मेरा नाम प्रीति बेले है। मैं महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के घाटंजी ब्लॉक में अपने गांव मुरली की एक सामुदायिक संसाधन व्यक्ति (सीआरपी) के रूप में काम करती हूं। मैं दो छोटे बच्चों की अकेली मां हूं और कई तरह की ज़िम्मेदारियां उठाती हूं। मैं एक मां, एक गृहिणी और अपने परिवार की कर्ताधर्ता, सब कुछ हूं।
घाटंजी, विदर्भ के एक सूखा-प्रभावित इलाक़े में आता है – एक ऐसा इलाक़ा जिसकी पहचान ही यह है कि इस क्षेत्र का कृषि संकट यहां की ग्रामीण आजीविका को प्रभावित करता है। रसायनों के अत्यधिक उपयोग, नकदी फसल, भूजल के अत्यधिक दोहन और जंगलों के क्षरण के कारण यह संकट पिछले कुछ वर्षों में जटिल हो गया है। सीआरपी के रूप में मेरी भूमिका मेरे समुदाय को उनकी आजीविका में सुधार करने में मदद करना है। इसके अलावा मैं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए सामूहिक गतिविधियों को बढ़ावा देने और निर्णय लेने की प्रक्रिया में समुदाय – विशेष रूप से महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने की दिशा में भी काम करती हूं।
सुबह 5.30 बजे: जागने के बाद, मेरे सुबह के कुछ घंटे घर के कामों में लगते हैं। पिछले दिन के बर्तन साफ़ करने, नाश्ता और दोपहर का खाना तैयार करने और बच्चों को स्कूल भेजने जैसे काम निपटाने के बाद मैं घर की सफ़ाई करती हूं। इन सब कामों के बाद मैं रंगोली बनाती हूं और पूजा करती हूं।
सुबह 10 बजे: मैं विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और ऐसे अन्य प्रावधानों के बारे में जानकारी साझा करने के लिए निकल जाती हूं। मैं अपने समुदाय के सदस्यों के साथ समूहों या बैठकों में बातचीत करती हूं। यह जानकारी उन योजनाओं और प्रावधानों की होती है जो समुदाय के लोगों के लिए लाभदायक होती हैं। हाल ही में मैंने अपने गांव में एक शिविर का आयोजन किया था जिसमें समुदाय के सदस्यों ने अपने पैन कार्ड के लिए आवेदन दिए और अपने बैंक खातों को आधार कार्ड से लिंक करवाया। ये सभी प्रक्रियाएं बहुत जटिल होती हैं और इनके लिए कई तरह के दस्तावेज़ों की ज़रूरत होती है। लोगों को कई बार सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं और नियमित रूप से उसकी स्थिति का पता लगाना पड़ता है। मैं उन लोगों के लिए ये सारे काम करती हूं जो वे खुद नहीं कर सकते।
कभी-कभी मैं इस समय का इस्तेमाल किसानों से मिलने और उनकी ज़रूरत के अनुसार जैविक खाद/कीटनाशक बनाने में उनकी मदद के लिए भी करती हूं। मैं ये सारे काम 2019 से कर रही हूं, तब से जब पहली बार फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफईएस) के तहत मैं अपने गांव की सीआरपी नियुक्त हुई थी। मैंने जैविक खेती पर कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लिया और सीखा कि जैविक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग के तरीक़ों के बारे में कैसे बताया जाता है। शुरुआत में मेरे प्रदर्शनों का विरोध किया गया और समुदाय ने उनका मजाक भी उड़ाया। लेकिन जब संतोष घोटने नाम के एक किसान ने इन तरीक़ों को अपनाने में रुचि दिखाई और डेमो देने के लिए कहा तो उसके बाद से दूसरे लोगों का नज़रिया भी बदलने लगा।
मैं खेती के टिकाऊ, जैविक तरीकों को अपनाने के लिए गांव में अधिक से अधिक किसानों को प्रोत्साहित करने का प्रयास करती हूं।
खेती के किए जा सकने वाले स्थायी तरीक़ों के महत्व को समझते हुए, उन्होंने मुझे पंजाबराव देशमुख जैविक शेती मिशन के तहत एक किसान समूह बनाने में मदद करने के लिए कहा। हमने कुछ अन्य किसानों को अपने साथ जोड़ा और आखिरकार 2021 में 20 किसानों का एक समूह बनाकर उसका पंजीकरण करवा लिया। ये सभी किसान अब जैविक खेती करते हैं। इन किसानों को सरकार ने कम कीमतों पर जैविक कीटनाशक और कुछ उपकरण (जैसे पंप, जैविक कीटनाशक बनाने के लिए एक टैंक) दिया है।
खेती के स्थाई तरीक़ों में मेरी बहुत गहरी रुचि है, और मैं खेती के टिकाऊ, जैविक तरीकों को अपनाने के लिए गांव में अधिक से अधिक किसानों को प्रोत्साहित करने का प्रयास करती हूं। चूंकि यवतमाल सूखा-प्रभावित इलाक़ा है इसलिए हमें पानी के प्रबंधन के बारे में भी सोचना पड़ता है। पिछले तीन वर्षों से, मैं जल संसाधनों के प्रबंधन के महत्व को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए समुदाय के सदस्यों के साथ भूजल गतिविधियों और फसल के लिए पानी का बजट बनाने जैसे कार्यक्रमों का आयोजन कर रही हूं। इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप, कुछ किसानों ने भराव सिंचाई की बजाय फव्वारा या ड्रिप सिंचाई को अपनाया है। वहीं कुछ अन्य किसान या तो कम सिंचाई वाली फसलों की खेती करने लगे हैं या फिर बहुत कम क्षेत्रफल में अधिक सिंचाई वाली फसलों को बोने लगे हैं।
दोपहर 2 बजे: मैं घर आकर दोपहर का खाना खाती हूं। उसके बाद मुझे रात के खाने की तैयारी शुरू करनी पड़ती है और साथ ही साथ घर के अन्य काम भी निपटाती हूं। ज़रूरत होने पर मुझे सब्ज़ी या अनाज ख़रीदने भी जाना पड़ता है और पढ़ाई में अपने बेटों की मदद भी करनी पड़ती है। अकेले दो छोटे लड़कों को सम्भालना आसान काम नहीं है।
शाम 6 बजे: आमतौर पर, शाम का समय मैं समुदाय की महिलाओं के साथ बिताती हूं। इन महिला-सभाओं में हम महिलाओं की समस्याओं के साथ ही गांव की अन्य बड़ी समस्याओं पर बात करते हैं। ऐसी जगहें बहुत अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। इन जगहों पर महिलाओं को अपनी उन समस्याओं के बारे में बताने का मौक़ा मिलता है जिनके बारे में शायद वे बाकी जगहों पर बात नहीं कर पाती हैं या फिर करती भी हैं तो उन बातों को अनसुना कर दिया जाता है। हम इस पर भी बात करते हैं कि कैसे इन मुद्दों को ग्राम सभा में उठाया जाए।
मैंने अगस्त 2018 में दोस्तों और पड़ोसियों की मदद से अपना एसएचजी बनाने का फ़ैसला किया।
मैंने पहली बार एसएचजी आंदोलन के तहत महिलाओं के साथ काम करना शुरू किया था। पांच साल पहले मैं नहीं जानती थी कि स्वयं-सहायता समूह क्या है। मेरे परिवार ने मुझे एसएचजी में शामिल होने की अनुमति नहीं दी थी। इसलिए कि इसका हिस्सा बनने का मतलब था मीटिंग के लिए घर से बाहर जाना, जिनका आयोजन कभी-कभी रात के समय भी किया जाता था। जिज्ञासावश मैंने अपनी परिचित महिलाओं के एक समूह से बातचीत की। ये महिलाएं एसएचजी के माध्यम से पैसों की बचत करती थीं। चूंकि उनके समूह में अब जगह नहीं थी इसलिए उन लोगों ने मुझे अपना समूह बनाने की सलाह दी। इसलिए मैंने अगस्त 2018 में दोस्तों और पड़ोसियों की मदद से अपना एसएचजी बनाने का फ़ैसला किया। शुरुआत में मैं घर-घर जाकर महिलाओं को प्रति माह मात्र 100 रुपए की बचत करने के लिए प्रोत्साहित करती थी। हमने सिर्फ़ यही काम किया – पैसे बचाए। धीरे-धीरे मैंने खातों के प्रबंधन का काम भी सीखा और समूह ने निर्विरोध रूप से मुझे इसका सचिव नियुक्त कर दिया। समूह का प्रत्येक सदस्य हर महीने मेरी तनख़्वाह के लिए 10 रुपए का योगदान भी देता है।
कुछ महीने बाद 2019 में मैंने महाराष्ट्र राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन (एमएसआरएलएम) में उद्योग सखी के पद पर होने वाली नियुक्ति के बारे में सुना। मैंने अपने सभी दस्तावेज जमा किए और इस पद के लिए अपना आवेदन दे दिया। मेरे पास काम करने का औपचारिक अनुभव नहीं था और मुझमें विश्वास की भी कमी थी लेकिन मैं लिखित और मौखिक दोनों परीक्षाओं में सफल रही। मेरे चुनाव के बाद मुझसे ज़िला मुख्यालय में प्रशिक्षण में शामिल होने के लिए कहा गया। इसी दौरान मेरे पति बहुत बीमार हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। प्रशिक्षण का सत्र उनकी मृत्यु के छह दिन बाद का था। अपना दुःख परे कर मैं प्रशिक्षण में शामिल हुई। इस फ़ैसले में मेरी सास ने मेरा साथ दिया और मैंने लोगों की ज़रा सी भी परवाह नहीं की। यदि मैंने इस अवसर का लाभ नहीं उठाया होता तो आज मेरा जीवन कुछ और होता।
इस प्रकार, मैंने जनवरी 2020 में अपने गांव के लिए उद्योग सखी के रूप में एमएसआरएलएम के साथ काम करना शुरू किया। मेरा पहला काम छोटी दुकानों, भोजनालयों और आटा मिलों जैसे गांव के छोटे उद्यमों का सर्वेक्षण करना था। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य यह समझना था कि इन उद्यमों को कौन और कैसे चला रहा है। यह मुख्य रूप से गांव की जरूरतों का विश्लेषण करने और महिलाओं को उद्यमिता में लाने में मदद करने के लिए किया गया था।
इसके बाद, मैंने 14 छोटे स्तर की और पिछड़ी महिला किसानों का एक समूह बनाया, जो व्यवसाय चलाने में रुचि रखती थीं। इन महिलाओं को कृषि आधारित उद्यम शुरू करने के लिए एमएसआरएलएम कार्यक्रम के तहत दो लाख रुपये का ऋण मिला। हमने तय किया कि हम सब्ज़ियां बेचेंगे और ख़रीद-बिक्री की प्रक्रियाओं के बारे में जानने के लिए किसानों के स्थानीय बाजार का दौरा करेंगे। आख़िरकार, हमने अपने गांव एवं आसपास के गांवों में जैविक खेती करने वाले किसानों के साथ सम्पर्क स्थापित किया। एमएसआरएलएम ने हमें सहयोग दिया और यवतमाल में एक किसान उत्पादक संगठन के साथ अनुबंध करने में हमारी मदद की। इस सहयोग एवं साथ से हमने कुछ ही दिनों में 35,500 रुपये की सब्जियों की बिक्री की। इससे हमें अपने उद्यम को विकसित करने के प्रयास जारी रखने के लिए प्रेरणा मिली। हमने अपने दम पर खेती करने का फैसला किया और ऋण की बाक़ी बची राशि का उपयोग सामुदायिक खेती के उद्देश्य से चार एकड़ जमीन को पट्टे पर लेने के लिए किया। 2022 में हमने जैविक खेती के तरीकों का उपयोग कर सोयाबीन उगाया; अब हम गांव के उन किसानों को बीज वितरित करने की योजना बना रहे हैं जो बाजार से संकर किस्मों के बीज खरीदने की बजाय जैविक खेती के तरीकों को अपनाने के इच्छुक हैं।
मैं महिलाओं के लिए स्थायी आजीविका के अवसर पैदा करना चाहती हूं ताकि उनके पास साल भर काम उपलब्ध रहे।
मैं कुनबी समुदाय से हूं और परंपरागत रूप से हमारी महिलाओं को अपने घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती है। लेकिन अब मेरे समुदाय की कई महिलाएं विभिन्न एसएचजी की सदस्य हैं और ग्राम सभाओं में सक्रियता से भाग लेती हैं। मैं उन्हें प्रोत्साहित करती हूं ताकि वे अपनी आजीविका के लिए उद्यम शुरू करें और आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर बन सकें। मैंने कम से कम चार से पांच महिलाओं को अपना व्यवसाय शुरू करने और चलाने में मदद की है। आज की तारीख़ में वे गांव के भीतर ही सेनेटरी पैड, साड़ी जैसी चीजें बेचती हैं। तभी मेरा ध्यान इस ओर गया कि कई महिलाओं के पास उनका अपना बैंक खाता नहीं है। इसलिए मैंने बैंक में खाता खुलवाने में उनकी मदद की ताकि वे अपनी बचत को बैंक में रख सकें।
हालांकि यह एक मुश्किल यात्रा थी लेकिन मैंने हार नहीं मानी और लगातार अपना काम करती रही। मैं चाहती हूं कि मुरली की महिलाएं आत्मनिर्भर बनें और गांव के विकास के लिए मिलकर काम करें। मैं महिलाओं के लिए स्थायी आजीविका के अवसर पैदा करना चाहती हूं ताकि उनके पास साल भर काम उपलब्ध रहे।
रात 9 बजे: अपने परिवार के साथ रात का खाना खाने के बाद मैं रसोई का काम निपटाती हूं। उसके बाद मैं उस दिन होने वाली मीटिंग में की गई बातचीत और मुद्दों के बारे में नोट तैयार करती हूं। सोने से पहले मुझे अगले दिन की योजना पर भी काम करना पड़ता है जिसमें मीटिंग के लिए लोगों को फ़ोन करके सूचना देने जैसे काम शामिल होते हैं। योजना बनाकर काम करने से मुझे एक ही समय कई सारे काम करने में सुविधा होती है और इससे बचा हुआ समय मैं अपने बच्चों के साथ गुज़ार पाती हूं। अब वे बड़े हो रहे हैं इसलिए मैं धीरे-धीरे उन्हें अपना काम खुद करने के लिए तैयार कर रही हूं। चूंकि वे दोनों ही लड़के हैं इसलिए गांव के कुछ लोग उन्हें आंगन की सफ़ाई करते हुए या सामान खरीदते देखकर हंसते हैं। मैं उन्हें ऐसे लोगों को नज़रअन्दाज़ करने और अपना काम करने की सलाह देती हूं। आत्मनिर्भर होना बहुत महत्वपूर्ण है और ये सब उस समय आपको खुद को साबित करने में मददगार साबित होता है जब आप उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाते हैं और अपने बूते जीना शुरू करते हैं। मैं उन्हें हर प्रकार की परिस्थिति के लिए तैयार करना चाहती हूं।
मेरे बहुत अच्छे दोस्तों का समूह है। ये मुरली के भीतर और बाहर दोनों ही जगह पर हैं। मेरे काम के कारण मैंने लोगों से अच्छे रिश्ते बनाए हैं। उनमें से कई लोगों ने आर्थिक से लेकर भावनात्मक तक, हर तरह से मेरी मदद की है। मेरी सास भी जितना हो सके मेरी मदद करती हैं।
जैसा कि खंजन रवानी को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं एक आदिवासी महिला हूं और बीते तीन सालों से महाराष्ट्र के भाम्रागढ़ तहसील में सरपंच के पद पर हूं। महज़ 23 साल की उम्र और महिला होने के चलते नक्सल प्रभावित क्षेत्र, गढ़चिरौली जिले के नौ गांवों की जिम्मेदारी मेरे काम को चुनौतीपूर्ण बनाती है। लेकिन जो बात इसे सार्थक बनाती है, वह यह है कि मुझे अपने माड़िया आदिवासियों के समुदाय से हमेशा प्यार और सम्मान ही मिलता रहा है।
मैं कोठी ग्राम पंचायत में बड़ी हुई। मैं खेल-कूद में रुचि रखती थी और लड़कों के साथ क्रिकेट, वॉलीबॉल और कबड्डी खेलती थी। मैं अक्सर लड़कों के एक बड़े समूह में शामिल अकेली लड़की हुआ करती थी। मैं एक ऐसी लड़की थी जो मोटरबाइक चलाती थी, मेरे बाल छोटे-छोटे थे, और पैंट-शर्ट पहनती थी। लेकिन फिर भी सभी ने मुझे मन से अपना लिया।
मेरे पिता तहसील स्तर के शिक्षक हैं और मां आंगनवाड़ी में पढ़ाती हैं। इसलिए आसपास के क्षेत्रों के लोग कागजी कार्रवाई में मदद के लिए हमारे पास आते हैं। इस इलाक़े में साक्षरता का दर बहुत नहीं है और न ही ज्यादातर लोग अधिकारिक दस्तावेजों से जुड़े काम ही कर पाते हैं। चंद्रपुर के शिवाजी माध्यमिक आश्रम स्कूल में कक्षा 12 तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैंने भी पासबुक अपडेट करना, पैसा जमा करना और निकालना, जाति प्रमाण पत्र के लिए फॉर्म भरना, जमीन के दस्तावेज आदि से जुड़े काग़जी कामों में लोगों की मदद करनी शुरू कर दी।
हमें हमारी ज़रूरतों के लिए लड़ने वाला भी एक आदमी चाहिए था।
कोठी ग्राम पंचायत में 2003 से कोई सरपंच नहीं था। इससे लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ता था। सरकारी प्रशासनिक अधिकारियों ने गांव की परियोजनाओं का प्रभार अपने हाथों में ले लिया लेकिन शौचालय, स्कूल और सड़कें या तो केवल कागजों पर मौजूद थीं या फिर उनकी हालत बहुत ख़राब थी। भ्रष्ट अधिकारी मौलिक सुविधाओं को लेकर भी हमारे साथ धोखा करते थे। हमारी तहसील 25 किलोमीटर दूर थी। घंटों यात्रा करने के बाद जब हम अपनी जाति, नागरिकता या ज़मीन के काग़ज़ों के साथ वहां पहुंचते तब हमें अगले दिन आने का कहकर लौटा दिया जाता था। हमें इस तरह के कामों के लिए एक सरपंच की सख़्त जरूरत थी जो हमारे और इन अधिकारियों के बीच की कड़ी के रूप में काम कर सके।
हमें हमारी ज़रूरतों के लिए लड़ने वाला भी एक आदमी चाहिए था। अक्सर हमारे साथ दुर्व्यवहार किया जाता था। अधिकारी हमारे कपड़ों, हमारे खाने-पीने, हमारी जीवनशैली पर टिप्पणियां करते थे और हम सब को नक्सली कहा जाता था। हमारे समुदाय के पुरुषों को नक्सली मुद्दों से जोड़कर अक्सर ही पुलिस परेशान करती थी। जब ज़मीन हमारी है तो फिर हमारे ही घर में हमारे साथ इतना बुरा बर्ताव क्यों किया जाता है?
