“मेरी एक गलती या देरी लोगों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित कर सकती है”

मेरा नाम संतोष चारण है और मैं पिछले 14 सालों से आशा सहयोगिनी के रूप में काम कर रही हूं। मैं राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में आने वाली कपासन नगरपालिका में अपने पति और दो बेटों के साथ रहती हूं। मैंने 2004 से हापाखेड़ी गांव में जमीन पर काम करना शुरू किया। पहले मैं आंगनवाड़ी सहयोगिनी थी और फिर 2008 में आशा सहयोगिनी बन गई। आशा सहयोगिनी के रूप में, मैं गर्भवती महिलाओं को सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं और नीतियों से जोड़ने में मदद करती हूं और पूरी गर्भावस्था के दौरान उनकी सहायता करती हूं। इसके अलावा, मैं गांव में शिशुओं और बच्चों के लिए टीकाकरण अभियान भी चलाती हूं। मैं नियमित रूप से स्वास्थ्य सर्वेक्षण भी करती हूं ताकि समुदाय की स्वास्थ्य से जुड़ी जरूरतों को बेहतर ढंग से समझा जा सके और उनका समाधान किया जा सके।

सुबह 4 बजे: हर रोज मैं घर में सबसे पहले उठती हूं, पूजा करती हूं और मंदिर जाती हूं। कुछ साल पहले, मैं अपने ससुराल हापाखेड़ी से दो किलोमीटर दूर स्थित कपासन में बस गई। हापाखेड़ी में मैं ससुराल वालों के साथ रहती थी, वहां मुझे हर दिन सुबह 4 बजे उठकर गायों को चारा डालने, बाड़ा साफ करने और उपले बनाने जैसे काम करने होते थे। यह सब मैंने 1998 में शादी के बाद सीखा था। अब कपासन में मुझे गायों की देखभाल नहीं करनी होती, फिर भी मैं सुबह 4 बजे उठती हूं। जब मैंने पहली बार आंगनवाड़ी में काम करना शुरू किया तो मेरे ससुराल वाले चिंतित थे कि मैं घर के कामों पर ध्यान नहीं दे पाऊंगी। इसके चलते घर में अक्सर बहसें होती थीं। उन्हें चिंता थी कि अगर मैं घर से बाहर काम करने लगूंगी तो गायों की देखभाल और घर के बाकी काम कौन करेगा। उनकी असहमति के बावजूद मैंने 2004 में हापाखेड़ी के आंगनवाड़ी केंद्र पर काम करना शुरू कर दिया।

उस समय, मैं अपने बेटों को हर सुबह आंगनवाड़ी केंद्र छोड़ने जाया करती थी। मेरी एक दोस्त के ससुर उस केंद्र में काम करते थे और हम अक्सर बातचीत किया करते थे। उनसे मैंने आंगनवाड़ी प्रणाली के बारे में बहुत सीखा और कभी-कभी उनके कामों में मदद भी कर देती थी। एक दिन उन्होंने ही मुझे सहायक पद के लिए आवेदन करने का सुझाव दिया। मेरे पति मेरे इस फैसले से सहमत थे लेकिन ससुराल वालों ने मुझसे बात करना बंद कर दिया। वे चिंतित थे कि अब उनके घर की महिला गांव में जाकर अजनबियों से बात करेगी। इन कारणों ने मुझे, मेरे पति और दोनों बच्चों सहित कपासन शिफ्ट होने पर मजबूर कर दिया।

आशा सहयोगिनी संतोष चारण_आशा कार्यकर्ता
मैंने हेडमास्टर से विनती की और उन्होंने इस शर्त पर मेरे दूसरे बेटे को मुफ्त में पढ़ने की अनुमति दी कि मैं पांच और छात्रों का दाखिला करवाउंगी। | चित्र साभार: संतोष चारण

मैं काम करने के लिए दृढ़ थी क्योंकि मैं अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजना चाहती थी। आंगनवाड़ी में खाना बनाने के लिए मुझे 500 रुपये मिलते थे और आंगनवाड़ी सहायक के काम के लिए मुझे और 500 रुपये मिलते थे। इन 1000 रुपयों से सबसे पहले मैंने अपने एक बच्चे का दाखिला प्राइवेट स्कूल में करवाया लेकिन दूसरे को मैं वहां नहीं भेज पाई। मैंने हेडमास्टर से विनती की और उन्होंने इस शर्त पर मेरे दूसरे बेटे को मुफ्त में पढ़ने की अनुमति दी कि मैं पांच और छात्रों का दाखिला करवाउंगी। मैंने गांव के लोगों को समझाया और आठ बच्चों का दाखिला करवाने में सफल रही। आज मेरे दोनों बेटे कॉलेज तक की पढ़ाई कर चुके हैं।

जब तक मैं मंदिर से घर वापस आती हूं, मेरे पति जाग चुके होते हैं और मैं उनके लिए नाश्ता बनाती हूं। इसके बाद मैं हापाखेड़ी जाने के लिए बस स्टॉप की ओर निकल जाती हूं और अपना दिन शुरू करती हूं।

सुबह 7 बजे: बस मुझे हापाखेड़ी से थोड़ी दूरी पर छोड़ती है। गांव तक जाने के लिए कभी मैं रिक्शा लेती हूं, कभी पैदल भी चली जाती हूं। इन पैदल यात्राओं के दौरान मुझे अक्सर आस-पास के गांवों की महिलाएं, खेतों की ओर जाती हुई मिल जाती हैं। हम अपनी ज़िंदगी के बारे में बातें करते हैं। मैं अक्सर उनसे उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के बारे में पूछती हूं और उन्हें नोट करती हूं।

इन दिनों मैं लोगों के आयुष्मान कार्ड बनवाने में उनकी मदद कर रही हूं ताकि उन्हें सरकार की मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं का फायदा मिल सके।

मैं गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिए स्वास्थ्य केंद्र तक ले जाती हूं। राजस्थान के सरकारी केंद्रों में प्रसव पूरी तरह से मुफ्त होता है। कुछ साल पहले, हमारे इलाके में एक डॉक्टर जो हर प्रसव के लिए 500 रुपए की रिश्वत मांगता था। आशा कार्यकर्ताओं ने अनिच्छा से उसे पैसे देना स्वीकार भी कर लिया था क्योंकि हम प्रसव में कोई जटिलता नहीं चाहते थे। वह डॉक्टर जननी सुरक्षा योजना के तहत मिलने वाले 1400 रुपयों की स्वीकृति भी करता था। कई बार तो पैसे न देने पर वह इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर देता था। यह स्थिति काफी समय तक चली।

मेरे अलावा अन्य आशा कार्यकर्ताओं ने भी स्वास्थ्य क्षेत्र में भ्रष्टाचार से जुड़े अपने अनुभव साझा किए। इस मामले पर जांच शुरू की गई।

एक बार, मैं एक आर्थिक रूप से कमजोर परिवार की महिला को अस्पताल लेकर आई, वह परिवार डॉक्टर को 500 रुपये देने में सक्षम नहीं था और केवल 300 रुपये ही दे सकता था। जब मैंने डॉक्टर के निजी कमरे में 300 रुपये दिए तो उन्होंने 500 रुपये से कम स्वीकार करने से मना कर दिया। मैं परिवार के पास वापस गई और उनसे 200 रुपये और लाने को कहा। महिला के पति ने कहा कि उसे पैसे जुटाने के लिए घर जाकर कुछ अनाज बेचना पड़ेगा। यह सुनकर मैंने फिर से डॉक्टर से 300 रुपये लेने की विनती की। यह सुनकर डॉक्टर ने गुस्से में मेरा कॉलर पकड़ लिया और मुझे धक्का दे दिया। इससे मैं भी बहुत गुस्से में आ गई, मैंने डॉक्टर की शर्ट पकड़ी और उसे कमरे से बाहर खींच लिया। फिर मैंने नवाचार, जो कपासन में स्थित एक गैर-सरकारी संगठन है और जिससे मैं 2008 से जुड़ी हुई हूं, को फोन किया। जल्द ही, उपखंड मजिस्ट्रेट सहित वहां काफी लोग इकट्ठा हो गए। यह घटना जयपुर तक पहुंच गई और सरकार ने इसकी जांच शुरू की। मुझे जयपुर बुलाया गया और विधानसभा के सामने अपनी बात रखने का मौका मिला। मैंने इससे पहले ऐसा कुछ कभी नहीं देखा था, हर स्क्रीन पर मैं खुद को देख रही थी। मेरे अलावा अन्य आशा कार्यकर्ताओं ने भी स्वास्थ्य क्षेत्र में भ्रष्टाचार से जुड़े अपने अनुभव साझा किए। इस मामले पर जांच शुरू की गई। वह डॉक्टर तो अब सेवानिवृत्त है लेकिन उसकी पेंशन रोक दी गई है।

12 बजे दोपहर: गांव में काम खत्म करने के बाद, मैं कुछ समय कागजी काम करने में बिताती हूं। जैसे-जैसे राजस्थान में आयुष्मान कार्ड का वितरण बढ़ रहा है, आशा कार्यकर्ताओं के लिए कागजी काम भी काफी बढ़ गया है। हर परिवार के सदस्यों के लिए आवश्यक दस्तावेजों को इकट्ठा करना और उन्हें अपलोड करना लंबी और थकाऊ प्रक्रिया है। हमें इसमें बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है क्योंकि कोई भी गलती या देरी, लोगों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित कर सकती है। मेरे बड़े बेटे ने मुझे फॉर्म भरने में मदद की है क्योंकि पोर्टल अंग्रेज़ी में है और मैं अंग्रेज़ी नहीं पढ़ पाती।

2 बजे दोपहर: सुबह का फील्डवर्क खत्म करने के बाद, मैं दोपहर के भोजन के लिए घर लौटती हूं। ज्यादातर मैं एक घंटे के भीतर ही वापस चली जाती हूं ताकि कुछ और काम निपटा सकूं या किसी आपात स्थिति में मदद कर सकूं। आज मुझे हाप्पागिडी वापस जाना होगा ताकि बाकी आयुष्मान कार्ड के फॉर्म फाइल कर सकूं। मुझे उम्मीद है कि मैं रात 10 बजे के आसपास तक घर लौटूंगी। भले ही हमारे आधिकारिक काम के घंटे सुबह 8 बजे से 11 बजे तक हैं, ज्यादातर आशा सहयोगिनियां पूरे दिन काम करती हैं। कई बार हमें रात में भी कॉल आता है ताकि किसी गर्भवती महिला को अस्पताल ले जाया जा सके।

हम प्रदर्शन के लिए जयपुर गए थे, जहां प्रशासन ने सूचित किया कि वे अगले बजट में हमारा वेतन बढ़ा देंगे। हालांकि, उन्होंने सिर्फ 200 रुपये ही बढ़ाए।

साल 2008 में आशा सहयोगिनी के रूप में काम शुरू करने से पहले, मैं चार साल तक आंगनवाड़ी केंद्र में काम कर चुकी थी। फील्डवर्करों की काम करने की स्थितियों पर मैंने अक्सर चिंताएं जताई है। 2009 में मुझे आशा सहयोगिनी संघ का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। संघ साल में दो बैठकें आयोजित करता है, जहां हम अपने सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा करते हैं। ये मुद्दे अक्सर भुगतान में देरी से संबंधित होते हैं। कुछ समय पहले हमने वेतन बढ़ाने के लिए प्रदर्शन किया था। उस समय, हम हर महीने 1600 रुपये कमाते थे जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं से लोगों को जोड़ने के लिए मिलने वाले बोनस शामिल नहीं थे। हम प्रदर्शन के लिए जयपुर गए थे, जहां प्रशासन ने सूचित किया कि वे अगले बजट में हमारा वेतन बढ़ा देंगे। हालांकि, उन्होंने सिर्फ 200 रुपये ही बढ़ाए।

प्रदर्शनों को और प्रभावी ढंग से संगठित करने के लिए, हमारा एक ऑनलाइन ग्रुप चैट है जिसमें कपासन, रश्मी आदि ब्लॉक की ग्राम पंचायतों से आशा सहयोगिनियां जुड़ी हुई हैं। किसी भी बैठक, शिकायत या प्रदर्शन के बारे में अपडेट इस समूह में पोस्ट किए जाते हैं, और पंचायत स्तर पर चयनित आशा सहयोगिनियां फिर गांव में अन्य सभी को सूचित करती हैं।

वर्तमान में, संघ एक और भुगतान से संबंधित समस्या को हल करने की कोशिश कर रहा है। चूंकि हमारा अधिकांश काम, जैसे कि आयुष्मान कार्ड के लिए फॉर्म जमा करना, ऑनलाइन होता है, हमें अपने मोबाइल फोन को रिचार्ज करने के लिए 600 रुपये के भत्ते का अधिकार है। लेकिन मार्च से हमें यह नहीं मिल पाया है।

यह पहली बार नहीं है जब मैंने गलत के खिलाफ विरोध किया है। मेरे पति पहले शराबी थे, लेकिन छह साल पहले उन्होंने शराब पीना छोड़ दिया। शराब पीने के बाद वो अक्सर मुझे मारते थे। एक बार, उन्होंने कुछ दिनों तक शराब के अलावा कुछ भी नहीं खाया या पिया और बहुत हिंसक हो गए। तब मैंने तय किया कि मुझे इसका समाधान निकालना होगा। मुझे पता चला कि कुछ दिनों में एक सरकारी अधिकारी गांव का दौरा करने वाली हैं, और मैंने सोचा कि यह अपनी आवाज उठाने का अच्छा मौका होगा। मैंने गांव में उन सभी महिलाओं से बात की जो इसी तरह की परेशानियों का सामना कर रही थीं। हम सबने एक बैठक की और एक याचिका पर हस्ताक्षर करके समस्या को अधिकारी के सामने लाने का फैसला किया।

मेरी सुरक्षा को लेकर मेरा परिवार चिंतित था क्योंकि मैं एक आशा सहयोगिनी थी और आपात स्थितियों से निपटने के लिए रात में अक्सर गांव में निकलना पड़ता था। 

