलाता है। जमीनी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का घोर अभाव होने के कारण बिहार समेत पूरे उत्तर भारत और नेपाल से बड़ी संख्या में लोग इन दोनों संस्थानों का रुख करते रहे हैं।

विभाजन के कुछ समय बाद झारखंड और बिहार सरकारों के बीच मरीजों के इलाज पर हुए खर्च को लेकर विवाद हो गया। इसके बाद बिहार सरकार ने निर्णय लिया कि राज्य के मरीज़ों का इलाज कोइलवर के मानसिक अस्पताल में ही हो, ताकि राज्य सरकार को अलग से झारखंड सरकार को भुगतान न करना पड़े। फिर 2005 में सरकार ने कोइलवर में स्थित टीबी सैनिटोरियम को मानसिक अस्पताल में बदलने का फ़ैसला किया और अगले ही साल एक पुराने भवन में इसके ओपीडी की शुरूआत कर दी गई। मरीज़ों को भर्ती करने की सुविधा साल 2011 में जा कर शुरू हो पाई।

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लेकिन सुदूर इलाके में होने के कारण बिहार के बाक़ी ज़िलों से मरीज़ों को यहां लाना कठिन होता था। इसलिए ज्यादातर मरीज़ आसपास के जिलों या पुलिस द्वारा लाए गए होते थे। दूर होने का एक नुकसान यह भी था कि अस्पताल लंबे समय तक संसाधनों की कमी से जूझता रहा। 22 साल बाद अब राज्य को अपेक्षाकृत बेहतरीन सुविधाओं वाला मानसिक अस्पताल मिला है। इसलिए अब यह उम्मीद की जा रही है कि सरकार इसे सभी जरूरी संसाधनों के साथ मरीजों की आवाजाही के लिए यातायात की सुविधा देने पर भी सोचेगी, ताकि इसका समुचित संचालन और उपयोग सुनिश्चित हो सके।

मानसिक रोगों पर भारतीय समाज का रुख

मानसिक अस्पतालों को लेकर भारतीय समाज के रवैये की बात करें तो यह कहीं से भी सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है। आम बोलचाल में मानसिक अस्पतालों को मेंटल असाइलम या पागलखाना कहा जाता है। देशभर में इनका उपयोग मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों या हाशिए पर रह रहे लोगों जैसे विकलांग-जनों, विधवा महिलाओं वगैरह को समाज की मुख्यधारा से अलग करने के लिए किया जाता रहा है। या फिर, इन्हें अपराधियों को सजा देने के लिए कैदखाने की तरह इस्तेमाल किया जाता था। यही वजह है कि मानसिक अस्पतालों को लेकर आज भी समाज में घोर नकारात्मकता और लांछन का भाव जुड़ा हुआ है। आज भी कोई मानसिक या व्यवहारगत समस्या होने पर, उत्तर भारत में रांची या आगरा भेजे जाने की बात कही जाती है।

सामुदायिक स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भ्रांतियां और सामाजिक भेदभाव लोगों को इलाज लेने से रोकते हैं।

सामुदायिक स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भ्रांतियां और सामाजिक भेदभाव लोगों को इलाज लेने से भी रोकते हैं। शारीरिक बीमारियां होने पर किए जाने वाले व्यवहार से उलट मानसिक रोगी के साथ किया जाने वाला व्यवहार क्रूर होता है। इन मरीज़ों को लोग पागल की संज्ञा दे देते हैं और फिर उनके साथ दुर्व्यवहार और उनके मानवाधिकारों का हनन शुरू हो जाता है। मानसिक अस्पताल में भर्ती होने के बाद, अक्सर व्यक्ति समाज से अलग-थलग पड़ जाता है। अस्पताल से छुट्टी के बाद लांछन और भेदभाव की वजह से उसे दोबारा समाज की मुख्यधारा में शामिल होने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ऐसे मामले आते रहते हैं जिनमें असामाजिक तत्व, मानसिक समस्या को हथियार बना कर लोगों को मानसिक अस्पतालों मे बंद करवा देते हैं। अन्य मामलों में मानसिक रोगी बेघर होकर वर्षों तक मानसिक अस्पताल में बंद रहते है और उनके परिवार वालों या बाहरी दुनिया को इसकी खबर तक नहीं होती है। सरकार को देशभर के मानसिक अस्पतालों में बंद ऐसे लोगों की जानकारी को सुलभ बनाने की व्यवस्था करनी चाहिए। ताकि लोगों को उनके भूले-भटके परिजनों की जानकारी मिल सके। अनगिनत ऐसे मामले देखे जा सकते हैं जिनमें लोगों को अंदाजा भी नहीं होता है कि उनके परिजन देश के सुदूर कोने में किसी मानसिक अस्पताल में बंद हो सकते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) का मानना है कि सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए अलग से अस्पताल बनाने से बचना चाहिए। अध्ययन बताते हैं कि इस तरह के अस्पतालों को चलाना ज़्यादा खर्चीला होता है। लंबे समय तक यहां भर्ती होने के कारण लोग अलग-थलग हो जाते हैं और उनका सामाजिक संपर्क बाधित हो जाता है। मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों के सामाजिक पुनर्वास के लिए, आपसी सहयोग और सामाजिक संपर्क एक जरूरी शर्त है। इस तरह के जेल सरीखे अस्पतालों में मानव अधिकारों का हनन किया जाना भी सहज और आम होता है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को हर संभव सामान्य स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे जिला अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र आदि से जोड़कर रखने पर बल देता है। इससे जरूरत पड़ने पर लोग बेझिझक मानसिक स्वास्थ्य सेवा ले सकते हैं।

