महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले में स्थित सतपुड़ा की पहाड़ियों में ‘कथा’ गाई जाती हैं जिनमें मुख्य रूप से पौराणिक कथाएं और गीत होते हैं। यहां रहने वाले भील समुदाय के जीवन में इन कथाओं और गीतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। इस समुदाय के पास जीवन, मृत्यु और इन दोनों के बीच में मौजूद तमाम बातों से जुड़ी पौराणिक कथाएं हैं। किसी की मृत्यु हो जाने पर, पूरी रात चलने वाले ऐसे समारोह आयोजित किये जाते हैं जिनमें लोग इकट्ठा होते हैं और कथावाचकों के साथ मिलकर गाते हैं। इन कथावाचकों को स्थानीय लोग गान्यू वालो (क्योंकि ये कहानियों को गाते हैं) के नाम से पुकारते हैं। खेती के कामों में भी इस प्रथा की छाप देखने को मिलती है जहां पूरी की पूरी ऐसी मिथक कहानियां हैं जिनमें न केवल सतपुड़ा में भीलों के बीच खेती का लोक इतिहास दर्ज है बल्कि इन कहानियों में ये भी बताया गया है कि कौन सी फसल – धान और सब्जियां सहित – किस मौसम में उगाई जानी चाहिए। इन लोक गीतों में बीज के अंकुरण और बोआई तथा सिंचाई के तरीक़ों का भी ज़िक्र किया गया है।
भील परंपरा का दस्तावेज़ीकरण करने के मेरे काम के दौरान, मुझे ऐसी कथाएं मिलीं, जिनमें इस समुदाय के चारागाहों से लेकर कृषिविदों तक की यात्रा के बारे में बताया गया है। एक आम मिथक है जो इस बारे में बताता है कि जब इस समुदाय ने पहली बार खेती का काम शुरू किया था तो उनके कुल देवताओं ने बीज की खोज के लिए लोगों को सात समुंदर पार भेजा था, जिससे अंत में इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन में समृद्धि आई। ये कहानियां मानवीय लालच और संसाधनों के अत्यधिक दोहन के प्रति भी सचेत करती हैं जो सूखा, कमी और अकाल का कारण बन सकता है।
मिथकों के अनुसार, देवियों और देवताओं ने इन गीतों के माध्यम से भीलों को खेती से जुड़ी शिक्षा दी थी। इस प्रकार गान्यू वालो को इन कहानियों को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है। गीतों के माध्यम से ही समुदाय के लोगों ने मोर और कोदारो जैसी चावल की क़िस्मों के बारे में जाना। इन क़िस्मों की खेती में बहुत ही कम पानी लगता है और इनकी खेती पहाड़ी के निचले हिस्सों में की जाती है जहां पानी के स्रोतों से उनकी सिंचाई होती है। उन्हें यह भी मालूम है कि उड़द और मूंग जैसी दालों की खेती मानसून के दिनों में की जानी चाहिए क्योंकि इन फसलों को एक निश्चित समय अवधि के लिए नियमित बारिश की ज़रूरत होती है। हालांकि, ये सभी ज्ञान अब अप्रासंगिक हो गए हैं क्योंकि पानी के झरने सूख चुके हैं और बारिश भी अनियमित हो गई है। बहुत अधिक बारिश होने से मोर और कोदारो के बीज बह जाते हैं और उड़द और मूंग की खेती के समय पर्याप्त रूप से नियमित बारिश नहीं होती है।
इसके अलावा, खेतों में मज़दूरों की जगह मशीनों ने ले ली है और बाज़ार से लाये गये बीज और खाद ने प्राकृतिक परंपराओं को ख़त्म कर दिया है। अब जब, पारंपरिक अनाजों के बदले इन पहाड़ियों में स्ट्रॉबेरी जैसे फल उगाए जाने लगे हैं, ऐसे में समुदाय के लोग ‘पौराणिक प्रथाओं’ को इससे कैसे जोड़ पाएंगे? आपको यह बदलाव विशेष रूप से नंदुरबार बाजार के आसपास की जगहों पर देखने को मिलेगा
चूंकि खेती के पुराने तरीक़ों ने अपना महत्व खो दिया है, उनसे जुड़े मिथक भी अब महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैं। अब खेती से जुड़ी पौराणिक गीतों और कहानियों को सुनने के लिए कोई भी गान्यू वालो को नहीं बुलाता है, जिसके कारण उनकी आजीविका बहुत अधिक प्रभावित हो रही है और भीली परंपरा के एक महत्वपूर्ण हिस्से के मिट जाने का ख़तरा भी पैदा हो रहा है।
जीतेन्द्र वसावा देहवाली भीली कवि हैं और भील लोक-इतिहास के दस्तावेज़ीकरण का काम करते हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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