जब अधिकारी आई, तो मैंने शिकायत बताने के लिए अपनी बारी का इंतजार किया, वहां भीड़ में कई लोग अपनी शिकायतें बताने के लिए उत्सुक थे। जब रात के 10 बज गए और वह जाने ही वाली थीं, तब मैंने माइक छीनने का फैसला किया। जब मैंने अपनी और गांव की अन्य महिलाओं की पीड़ा को सुनाना शुरू किया, तो मेरी आंखों में आंसू आ गए, मेरे साथ आई अन्य महिलाएं भी रोने लगीं। अधिकारी ने तत्काल कार्रवाई करने का निर्णय लिया। जब उन्हें पता चला कि गांव में शराब की दुकानें कानूनी समय से ज्यादा देर तक खुली रहती हैं, तो उन्होंने उनका लाइसेंस जब्त करने का फैसला किया। गांव की सभी शराब की दुकानें जल्द ही बंद हो गई। इसके बाद मेरे पति शराब नहीं खरीद पाए, लेकिन इससे मेरे लिए एक और चुनौती खड़ी हो गई। गांव के पुरुष, जो अक्सर शराब पीते थे, मुझसे नाराज हो गए।

मेरी सुरक्षा को लेकर मेरा परिवार चिंतित था क्योंकि मैं एक आशा सहयोगिनी थी और आपात स्थितियों से निपटने के लिए रात में अक्सर गांव में निकलना पड़ता था। उन लोगों में से एक, जिसकी शराब की दुकान थी, मेरे घर आया और मुझसे कहा कि मैं एक कीड़ा हूं जिसे नाली में होना चाहिए। इस पर मैंने जवाब दिया, “जब कीड़ा लकड़ी में लग जाता है तो वह लकड़ी पूरी तरह खराब हो जाती है।” उन्हें अब तक अपना शराब का लाइसेंस वापस नहीं मिला और मैंने अपना काम वैसे ही जारी रखा है।

रात 10 बजे: आज भी मैं रात 10 बजे के आस-पास घर पहुंची। थकी होने के बावजूद, मुझे अपने पूरे परिवार के लिए खाना बनाना पड़ता है, जो मेरे लौटने का इंतजार कर रहा होता है। सभी के लिए खाना बनाने में मुझे आधा-पौना घंटा लगता है, उसके बाद मैं सोने चली जाती हूं। जब मैं घर पर होती हूं तब भी मेरा फोन साइलेंट नहीं रहता, ताकि किसी डिलीवरी या आपातकालीन कॉल को मिस न करूं। खाली समय में मुझे भजन सुनना, नाचना और गाना पसंद है।

कुछ साल पहले, नवाचार द्वारा आयोजित एक बैठक में बताया गया था कि उत्पीड़ित लोगों की भी जिम्मेदारी होती है कि वे अपने उत्पीड़न को दूर करने के लिए कदम उठाएं। यह तब की बात है जब मेरे पति शराब पीते थे और मैं अपने ससुराल में रहती थी। ऐसी ही एक अन्य बैठक में मुझे यह भी बताया गया कि महिलाओं को भी पुरुषों की तरह काम करने का अधिकार है। इन दोनों बातों ने मुझ पर गहरा असर डाला और मैंने अपने जीवन को बदलने और अपने आस-पास के लोगों की भी मदद करने का निश्चय किया। 14 साल बाद, मैं बहुत बेहतर कर रही हूं और मेरा परिवार खुश है। कभी-कभी गांव के लोग मेरे बारे में बुरा बोलते हैं, लेकिन मुझे अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मुझे ‘मैं’ बनने में बहुत समय लगा और मुझे गर्व है कि मैं कौन हूं। मैं एक दिन सरपंच बनना चाहती हूं और गांव और गांव की महिलाओं की और भी बेहतर तरीके से मदद करना चाहती हूं।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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आईडीआर इंटरव्यूज | दयामनी बरला

दयामनी बरला, एक आदिवासी कार्यकर्ता और पत्रकार हैं और हमेशा ही आदिवासी मुद्दों पर अपनी बात मुखरता से रखती आई हैं। इस इंटरव्यू में दयामनी बरला बताती हैं कि उनका बचपन भी बहुत संघर्षों से भरा रहा और उन्हें अपनी आजीविका चलाने के लिए खुद से संघर्ष करना पड़ता था।   

दयामनी बताती हैं कि उन्होंने शिक्षा प्राप्त करने के बाद पत्रकारिता और एक्टिविज्म क्षेत्र को चुनना इसलिए बेहतर समझा, क्योंकि उन्हें हमेशा लगता था कि जिस तरह से बच्चों, महिलाओं, युवाओं के साथ काम होना चाहिए था, उस तरह से नहीं हो पाया है। वे कई अलग-अलग अखबारों व पत्रिकाओं से जुड़ी रही हैं।

दयामनी, इस इंटरव्यू में संविधान और उसमें दिए गए अधिकारों के प्रति युवाओं के जागरूक होने पर जोर देती हैं। इंटरव्यू में वह बताती हैं कि उन्होंने विभिन्न आंदोलनों के ज़रिए जल, जंगल और जमीन जैसे मुद्दों पर न केवल पूंजीपतियों बल्कि सरकार से भी अपनी बात मनवाई।   

उनका मानना है कि पढ़ने-लिखने के साथ-साथ युवाओं को राजनीति में भी ज्यादा से ज्यादा सक्रिय होना चाहिए। इसके पीछे का कारण वो बताती हैं कि जब युवा विधानसभा, लोकसभा या राज्यसभा में चुनकर जाते हैं तो उनके पास संवैधानिक तौर पर आम नागरिकों की भलाई के लिए नीतियों के निर्माण व बदलाव लाने की ताकत होती है। दयामनी बरला, कई पुरस्कारों से भी सम्मानित रही हैं।

1. “मेरा जो बचपन था ना… आम बच्चों की तरह मेरा बचपन नहीं रहा।”   

2. “बच्चों, महिलाओं, युवाओं के लिए जिस तरह से काम होना चाहिए था, उस तरह से नहीं हो पा रहा है।”

3. “अगर आप ओरल हिस्ट्री को समझ रहे हैं तो सही मायने में आपकी कलम बहुत ताकतवर होगी।”

4. “कोयल कारो डैम प्रोजेक्ट, मेरा पहला आंदोलन था।”

5. “आदमी का मर जाना दुखद नहीं है, जितना हमारे सिद्धांतों का मर जाना है।”

6. “क्या इस देश को सिर्फ़ स्टील ही चाहिए? इस देश के लिए भोजन, शिक्षा, पानी, स्वस्थ जिंदगी, स्वस्थ पर्यावरण भी तो ज़रूरी है ना।”

7. “विभिन्न सेवाओं के विकास में गैर-लाभकारी संगठनों भूमिका जमीन पर उतनी दिखाई नहीं पड़ती।”

8. “एजुकेट करने का मतलब केवल एबीसीडी सीखाना नहीं है बल्कि अपने हक और अधिकार को समझना सबसे बड़ी एजुकेशन है।”

आईडीआर इंटरव्यूज | मधु मंसूरी हंसमुख

बिहार में आदिवासियों के झारखंड आंदोलन से अपनी पहचान बनाने वाले मधु मंसूरी हंसमुख का नाम जितना दिलचस्प है, उनके जीवन का सफर भी उतना ही रोचक रहा है। बचपन से ही इन्हें लोकगीतों का शौक रहा है। आगे चलकर इन्होंने झारखंड बनने के आंदोलन में अपने गीतों के ही ज़रिये लोगों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई।

पद्मश्री सम्मान से नवाजे जा चुके लोकगीत कलाकार मधु मंसूरी हंसमुख ने आईडीआर के साथ अपनी बातचीत में बताया कि कैसे छोटी सी उम्र से ही इन्होंने लोकगीत के ज़रिये न केवल आंदोलन में अपनी एक अलग पहचान बनाई बल्कि इस हुनर को अपना हथियार बनाकर झारखंड आंदोलन को एक नई दिशा और चेतना भी प्रदान की। इस इंटरव्यू में हंसमुख, झारखंड आंदोलन से जुड़े अपने खट्टे-मीठे अनुभवों को साझा करते हुए इस बात पर भी जोर देते हैं कि कैसे झारखंड में अपार खनिज संसाधनों के बावजूद आज भी यहां के युवा रोज़गार के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

आपका नाम काफी दिलचस्प है, इसके पीछे की क्या कहानी है?

मेरे पिता जी का नाम अब्दुल रहमान और मां का नाम मनी परवीन था। मैं 15—16 महीने का ही था जब मां का देहांत हो गया। उनके गुजर जाने के बाद मुझे दूध नहीं मिल पा रहा था और मैं हर दिन कमजोर होता जा रहा था। एक दिन तबियत इतनी ज्यादा खराब हो गई कि सबको लगा कि अब मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। मुझे घर के आंगन में रख दिया गया और धीरे—धीरे वहां गांव वालों की भीड़ भी जमा हो गई। उसी समय वहां से गांव में रहने वाला ग्वाला, शिव शंकर गुजर रहा था। मेरे घर के बाहर भीड़ देखकर वह भी वहां आ गया। लोगों ने उसे बताया कि इस बच्चे को मां का दूध नहीं मिल पाया है इसलिए ये मरने वाला है।

शिव शंकर ने वहां खड़े लोगों से कहा, “तुम लोग मेरी बात सुनकर मुझे पेड़ से बांधकर मारोगे पर कोई बात नहीं! पर मेरी बात मानो, और मुझे इस बच्चे को महुआ की थोड़ी सी शराब पिलाने दो क्योंकि इससे यह ठीक हो जाएगा।” इस पर सब मान गए। उसने मुझे थोड़ी सी शराब पिलाई। उस वक्त तो मैं होश में नहीं आया लेकिन करीब 4 घंटे बाद मुझे होश आ गया। ये एक चमत्कार ही था और वो शराब मेरे लिए अमृत बन गई। इसके बाद मुझे अक्सर शराब के घूंट पिलाए जाते थे। करीब 8 साल की उम्र तक मैं अमृत समझकर शराब पीता रहा। उसका नशा इतना ज्यादा हो जाता था कि कई बार मैं खुद चलकर घर नहीं आ पाता था। वह समय अच्छा था। गांव में राजनीति नहीं थी, इसलिए कोई भी आदिवासी या फिर दूसरे समुदाय के लोग मुझे घर लेकर आ जाते थे। घर लाकर वो मेरे पिता जी से कहते, “अरे ये बच्चा तो मधुआ हो गया है।” यानि नशे में मदहोश। बस इसी मधुआ से मेरा नाम मधु हो गया। हालांकि ये नाम इस्लामिक नहीं है पर फिर भी मेरा नाम मधु ही हो गया।

कुछ समय बाद मेरी देखभाल के लिहाज से पिता जी ने दूसरी शादी कर ली। मैं अपनी नई मां को मौसी मां कहता था। उनका पहले से ही एक बेटा यानि मेरा सौतेला भाई भी था। हम तब साथ ही रहते थे।

इसके बाद रांची के हाई स्कूल के एक शिक्षक कुलदीप सहाय जो रांची में पढ़ाते थे, उनके खेतों में मेरे पिता जी काम करने के लिए जाते थे। एक रोज मैं स्कूल से छुट्टी के बाद अपने पिता के पास पहुंचा। स्कूल से आने पर बहुत भूख लगी थी तो वहां पहुंचकर मैं पिता जी से हंसते हुए घर की चाबी मांग रहा था। तभी कुलदीप सहाय वहां आए और मेरा हाथ पकड़ते हुए मेरे पिता से बोले, “अब्दुल रहमान, आज से मैं तुम्हारे बेटे का नाम मधु मंसूरी हंसमुख रख रहा हूँ।“

फिर पिताजी ने जब मेरा एडमिशन छठवीं कक्षा में करवाया, तो उन्होंने स्कूल में मेरा यही नाम दर्ज करवा दिया, और मैं बन गया मधु मंसूरी हंसमुख।

मधु मंसूरी हंसमुख की तस्वीर_आदिवासी कलाकार
संगीत में आपकी रूचि कब और कैसे शुरू हुई?

मेरी संगीत में तो बचपन से ही रूचि थी। मैंने 8 साल की उम्र में पहली बार स्टेज पर गाना गाया था। 2 अगस्त 1956 में हमारे प्रखंड के नामी गांव रातू में वहां के महाराज प्रखंड कार्यालय के शुभारंभ कार्यक्रम में आ रहे थे। तब वहां के आयोजक इस कार्यक्रम के लिए लोकगायकों की तलाश कर रहे थे। मैं स्कूल में गीत गुनगुनाया ही करता था, ये बात मैट्रिक क्लास में पढ़ने वाला दिल अहमद जानता था। कार्यक्रम के बारे में जब उसे मालूम चला तो उसी ने आयोजकों को मेरे नाम का सुझाव दिया और बाद में वही मुझे कार्यक्रम में भी लेकर आया। उस समय मैंने स्टेज पर पहला लोकगीत गाया, जिसे सुनकर महाराज बहुत खुश हुए। उन्होंने मुझे ईनाम में 10 रुपए दिए। उस वक्त 10 रुपए की कीमत बहुत ज्यादा थी।

10 रुपए हाथ में होने के बाद भी मुझे कोई खाना खिलाने को तैयार नहीं था।

10 रुपए मिलने के बाद मैंने सोचा कि अब कुछ खाया जाए, क्योंकि कार्यक्रम में शामिल होने की जल्दी की वजह से मैं बिना खाना खाए ही आ गया था और, बहुत भूख भी लग रही थी। लेकिन 10 रुपए हाथ में होने के बाद भी मुझे कोई खाना खिलाने को तैयार नहीं था। इसके पीछे समस्या यह थी कि उस समय 1 आने की कीमत में चाय और 1 आने में पकौड़ा आ जाता था। अगर मैं एक चाय और एक पकौड़ा खाता और अपने साथी को भी खिलाता, तब भी होटल वाले के पास लौटाने के लिए 9 रुपए 12 आना नहीं थे। इसलिए हम भूखे ही आ गए।

जब हम घर पहुंचे तो मैंने पिता जी को 10 रुपए दिए। उन्होंने दिल अहमद से पूछा कि मेरे बेटे ने ऐसा कौन सा गीत गाया कि महाराजा ने उसे 10 रुपए दिए, जबकि मैं तो धूप में सारा दिन काम करता हूं, तब जाकर 1 रुपया दिन का मिलता है। वो बात मैं आज भी नहीं भूल पाया हूं।

बस ऐसे ही मेरे करियर की शुरुआत हुई। जब लोगों को महाराज वाले कार्यक्रम के बारे में पता चला तो और लोग भी मुझे अपने यहां गीत गाने ​के लिए बुलाने लगे। दिल अहमद ही मुझे हर जगह ले जाया करता था। कई बार तो कार्यक्रम इतने ज्यादा और इतनी दूर होते थे कि हम 6-7 दिन तक घर ही नहीं आ पाते थे। वैसे मैं पढ़ाई में भी अच्छा था।

ऐसा ही एक बार तब हुआ जब शिक्षा मंत्री हमारे स्कूल आए और उन्होंने मेरी प्रतिभा को पहचाना। कार्यक्रम के बाद मंत्री ने स्कूल के रजिस्टर में लिख दिया कि जब तक यह बच्चा स्कूल में पढ़ेगा, तब तक इसकी स्कूल फीस नहीं लगेगी। इससे मैं बहुत खुश था।

साल 1968 में मेरे सौतेले भाई की सरकारी नौकरी लग गई। तब तक मैं भी कक्षा दसवीं की परीक्षा में फर्स्ट क्लास पास हो गया था। लेकिन भाई की नौकरी लगने के बाद मेरी मौसी मां (सौतेली मां) पिता जी से अलग हो गई और अपने बेटे के साथ रहने लगी। इस घटना के बाद से मैं पढ़ नहीं पाया।

झारखंड आंदोलन से आपका जुड़ाव कैसे हुआ?