इसलिए 2019 में मैंने अपने समुदाय की उम्मीदों के लिए अपने सपनों को एक तरफ कर दिया। मुझे कॉलेज गए मुश्किल से छः महीने ही हुए थे। मैं जब शारीरिक शिक्षा (फ़िज़िकल एजुकेशन) विषय में बीए की पढ़ाई कर रही थी तब मुझे ग्राम सभा में निर्विरोध रूप से गांव का सरपंच चुन लिया गया। मैंने कुश्ती में प्रशिक्षण लिया था, मैं वॉलीबॉल खिलाड़ी थी और मेरा सपना एक स्पोर्ट टीचर बनना था। हालांकि सरपंच बनकर मुझे मानसिक रूप से तैयार होने में कुछ समय लगा लेकिन फिर मैंने दोबारा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। जिस दिन मैंने सरपंच के पद के लिए एक स्वतंत्र और अकेली उम्मीदवार के रूप में अपना आवेदन दिया था, वह दिन मेरे जीवन का सबसे यादगार दिन है। मैं नौ गांवों के लोगों से घिरी हुई थी, कई पुरुषों के बीच एक अकेली महिला। मैं अपना लगभग सारा समय 2,298 आबादी वाले इन गांवों के लोगों से मिलने में बिताती हूं।
सुबह 6.00 बजे: कभी-कभी ऐसा होता है कि मेरे सोकर जागने से पहले ही लोग मेरे घर के बाहर इंतज़ार कर रहे होते हैं। उन्हें जन्म प्रमाणपत्र, मृत्यु पंजीकरण, ज़मीनी दस्तावेज आदि काग़जी कामों में मदद चाहिए होती है। लोगों को तालुक़ा दफ़्तर भेजने के बजाय मैं तकनीकियों से जुड़े मामले में उनकी मदद कर देती हूं। फिर तालुक़ा दफ़्तर में फ़ोन करती हूं और ऑनलाइन ऑपरेटरों से बातचीत कर लेती हूं या फिर चपरासी के हाथों काग़ज़ों को वहां भिजवा देती हूं। लोग उन मुद्दों पर जानकारी देने भी आते हैं जिसपर मुझे काम करने या ध्यान देने की ज़रूरत है। आमतौर पर सरपंच की सामाजिक प्रतिष्ठा बहुत अधिक होती है और लोग उसका आनंद भी उठाते हैं लेकिन मैं अतिरिक्त तामझाम में विश्वास नहीं रखती और सब के साथ ज़मीन पर ही बैठती हूं।
सुबह 8.00 बजे: आगंतुकों से मिलने और अपने माता-पिता के लिए नाश्ता तैयार करने के बाद मैं अपनी बुलेट (मोटरसाइकल) पर गांव के दौरे पर निकलती हूं। नौ में से तीन गांवों में जाने के लिए मुझे नाव की सवारी करनी पड़ती है। बरसात के दिनों में इन तीनों गांवों तक पहुंचना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन मैंने तय किया है कि हर दिन कम से कम एक या दो गांवों का दौरा ज़रूर करूं। कनेक्टिविटी और नेटवर्क यहां की सबसे बड़ी चुनौतियां हैं और सभी मुद्दों की जानकारी रखने के लिए लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिलना ही सबसे कारग़र तरीका है। मेरे गांव से प्रत्येक गांव की दूरी पांच से आठ किलोमीटर है। केवल मेरे गांव में सड़के हैं लेकिन वे भी टूटी हुई हैं।
काग़ज़ी कामों में मदद करने के अतिरिक्त मैं गोतुल (एक युवा छात्रावास और आमतौर पर सभाओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जगह) पर ही बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और शौचालय आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करती हूं। मैं हमारे लिए लाभकारी साबित होने वाली सरकारी योजनाओं से जुड़ी जानकारियां साझा करती हूं। मैं सेनेटरी पैड वितरण और मासिक धर्म से जुड़े अंधविश्वासों और शर्मिंदगी के भाव पर बातचीत भी करती हूं।
हमारे नौ में पांच गांवों में बिजली के खंभे होने के बावजूद बिजली नहीं है। जब तक कि इन गांवों के लोग मीटर लगाने के लिए तैयार नहीं हो जाते तब तक सरकार हमें बिजली मुहैया नहीं करवाएगी। वहीं, गांव के लोग इस बात को लेकर आशंकित हैं। क्योंकि उन्होंने ऐसे गांवों के बारे में भी सुना है जहां बिजली नहीं होने के बावजूद भी वहां के लोगों से केवल मीटर लगाने भर के लिए शुल्क लिया जाता है।
जहां शिक्षक हैं, वहां संसाधन नहीं हैं, और शिक्षण विधियां अप्रभावी हैं।
शिक्षा भी एक बड़ी चुनौती है। मेरे नौ गांवों में से केवल चार गांवों में ही स्कूल हैं और उनमें से तीन स्कूल केवल कक्षा 4 तक के ही विद्यार्थियों का नामांकन करते हैं। एक आश्रम (आवासीय स्कूल) है जो 10वीं तक की पढ़ाई करवाता है। कुछ स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं। जहां शिक्षक हैं, वहां संसाधन नहीं हैं। चंद्रपुर में एक और आश्रम स्कूल है जो 12वीं तक के छात्रों को पढ़ाता है। मैं अपने गांवों के सभी बच्चों का नामांकन उस स्कूल में करवाने की कोशिश करती हूं। हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को जहां बनाए रखना चाहते हैं। दूसरी तरफ, बग़ैर शिक्षा के हम न संविधान द्वारा मिलने वाले अधिकारों के बारे में जान सकते हैं न ही उनके लिए लड़ सकते हैं।
दोपहर 1.00 बजे: आमतौर पर दोपहर के भोजन के समय मैं कसी न किसी गांव में होती हूं जहां लोग मुझे जोर देकर अपने घरों में खाने के लिए कहते हैं। इस तरह हम ज़्यादा देर तक काम कर सकते हैं। हालांकि मेरा दिन बहुत ही अप्रत्याशित होता है। मैं महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान की जाने वाली साफ़-सफ़ाई से जुड़ा कोई वीडियो दिखा रही होती हूं कि तभी मुझे अचानक किसी मरीज़ को अपनी मोटरसाइकल पर कई किलोमीटर दूर अस्पताल लेकर जाना पड़ जाता है। स्वास्थ्य से जुड़ी आपदाओं के समय नेटवर्क समस्या के कारण हम एम्बुलेंस से सम्पर्क नहीं कर सकते हैं। अगर हम उनसे सम्पर्क कर भी लें तो एम्बुलेंस को आने में कई घंटे लगते हैं।
हमारी साथ हुई एक त्रासद घटना हमेशा मेरे दिमाग़ में घूमती रहती है। एक छः साल का बच्चा बाहर खेल रहा था कि तभी उसकी नाक से खून आने लगा। हम उसे स्वास्थ्य उपकेंद्र पर लेकर गए लेकिन सांस लेने में उसकी मदद देने वाली सक्शन मशीन उनके पास नहीं थी। हमने एम्बुलेंस के लिए सम्पर्क किया लेकिन उन्होंने बताया कि हमारे गांव तक पहुंचने में कई घंटे लगेंगे। इसलिए मैंने अपनी मोटरसाइकल से उस बच्चे को नज़दीकी अस्पताल तक पहुंचाया। मेरा दिल उस समय बिल्कुल टूट गया था जब अस्पताल के इमर्जेंसी वार्ड में पहुंचने से पहले, रास्ते में ही उस बच्चे की मौत हो गई।
एक और ऐसी ही घटना घटी जब मेरे कुछ दोस्त जन्मदिन मनाने के लिए मेरे घर पर इकट्ठा हुए थे। हमने अभी जन्मदिन मनाना शुरू भी नहीं किया था कि तभी मेरी एक दोस्त जो नर्स है, उसको बच्चे के जन्म की जटिलता से जुड़ा एक फोन आया। उस गांव में जाने के बाद हमें मालूम हुआ कि गर्भवती महिला संकट में थी और मुश्किल से जाग रही थी। बच्चा अटक गया था लेकिन हमारे पास उसकी मदद के लिए किसी तरह की मशीन नहीं थी। मैंने उस बच्चे को बाहर निकालने के लिए दस्तानों का इस्तेमाल किया। लेकिन फिर बच्चा सांस नहीं ले पा रहा था। हम इतने परेशान हो गए थे कि मुझे अपना रोना याद है। इसके पहले मैंने प्राथमिक उपचार का कोर्स किया था और इसलिए मैंने मुंह-से-मुंह सांस देने की कोशिश की, और वह काम कर गया। कुछ ही घंटों में मौत की आशंका का दुःख जन्म की ख़ुशी में बदल गया।
मैं अपने अधिकारों और अधिकारियों द्वारा पालन किए जाने वाले नियमों के बारे में स्पष्ट रूप से बोलने पर जोर देती हूँ।
एक और असाधारण दिन जो मुझे याद है जब हमने एक रैली में पुलिस के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया था। फिल्म ‘जय भीम’ में सटीक रूप से दर्शाया गया है कि कैसे पुलिस नक्सलवाद से लड़ने की आड़ में आदिवासी पुरुषों को निशाना बनाती है। जब हमारे समुदाय के पुरुष भोजन या जलाऊ लकड़ी के लिए जंगलों में जाते हैं तब अधिकारी उन्हें पकड़ लेते हैं और उन्हें कुछ वर्दी पहनने के लिए मजबूर करते हैं। इसके बाद वे उन्हें दौड़ाते हैं ताकि मुठभेड़ में हुई मौत दिखा सकें। सरकारी योजनाओं को शुरू करने/उनका लाभ उठाने के बहाने मासूम आदिवासियों को फोटो सेशन में बुलाया जाता है और फिर उन तस्वीरों को इस्तेमाल कर उन्हें फंसाया जाता है। यह उत्पीडऩ अब भी जारी है। मैं पुलिस वालों से नहीं डरती। मैं अपने अधिकारों और अधिकारियों द्वारा पालन किए जाने वाले नियमों के बारे में स्पष्ट रूप से बोलने पर जोर देती हूं। वास्तव में, अपनी बात मनवाने के लिए मैंने एक टैटू बनवाया है जिसमें लिखा है ‘कॉमरेड’। आखिरकार, यह शब्द किसी ऐसे व्यक्ति के लिए है जो दूसरों के लिए काम करता है। जिसका मतलब है, एक दोस्त। फिर इस शब्द का इतना अपमान क्यों किया जाता है? यहां के पुरुष तो फुसफुसाकर भी इस शब्द को बोलने से डरते हैं।
ऐसे दिन जब कोई जरूरी काम नहीं होता उस दिन मैं ग्राम पंचायत कार्यालय में दस्तावेजों पर काम करती हूं।
शाम 6.00 बजे: मैं अक्सर इसी समय पर अपने घर वापस लौटती हूं। हालांकि लौटने में देरी होने पर भी मेरे माता-पिता चिंतित नहीं होते हैं। अब उन्होंने फ़ोन करके मुझसे पूछना बंद कर दिया है क्योंकि अब उन्हें इस बात का भरोसा हो चुका है कि कैसी भी परिस्थिति हो मैं सब सम्भाल लूंगी। शाम को घर लौटने पर अक्सर कोई न कोई मेरा इंतज़ार कर रहा होता है। उनसे मिलने के बाद मैं अपने माता-पिता के साथ जल्दी रात का खाना खा लेती हूं। खाने के बाद मैं दूसरी मीटिंग और चर्चाओं के लिए निकल जाती हूं।
मेरा जीवन थकाने वाला लग सकता है और मुझे एक समय में कई काम करने पड़ते हैं। मैं अपने माता-पिता का ध्यान भी रखती हूं। मैं थक जाती हूं लेकिन अपने समुदाय के लोगों के लिए कुछ करना संतोषजनक होता है। इन सबका संतुलन बनाए रखने के चक्कर में मेरी शिक्षा प्रभावित हो रही है। कुश्ती और वॉलीबॉल का अभ्यास भी अब पीछे छूट गया है। मैंने किसी तरह अपनी बीए की पढ़ाई पूरी की है और एमए की डिग्री के लिए नामांकन करवा लिया है। मैंने अपने प्रधानाध्यापक से विशेष अनुमति ली है ताकि मैं घर से ही पढ़ाई कर सकूं और केवल प्रैक्टिकल के लिए ही वीसापुर स्थित अपने कॉलेज, राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षण महाविद्यालय जाऊं। पिछले साल, मैं आदिवासी नेतृत्व कार्यक्रम में भी शामिल हुई थी जहां मैंने अन्य आदिवासी नेताओं के अनुभव से बहुत कुछ सीखा।
रात 1.00 बजे: हां, मुझे सोने में देर होती है और मैं पर्याप्त नींद भी नहीं लेती हूं। एक व्यस्त दिन के बाद रात में मुझे फ़िल्में देखना पसंद है। मुझे दक्षिण भारतीय फ़िल्में देखने में मज़ा आता है जिसमें मैं स्थानीय नेताओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथकंडे देखती हूं और उनसे सीखती हूं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मेरा नाम नेत्रा है और मैं 19 साल की हूं। मैं एक फ़ुटबॉल खिलाड़ी और कोच हूं। मैं अपना ज़्यादातर समय अपने समुदाय के किशोर लड़कों और लड़कियों के प्रशिक्षण में लगाती हूं। ऐसा करते हुए मैं उनसे लैंगिक मानदंडों और स्टीरियोटाइप्स के बारे में बातचीत करती हूं। इस बातचीत के लिए मैं खेल को माध्यम बनाती हूं।
मैं मुंबई में अपनी बहनों और मां के साथ रहती हूं। कुछ समय पहले तक हम पास में ही, अपनी नानी के घर में मामा और उनके परिवार के साथ रह रहे थे। एक संयुक्त परिवार में बड़े होने के कारण, मैंने कई तरह की पाबंदियों और चुनौतियों का सामना किया है।
फ़ुटबॉल से मेरा परिचय 15 साल की उम्र में हुआ था। उस समय मेरी सबसे अच्छी दोस्त ऑस्कर फाउंडेशन की ओर से खेलती थी। ऑस्कर फाउंडेशन एक समाजसेवी संस्था है जो कम आय-वर्ग वाले समुदायों के बच्चों में, जीवन के लिए जरूरी कौशल विकसित करने के लिए खेलों का उपयोग करती है। मेरी दोस्त ने स्कूल ख़त्म होने के बाद ओवल मैदान में, हमारे कुछ अन्य दोस्तों के साथ मुझे भी खेल से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। शुरुआत में मेरे अंदर थोड़ी झिझक थी क्योंकि इससे पहले मैंने कभी कोई खेल नहीं खेला था। लेकिन पहले ही गेम में मुझे बहुत मज़ा आया और मैंने वहां जाना शुरू कर दिया।
जल्द ही मैं ऑस्कर फाउंडेशन के कार्यक्रम में शामिल हो गई और नियमित रूप से प्रैक्टिस के लिए जाने लगी। रोजाना दोपहर साढ़े तीन बजे से प्रैक्टिस शुरू हो जाती थी। इसलिए मैं स्कूल खत्म होने के बाद सीधे मैदान पर जाती थी। मैं अपने साथ एक जोड़ी कपड़े और अपनी पूरी फुटबॉल किट ले जाती थी।
शुरूआत में मैंने स्कूल ख़त्म होने के बाद फ़ुटबॉल खेलने के बारे में अपने घर वालों को बताया ही नहीं था। जब मैंने पहली बार उन्हें इस बारे में बताया तो उनकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि मुझे खेलते समय शॉर्ट्स (छोटी पैंट) पहनने होंगे। उन्होंने तब और विरोध किया जब उनको पता चला कि मैं अक्सर लड़कों के साथ फ़ुटबॉल खेलती हूं।
इन सब के बावजूद, मैंने प्रैक्टिस में जाना जारी रखा। मैदान में जाना मेरे लिए किसी थैरेपी की तरह था। खेलते समय मैं अपने घर के हालात भूल जाती थी। समय के साथ यह सीखने के एक बेहतरीन अनुभव में बदल गया। जब मुझे फाउंडेशन के लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए चुना गया तो यह सचमुच मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। प्रशिक्षण से पहले मैं यह नहीं जानती थी कि घर के काम करने के अलावा मेरा भविष्य क्या हो सकता है। खैर, इस कार्यक्रम की मदद से मैंने कई और कौशल विकसित किए। इन कौशलों ने मुझे अपनी इच्छाओं और उद्देश्यों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया।
सुबह 6.00 बजे: सुबह का समय मेरे लिए हमेशा भागदौड़ वाला होता है क्योंकि मुझे कॉलेज पहुंचना होता है। मैं जल्दी से तैयार होती हूं और नाश्ते के लिए रसोई की तरफ़ भागती हूं। मेरी मां हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ बनाकर तैयार रखती हैं। मैं कुछ अंडे और ब्रेड लेकर जल्दी से, अपने सुबह के लेक्चर के लिए कॉलेज निकल जाती हूं।
सुबह 10.00 बजे: कॉलेज में सभी क्लासेज ख़त्म होने के बाद मुझे ऑस्कर फ़ाउंडेशन के दफ़्तर पहुंचना होता है। चूंकि दफ़्तर कॉलेज के पास ही है इसलिए मैं पैदल ही वहां चली जाती हूं। वहां पहुंचने के बाद मैं सबसे पहले उन बच्चों की फ़ाइल देखती हूं जिन्हें मैं प्रशिक्षण दे रही हूं। एक फुटबॉल कोच के रूप में, मुझे सावधानीपूर्वक प्रत्येक बच्चे की प्रोग्रेस को रिकॉर्ड करना होता है। उनकी प्रोग्रेस पर नज़र रखने के लिए इस रिकॉर्ड को हम अपने सर्वर पर अपलोड करते हैं।
दोपहर 12.00 बजे: ऑफिस में अपना बाक़ी समय उन कुछ प्रोजेक्ट्स के अगले चरणों के बारे में सोचने और उसकी योजना बनाने में लगाती हूं जिनकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। लर्निंग कम्यूनिटी इनिशिएटिव इसी तरह का एक प्रोजेक्ट है जिस पर मैंने साल 2021–22 में एमपावर नाम के एक संगठन के साथ मिलकर काम किया था। यह संगठन पिछड़े समुदायों के युवाओं को सशक्त बनाने के लिए, काम कर रही अन्य ज़मीनी स्तर की संस्थाओं और संगठनों की मदद करता है। मैं एमपावर से पहली बार कोविड-19 के दौरान सम्पर्क में आई थी। मैंने उनके ‘इन हर वॉईस’ नाम के एक शोध अध्ययन में हिस्सा लिया था। इस अध्ययन का हिस्सा होने के नाते मैंने भारत भर से आई 24 लीडरों, जिनमें सभी लड़कियां ही थीं, के साथ अपने आसपास की लड़कियों का इंटरव्यू किया था। इस इंटरव्यू का उद्देश्य यह जानना था कि महामारी ने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया था।
उसके बाद मैं मेंटॉर के रूप में उस संगठन के लर्निंग कम्यूनिटी प्रोजेक्ट से जुड़ गई। मैंने अपने हालिया बैच की 10 लड़कियों की मेंटॉरिंग की है। हम लोगों ने मिलकर अपने समुदायों में फ़ुटबॉल की पोशाक और फ़ुटबॉल खेलते समय लड़कियों के शॉर्ट्स पहनने की आवश्यकता को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए कई कार्यक्रम भी किए। हमने इस साल की शुरुआत में अपना यह प्रोजेक्ट पूरा कर लिया लेकिन मैं नहीं चाहती हूं कि जिन लड़कियों के साथ मैंने काम किया, वे इस मोड़ पर अपनी पढ़ाई या प्रशिक्षण बंद कर दें। इसलिए, मैं इस समय अन्य परियोजनाओं को डिजाइन करने पर विचार कर रही हूं जिसमें उन्हें व्यस्त रखा जा सके और शामिल किया जा सके।
दोपहर 2.00 बजे: जल्दी से दोपहर का खाना ख़त्म करके मैं छात्रों के साथ फुटबॉल कोचिंग सेशन के लिए मैदान में चली जाती हूं। मुझे फ़ुटबॉल कोच के रूप में काम करना बहुत पसंद है। और मुझमें एक कोच बनने का आत्मविश्वास मेरी इस यात्रा के दौरान मिलने वाले बेहतरीन कोचों के कारण ही पैदा हुआ। ख़ासकर, मेरे पहले कोच राजेश सर ने मेरा हौसला बहुत बढ़ाया। वे पहले व्यक्ति थे जिन्हें विश्वास था कि मुझमें और आगे जाने की क्षमता है। एक साल तक मुझे प्रशिक्षित करने के बाद उन्होंने फ़ाउंडेशन के लीडरशिप कार्यक्रम में नामांकन के लिए मुझ पर जोर दिया। कार्यक्रम के दौरान मैंने पारस्परिक कौशल (इंटरपर्सनल स्किल) तथा समानुभूति के महत्व के बारे में जाना और दूसरों की बात को सुनना सीखा। प्रशिक्षण के बाद मेरे आत्मविश्वास का स्तर और बढ़ गया। मैंने अपने आसपास आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में सक्रियता से भाग लेना शुरू कर दिया। मेरे अंदर खेल में फ़ॉर्वर्ड पोजिशन पर खड़े होकर खेलने का विश्वास भी पैदा हुआ!
