आत्महत्या की घटनाओं के रोकथाम में मीडिया रिपोर्टिंग की ताक़त

10 सितंबर को मनाए जाने वाले ‘विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस’ से ठीक पहले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने भारत में आत्महत्या की घटनाओं से जुड़े गम्भीर आंकड़े पेश किए। आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में आत्महत्या से होने वाली मौतों की संख्या 2020 की तुलना में, साल 2021 में 7.2 प्रतिशत अधिक है। इस तरह यह आंकड़ा अब तक के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका है। 2021 में प्रकाशित एक अन्य शोध से यह तथ्य सामने आया है कि दुनियाभर में आत्महत्या से होने वाली मृत्यु को दर्ज करने वाले देशों में भारत सबसे पहले स्थान पर है। कई बार आत्महत्या के कई मामले दर्ज नहीं होते हैं या नहीं हो पाते हैं इसलिए ऐसी सम्भावना भी जताई जा सकती है कि वास्तविक संख्या, जारी आंकड़ों से और भी अधिक होगी।

अच्छी बात यह है कि आत्महत्या को रोका जा सकता है। अपनी रिपोर्ट प्रिवेंटिंग सूयसाइड: ए ग्लोबल इम्परेटिव  में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने सामाजिक स्तर पर किए जाने वाले कई मध्यस्थता कार्यक्रमों के बारे में बताया है। इनकी मदद से आत्महत्या के ख़तरे को टाला जा सकता है। इनमें से एक प्रमुख रणनीति जिम्मेदार मीडिया रिपोर्टिंग है। पपाजेनो इफेक्ट के नाम से प्रसिद्ध यह शोध बताता है कि जब मीडिया आत्महत्या से जुड़े मामलों की अपनी रिपोर्टिंग में इससे जुड़े आलोचनात्मक रवैये को कम कर, लोगों को मदद मांगने के लिए उत्साहित करते हैं, तब आत्महत्या रोकथाम के प्रयासों पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग में सनसनी पैदा करने वाली हेडलाइन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है और न ही आत्महत्या के तरीके के बारे में बताया जाता है। एक ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग में मदद के सम्भावित तरीक़ों की जानकारी दी जाती है, आत्महत्या के कारण का अति-सरलीकरण करने से बचा जाता है। साथ ही लोगों को आत्महत्या और इसकी रोकथाम से जुड़ी जानकारी दी जाती है।

इसके विपरीत, वेर्थर प्रभाव के रूप में जानी जाने वाली घटना में, सनसनीखेज समाचार रिपोर्ट और गैर-जिम्मेदार रिपोर्टिंग – विशेष रूप से सेलिब्रिटी आत्महत्या के मामलों में – देखी जाती है। यह बाद में देखादेखी की जाने वाली आत्महत्याओं के लिए एक प्रोत्साहन बन सकती है। एक अध्ययन का अनुमान है कि किसी सेलिब्रिटी की आत्महत्या की मीडिया कवरेज के बाद आमलोगों में आत्महत्या का ख़तरा 13 फ़ीसदी तक बढ़ जाता है। अध्ययन यह भी साफ़ करता है कि जब खबरों में किसी सेलिब्रिटी के आत्महत्या के तरीक़े का उल्लेख किया जाता है तो उसी तरीक़े से होने वाली आत्महत्याओं में 30 फ़ीसदी की वृद्धि देखी जाती है।