उन दिनों बिहार में रह रहे आदिवासी अपने लिए अलग झारखंड राज्य की मांग कर रहे थे। यह आंदोलन सालों से चल रहा था। उस दौर में झारखंड आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए औरतें बच्चों को पीठ पर बांधकर ले जाती थीं, आदमी तपती धूप में भी नारे लगाते थे। जब मैं इस आंदोलन का हिस्सा बना तब मेरी उम्र 12 साल थी। मैं किसी क्रांतिकारी के तौर पर आंदोलन में शामिल नहीं हुआ था, बल्कि अपने गीतों की वजह से शामिल हुआ। असल में झारखंड आंदोलन को ध्यान में रखते हुए 12 साल की उम्र में ही मैंने एक गीत लिखा, यह नागपुरी बोली का गीत था। झारखंड पार्टी के महासचिव लाल रणविजय नाथ शाहदेव मुझे अपने साथ लेकर गए। फिर मैंने वही गीत नेताजी सुभाष चंद्र बोस चौक (खूंटी) में पहली बार गाया। गाने का भावार्थ था, “सालों तक हम अंग्रेजों के गुलाम थे और अब अफसरों के गुलाम हैं।”

लोगों ने इसे खूब पसंद किया। इसके बाद से ही यह सिलसिला शुरू हो गया। मैं आंदोलन के मोर्चों में शामिल होता गया, गीत गाता रहा और मेरे गीतों से युवाओं और आदिवासियों को बहुत प्ररेणा मिलती रही। 22 अगस्त 1967 का दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। उस दिन मैं रांची, ऐसे ही एक कार्यक्रम का हिस्सा बनने पहुंचा था और तभी वहां दंगा भड़क गया। मैंने उस दंगे को अपनी आंखों से देखा। लोगों को खून से लथपथ, जलते—मरते देखा। उस घटना ने मुझे झकझोर दिया। 2—3 दिन बाद जब मैं घर आया तो मुझे नींद नहीं आई। रात को खाना खाकर मैं लिखने बैठ गया। एक ही रात में मैंने उस दंगे से प्रभावित होकर एक कविता लिखी। यह कविता मेरे जीवन के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत रही है।

झारखंड आंदोलन का आपके निजी जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा?

मार्च 1964 में मेरी शादी हो गई और 1970 आते तक मेरी नौकरी लग गई। आंदोलनकर्ता मुझे खोजते रहते बावजूद इसके मैंने 4 साल तक नौकरी की। जब उन्हें आखिरकार मेरी नौकरी के बारे में पता चला तो बोले, “कहां तुम नौकरी के चक्कर में फंस गए, तुम्हें तो हर दम हमारे साथ रहना चाहिए।” मैं भी आंदोलन का हिस्सा बने रहना चाहता था। इसलिए अक्सर मोर्चे और सभाओं में गीत प्रस्तुति के लिए पहुंच जाता था। इस वजह से परिवार भी परेशान था और नौकरी करना भी मुश्किल हो गया।

 मैं कई दिनों तक घर से दूर और नौकरी में गैरहाजिर रहता था जिसके कारण मुझे नौकरी से निकालने तक की नौबत आ गई थी। हालांकि झारखंड आंदोलन का हिस्सा बनने के बाद से लोग मुझे पहचानने लगे थे। इसलिए मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री और खेलमंत्री से मुलाकात की। उनकी मदद से चेयरमेन को एक पत्र पहुंचाया गया। जिसमें बाद चेयरमेन ने मेरे पक्ष में आदेश जारी करते हुए कहा कि अगर मैं कार्यक्रमों में शामिल होने के कारण नौकरी पर नहीं आता हूं तो उस दिन का मेरा वेतन काट लिया जाए पर नौकरी से नहीं निकाला जाएगा। इसके बाद मैं महीने में 12 से 14 दिन तक ऑफिस नहीं जा पाता था पर इससे कोई दिक्कत नहीं हुई। घर से भी इतने ही दिनों तक दूर रहता रहा।

आज मेरे 4 बेटे हैं, सभी पढ़े-लिखे हैं लेकिन वे सभी बेरोजगार हैं। मैं झारखंड आंदोलन का हिस्सा था इसलिए बिहार सरकार ने मेरे बेटों को नौकरी नहीं दी। झारखंड राज्य बन गया पर यहां भी उनके लिए रोजगार नहीं है।

आंदोलन का हिस्सा बनकर मैंने सैकड़ों गीत गाए, युवाओं और आदिवासियों को एक करने का प्रयास किया। अपने गीतों से उन्हें सही राह दिखाता रहा। लोगों से मुझे प्यार और सम्मान मिला पर इन सबके बीच नौकरी बर्बाद हो गई, परिवार बर्बाद हो गया और समय भी बर्बाद हुआ।

झारखंड आंदोलन से जुड़ने से आपको सरकार की तरफ से बहुत सम्मान भी मिला, उसके बारे में कुछ बतायें?

मुझे इस आंदोलन से बहुत कुछ मिला भी है। इसी की वजह से लोग मुझे पहचानने लगे। मेरे गीतों को सराहना मिली। मेरे नागपुरी बोली के लोकगीत रिकॉर्ड भी किए गए। इसी के फलस्वरूप, सरकार की ओर से मुझे पुरस्कार के तौर पर सिमडेगा में जमीन देने की घोषणा हुई। तब मैंने कलेक्टर से मिलकर कहा कि ये जमीन देकर हमको लोगों की नजरों से मत गिराओ। मैंने वो जमीन नहीं ली। इसके बाद सम्मान के तौर पर तत्कालीन शिक्षा मंत्री करमचंद्र भगत ने भी जमीन देने का ऐलान किया लेकिन मैंने मना कर दिया। अगर आज मेरे पास वो जमीन होती तो उसकी कीमत करोड़ों में होती।

मेरे गीतों को सुनकर शिबू सोरेन खुश होकर बोले, “ऐ मंसूर साहब, हमारे तीर की धार और तुम्हारे गीत का धार से अलग राज्य बनकर रहेगा।”

बाद में जब झारखंड राज्य बन गया तो, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी मुझे सम्मानित किया और मेरे जिले में ही मुझे 4 एकड़ जमीन दी। यह सम्मान मैंने स्वीकर कर लिया। इसकी एक वजह है। असल में 1975 में मैं आंदोलन से जुड़े एक कार्यक्रम में गीत प्रस्तुत करने रामगढ़ गया था। उस कार्यक्रम में धनबाद के नेता एके राय और उनके साथ शिबू सोरेन यानि हेमंत सोरेन के पिता जी भी आए थे।

मैंने वहां जो गीत गाए उन्हें सुनकर शिबू सोरेन बहुत खुश हुए और बोले, “ऐ मंसूर साहब, हमारे तीर की धार और तुम्हारे गीत का धार से अलग राज्य बनकर रहेगा।” यही उनकी और मेरी पहली मुलाकात थी। इसके बाद हम कार्यक्रमों के दौरान दिल्ली, कोलकाता और बहुत सी जगहों पर भी मिलते रहे। इस तरह से झारखंड आंदोलन में शामिल होने के बाद मुझे बहुत नाम, इज्जत, लोगों का प्यार और सराहना मिली।

मैंने 300 से ज्यादा गीत गाए और इन्हीं गीतों ने मुझे पद्मश्री सम्मान तक भी पहुंचाया।

झारखंड आंदोलन सफल हो जाने के बाद आपको लगता है कि जो सपने युवाओं और आदिवासियों ने देखे थे, या जिनका जिक्र आपके गीतों में है, वे पूरे हो रहे हैं?

मैंने हमेशा से ऐसे गीत लिखे, जिनसे युवाओं को सही दिशा मिल सके। मैंने अपने गीतों में आदिवासियों के हक की बात की। जब झारखंड राज्य बन रहा था तब हम सभी को बहुत सारी उम्मीदें थीं। मैंने इन्ही उम्मीदों को गीत के बोल में बांधा था। पर आज महसूस होता है कि राज्य को लेकर जो सपने देखे थे, वो पूरे नहीं हुए हैं।

इस राज्य के पास बहुत कुछ है। यहां 28 तरह के खनिज हैं, सबसे ज्यादा प्रकृतिक संपदा है, लेकिन उनका कोई सही उपयोग नहीं है। ये बहुत दुख की बात है। लोगों के पास रोजगार नहीं है, खाने को अनाज का दाना नहीं है। ऐसे में भूखा आदमी पाप करेगा, चोरी करेगा, डाका डालेगा। इसी उग्रवाद में राज्य के बहुत सारे युवा शामिल हो रहे हैं। बाबू लोगों की कलम गलत दिशा में चल रही है। शोषण कोई सहन नहीं करता तो यही कारण है​ कि कुछ युवा लोग उग्रवादी बन रहे हैं। खनिज और खजाना के असली मालिक गैर झारखंडी लोग बने हुए हैं। हालांकि, अभी भी सब बदलने का समय है।

रोजगार के लिए राज्य में कपड़ा मिल खोली जा सकती है। यहां बॉक्साइट का खजाना है, उसका उपयोग करके एल्युमीनियम का कारखाना खोल सकते हैं। चीनी मिल, पेपर मिल बनाए जा सकते हैं। यहां इतने संसाधन हैं कि दवा बनाने की कंपनियां खुल सकती हैं। अगर ये सब होता है तो लोगों को रोजगार मिलेगा। इससे वे ना तो पलायन करेंगे ना ही उग्रवादी बनेंगे। असल में हमारे पास नेतृत्व की सोच नहीं है। नेता सोचते हैं कि छोटे लोगों को काम मिलेगा तो ये क्यों हमारी जी हुजूरी करेंगे।

कितने ही सारे नेता हैं जो जेल जा चुके हैं, घोटालों में उनके नाम सामने आ रहे हैं। आम जनता के पास अपनी जरूरतें पूरी करने लायक संसाधन तक नहीं है। लोगों को दवाएं नहीं मिल रहीं, खेतों में सिंचाई का साधन नहीं है, नौकरियां नहीं हैं, सरकारी स्कूल तो पूरी तरह से खत्म हो गए हैं।

हमने आंदोलन के समय ये सपना तो नहीं देखा था। मैं तो नौजवानों के लिए बहुत से गीत लिख चुका हूं अब उनका सक्रिय होना जरूरी है।

इस आलेख को तैयार करने में स्मरिणीता शेट्टी ने सहयोग किया है।

अधिक जानें

आईडीआर इंटरव्यूज | डॉ. नरेंद्र गुप्ता 

डॉ. नरेंद्र गुप्ता एक सामुदायिक स्वास्थ्य चिकित्सक और प्रयास नाम के स्वयंसेवी संस्था के संस्थापक सदस्य हैं। उन्होंने लगभग 40 सालों से राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में भील मीना आदिवासी समुदाय के स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका में सुधार के लिए काम किया है। वह जन स्वास्थ्य अभियान के राष्ट्रीय आयोजकों में से एक, और राजस्थान में इसके संयोजक हैं।

डॉ. गुप्ता ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ढांचे को डिज़ाइन करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय कार्य समूह के गठन में अहम भूमिका निभाई जिससे पंचायती राज संस्थान की भूमिका और स्पष्ट हो सकी। साथ ही वह भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना के कार्य समूह के सदस्य थे जिसमें उन्होंने दवाओं और खाद्य सुरक्षा पर काम किया। राजस्थान में निशुल्क दवा योजना की शुरुआत में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।

डॉ. गुप्ता ने आईडीआर से अपने स्वास्थ्य के काम से संबंधित सफ़र कि बात की। उन्होंने  राजस्थान में लोगों में स्वास्थ्य की समझ को बदलने के प्रयास के बारे में बताया।भारत में राइट टू हेल्थ और निशुल्क स्वास्थ्य सेवाएं की ख़ासा ज़रूरत क्यों है और इन्हें बढ़ावा देने के लिए किस तरह से काम करना चाहिए।

1. डॉ नरेंद्र गुप्ता का परिचय और विकास सेक्टर का सफर 

स्वास्थ्य का काम करने शुरू करने के लिए चित्तौड़गढ़ जिला एक चुनौती भरा इलाक़ा क्यों है और यहां स्वास्थ्य और शिक्षा एक साथ काम करना क्यों ज़रूरी था।

2. राजस्थान में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और निशुल्क दवा योजना कैसे आई?

नेशनल रुरल हैल्थ मिशन लॉन्च होने से स्वास्थ्य पर आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडीचर (जेब से खर्च) कैसे कम हो सकता है, और कैसे निशुल्क दवा योजना के अंतर्गत कई गुना कीमत पर मिलने वाली दवाई अब मुफ्त में उपलब्ध होती है।

3. कैसे मेनिफेस्टो से सरकारी कागज़ बना राइट टू हेल्थ

अगर आपके पास राइट टू एजुकेशन, राइट टू इन्फॉर्मेशन, राइट टू इंप्लॉयमेंट, राइट टू फूड, फॉरेस्ट राइट एक्ट सब कुछ है तो स्वास्थ्य पर क्यों नहीं?

4. स्वास्थ्य सेक्टर की मुख्य चुनौतियां और उनके हल

भारत की बहुत बड़ी आबादी को आज भी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं होती – हर परिवार के लिए डॉक्टर तय होना चाहिए और घर से कुछ ही दूरी पर छोटी से बड़ी बीमारी के लिए स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध होने चाहिए।5.5.