दोपहर 3.00 बजे: मुझे प्रैक्टिस की शुरुआत मज़ेदार, स्फूर्तिदायक खेलों से करना अच्छा लगता है। मैं इन्हें लैंगिक भूमिकाओं पर कुछ गतिविधियों के साथ मिलाने की कोशिश करती हूं जिन्हें मैंने फाउंडेशन के लैंगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेकर सीखा था। यह एक साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम था जिससे मुझे जेंडर नॉर्म्स की गहरी समझ हासिल करने में मदद मिली। इस कार्यक्रम के संचालकों ने हमें उन स्टीरियोटाइप के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया जिनका हम अपने जीवन में सामना करते हैं। मुझे याद है कि इस एक सत्र के दौरान उन्होंने कुछ अवधारणाओं को तोड़ने के लिए, फुटबॉल को उदाहरण की तरह इस्तेमाल किया था। उन्होंने हमें बताया कि कैसे फुटबॉल को आमतौर पर पुरुषों के खेल के रूप में जाना और समझा जाता है। जबकि वास्तव में फुटबॉल खेलने के लिए केवल एक पैर और एक गेंद की जरूरत होती है। फिर लिंग कहां से और कैसे आ जाता है? इस बात ने मुझे रुककर अपने जीवन के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। मुझे वह बातें भी याद आने लगीं कि कैसे इस खेल को आगे खेलने के लिए मुझे भी ऐसी ही बाधाओं का सामना करना पड़ा था।
इस लैंगिक कार्यक्रम ने मुझे अपने इलाके की लड़कियों के साथ काम शुरू करने के लिए प्रेरित किया था। मैंने प्रशिक्षण के लिए लगभग 38 लड़कियों की एक टीम बनाने का फ़ैसला किया। मैं घर-घर जाकर प्रत्येक अभिभावक से मिली और उन्हें इसके लिए तैयार किया। उस समय तक हासिल किए अनुभवों से मुझे इस काम में मदद मिली। 38 लड़कियों के इस टीम को तैयार करने में मुझे लगभग दो महीने का समय लगा था।
मैं अपने छात्रों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करती हूं कि वे मेरे सत्रों से सीखी गई बातों को अपने माता–पिता के साथ बांटें।
लड़कियों के साथ मेरे ट्रेनिंग सेशन के दौरान, वार्म-अप करते हुए मैं अक्सर उन्हें एक लड़के के रूप में और फिर एक लड़की के रूप में किसी ख़ास तरीक़े का व्यवहार करने के लिए कहती हूं। उदाहरण के लिए, मैं उन्हें लड़कों की तरह और फिर लड़कियों की तरह हंसने और चलने की नक़ल करने को कहती हूं। जब वे लड़कों की तरह चलने की नक़ल करती हैं तो आमतौर पर अपनी छाती फूला लेती हैं या तेज आवाज़ में हंसती हैं। लड़कियों की तरह नक़ल करने में उनका रवैया बिल्कुल विपरीत होता है। जब मैं उन्हें इस तरह के बर्ताव के चुनाव की प्रक्रिया के बारे में सोचने के लिए कहती हूं तो उन्हें इस बात का अहसास होता है कि उन्होंने इस तरह का व्यवहार अपने आसपास देखा है। इसी तरह जब मैं लड़कों के साथ कोई सेशन करती हूं तो मेरी कोशिश उन्हें यह सोचने पर मजबूर करना होता है कि फ़ुटबॉल या ऐसे ही किसी खेल को खेलने के लिए किन चीजों की ज़रूरत होती है और उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि लड़कियों में इन कौशलों की कमी होती है।
मैं अपने छात्रों को अपने माता-पिता के साथ मेरे सेशन्स में सीखी गई बातों को साझा करने के लिए भी प्रोत्साहित करती हूं। इन बातों के प्रति कुछ अभिभावकों का रवैया सकारात्मक नहीं होता है। लेकिन मैंने देखा है कि माएं आमतौर पर अधिक समझदार होती हैं।
शाम 6.30 बजे: मैं प्रैक्टिस ख़त्म करके घर के लिए निकल जाती हूं। हाथ-मुंह धोने के बाद मैं बैठकर थोड़ी सी पढ़ाई करती हूं। उसके बाद का समय परिवार के साथ रात का खाना खाने का होता है। खाते समय मैं अक्सर अपनी मां और बहनों के साथ अपने उस दिन के बारे में बातचीत करती हूं।
रात 9.30 बजे: रात में सोने जाने से पहले मैं अपनी डायरी लिखती हूं। इस काम से मुझे खूद को जानने में बहुत मदद मिलती है। लीडरशिप ट्रेनिंग के दौरान मुझे यह आदत लग गई। उन दिनों ही मैंने यह जाना कि किसी परिस्थिति में उलझने पर लिखने से मुझे उसके बारे में सोचने और उसका समाधान ढूंढने में मदद मिलती है। कभी-कभी मैं अपनी डायरी में फूल भी चिपका देती हूं। मुझे लगता है यह फूल मेरी भावनाओं को दर्शाता है।
आज मैं अपनी मेंटॉर सिमरन और मेरे बीच हुई बातचीत के बारे में लिख रही हूं। सिमरन भी लैंगिक प्रशिक्षण कार्यक्रम की मैनेजर हैं। उनसे बात करने से भविष्य में भी युवा लड़कियों और लड़कों के साथ काम करना जारी रखने और उन्हें लैंगिक भूमिकाओं की सीमाओं से बाहर निकलने में मदद करने का मेरा संकल्प मजबूत होता है।
मेरा सपना एक ऐसी दुनिया बनाने का है जहां लड़कियां और लड़के बराबरी के साथ खेल सकें। जहां लड़कियों को भी बिल्कुल वही मस्ती और आज़ादी अनुभव हो जो मैंने पहली बार फ़ुटबॉल खेलने पर महसूस की थी। पुरुषों को लगता है कि पुरुष होने के कारण उनमें बहुत ताक़त है लेकिन यह सच नहीं है। महिलाएं कड़ी मेहनत करती हैं- दरअसल वे घर में बिना किसी वेतन के काम करती हैं और फिर बाहर जाकर भी मेहनत करती हैं। मुझे लगता है कि यदि हम पुरुषों और लड़कों को ऐसी कुछ बातों को समझने में मदद करें तो हमारी बहुत सारी समस्याएं यूं ही सुलझ जाएंगी।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में रहने वाला एक शिक्षक और एक्टिविस्ट हूं। मैंने अपना नाम नेविश रखा है क्योंकि एक ग़ैर-बाइनरी व्यक्ति होने के नाते जन्म के समय मिलने वाले अपने नाम, जाति और लिंग से मैं संबंध स्थापित नहीं कर सका। नेविश शब्द में मेरे पसंदीदा रंग (नीला) के अक्षर के अलावा मेरे माता-पिता के नाम (विमला और शिव प्रकाश) के अक्षर भी हैं। मुझे सुनने में यह बहुत अच्छा लगा था और मैंने उत्सुकता में गूगल पर इसका अर्थ खोजने की कोशिश की कि वास्तव में इस शब्द का कोई मतलब है या नहीं। हालांकि मैं एक नास्तिक हूं लेकिन मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि हिब्रू भाषा में इस शब्द का अनुवाद ‘देवता की सांस’ होता है। तब से ही इस ‘नेविश’ शब्द ने मेरे अंदर जगह बना ली।
डेवलपमेंट सेक्टर ने बचपन से ही मुझे अपनी ओर आकर्षित किया है। अपने आसपास विभिन्न तरह के भेदभाव और असमानताओं को देखने और उनमें से कुछ का अनुभव हासिल करने के बाद मेरे भीतर सामाजिक बदलाव की प्रेरणा आई। इसलिए 2018 में मैंने एक कम्यूनिटी-केंद्रित संगठन वी इमब्रेस ट्रस्ट की स्थापना की। यह ट्रस्ट मानव अधिकारों, पशु अधिकारों और क्लाइमेट जस्टिस (जलवायु न्याय) के मुद्दों पर काम करता है। अपने क्लाइमेट जस्टिस वाले काम के हिस्से के रूप में हम लोग फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर के दायरे में काम करते हैं। यह एक वैश्विक पर्यावरण पहल है जो ग्रेटा थुनबर्ग द्वारा किए गए कामों से निकला है। गोरखपुर में मानव अधिकारों के विषय पर किया गया हमारा काम मुख्य रूप से शिक्षा के अधिकारों पर केंद्रित है।
हम लोग तीन से 12 साल के बच्चों के साथ मिलकर झुग्गियों में शिक्षा से जुड़े कार्यक्रम चलाते हैं। ये सभी निम्न आय वर्ग वाले परिवारों से आते हैं; उनमें से कुछ ने बीच में ही स्कूल जाना बंद कर दिया है और कुछ ने तो स्कूल में दाख़िला तक नहीं लिया है। हम उन्हें स्कूल जाने के लिए तैयार करते हैं। स्कूल के पाठ्यक्रमों को पढ़ाने के अलावा यह कार्यक्रम लिंग संवेदनशीलता पर ध्यान देता है और विविधता और समावेशन को बढ़ावा देता है।मेरे काम का मुख्य चरित्र लिंग संवेदनशीलता मेरे काम का मुख्य चरित्र है। मेरी सोच यह कहती है कि वी इमब्रेस कई अलग-अलग क्षेत्रों में इसलिए काम करती है ताकि वह यह स्पष्ट कर सके कि कैसे हाशिए पर जी रहे लोगों की पहचान एक दूसरे का प्रतिच्छेद कर सकती है। इन प्रयासों के अलावा, मैं जीवनयापन करने के लिए लीड इंडिया के साथ मिलकर सामाजिक क्षेत्र के साथियों के लिए नेतृत्व और माइंडफुलनेस वर्कशॉप का आयोजन करता हूं। इस काम से मिलने वाले पैसे से मेरा अपना खर्च निकल जाता है।
सुबह 7.00 बजे: मेरी सुबह विपश्यना/ध्यान से शुरू होती है। मैं इसे अपने दैनिक जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण मानता हूं और शिक्षा कार्यक्रम के तहत अपने साथ काम कर रहे बच्चों के जीवन में भी इसे शामिल करना चाहता हूं। मेरे माता-पिता का घर पास में ही है इसलिए सुबह के नाश्ते के बाद मैं उनसे मिलने चला जाता हूं। मुझे उनके साथ बिताया गया समय बहुत अच्छा लगता है। माता-पिता से मिलने के बाद मैं अपने घर वापस लौटता हूं और अपने ईमेल का जवाब देने से लेकर ऑनलाइन होने वाली मीटिंग और ऐसे ही अन्य काम निपटाता हूं।
अपने माता-पिता के साथ मेरा रिश्ता समय के साथ बेहतर हुआ है। मेरे किशोरावस्था में वे चाहते थे कि मैं ढंग से पढ़ाई करके एक सरकारी नौकरी कर लूं, शादी करुं और बच्चे पैदा करुं। लेकिन मुझे ऐसा भविष्य आकर्षित नहीं करता था। मैंने हमेशा उन चीजों पर सवाल किए जिन्हें मेरे परिवार ने हल्के में लिया। एक बार मैंने अपनी माँ की ऐसी तस्वीर देखी जिसमें उन्होंने सलवार क़मीज़ पहना था। मैंने उनसे पूछा कि वह शादी के बाद सिर्फ़ साड़ी ही क्यों पहनने लगीं जबकि मेरे पिता के कपड़ों में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं आया था। उनके पास मेरे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। बड़े मुझसे अकसर कहा करते थे कि बाल की खाल मत उखाड़ो (मतलब कि बहस मत करो)। मुझे मालूम नहीं था कि बाल की खाल क्या होता है।
मैं स्कूल के दिनों में बहुत अच्छा विद्यार्थी था और मैंने सिविल इंजीनियरिंग में गोरखपुर के इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉज़ी एंड मैनेजमेंट से बीए की पढ़ाई की है। उसके बाद मैंने स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग में एमए की पढ़ाई शुरू की लेकिन बीच में ही छोड़ दिया और अपना पूरा ध्यान सोशल इंजीनियरिंग पर लगा दिया।
2014 में बेहतर अवसर की तलाश में मैं दिल्ली आ गया। यह वह समय भी था जब मैं अपनी अलैंगिकता (असेक्सुअलिटी) और ग़ैर-बाइनेरी पहचान को समझने लगा था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ने के मेरे फ़ैसले से मेरा परिवार बहुत खुश नहीं था। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं एक इंजीनियर के रूप में किसी कन्स्ट्रक्शन साइट पर काम क्यों नहीं कर सकता हूं। मैंने करने की कोशिश भी थी लेकिन मुझे काम का माहौल बहुत ख़राब लगा। मैं उन जगहों पर अति पुरुषत्व को बर्दाश्त नहीं कर सकता था, जहां इंजीनियर साइट पर श्रमिकों को फटकार लगाते थे। मेरा चुनाव कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में भी हुआ था। लेकिन मैं उस समय संशय में आ गया जब एक साथी प्रोफ़ेसर ने मुझसे पूछा कि मैं ‘अजीब’ तरह से क्यों चलता हूं। मुझे इस बात का डर था कि कॉलेज के छात्र और ज़्यादा संकीर्ण दिमाग़ के होंगे और मेरा मज़ाक उड़ाएंगे। इसलिए मैंने उस पद पर काम न करने का फ़ैसला किया।
लगातार पूछताछ और आत्म-संदेह, मेरे दादाजी की अचानक मृत्यु और मुझ पर शादी करने और ‘सामान्य जीवन’ जीने के दबाव के कारण मैं गहरे अवसाद में पड़ गया। मैंने इस दौरान काउन्सलिंग ली और इससे मुझे अपनी लिंग पहचान की पुष्टि करने में मदद मिली। इससे मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैं अन्य हाशिए के व्यक्तियों के लिए सुरक्षित स्थान प्रदान करने में योगदान देना चाहता हूं।
सामाजिक कार्य को अधिक व्यावहारिक तरीके से करने की आशा के साथ मैं कुछ समलैंगिक, नारीवादी और नास्तिक समूहों में शामिल हो गया। इससे मुझे अंतर-राजनीति की मेरी समझ को विकसित करने में मदद मिली। दिल्ली में मैंने एक राह ट्रस्ट की सह-स्थापना की। इस संस्था के काम में निम्न आय वाले परिवारों के बच्चों को पढ़ाना और LGBTQIA+ वर्ग के लोगों के काउन्सलिंग का काम शामिल था। महामारी के दौरान लगाए गए लॉकडाउन के दिनों में मैंने उन बच्चों के साथ काम किया जो शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। दिल्ली में रहने के दौरान मैंने बहुत कुछ सीखा। लेकिन मुझे गोरखपुर वापस लौटना पड़ा।
2021 में मैं डिसोम का फ़ेलो बन गया। यह कार्यक्रम समाज के हाशिए के वर्गों के नेताओं के पोषण पर केंद्रित है। इस फ़ेलोशीप के अंतर्गत जब मैं नागालैंड गया था तब मुझे शांति कार्यकर्ता (पीस एक्टिविस्ट) निकेतु इरालू से मिलने का मौक़ा मिला। हमारी बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि “जो आपके रास्ते में है वही आपका रास्ता है”, और इन शब्दों ने वास्तव में मेरे अंदर जगह बना लिया।
मैंने महसूस किया कि लिंग संवेदीकरण, भेदभाव और बाल श्रम जैसे मुद्दों पर काम करने के लिए अपने घर वापस लौटने का महत्व मेरे लिए दिल्ली में रहने से कहीं ज़्यादा है। मैं जानता था कि गोरखपुर लौटना मेरे लिए चुनौतीपूर्ण होगा क्योंकि लोग मेरे लैंगिक अभिव्यक्ति के प्रति कहीं अधिक आलोचनात्मक होंगे। लेकिन मैं समझ चुका था कि इस क्षेत्र को तत्काल सुधार की ज़रूरत थी।
सुबह 10.00 AM: गोरखपुर में मैंने ऐसे कई लोगों के साथ काम किया जिनकी राजनीतिक विचारधारा मेरी विचारधारा से अलग थी। उदाहरण के लिए, पर्यावरण स्वच्छता और जागरूकता अभियान पर काम करते समय हमें पुलिस की अनुमति की ज़रूरत होती थी या हम लोग स्थानीय नेताओं से बात करना चाहते थे। ऐसा संभव था कि वे मेरी हर सोच से सहमत न हों। लेकिन एक बात जो मैंने महसूस की वह यह थी कि हम सब एक साफ़ और हरित शहर चाहते थे और कुछ चीजों पर सहमत हो सकते थे।
फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर के एक हिस्से के रूप में आज हम लोगों ने शहर के बागों और झील के किनारे जाकर प्लास्टिक चुनने का काम किया है। अपने शहर को साफ़ रखने में यह हमारा छोटा सा योगदान है। इन जगहों की सफ़ाई करते हुए देखकर लोग अक्सर इस काम में हमारा साथ देने लगे या गंदगी फैलाने के लिए माफ़ी मांगने लगे। लोग हमारे इस काम करने के पीछे की हमारी प्रेरणा के बारे में जानना चाहते थे और मुझसे इस बारे में पूछा करते थे। इस सवाल के जवाब में मैं हमेशा कहता था कि हम सिर्फ़ अपने शहर को हरा और साफ़ रखना चाहते हैं और इसके लिए जो भी कर सकते हैं वह करते हैं।
इन दिनों हम विभिन्न सरकारी और निजी स्कूलों से सम्पर्क कर रहे हैं और उनसे छात्रों को पर्यावरण शिक्षा देने और उन्हें इन आंदोलनों में शामिल करने के लिए कहते हैं।
शाम 4.00 बजे: झुग्गी शिक्षा कार्यक्रम के तहत होने वाली कक्षाएं आमतौर पर दोपहर में आयोजित की जाती हैं। मेरे छात्र उन 11 परिवारों से आते हैं जिनका काम उस इलाके में कूड़ा इकट्ठा करने का है। इसमें से ज़्यादातर बच्चे अपने परिवार में पढ़ाई लिखाई करने वाली पहली पीढ़ी के बच्चे हैं। हम उन्हें स्कूल जाने के लिए आवश्यक चीजों जैसी कि स्टेशनरी और किताबें मुहैया करवाने की कोशिश करते हैं।
इन बच्चों और किशोरों के साथ काम करने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि मैं समझता हूं कि वे कितने प्रभावशाली हैं। यदि हम वास्तव में अपनी भावी पीढ़ी को फलता-फूलता और किसी भी तरह के भेदभाव और हिंसा से दूर देखना चाहते हैं तो इसके लिए उन्हें कम उम्र में ही संवेदनशील बनाना बहुत महत्वपूर्ण है। हम अक्सर बच्चों की क्षमता को कमतर आंकते हैं। हम सोच लेते हैं कि बच्चों में तब तक किसी तरह का कौशल नहीं होता है जब तक कि वे औपचारिक शिक्षा नहीं हासिल कर लेते। लेकिन बच्चे अपने आसपास के लोगों को देखकर बातचीत करना, गाना, नाचना और यहां तक कि झूठ बोलना भी सीख लेते हैं।
जब हम बच्चों को पढ़ाते हैं तो हम ऐसी भाषा का भी परिचय देते हैं जो पाठ्यक्रम में लिंग मानदंडों को बदल देती है।
जब मैं बच्चों से बातचीत करता हूं तब वे अपनी जिज्ञासा के कारण मेरे ‘ग़ैर-पारम्परिक’ व्यक्तित्व और व्यवहार के बारे में पूछते हैं। वे मुझसे पूछते हैं “आपके टैटू का क्या मतलब है?” और “आपके बाल इतने लम्बे क्यों हैं?” इससे मुझे उनसे लिंग और मेरे ग़ैर-बायनरी व्यक्तित्व को लेकर अपनी सोच के बारे में बात करने का अवसर मिलता है। जब हम बच्चों को पढ़ाते हैं तो हम ऐसी भाषा का भी परिचय देते हैं जो पाठ्यक्रम में लिंग मानदंडों को बदल देती है। उदाहरण के लिए, हम स्कूल की किताबों में लिखे कुछ वाक्यों को बदल देते हैं जैसे कि “राम ऑफ़िस जाता है और सीता खाना बनाती हैं” को हम “राम खाना बनाता है और सीता ऑफ़िस जाती है” कर देते हैं। इस तरह के सामान्य बदलाव श्रम विभाजन के बारे में पारंपरिक धारणाओं को इन बच्चों के मन में खुद को स्थापित करने से रोकने में मदद करते हैं।
हालांकि किसी को ऐसा लग सकता है कि बच्चों का परिचय इन विचारों से करवाने से उनके माता-पिता से प्रतिकूल प्रतिक्रिया मिल सकती है लेकिन मेरा अनुभव यह नहीं कहता है। माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों का जीवन बेहतर हो, और वे जो हम बताते हैं उसे सुनने के लिए उत्सुक हैं। उनका मानना है कि हम उनके बच्चों की भलाई चाहते हैं।
यहां तक कि दिल्ली में मैं जिन बच्चों के साथ काम करता था उनका परिवार हमारे तौर-तरीक़ों को सहजता से स्वीकार कर लेते थे। वे क्लास में एक ट्रांसजेंडर शिक्षक द्वारा पढ़ाए जाने वाली हमारी बात से सहमत हो गए। इस तरह बच्चों को लिंग पहचान के विविध भावों के प्रति संवेदनशील बनाया गया। साथ ही बच्चे लिंग से जुड़े ऐसे सवाल करने लगे जो अन्यथा उनके लिए सामान्य नहीं था। मुझे याद है कि हमने बच्चों को लिंग से जुड़ी शिक्षा देने के लिए संगीत और डांस का प्रयोग भी किया था। जब लड़के गा या नाच रहे थे और किसी ‘स्त्री चाल’ या गाने पर नाचने से मना कर रहे थे तब मैंने उन्हें यह बताया था कि नृत्य की किसी चाल या गाने के बोल का कोई लिंग नहीं होता है। उन्हें ये अर्थ केवल यूं ही दे दिए जाते हैं।