इस बात के पर्याप्त सबूत होने के बावजूद कि मीडिया रिपोर्टों में आत्महत्या की रोकथाम के प्रयासों को मजबूत या कमजोर करने की क्षमता होती है, भारत में आत्महत्या से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग की गुणवत्ता बहुत खराब है। दो दशक से भी पहले, डबल्यूएचओ द्वारा जारी सुझावों में मीडिया पेशेवरों के लिए आत्महत्या पर रिपोर्ट करने के तरीक़ों के बारे में बताया गया था। 2019 में प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने भी डबल्यूएचओ द्वारा पारित दिशानिर्देशों के आधार पर अपनी एक सूची जारी की थी। इसने मीडिया जगत को इस बात के लिए भी प्रोत्साहित किया कि वे आत्महत्या की खबरों को सनसनीखेज़ बनाकर पेश न करें या इस तरह से रिपोर्टिंग न करें जिससे कि आत्महत्या को किसी समस्या के समाधान के रूप में देखा या समझा जाए। इसके बाद मुख्य धारा के प्रिंट मीडिया में कुछ सकारात्मक बदलाव देखने को मिले लेकिन समस्या की गम्भीरता को देखते हुए हमें और अधिक बदलावों की जरूरत है। साइरन के एक आंकड़े के अनुसार भारत के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बारों ने आत्महत्या से जुड़े अपने 80 प्रतिशत से अधिक लेखों में ध्यान खींचने वाले हेडलाइन का इस्तेमाल किया था। वहीं, लगभग 85 प्रतिशत लेखों में आत्महत्या के तरीक़ों का उल्लेख भी पाया गया। इसके विपरीत केवल 17 प्रतिशत लेखों में मदद मांगने के लिए हेल्पलाइन नंबर जैसी जानकारियां दी गईं थीं और 0.72 लेखों में इससे जुड़े आपराधिक भाव को कम करते हुए इस बात पर जोर दिया गया था कि आत्महत्याओं को रोका जा सकता है।

साइरन स्कोरबोर्ड पर समाचारपत्रों का प्रदर्शन

मीडिया द्वारा आत्महत्या से जुड़ी खबरें रिपोर्ट करने के तरीके में किन बदलावों की ज़रूरत है?

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कहानियां बताने वाले सैनिटी नामक एक स्वतंत्र प्लैटफ़ॉर्म के संस्थापक सम्पादक और आत्महत्या रोकथाम वकील तन्मॉय गोस्वामी बताते हैं कि “हमने इस बारे में बहुत सोचा और इस पहेली को सुलझाना आसान काम नहीं है।” वे आगे कहते हैं “पहला विचार यही आता है कि ‘क्या कोई एक तरीक़ा है जिससे हम इन दिशानिर्देशों का पालन न करने वाले मंचों पर प्रतिबंध लगा सकें?’ लेकिन स्थायित्व पाने के क्रम में दंड देना कारगर उपाय नहीं होता है; इसके बदले हमें मीडिया को संवेदनशील होकर रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है।”

आत्महत्या से जुड़े शोध एवं इसकी रोकथाम के लिए डबल्यूएचओ के अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क की सदस्य और चेन्नई-स्थित संगठन स्नेहा की संस्थापक डॉक्टर लक्ष्मी विजयाकुमार भी इस बात से अपनी सहमति जताते हुए कहती हैं “आत्महत्या रोकथाम पर काम करने वालों के रूप में हमें यह बात समझनी होगी कि आत्महत्या को खबर बनने और प्रकाशित होने से नहीं रोका जा सकता है। इन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। इसलिए मीडिया द्वारा की जाने वाली ग़लतियों की आलोचना करने के बजाय हम मीडिया को सही तरह से यह काम करने और वास्तव में लोगों की जान बचाने के लिए प्रोत्साहित करने की उम्मीद कर रहे हैं।”

दोनों ही जानकार इस बात से सहमत हैं कि इसे करने का कोई चमत्कारिक तरीक़ा मौजूद नहीं है और आत्महत्या की रिपोर्ट करने के लिए मीडिया द्वारा इस्तेमाल किए गए तरीके को बदलने के लिए हमें कई तरह के समाधानों और साथ आकर काम करने वालों की जरूरत है।