5. वैश्विक जनस्वास्थ्य अभियान की भारत में शुरुआत कैसे हुई?

जन स्वास्थ्य अभियान साल 2000 में भारत आया जिसके अंतर्गत सभी स्वास्थ्य से जुड़ी लड़ाई जैसे राइट टू हेल्थ और फ्री मेडिसिन का कैंपेन राजस्थान में शुरू हुआ।

एक युवा महिला के समाजसेवी संस्था से कॉर्पोरेट तक पहुंचने का सफ़र

मेरा नाम प्रतिभा है और मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले के जिगना गांव में पली-बढ़ी हूं। इलाक़े के बाक़ी लोगों की तरह मेरे पिता भी एक किसान हैं और मेरी मां आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। मैं अपने माता-पिता और छोटे भाई के साथ जिगना में ही रहती हूं, और मेरा बड़ा भाई अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहता है।

पैसों की दिक़्क़त के बावजूद, मेरे परिवार ने हमेशा मेरी पढ़ाई-लिखाई पर खर्च किया। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरे माता-पिता के पास मुझे आगे बढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे। लेकिन मेरे मामा (मां के भाई) ने मेरी फीस के पैसे देने की बात कही ताकि मैं कॉलेज में जीवविज्ञान की पढ़ाई करके बीएससी की डिग्री ले सकूं। जब मैं कॉलेज के अंतिम वर्ष में थी तब मेरी मां ने आंगवाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू कर दिया और उसके बाद से उन्होंने ही पढ़ाई का मेरा पूरा खर्च उठाया। बीएससी पूरी करने के बाद मैं फ़ार्मा या एमएससी में दाख़िला लेना चाहती थी लेकिन हमारे पास इससे आगे पढ़ने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे। टेलरिंग, ब्यूटी पार्लर आदि का कोई कोर्स करने और कंप्यूटर में डिप्लोमा की पढ़ाई करने के इरादे से मैं अपने बड़े भाई के पास दिल्ली आकर रहने लगी। मैं दिल्ली में ही रहकर काम करना चाहती थी लेकिन मेरी मां की तबियत ख़राब हो गई और उनकी देखभाल के लिए मुझे अपने गांव वापस लौट जाना पड़ा। उनके इलाज और घर के बाक़ी खर्च चलाने के लिए मुझे लगा कि मुझे भी कमाना चाहिए।

मेरी पहली नौकरी विज्ञान फाउंडेशन में थी। कुछ समय तक उनके साथ काम करने के बाद मैंने पीपल्स एक्शन फॉर नैशनल इंटीग्रेशन (पीएएनआई) के साथ काम करना शुरू कर दिया। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश में काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था है। वे बलरामपुर में ग्राम पंचायतों की कृषि और पानी की खपत के पैटर्न का सर्वेक्षण करने के लिए लोगों को काम पर रख रहे थे। मैंने पीएएनआई में चार साल तक काम किया। विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण करने के अलावा मैं किसानों -विशेष रूप से महिलाओं- को खेती की नई तकनीकों को सीखने में मदद भी करती थी ताकि वे पानी की कम खपत में अच्छी उपज हासिल कर सकें। हमने कई महिला किसान संगठन (महिला किसान समितियां) और किसान संसाधन केंद्र (एफ़आरसी) बनाए ताकि महिला किसानों को सही सूचना प्राप्त करने और खेती से जुड़ी सही जानकारियां मिलने में मदद मिल सके।

खेत में खड़े होकर बात करती दो महिलाएं_ग्रामीण कामकाजी महिला
पीएएनआई में मैंने किसानों -विशेष रूप से महिलाओं- को खेती की नई तकनीकों को सीखने में मदद भी करती थी ताकि वे पानी की कम खपत में अच्छी उपज हासिल कर सकें। | चित्र साभार: प्रतिभा सिंह

पीएएनआई में अक्सर अन्य समाजसेवी संस्थाओं के लोग, फंडर, और कॉर्पोरेट में काम करने वाले विभिन्न प्रकार के लोग आते थे। मैं हमेशा ही उन्हें अपने गांव में होने वाली गतिविधियों को दिखाने के लिए लेकर जाती थी। पीएएनआई हमारा प्रशिक्षण बहुत ही सख़्त था जिससे मुझे स्वतंत्र दौरे करने और नए लोगों के साथ बिना किसी हिचकिचाहट के बात करने का आत्मविश्वास मिला।

ऐसी ही एक यात्रा हिंदुस्तान यूनिलीवर (एचयूएल) की थी और मैं स्वेच्छा से उन्हें महिला किसान संगठन की बैठक में लेकर गई थी। महिला किसानों के साथ बातचीत के दौरान, एचयूएल टीम ने उनसे पूछा कि उन्होंने मुझसे क्या सीखा है और मैंने कैसे उनकी मदद की है। उन्होंने मुझसे उन तकनीकों के बारे में पूछा जो मैंने किसानों को बताई थीं और मैंने प्रत्येक चरण की जानकारी उनसे साझा की। वहां दौरे पर आने वालों में से एक एचयूएल में ग्राहक विकास के कार्यकारी निदेशक थे। वे मेरे काम से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने मेरे सहकर्मियों के सामने मेरी तारीफ़ भी की थी। पीएएनआई में काम करने वाले अनूप सर ने तो मज़ाक करते हुए उनसे यह भी पूछ लिया कि क्या वे मुझे एचयूएल में काम देना चाहते हैं। मैं उस समय हैरान हो गई जब एचयूएल ने मुझे रूरल सेल्स प्रोमोटर (आरएसपी) के पद पर नौकरी का प्रस्ताव दिया। यह एक ऐसा पद है जिसमें एचयूएल उत्पादों को गांवों की दुकानों में बेचना शामिल है।

पीएएनआई में अपने काम को लेकर मैं बहुत गंभीर थी लेकिन कुछ ही दिनों बाद मेरा छोटा भाई बहुत गंभीर रूप से बीमार हो गया। उसे न्यूरोलॉजिकल समस्या हो गई थी और इलाज के लिए लखनऊ लेकर जाना पड़ा। हमारे पूरे परिवार की कमाई भी उसके इलाज के ख़र्चों के लिए कम पड़ रही थी। पीएएनआई में मेरी पदोन्नति का समय नहीं आया था और आरएसपी की भूमिका में काम करने के लिए मुझे एचयूएल से अच्छे पैसे मिल रहे थे, इसलिए मैंने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

मैं सितंबर 2022 में एचयूएल के साथ काम करना शुरू किया। मुझे बताया गया कि पूरे देश में कुल 4 हजार आरएसपी काम करते हैं – उनमें से लगभग सभी पुरुष हैं- और मैं पहली महिला कार्यकर्ता हूं जिसे इस पद के लिए नियुक्त किया गया है।

सुबह 5.00 बजे: चाहे कोई सा भी मौसम क्यों ना हो मैं हमेशा इसी समय सोकर जागती हूं। सबसे पहले मैं घर की सफ़ाई करती हूं, वरना मेरी मां मुझे डांटती है – उनका कहना है कि यदि हमारा घर साफ़ नहीं हुआ तो लक्ष्मी माता (देवी) हमारे घर नहीं आयेंगी। उसके बाद मैं कुछ घंटे पूजा करने, अपनी मां के साथ सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना पकाने और उसके बाद काम के लिए तैयार होने में लगाती हूं।

सुबह 10:30 बजे: अपनी स्कूटी पर सवार होकर मैं अपने ‘प्वाइंट्स’ पर पहुंचने के लिए निकल जाती हूं। प्रत्येक आरएसपी को ‘प्वाइंट्स’ या ‘दुकानें’ आवंटित होती हैं, और हम नियमित रूप से उनका दौरा करते हैं। चूंकि मेरे काम के कारण मुझे बलरामपुर के आसपास के इलाक़ों की यात्रा करनी पड़ती है इसलिए एचयूएल की नियुक्ति के कुछ दिनों बाद ही मैंने स्कूटी खरीद ली थी। मैंने अपने नाम पर ऋण लिया और हर महीने अपनी तनख़्वाह के पैसों से किस्त भरती हूं।

ये प्वाइंट्स आमतौर पर आसपास के इलाक़ों में चलने वाली छोटी-मोटी दुकानें होती हैं जो अन्य चीजों के अलावा एचयूएल द्वारा निर्मित साबुन और वाशिंग पाउडर जैसे उत्पाद बेचती हैं। इन दुकानों की मालिक या संचालक महिलाएं होती हैं जिन्हें शक्ति अम्मा के नाम से जाना जाता है। एक आरएसपी होने के नाते, मैं एचयूएल में दुकान मालिकों और वितरक के बीच एक पुल का काम करती हूं। एक बार जब कोई शक्ति अम्मा एचयूएल में शामिल हो जाती है, तो उसे एचयूएल उत्पादों को स्टॉक करने और बेचने के उसके चुने हुए लक्ष्य के आधार पर मासिक प्रोत्साहन मिलता है। उदाहरण के लिए, यदि उसका लक्ष्य छह हज़ार रुपये मूल्य के एचयूएल उत्पाद बेचना है, तो उसे मिलने वाली मासिक प्रोत्साहन की राशि 200 रुपये होगी। यदि वे अपना लक्ष्य बढ़ाती हैं तो उन्हें प्रोत्साहन में मिलने वाली राशि भी बढ़ जाती है। मैं उनकी ऑनबोर्डिंग प्रक्रिया को संभालती हूं और एक मासिक लक्ष्य तय करने और उसे हासिल करने में उनकी मदद करती हूं, जो छह हज़ार से लेकर एक लाख रुपये (मुझे आवंटित प्वाइंट्स के लिए) तक हो सकती है। मैं हर हफ्ते उनके उत्पाद का ऑर्डर लेती हूं और उन्हें डिस्ट्रिब्यूटर तक पहुंचाती हूं।

जब मैं एक शक्ति अम्मा से मिलती हूं तो मैं उन्हें दो वीडियो भी दिखाती हूं। इन दोनों वीडियो में स्वास्थ्य, पोषण, स्वच्छता और ऐसी ही कई जानकारियां होती हैं। आमतौर पर शक्ति अम्माओं के पास इन वीडियो में दिये गये संदेशों से जुड़े सवाल होते हैं और मैं अतिरिक्त समय लगाकर उन्हें गहराई से समझाने का पूरा प्रयास करती हूं। पीएएनआई में अपने काम के कारण मैंने लोगों से बातचीत करना और उनसे जुड़ना सीखा था जिससे एचयूएल में मेरा काम आसान हो गया। हालांकि इसमें से एक समाजसेवी संस्था और दूसरा कॉर्पोरेट, लेकिन दोनों जगहों पर मेरे काम में कई समानताएं हैं। सबसे पहले, मुझे इस बात की उम्मीद नहीं थी कि एचयूएल में मेरे काम में फ़ील्ड वर्क भी शामिल होगा। मुझे इस बात की जरा भी जानकारी नहीं थी कि निजी सेक्टर के कर्मचारियों को भी फ़ील्ड में इतना समय गुजारना पड़ता है – मुझे लगता था कि वे लगभग सारा समय अपने दफ़्तर में रहते हैं और काम करते हैं। लेकिन जैसे-जैसे मैं अपनी जिम्मेदारियों से परिचित हुई, मुझे समझ आया कि कॉर्पोरेट में काम करने का यह एक महत्वपूर्ण आयाम क्यों है।

पीएएनआई में, मैंने बहुत ही निकटता से महिला किसानों के साथ काम किया था – उन्हें वीडियो दिखाना, खेती की नई तकनीकों को दिखाने के लिए उन्हें खेत पर ले जाना और उनके सवालों के जवाब देना – किसी भी नई चीज के उपयोग की प्रक्रिया को जितना संभव हो सके उतना आसान बनाना मेरा काम था। शक्ति अम्माओं के साथ भी मेरी भूमिका लगभग वैसी ही है। मैं उन्हें उनके लक्ष्यों को प्रबंधित करना सिखाती हूं या ऑर्डर देने के लिए ऐप आदि का उपयोग करने में उनकी मदद करती हूं। मुझे इन महिलाओं से बातचीत करने में बहुत मज़ा आता है और समय के साथ इनके साथ मेरे रिश्ते उतने ही अच्छे हो गए हैं जितने कि पीएएनआई में काम करने के दौरान महिला किसानों के साथ हो गए थे।

खेत में बातें कर रही महिलाओं का एक झुंड_ग्रामीण कामकाजी महिला
पीएएनआई में अपने काम के कारण मैंने लोगों से बातचीत करना और उनसे जुड़ना सीखा था जिससे एचयूएल में मेरा काम आसान हो गया। | चित्र साभार: प्रतिभा सिंह

दोपहर 1.00 बजे: मैं लगातार एक जगह से दूसरी जगह आती-जाती रहती हूं मुझे प्रति दिन प्वाइंट्स पर और वितरण एजेंसी के पास जाना होता है, नतीजतन एक दिन में मुझे 60–70 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है। कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे मैं सुबह 10 बजे अपनी स्कूटी पर बैठती हूं तो फिर शाम को ही उतरती हूं। इसलिए मैंने अपनी स्कूटी का नाम धन्नो रख दिया है! यह नाम मेरी पसंदीदा फिल्म शोले से आया है जिसमें बसंती ने अपनी घोड़ी का नाम धन्नो रखा था। दरअसल, प्रति दिन सुबह जब मैं अपने काम के लिए निकलती हूं तो स्कूटी स्टार्ट करते हुए कहती हूं, ‘चल मेरी धन्नो।’ जिसे सुनकर मेरे पिता हंसते हैं।

आवंटित प्वाइंट्स के दौरे के दौरान मेरी नज़र संभावित प्वाइंट्स पर भी होती है। हम जितने अधिक प्वाइंट्स का प्रबंधन करते हैं, हमारा लक्ष्य भी उतना ही बड़ा होता जाता है। जब मैंने आरएसपी के रूप में काम करना शुरू किया था तब मुझे 11 प्वाइंट्स की ज़िम्मेदारी दी गई थी और प्रति माह मुझे 70 हज़ार रुपये के उत्पाद बेचने होते थे। वर्तमान में 34 प्वाइंट के साथ मेरा मासिक लक्ष्य 3–4 लाख रुपये है। हमें आवंटित लक्ष्य का 103 फ़ीसद हासिल करना है और मैं गर्व से कह सकती हूं कि मैं केवल दो बार अपना लक्ष्य हासिल करने से पीछे रही हूं!

