February 18, 2022

समावेशी समुदायों को बनाना नागरिक समाज का कर्तव्य है

जब तक विभिन्न समुदाय लिंग, जाति, वर्ग और धर्मों के आधार पर लोगों को बाहर रखना बंद नहीं करेंगे तब तक एसडीजी को हासिल करने की तमाम कोशिशें कम पड़ती रहेंगी।
8 मिनट लंबा लेख

अक्सर तीसरे क्षेत्र के रूप में देखे जाने वाले नागरिक समाज ने सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) और टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) को आकार देने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साथ ही यह नीति, योजना और निष्पादन के क्षेत्रों में राज्य और बाज़ारों के प्रमुख किरदारों के साथ काम करना भी जारी रखता है। 

पिछले कुछ दशकों में नागरिक समाज ने कुछ नई भूमिकाएँ निभानी भी शुरू कर दी हैं जैसे नीतियों और कार्यक्रमों को बनाने के लिए किसी विषय से संबंधित क्षेत्रीय ज्ञान और अनुभव के आधार पर विशेषज्ञ के रूप में अपनी सेवा देना। इसके अलावा प्रशिक्षण देकर क्षमता निर्माता के रूप में, इंक्यूबेटर के रूप में, सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए डिज़ाइन और पायलट समाधानों में मदद करना। 

इन सभी भूमिकाओं के लिए एक सामान्य विषय है। एक सूत्रधार, संयोजक, नवप्रवर्तनकर्ता या वकील के रूप में सभी राज्य और बाजार से जुड़े हुए हैं जिससे उन्हें बेहतर मानव विकास और कल्याण के लिए अच्छा काम करने में मदद मिलती है। 

जहां यह बहुत जरूरी है, इन दो हितधारकों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने के कारण समुदायों को समावेशी और प्रगतिशील बनने में मदद करने के आदेश को कम प्राथमिकता दी गई है। 

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एसडीजी हासिल करने के लिए समावेशी समुदाय महत्वपूर्ण हैं 

एसडीजी हासिल करने के लिए केवल शासन और बाज़ारों में सुधार ही पर्याप्त नहीं है; इसके लिए समुदायों को समावेशी होने की जरूरत होती है। लिंग, जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर लोगों को बाहर रखने वाले समुदायों के साथ एसडीजी को हासिल करने के लिए राज्य, बाजार और नागरिक समाज द्वारा किए गए सभी प्रयास हमेशा ही कम पड़ेंगे। 

कुछ वर्षों की प्रगति के बाद 2018 में लैंगिक अंतर वास्तव में बहुत अधिक बढ़ गया।

नागरिक समाज में ज़्यादातर लोग इस बात से सहमत होते हैं कि समुदायों को निश्चय ही समावेशी और जीवंत होना चाहिए; हालांकि प्रमुख सोच यही है कि समुदाय के लिए अपनी सीमाओं को संबोधित करना ही सबसे अच्छा उपाय है। इस सोच में निश्चय रुप से प्रतिभा शामिल है, हालांकि जैसा इतिहास से स्पष्ट है जरूरी नहीं है कि ऐसा होता ही है। जहां प्रगति संभव है वहीं यह अपरिहार्य नहीं है। इसके लिए कई हितधारकों द्वारा लंबे समय तक व्यवस्थित और निरंतर प्रयासों की जरूरत होती है। और कुछ मामलों में हमें विपरीत स्थिति भी दिखती है या फिर ऐसा होता है कि प्रगति को रोक दिया जाता है। 

कुछ वर्षों की प्रगति के बाद 2018 में लैंगिक अंतर वास्तव में बहुत अधिक बढ़ गया। वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2018 के अनुसार मापे गए चार स्तंभों में से केवल एक—आर्थिक अवसर—ने 2018 में लैंगिक अंतर में कमी दिखाई। अन्य तीन स्तंभों—शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीति—ने वास्तव में कमी में वृद्धि को देखा था। 

नागरिक समाज समुदायों को और अधिक समावेशी और प्रगतिशील बनने में मदद करने के पहलू को नज़रअंदाज क्यों करता है?