शाम 6.00 बजे: मैंने हाल ही में गोरखपुर में विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम कर रहे समाजसेवी संस्थाओं, स्टार्ट-अप और वोलंटीयर और एक्टिविस्ट समूहों का संचालन करने वाले लोगों से बातचीत करनी शुरू की है। मैं ज़्यादातर उनसे इंस्टाग्राम पर सम्पर्क करता हूं और वी इमब्रेस के सोशल मीडिया चैनलों पर उनके काम के बारे में लोगों को बताता हूं। दरअसल इस काम के पीछे का विचार शहर के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारणों पर काम करने वाले संगठनों के एक समूह का निर्माण करना था। ऐसा करने से किसी ख़ास मुद्दे पर काम करने वाले लोग किसी क्षेत्र या शहर विशेष में कार्यरत समाजसेवी संस्था तक की यात्रा के बजाय अपने ही क्षेत्र में कार्यरत किसी संगठन से जुड़ सकेंगे।
रात 9.00 बजे: रात में सोने से पहले मैं निश्चित रूप से या तो टीवी पर कोई सीरीज़ देखता हूं या फिर कोई किताब पढ़ता हूं। पिछले दिनों में ‘फ़्रेंड्स’ आदि जैसे हल्के विषय वाले सीरीज़ ही देखना पसंद कर रहा था। जहां तक किताबें पढ़ने की बात है तो मैं आमतौर पर नारीवाद से जुड़ा साहित्य ही पढ़ता हूं। इन दिनों में निवेदिता मेनन की लिखी किताब ‘सीईंग लाइक ए फ़ेमिनिस्ट’ का नया संस्करण पढ़ रहा हूं। इसके अलावा मैं अम्बेडकर, गांधी और विनोबा भावे के कामों को भी पढ़ता हूं जिससे मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है। पढ़ने और कविताएं लिखने से मुझे बहुत राहत महसूस होता है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और परवीन शाकिर मेरे पसंदीदा शायर हैं। उनकी कविताओं और शेरों को पढ़ने से मुझे ख़ुशी मिलती है क्योंकि मुझे उर्दू भाषा बहुत अधिक पसंद है।
मेरे पास उर्दू भाषा का एक शब्दकोश है जिससे मैं उर्दू के नए शब्द सीखता रहता हूं। दिन के अंतिम पहर में मुझे अपने काम और लक्ष्यों के बारे में सोचने का मौक़ा मिलता है। मेरा ऐसा विश्वास है कि पाठ्यक्रमों में यदि हाशिए पर जी रहे लोगों के जीवन के ऐसे अनुभवों को शामिल किया जाए जिससे हमारी युवा पीढ़ी संवेदनशील बने तो आज से 20 साल बाद हमारा समाज बहुत अलग होगा। दूसरों को नीचा दिखाने के बजाय लोग एक दूसरे को ऊपर उठाने के लिए आतुर होंगे। मैं ऐसी ही दुनिया देखना चाहता हूं और मुझे विश्वास है कि ऐसी दुनिया बनाने के लिए समावेशी शिक्षा आवश्यक है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं लद्दाख के लेह ज़िले के फ़ेय गांव का निवासी हूं। यहां अपने गांव में मैं स्थाई पर्यटन (इकोटूरिज़्म) और उचित कचरा प्रबंधन को बढ़ावा देने का काम करता हूं। मेरे काम में हमारे पर्यावरण पर कचरे के हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए समुदाय के युवाओं के साथ जुड़ना शामिल है। इसके अलावा मैं पंचायत स्तर पर अपशिष्ट प्रबंधन के बारे में बातचीत की सुविधा और पर्यटकों को पारिस्थितिक पर्यटन के महत्व के बारे में शिक्षित करने का काम भी करता हूं। अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए मैं डिजिटल मीडिया, प्लेकार्ड और फ़िल्मों और मौखिक बातचीत जैसे माध्यमों का इस्तेमाल करता हूं।
पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को लेकर मेरी समझ उस समय विकसित हुई जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पीजीडीएवी कॉलेज में अर्थशास्त्र विषय में बीए कर रहा था। मैं 2019 में सरकारी छात्रवृत्ति पर दिल्ली गया था। एक तरह से देखा जाए तो यह सब कुछ एक संयोग ही था। मैंने 12वीं क्लास में अर्थशास्त्र इसलिए चुना था क्योंकि इस विषय में अंक लाना आसान था। अर्थशास्त्र में भविष्य को लेकर मेरा कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं था। छात्रवृति मिलने के बाद मैं शहर जाकर रहने लगा। मैं पहली बार लद्दाख से बाहर निकला था। मुझसे दिल्ली की गर्मी बर्दाश्त नहीं हुई। लद्दाख़ की तुलना में बहुत अधिक आबादी होने के कारण दिल्ली में ज़्यादा मात्रा में कचरा पैदा होता है। इतनी भारी संख्या में कचरा देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। मैं अपने कॉलेज के जियो क्रूसेडर नाम की एक इन्वायरॉन्मेंटल सोसायटी में शामिल हो गया। इस सोसायटी के सदस्यों के साथ मेरी बातचीत ने शहर की कचरे की समस्या के बारे में मेरी धारणा को व्यापक बनाया। दिल्ली के पास अपने पहाड़ थे, लेकिन ये सभी कचरे के पहाड़ थे।
दिल्ली से वापस लौटने के बाद मैंने अपने शहर के कचरे के परिदृश्य को नई नज़र से देखना शुरू कर दिया।
दिल्ली में बिताया गया समय बाद में लेह में मेरे काम में मददगार साबित हुआ। 2020 में कोविड-19 के प्रकोप के कारण कॉलेज बंद होने के बाद मैं अपने घर वापस लौट गया। और तब से अब तक मैं यहीं हूं। इस बीच मैं सिर्फ़ 2022 में अपनी परीक्षाओं में शामिल होने दिल्ली गया था। मैंने अपने शहर के कचरे के परिदृश्य को नई नज़र से देखना शुरू कर दिया और अपने शहर के कचरा प्रबंधन से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर समुदाय के लोगों के साथ मिलकर काम करने लगा। पहली समस्या थी पर्यावरण के बारे में सीमित जागरूकता और दूसरी थी सूखे-कचरे को अलग करने का मुद्दा।
सुबह 8 बजे: मैं सुबह उठने के बाद अपने परिवार के लोगों के साथ नाश्ता करता हूं। मेरे परिवार में मेरे अलावा माता-पिता, छोटा भाई और बहन हैं। माँ घर सम्भालने के अतिरिक्त गांव के स्वास्थ्य केंद्र में आशा कार्यकर्ता के रूप में भी काम करती हैं। पिताजी लोक निर्माण विभाग में सरकारी कर्मचारी हैं। वे मेरे काम और इस काम के प्रति मेरी रुचि से खुश हैं। मेरे भाई-बहन मुझसे छोटे हैं; मेरा भाई ग्यारहवी क्लास में है और बहन तीसरी क्लास में पढ़ती है।
सुबह का नाश्ता करने के बाद मैं काम पर निकल जाता हूं। मैंने हाल ही में पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था लिटिल ग्रीन वर्ल्ड में फ़ील्ड असिस्टेंट के रूप में काम करना शुरू किया है। यह युवाओं के साथ शिक्षक प्रशिक्षण और कार्यशालाओं के माध्यम से पर्यावरण के बारे में ज्ञान के प्रसार पर केंद्रित एक कन्सल्टेंसी है। लिटिल ग्रीन वर्ल्ड का दफ़्तर लेह के मुख्य इलाक़े में है। हमारा गांव शहर से थोडा दूर है इसलिए मुझे दफ़्तर तक जाने के लिए सवारी की ज़रूरत पड़ती है। जिस दिन कोई सवारी नहीं मिलती उस दिन मैं पैदल ही चला जाता हूँ। मुझे सुबह 10 दफतर पहुँचना होता है। यह मेरी पहली औपचारिक नौकरी है और मैं नौकरी वाले माहौल में फ़ील्ड वर्क के ज्ञान को लागू करना सीख रहा हूं। यहां हर काम को करने के लिए पहले से ही योजना और समय दोनों ही निश्चित होता है—हम स्कूल का दौरा करते हैं, बच्चों के साथ वर्कशॉप आयोजित करते हैं और बाद में उनसे इसके बारे में पूछताछ करते हैं। मैं पर्यावरण के विषय में और भी बहुत कुछ सीखना और जानना चाहता हूं और मुझे उम्मीद है मेरी यह नौकरी इस काम में मददगार साबित होगी।
दिल्ली प्रवास के दौरान मेरा काम और प्रशिक्षण दोनों ही पूरी तरह से अनौपचारिक था लेकिन वह एक शुरुआत थी। जागरूकता आने के साथ मैंने अपने निजी जीवन में छोटे-छोटे बदलाव लाना शुरू किया। मैं फल और सब्ज़ी ख़रीदने जाते समय अपने साथ हमेशा एक थैला लेकर जाता था वरना दुकानदार मुझे प्लास्टिक की थैलियों में सामान पकड़ा देते थे। मैं अपने आसपास के लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए कहता हूं। जब भी मेरे दोस्त अपने साथ थैला लाना भूल जाते वे मेरे सामने अपनी गलती मान लेते थे।मेरा अब भी यही मानना है कि बदलाव लाने के लिए छोटे-छोटे कदम उठाने पड़ते हैं। जब मैंने लेह के बच्चों के साथ काम शुरू किया था तब मैंने उन्हें बांस से बने टूथब्रश बांटे थे ताकि उनके पास अपनी इस रोज़मर्रा की ज़रूरत के लिए एक बायोडिग्रेडेबल विकल्प रहे। मैं चाहता था कि वे हर सुबह बांस से बने इस टूथब्रश को देखें और सोचें कि कैसे इसने एक हानिकारक वस्तु की जगह ली है। धीरे-धीरे यह विचार उनके रोज़मर्रा जीवन के अन्य कामों में भी शामिल हो जाता है।
शाम 5 बजे: आज काम के समय जब मैं बच्चों से बातचीत कर रहा था तभी मेरा ध्यान एक बात की ओर गया। मुझे यह एहसास हुआ कि किसी तरह के उपहार या इनाम वाले वर्कशॉप में बच्चे अधिक रुचि दिखाते हैं। घर लौटते समय मैं लगातार लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय (यूनाइटेड यूथ ग्रुप ऑफ़ फ़ेय) के लिए एक चित्रकारी प्रतियोगिता के आयोजन के बारे में सोच रहा था। इस ग्रुप को मैंने 5वीं–6ठी कक्षा के बच्चों के लिए शुरू किया था। घर पहुंचकर मैंने इस बारे में अपनी माँ से बात की और उन्हें भी मेरा विचार अच्छा लगा। इसलिए मैंने लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय के व्हाट्सएप ग्रुप में एक संदेश भेजा और बच्चों को इकट्ठा होने के लिए कहा।
यह एक बहुत ही बढ़िया सत्र था। बच्चों ने पृथ्वी की स्थिति दिखाने वाले चित्र बनाए। एक चित्र में एक तरफ़ साफ़ जल और हरियाली थी और दूसरी तरफ़ औद्योगिक कचरा और प्रदूषण। यह हमें दिखाता है कि क्या सम्भव है और पृथ्वी किस रूप में बदल रही है। मैं शाम को व्यस्त नहीं रहता हूं। अक्सर शाम के लिए मेरा कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता है। मुझे खेल-कूद पसंद है इसलिए किसी दिन मैं 11वीं–12वीं क्लास के छात्रों के साथ फूटबॉल खेलने चला जाता हूं। वहीं किसी दिन मैं बच्चों के साथ बैठकर वॉल-ई और फ़ाइंडिंग नीमो जैसी फ़िल्में देखता हूं। फ़िल्म देखने के बाद हम लोग अक्सर एक अनौपचारिक बातचीत भी करते हैं। उदाहरण के लिए फ़ाइंडिंग नीमो देखने के बाद हम लोगों ने समुद्री पर्यावरण और मछलियों को उनके वास से हटाने से उनपर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बातचीत की थी।
जब हम ने शुरूआत की थी तब बच्चे उतना ही जानते थे जितना कि मैं उनकी उम्र में जानता था।
लोथुन लोबथुक त्सोग्स्पा फ़ेय की शुरुआत 2020 का लॉकडाउन हटने के तुरंत बाद हुई थी और तब से ही यह बच्चों और मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। दिल्ली से वापस लौटने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि लेह में कचरे के रिसाइक्लिंग की उचित व्यवस्था और इंफ़्रास्ट्रक्चर का अभाव है। इसके बाद ही मैंने बच्चों को समूहों में जुटाना शुरू कर दिया क्योंकि मेरा मानना है कि बच्चे ही भविष्य हैं। उनके बग़ैर मैं कुछ भी नहीं कर सकता था। जब हम ने शुरूआत की थी तब बच्चे उतना ही जानते थे जितना कि मैं उनकी उम्र में जानता था। यूज-एंड-थ्रो पदार्थों के इस्तेमाल से होने वाली हानि और कचरे के उचित निपटान की ज़रूरत के बारे में ये बच्चे कुछ नहीं जानते थे। लेकिन अब ये सफ़ाई अभियान में हिस्सा ले रहे हैं!
सफ़ाई अभियान का पहला सत्र महामारी की पहली लहर के दौरान आयोजित किया गया जब बच्चे घर पर रहकर ऊब रहे थे। मैंने उनसे कहा “5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। क्या हमें उस दिन सफ़ाई अभियान आयोजित करना चाहिए?” उनका जवाब हां था। मां ने बच्चों के लिए दोपहर का खाना तैयार किया था। बच्चों ने कचरा सेग्रीगेशन में मदद की और यह पूरा आयोजन उनके लिए एक पिकनिक की तरह हो गया था।
इस दौरान मुझे यूट्यूब और इंस्टाग्राम पर देखी गई एक प्रक्रिया के इस्तेमाल का विचार आया। इसे बॉटल ब्रेक के नाम से जाना जाता है और इस प्रक्रिया में प्लास्टिक की बोतल में कचरा इकट्ठा कर उसे एक उपयोगी वस्तु में बदला जाता है, जैसे कि घर बनाने वाली ईंट। लेकिन स्थानीय लोगों विशेष रूप से बुजुर्गों को यह तरीक़ा पसंद नहीं आया। बच्चों की तुलना में उन्हें समझाना ज़्यादा मुश्किल था। अंतत: उन्हें समझाने के लिए मुझे माहौल को और अधिक स्पष्ट बनाना पड़ा। एक तरीका यह था कि उनसे पूछा जाए कि उन्हें क्यों लगता है कि लेह और लद्दाख अब पहले से ज्यादा गर्म हैं। हाल ही में कारगिल और जांस्कर इलाक़े में बाढ़ आई थी। इस तरह की प्राकृतिक आपदाएं नियमित होने लगी हैं इसलिए मैं इस विषय का इस्तेमाल उनसे बातचीत बढ़ाने के लिए करता हूं।
सफ़ाई अभियान की दूसरी पारी में कॉलेज और 11वीं–12वीं कक्षा के छात्रों को शामिल किया गया था। यह पहली बार था जब मैंने स्थानीय सरकार से इस काम के लिए सहायता मांगी थी। मेरी माँ आशा कार्यकर्ता हैं और स्थानी प्रशासन से उनके संबंध अच्छे हैं। इसलिए उन्हें मेरे इरादों पर किसी तरह का शक नहीं था और वे मेरी मदद के लिए तैयार हो गए। स्थानीय पंचायत की मदद से हमें प्लास्टिक सेग्रीगेशन के लिए फंड मिल गया। लेह में सेग्रीगेशन का केवल एक ही केंद्र है और यह मुख्य शहर में स्थित है। पंचायत और प्रशासन की मदद से मैं अपने ग्रुप को वहां लेकर गया। पंचायत और प्रशासन ने हमारे लिए गाड़ी का प्रबंध कर दिया था। हमने कचरा ले जाने के लिए केंद्र की अनुमति मांगी। उन्होंने हमें सेग्रीगेशन के तरीक़े के बारे में बताया और हम लोगों ने पीईटी बोतल, ख़तरनाक सामग्रियों और कार्डबोर्ड को अलग किया।हमने महसूस किया कि सेग्रीगेशन केंद्र की अपनी समस्याएं थीं। वहां हर ओर ढ़ेर सारे कुत्ते थे और वे वहां आकर कचरा जैसे सैनिटेरी पैड आदि चबाते थे। धीरे-धीरे इलाक़े के बच्चों ने इन मुद्दों में रुचि लेनी शुरू कर दी।
रात 9 बजे: मुझे खाना पकाना पसंद है और मैं इसमें अपनी माँ की मदद करता हूं। इस समय मैं उनसे अपने दिन भर की गतिविधियों के बारे में बातचीत भी करता हूं। आज हमलोग किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सहयोग की महत्ता पर बात कर रहे हैं। वह लोगों को इकट्ठा करने के बारे में बहुत कुछ जानती हैं। क्योंकि एक स्वास्थ्यकर्मी और आशा के लिए काम करने वाली एक स्वयं-सहायता समूह की सदस्य होने के नाते उन्हें यह करना पड़ता है। मैंने महामारी के दौरान उनकी व्यस्तता देखी थी। उन्हें घर-घर जाकर लोगों को टीके के बारे में समझाना पड़ता था और फिर टीकाकरण अभियानों का आयोजन करना पड़ता था।
खाना खाने के बाद रात 10–11 बजे तक मैं अपने बिस्तर पर आ जाता हूं। थके न होने की स्थिति में मैं अपने दिन और हमारे काम में युवाओं को शामिल करने के नए तरीक़ों के बारे में सोचता हूं। लेह में कई समस्याएं हैं, लेकिन परिवर्तन लाने की इच्छा की कमी उनमें से एक नहीं है। दिल्ली में मैं ज़िन बच्चों से मिला था उनकी रुचि सर्टिफिकेट पाने में थी ताकि बाद में वह इसे अपने सीवी में जोड़ सकें। उन्होंने स्वच्छता अभियान में हिस्सा लिया, तस्वीरें खिंचवाईं और उन्हें इंस्टाग्राम पर अपलोड कर दिया। इस काम से उनका जुड़ाव गहरा नहीं था। दूसरी तरफ़ यहाँ भाग लेना अनिवार्य नहीं है फिर भी बच्चे ख़ुशी से इसमें हिस्सा लेते हैं। प्लास्टिक बोतलों को अलग कर उनपर नंबर लिखने के बाद वे पूछते हैं “अब हम इसका क्या करेंगे?” उनके पास इन बोतलों को सेग्रीगेशन केंद्र तक पहुंचाने के लिए न तो किसी तरह का संसाधन है और न ही गाड़ी लेकिन एक बेहतर कल के निर्माण के प्रति उनकी रुचि और सोच ईमानदार है।
पूरी दुनिया के युवाओं ने पर्यावरण की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया है। वे व्यस्कों की तुलना में अधिक जागरूक हैं और और इस मुहिम का हिस्सा बनकर प्रभावशाली ढंग से काम करना चाहते हैं। ग्रेटा थुनबर्ग का ही उदाहरण लेते हैं। फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर नाम की उसकी पहल ने अब एक वैश्विक पर्यावरणीय आंदोलन का रूप ले लिया है। इस आंदोलन के योगदान से नीति में बदलाव हुआ और साथ ही युवाओं का जुड़ाव स्तर भी बेहतर हुआ है। ग्रेटा थुनबर्ग और लद्दाख की शैक्षणिक सुधारक सोनम वांगचुक मेरे आदर्श हैं।
अब गांव में एक जगह है जहां कचरा एकत्र किया जा सकता है और बाहरी इलाके में कचरे को अलग करने के लिए एक बड़ा गड्ढा है।
मैं ग्राम शासन में युवाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा हूं, ताकि युवा निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकें। पहले भी पंचायत युवाओं को ग्राम सभाओं में भाग लेने के लिए आमंत्रित करती थी, लेकिन वे नहीं आते हैं क्योंकि वे इन मंचों के महत्व को नहीं समझते हैं। यहां तक कि जिन दो ग्राम सभाओं में मैंने भाग लिया, उनमें भी मैं अकेला युवा था। मैं इसे बदलना चाहता हूं। मुझे खुशी है कि हमारी पंचायत नए विचारों के लिए तैयार है। अब गांव में एक जगह है जहां कचरा एकत्र किया जा सकता है और बाहरी इलाके में कचरे को अलग करने के लिए एक बड़ा गड्ढा है। मैंने हाल ही में सरपंच से अलगाव केंद्र के बारे में बात की थी। मुझे बताया गया है कि मेरा अनुरोध प्रशासन के सामने रखा गया है, और जब कोई निर्णय लिया जाएगा तो मुझे सूचित किया जाएगा।