पहली बार एचयूएल में शामिल होने के बाद मैंने 300 विभिन्न उपभोक्ता उत्पादों के बारे में सीखा ताकि मैं दुकान मालिकों से आत्मविश्वास से बात कर सकूं और उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर दे सकूं। संदीप सर भी एक डिस्ट्रिब्यूटर हैं, और उन्होंने विस्तार से ये सब कुछ सीखने में मेरी बहुत मदद की। शुरूआत के कुछ सप्ताह, मैं नियमित रूप से अपने हाथ में एक डायरी लेकर एजेंसी के दौरे पर निकली थी जिसमें सभी उत्पादों का विवरण दर्ज करती ताकि सब कुछ याद कर सकूं।

मुझे बहुत कुछ नया सीखना था और इस पूरे ज्ञान को हासिल करने की ज़िम्मेदारी मुझ पर ही थी। पीएएनआई की टीम में पुरुष एवं महिलाएं दोनों थे, इसलिए एचयूएल में जाने के बाद शुरुआती कुछ दिनों तक पुरुषों वाली टीम के साथ तालमेल बैठाने में मुझे थोड़ा समय लग गया। जहां पीएएनआई में टीम के सदस्यों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करना मेरा काम था, वहीं अब पुरुषों से भरे एक कमरे में अपनी बात रखने या प्रश्न पूछने में मुझे झिझक होती थी। लेकिन मेरा पूरा ध्यान उस काम पर था जिसे करना था और मैंने बहुत जल्दी ही ख़ुद को उस हिसाब से ढाल लिया। शुरुआती दिनों में कुछ भी सीखने में परेशानी आती ही है। मैंने कभी ना तो हार मानी और ना ही सवाल का जवाब ना मिलने पर बुरा माना। इसके बदले, मैंने अन्य आरएसपी को देखकर जितना हो सका उतना सीखने की कोशिश की।

बेशक उस भूमिका को निभाने वाली एक मात्र महिला होने के नाते मेरे सामने कई तरह की चुनौतियां आईं लेकिन मैंने पूरी कोशिश की कि यह बात मेरी इस यात्रा में किसी तरह की बाधा ना बने। यदि इस इलाक़े में महिलाओं को आरएसपी के पद पर नियुक्त किया जाता है तो मुझे उम्मीद है कि मैं उनके सामने आने वाली चुनौतियों से निपटने में उनकी मदद कर सकती हूं। मैं नहीं चाहूंगी कि वे लंबी दूरी की यात्रा, सीमित सहायता के साथ काम को सीखने या लोगों की जबरन की हंसी-ठिठोली जैसी मुश्किलों के सामने घुटने टेक दें। मुझे याद है कि पीएएनआई में जब पहली बार हमने किसानों के साथ काम करना शुरू किया था तब वे -ख़ासतौर पर पुरुष- यह कह कर हमारा मज़ाक बनाते थे कि ‘ये छोटी लड़कियां हमें क्या सिखाएंगी?’ लेकिन हमारे दृढ़ संकल्प और ज्ञान को देखकर उनका संदेह दूर हो गया। मैंने उसी दृढ़ विश्वास को एचयूएल में कायम रखा और हर दिन अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया ताकि मैं आगे बढ़ती रह सकूं।

किराना स्टोर के सामने सेल्फ़ी लेती दो महिलाएं_ग्रामीण कामकाजी महिला
मैं शक्ति अम्माओं को नई स्थितियों से निपटने में मदद करती हूं जैसे कि उनके लक्ष्यों को प्रबंधित करना या ऑर्डर देने के लिए ऐप का उपयोग करना। | चित्र साभार: प्रतिभा सिंह

शाम 6.00 बजे: मैं घर पहुंचती हूं और कई घंटे अपनी स्कूटी के साथ बिताने के बाद मुझे उससे उतरने का मौक़ा मिलता है। मेरी मां घर साफ-सुथरा रखने को लेकर बहुत पक्की हैं इसलिए मैं एक बार फिर पूरे घर में झाड़ू लगाती हूं। उसके बाद मेरा पूरा परिवार एक साथ बैठकर चाय पीता है और फिर हम रात के खाने की तैयारी में लग जाते हैं। इस समय तक मेरे पिता भी खेत में अपना काम पूरा करके लौट आते हैं। हालांकि वे जिसका पालन करते हैं मुझे खेती के उस पारंपरिक तरीक़ों के बारे में कुछ ज़्यादा पता नहीं है। लेकिन मेरे पीएएनआई में काम शुरू करने के बाद मैंने उन्हें खेती के उन नए और जैविक तरीक़ों के बारे में बताया जिससे खेत की उत्पादन क्षमता भी बेहतर होती है। हम अक्सर इस बात पर हंसते हैं कि मैं बहुत आसानी से ये बता सकती हूं कि हमारे गांव का कौन सा खेत किसका है।

रात 10.00 बजे: रात का खाना खाने के बाद मैं कुछ समय पढ़ाई में लगाती हूं। आमतौर पर मैं रात के एक बजे तक अपनी पढ़ाई करती हूं। मैं हमेशा ही अधिक से अधिक सीखने के अवसर तलाशती रहती हूं, इसलिए मैं सहायक नर्स मिडवाइफ (एएनएम) का कोर्स कर रही हूं। इस पढ़ाई का खर्च मैं अपने वेतन से भरती हूं और थोड़ी बहुत मदद मेरे मामा भी करते हैं।
मुझे काम करते हुए लगभग छह साल हो चुके हैं और फ़ील्ड में जाना हमेशा मेरे काम का मुख्य हिस्सा रहा है। मुझे इन भूमिकाओं में काम करने में मज़ा आता है और इसलिए हमेशा ही मैं अपने काम में पूरी ऊर्जा लगाती हूं और अच्छा करने का प्रयास करती हूं। इसके अलावा मेरा सपना है कि एक दिन मैं दफ़्तर में बैठ कर काम करूं।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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आईडीआर इंटरव्यूज | शंकर सिंह (भाग-दो) 

सामाजिक सेक्टर की जानकारी रखने, ख़ासकर ज़मीनी नब्ज की पकड़ रखने वाले लोगों के लिए शंकर सिंह कोई अनसुना नाम नहीं है।राजस्थान के राजसमंद ज़िले से आने शंकर सिंह जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता, नाटककार, कहानीकार, मुखर वाचक की भूमिकाओं में दिखते हैं। सामाजिक सेक्टर में लगभग चार दशकों से अधिक का अनुभव रखने वाले शंकर जी ने देश के दिग्गज सामाजिक कार्यकर्ताओं अरुणा रॉय और निखिल डे के साथ मिलकर मजदूर किसान शक्ति संगठन की स्थापना की थी। यह संगठन देश में सूचना का अधिकार क़ानून लाने और लागू करवाने के अपने प्रयासों के लिए जाना जाता है।

हाशिये पर बैठे मजदूरों, किसानों की आय, रोजगार और उनके अधिकारों को लेकर लड़ने एवं उन्हें सशक्त करने का शंकर सिंह का अपना एक तरीका रहा है। उन्होंने कई सफल आंदोलनों, अभियानों की अगुआई की है। मनरेगा, सोशल ऑडिट जैसे संस्थागत माध्यमों को सशक्त करने में भी वे अहम भूमिकाओं में रहे हैं। कई बार उनके तरीक़े बहुत मनोरंजक, संगीतमय और कटाक्ष भरे भी होते हैं।

हाल ही में, आईडीआर ने शंकर सिंह से लंबी बातचीत की। इसमें उन्होंने अपने कामकाजी अनुभव, लोगों और समुदायों से जुड़ाव की बातें और अपने जीवन के अनगिनत किस्से-कहानियां साझा किए। इस बातचीत की दूसरी कड़ी में, वे बता रहे हैं कि कठपुतली और अभिनय की अपनी कुशलताओं से वे कैसे लोगों को मुद्दों से जोड़ने में कामयाब होते हैं। शंकर सिंह, जमीन की समझ रखने वाले ग्रामीण कार्यकर्ताओं और, तकनीकी की समझ और उस तक पहुंच रखने वाले शहरी कार्यकर्ताओं को तालमेल बनाने के सुझाव भी दे रहे हैं। इसके अलावा, वे इस बात का भी जिक्र करते हैं कि सामाजिक कार्यकर्ता जीवन में आगे बढ़ते रहने और नवाचार की प्रेरणा कैसे हासिल करते रह सकते हैं।

आईडीआर इंटरव्यूज | शंकर सिंह (भाग-एक) 

सामाजिक सेक्टर की जानकारी रखने, ख़ासकर ज़मीनी नब्ज की पकड़ रखने वाले लोगों के लिए शंकर सिंह कोई अनसुना नाम नहीं है। राजस्थान के राजसमंद ज़िले से आने वाले शंकर सिंह एक जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता, नाटककार, कहानीकार, मुखर वाचक की भूमिकाओं में दिखते हैं। सामाजिक सेक्टर में लगभग चार दशकों से अधिक का अनुभव रखने वाले शंकर जी ने देश के दिग्गज सामाजिक कार्यकर्ताओं अरुणा रॉय और निखिल डे के साथ मिलकर मजदूर किसान शक्ति संगठन की स्थापना की थी। यह संगठन देश में सूचना का अधिकार क़ानून लाने और लागू करवाने के अपने प्रयासों के लिए जाना जाता है।

हाशिये पर बैठे मजदूरों, किसानों की आय, रोजगार और उनके अधिकारों को लेकर लड़ने एवं उन्हें सशक्त करने का शंकर सिंह का अपना एक तरीका रहा है। उन्होंने कई सफल आंदोलनों, अभियानों की अगुआई की है। मनरेगा, सोशल ऑडिट जैसे संस्थागत माध्यमों को सशक्त करने में भी वे अहम भूमिकाओं में रहे हैं। कई बार उनके तरीक़े बहुत मनोरंजक, संगीतमय और कटाक्ष भरे भी होते हैं।

हाल ही में, आईडीआर ने शंकर सिंह से लंबी बातचीत की। इसमें उन्होंने अपने कामकाजी अनुभव, लोगों और समुदायों से जुड़ाव की बातें और अपने जीवन के अनगिनत किस्से-कहानियां साझा किए। बातचीत की इस पहली कड़ी में वे बता रहे हैं कि कैसे एक आंदोलन की दिशा तय की जाती है और कैसे उसे सफल बनाने का प्रयास किया जाता है। साथ ही, वे इस पर भी बात करते हैं कि जमीनी स्तर पर मुद्दे कैसे चुने जा सकते हैं और सरकार एवं लोगों के साथ काम करने के लिए बेहतर संवाद स्थापित करने के क्या तरीके अपनाए जा सकते हैं।

मेरे पिछले जीवन में याद करने जैसा कुछ नहीं है

मैं तमिलनाडु के एक बेहद पिछड़े और कमजोर जनजातीय समूह के इरूलर समुदाय से आता हूं। मैं अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में रहता हूं। यह तमिलनाडु सरकार द्वारा तिरुवन्नामलाई जिले के मीसानल्लूर गांव में बसाई गई एक बड़ी सी कॉलोनी है। डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में इरूलर समुदाय के कुल 143 परिवार रहते हैं जिनमें मेरे जैसे 100 परिवार भी शामिल हैं जो कभी बंधुआ मज़दूरी का शिकार रहे थे।

एक बंधुआ मज़दूर के रूप में मैं तिरुवन्नामलाई में एक ऐसे आदमी के लिए काम करता था जिसका पेड़ों की कटाई का व्यापार था। वह हमारी मज़दूरी तो समय से नहीं देता था लेकिन हमारी दिनचर्या पर उसका पूरा नियंत्रण रहता था। हम कब सोकर उठेंगे, क्या और कब खायेंगे, यह सब वही तय करता था। अपने जीवन पर हमारा अपना किसी तरह का अधिकार नहीं था। 2013 में, सरकारी अधिकारियों ने हमें और दो अन्य परिवारों को बचाया। हमें रिहाई प्रमाणपत्र जारी किए गए जिसने हमें अपने पूर्व मालिक के प्रति किसी भी प्रकार के कर्ज़ या जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया और हमें सरकार से मिलने वाले मुआवजे और पुनर्वास के योग्य बना दिया।

अपनी रिहाई के बाद, हम तिरुवन्नामलाई में वंदावसी के पास पेरानामल्लूर गांव में बस गए। 2019 में, तमिलनाडु सरकार ने हमसे संपर्क किया और हमें उनके द्वारा बनाई जा रही नई आवासीय कॉलोनी में बसने का प्रस्ताव दिया। हमें अच्छा घर, नौकरी और प्रति परिवार एक दुधारू पशु देने का वादा किया गया – दूसरे शब्दों में कहें तो हमें एक बेहतर जीवन देने का वादा किया गया। 2020 में, हम डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में आकर बस गये और तब से यहीं रह रहे हैं।

आज की तारीख़ में मेरे पास पांच गायें हैं और मैं कॉलोनी के भीतर ही चारकोल बनाने वाली यूनिट में काम करता हूं जिसे सरकार ही चलाती है। मैं एक निर्वाचित सामुदायिक नेता भी हूं, और मेरे ऊपर समस्याओं के समाधान और अपने लोगों की जरूरतों और मांगों को स्थानीय सरकारी अधिकारियों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी है। इस कॉलोनी में, इरूलर समुदाय से आने वाले हम लोग बंधुआ मजदूरी के अपने साझा इतिहास से जुड़े हुए हैं जो हमें एक बड़े से परिवार का हिस्सा बनाता है।

जिस दिन मैं चारकोल बनाने वाली यूनिट में काम पर नहीं जाता हूं, उस दिन मैं अपने समुदाय के लिए काम करता हूं और उनकी समस्याओं को सुलझाता हूं। | चित्र साभार: मुनियप्पन

सुबह 5.00 बजे: मैं सोकर जागने के बाद अपने मवेशियों के पास जाता हूं। पेरानामल्लूर में हम दूसरे लोगों की गायों और बकरियों की देखभाल करते थे और सोचते थे कि क्या कभी हमारे पास अपने मवेशी होंगे। लेकिन यहां, प्रत्येक परिवार को एक गाय दी गई है। सरकार ने मिल्क सोसायटी भी स्थापित की है जिसके माध्यम से हम दूध सहकारी संस्था आविन को सीधे दूध बेच सकते हैं। सुबह का दूध दुहने के बाद मैं उस दूध को सोसायटी पहुंचा देता हूं।