1. मौजूदा रिपोर्टिंग दिशानिर्देशों को लागू करना

आत्महत्या की रिपोर्टिंग के तरीक़ों के बारे में बताने के लिए पहले से ही कई तरह के संसाधन और टूलकिट उपलब्ध हैं। नतीजतन, तन्मॉय के अनुसार मामला अब जानकारी की कमी से संबंधित नहीं है बल्कि इसका संबंध इस बात से है कि क्या मीडिया संगठनों के लोग दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए पर्याप्त सावधानी बरतते हैं। “यह एक साधारण सूची है जिसका पालन किए जाने की आवश्यकता होती है। अगर डेस्क पर काम करने वाला आदमी आत्महत्या पर लिखे लेख का सम्पादन कर रहा है तब उसके सामने यह चेकलिस्ट होनी चाहिए। कई सालों तक डेस्क पर काम करने के कारण मुझे इस बात की जानकारी है कि सम्पादक सभी तरह की चेकलिस्ट का ध्यान रखते हैं। जब मानवीय संकटों या अन्य त्रासदियों के रिपोर्टिंग की बात आती है तो न्यूज़ रूम के लोग दिशानिर्देशों का पालन करना जानते हैं। लेकिन जब मामला आत्महत्या का होता है तब सबको यही लगता है कि ऐसा करना सही है क्योंकि इसको प्रकाशित करने से भारी संख्या में दर्शक और पाठक आकर्षित होते हैं।”

हालांकि यह देखने में सामान्य लगता है लेकिन इस समस्या की जड़ें गहरी हैं। आत्महत्या पर रिपोर्ट करने वाले मीडिया पेशेवरों के अनुभवों और दृष्टिकोणों की जांच करने वाले एक अध्ययन में पाया गया कि कई लोगों को इस बात पर ही संदेह था कि मीडिया आत्महत्या से बचाव में कोई भूमिका निभा सकता है। अधिकांश लोगों को मौजूदा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देशों के बारे में पता नहीं था। वहीं कुछ लोग इस बात को लेकर आशंकित थे कि सिर्फ एक खबर के छपने से आत्महत्याओं पर कोई असर पड़ सकता है।

डॉक्टर लक्ष्मी कहती हैं कि “स्नेहा द्वारा पत्रकारों के साथ किए जाने वाले प्रशिक्षण सत्रों में लोगों ने मुझसे आकर कहा कि एक कहानी से कोई अंतर नहीं आने वाला है। हां, यह सही है कि एक लेख या स्टोरी सीधे अधिक आत्महत्याओं का कारण नहीं बन सकती है लेकिन कुछ लोगों को प्रेरित कर सकती है और हमें इस पर ही ध्यान देने की ज़रूरत है।” चीजों को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि पत्रकारों से लेकर संपादकों और वरिष्ठ प्रबंधन तक सभी स्तरों के मीडिया पेशेवरों को सबसे पहले खुद यह मानना होगा कि आत्महत्याएं अपरिहार्य नहीं हैं और इन्हें रोका जा सकता है। तभी वे इन मिथकों को अपनी रिपोर्टिंग में चुनौती दे सकते हैं।

विभिन्न भारतीय समाचार पत्रों का क्लोजअप-आत्महत्या रोकथाम
आत्महत्या पर रिपोर्ट करने वाले कई मीडिया पेशेवरों को मीडिया द्वारा निभाई जा सकने वाली निवारक भूमिका के बारे में संदेह था। | चित्र साभार: ऐडम कॉह्न/सीसी बीवाई

2. पब्लिक हेल्थ लेंस से आत्महत्या की रिपोर्टिंग करना

मीडिया संगठनों में लाए जाने वाले आवश्यक बदलावों में एक सबसे ज़रूरी बदलाव यह है कि आत्महत्या से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग क्राइम पत्रकारों की बजाय स्वास्थ्य पत्रकारों द्वारा की जानी चाहिए। 2017 में, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम ने भारत में आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था।