इसका एक कारण विकासवादी हो सकता है। जहां नागरिक समाज सरकार और बाज़ार से अलग होकर स्वतंत्र बनने में सक्षम हो गया, वहीं यह इसके साथ विकसित होने के कारण इसने समुदाय के साथ घनिष्ठ संबंध भी बना लिया है। इसलिए समुदाय और नागरिक समाज के बीच का भेद अक्सर अस्पष्ट होता है। 

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नागरिक समाज समुदाय की ताकतों पर ध्यान केन्द्रित करना पसंद करता है, वहीं अपने बहिष्करण ढांचे और अभ्यासों को नज़रअंदाज करने का चुनाव करता है। | चित्र साभार: फ्लिकर

इससे नागरिक समाज के लिए अक्सर अस्तित्ववाद संबंधित दुविधा पैदा हो जाती है, और इसलिए यह अपने बहिष्करण ढांचे और अभ्यासों को नज़रअंदाज करने का चुनाव करते हुए समुदाय की ताकतों पर ध्यान केन्द्रित करना पसंद करता है। उदाहरण के लिए, अगर कोई स्वयंसेवी संस्था अपने टीकाकरण कार्यक्रम को बेहतर बनाने के लिए सरकार के साथ काम कर रही है तब इसका लक्ष्य सार्वभौमिक पहुँच से अधिक संबंधित होता है न कि इस बात से कि कुछ समूह और समुदाय सेवा से वंचित क्यों रह गए या उन तक कम सेवा और सुविधा क्यों पहुंची। इसी तरह, शिक्षा के क्षेत्र में आमतौर पर ध्यान समग्र स्तर पर सीखने के परिणामों में सुधार लाने के काम पर होता है, जबकि इस तथ्य की अनदेखी की जाती है कि पहुँचने वाले लाभ जातीय और धार्मिक समूहों के बीच महत्वपूर्ण रूप से अलग हो सकते हैं। 

आंशिक रूप से ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जाति, लिंग, पितृसत्ता और ऐसे ही कई विषयों से जुड़े मुद्दों को हल करने की कोशिश करने से कुछ संभावित लाभों की भरपाई हो सकती है, जो हस्तक्षेप की पहुँच या परिणामों की गुणवत्ता में सुधार कर सकते हैं, खासकर कम समय अंतराल से मध्यम समय अंतराल में। 

लेकिन क्या हम समुदायों को और अधिक समावेशी बनने में उनकी मदद करने के अवसर से चूक रहे हैं?

ऐसे कई उदाहरण हैं जहां नागरिक समाज संगठनों ने राज्य या बाज़ारों द्वारा समुदायों तक सेवा वितरण की पहुँच और गुणवत्ता में सुधार लाने के क्षेत्र में काम किया है। लेकिन साथ ही उसी समुदाय के अंदर सामाजिक नियमों, पितृसत्तात्मक व्यवहारों और भेदभाव से निबटने के अवसर से चूक गए हैं। 

दलित समाज के 94 प्रतिशत बच्चे एएनएम के रूप में जमीन पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले भेदभाव का शिकार होते हैं।

2006 में राजस्थान में आए बाढ़ के दौरान ऐसा दर्ज किया गया था कि ‘दूसरों को प्रदूषित’ करने के डर के कारण दलितों को ‘राहत शिविरों’ से निकलने के लिए कहा गया था। 2008 में बिहार में कोसी में आने वाले बाढ़ के दौरान ऐसा पाया गया कि राहत कार्य के दौरान राहत शिविरों में अलगाव और प्रमुख जतियों वाले शिविरों में अन्य लोगों को वंचित करना एक नियम जैसा था। कुछ मामलों में राहत शिविरों में दलित परिवारों का पंजीकरण नहीं किया गया था। 2007 में बिहार में आए बाढ़ के दौरान दलितों के साथ हिंसा की खबरें भी सामने आई थीं।