हालांकि, लद्दाख के सामने बाहरी चुनौतियाँ भी हैं। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है और भारी संख्या में पर्यटक यहां नियमित रूप से आते हैं जिसका प्रभाव परिवेश पर पड़ता है। लोग यहां 10–15 दिनों के लिए आते हैं और हर जगह जाना चाहते हैं क्योंकि उनके पास पर्याप्त समय नहीं होता है। लेकिन उनकी गतिविधियों का पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है। मुझे लगता है कि पर्यटकों को यहां के स्थानीय लोगों से मिलना चाहिए और उनके साथ समय बिताना चाहिए। उनके साथ बातचीत करनी चाहिए और लद्दाख को समझने के लिए उनके जीवन के तरीके को देखना चाहिए। वे यहां के लोगों की जीवन शैली और संस्कृति के बारे में जानने के लिए होटलों के बजाय होमस्टे में रह सकते हैं। आखिरकार, इकोटूरिज़्म का उद्देश्य स्थानीय लोगों और प्राकृतिक पर्यावरण के साथ पर्यटकों की बातचीत को बढ़ावा देना है।
जागरूकता पैदा करने के लिए कभी-कभी मैं लेह के मुख्य बाजार में तख्तियां लेकर खड़ा हो जाता हूं जहां भारत के अन्य इलाक़ों और बाहर दोनों जगह से पर्यटक आते हैं। मुझे यह विचार न्यूयॉर्क के इंस्टाग्राम हैंडल @dudewithsign से मिला है। कुछ लोग मेरे पास आकर पूछते हैं कि मैं क्या कर रहा हूं। आमतौर पर वे एक फोटो खींचते हैं, “अच्छा, अच्छा” कहते हैं और चले जाते हैं। मुझे उम्मीद है कि उनमें से कुछ बाद में मेरे द्वारा दिए जाने वाले संदेश के बारे में सोचेंगे।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं राजस्थान के उदयपुर ज़िले में खेरवाड़ा में रहती हूं। मैं आजीविका ब्यूरो के साथ मिलकर महिलाओं के 12 उजाला समूहों का प्रबंधन कर रही हूं। हम लोग महिलाओं को सरकारी लाभ दिलवाने में उनकी मदद करने के साथ ही जागरूकता फैलाने और उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताने का काम भी करते हैं। प्रत्येक उजाला समूह की महिलाएं स्वयं यह तय करती हैं कि कौन सा मामला उनके लिए महत्वपूर्ण है। समूह की महिलाओं को उनके हक़ जैसे कि गरीब कल्याण योजना, पीडीएस और अन्य योजनाओं के बारे में बताना मेरे काम का विस्तृत और बड़ा हिस्सा है। मेरा ज़्यादातर काम घरेलू हिंसा के इर्दगिर्द घूमता है। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। मुझे घरेलू हिंसा के मामलों से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया गया है और मुझे खुद भी इसका अनुभव है। यहां, घरेलू हिंसा के ज़्यादातर मामलों में शराब शामिल होती है, विशेष रूप से जब हमारे गांव में लॉकडाउन था और बाहर से किसी भी तरह का पैसा नहीं आ रहा था। पुरुषों को संदेह होता रहता है कि उनकी पत्नियों के पास बचत के कुछ पैसे हैं। वे शराब पीने के लिए उन पैसों को उनसे लेना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें धमकाते हैं।
कानूनी कार्रवाई करने से पहले हम अपने स्तर पर ही पुरुषों को समझाने की कोशिश करते हैं। हम में से दो या तीन महिलाएं जाकर पुरुषों के साथ तर्क करने की कोशिश करती हैं। बहुत सारी महिलाएं अपने पतियों को माफ़ कर देती हैं। लेकिन यदि कोई पुरुष नियमित रूप से घरेलू हिंसा करता है और चेतावनी के बाद भी अपनी पत्नी को मारता-पीटता है तब हम ऐसी औरतों की हमारे साथ चलकर पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने में मदद करते हैं। मेरे प्रशिक्षण से मुझे इन मामलों को आगे लेकर जाने की ताक़त भी मिली है। मैं अधिकारियों से बात करती हूं और जरूरत पड़ने पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए दबाव बनाती हूं। मैं अपने गांव के लोगों को माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से ऋण लेने में मदद करती हूं और मैं एसएचजी की बुककीपर भी हूं। इन सभी कामों के लिए मुझे एक महीने में चार मीटिंग में शामिल होना पड़ता है।
लॉकडाउन शुरू होने के पहले मैंने सरकारी स्कूल में भी काम किया है। वहां मैं मिड-डे मील बनाने का काम करती थी। मैं तात्कालिकता के आधार पर अपने काम को प्राथमिकता देने की कोशिश करती हूं। अगर कोई बहुत ज़रूरी फ़ोन आ जाता है या किसी आपात की स्थिति में मुझे कोई महिला बुला लेती है तब मुझे अपने स्कूल का काम छोड़ तत्काल उस महिला की मदद के लिए जाना पड़ता है।मुझे व्यस्त रहना पसंद है। घर पर मैं ऊब जाती हूं! मुझे लोगों से बात करना उनके साथ घुलना-मिलना पसंद है। घर पर रहकर अपने पति के साथ बहस में उलझने के बजाय बाहर जाकर काम करना मुझे ज़्यादा पसंद है।
सुबह 6.00 बजे: सोकर जागने के बाद मैं हाथ-मुंह धोकर खाना पकाने का काम शुरू करती हूं। मेरे तीन बच्चे हैं – दो बेटे (12 और 11 साल) और एक बेटी है 5 साल की। मेरे सास-ससुर भी मेरे साथ ही रहते हैं। इस तरह से हम सात लोगों का परिवार एक घर में एक ही छत के नीचे रहता है। घर का काम पूरा हो जाने के बाद मैं आमतौर पर स्कूल के लिए निकल जाती हूं। वहां जाकर मैं खाना पकाने में हाथ बंटाती हूं। लॉकडाउन के कारण यह काम अभी बंद है। स्कूल की रसोई बंद है और स्कूल के बचे हुए राशन को हमने राशन की दुकान में दे दिया है। बचा हुआ चावल आंगनवाड़ी को दे दिया गया है जहां से छोटे बच्चों वाले परिवारों को अब भी थोडा-बहुत चावल मिल रहा है।
सुबह 9.00 बजे: मैंने उजाला समूह की कुछ महिलाओं से मिलने जाने की योजना बनाई है। लॉकडाउन के कारण हमारे समूह की होने वाली मीटिंग बंद हो गई है लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर बातचीत जारी है। मैं प्रत्येक घर में जाती हूं और महिलाओं से बात करके उनकी समस्याओं का पता लगाती हूं।
कुछ सप्ताह पहले हमें यह पता चला कि कुछ जरूरतमंद परिवारों को उनके हक़ की चीज़ें नहीं मिली हैं।
बहुत सारे परिवारों के पास राशन या पैसा दोनों ही नहीं था। मैंने महिलाओं को जन धन योजना के तहत उनके खाते में आने वाले पांच सौ रुपए के बारे में बताया। अधिकांश लोगों को इस योजना के बारे में ही कुछ नहीं मालूम था और वे मेरी बातों पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे – उन्हें यह बात पच ही नहीं रही थी कि उन्हें यूं ही पैसे भेजे जाएँगे – और कई लोग अपने खाते में आए उस पैसे को देखकर हैरान थे। अपने फ़ोन पर पैसे आने की सूचना मिलने के बावजूद भी लोगों को ऐसा लगता है कि किसी तरह की गलती हुई होगी और यह पैसा किसी और का है।
कुछ परिवार राज्य सरकार से मिलने वाले 1,000 रुपए और केंद्र सरकार से मिलने वाले 1,500 रुपए के लाभ के भी हकदार हैं। हालांकि कुछ लोगों को अब भी यह पैसा नहीं मिला है। कुछ सप्ताह पहले हमें यह पता चला कि कुछ जरूरतमंद परिवारों को उनके हक़ की चीज़ें नहीं मिली हैं। इसी समय में अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों के खातों में पैसे आ चुके थे। मैंने अपने फ़ोन में ही जन सूचना पोर्टल पर जाकर ऑनलाइन हक़दारों की सूची देखी। कुछ पंचायत सहायक, सरपंच, सरकारी शिक्षक, आशा कार्यकर्ताओं आदि के खातों में पैसे जमा हो चुके थे लेकिन जरूरतमंद परिवारों को कुछ भी नहीं मिला था। इस मामले की गहराई से जांच करने के लिए हम समूहों में ही एक सर्वेक्षण का आयोजन करने वाले हैं।
दोपहर 12.00 बजे: मैंने एक समूह की एक महिला से मुलाक़ात की। इससे पहले मैंने उसकी मदद इस बात का पता लगाने में की थी कि वह इन योजनाओं की हक़दार है या नहीं। अब उसने मुझे खुश होते हुए बताया कि उसे पैसे मिल चुके हैं। हमने लगभग 50 लोगों की मदद की है जिनके खाते में अब जन धन योजना के अंतर्गत पैसे आते हैं। हालांकि वास्तविकता यही है कि इन योजनाओं के तहत मिलने वाले पैसों का हाथ में आना बहुत ही मुश्किल है। बैंक यहां से 5 किमी दूर है और यातायात बंद होने के कारण सभी को पैदल चलकर वहां तक जाना पड़ता है।
कुछ लोगों को लगातार पांच दिनों तक बैंक जाना पड़ा और फिर भी उनके पैसे उन्हें नहीं मिले। एक दिन नामों की सूची बनाई गई। दूसरे दिन उन्हें टोकन देकर लाइन में खड़ा कर दिया गया। सोशल डिसटेंसिंग को बनाए रखने के लिए बैंक ने छोटे-छोटे गोले बना दिए थे जिनमें लोगों को खड़ा होना था। बारी नहीं आने पर उन्हें वापस लौटना पड़ता था और अगले दिन फिर आकर क़तार में खड़े होना पड़ता था। बारी आने के बावजूद भी बहुत सारे लोगों को केवायसी और आधार कार्ड लिंक सी जुड़ी समस्याओं से गुजरना पड़ता था। वरिष्ठ नागरिकों ने मुझे बताया कि कई-कई दिन पैदल चलकर बैंक तक जाना और पंक्ति में कड़े होना उनके लिए बहुत चुनौती भरा काम था।
शाम 3.00 बजे: मुझे एक महिला ने फ़ोन किया है जिसे अपने घर पर ही कुछ समस्या है। जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है मैंने घरेलू हिंसा से जुड़े लगभग 10-12 मामले निपटाए हैं। मैं उस महिला से मिलने उसके घर गई। चूंकि उसका पति घर पर ही है इसलिए मैं उससे चुपके से उसके घर के पीछे वाले हिस्से में जाकर मिली और उससे बात की। मैंने बिना किसी टोकाटाकी के चुपचाप उसकी बातें सुनीं। मैंने समूह की कुछ अन्य महिलाओं से इसकी स्थिति के बारे में बातचीत की और बाद में हमने उस महिला को समझाया और उसे उस मामले के क़ानूनी पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया। हमने उससे बिना डरे अपनी समस्याएं हमसे बताने के लिए कहा। हमसे उससे यह भी पूछा कि वह इस समस्या से कैसे निपटना चाहती है। हमारे काम को देखकर बहुत सारी महिलाएं हमसे जुड़ती हैं।
अक्सर महिलाओं को इस बात का डर सताता है कि यदि उनके पति जेल चले गए तो वे ज़िंदा नहीं बचेंगी। लेकिन धीरे-धीरे हमें इस बात का अहसास हो रहा है कि हम हमेशा के लिए किसी भी डर के साथ नहीं जी सकते हैं। और इसलिए हम अब अपनी आवाज़ उठा रहे हैं।
हम लोग जिस तरह का काम कर रहे हैं उसका विरोध स्वाभाविक है। बहुत सारे लोग मुझे शांति से काम नहीं करने देते हैं। कुछ पुरुषों ने मेरे पति को यह कहकर भड़काने की कोशिश की कि “तुम्हारी पत्नी दूसरे शादीशुदा जोड़ों के बीच समस्या खड़ी कर रही है।” कुछ ने तो मुझे धमकाया भी। एक बार मैं मनरेगा के आवेदनों का पता लगाने के लिए पंचायत के दफ़्तर गई थी। तभी एक पंचायत सेवक ने मेरे पति से जाकर यह कहा कि उसने मुझे किसी दूसरे पुरुष के साथ देखा था। वह आदमी झूठ बोल रहा था इसलिए मैंने अपने पति से कहा कि वह मुझ पर भरोसा करे और यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैं अपना काम बंद नहीं करुंगी।
मैं और मेरे पति ने बहुत कम उम्र में ही शादी करने का फ़ैसला कर लिया था लेकिन बाद में मारपीट शुरू हो गई। एक बार स्थिति इतनी ज़्यादा ख़राब हो गई कि मुझे बीच रात में जंगल के रास्ते होते हुए अपने माता-पिता के घर जाना पड़ा। उनका घर मेरे घर से 15 किमी दूर है। अपने परिवार के साथ मिलकर मैंने अपने पति के ख़िलाफ़ कुछ शिकायतें दर्ज करवाईं। मामला सुलझने के बाद मैं फिर से उसके साथ रहने लगी लेकिन कुछ दिनों बाद वही सब दोबारा होने लगा। इस बार अपने बच्चों के कारण मैंने अपने माता-पिता के घर जाने से मना कर दिया। मैं परिणाम का इंतज़ार करुंगी लेकिन समूहों की महिलाओं और मेरे सहकर्मियों ने इन सबसे निपटने में मेरी मदद की है।
मैं महिलाओं के दर्द, उनकी समस्याओं को साझा करती हूं और उन्हें सुलझाने में उनकी मदद करना चाहती हूं। इस गांव के कोने-कोने में महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं और जहां मैं इसे रोक पाती हूं वहां मुझे बहुत ख़ुशी होती है। अगर महिलाएं खुश रहती हैं तो पूरा परिवार खुश रहता है। हम मेहनत करते हैं, हम अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं, दिन भर मज़दूरी करते हैं और उसके बाद घर वापस लौटकर अपने घर की देखभाल करते हैं। इसके बावजूद भी हमें बुनियादी सम्मान नहीं मिलता है, लेकिन एक साथ मिलकर हम इससे लड़ रहे हैं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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‘वाटरमैन ऑफ़ इंडिया’ कहे जाने वाले राजेंद्र सिंह ने आईडीआर से हुई इस खास बातचीत में जलवायु परिवर्तन, जल संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण और ग्राम विकास पर विस्तार से बात की है। यहां उनसे जानिए कि कैसे सिर्फ पानी बचाकर गांव आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकते हैं।
राजेंद्र सिंह राजस्थान के अलवर ज़िले से संबंध रखने वाले एक जल-संरक्षणवादी और पर्यावरण के जानकार हैं। उन्हें साल 2001 में ‘रेमन मैगसेसे अवार्ड’ और साल 2015 में पानी का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले ‘स्टॉकहोम वाटर प्राइज़’ से सम्मानित किया गया था। वे तरुण भारत संघ (टीबीएस) के संस्थापक हैं। तरुण भारत संघ 45 वर्ष पुरानी एक ऐसी स्वयंसेवी संस्था है जो बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिए जोहड़1 और अन्य जल संरक्षक ढांचों का निर्माण कर गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का काम कर रही है। राजेंद्र ‘राष्ट्रीय जल बिरादरी’ नामक जल से संबंधित संगठनों के एक राष्ट्रीय समूह का मार्गदर्शन करते हैं। इस समूह ने भारत में 100 से अधिक नदियों के कायाकल्प पर काम किया है।
आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में उन्होंने बताया है कि जल संरक्षण पर काम करने के लिए उन्हें किन चीजों ने प्रेरित किया। साथ ही, वे यह भी बता रहे हैं कि एक गांव के लिए सच्ची आत्मनिर्भरता का अर्थ क्या होता है और कैसे महामारी ने विकास के कुछ विनाशकारी प्रभावों को एक हद तक उलट दिया है।
एक दिन मंगू मीना नाम के एक बुजुर्ग किसान ने मुझसे कहा ‘हमें दवाओं की ज़रूरत नहीं है। हमें पढ़ाई-लिखाई की भी ज़रूरत नहीं है। हमें सबसे पहले पानी चाहिए।’ दूसरे गांवों की तुलना में गोपालपुरा के लोग भयानक जल संकट का सामना कर रहे थे। वहां की ज़मीन पूरी तरह से बंजर और उजाड़ थी। मैंने उन्हें बताया कि मैं जल संरक्षण के बारे में कुछ भी नहीं जनता हूं। उस बुजुर्ग किसान ने मुझसे कहा ‘मैं तुम्हें सिखाउंगा।’ अब आप तो जानते हैं कि कम उम्र में हम कैसे होते हैं – कितने सवाल करते रहते हैं। इसलिए मैंने उनसे पूछ डाला कि ‘अगर आप मुझे सिखा सकते हैं तो खुद क्यों नहीं करते?’ आंखों में आंसू भरे उस बुजुर्ग ने मुझसे कहा ‘पहले हम लोग यह काम खुद ही करते थे, लेकिन जब से गांव में चुनाव होने लगे हैं तब से यहां के लोगों ने खुद को कई दलों में बांट लिया है। अब वे सब न तो एक साथ मिलकर काम करते हैं और न ही साझे भविष्य के बारे में सोचते हैं। लेकिन आप किसी पक्ष के नहीं हैं। आप हम सबके हैं।’ मैं उस बुजुर्ग की बात समझ चुका था। हालांकि वे शिक्षित नहीं थे लेकिन बुद्धिमान थे। मैंने जल संरक्षण पर काम करना शुरू कर दिया।
पानी से जुड़ी हर तरह की ट्रेनिंग में मुझे दो दिनों का समय लगा। मंगू काका मुझे गांव के सभी 25 सूखे कुओं पर लेकर गए और धरती की सतह देखने के लिए मुझे उन कुओं में 80 से 150 फ़ीट नीचे उतरने के लिए कहा। मुझे कुएं के भीतर कई क़िस्म की दरारें दिखीं और मैं समझ गया कि सूरज से बचाकर हम पानी कैसे बचा सकते हैं। हालांकि राजस्थान में बारिश या पानी का स्त्रोत सूर्य ही है लेकिन वह पानी का सबसे बड़ा चोर भी है। वाष्पीकरण प्रक्रिया से सूर्य बहुत सारा पानी चुरा भी लेता है। मेरा काम जल इकट्ठा करने के उन अलग-अलग तरीक़ों की खोज करना था जिससे उसे धरती के गर्भ तक पहुंचाया और वाष्पीकरण से बचाया जा सके।
गोपालपुरा में मैंने जोहड़ बनाकर बिल्कुल यही काम किया। सिर्फ़ एक मानसून की बारिश के बाद ही कुओं और भूमिगत जलस्रोतों में जान आने लगी। इस पानी ने सूख चुके छोटे-छोटे झरनों को फिर से जीवंत कर दिया था। इसके लिए हमें केवल इतना करना था कि भूमिगत जल स्रोतों का पानी रिचार्ज होता रहे। धीरे-धीरे यह काम आसपास के अन्य गांवों और फिर राज्यों में फैल गया। इसने 12 नदियों को पुनर्जीवित कर दिया। ये नदियां अब बारहमासी हो चुकी हैं और इनमें हमेशा पानी रहता है।
अब जब गांव में पानी वापस आ गया था तब गांव वालों ने पलायन कर गए लोगों को वापस घर बुलाना शुरू कर दिया – इससे वहां उल्टा पलायन हुआ। उन लोगों ने फिर से ज़मीन पर खेती का काम शुरू कर दिया। पहली फसल के तैयार होने के बाद गांववालों ने अपने सभी रिश्तेदारों को इस बारे में बताया कि कैसे उन्हें पानी मिला और फिर किस तरह उन्होंने खेती शुरू की। उन रिश्तेदारों ने मुझे अपने गांवों में बुलाना शुरू कर दिया। जल संरक्षण कार्य अब गोपालपुरा से निकलकर करौली, धौलपुर, सवाई माधोपुर, भरतपुर और अन्य इलाक़ों में फैलना शुरू हो गया था। मैंने तीन प्रकार की यात्रा शुरू की: पहली यात्रा थी ‘जल बचाओ जोहड़ बनाओ’; ‘ग्राम स्वावलंबन’ (गांव की आत्मनिर्भरता) मेरी दूसरी यात्रा थी; और तीसरी यात्रा थी ‘पेड़ लगाओ, पेड़ बचाओ।’ इन यात्राओं और पहले से मौजूद नेटवर्क के जरिए हमने अपने काम का विस्तार किया।
अपने गांव में पानी वापस आता देख उन्होंने जल संरक्षण पर काम करना शुरू किया और दोबारा खेती करने लगे।
जल्द ही इलाक़े के लोगों को इस काम का असर दिखाई देने लगा। पानी की कमी के चलते करौली में लोग असहाय हो चुके थे और बेरोज़गारी के कारण ग़ैर-क़ानूनी काम करने के लिए बाध्य थे। लेकिन अपने गांव में पानी वापस आता देख उन्होंने जल संरक्षण पर काम करना शुरू किया और दोबारा खेती से जुड़े कामों की तरफ़ बढ़ गए। इस इलाक़े में जंगल दो फ़ीसदी क्षेत्र से बढ़कर 48 फीसदी क्षेत्र में फैल गया था। जो लोग पहले गांव छोड़कर जयपुर के ठेकेदारों के लिए ट्रक-लोडर का काम करते थे, उन्होंने अब उन्हीं ठेकेदारों को अपनी फसल बाज़ार तक पहुंचाने का काम देना शुरू कर दिया। वे अब रोज़गार देने वाले बन गए हैं। वे अब उन्हीं लोगों को रोजगार दे रहे हैं जिनके लिए वे पहले मजदूरी किया करते थे।