आम लोगों द्वारा मानसिक स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च के आंकड़े भी इन सेवाओं को सहज बनाने की जरूरत पर बात करते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 75वें दौर की गणना पर आधारित, एक अध्ययन में रंजन एवं अन्य (2022, पूर्वमुद्रित) ने पाया कि ओपीडी में मानसिक समस्याओं के इलाज़ के लिए 66 प्रतिशत लोग निजी क्षेत्र पर निर्भर हैं। निजी क्षेत्र पर अधिक निर्भरता की वजह सरकारी चिकित्सकों पर विश्वास की कमी, खराब गुणवत्ता तथा सेवाओ का अभाव आदि है। यहां ओपीडी का औसत ‘आउट ऑफ पॉकेट’ खर्च 2,358 रुपये है। आउट ऑफ पॉकेट खर्च का मतलब ऐसे खर्च से है जो सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के सहज उपलब्ध नहीं होने के कारण जनता को अपनी जेब से करना पड़ता है। अगर हर जिले में मानसिक रोगों के लिए, कम से कम ओपीडी और दवाएं ही उपलब्ध करा दी जाएं तो इस खर्च को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। ऐसा होने से लोग महंगे प्राइवेट अस्पतालों का खर्च उठाने के लिए, कर्ज लेने और ग़रीबी के दलदल में फंसने से बच जाएंगे।

बहुआयामी प्रयास जरूरी हैं

ऊपर ज़िक्र की गई न्यूनतम सेवाएं उपलब्ध करवाने के लिए राज्य को एक मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा और प्रशिक्षण केंद्र की जरूरत होगी। अब तक बिहार में ऐसा कोई संस्थान नहीं है। इसलिए आबादी की जरूरतों को देखते हुए भविष्य में बिमहास में बिस्तरों की संख्या बढ़ाकर, इसे एक मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा एवं अध्ययन केंद्र के रूप में विकसित करने की योजना भी है।

बस में बैठी एक बूढ़ी औरत-मानसिक अस्पताल
मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों के लिए जरूरी दवाओं की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। | चित्र साभार: काॅटनब्रो स्टूडियो / पे‍क्सेल्स

मानसिक स्वास्थ्य के ज़्यादातर मरीज़ों को अस्पताल में रुकने की जरूरत नहीं होती है और उन्हें ओपीडी के स्तर पर देख कर दवाई दे दी जाती है। लेकिन जिन मरीज़ों को ज़्यादा देखरेख की जरूरत होती है, उन्हें इस तरह के अस्पताल खुलने से बहुत आसानी होगी। अक्सर मानसिक रोगी इलाज और सामाजिक सहयोग के अभाव में बेघर होकर भटकने पर मजबूर हो जाते हैं। ऐसे लोगों तक मानसिक स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने के लिए जरूरी है कि अस्पताल के साथ-साथ समुदायों में भी काम शुरू किया जाए।

साथ ही, मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों के लिए जरूरी दवाओं की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। आयुष्मान भारत के अंतर्गत बन रहे नए हेल्थ एंड वेलनेस केंद्र (एचडबल्यूसी), समुदायों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में महत्वपूर्ण कड़ी बन सकते हैं। अगर हर अस्पताल मानसिक रोगियों की जानकारी, अपने निकटतम हेल्थ एंड वेलनेस केंद्र से साझा करे और वहां मौजूद एक प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी उसका फॉलो-अप ले और दवाई देने का काम करे तो यह स्थिति बदली जा सकती है। इससे यात्रा पर होने वाले खर्च और कार्य दिवस की बर्बादी से बचा जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी को भी मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा जरूरी प्रशिक्षण मिला हो। इसके लिए मानसिक स्वास्थ्य प्रणाली में मौजूद लोग जैसे मानसिक अस्पताल या जिलों के कार्यक्रम पदाधिकारी एक-दूसरे से समन्वय स्थापित कर काम कर सकते हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था की कार्यप्रणाली में इस तरह के समन्वय की परिकल्पना पहले से मौजूद है, लेकिन ऐसे बहुआयामी कार्य के लिए जरूरी नेतृत्व और प्रोत्साहन मौजूद नहीं है।