लगभग सुबह 7 बजे, मैं लकड़ी इकट्ठा करने जंगल की तरफ़ जाता हूं। हमें वेलिकाथान को काटने की अनुमति दी गई है जो कंटीली झाड़ियों की एक आक्रामक प्रजाति है। इसे हम चारकोल-बनाने वाली यूनिट तक लेकर जाते हैं और वहां इसे जलाकर चारकोल बनाते हैं। हम मानसून के दिनों को छोड़कर पूरे साल यह काम करते हैं। मानसून में जंगल के इलाक़ों में पानी जम जाता है। एक चक्र में, हम लगभग 10 टन चारकोल का उत्पादन करते हैं। प्रत्येक टन को बेचकर 6,000 रुपये तक की कमाई हो जाती है। यह राशि आसपास के गांवों में लोगों को चारकोल से होने वाली कमाई से 1,000 रुपये ज़्यादा है।

चारकोल बनाना कॉलोनी के व्यवसायों में से एक है; हम ईंट भट्टे, सैनिटरी पैड और पेपर बैग बनाने वाली यूनिट इत्यादि में भी काम कर सकते हैं। हम लोगों ने प्रत्येक व्यवसाय के लिए सदस्यों की एक निश्चित संख्या के साथ आम आजीविका समूह (सीएलजी) का गठन किया है। उदाहरण के लिए, चारकोल यूनिट में 16 लोग हैं। सरकार द्वारा हमारे काम की निगरानी की जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी यूनिट सुचारू रूप से काम कर रहे हैं या नहीं।

अगर काम पसंद नहीं आता है तो लोगों को दूसरी यूनिट में जाकर काम करने की आज़ादी है। प्रत्येक सीएलजी एक व्यक्ति द्वारा किए गये काम के दिनों की संख्या का रिकॉर्ड रखता है और उसी अनुसार उन्हें भुगतान करता है। और काम छोड़कर जाने की स्थिति में भी उन्हें बचत पर ब्याज से मिलने वाला लाभ भी प्राप्त होता है। व्यवसाय की प्रगति और आगे की योजना बनाने के लिए सीएलजी के सदस्य मासिक बैठक करते हैं।

मुझे इस कार्य व्यवस्था की सबसे अच्छी बात यह लगती है कि अपने समय का मालिक मैं खुद हूं। अब मुझे यह बताने वाला कोई नहीं है कि मुझे अपना जीवन कैसे जीना है। इतना ही नहीं, मैंने अपने परिवार, बच्चों और हमारे भविष्य के लिए पैसे बचाने में भी सफल रहा हूं, जो मैं पहले नहीं कर सका था।

सुबह 10.00 बजे: जिस दिन मैं चारकोल बनाने वाली यूनिट में काम पर नहीं जाता हूं, उस दिन मैं अपने समुदाय के लिए काम करता हूं और उनकी समस्याओं को सुलझाता हूं। डॉक्टर अब्दुल कलाम पुरम में रहने वाले परिवार अलग-अलग गांवों से आते हैं, और शुरुआत में हमारे बीच अच्छा खासा लड़ाई-झगड़ा हुआ और कई तरह की असहमतियां भी थीं। लेकिन हम समाधान ढूंढ़ने में हमेशा ही कामयाब रहे।

मुझे एक घटना याद है जिसमें दो परिवार एकदम से मार-काट पर उतर गये थे। उनमें से एक परिवार के पास बकरियां थीं और दूसरे के पास पौधे। बकरियां पौधे चर गई थीं, और इसके कारण दोनों परिवारों के बीच झगड़ा शुरू हो गया, जो बाद में इतना बढ़ गया था कि समुदाय के नेताओं द्वारा बीचबचाव करने की स्थिति आ गई। हमने दोनों परिवारों को अपने-अपने घर के चारों ओर बाड़ बनाने का सुझाव दिया। घर के चारों ओर बाड़ लगाना अब यहां एक आम बात हो गई है। 

जीवन अब पहले से बहुत बेहतर है, लेकिन यह सोचना हमारी ज़िम्मेदारी है कि इसे और बेहतर कैसे बनाया जा सकता है।

कॉलोनी में कुल 13 नेता हैं – सभी को कम्युनिटी हॉल में होने वाले चुनाव में समुदाय ने स्वयं चुना है। ये नेता लगातार उस नागरिक समाज संगठन के संपर्क में हैं जो हमारे सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ने के लिए यहां कॉलोनी में और स्थानीय सरकार के साथ मिलकर काम करती है।

हमारे सामने वाली कई चुनौतियों में से एक है सबसे नज़दीकी अस्पताल तक पहुंचना जो यहां से पांच किमी दूरी पर है। हमने ज़िला कलेक्टर को चिट्ठी लिखकर सार्वजनिक परिवहन सेवाओं के अनियमित होने से होने वाली असुविधा की जानकारी दी। अब ज़िला प्रशासन कॉलोनी में ही समय-समय पर चिकित्सा कैंप का आयोजन करता है। हमारे यहां राशन की दुकानें भी नहीं थीं लेकिन एक बार हमने कलेक्टर का ध्यान इस ओर दिलवाया और कॉलोनी का एक खाली पड़ा कमरा राशन की दुकान में बदल गया।

हम अब एक ऐसी बस सेवा चाहते हैं जो हमारे बच्चों को हाई स्कूल तक ले जाए। छोटे बच्चे कॉलोनी के भीतर ही आंगनबाड़ी में पढ़ने जाते हैं और पहली से आठवीं क्लास के बच्चों को ऑटो-रिक्शा में पास के गांव वाले स्कूल में जाना पड़ता है। 

हालांकि, दूसरे बड़े बच्चे अगर आठवीं से आगे की पढ़ाई करना चाहते हैं तो उन्हें हाई स्कूल जाने के लिए पांच किमी की यात्रा करनी पड़ती है। सबसे नज़दीकी कॉलेज यहां से लगभग 10 किमी दूर है। मैं सरकार से विनती करता हूं कि वे यहां कॉलोनी में ही एक आवासीय स्कूल और एक कॉलेज बनाने के बारे सोचें।

हमें बेहतर सड़क और परिवहन व्यवस्था से भी लाभ मिलेगा क्योंकि हम शहर से दूर रहते हैं। पहले हम, अपने पैतृक गांवों में गंदी परिस्थितियों में रहते थे। हमारे घर जर्जर थे और हम सभी प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त थे। जीवन अब काफी बेहतर है, लेकिन यह सोचना हमारी ज़िम्मेदारी है कि इसे और बेहतर कैसे बनाया जा सकता है।

शाम 6.00 बजे: घर वापस लौटकर रात का खाना खाने से पहले 8 बजे तक मैं अपने बच्चों के साथ समय बिताता हूं। मेरा बेटा अब सातवीं क्लास में है। जब वह छोटा था तो उसे आईपीएस अधिकारी बनने की इच्छा थी। हम जहां रहते थे उसके पास में ही एक पुलिस स्टेशन था और उसने देखा था कि अधिकारियों को कितना मान-सम्मान मिलता है। अब, इस कॉलोनी में आने और कलेक्टर को काम पर देखने के बाद वह एक आईएएस अधिकारी बनना चाहता है और समुदाय की सेवा करना चाहता है। मेरी बड़ी बेटी चौथी क्लास में है और डॉक्टर बनना चाहती है। छोटी बेटी अभी केवल तीन साल की ही है। मैं उनके लिए एक अच्छा और उज्ज्वल भविष्य चाहता हूं। वे एक ऐसी दुनिया में बड़े होंगे जहां वे पूरी आज़ादी के साथ अपने आप को अभिव्यक्त कर सकते हैं। वे यात्रा कर सकते हैं, अपने रिश्तेदारों से मिलने जा सकते हैं और जो चाहें वह सब कर सकते हैं – उन्हें रोकने वाला कोई नहीं होगा।

हम जल्द ही कॉलोनी में अपना त्योहार मासी मागम आयोजित करने की योजना बना रहे हैं। यह इरुलर लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण त्योहार है और देवी कन्नियम्मा के सम्मान में मनाया जाता है। हम वर्तमान में यहां अपना मंदिर बनाने के लिए धन जुटा रहे हैं। बंधुआ मजदूर के रूप में, हमें कभी भी एक परिवार के रूप में किसी भी उत्सव में शामिल होने की अनुमति नहीं थी; हममें से कुछ को हमेशा पीछे रहना पड़ता था ताकि दूसरों को जगह मिल सके। मुझे अपने पुराने जीवन की बिलकुल भी याद नहीं आती है और मैं सुनिश्चित करूंगा कि मेरे बच्चों को वैसे जीवन का अनुभव कभी नहीं करना पड़े।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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अलवर की एक महिला जो नई बहुओं को पितृसत्ता से लड़ने के हथियार देती है

मेरा जन्म राजस्थान के अलवर ज़िले के रसवाड़ा गांव में हुआ था। हमारे परिवार में मेरे अलावा छह और सदस्य थे – मेरी तीन बहनें, भाई और हमारे माता-पिता। जब मैं आठ साल की थी, तब बेहतर भविष्य की तलाश में मेरा पूरा परिवार गुरुग्राम आकर बस गया। जहां मैंने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और साल 2001 में 18 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई।

अब मैं राजस्थान के अलवर में अपने पति, एक बेटे और एक बेटी के साथ रहती हूं। मेरे पति एक दिहाड़ी-मज़दूर हैं – वे इमारतों में सफ़ेदी का काम करते हैं और उनकी रोज़ाना की आमदनी 600 रुपए है। शादी के कुछ ही दिनों बाद, मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि अपना घर चलाने के लिए मुझे भी काम करना पड़ेगा। हमारे घर में पानी और साफ-सफ़ाई से जुड़ी साधारण सुविधाएं भी नहीं थीं। 

मैंने बहुत कम उम्र में ही यह समझ लिया था कि महिलाओं को अपनी अलग पहचान बनाने की ज़रूरत है। मैंने किशोर लड़कियों को जीवन कौशल से जुड़ी शिक्षा देने के लिए समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम करना शुरू किया ताकि उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल तार्किक सोच और समस्याओं के समाधान के तरीके सीखने में मदद मिले। जल्दी ही मैंने यह भी जान लिया कि इस क्षेत्र में अपने काम को जारी रखने के लिए मुझे आगे पढ़ने की ज़रूरत है; इसलिए अपनी शादी के नौ सालों के बाद मैंने बीए और बीएड की पढ़ाई की। आजकल मैं राजस्थान के अलवर ज़िले में समाजसेवी संस्था इब्तिदा के लिए फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर और प्रशिक्षक के रूप में काम कर रही हूं। मैं युवा महिलाओं को करियर से जुड़ी सलाह देने, कम्प्यूटर शिक्षा की सुविधा मुहैया करवाने और खेल-कूद करवाने जैसे काम करती हूं। इसके साथ में नव-विवाहित महिलाओं के लिए चलाए जा रहे इब्तिदा के कार्यक्रम के लिए भी काम करती हैं जहां मैं महिलाओं को संवाद कौशल का प्रशिक्षण देती हूं और उन्हें पोषण ज़रूरतों और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियां देती हूं। इसके अलावा, मैं इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनके लिए मौके निकालने में उनकी मदद करती हूं और साथ ही कई स्तरों पर होने वाली लैंगिक हिंसा को समझने और उसका मुक़ाबला करने के बारे में भी बताती हूं। जहां मेरे जीवन से मेरे काम में मदद मिली है, वहीं विकास क्षेत्र में मेरे काम के अनुभवों का मेरे जीवन पर भी उतना ही प्रभाव पड़ा है। 

सुबह 6.30 बजे: मेरे दिन की शुरुआत सुबह 6.30 बजे होती है। जब तक मैं सोकर उठती हूं तब तक मेरे पति अपना योग और पूजा ख़त्म कर चुके होते हैं और हम दोनों के लिए चाय भी तैयार रखते हैं। उस दिन के काम की ज़रूरत के हिसाब से हम सब अपने-अपने हिस्से के काम बांट लेते हैं ताकि किसी को भी देर न हो। जैसे कि मेरे पति सब्ज़ियां काट देते हैं और मैं सुबह का नाश्ता तैयार कर लेती हूं। मेरा बेटा कपड़े धोने और इस्तरी करने के काम में कभी-कभी मदद कर देता है। इसके बाद बच्चे स्कूल के लिए तैयार होते हैं। जिस दिन मेरी बेटी को स्कूल नहीं जाना होता है, उस दिन वह खाना तैयार करने में मेरी मदद कर देती है। अपनी व्यस्तता के आधार पर या तो मेरे पति या मेरा बेटा मेरा स्कूटर झाड़-पोंछ देते हैं और मेरे लिए दोपहर के खाने का डब्बा तैयार कर देते है।

साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला।

लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। शादी के लगभग 15 सालों तक घर के सभी कामों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर ही थी। साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला। मैंने अस्पताल और घर के खर्चे पूरे किए और अकेले ही पूरा घर सम्भाला। तभी उन्हें समझ में आया कि अगर मैं परिवार को आर्थिक रूप से सहारा दे सकती हूं, तो उन्हें भी घर के कामों में मेरी मदद करनी चाहिए और एक दूसरे को बराबर समझना चाहिए। उन्होंने यह भी समझा कि उनकी पत्नी केवल अपने लिए नहीं बल्कि सब के लिए कमा रही है।मेरे सास-ससुर को मेरा काम करना पसंद नहीं था और उन्होंने इसका विरोध किया। जब मेरे पति ने घर के कामों में मेरी मदद करनी शुरू की तब उन्होंने पति को फटकार लगाई और कहा कि वे मेरे इशारों पर नाचते हैं। लेकिन मेरे पति अपनी बात पर अड़े रहे। मैं जिन नवविवाहिताओं के साथ काम करती हूं, उनके घरों में भी ऐसा ही बदलाव देखना चाहती हूं।

महिलाएं एक समूह में घेरा बनाकर सांप-सीढ़ी का खेल खेलती हुई-नवविवाहित महिला पितृसत्ता
मैंने अपने जीवन के शुरुआती दौर में ही इस बात को समझ लिया था कि महिलाओं को अपनी पहचान बनाने की आवश्यकता है। | चित्र साभार: राज बाला वर्मा