ये एक-आध घटनाएँ नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिल नाडु और राजस्थान, इन पाँच राज्यों के लगभग 531 गांवों से लिए गए नमूनों के आधार पर किए गए अध्ययन से यह सामने आया कि सरकार की मिड डे मील योजनाओं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बँटवारे में उच्च जातियों के अभिभावकों द्वारा भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। 

एक दूसरे शोध से यह बात सामने आई कि दलित समाज के 94 प्रतिशत बच्चे एएनएम के रूप में जमीन पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले भेदभाव का शिकार होते हैं क्योंकि ये लोग इन बच्चों तक स्वास्थ्य सेवाएँ पहुंचाने के लिए इनके घरों के भीतर नहीं जाते हैं। 

एक और पायलट अध्ययन से इस बात के प्रमाण मिले हैं जो यह संकेत देते हैं कि कुछ खास किस्म की नौकरियों में प्रवेश के समय दलित समाज की महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है और उनका बहिष्कार होता है। व्यवसायों की शुद्धता और प्रदूषण की धारणा के कारण सफाई कर्मचारी के समुदायों से संबंध रखने वाली महिलाओं को रसोइया या नौकरानी के रूप में काम पर नहीं रखा जाता है। 

नागरिक समाज को इसे बदलने की जरूरत है 

केवल एक बेहतर शासन और बाजार ही प्रगति करने और एसडीजी तक पहुँचने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। पिछले दशकों में भारत की जीडीपी (सकल-घरेलू उत्पाद) लगभग छ: प्रतिशत तक बढ़ा है; हालांकि महिला श्रम बल की भागीदारी में 1999–2000 में 34 प्रतिशत से 2011–12 में 27 प्रतिशत तक की गिरावट आई है। जहां इसके कई कारण हैं, वहीं पितृसत्तात्मक बर्ताव, एजेंसी और नियंत्रण में कमी और निम्न स्तर ऐसे मुख्य कारक हैं जिनका योगदान अधिक है। 

वास्तव में, बढ़े हुए आर्थिक सशक्तिकरण से उन महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ समुदाय और व्यक्तिगत प्रतिक्रिया के उदाहरण भी हो सकते हैं जो अपनी एजेंसी का प्रयोग करती हैं और लैंगिक सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों को चुनौती देती हैं। प्रमाण दिखाते हैं कि वित्तीय संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच में वृद्धि वैवाहिक हिंसा को बढ़ावा दे सकती है। प्रतिक्रिया के अन्य मामलों में स्कूलों से लड़कियों को निकाल देना, उनकी शादियाँ करवा देना और यहाँ तक कि ऑनर किलिंग (सम्मान की रक्षा के लिए जान से मार देना) आदि शामिल हैं। 

नागरिक समाज को वर्तमान की अपनी भूमिका से आगे बढ़कर कुछ करने की जरूरत है।

जितना हम चाहेंगे, समुदाय में सुधार स्वत: घटित नहीं होगा। नागरिक समाज को वर्तमान की अपनी भूमिका से आगे बढ़कर कुछ करने की जरूरत है। और समुदाय के साथ इसके घनिष्ठ संबंधों को देखते हुए ऐसा करने के लिए यह अच्छी तरह से तैयार है। यह समुदाय के नेताओं, समूहों और व्यक्ति विशेष के साथ साझेदारी स्थापित करके इस बदलाव को लाने का काम कर सकता है। 

हालांकि, हम कुछ बदलावों को देख रहे हैं 

अगर आप आज की तारीख में जातीय गतिशीलता को देखते हैं तब आप पाएंगे कि इसमें से कुछ आर्थिक वृत में बदल चुका है। पहले कृषि (ग्रामीण भारत के लिए आजीविका का मुख्य स्त्रोत) में कुछ खास जातियाँ ही किराए पर जमीन लेती थीं वहीं दूसरी जातियाँ मजदूरों के रूप में काम करती थीं। लेकिन नए अवसरों के आने के बाद आर्थिक प्रारूप बदल गया है। गैर-कृषि पेशे सामने आए हैं और लोग इन्हें चुन सकते हैं। 