मानसिक स्वास्थ्य पर जागरुकता लाने और इससे जुड़ी स्थितियों को बदलने में मददगार कुछ अलग लेकिन महत्वपूर्ण बातों का ज़िक्र नीचे किया जा रहा है। इन बातों के बारे में, कम से कम इस क्षेत्र से जुड़े लोगों को तो जानना ही चाहिए। वहीं, आम लोग इन्हें जान-समझकर सामाजिक तौर पर अधिक संवेदनशील भूमिकाएं निभा सकते हैं:

1. मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017

मानसिक रोगियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 में व्यापक प्रावधान किए गए हैं। इसके तहत किसी व्यक्ति को उसकी मर्जी के बगैर भर्ती करने पर रोक लगाई गई है।

अधिनियम के तहत अनैच्छिक भर्ती की शिकायत भी की जा सकती है। यह अधिनियम रोगी को क्रूर और अपमानजनक व्यवहार से सुरक्षा देता है। अधिनियम जाति, वर्ग या लिंग आदि के कारण किसी तरह का भेदभाव न करने की और रोगी या उसके परिजनों की सहमति से ही इलाज के तरीके चुने जाने की बात कहता है। इस अधिनियम के तहत रोगी अपने इलाज के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर सकता है। साथ ही वह इन जानकारियों को गोपनीय रखने की मांग भी कर सकता है। इसके तहत, कुछ विशेष परिस्थितियों में ही व्यक्ति की इच्छा के विपरीत इलाज या भर्ती करवाया जा सकता है।

देर से ही सही, बिहार सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम को राज्य में लागू करने के लिए बड़ा कदम उठाया है। पटना उच्च न्यायालय के आदेश के बाद, पहली बार राज्य में मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण का गठन किया गया है। मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण की पहली बैठक में निर्णय लिया गया है कि मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के अंतर्गत राज्य के सभी मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों तथा संस्थानों का पंजीकरण शुरू कराया जाए और जिला स्तर पर मेंटल हेल्थ रिव्यू बोर्ड (एमएचआरबी) का गठन हो। एमएचआरबी को यह सुनिश्चित करना है कि मानसिक रोग से जूझ रहे लोगों के अधिकारों का उल्लंघन ना हो और उनकी भर्ती, उपचार और देखभाल मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 की प्रक्रियाओं के अंतर्गत ही हो।

2. मनोसामाजिक विकलांगता

मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों के समुचित पुनर्वास के लिए सिर्फ इलाज और दवाइयां भर काफी नहीं हैं। शारीरिक रोगों से इतर मानसिक रोग काफी जटिल होते है। स्वस्थ लोगों की तुलना में मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों को शिक्षा, रोजगार आदि पाने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। बीमारी की वजह से अक्सर इन्हें शिक्षा भी बीच में ही छोड़नी पड़ती है। जो लोग बढ़िया रोजगार पाने लायक़ शिक्षा और कौशल प्राप्त भी कर लेते है, उन्हें भी नौकरी हासिल करने में भेदभाव का सामना करना पड़ जाता है। ऐसा न हो, इसके लिए जरूरी है कि मानसिक रोग जैसी अदृश्य विकलांगता को भी शारीरिक विकलांगता की तरह ही सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जाए।

मानसिक समस्या से जूझ रहे लोगों को सरकार की विभिन्न रोजगार योजनाओं जैसे जीविका, मनरेगा आदि में प्राथमिकता देकर मुख्यधारा से जोड़ना चाहिए।

दिव्यांग-जन अधिकार अधिनियम, 2016 के अनुसार ऐसे लोग जिनका रोज़मर्रा का जीवन किसी मानसिक रोग की वजह से प्रभावित रहा हो, मनोसामाजिक विकलांगता की श्रेणी में आते हैं। ऐसे लोगों (न्यूनतम 40 फीसदी विकलांगता वालों) को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का लाभ दिए जाने का प्रावधान है। साथ ही इन्हें सरकारी योजनाओं में भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। मानसिक बीमारियों से जूझ रहे लोगों को काम नहीं मिल पाता है। इससे उनका मनोबल और खुद की देखभाल करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। मानसिक समस्या से जूझ रहे लोगों को सरकार की विभिन्न रोजगार योजनाओं जैसे जीविका, मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) आदि में प्राथमिकता देकर मुख्यधारा से जोड़ना चाहिए। समाज कल्याण विभाग और समाजसेवी संस्थाएं मिलकर निजी क्षेत्र को इस विषय पर जागरूक कर, ऐसे लोगों को रोजगार देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