सुबह 10.00 बजे: दफ्तर पहुंचने के बाद मैं अपने दिनभर के काम की योजना बनाती हूं। मैं नवविवाहित महिलाओं के कार्यक्रम में शामिल महिलाओं के समूह के साथ बैठक करती हैं। मैं इस समय ऐसे चार समूहों के साथ काम कर रहीं हूं जिनमें कुल 69 महिलाएं शामिल हैं।इनमें से तीन समूहों की शुरुआत मई 2023 में ही हुई है।

महिलाओं और उनके परिवारों को समझाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। उन्हें इस बात का यक़ीन दिलाना जरूरी है कि मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के केवल उनके लिए वहां पर हूं और मैं उनकी परिस्थितियों को समझती हूं। मैं उन्हें अपने जीवन का उदाहरण देती हूं ताकि उन्हें यह एहसास हो सके कि मुझे उनकी हालत के बारे में पता है। मैं उन्हें यह भी समझाती हूं कि परिवर्तन के धीमी प्रक्रिया है ताकि जब उनके घरों में पितृसत्तात्मक संरचना उनके जीवन को मुश्किल बनाएं तो वे जल्दी निराश न हों। व्यवहार में बदलाव लाने के लिए नियमित बातचीत और छोटे-छोटे कदम उठाने की ज़रूरत होती है।

मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं।

मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं, ताकि उन्हें भरोसा हो सके कि मैं उनकी मदद कर पाने में सक्षम हूं। उदाहरण के लिए, एक बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा कि कौन सी सामान्य शारीरिक घटना है जिससे महिलाएं निपटती हैं, तो उनका जवाब था ‘ल्यूकोरिया‘ जो कि सही भी है। लेकिन वे इसके कारण और इससे निपटने के तरीकों के बारे में नहीं जानती थीं। परिवार के लोग इसके लिए डॉक्टरी सलाह नहीं लेते हैं और लड़कियों को इतनी समझ नहीं होती कि वे इसके लक्षणों को पहचान सकें। मैं उन्हें उनके सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के बारे में परिवार के लोगों से बातचीत करने और ज़रूरत पड़ने पर इलाज करवाने के तरीक़ों के बारे में सिखाती हूं।

मैं बहुओं और उनकी सासों को एक साथ बुलाकर उनसे बातचीत करती हूं। इन बैठकों का मुख्य उद्देश्य विशेष रूप से सासों को समझाना होता है। आमतौर पर अपनी बहुओं के जीवन के सभी फ़ैसले सासें ही लेती हैं। मुझे अक्सर ही उनके और कभी-कभी उनके पतियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। वे मुझसे पूछते हैं कि मैं इन युवा महिलाओं को क्या सिखाने वाली हूं। मैं उनकी पूरी बात को शांति के साथ सुनती हूं और खुले दिमाग़ के साथ सभी मुद्दों पर बातचीत करती हूं।

सास पूछती है कि “आप मेरी बहू को क्या सिखाएंगी? उसके बदले उस समूह में आप मुझे ही क्यों नहीं शामिल कर लेती हैं?” मैं उन्हें समझाती हूं कि उनका जीवन अब उस पड़ाव को पार कर चुका है और उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है। मैं संवेदनशीलता और समझ के उनके स्तर पर जाकर उनसे बातचीत करती हूं और पूछती हूं कि “आपके बच्चों की शादी हो चुकी है, आपने अपना पूरा जीवन काम करने में लगा दिया। आप घर के सभी फ़ैसले लेती हैं, आपको ऐसे किसी समूह की जरूरत नहीं है। अब आपकी बहू को सीखने की ज़रूरत है कि घर कैसे चलाया जाता है। उसे सीखने की ज़रूरत है कि वह आपका सम्मान करे और आपसे किसी भी तरह की बहस या लड़ाई-झगड़ा न करे। आप नहीं चाहती हैं कि आपकी बहू आपके साथ राज़ी-ख़ुशी से रहे?”

मेरी इन बातों से उन्हें यह भरोसा हो जाता है कि मैं उनकी बहुओं को कुछ ऐसा नहीं सिखाने वाली हूं जो उनकी नजर में ‘ग़लत’ है बल्कि मैं उसे कुछ ऐसा सिखाने वाली हूं जिससे उनके पूरे घर को फायदा होगा।

मैं समूह की महिलाओं के साथ निजी स्तर पर जुड़कर समझ बनाती हूं ताकि वे मुझसे अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बात कर सकें। कभी-कभी वे अपनी सासों से बहुत परेशान रहती हैं। यहां तक कि उनके सास और पति भी मुझसे उनकी शिकायत करते हैं। ऐसी स्थिति में मेरा काम बिना किसी हस्तक्षेप के उन सभी की बातों को सुनना होता है। मैं उन्हें एक दूसरे की बातें नहीं बताती हूं क्योंकि इससे झगड़े की सम्भावना बढ़ सकती है। कभी-कभी मुझे मध्यस्थता भी करनी पड़ती है। अगर पति का कोई नजरिया है और वह उसके बारे में बताता है, तो मैं पत्नी को भी समझाने की कोशिश करती हूं। इस तरह मैं एक संतुलन बनाते हुए परिवार के सदस्यों के साथ भरोसेमंद रिश्ता क़ायम रखती हूं।

महिलाओं का एक समूह कक्षा में बैठकर पढ़ता हुआ-नवविवाहित महिला पितृसत्ता
अपने कार्यालय पहुंचने के बाद मैं उस दिन के काम की योजना बनाती हूं और नवविवाहित युवा महिला कार्यक्रम में महिलाओं के साथ मीटिंग का आयोजन करती हूं। | चित्र साभार: राज बाला वर्मा

दोपहर 12.00 बजे: मेरी दोपहर अलग-अलग तरह से बीतती है। कभी मैं कौशल प्रशिक्षण देने के लिए फ़ील्ड में जाती हूं, तो कभी मैं नई जुड़ने वाली महिलाओं के लिए स्वागत बैठक जैसा कुछ करते हैं।हम अपनी संस्था और उसके द्वारा किए जाने वाले काम के बारे में जानकारी देते हैं। परिवार के लोगों को नवविवाहित लड़कियों द्वारा किए जा रहे कामों का महत्व समझाने के लिए हम उन्हें लैंगिक शिक्षा पर केंद्रित विडियो दिखाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ नाम का वीडियो महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कामों की आर्थिक महत्व को दिखाता है और बताता है कि अगर पैसों में देखा जाए तो उनके काम की क़ीमत कम से कम 32,000 रुपए है। हमारा उद्देश्य महिलाओं के काम को प्रत्यक्ष बनाना है। इससे पुरुषों को महिलाओं के कामों की सराहना करने में मदद मिलती है, और वे उनकी सहायता भी करना शुरू कर देते हैं ताकि घर के पूरे काम की जिम्मेदारी केवल महिलाओं के कंधे पर न पड़े। 

परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं।

इसके बाद मैं दोपहर का खाना खाती हूं और अपना प्रशिक्षण ज़ारी रखती हूं। यदि कोई बहुत लम्बे समय से अनुपस्थित है तो मैं उनके घर जाकर इसके कारण का पता लगाती हूं। परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं। यदि इस प्रशिक्षण से उनके घर की व्यवस्था में थोड़ा-बहुत भी फेरबदल आने लगता है तो वे महिलाओं को भेजना बंद कर देते हैं। मुझ पर महिलाओं को भटकाने के आरोप भी लगे हैं। ऐसी परिस्थितियों में मेरा काम होता है कि मैं महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करूं और उन्हें अपनी पहचान बनाने के लिए कहूं, ताकि वे अपनी आवाज़ उठा सकें और परिवार के लोगों के साथ रहते हुए अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी कदम उठा सकें। मैंने उनसे कहा है कि मेरी कही गई बातों को घर पर बताने की बजाय उन्हें अपनी समझ बनाने की और समस्याओं से अपने तरीक़े से निपटने की ज़रूरत है।

कार्यक्रम में, हम हिंसा को लेकर समुदाय के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने का भी प्रयास करते हैं। यह एक आम समझ है कि हिंसा केवल एक ही प्रकार की होती है – शारीरिक। लेकिन महिलाओं को केवल शारीरिक हिंसा का ही सामना नहीं करना पड़ता है, बल्कि वे मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा का भी शिकार होती हैं। मैं उन्हें बताती हूं जब आप किसी को गाली देते हैं, कोई जातीय टिप्पणी करते हैं, छेड़ते हैं या बिना मर्ज़ी के किसी को छूते हैं तो इन सभी परिस्थितियों में आप हिंसा कर रहे होते हैं। 

जब मैं छोटी थी तो मैंने अपनी मां को इन सबसे गुजरते देखा था। मेरे पिता अक्सर उन्हें दूसरी शादी कर लेने की धमकी देते थे क्योंकि हम चार बहनें थीं और मेरे पिता को बेटा चाहिए था। मुझे अपनी मां की दुर्दशा तब समझ में आई जब मैंने भी पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का अनुभव किया।जब आप अपने जीवन में हिंसा का अनुभव कर चुके होते हैं तो उस स्थिति में आप चुपचाप बैठकर किसी और को पीड़ित होता नहीं देख सकते हैं। इसलिए अब मैं जहां भी हिंसा होता देखती हूं, चाहे मेरे घर में  या फ़िर आस-पड़ोस में, मैं उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाती हूं। उदाहरण के लिए, घर पर मैं उन महिलाओं के मामलों को तेज आवाज़ में पढ़ती हूं जिनके साथ मैं काम करती हूं ताकि मेरे परिवार के सदस्य भी सीख सकें। इससे न केवल उनके व्यवहार में बल्कि मेरे सास-ससुर के बर्ताव में भी बदलाव आया है।

खेत में खड़ी महिलाओं का एक समूह-नवविवाहित महिला पितृसत्ता
दोपहर के समय मैं आमतौर पर कोई निश्चित कार्यक्रम या योजना नहीं बनाती हूं, कभी-कभी मैं कौशल प्रशिक्षण के लिए क्षेत्र का दौरा करती हूं। | चित्र साभार: राज बाला वर्मा

शाम 6.30 बजे: पूरा दिन काम करने के बाद मैं घर वापस लौटती हूं। मेरे दोनों बच्चे मुझसे पहले घर पहुंचने की कोशिश करते हैं ताकि रात का खाना वे तैयार कर सकें। मेरी बेटी सब्ज़ी बनाती है और मैं चपाती। हम बर्तन धोने का काम अपनी-अपनी थकान और व्यस्तता के आधार पर आपस में बांट लेते हैं। हमारा शाम का अधिकांश समय इन्हीं कामों में चला जाता है। मेरी बेटी डॉक्टर बनना चाहती है लेकिन उसे इंजेक्शन से डर लगता है और इंजेक्शन लेने के समय वह चिल्लाना शुरू कर देती है। मेरा बेटा सीमा सुरक्षा बल में शामिल होना चाहता है क्योंकि उसे वर्दियों से प्यार है; मैं उसे लगातार कहती रहती हूं कि उसे इस बारे में एक बार फिर से सोचना चाहिए।

सारा काम ख़त्म होने के बाद मैं और मेरी बेटी साथ बैठकर टीवी पर ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ नाम का धारावाहिक देखते हैं। इसमें जीवन के सुख और दुख दोनों दिखाते हैं। हमें यह अपने जीवन जैसा लगता है और इस धारावाहिक को देखे बिना हमें अपना दिन अधूरा लगता है। मुझे पुराने गाने सुनना भी पसंद है, इससे मुझे अच्छा महसूस होता है। मैं कम्प्यूटर की पढ़ाई करने की कोशिश कर रही हूं और अपने इस कोर्स के लिए समय निकालना चाहती हूं। लेकिन दिन ख़त्म होते-होते मैं इतना थक चुकी होती हूं कि रात के 11-12 बज़े तक मुझे नींद आ जाती है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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गुजरात की एक युवा महिला जो समुदाय से लेकर जंगल तक का ख्याल रखना जानती है

मैं गुजरात के महिसागर जिले में पड़ने वाले मोटेरा नाम के एक छोटे से गांव से हूं। अपने गांव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी भील जनजाति से आती हूं। अपने तीन भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ी हूं; मेरे दोनों छोटे भाई-बहन अभी माध्यमिक स्कूल में पढ़ाई कर रहे हैं। हमारे गांव में ही हमारा एक घर और एक छोटा सा खेत है और हमारे पास थोड़े से मवेशी भी हैं।

जब मैं छोटी थी तो अपने भविष्य को लेकर मेरी समझ स्पष्ट नहीं थी। लेकिन मैं इस अहसास और जागरूकता के साथ बड़ी हो रही थी कि मेरी जनजाति के लोगों का जीवन उस स्थिति से बहुत अलग है जिसे एक आदर्श जीवन कहा जाता है। गांव से हो रहे पलायन की दर तेज़ी से बढ़ रही थी और लोग आसपास के जंगलों में उपलब्ध संसाधनों का अंधाधुंध तरीक़े से दुरुपयोग कर रहे थे। गांव के कुओं की स्थिति बदतर थी और पीने के पानी का संकट था। सबसे महत्वपूर्ण बात जो मैंने देखी वह यह थी कि गांव में होने वाली बैठकों जैसी महत्वपूर्ण बातचीत में औरतों की उपस्थिति नहीं थी। 

इसलिए मुझे अपने गांव की स्थिति में सुधार के लिए अपने समुदाय, विशेषकर इसकी महिलाओं के साथ काम करने की प्रेरणा मिली। एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो गांव में पला-बढ़ा है और समुदाय के सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों से वाकिफ है, मुझे विश्वास था कि मैं सार्थक बदलाव ला सकने में सक्षम थी। मुझे मेरे गांव में फ़ाउंडेशन फ़ॉर एकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ़ईएस) से सहयोग प्राप्त सात कुंडिया महादेव खेदूत विकास मंडल नाम की संस्था द्वारा किए जा रहे काम के बारे में पता चला। यह संस्था पारिस्थितिक पुनरुद्धार और आजीविका की बेहतरी के लिए काम करती है और मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि इनका काम मेरे समुदाय के लोगों की बेहतरी के लिए हस्तक्षेपों का एक उचित मिश्रण है। मैं 2021 में गांव की संस्था से जुड़ी और तब से ही समुदाय संसाधन व्यक्ति (कम्यूनिटी रिसोर्स पर्सन) के रूप में काम कर रही हूं। 

