मैं गुजरात के छोटाउदेपुर जिले के पनीबर गांव में रहने वाली एक पत्रकार हूं। यहां से मैं आदिम संवाद नाम का एक यूट्यूब चैनल चलाती हूं जो विभिन्न आदिवासी समुदायों से जुड़े मुद्दों पर बात करता है। राठवा जनजाति से होने के कारण, मैंने अपने जीवन के अलग-अलग चरणों में भेदभाव का अनुभव किया है। इसमें शिक्षकों, सहपाठियों और साथियों का जातिवादी रवैया और टिप्पणियां भी शामिल हैं।
हालांकि राठवा समुदाय को गुजरात में एक अनुसूचित जनजाति माना जाता है, लेकिन इसकी विविधताएं सवाल खड़े करती हैं। हमारे समुदाय के लोग राठवा-कोली या कोली-राठवा जैसे हाइफ़नेटेड उपनाम लिखने के आदी थे, जिसमें या तो उस राज्य, क्षेत्र या गांव का नाम शामिल होता था जिसमें वे रहते थे, या उनके पेशे का नाम जो उन्होंने अपना रखा था। यह समुदाय का अपनी व्यक्तिगत पहचान पर जोर देने का तरीका था। लेकिन जब सरकार ने रेवेन्यू रिकॉर्ड और अन्य कागजात तैयार किए तो उनमें जुड़े हुए उपनामों का ही इस्तेमाल हुआ। इस कारण इन उपनामों को राठवा समुदाय से अलग माना जाता है। मेरा सवाल है कि इतने वर्षों के बाद भी हमारी आदिवासी पहचान इन कागजों के आधार पर क्यों तय की जाती है?
अब यह साबित करने के लिए कि हम वास्तव में आदिवासी हैं, और अपना अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आदिवासियों को अपने आप को साबित करना पड़ता है। कुछ समय पहले एक कमेटी बनाई गई – ट्राइबल एडवाइजरी कमेटी जिसमें हम आदिवासी है या नही, इसके लिए हमें एफिनिटी टेस्ट देना पड़ता है। इसके लिए हमें कई सवालों का सामना करना पड़ता है। जैसे कि हमारी बोली क्या है, हमारे मुख्य देव कौन हैं, उनका क्या महत्व है? या फिर उनके फ़ोटो भी पेश करने पड़ते हैं।
ये सब होने के बावजूद, हमें अपने दादा-परदादा के स्कूल रजिस्टर या ऐसे ही अन्य रिकॉर्ड पेश करने होते हैं। उसमें भी अगर राठवा मिला तो ही वह सही माना जायेगा अन्यथा उस व्यक्ति को जनजाति प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा। अगर किसी के पूर्वज स्कूल नहीं गए तो क्या उन्हें गैर-आदिवासी घोषित कर दिया जाएगा?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ राठवा ही इस समस्या का सामना कर रहे हैं। इसी क्षेत्र में नायक और धानका जनजातियां भी रेवेन्यू रिकॉर्ड में अपने नाम के कारण जाति पहचान के लिए संघर्ष कर रही हैं। राठवा, मध्य प्रदेश में भिलाला जनजाति की एक उपजाति है, जहां ताड़ावाला, बामनिया और जमोरिया जैसी सौ से अधिक भिलाला उपजातियां मौजूद हैं। वे भी अपने राजस्व रिकॉर्ड में हाइफ़नेटेड उपनामों का उपयोग करते हैं, लेकिन उन्हें उनकी राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है। फिर गुजरात सरकार जातिगत पहचान की इस जटिलता पर विचार क्यों नहीं करती है?
2022 में, राज्य सरकार ने एक नया परिपत्र निकाला जिसमें राठवा अनुसूचित जनजाति के तहत अपना उपनाम कोली-राठवा और राठवा-कोली लिखने वालों को मान्यता देने की बात कही गई थी। ऐसा इसीलिए किया गया ताकि उनके रास्ते में आने वाली बाधाएं को दूर हों और शिक्षा के संबंध में राठवा समुदाय को अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले लाभ प्राप्त हों। लेकिन रेवेन्यू रिकॉर्ड में राठवा उपनाम अभी भी निर्णायक मानदंड है। साथ ही, कोली-राठवा या राठवा-कोली वाले किसी भी व्यक्ति को राजस्व रिकॉर्ड और संस्कृति, परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं जैसे अन्य साक्ष्यों का आवेदक द्वारा दायर हलफनामे के अलावा, मूर्तियां, त्यौहार, पहनावा, बोली और विवाह इत्यादि के सत्यापन करने के बाद ही होगा।
ये लड़ाई कब ख़त्म होगी? अगर सर्कुलर बदलता है या कोई हमारी पहचान पर सवाल उठाते हुए मुकदमा दायर करता है तो क्या हमें फिर से संघर्ष करना होगा? यह हमारी जनजाति का डर और चिंता है।
सेजल राठवा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और गुजरात के छोटाउदेपुर जिले में रहती हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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