जल संरक्षण का सबसे अधिक प्रभाव सूक्ष्म-जलवायु (माइक्रो-क्लाइमेट) पर पड़ा है। पहले अरब सागर से आने वाले बादल हमारे गांवों के ऊपर से गुजरते तो थे लेकिन इनसे बारिश नहीं होती थी। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि क्षेत्र में हरियाली कम थी और खदानों और शुष्क क्षेत्रों की गर्मी इन बादलों को संघनित होने और बरसने से रोक देती थी। अब क्षेत्र में हरियाली का प्रतिशत बढ़ चुका है और उनके ऊपर सूक्ष्म-बादल बनने लगे हैं। अरब सागर से आने वाले बादल इन सूक्ष्म-बादलों से मिलकर बारिश करते हैं। हरियाली बढ़ने से मिट्टी और हवा में नमी होने के कारण तापमान में भी कमी आई है। इस तरह हमारे जल संरक्षण के काम ने इलाक़े में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में भी मदद की है।
सबसे बड़ी चुनौती हमें सरकार से मिली थी। गोपालपुरा में सिंचाई विभाग ने सिंचाई एवं जल निकास अधिनियम 1954 के तहत निषेध लगाने की कोशिश की थी। उनका कहना था कि हमारे काम से ‘उनका’ पानी रुक रहा है। अब जब बारिश का पानी किसी के खेत पर पड़ता है तो वह पानी किसका होता है? किसान का या बांध का? मैंने उनसे कहा ‘अगर किसान के खेत में पड़ने वाला बारिश का पानी किसान का नहीं है तो आपको बारिश को रोक देना चाहिए, पूरे गांव में बारिश मत होने दीजिए।’ हमने किसी दूसरे का पानी नहीं रोका था। हम केवल खेत पर गिरने वाले बारिश के पानी को जमा कर रहे थे। हमारा नारा था ‘खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में।’ एक गांव आत्मनिर्भर तभी बन सकता है जब उसके पास अपना पानी हो। और इस पानी से उन्हें ख़ुशी, आत्मविश्वास, गर्व महसूस होता है।
सरकार की वास्तविक समस्या यह थी कि हम बहुत ही कम लागत के साथ बांध बना रहे थे। इसी काम को करने के लिए उनके पास करोड़ों का बजट था और वे ठेकेदारों को काम पर रखते थे। उन्हें डर था कि ऐसा करने से उनका भ्रष्टाचार सबके सामने आ जाएगा।
मुझे लगता है कि कोविड-19 के नकारात्मक प्रभावों के बावजूद इसके कुछ सकारात्मक असर भी हुए हैं। इससे लोगों को तथाकथित विकास से होने वाले विनाश के बारे में पता चला है। सरकार की विकास रणनीतियों से होने वाला विनाश। अभी तक विकास ने केवल विनाश, विस्थापन और आपदा को ही जन्म दिया है। जो लोग विस्थापित हो गए थे और शहरों में काम करने के लिए अपने गांव छोड़ गए थे, कोविड-19 के कारण वे लौटे – यह एक क्रांति है। लेकिन क्रांति अपने आप में पर्याप्त नहीं होगी; परिवर्तन लाने के लिए इस क्रांति को कार्यवाही के साथ जोड़ने की ज़रूरत होती है, तभी कुछ बदल सकता है।
कहने का मतलब यह है कि हमें प्रकृति से ही गांवों में समृद्धि लाने के तरीक़े ढूंढने की ज़रूरत है। हमें मृदा और जल के संरक्षण और प्रबंधन, हर घर में बीज भंडारण, खुद से खाद बनाने आदि जैसे काम करने होंगे। हमें अब और अधिक विकास नहीं चाहिए, हम मानव जाति और प्रकृति को फिर से नया करना चाहते हैं।
भारत वास्तविक अर्थों में गणराज्य तभी बनेगा जब यहां के गांव आत्मनिर्भर और आत्म–नियंत्रित इकाइयों में बदलेंगे।
प्रकृति के पुनर्जीवन से सबके लिए रोज़गार पैदा होगा और आर्थिक आत्मनिर्भरता का रास्ता बनेगा। सरकार द्वारा की जाने वाली बातों से आत्मनिर्भरता नहीं आएगी। आत्मनिर्भरता हवा से नहीं आती है; आत्मनिर्भरता मिट्टी से शुरू होती है। यह तब आती है जब गांव के लोग अपने जीवन की सभी ज़रूरतों के लिए गांव में ही रोज़गार ढूंढ़ लेते हैं और उसे बनाए रखते हैं। इसमें खेती भी शामिल है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गांव के पास अपना पानी हो। कोई गांव तभी आत्मनिर्भर बन सकता है जब उसके पास अपना पानी हो। और भारत वास्तविक अर्थों में गणराज्य तभी बनेगा जब यहां के गांव आत्मनिर्भर और स्व-नियंत्रित इकाइयों में बदलेंगे।
राष्ट्रीय जल बिरादरी नाम का हमारा एक राष्ट्रीय स्तर का समूह है। यह आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में सक्रिय है। लॉकडाउन के दौरान हमने अपनी प्रक्रिया के बारे में लोगों को बताने के लिए टेलीफ़ोन पर बातचीत की और कई वेबिनार आयोजित किए। उनसे कहा कि वे हमारे संदेशों को अपने इलाक़ों तक पहुंचाएं। हम पहले से ही छोटे स्तर पर काम कर रहे हैं; अब हमें अधिक ऊर्जा और मानव संसाधन दोनों की ज़रूरत है। शहरों से वापस लौटे लोग इस काम में शामिल हो सकते हैं।
शहरों में रहने वाले लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि उनके नलों में पानी गांवों से आता है।
शहरों में रहने वाले लोगों को यह समझने की जरूरत है कि उनके नलों में पानी गांवों से आता है। अगर हम इस पानी को छीन लेते हैं तो हम गांवों के लोगों को उनकी आजीविका के साधन से वंचित कर देंगे और उन्हें शहरों में आने के लिए मजबूर होना पड़ जाएगा। शहर में रहने वालों को पानी के उपयोग में अनुशासित होने के साथ-साथ जल संचयन और संरक्षण के बारे में जानने की भी जरूरत है। हमारे शहरों को जल-साक्षरता आंदोलन की तत्काल आवश्यकता है और यह एक ऐसा काम है जो सरकार कर सकती है। भारत का शहरी भविष्य खतरनाक दिशा में बढ़ रहा है। कोविड-19 के कारण हुए रिवर्स माइग्रेशन ने शहरी बुनियादी ढांचे पर दबाव को एक हद तक कम कर दिया है। लेकिन हमें लगातार अपनी शहरी आबादी को शिक्षित करते रहना होगा।
दूसरी ओर भारत के गांवों में रहने वाले लोग जल और जीवन के अन्य तत्वों के बीच के संबंध को हमसे कहीं बेहतर तरीक़े से जानते हैं। वे जानते हैं कि पानी के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है और उनके पास जल संरक्षण की इच्छाशक्ति है। वे यह भी समझते हैं कि पानी की बहुत अधिक कमी होने पर उन्हें ही विस्थापित होना पड़ता है। लेकिन उनकी क्षमताओं की भी सीमा है और उन्हें हमारे साथ की ज़रूरत है।
सरकार सब कुछ कर सकती है। सरकार महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट (मनरेगा) के 70,000 करोड़ रुपयों का इस्तेमाल उन लोगों को काम मुहैया करवाने में कर सकती है जो अपने गांव वापस लौट चुके हैं। इससे सरकार जल संरक्षण के लिए बुनियादी ढांचा तैयार कर सकती है। साथ ही सरकार स्थानीय संसाधन की उपस्थिति और उपलब्धता के बारे में जानने के लिए लोगों को प्रशिक्षित कर सकती है। रिसोर्स मैपिंग से यह पता लगाया जा सकता है कि किसी गांव में कौन से संसाधन हैं और रोज़गार उत्पादन में इसका उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सरकार को प्राथमिकता के साथ अपनी नदियों को पुनर्जीवित करने की दिशा में काम करना चाहिए। राष्ट्रीय जल बिरादरी ने 100 से अधिक नदियों के पुनर्जीवन के लिए काम किया। नतीजतन इनमें से 12 नदियों में अब बारहों महीने पानी रहता है। हमने पूरे देश में काम कर रहे लोगों को प्रशिक्षण दिया है लेकिन सरकार हम से किसी तरह का संवाद नहीं करती है। अगर वे अपने आत्मनिर्भरता वाले नारे को लेकर गम्भीर होते तो सबसे पहले हम लोगों से बात करते।
टीबीएस के रूप में हमने 10,600 वर्ग किमी भूमि में जल संरक्षण के लिए 11,800 तालाबों और अन्य संरचनाओं का निर्माण किया है। इस काम में हमने सरकार से एक पैसे की भी मदद नहीं ली है। यह काम हमने समुदाय की ताकत का उपयोग करके किया है। हमसे अधिक आत्मनिर्भर कौन होगा? लेकिन सरकार हमसे कभी बात नहीं करती है और वह कभी करेगी भी नहीं।
मैं उस तरह की राजनीति का शिकार नहीं हूं, मैं ऐसी राजनीति से लाभ उठाता हूं, उसे लेकर आगे बढ़ता हूं। जब मैंने जल संरक्षण का काम शुरू किया था तब मैं यह जानता था कि शक्तिशाली लोग इस पर अपना हक़ जताएंगे। समस्या तब होती है जब कोई गुप्त तरीक़े से काम करने की कोशिश करता है। मैं अपने काम को लेकर हमेशा से मुखर था, मैं हमेशा किसी भी तरह का फ़ैसला ग्राम सभा में पूरे समुदाय के लोगों के साथ मिलकर और लिखित में लेता था। हमारे काम में पूरी पारदर्शिता थी। बाद में यदि कोई समस्या खड़ी करता तो पूरा गांव उसके ख़िलाफ़ एकजुट हो जाता था। जब लोग समूहों में बंट जाते हैं तब राजनीति होने लगती है और मैंने कभी भी इस तरह के समूह बनने ही नहीं दिए।
आज के समय भी धर्म का मामला सत्ता और राजनीति के लिए किए जाने वाले इस संघर्ष से अछूता नहीं रह गया है। हर आदमी के धर्म की शुरुआत प्रकृति के सम्मान और पर्यावरण की सुरक्षा के आदर्शों से होती है। किसी भी प्रकार का ईश्वर और कुछ नहीं बल्कि जीवन का निर्माण करने वाले पांच तत्वों का मेल है। ये तत्व हैं पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि और जल। लेकिन प्रकृति के सम्मान से शुरू होने वाले धर्म धीरे-धीरे संगठन के सम्मान पर केंद्रित हो जाते हैं; वे शक्ति के समीकरण में हिस्सा लेने लगते हैं और राजनीति की युद्धभूमि में बदल जाते हैं।
मैं पूरे आत्मविश्वास से कह सकता हूं कि मैं, राजेंद्र सिंह, ने किसी भी ऐसी समिति या संगठन का निर्माण नहीं किया है जो सत्ता के इस खेल में शामिल हो। मैंने केवल प्रकृति के पुनर्जीवन के लिए काम किया है और अपनी अंतिम सांस तक करता रहूंगा ताकि हमारा गांव, हमारा देश और हमारी यह दुनिया एक बेहतर जगह बन सके।
मेरे जाने के बाद जरूरत पड़ने पर दूसरे लोग इस काम को कर सकते हैं और यदि जरूरत नहीं हुई तो बंद कर सकते हैं। राष्ट्रीय जल बिरादरी एक संगठन नहीं है; यह समुदाय द्वारा बनाया गया एक फ़ोरम है। जब तक समुदाय के लोग चाहेंगे तब तक यह फ़ोरम सक्रिय रहेगा। जब समुदाय इसे बंद करना चाहेगा तब यह बंद हो जाएगा। हालांकि पुनर्जीवन का काम पूरी तरह से सनातन और शाश्वत है। यह कभी नहीं ख़त्म होगा और हर बार हमें एक नई रचना की ओर ले जाएगा।
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फुटनोट:
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
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सुषमा अयंगर एक सामाजिक कार्यकर्ता और कच्छ महिला विकास संगठन (केएमवीएस) की संस्थापक हैं। केएमवीएस महिलाओं को इस तरह से सक्षम बनाने पर काम करता है कि वे अपने गांव समुदाय और क्षेत्रीय विकास से जुड़ी पहलों में पूरे आत्मविश्वास के साथ शामिल हो सकें और फ़ैसले लेने में अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकें।
बीते तीन दशकों से सुषमा देश भर में लैंगिक न्याय, लोक संस्कृति, पारंपरिक आजीविका, स्थानीय शासन और आपदा पुनर्वास के क्षेत्रों में बड़े बदलाव लाने वाले कार्यक्रमों का नेतृत्व कर रही हैं। सुषमा ने ज़मीनी स्तर पर कई तरह के अभियान चलाए और उन्हें आगे बढ़ाया है। इसमें कच्छ नव निर्माण अभियान जो कि नागरिक संगठनों का एक ज़िला-स्तरीय नेटवर्क है और शिल्पकारों के लिए बनाया गया ख़मीर नाम का मंच भी शामिल हैं। सुषमा ने पिक्चर दिस! पेंटिंग द विमेंस मूवमेंटनाम की एक किताब भी लिखी है।
आईडीआर के साथ अपनी इस खास बातचीत में उन्होंने भारत में नारीवादी आंदोलन के विकास के बारे में बात की है और बताया है कि कैसे इस आंदोलन ने उन्हें कच्छ के सूखा-ग्रस्त इलाक़ों में महिलाओं के साथ काम करने के लिए प्रेरित किया। साथ ही वे इस बात का भी जिक्र करती हैं कि महिलाओं की लैंगिक भूमिकाओं और पितृसत्ता को चुनौती देने वाली योजनाएं क्यों जरूरी हैं। इसके अलावा, वे यह भी समझाती हैं कि एसएचजी (स्व-सहायता समूह) आंदोलनों के आंकड़ा केंद्रित होने के चलते कैसे महिलाओं का सशक्तिकरण अधूरा रह गया है।
मेरा जन्म और पालन-पोषण गुजरात के बड़ौदा ज़िले में हुआ। आज़ादी के तुरंत बाद ही मेरे माता-पिता रहने के लिए शहर में आ गए। मेरे पिता एक माइक्रोबायआलॉजिस्ट थे और उन्होंने बड़ौदा में यहां के शुरूआती पेनिसिलिन संयंत्रों में से एक के साथ अपना काम शुरू कर दिया।
बेशक मेरा बचपन मेरे माता-पिता से बहुत प्रभावित रहा लेकिन इस पर बड़ौदा के सांस्कृतिक परिवेश का भी असर हुआ। ये मेरा सौभाग्य था कि बहुत कम उम्र से ही मुझे ये अनुभव मिलते रहे। मेरे पिता एक सहृदय व्यक्ति थे और उन्होंने मेरी दुनिया को ढ़ेर सारी किताबों और दिमाग़ी कसरतों से भर दिया था। उन्होंने ही मेरे अंदर जिज्ञासा और सवाल पूछने की आदत विकसित की। दूसरी तरफ़ मेरी मां थीं जो हमारे परिवार की ‘कर्ताधर्ता’ थीं। वे एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने हर काम का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया था और वो कभी भी किसी काम के लिए ना कहना नहीं जानती थीं। मेरे जीवन में आई वह पहली नारीवादी थीं लेकिन उन्होंने कभी सार्वजनिक जीवन में कदम नहीं रखा।
मां ने ही मेरा और मेरी बहनों का दाख़िला हमारे भाई के साथ लड़कों वाले स्कूल में करवाया। वे हमें मिशनरी स्कूलों वाली शिक्षा देने के ख़िलाफ़ थीं। उनका मानना था कि उन स्कूलों में लड़कियों को अधिक ‘लड़की’ होने का प्रशिक्षण दिया जाता है। पीछे मुड़कर देखने पर मुझे लगता है कि लड़कों के स्कूल में हुई पढ़ाई ने ही मुझे आगे चलकर महिलाओं और पुरुषों दोनों से जुड़े लैंगिक मुद्दों पर काम करने के लिए प्रेरित किया।
मेरे जीवन पर बड़ौदा का भी बहुत गहरा असर है। 1960 और 70 के दशक में यह विश्वविद्यालयों वाला शहर हुआ करता था। पूरे देश के छात्र, कलाकार और अकादमिक दुनिया के लोगों का यहां जमावड़ा रहता था। जब मैं बड़ी हो रही थी तब सर्दी के मौसम में लगभग हर दिन कॉन्सर्ट, कविता-पाठ और नाटक होता था।
कॉलेज में मैंने अंग्रेज़ी साहित्य चुना और उसके बाद साहित्य और अर्थशास्त्र में मैंने एमए किया। इस समय तक मैं इस साहित्य और किताबों की दुनिया में रहते हुए बेचैनी महसूस करने लगी थी। मुझे ऐसा लगता था जैसे ‘बाहर की दुनिया’ से अलग मैं किसी दूसरी दुनिया में जी रही हूं। यह 1970 और 80 के दशक का शुरुआती दौर था और भारत की राजनीति में भारी उथल-पुथल हो रही थी। आपातकाल, जयप्रकाश नारायण आंदोलन, जॉर्ज फर्नांडिस बड़ौदा डायनामाइट विस्फोट—ऐसा लग रहा था जैसे पूरा देश किसी न किसी मुद्दे पर उबल रहा था। युवा वर्ग कुछ नया ढूंढ रहा था और सड़कों पर उतर आया था। लगभग उसी समय भारत में नारीवादी आंदोलन भी शुरू हो चुका था जो महिलाओं के ‘कल्याण’, ‘उत्थान’ और ‘विकास’ से अलग महिलाओं की पहचान, उनके अधिकार और समाज में उनकी स्थिति और जगह की तरफ़ ध्यान देने की बात कह रहा था।
मैं स्वयं भी राजनीतिक रूप से जागृत एक ऐसे इंसान में बदल रही थी जो सामाजिक गतिविधियों में सक्रियता से भाग लेने के लिए बेचैन थी। साहित्य के प्रति अपने प्रेम और मेरी बढ़ती सामाजिक-राजनीतिक रुचि के बीच की खींचातानी में मैंने पाया कि राजनीतिक पत्रकार बनकर मैं साहित्य से एक्टिविज्म की ओर बढ़ सकती हूं। इसलिए अपने जीवन के अगले ढाई वर्ष मैंने अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में बिताए और वहां डेवलपमेंट कम्यूनिकेशन विषय में मास्टर्स की पढ़ाई की।
एक बार मैं वहां पहुंच गई तो मैंने डेवलपमेंट कम्युनिकेशन की पढ़ाई के अलावा सब कुछ किया। ऐसा पहली बार हो रहा था कि मैं दुनियाभर से आए छात्रों से बात कर रही थी। इस पूरी प्रक्रिया ने मुझे अलग-अलग नज़रियों और वामपंथ समेत अन्य विचारधाराओं से अवगत कराया। इन्हीं दिनों में मुझे ब्राज़ील के शिक्षक पाओलो फ़्रेयर के सिद्धांत के बारे में पता लगा था। उस समय तक मैंने गांधी, अम्बेडकर और विनोबा भावे के कामों के बारे में काफ़ी कुछ पढ़ लिया था। लेकिन यह फ्रेयर थे जिनके तरीकों ने मुझे प्रभावित किया और आने वाले समय में महिलाओं और ग्रामीण समुदायों के लिए किए जाने वाले मेरे कामों के लिए मुझे तैयार किया।
दरअसल अपने अमेरिका प्रवास के दिनों में ही मुझे अहसास हो गया था कि मैं भारत की ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करना चाहती हूं। पढ़ाई पूरी करके वापस लौटने के बाद मैं सोच रही थी कि अब मुझे क्या करना है और उसकी शुरूआत कैसे की जा सकती हैं। इसी दौरान मैं सेवा की संस्थापक इलाबेन (भट्ट) का इंटरव्यू लेने अहमदाबाद गई थी। इसी यात्रा में मेरी मुलाक़ात जनविकास के संस्थापकों फिरोज़ कांट्रैक्टर और गगन सेठी से हुई। जनविकास ने हाल ही में भारत के गांवों में जाकर काम करने वाले पेशेवर युवाओं की मदद करने वाले एक सुविधाजनक मंच के रूप में अपना काम शुरू किया था। फिर वे कच्छ जाने और 1989 में कच्छ महिला विकास संगठन की नींव डालने वाले सहायक बन गए। केएमवीएस ने अपना पूरा ध्यान कच्छ की शहरी और ग्रामीण महिलाओं को स्थानीय समूहों में संगठित करने पर केंद्रित किया ताकि वे अपने जीवन, समुदायों और अन्य क्षेत्रों से जुड़े मुद्दों को पहचानने और उनके समाधान में सक्षम हो सकें।
1980 के दशक में भारत तेज़ी से बदल रहा था। दिल्ली स्थित जागोरी और सहेली जैसे महिला संगठनों ने अपने रचनात्मक अभियानों, प्रशिक्षण और संसाधनों के वितरण के ज़रिए महिलाओं को जागरुक करना शुरू कर दिया था। वहीं गुजरात में सेवा ने पहले से ही अनौपचारिक क्षेत्रों में ट्रेड यूनियनों और सहकारी समितियों के साथ मिलकर महिलाओं के साथ काम करना शुरू कर दिया था और ग्रामीण समूहों का निर्माण कर रहा था।
भारत में पहली बार राजस्थान सरकार ने डबल्यूडीपी नाम से महिलाओं के विकास के लिए एक कार्यक्रम की शुरुआत की थी। इस कार्यक्रम में ग्रामीण महिलाओं को उनसे संबंधित मुद्दों पर संगठित किया जाता था। नारीवाद और ग्रामीण सशक्तिकरण से जुड़ने का यह बहुत अच्छा समय था। हालांकि मैंने ऐसा महसूस किया कि महिलाओं से जुड़े मुद्दों का अब भी ग्रामीण विकास के गम्भीर मुद्दों में शामिल होना बाक़ी था। मैं इसी मुद्दे पर काम करना चाहती थी और इसे विस्तार से जानना और समझना चाहती थी।