चूंकि मैंने सीआरपी के रूप में अपना काम शुरू किया था इसलिए मैं ऐसी कई गतिविधियों में शामिल थी जिनका उद्देश्य आसपास के जंगलों और उनके संसाधनों का संरक्षण और प्रबंधन करना था। क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने के लिए हमने गांव की संस्था को मजबूत करने और जंगल को पुनर्जीवित करने जैसे कामों को अपनी प्राथमिक रणनीतियों के रूप में अपनाया है। मैं महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के माध्यम से लोगों की रोजगार तक पहुंच को सुविधाजनक बनाने पर भी काम करती हूं। इसके लिए मैं संस्था की मदद एक वार्षिक श्रम बजट तैयार करने में करती हूं जिसे ब्लॉक और जिला दफ़्तरों में अधिकारियों के सामने प्रस्तुत किया जाता है। रोज़गार ढूंढने वाले लोगों को इस बजट के आधार पर ही काम आवंटित किया जाता है। हमारे गांव में मनरेगा के माध्यम से आवंटित किए जा रहे कामों में वन संरक्षण, चेक डैम बनाना और कुआं खोदना आदि शामिल है। गांव के लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार प्राप्त करने में सक्षम बनाने से पलायन को कम करने के साथ-साथ आजीविका की समस्या का समाधान करने में मदद मिलती है।

सुबह 6.00 बजे: मैं सुबह जल्दी उठती हूं और अगले कुछ घंटों में घर के काम और नाश्ता करने जैसे काम निपटाती हूं। गांव के अन्य परिवारों की तरह मेरा परिवार भी आय के अन्य स्त्रोत के लिए पशुपालन पर निर्भर है। इसलिए सुबह-सुबह मैं गौशाला की साफ़-सफ़ाई, गायों को पानी देने और दूध दुहने में अपनी मां की मदद करती हूं। मेरे गांव में लोगों को आमदनी के दूसरे विकल्पों पर गम्भीरता से सोचना पड़ा क्योंकि खेती से उनका काम चलता दिखाई नहीं पड़ रहा था। यहां खेती के लिए बहुत अधिक ज़मीन उपलब्ध नहीं है और गांव की विषम भौगोलिक स्थिति खेती के काम को और भी अधिक चुनौतीपूर्ण बना देती है। एक किसान इतना ही अनाज उगा पाता है जितने में उसके परिवार का भरण-पोषण हो जाए। मैं अब परिवारों को उनकी आजीविका के विकल्पों में विविधता लाने में मदद करने की दिशा में काम कर रही हूं। गांव के लोग पशुपालन और वन संसाधनों के संग्रहण जैसे काम करते आ रहे हैं और अब मैं विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए इन्हें बढ़ाने में उनकी मदद कर रही हूं।

कुएं की मेड़ पर खड़े होकर पानी भरती एक महिला_प्राकृतिक संसाधन
हमने पूरे गांव में 10 कुओं की साफ़-सफ़ाई कर उन्हें फिर से जीवित करने में सफलता हासिल की है। | चित्र साभार: बरिया प्रवीणभाई मोतीभाई

सुबह 10.00 बजे: घर के कामों में हाथ बंटाने के बाद मुझे फ़ील्डवर्क के लिए जाना पड़ता है। दिन के पहले पहर में मैं गांव के विभिन्न घरों का दौरा करती हूं। इन घरों से आंकड़े इकट्ठा करना मेरी ज़िम्मेदारियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। उनका सर्वे करते समय मैं परिवार के आकार, इसके सदस्यों की उम्र, शिक्षा के स्तर और लिंग जैसी जानकारियां इकट्ठा करती हूं। ये घरेलू सर्वेक्षण मनरेगा श्रम बजट और ग्राम पंचायत विकास योजना (जीपीडीपी) में काम आते हैं, जिसे तैयार करने में मैं मदद करती हूं। मैंने जिस पहले बजट को तैयार करने में मदद की थी उसमें रोजगार हासिल करने पर ध्यान केंद्रित किया गया था। लेकिन आख़िरकार हमने यह महसूस किया कि जल संरचनाओं का निर्माण भविष्य में भी हमारी उत्पादकता और आय बढ़ाने में मदद कर सकता है। हाल के बजट में इन विषयों को केंद्र में रखा गया था। गांव में पानी की कमी का सीधा मतलब यह था कि महिलाओं को पानी लाने के लिए नियमित रूप से एक किलोमीटर पैदल चलकर नदी तक जाना पड़ता था। इस समस्या का समाधान भूजल स्त्रोतों को फिर से सक्रिय करके किया जा सकता था और इसलिए ही मैंने भूजल सर्वे करना शुरू कर दिया। इस सर्वे से हमें यह जानने और समझने में मदद मिली कि ऐसे कौन से क्षेत्र हैं जहां भूजल पुनर्भरण कार्य करने की तत्काल आवश्यकता है, और इसके लिए हमने ग्राउंडवाटर मॉनिटरिंग टूल नामक एक एप्लिकेशन का उपयोग करके कुओं की जियोटैगिंग की। जियोटैगिंग से हमें उन कुओं पर नज़र रखने में मदद मिलती है जिन्हें रिचार्ज करने की आवश्यकता होती है और जिनका उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए। समय के साथ गांव के बदलते हालात और वर्तमान में उसकी आवश्यकता के आकलन के लिए मैं नियमित अंतराल पर ऐसे सर्वेक्षण करती हूं। अब तक, हम गांव भर में 10 कुओं को पुनर्जीवित कर पाने में कामयाब रहे हैं, और इससे पानी की कमी को दूर करने में मदद मिली है।

स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन से जुड़े फ़ैसले हम सामूहिक रूप से लेते हैं।

दिन के समय मैं गांव में होने वाली बैठकों में भी शामिल होती हूं। इन बैठकों में हम सामूहिक रूप से स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन से जुड़े फ़ैसले लेते हैं। हाल तक वन प्रबंधन से जुड़े कई नियमों का पालन नहीं किया जाता था। उदाहरण के लिए, कुछ किसान संसाधनों के लिए जंगल के कुछ हिस्सों को साफ कर रहे थे जिससे उनकी आय में वृद्धि हो सके। गांव में होने वाली बैठकों के माध्यम से हमने एक समुदाय के रूप में जंगल की रक्षा के महत्व को सुदृढ़ किया और फिर से ऐसी स्थिति न आए इसके लिए नए नियम बनाए। लेकिन मैं यह भी समझ गई थी कि किसानों ने यह सब कुछ हताशा के कारण किया था न कि अपमान के कारण, इसलिए मैंने मनरेगा के माध्यम से उनके रोज़गार को सुनिश्चित करने के क्षेत्र में काम किया।

दोपहर 2.00 बजे: गांव से जुड़े मेरे काम ख़त्म होने के बाद आमतौर पर मैं घर वापस लौटती हूं और दोपहर का खाना खाती हूं। उन दिनों में जब मेरे लौटने की सम्भावना कम होती है मैं घर से निकलने से पहले भर पेट खाना खा लेती हूं। मेरे खाने में आमतौर पर गिलोडा (लौकी) का साग या करेला, मकई रोटला और कढ़ी होती है। दोपहर के खाने के बाद मैं गांव के पंचायत दफ़्तर चली जाती हूं। यहां मैं प्रासंगिक सरकारी योजनाओं के लिए आवेदन करने और उनके लाभों को पाने में लोगों की मदद करती हूं। इसके परिणाम स्वरूप विशेष रूप से गांव की औरतों की स्थिति में बहुत सुधार आया है। उदाहरण के लिए, विधवा महिलाएं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना के माध्यम से सामूहिक रूप से पेंशन प्राप्त करने में सक्षम हैं। इसके अतिरिक्त, हमने राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के माध्यम से गांव में स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) की स्थापना की है। 

इसने भी उन महिलाओं की वित्तीय साक्षरता को बेहतर बनाने में अपना योगदान दिया है और अब महिलाएं एसएचजी के माध्यम से सामूहिक रूप से पैसों की बचत करती हैं। गांव ने जिला कार्यालय में सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) का दावा प्रस्तुत किया है। इस दावे की मान्यता कानूनी रूप से सामुदायिक वन की सुरक्षा, पुनर्जनन और प्रबंधन के हमारे अधिकार की गारंटी देगी। यह हमें वन संसाधनों के उपयोग के लिए आधिकारिक रूप से नियम बनाने और गैर-इमारती वन उत्पादों पर अधिकार प्रदान करने में भी सक्षम करेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जंगल का स्वामित्व वन विभाग से हमारी ग्राम सभा को प्राप्त होगा। दुर्भाग्य से, हमें अभी तक समुदाय के पक्ष में किसी तरह का फ़ैसला नहीं मिला है। इसके परिणाम स्वरूप, हमें अभी तक इ स बात की जानकारी नहीं है कि गांव की सुरक्षा के अंतर्गत अधिकारिक रूप से कितनी हेक्टेयर भूमि आवंटित है। लेकिन चूंकि समुदाय के लोगों ने पारम्परिक रूप से वन की सुरक्षा की है और इससे प्राप्त होने वाले संसाधनों पर ही जीवित रहे हैं, इसलिए हम अनौपचारिक रूप से भी अपने इन अभ्यासों को जारी रखने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। 

शाम 5.00 बजे: कभी-कभी मैं अपने कोऑर्डिनेटर से मिलने या एकत्रित आंकड़ों को रजिस्टर में दर्ज करने के लिए एफ़ईएस के कार्यालय भी जाती हूं। यह दफ़्तर मेरे गांव से 30 किमी दूर है इसलिए मुझे वहां तक पहुंचने के लिए स्टेट बस लेनी पड़ती है। एक ऐसा मंच बनाने के लिए जहां विभिन्न हितधारक आम मुद्दों पर इकट्ठा हो सकें, चर्चा कर सकें और विचार-विमर्श कर सकें, हम साल में एक बार संवाद कार्यक्रम भी आयोजित करते हैं। फोरम हमारे ब्लॉक के विभिन्न गांवों के लोगों को स्थानीय कलेक्टर, आहरण और संवितरण अधिकारी और अन्य ब्लॉक स्तर के अधिकारियों के साथ सम्पर्क स्थापित करने में मदद करता है। यह कार्यक्रम ग्रामीणों को इन अधिकारियों के सामने अपनी चिंताओं को रखने और सामूहिक रूप से उनकी समस्याओं के समाधान की दिशा में काम करने का अवसर प्रदान करता है। उदाहरण के लिए पिछले कार्यक्रम में हमने स्थानीय लोगों की पारिश्रमिक और भूमि से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा की थी। कार्यक्रम में सरकार भी अपने स्टॉल लगाती है जहां जाकर स्थानीय लोग खेती-किसानी, कीटनाशक, भूमि संरक्षण, पशुपालन, मत्स्यपालन और विभिन्न सरकारी योजनाओं के बारे में जानकरियां हासिल कर सकते हैं।

मैं वन संसाधनों के संग्रह के लिए समुदाय के सदस्यों को नियम बनाने में मदद करती हूं।

सामूहिक ज्ञान का उपयोग करते हुए हमारी महिलाओं और समुदाय के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर मैं वन संसाधनों जैसे महुआ (बटरनट) और टिमरूपन (कांटेदार राख के पत्ते) के संग्रह के लिए नियम बनाने में उनकी मदद करती हूं। उदाहरण के लिए, एक समय में केवल कुछ ही परिवारों को संसाधनों को इकट्ठा करने की अनुमति दी जाती है। इससे हम अनजाने में ही सही लेकिन प्रकृति के किए जा रहे दोहन पर रोक लगाने में सक्षम हो पाते हैं। इसी प्रकार हम जंगल से केवल सूखी लकड़ियां ही इकट्ठा करते हैं और पेड़ों को नहीं काटते हैं। हालांकि आमतौर पर महिलाएं जंगल के संरक्षण के मुद्दे से सहमत होती हैं लेकिन मैं भी उन्हें विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से सीखने के लिए प्रोत्साहित करती हूं और उन्हें ऐसी जगहों पर लेकर जाती हूं जहां इन नियमों का पालन किया जा रहा है।

शाम 6.00 बजे: शाम में घर वापस लौटने के बाद मुझे घर के कई काम पूरे करने होते हैं। मैं मवेशियों के खाने-पीने पर एक नज़र डालने के बाद पूरे परिवार के लिए खाना पकाती हूं। खाना तैयार होने के तुरंत बाद ही हम खाने बैठ जाते हैं। घर की सबसे बड़ी बच्ची होने के कारण मेरे ऊपर घर के कामों की जिम्मेदारी है और मैं उन्हें हल्के में नहीं ले सकती। समुदाय के लिए अथक काम करने के कारण मेरे गांव में मेरी एक पहचान बन चुकी है। मैं मात्र 22 साल की हूं लेकिन मुझसे उम्र में बड़े लोग भी मुझे अनिता बेन (बहन) पुकारते हैं। इससे मेरे पिता और मेरी मां को बहुत गर्व होता है। मैं अपने छोटे भाई-बहनों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि मेरी छोटी बहन भी मेरे नक़्शे-कदमों पर चले और मेरे भाई को एक अच्छी नौकरी मिल जाए ताकि हमारे परिवार की आमदनी में थोड़ा इज़ाफ़ा हो सके। मुझे पूरी उम्मीद है कि वे दोनों अपने-अपने जीवन में बहुत उंचाई पर जाएंगे और हमारे परिवार और समुदाय के लिए कुछ बड़ा करेंगे।

रात 9.00 बजे: रात का खाना खाने के बाद मुझे तुरंत ही बिस्तर पर जाना होता है। नींद में जाने से पहले कभी-कभी मैं अपने काम से समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में सोचती हूं। मैं चाहती हूं कि गांव में महिलाओं की भागीदारी बढ़े और उनके विचारों को महत्व दिया जाए। सम्भव है कि एक दिन हमारे गांव की सरपंच कोई महिला ही हो! 

अंत में, मैं केवल इतना चाहती हूं कि मेरे समुदाय के लोग सौहार्दपूर्वक रहें और विरासत में मिले इस जंगल को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करते रहें। मैं अपने गांव में कर रहे अपने कामों को आसपास के गांवों में भी लेकर जाना चाहती हूं। मुझे पूरा भरोसा है कि वे लोग भी इसी प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहे होंगे और स्थानीय ज्ञान के आदान-प्रदान से इसमें शामिल प्रत्येक व्यक्ति को लाभ होगा।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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