इसके बावजूद राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो से लगातार आत्महत्या से जुड़े मामलों के आंकड़े आते रहते हैं और ज़्यादातर समाचार प्रकाशन अभी भी आत्महत्या के खबरों को अपराध की श्रेणी वाली खबरों में रखते हैं। मारीवाला हेल्थ इनीशिएटिव एक मानसिक स्वास्थ्य-केंद्रित, फंडिंग और इसकी वकालत करने वाला संगठन है। इसकी सीईओ प्रीति श्रीधर कहती हैं “यदि आप आत्महत्या को सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दे के रूप में न देखकर उसे एक अपराध मानते हुए उसके बारे में बात करते हैं तब आपकी बातचीत का लहजा अलग होता है। स्वास्थ्य पत्रकारों को इसके बारे में रोकथाम के दृष्टिकोण से सोचने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है; वे सेवाओं और समुदाय-आधारित हस्तक्षेपों तक पहुंच के बारे में सोचते हैं।”

हालांकि क्राइम रिपोर्टर्स को संवेदनशील रूप से आत्महत्या की रिपोर्ट करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है लेकिन वे उतने लम्बे समय तक वहां मौजूद नहीं होते हैं कि चीजों को बदल सकें।

मामलों को जटिल बनाने के लिए, डॉ लक्ष्मी ने देखा कि स्वास्थ्य संवाददाता अक्सर अपनी भूमिका में अपराध संवाददाताओं की तुलना में अधिक समय तक रहते हैं। इसलिए अपराध संवाददाता संवेदनशील रूप से आत्महत्या की रिपोर्टिंग करने के लिए प्रशिक्षित होने के बावजूद चीजों को बदलने के लिए वहां पर्याप्त समय तक मौजूद नहीं रह पाते हैं और अपराध संवाददाताओं के नए समूह को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता बन जाती है। एक अन्य मुख्य समस्या यह है कि अधिकांश अख़बारों में पूरी खबर और सुर्ख़ियां लिखने वाले लोग अलग-अलग होते हैं। इसलिए ऐसा सम्भव है कि खबर बहुत अच्छी तरह से तैयार की गई हो लेकिन सुर्ख़ियों के साथ तालमेल न बैठ रहा हो क्योंकि सुर्ख़ियों का उद्देश्य लोगों को अपनी ओर खींचना होता है। वे आगे कहती हैं कि एक पत्रकार ने मुझसे कहा था कि “आत्महत्या शब्द क्लिकबेट होता है।”

समाचार व्यवसाय का अर्थशास्त्र क्लिक और दर्शकों की संख्या द्वारा संचालित होने वाली चीज़ होती है और यह अक्सर ही आत्महत्या पर की जाने वाली सूक्ष्म रिपोर्टिंग के रास्ते में आती है। तन्मॉय कहते हैं कि “न्यूज़ रूम में सनसनीखेज़ रिपोर्टिंग से आगे बढ़कर काम करने के लिए आवश्यक प्रोत्साहन का स्तर बहुत ही कम होता है।”

3. आत्महत्या को अन्य संरचनात्मक कारकों से जोड़ें

प्रीति कहती हैं कि “अभी जो मैं देखती हूं वह रिपोर्टिंग के समय आत्महत्या का अति-सरलीकरण है। खबरों में सबसे पहले आत्महत्या को मानसिक स्वास्थ्य के मामलों जैसे कि अवसाद या तनाव से जोड़ने का काम किया जाता है। लेकिन आत्महत्या को समझने का यह दृष्टिकोण पश्चिमी देशों से आया है जो भारत के लिए सही नहीं है। यहां आत्महत्या के 50 फ़ीसदी से अधिक मामलों के कारण बीमारी, संबंधों से जुड़े मुद्दे या वित्तीय नुक़सान वगैरह से जुड़े होते हैं। आत्महत्या व्यक्तिगत समस्या नहीं है; यह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक और ऐतिहासिक संदर्भों से जुड़ा मामला होता है और मीडिया को आत्महत्या को इस नज़रिए से समझना शुरू करने की ज़रूरत है।”

यह हमें राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के नवीनतम आंकड़ों में भी देखने को मिलता है जो इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे 2021 में आत्महत्या से होने वाली 50 प्रतिशत से अधिक मौतों के लिए पारिवारिक समस्याओं और बीमारी को जिम्मेदार ठहराया गया था।