1985 से 1988 तक लगातार पड़ने वाले सूखे के कारण कच्छ के लोग भारी संख्या में पलायन कर रहे थे और केवल महिलाएं पीछे छूट गई थीं। हालांकि उस समय इस इलाक़े में कई कल्याणकारी संस्थाएं अपना काम कर रही थीं लेकिन सामुदायिक सशक्तिकरण, ख़ासतौर पर महिलाओं के मामले में उनका कोई काम दिखाई नहीं दे रहा था। कच्छ ने मुझे कई तरह से इसके संकेत दिए और मैंने उन संकेतों को समझ लिया।
कच्छ में सूखा पड़ते रहने के कारण आप अक्सर ही महिलाओं को सूखा राहत वाले इलाक़ों में कड़ी मेहनत करते देख सकते हैं। न्यूनतम मज़दूरी पर ये औरतें कड़ी धूप में बेकार के गड्ढे खोदती रहती हैं। इन्हीं दिनों सूखा राहत कार्यक्रम के तहत सरकारी हस्तशिल्प निगम ने कच्छ की स्थानीय शिल्प में निवेश करना और उसकी ख़रीद शुरू कर दी थी। ये सभी उत्पाद कच्छ की औरतें बनाती थीं। जहां एक तरफ़ कच्छ के इन कशीदों वाले उत्पाद की मांग और आपूर्ति की एक बड़ी ऋंखला तैयार हो गई थीं वहीं इनका नियंत्रण बिचौलियों के हाथों में आ गया था। ये सभी बिचौलिए पुरुष ही थे नतीजतन औरतों को उनके श्रम के लिए न के बराबर पैसे मिलते थे।
केएमवीएस में हमें इस बात का अहसास हुआ कि महिलाओं को जल स्त्रोतों और उनकी भूवैज्ञानिक स्थिति का गहरा ज्ञान है।
इससे भी अधिक जल संकट उनकी इस विकट स्थिति का मुख्य कारण था। सरकार द्वारा ट्यूब वेल के माध्यम से जल के मुख्य स्त्रोत से 120 किलोमीटर दूर स्थित गांवों तक पानी पहुंचाने के प्रयास के बावजूद पारम्परिक जल-स्त्रोत अस्त-व्यस्त स्थिति में थे। इस क्षेत्र के पुरुष अपने मवेशियों के साथ पलायन कर रहे थे और जीवन चलाने का बोझ अब पूरी तरह से औरतों पर आ चुका था। फिर भी समाधान के लिए कोई भी इस इलाक़े के लोगों के पास नहीं जा रहा था और महिलाओं के पास तो बिल्कुल भी नहीं। केएमवीएस में हमें जल्द ही इस बात का अहसास हो गया कि इलाक़ों की औरतों को जल स्त्रोतों और उनकी भूवैज्ञानिक स्थिति का गहरा ज्ञान है। इस समस्या का समाधान निकालने को लेकर औरतें अधिक चिंतित थीं और सरकारी अक्षमताओं और भ्रष्टाचार के विरोध को लेकर पुरुषों की तुलना में अधिक गम्भीर थीं। इस तरह पानी वह मुख्य मुद्दा बन गया जिसके इर्द-गिर्द पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दों को लाया गया।
यहां पर एक बात का ज़िक्र करना बहुत ज़रूरी है कि हम लोगों ने जिन समुदायों के साथ मिलकर काम शुरू किया था, उनमें से कुछ समुदायों की औरतों को अपने घर के आंगन से बाहर निकलने तक की अनुमति नहीं थी। ऐसे में महिलाओं के लिए यह समझाना आसान था कि क्यों उन्हें कम मेहनताना मिलता है, क्यों अपने बनाए उत्पादों के लिए पहचान नहीं मिलती लेकिन अपने स्वास्थ्य, ख़ासकर प्रजनन से जुड़े मामलों में वे चुप ही रहतीं थीं।
फिर ऐसे में कोई शुरूआत कहां से करेगा? संगठनों ख़ासकर उनकी महिला सदस्यों से हमारी बातचीत में हमने सीखा कि अपने घर-परिवार में पितृसत्ता के मुद्दों को सामने लाने के लिए पहले महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में आना होगा, मिलकर पूरे गांव को प्रभावित करने वाले मुद्दों को उठाना होगा और पुरुषों के आधिपत्य का मुक़ाबला करना होगा।
बदलाव की इस प्रक्रिया को शुरू करने से पहले एक ऐसी जगह बनानी ज़रूरी थी जहां सभी महिलाएं इकट्ठी होकर अपनी मुश्किलों और चुनौतियों पर बात कर सकें। इस तरह सामूहिक प्रयासों, सोच-विचार और खुद से पहचान के लिए एक जगह के रूप में महिला संगठन का जन्म हुआ।
पुरुषों ने महिलाओं के सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करने या उनके कोई सार्वजनिक भूमिका निभाने का विरोध किया।
कोई काम करने और फिर उस पर सोच-विचार करने की वह प्रक्रिया, जिससे हमारी समझ बनती है, ने महिलाओं को उनकी सामाजिक हैसियत का अंदाज़ा लगाने में मदद की। इससे महिलाएं यह समझने लग गईं कि उन्हें कैसे और क्यों दबाया जाता है। हालांकि साथ आने का मतलब हमेशा ही समस्याओं के हल खोजना नहीं था। महिला मंडलों और संगठनों ने औरतों को मौक़ा दिया कि वे अपने जीवन और अपनी बदलती दुनिया के बारे में एक-दूसरे से बातचीत कर सकें, एक साथ नाच-गा सकें, ठहाके लगा सकें, बहस कर सकें, आपस में लड़ सकें, अपनी असहमतियों को व्यक्त कर सकें और एक नई पहचान बना सकें। इस पूरी प्रक्रिया में हम सभी के बीच दोस्ती के कई रिश्ते बने। सबसे ज़रूरी बात कि जब मैं कच्छ की औरतों के जीवन का हिस्सा बनने की कोशिश कर रही थी तब मैंने उन्हें भी अपनी अंदरूनी दुनिया का हिस्सा बनने दिया। जब तक आप खुद नहीं खुलते हैं तब तक आप किसी समूह से खुलने और अपनी बातें साझा करने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।
मौज-मस्ती से भरे कई लंबे सत्रों के बाद औरतों ने धीरे-धीरे महिलाओं और पुरुषों और उनकी लैंगिक भूमिकाओं को एक बदल सकने वाली सामाजिक संरचना के रूप में पहचानना शुरू किया। अपनी परिस्थितियों और फैसलों पर सोच-विचार करने के दौरान हमने यह समझने की कोशिश की कि किसी स्थिति विशेष में हमने एक ख़ास तरीक़े से ही व्यवहार क्यों किया होगा। यहां पर सभी को सीखना था कि उन्हें तय सामाजिक पैमानों के मुताबिक़ न तो महसूस करना है, न ही सोचना है और न ही वैसा होना है जैसा होने की उम्मीद उनसे की जाती है।
निश्चित रूप से इसका विरोध भी हुआ। समुदाय के पुरुष सदस्यों ने महिलाओं के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने या सार्वजनिक भूमिका निभाने का विरोध किया। मुझे 1990 के दशक के शुरुआती दिन याद आ रहे हैं जब एक गांव की महिलाएं 40 वर्षों से बंद पड़े एक जल-निकाय को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही थीं। तब गांव के पुरुष नेताओं ने उन महिलाओं पर मुक़दमा दायर कर दिया और अदालत में यह दावा किया कि जल निकाय वाली ज़मीन उन में से ही एक की है। यह महिलाओं के लिए एक यादगार पल बन गया। पुरुषों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि पहले उन्हें घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी लेकिन अब इन पुरुषों के कारण वे अदालत तक पहुंच चुकी हैं। आख़िरकार अपने चैंबर में महिलाओं के एक समूह से मिलने के बाद चौंका देने वाला फ़ैसला सुनाते हुए जज ने अदालत के बाहर समझौता करने का आदेश दिया जो कि महिलाओं के पक्ष में गया।
जब मैंने महिलाओं के साथ काम करना शुरू किया तब तक ग्रामीण मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के महिला समूहों ने आकार लेना शुरू कर दिया था। ऐसी हज़ारों-लाखों अपरिचित महिलाओं के साथ मिलकर एक नया भविष्य बनाने की साझी कोशिश का भाव अभिभूत करने वाला था।महिला समूहों के बढ़ते प्रभाव ने सरकारों, दानकर्ताओं और नागरिक संगठनों में ख़ासा जोश भर दिया था। इनके कारगर होने के चलते इन समूहों की संख्या बढ़ाना और उन्हें औपचारिक रूप देना ज़रूरी हो गया। इस तरह स्व-सहायता समूहों को तरक्की मिलना शुरू हो गई।
एसएचजी आंदोलन के साथ, लोगों का अधिक ध्यान महिलाओं को समझदार बनाने से हटकर अब आंकड़ों और ठोस आर्थिक उपलब्धियों पर जाने लगा था। कई एसएचजी इन मामलों में काफी सफल भी रहे लेकिन इन महिला आंदोलनों के केंद्र में अब कहीं न कहीं केवल आर्थिक बदलाव ही था। एसएचजी ने महिलाओं को ग़रीबी से निकालने में तो मदद की लेकिन ये सामाजिक-आर्थिक ढांचे में उनकी लैंगिक स्थिति को बदलने में उतने कारगर नहीं रहे। 1980 और 90 के दशक के महिला आंदोलनों में बदलाव की जिन प्रक्रियाओं में निवेश किया गया, महिला सशक्तिकरण के लिहाज़ से देखें तो ये सफल नहीं रहीं। इस तरह ‘महिला सशक्तिकरण’ शब्द तो प्रचलित हो गया लेकिन अब इसे एक संकीर्ण विचार की तरह देखा जाने लगा है। मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे महिलाओं के आंदोलन की आत्मा गुम हो चुकी है।
इसके अलावा, तमाम योजनाओं में महिलाओं को किसी सजावट की तरह इस्तेमाल किया जाता है—मुझे मालूम है मैं आंदोलन का मज़ाक़ सा उड़ा रही हूं—लेकिन अक्सर मुझे ऐसा लगता है जैसे सशक्तिकरण का ठेका महिलाओं को ही दे दिया गया है। लैंगिक भूमिकाएं हों या सामाजिक बदलाव, पुरुष अक्सर जिम्मदारियों से मुक्त नज़र आते हैं। मैं अभी तक नहीं समझ पाई हूं कि एसएचजी जो कि आजीविका सृजन का एक साधन भर है—वह महिलाओं को संगठित कर काम करने वाला एक ख़ास सामुदायिक संस्थान कैसे बन गया? हमारे पास पुरुषों के लिए भी एसएचजी क्यों नहीं है?
मुझे जो सकारात्मक बदलाव दिखाई दे रहा है वो यह है कि स्थानीय स्वशासन को अनिवार्य करने वाले 73वें संशोधन ने पिछले दो दशकों में महिलाओं की स्थिति बदलने में मुख्य भूमिका निभाई है। स्थानीय शासन के मामले में गांव और शहर, दोनों जगह महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी उल्लेखनीय रही है।
एक बात जो मैं अक्सर खुद से और युवाओं से कहती हूं वह यह है कि हमारे सामने चाहे कितना भी अंधेरा क्यों न हो, हमें बस इतना देखना है कि वह कहीं से हमारे भीतर न जाने पाए।
जैसे-जैसे और जितनी महिलाओं ने सार्वजनिक क्षेत्रों में अपनी जगह बनाई है, उतना ही उनके लिए समाज का विरोध तेज होता गया है। इसे समझने के लिए जगह, नस्ल, धर्म, जाति और उम्र से परे महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली यौन हिंसा के क्रूरतम होते स्वरूप को देखिए। इसका एक बड़ा उदाहरण कर्नाटक में हिजाब पर लगाया गया प्रतिबंध और इसके कारण महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा है।
पिछले दो दशकों में होने वाले महिला आंदोलनों द्वारा हासिल उपलब्धियों और उसकी प्रगति के बारे में आज जब मैं सोचती हूं तो मुझे दो बड़े बदलाव नज़र आते हैं। पहला, ज़्यादातर महिलाओं के समूह और विशेष रूप से एसएचजी केवल आर्थिक परिवर्तन का साधन भर बन चुके हैं। दूसरा, हमारे समाज में साम्प्रदायिक नफ़रत का बढ़ना, महिलाओं के आंदोलनों की उन संभावनाओं को ख़त्म कर रहा है जो उन्हें जाति, वर्ग, लिंग या धार्मिक विश्वासों से परे एक बनाती थीं।
हर दौर की अपनी चुनौतियां होती हैं। उदाहरण के लिए आज हमारे सामने कट्टरता सबसे बड़ी चुनौती है, यह एक ऐसी चीज़ है जिसका सामना हमने इससे पहले कभी नहीं किया था। इसलिए मैं अपना कोई वास्तविक अनुभव नहीं बता सकती हूं। और, मैं अपनी कही बातों को सलाह की बजाय हमारे और हमारे समय की विवेचना की तरह देखती हूं।
हर दिन मैं खुद से और अक्सर युवाओं से भी एक ही बात कहती हूं कि हमारे सामने चाहे कितना भी अंधेरा क्यों न हो हमें बस ये देखना है कि यह हमारे भीतर ना जाने पाए। एक बार अगर ये अंधेरा हमारे भीतर घर कर ले तो सब ख़त्म हो जाता है। इससे बचने के लिए हमें अंदर से बदलते रहना होगा और लगातार अपने अनुभव, विश्वास और प्रेरणा को बनाए रखना होगा। हमारे क्षेत्र में काम करने वाले ज्यादातर लोगों का ध्यान अक्सर बाहरी बदलावों पर इतना केंद्रित होता है कि हम अपने भीतर टटोलना भूल जाते हैं। यहां काम करते हुए अपना सबसे बेहतरीन काम पूरे समर्पण से करते रहने के लिए, हौसला बनाए रखने के लिए और हर तरह के दमन, दबदबे और अन्याय का विरोध करते रहने के लिए लोगों को खुद पर भरोसा रखना चाहिए। इसके लिए हर पल अपने आप के प्रति जागरुक रहने की आदत डालनी होगी।
मुझे लगता है कि हम में से हर एक को आज बढ़ रही असहिष्णुता और नफ़रत का विरोध करने और अपनी गतिविधियों और सोच में अहिंसा की भावना को दोबारा शामिल करना ज़रूरी है।
मैं जिन युवाओं से बात करती हूं, उनमें से ज्यादातर मुझे बताते हैं कि वे किस तरह के दबावों का सामना कर रहे हैं। वे कुछ बड़ा और प्रभावशाली करना चाहते हैं जिससे सोशल मीडिया पर हर दिन अपनी उपलब्धियों के बारे में बता सकें। यह भावना लगातार उनके अंदर एक बेचैनी और कमतर होने का एहसास बनाए रखती है।
इसलिए मैं यहां जो बताना चाहती हूं वो यह है: हमें छोटे-मोटे कामों को करने में झिझक नहीं महसूस करना चाहिए। छोटी चीज़ें सुंदर होती हैं। अगर हम अपने भीतर छोटी-छोटी बातों और ख़्वाहिशों को ज़िंदा रखते हैं तो हमारा दिल बड़ा होता जाता है। इससे हममें बड़प्पन आता है और हम बेहतर इंसान बनते हैं। हमें खुद को याद दिलाते रहना होगा कि बड़ा बदलाव छोटी-छोटी कोशिशों के चलते ही आता है।
लेकिन जब हम बड़ा बनने की इच्छा के दबाव में आ जाते हैं तो हम उतने सहृदय नहीं रह जाते हैं।
मुझे यह भी लगता है कि बतौर नागरिक संगठन हम इस सामूहिक जड़ता से निकलने के लिए अभी जितना काम कर रहे हैं उससे अधिक करने की ज़रूरत है। हमें पहले से हो रहे काम से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। शायद हमें कुछ कदम पीछे जाने की ज़रूरत है, नई तरह से सोचने की और उन युवा प्रतिभाओं से जुड़ने की जो गांवों, क़स्बों, शहरों की बस्तियों, विश्वविद्यालयों में हैं। अपना आगे का रास्ता बनाने के लिए हमें वंचित से लेकर सबसे संपन्न लोगों तक सबको अपने साथ लाने की ज़रूरत है।
अगर आज हम अपने समाज में मूल्यों को आगे बढ़ाने वाले नहीं बनते हैं तो भविष्य में पछताएंगे। मुझे लगता है हम सभी को आज बढ़ती असहिष्णुता औऱ नफ़रत का विरोध करना चाहिए और अपने काम करने के तरीक़े और सोच में अहिंसा के विचार को वापस लाना चाहिए। अहिंसा और कुछ नहीं बस प्रेम का होना भर है—जहां प्रेम होगा वहां हिंसा नहीं होगी।
सभ्यताओं ने बदलाव के कई ऐसे दौर देखे हैं जब निराशा और अंधकार हावी हो गए। लेकिन शायद यह अंधेरा घिरता इसलिए है ताकि हम दरारों से आने वाली रोशनी देख सकें।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
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मेरा नाम सौविक साहा है। मैं भारत के युवाओं, विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के युवाओं के लिए एक सुरक्षित वातावरण बनाने के लिए काम करता हूं।
मैं झारखंड के जमशेदपुर में एक बस्ती में बड़ा हुआ हूं। मेरे पिता फ़ैक्ट्री में काम करते थे और माँ घर पर ही रहकर मेरे और मेरी बहन की देखभाल किया करती थीं। हम लोग निम्न-मध्य वर्गीय परिवार से आते थे इसलिए मेरे बातचीत का दायरा आसपास के दोस्तों और परिवार के सदस्यों तक ही सीमित था। हालांकि जब मैं अपनी आगे पढ़ाई करने कलकत्ता यूनिवर्सिटी गया तो मेरे लिए वह बिल्कुल नया अनुभव था। मुझे विभिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले और मुझसे बेहतर जीवन जी रहे लोगों से बातचीत करने और उनके सम्पर्क में आने का मौका मिला। मैं जिस हॉस्टल में रहता था वह छात्र राजनीति का एक मुख्य केंद्र था। इसलिए वहां रहते हुए मेरे अंदर राजनीतिक भागीदारी का एक जुनून पैदा हो गया। नतीजतन मैंने अपने कॉलेज का अधिकांश समय धरने और नुक्कड़ नाटक में बिताने लगा था।
अपनी बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने शहर के ही एक बैंक में काम करना शुरू कर दिया। लेकिन जल्दी ही 9–5 वाली इस नौकरी से ऊबने लगा और मैंने नौकरी छोड़ दी। मेरे अंदर युवाओं के लिए कुछ करने की प्रबल इच्छा थी। मेरी इसी इच्छा के कारण मैंने प्रवाह द्वारा दिए जाने वाले फ़ेलोशीप चेंजलूम के लिए आवेदन दिया और मेरा चयन हो गया। एक फ़ेलो के रूप में मेरी इस यात्रा से मुझे यह समझने में मदद मिली कि वास्तव में मैं किस प्रकार का काम करना चाहता हूं। और इसलिए 2010 में मैंने जमशेदपुर में पीपल फ़ॉर चेंज की स्थापना की। यह एक ऐसा संगठन है जो विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के युवाओं को महत्वपूर्ण जीवन कौशल सिखाता है और उन्हें निजी और सार्वजनिक बदलाव लाने में सक्षम बनाता है।
मुझे संगठनों और इकोसिस्टम में भरोसा है इसलिए मैं कॉमम्यूटिनी – द यूथ कलेक्टिव और वार्तालीप कोअलिशन जैसी जगहों पर वोलन्टीयर के रूप में काम करता हूं। अपने इस विचार को बढ़ाने के लिए मैंने झारखंड के युवाओं के साथ काम कर रहे विभिन्न संगठनों से सहयोग लेकर झारखंड यूथ कलेक्टिव का आयोजन किया। मैंने जमशेदपुर क्वीर सर्कल की भी स्थापना की है। यह शहर में क्वीर युवा और उनके साथियों के लिए एक खुला मंच है जहां उन्हें अपने लिए सुरक्षित और पूर्वाग्रह मुक्त माहौल मिलता है। यहां हम लगभग 500 ट्रांसजेंडर और 700 ऐसे क्वीर युवा का ख़्याल रखते हैं जिन्हें जमशेदपुर जैसे नगरों में अक्सर जानबूझकर दबाया जाता है या उनकी उपेक्षा की जाती है।
सुबह 5.00 बजे: मैं दिन की शुरुआत अपने छोटे से बगीचे में काम करने से करता हूं। यहाँ मैं कुछ सब्ज़ियां और फूल उगाता हूं। मुझे बाग़वानी में मज़ा आता है क्योंकि इससे मेरा मन शांत रहता है और साथ ही मुझे अपने दिन की शुरुआत किसी रचनात्मक काम से करना पसंद है। इसके बाद मैं रसोई में जाकर सबके लिए खाना तैयार करता हूं। मैं अपने माता-पिता के साथ रहता हूं। मेरी माँ लम्बे समय से बीमार हैं इसलिए घर और रसोई के काम की ज़िम्मेदारी मैंने अपने ऊपर ले ली है। घर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं काम पर जाने की तैयारी करता हूं।