मजदूरों की कमी को देखते हुए उच्च जाति वाले समुदायों के लोगों ने साझा फसलों के लिए निम्न जाति के किसानों को अपनी ज़मीनें देनी शुरू कर दी है। 

हालांकि इस विकास को सामाजिक और राजनीतिक दुनिया में बदलाव के रूप में नहीं देखा गया। सामाजिक संवाद आज भी सीमित है—भिन्न जतियों के बीच होने वाली शादियाँ आज भी दुर्लभ हैं; और एक दूसरे के सामाजिक सम्मेलनों में भी लोगों का शामिल होना उसी तरह है। राजनीति में भी यही हाल है, जहां राजनीतिक बनावट आज भी जाति-आधारित है चूंकि इसका मुख्य उद्देश्य शक्ति और संसाधनों का विलय है। 

इन क्षेत्रो में बदलाव लाना मुश्किल है; हालांकि यह महत्वपूर्ण है कि इन मुद्दों को स्पष्ट किया जाये और नागरिक समाज उनपर काम करने पर विचार करे। समुदायों को समावेशी और प्रगतिशील बनाने में मदद करना हमारे केंद्रीय कार्यसूची का हिस्सा होना चाहिए। 

नागरिक समाज सरकार के साथ अपने काम करने के तरीके पर भी समान दृष्टिकोण को अपना सकता है। कई तरह के विभाजनों का सामना करने के बावजूद—उदाहरण के लिए पैमाने पर उपस्थित लेकिन सीमित निष्पादन क्षमता; जवाबदेही व्यवस्था और असमान शक्ति संरचनाओं का सह-अस्तित्व; और निहित स्वार्थों का प्रबंधन करते हुए कल्याण को अधिकतम करने का इरादा—नागरिक समाज यह मानता है कि उसे सरकार के सभी अच्छे-बुरे हिस्सों से निबटना है। और यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसे वह समुदाय के साथ काम करते वक्त अपना सकता है।

समुदाय के साथ संबंधों को संतुलित करने और दोबारा परिभाषित करने के तरीकों की खोज-प्रक्रिया में कई तरह की चुनौतियाँ होंगी। इसके लिए हमें नए ज्ञान और उपकरणों की जरूरत के साथ-साथ असफलताओं और नाकामयाबियों से उबरने के लिए अतिरिक्त संसाधनों और तंत्रों की जरूरत भी होगी। लेकिन इससे हमें इस तथ्य से विचलित नहीं होना चाहिए कि नागरिक समाज के लिए इस दिशा में आगे बढ़ना एक आवश्यक मामला है। 

अस्वीकरण: डॉक्टर रेड्डीज फ़ाउंडेशन सामाजिक क्षेत्र में कम चर्चित विषयों पर शोध और प्रसार के लिए आईडीआर का समर्थन करती है।

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  • इस छोटे से लेख के माध्यम से समुदायों के बहिष्करण के तरीकों पर अंबेदकर और गांधी के विचारों के अंतर के बारे में जानें।

लेखक के बारे में
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शमिक त्रेहान

शमिक त्रेहान डॉक्टर रेड्डीज फ़ाउंडेशन (डीआरएफ़) के सीईओ हैं और यहां 2015 से काम कर रहे हैं। इनका लक्ष्य समुदायों, सरकार, विकास एजेंसियों और निजी क्षेत्रों के साथ साझेदारी में गरीबों के जीवन में सुधार लाना है। इसी क्रम में इन्होनें सामाजिक क्षेत्रों में होने वाले बड़े स्तर के कार्यक्रमों के नेतृत्व और प्रबंधन में कई वर्षों का अनुभव हासिल किया है। डीआरएफ़ में काम करने से पहले वह केयर इंडिया के लिए बिहार तकनीकी सहायता कार्यक्रम के दल प्रमुख थे। इन वर्षों में शामिक ने सार्वजनिक और निजी दोनों ही क्षेत्रों के नेताओं के साथ काम किया जिसमें भारत सरकार, बीएमजीएफ़, डीएफ़आईडी, ईयू और भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाएं शामिल हैं। उनकी रुचि रणनीति, संगठन निर्माण और नेतृत्व के विषय में है।

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