और इसलिए, आत्महत्या की खबर पर ज़िम्मेदारी से रिपोर्टिंग करने के लिए यह आवश्यक है कि इसे मानसिक बीमारी से जोड़ने के बजाय इसके परे जाकर देखा जाए। साथ ही उन व्यवस्थात्मक कारकों पर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है जो किसी व्यक्ति के लिए आत्महत्या का कारण बन सकते हैं। विशेष रूप से पिछड़े समुदायों के लिए यह अधिक गम्भीरता से किए जाने की ज़रूरत है। इसके लिए लोगों द्वारा अनुभव किए जाने वाले अलग-अलग तरह के तनावों को समझने की आवश्यकता होगी, न कि केवल आत्महत्या के बारे में बात करने की। उदाहरण के लिए, एक समलैंगिक ट्रांस व्यक्ति की आत्महत्या पर रिपोर्ट करते समय लेख में इस बात की स्वीकृति होनी चाहिए कि इस समुदाय में आत्महत्या की दर बहुत अधिक है। संवाददाताओं को जाकर इस समुदाय के लोगों से बात करनी चाहिए ताकि उन्हें उनके जीवन के वास्तविक अनुभवों की सही तस्वीर मिल सके जिसमें शर्मिंदगी का भाव न हो। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे बड़े नीतिगत बदलावों से जोड़ा जाना चाहिए, जैसे कि शिक्षा और रोजगार में ट्रांस लोगों को शामिल करना।

आत्महत्या से जुड़ी धारणा बदलकर इसे व्यक्तिगत समस्या के रूप में पहचाना जाना चाहिए, इसे संभव बनाने में मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों की एक बड़ी भूमिका होती है।

तन्मॉय के अनुसार जब एक व्यक्तिगत समस्या के रूप में आत्महत्या की धारणा को बदलने की बात आती है तो उसमें मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों, विशेष रूप से मनोचिकित्सकों की बड़ी भूमिका होती है। “मेडिकल प्रोफेशनल्स को अभी भी हमारे समाज में बहुत अधिक सम्मान दिया जाता है। अगर वे इस तथ्य के बारे में बात करना शुरू करते हैं कि आत्महत्याएं सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी नहीं हैं और वे मनो-सामाजिक कारकों के कारण होती हैं, तो शायद समाज इसे अलग तरह से देखना शुरू कर देगा। तब शायद आत्महत्याओं को सनसनीखेज नहीं बनाया जाएगा, और लोगों में इसे लेकर एक बेहतर समझ विकसित होगी। इस समस्या को ठीक करने का काम आप मीडिया से शुरू नहीं कर सकते; आपको इसे ऊपर से शुरू करना होगा। जब तक लोगों में इस बात की स्पष्ट समझ नहीं होगी कि आत्महत्या क्या है, आप उनसे इस पर अलग तरह से रिपोर्टिंग शुरू करने की उम्मीद नहीं कर सकते।”

तन्मॉय आशान्वित होते हुए निष्कर्ष निकालते हैं कि “चीजों के बदलने की गति को देखते हुए निराश होना या नाउम्मीद होना बहुत आसान है। मीडिया उद्योग को अक्सर ही चीजों को सही करने का श्रेय नहीं मिलता है, इसलिए मुझे लगता है कि यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि चीज़ें बदल रही हैं। मुझे इस बात से उम्मीद मिलती है कि हमारे पास प्रोजेक्ट साइरन अवार्ड के लिए पर्याप्त प्रविष्टियां है। कुछ साल पहले की स्थिति ऐसी नहीं थी। हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि यह समस्या कई दशकों से हमारे बीच है इसलिए हमें छोटी-छोटी जीत का भी जश्न मनाना चाहिए।”

स्नेहा फ़िलिप ने इस लेख में अपना योगदान दिया।

यदि आप या आपका कोई परिचित आत्मघाती विचारों से जूझ रहा है, तो सहायता के लिए iCALL (9152987821) या यहां सूचीबद्ध किसी भी हेल्पलाइन पर सम्पर्क किया जा सकता है।