सुबह 7.00 बजे: दफ़्तर जाने से पहले मैं उन स्कूलों का दौरा करता हूं जिनके साथ मिलकर हम समय-समय पर कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करते हैं। मैं वहां के प्रधान अध्यापकों और मुख्य सदस्यों से मिलकर चल रहे कार्यक्रमों के बारे में बातचीत करता हूं। इन में से ही एक कार्यक्रम युवाओं के बीच अंतर-सांस्कृतिक मित्रता का भी है। उदाहरण के लिए एक बार हमनें दोस्ती के इस कार्यक्रम में एक मुस्लिम लड़के और ब्राह्मण लड़की की जोड़ी बनाई थी। इस कार्यक्रम के तहत की गई बातचीत के माध्यम से उन्होंने एक दूसरे की निजी और सांस्कृतिक समानताओं और असमानताओं के बारे में विस्तार से जाना। इससे उन्हें अलग दिखने वाले लोगों से मिलने-जुलने की सुविधा मिली। हालांकि पहले इस कार्यक्रम का विरोध किया गया था। एक स्कूल के प्रिंसिपल ने हमारी टीम को उनके स्कूल में हमारे इस कार्यक्रम को बंद करने का निर्देश दिया था। उन्हें उन अभिभावकों से शिकायतें मिल रहीं थी जिन्हें लगता था कि इस तरह के कार्यक्रम उनकी परम्परा और संस्कृति का अपमान हैं।
मुझे इस बात का एहसास हुआ कि युवाओं को सशक्त करने के लिए तैयार किए जाने वाले डिज़ाइन में समाज के इन रक्षकों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को शामिल करने की ज़रूरत है।
हमारे काम में समाज के ऐसे रक्षकों द्वारा किया जाने वाला विरोध मुख्य चुनौती है। हालांकि ऐसी चुनौतियां मेरे और मेरी टीम को बेहतर और अधिक कारगर उपाय ढूँढने में मददगार ही साबित हुई हैं। हमनें कई सालों तक लगातार अभिभावकों और शिक्षकों के साथ बैठकर बातचीत की। इन बैठकों में मुझे यह एहसास हुआ कि युवाओं को सशक्त करने के लिए हमारे द्वारा तैयार किए जाने वाले डिज़ाइन में समाज के इन रक्षकों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को शामिल करने की ज़रूरत है। इसलिए अब हमारे सभी युवा कार्यक्रमों में हितधारकों से सक्रिय संवाद और उनके साथ मिलकर काम करना शामिल है।
सुबह 9.00 बजे: अपनी सुबह की मीटिंग निपटा कर मैं दफ़्तर जाता हूं। वहां मैं अपनी टीम से हमारे चल रहे कार्यक्रमों का ब्योरा लेता हूं। आज की मीटिंग का मुख्य विषय हमारे आने वाले फेलोशीप कार्यक्रम के लिए रणनीति बनाना और पाठ्यक्रम तैयार करना है। यह कार्यक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे युवा नेतृत्व को विकसित करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया जिनका काम यह सुनिश्चित करना है कि पूरे झारखंड के बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध हो रही है। इस काम के लिए कार्यक्रम प्रबंधक, इंटर्न और मैंने साथ बैठकर हर उस विषय पर गहरी चर्चा की जिसे फेलोशीप के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
सुबह 11.00 बजे: मैं झारखंड के एक छोटे से शहर जादूगोड़ा में हमारे द्वारा स्थापित सामुदायिक केंद्रों के दौरे के लिए जा रहा हूं जहां मेरी भेंट इस केंद्र को चलाने वाले युवा टीम से होगी। इस टीम ने इस शहर की 100 लड़कियों के साथ एक बैठक आयोजित की है जिसमें उनकी कुछ तात्कालिक समस्याओं और चिंताओं के बारे में बातचीत की जाएगी। भारत का सबसे बड़ा यूरेनियम का खान इसी छोटे से शहर में है। यहां रेडियोधर्मी कचरे के अनुचित निपटान के परिणामस्वरूप कैंसर के मामले बहुत अधिक पाए जाते हैं। हम लोगों ने जादूगोड़ा की युवा लड़कियों के लिए आजीविका के अन्य अवसरों के निर्माण के उद्देश्य को ध्यान में रखकर इन लड़कियों के साथ काम करना शुरू किया। उनके साथ काम करने की प्रक्रिया में उन्हें शिक्षित करना भी शामिल है। हम उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से अवगत करवाते हैं और उन्हें वोलन्टीयर बनने का प्रशिक्षण भी देते हैं। इससे उन्हें अपने समुदाय की सेवा करने का मौक़ा मिलता है। समुदाय के लोग ही हमें मिडिल स्कूल और आंगनवाड़ी केंद्र जैसी जगहें उपलब्ध करवाते हैं जहां हम अपनी कक्षाएँ आयोजित करते हैं।
जादूगोड़ा मेरे दफ़्तर से काफ़ी दूर है इसलिए मैंने सार्वजनिक वाहन के बजाय अपने मोटरसाइकल से वहां जाने का फ़ैसला किया है। मुझे फ़ील्ड में अधिक समय की ज़रूरत होती है। इस तरह की मीटिंग मेरे और मेरे टीम के लिए बहुत मददगार साबित होती हैं। इन मुलाक़ातों में हम समुदाय की ज़रूरतों को समझते हैं और उन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए युवाओं की मदद करने की कोशिश करते हैं।
शाम 4:00 बजे: जब मैं अपने दफ़्तर लौटता हूं तो उस समय वहां लोगों का जमावड़ा लगा होता है। यह एक आम दृश्य है क्योंकि शाम के समय ढ़ेर सारे युवा हमारे सलाहकारों से बात करने और उनसे अपनी समस्याओं पर चर्चा करने यहां आते हैं।
जब मैं छोटा था तब मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मेरी जिज्ञासा और उत्सुकता को बढ़ावा दिया गया हो। स्कूल वह जगह थी जहां मुझे मेरे सभी सवालों के जवाब मिलने चाहिए थे लेकिन इसके बदले मुझे वहां ‘बातूनी’ या ‘परेशान करने वाला’ जैसी उपाधियां दी गई। इसलिए मैंने पीपल फ़ॉर चेंज के मुख्यालयों की कल्पना हमेशा एक ऐसी जगह के रूप में की है जहां लोग खुद से और दूसरों से ढ़ेर सारे सवाल-जवाब और पूछताछ कर सकें। यहां युवाओं का हमेशा स्वागत है और वे यहां आकर घूम-फिर सकते हैं, पढ़ाई कर सकते हैं और टीम के सदस्यों के साथ बातचीत करने जैसे काम कर सकते हैं। क्वीर और समाज के अन्य पिछड़े समुदाय के युवाओं के लिए एक सुरक्षित स्थान मुहैया करवाने से मैं भी उन मामलों को गहराई से समझने योग्य हो चुका हूं जो उनके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए क्वीर युवाओं के लिए सबसे अधिक दबाव वाले मुद्दे स्वास्थ्य, आजीविका और रिश्ते हैं। वहीं आदिवासी युवाओं के लिए ज़मीन, जंगल और उनके अधिकार का मुद्दा महत्वपूर्ण है। इस प्रकार हमसे जुड़ा हर एक युवा किसी न किसी रूप में हमारी मदद करता है। ये युवा उनके लिए किए जाने वाले कामों और प्रयासों को बहुआयामी दृष्टिकोण से देखने में हमारी मदद करते हैं। उनसे मिलने वाली जानकारियों से हम अपने तरीक़ों को बेहतर बनाते हैं।
शाम 6:00 बजे: उस दिन का काम ख़त्म होने के बाद मैं दफ़्तर में ही थोड़ी देर आराम करता हूं। मैंने इस दफ़्तर को इस तरह बनाया है कि यहां काम करने वाले लोग यहीं आराम भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हम नियमित रूप से ओपन-माइक और रात के समय गेम का आयोजन करते हैं। हमनें कुछ बिस्तरों का इंतज़ाम किया है। इससे पहले कि हमारी टीम एक जगह इकट्ठा होकर अगले दिन के काम पर चर्चा करे मैंने इस बिस्तर पर ही थोड़ी देर आराम करने का फ़ैसला लिया है। उसके बाद हमारा आज का दिन ख़त्म हो जाएगा।
रात 8:00 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं जल्दी से रात का खाना खाता हूं और थोड़ी देर के लिए अपनी माँ के पास बैठता हूं। आमतौर पर दफ़्तर में बहुत व्यस्त रहने के बाद मैं घर पर काम नहीं करता। कभी-कभी रात के खाने पर अपने दोस्तों को घर बुला लेता हूं या जाकर सिनेमा देख लेता हूं। हालांकि सप्ताह के ज़्यादातर दिनों में मैं घर पर ही अपनी माँ के साथ या अपने कमरे में अकेला समय बिताता हूं।
रात 10:00 बजे: इन दिनों पढ़ रहे किताब के साथ मैं अपने बिस्तर की ओर जाता हूं। काम के बाद दिन के बचे इन कुछ घंटों में मैं अपने दूरगामी लक्ष्यों, उम्मीदों और अपने भविष्य निर्माण के बारे में सोचता हूं। मेरी तात्कालिक आशा ऐसी जगहों के निर्माण को आसान बनाना है जहां युवाओं और उनकी जिज्ञासाओं के लिए पर्याप्त साधन मिल सके। मैं चाहता हूं शैक्षणिक, कॉर्प्रॉट या पारिवारिक किसी भी तरह के वातावरण में युवाओं की आवाज़ को उन्हें प्रभावित करने वाले फ़ैसलों के संदर्भ में सम्मान के साथ सुना जाए। अंत में मेरा सपना युवाओं के नेतृत्व वाली एक ऐसी दुनिया है जो अधिक न्यायपूर्ण और प्यार से भरी हो।
जैसा आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मेरा नाम रीना सेठी है। मैं ओड़िशा के ख़ोरधा ज़िले के पंचगाँव में अपने पति, सास-ससुर और तीन बच्चों के साथ रहती हूँ। मैं इंडसट्री फ़ाउंडेशन के मैनुफ़ैक्चरिंग इकाई के लीफ़-प्रेसिंग विभाग में काम करती हूँ। हम लोग साल के पेड़ की पत्तियों और सीयालि नाम से जानी जाने वाली लताओं से प्लेट और कटोरियाँ बनाते हैं। हमारे ये उत्पाद आजकल व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले डिसपोज़ेबल प्लास्टिक उत्पादों के इको फ़्रेंडली विकल्प हैं।
मैं अगस्त 2021 में इस यूनिट में शामिल हुई थी। यह पहली बार था जब मुझे कोई औपचारिक नौकरी मिली थी। साथ ही मैं पहली बार अपने घर से बाहर निकलकर भी काम कर रही थी। इसके पहले मैं अपने इलाक़े की किराने वाली दुकानों में बोरिस (सूखे दाल की पकौड़ियाँ) बेचती थी लेकिन वह नियमित आय का साधन नहीं था। मुझे बोरिस बनाने का कच्चा माल ख़रीदने के लिए ऋण की आवश्यकता थी। इसलिए मैंने एक स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) की भी सदस्यता ली थी।
हालाँकि महामारी के कारण सब कुछ ठप्प पड़ गया। मेरे पति किताब की दुकान में काम करते थे। उनकी नौकरी चली गई और हमारे परिवार पर ग़रीबी का पहाड़ टूट पड़ा। हमारी हालत ऐसी हो गई थी कि हम अपने परिवार के लिए ज़रूरत भर अनाज भी नहीं ख़रीद पाते थे।
मेरे पति की नौकरी जाने के कुछ महीने बाद इंडसट्री फ़ाउंडेशन के कुछ लोग हमारे गाँव आए। उन्होंने हमारे एसएचजी से भेंट की और अपने काम के बारे में बताया। मैं जल्द ही उनकी टीम में शामिल हो गई और मशीन ऑपरेटर बनने से पहले कुछ दिनों का प्रशिक्षण हासिल किया। जब से मैंने यह नौकरी शुरू की है मेरी एक निश्चित और नियमित आय है और घर की आर्थिक हालत भी पहले से बेहतर हुई है।
सुबह 4.00 बजे: अपने दिन के शुरुआती कुछ घंटे मैं अपने घर के कामकाज में लगाती हूँ। उसके बाद मैं अपने और परिवार के लिए खाना पकाती हूँ। हमारा परिवार बड़ा है इसलिए मुझे कम से कम चार अलग-अलग प्रकार के व्यंजन पकाने होते हैं। आज खाने में मैं दाल, भात, सब्ज़ी और आम का एक खट्टा-मीठा व्यंजन बना रही हूँ जो ख़ास ओड़िशा में ही बनाया जाता है।
सुबह 8.00 बजे: इस समय हमारे घर में सब बहुत व्यस्त रहते हैं। मेरे बच्चे स्कूल जाने की तैयारी में लगे हैं और मेरे पति गाँव में ट्यूबवेल लगवाने जाने की तैयारी कर रहे हैं। आजकल वह हमारे गाँव के सरपंच के साथ मिलकर काम करते हैं और आधार कार्ड और पैन कार्ड जैसे सरकारी काग़ज बनवाने वाले लोगों की मदद करते हैं।
मैं सबसे पहले अपने सास-ससुर को सुबह का नाश्ता देती हूँ। मेरे ससुर की उम्र 80 साल है और वह डायबिटीज के मरीज़ हैं। उन्हें हार्ट और बीपी की समस्या भी रहती है। उनके लिए समय पर दवाइयाँ लेना ज़रूरी है। उन्हें नाश्ता करवाने के बाद मैं अपना नाश्ता ख़त्म करती हूँ।
दोपहर 12.30 बजे: उत्पादन यूनिट में हम लोग दो शिफ़्ट में काम करते हैं। मैं दिन के दूसरे शिफ़्ट में दोपहर 1 बजे से 7 बजे तक काम करती हूँ, इसलिए मुझे इस समय तक दफ़्तर पहुँचना होता है। घर से यूनिट तक पैदल जाने में मुझे लगभग आधे घंटे का समय लगता है।
जब मैं इंडसट्री में शामिल हुई थी तब मुझे ‘6वाई प्रशिक्षण’ दिया गया था। इस प्रशिक्षण में मैंने ऐसे विभिन्न कौशल (सॉफ़्ट स्किल) हासिल जिनका इस्तेमाल नई नौकरी में किया जा सकता है। मैंने लिंग प्रशिक्षण भी लिया जहां मैंने एक औरत के रूप में अपने अधिकारों के बारे में जाना।
प्रशिक्षण के बाद मैं उन भेदभावों के प्रति अधिक जागरूक हो गई जिनका सामना काम वाली जगहों पर मुझे और मेरे आसपास की औरतों को करना पड़ता है।
प्रशिक्षण के बाद मैं उन भेदभावों के प्रति अधिक जागरूक हो गई जिनका सामना काम वाली जगहों पर मुझे और मेरे आसपास की औरतों को करना पड़ता है। मुझे एक घटना बहुत अच्छी तरह से याद है। उच्च-जाति के हमारे एक पड़ोसी ने अपने दलित समुदाय के पड़ोसी की बहु का बलात्कार कर दिया था। मैं भी दलित समुदाय से ही आती हूँ। हमेशा की तरह इस मामले को भी दफ़ना दिया गया। जब भी एक दलित के रूप में, एक औरत के रुप में हमें किसी तरह की समस्या होती है तो उसे नज़रअन्दाज़ कर दिया जाता है। लेकिन मेरे प्रशिक्षण ने मुझे इनकी पहचान करने के काबिल बनाया है।अपने पति के साथ मिलकर मैंने बलात्कार पीड़ित उस स्त्री को पुलिस में शिकायत करने के लिए तैयार किया। अंत में उस बलात्कारी को तीन साल की क़ैद हुई।
दोपहर 1.00 बजे: जब मैं कारख़ाने पहुँचती हूँ तो सबसे पहले कच्चे माल (सूखी पत्तियाँ) का स्टॉक चेक करती हूँ। मशीन में सूखी पत्तियों को डालने के लिए एक अलग विभाग है। कुल छः मशीनें हैं और सभी ऑपरेटरों को एक -एक मशीन दी गई है। हर मशीन में दो डाई हैं—एक 15-इंच की प्लेट के लिए और दूसरी 12-इंच की प्लेट के लिए। दोनों ही मशीनों को एक साथ चलाया जा सकता हैं। जब मैं इसकी जाँच कर लेती हूँ कि कच्चा माल मशीन में लोड किया जा चुका है तब मैं अपने सुरक्षा उपकरण- एप्रन, टोपी और कोविड-19 के कारण मास्क पहन कर तैयार हो जाती हूँ। ये सब पहन लेने के बाद मैं मशीन चालू करती हूँ। मशीन का तापमान 70–80 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। अगर तापमान बहुत ऊँचा या कम होगा तो दोनों ही स्थितियों में प्लेट की तीन परतें एक दूसरे से नहीं चिपक पाएँगी। मशीन को गर्म होने में आधे घंटे का समय लगता है। जैसे ही मशीन गर्म हो जाती हैं मैं उसमें सूखे पत्ते डालना शुरू कर देती हूँ जो प्लेट बनकर निकलती हैं।
दोपहर 2.30 बजे: डेढ़ घंटे लगातार काम करने के बाद हम दोपहर के खाने के लिए रुकते हैं। मशीन को अस्थाई रूप से बंद करने के लिए एक इमरजेंसी स्विच है। हम खाना खाने जाने से पहले उस स्विच को दबा देते हैं। मशीन वाला कमरा और खाने वाला कमरा अलग-अलग है। मशीन के पास एक बूँद पानी भी नहीं पहुँचना चाहिए। लीफ़ प्रेसिंग विभाग में हम कुल 12 लोग हैं। हर शिफ़्ट में छः औरतें होती हैं। अक्सर हम दोपहर का खाना साथ में खाते हैं और खाते वक़्त बातचीत करते हैं। आज मैं अपना खाना लेकर आई हूँ। मैंने अपने लिए सुबह ही खाना बना लिया था। अक्सर ऐसा होता है कि जल्दी-जल्दी के चक्कर में मैं अपना खाने का डब्बा घर पर ही भूल जाती हूँ और फिर मुझे अपने बच्चों को फ़ोन करके डब्बा मँगवाना पड़ता है।
दोपहर 3.00 बजे: दोपहर का खाना ख़त्म करने के बाद हम लोग मशीन वाले कमरे में वापस लौट जाते हैं। आज मेरी एक सहकर्मी की तबियत कुछ खराब लग रही है इसलिए मुझे उसकी मशीन पर नज़र रखने का कहकर वह शौचालय गई है। दो मशीनों की ज़िम्मेदारी एक साथ उठाना सच में बहुत मुश्किल काम है। उसके वापस आ जाने से मुझे राहत मिल गई है।
जब से मैंने यहाँ काम करना शुरू किया है तब से मैंने लोगों को विकल्प के रूप में साल और सियाली के पत्तों के उपयोग और इसके लाभ के बारे में जागरूक करने का काम भी शुरू कर दिया है।
हम सभी काम करते वक़्त बहुत अधिक सावधानी बरतते हैं लेकिन कभी-कभी हमसे गलती हो जाती है। अगर प्लेट या कटोरे में किसी तरह की समस्या है और क्वालिटी चेक में इसे ख़ारिज कर दिया जाता है तो हमें इसे दोबारा मशीन पर चढ़ाना होता है। हम स्वीकृत और ख़ारिज दोनों ही तरह के उत्पादों के लिए दो अलग-अलग ढ़ेर बनाते हैं। क्वालिटी चेक में सफल उत्पाद स्थानीय बाज़ारों, छोटी-छोटी दुकानों या भुवनेश्वर के होल्सेल एक्सपोर्ट सेलर को बेच दिए जाते हैं। मेरे गाँव के लोग प्लास्टिक का बहुत अधिक इस्तेमाल करते हैं। इसलिए मैं कभी-कभी ख़ारिज ढ़ेर में से कुछ कटोरियाँ और प्लेट लेकर अपने घर में इस्तेमाल करती हूँ या फिर अपने पड़ोसियों को देती हूँ। जब से मैंने यहाँ काम करना शुरू किया है तब से मैंने लोगों को विकल्प के रूप में साल और सियाली के पत्तों के उपयोग और इसके लाभ के बारे में जागरूक करने का काम भी शुरू कर दिया है। अभी कुछ दिन पहले ही मैं अपने बच्चों को बता रही थी कि हिंदू पुराणों के अनुसार मंदिरों में पारंपरिक रूप से साल और सियाली की पत्तियों का ही इस्तेमाल होता है न कि प्लास्टिक का। उदाहरण के लिए पूरी में भगवान जगन्नाथ मंदिर का प्रसाद साल के पत्तों में तैयार किया जाता है। वहीं सियाली की पत्तियों का संबंध भगवान कृष्ण से है। भगवान कृष्ण ने अपना भौतिक शरीर सियाली के पत्तों से बने बिस्तर पर ही त्यागा था।
शाम 5.30 बजे: शाम की चाय के बाद मैं कुछ घंटों के लिए कुर्सी पर बैठती हूँ। आमतौर पर प्रेसिंग मशीन चलाते समय खड़ा ही रहना पड़ता है। मैं अपनी कई सहकर्मियों से उम्र में बड़ी हूँ और मुझे बहुत देर तक लगातार खड़े होने में कठिनाई होती है इसलिए मैंने कुर्सी की माँग की थी। और जब से मैंने कुर्सी पर बैठना शुरू किया है मेरे कुछ सहकर्मियों ने मुझे यह कहकर चिढ़ाना शुरू कर दिया है कि “रीना तो वीआईपी हो गई है।”
रात 8.00 बजे: घर लौटते ही मैं सबके लिए रात का खाना तैयार करती हूँ और हम सब एक साथ बैठकर खाते हैं। दिन भर में यही एक ऐसा समय होता है जब हमारा पूरा परिवार साथ बैठकर खाना खाता है और अपने-अपने दिन के बारे में बताता है। मैं अपने बच्चों, पति और सास-ससुर से बातचीत करती हूँ। मैं उन्हें दिन भर की घटनाओं के बारे में बताती हूँ।
रात 10.00 बजे: मैं अपने सास-ससुर से उनकी ज़रूरतों के बारे में पूछती हूँ और अपने बच्चों को सोने के लिए भेजती हूँ। रसोई और घर की सफ़ाई करने के बाद मेरा दिन ख़त्म होता है। मुझे यूनिट में समय बिताना और काम करना पसंद है। शुरुआत में मैं काम और घरेलू ज़िम्मेदारियों के बीच के संतुलन को लेकर चिंतित थी। लेकिन अब तक सब कुछ बहुत ही अच्छे और सहजता से चला आ रहा है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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