मनोसामाजिक विकलांगता के अदृश्य होने के चलते, इसमें अन्य शारीरिक विकलांगों को मिलने वाले लाभ जैसे पेंशन, शिक्षा या नौकरी आदि की शर्तों में जरूरी छूट वगैरह नहीं मिल पाती है। अधिकतर लोगों का तो मनोसामाजिक विकलांगता का प्रमाणपत्र तक नहीं बन पाता है। बिहार में बहुत कम ऐसे संस्थान हैं जो मानसिक रोगियों के लिए विकलांगता प्रमाणपत्र जारी करते हैं। अब वह समय आ गया है जब मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को बदलाव के दूत के रूप में काम करना शुरू कर देना चाहिए। कुल मिलाकर, मानसिक स्वास्थ्य की व्यापक समझ को आगे बढ़ाने की जरूरत है। ताकि मनोसामाजिक विकलांगता और सामाजिक सहयोग की भावना को इलाज या दवाइयों जितनी ही तवज्जो मिल सके।

3. हाफवे होम

आधुनिक मनोचिकित्सा और बेहतर दवाइयों की वजह से अधिकतर मामलों में मानसिक रोग के इलाज के लिए लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहने की जरूरत नहीं रह गई है। लेकिन अभी भी देशभर के मानसिक अस्पतालों में लोग कुछ सालों से लेकर कई दशकों तक बंद रहने को मजबूर हैं। खासकर महिलाएं और हाशिये पर खड़े अन्य ऐसे लोग जिनमें मनोसामाजिक विकलांगता अधिक है, लेकिन उन्हें सहयोग नहीं मिल पाता है। इसके चलते उनके पास सड़कों पर रहने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं रह जाता है। ऐसे लोगों के लिए हाफ-वे होम मुख्यधारा में शामिल होने के लिए एक आश्रय प्रदान करता है। इस आश्रय घर की परिकल्पना ऐसे केंद्र के रूप में की गई है जहां मानसिक अस्पताल में समय बिता चुके या मनोसामाजिक विकलांगता के शिकार लोग बिना किसी रोकटोक के रह सकते हैं और दोबारा मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जरूरी सहयोग जैसे रोजगार, कौशल आदि हासिल कर सकते हैं।

न्यायालय के आदेश से कुछ जगहों पर हाफ-वे होम बन तो गया है, लेकिन जमीन पर इसके स्वरूप और उद्देश्य को लेकर सही जानकारी का अभाव है। जैसे पटना में हाल ही में खुले दो हाफ-वे होम का दौरा करने के बाद पाया गया कि इनके दरवाजे भी मानसिक अस्पताल की तरह ही बंद रहते हैं और इसमें रह रहे लोगों की आवाजाही पूरी तरह नियंत्रित की जाती है। इस कारण लोग बाहरी जीवन से उसी तरह कटे रह जाएंगे जैसे कि वे मानसिक अस्पताल में थे। लेकिन समाज कल्याण विभाग के अंतर्गत ये संस्थान समाजसेवी संस्थाओं द्वारा संचालित किए जा रहे हैं और मानसिक अस्पतालों की तुलना में बेहतर माहौल प्रदान कर रहे है। हाफ-वे होम के पीछे की सोच को जमीन पर उतारने के लिए समाज कल्याण विभाग और स्वास्थ्य विभाग को साथ आने की जरूरत है। इससे जुड़े अधिकारियों और समाजसेवी संस्थाओं को मानसिक रोगियों के पुनर्वास के लिए जरूरी रोजगार, कौशल और सबसे महत्वपूर्ण एक भेदभाव रहित माहौल बनाने देने की आवश्यकता है।

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  • जानें कि भारत में पिछड़े समुदायों और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के बीच की दूरी कम क्यों नहीं हो रही है।

लेखक के बारे में
भवेश झा-Image
भवेश झा

भवेश झा आईआईआईटी, बैंगलोर में प्रोग्राम ऑफिसर (टेली मानस) के पद पर कार्यरत है। वे राज्य मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण, बिहार के सदस्य भी है। वे राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 के तहत अधिकार आधारित मानसिक स्वास्थ्य सेवा बहाली के लिए बिहार व झारखंड में काम कर चुके है। उनकी रुचि आत्महत्या रोकथाम, मनोसमाजिक विकलांगता तथा मानसिक स्वास्थ्य व्यवस्था को सुदृढ़ करने में है। उन्होने टाटा समाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई से जनस्वास्थ्य में एएमए किया है ।

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