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फ्रंटलाइन कार्यकर्ता भारत के ग्राम्य विकास को दुनिया के लिए एक उदाहरण बना सकते हैं

2020 जैसे क्रूर साल से जुड़ी एक अच्छी बात यह है कि इसने भारत के फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को उनकी बहुप्रतीक्षित पहचान दिलवाई। महामारी के दौरान पूरे समय हमने देखा कि कैसे आशा कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को सुरक्षा उपायों के बारे में बता रहीं थीं। गांवों में रहने वाले कार्यकर्ता सर्वेक्षण कर रहे थे ताकि सबसे कमजोर वर्ग के लोगों की जरूरतों की पहचान की जा सके। ग्राम रोजगार सहायकों ने अपने घर लौटने वाले प्रवासी मजदूरों को उनका रोजगार कार्ड वापस दिलवाने में मदद की ताकि वे नरेगा के अंतर्गत काम कर सकें। इस तरह भारत के ग्रामीण इलाक़ों में इन फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की उपस्थिति पता चलने लगी। हर बार जरूरत पड़ने पर इन्हीं के द्वारा समस्याएं सुलझाए जाने के कारण अंतत: लोगों को भी इनकी कीमत समझ में आने लगी।

महामारी ने इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाया कि विकास कार्यों में भी इन स्थानीय कार्यकर्ताओं को शामिल किया जा सकता है। गांवों के विकास के लिए अब हम शहरी-शिक्षित कामगारों पर ही निर्भर नहीं हैं। ग्रामीण युवा अपनी भूमिकाओं को अच्छी तरह से निभा रहा है। ऐसा होना ग्रामीण भारत के लिए रोजगार का एक नया प्रतिमान को खोलने जैसा है।

भारत के गांवों को ऐसे रोजगारों की जरूरत है जो उनकी जरूरत को पूरा करे

राष्ट्रीय स्तर पर शहरीकरण को वरीयता देने के चलते हम ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रोजगार पैदा करने की जरूरत को नजरअंदाज करने की गलती कर सकते हैं। ग्रामीण भारत शहरों के रहमो-करम पर आर्थिक तरक्की नहीं कर सकता है। यह साफ है कि गांवों में शिक्षा तक बेहतर पहुंच के बाद अनगिनत युवकों और युवतियों ने अपने समुदायों में फ्रंटलाइन वर्कर्स की भूमिका निभाई है।

बड़े पैमाने पर फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को शामिल करने से जल एवं कृषि क्षेत्रों को लाभ मिलेगा।

विडम्बना यह है कि प्रभावी परिणाम देने में सक्षम होने के बावजूद फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को अनौपचारिक और अस्थायी माना जाता है और इन्हें बहुत कम महत्व दिया जाता है। इनके प्रभावी होने का एक उदाहरण भारत के स्वास्थ्य संकेतकों पर आशा कार्यकर्ताओं का असह है। 2005 में आशा को स्वास्थ्य सेवाओं में फ्रंटलाइन कार्यबल का हिस्सा बनाया गया। इसके बाद से मातृ मृत्यु दर में 59.9 प्रतिशत और नवजात बच्चों की मृत्यु दर में 49.2 प्रतिशत की कमी आई है। आशा कार्यकर्ताओं के संरक्षण में देश भर में टीकाकरण की दर 44 प्रतिशत से बढ़कर 62 प्रतिशत पर पहुंच गई है। वहीं संस्थागत प्रसव का प्रतिशत दोगुना होकर 39 प्रतिशत से 78 प्रतिशत पर आ गया है। यह उदाहरण साफ करता है कि अन्य क्षेत्रों में भी फ्रंटलाइन वर्कफोर्स के विकास में नई संभावनाएं हो सकती है। खासकर जल एवं कृषि क्षेत्रों को फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की मजबूत भागीदारी से महत्वपूर्ण रूप से लाभ होगा।

युवा महिलाओं को एक क्षेत्र में प्रशिक्षित किया जा रहा है-ग्रामीण युवा
जल एंव कृषि अधिकारियों का एक राष्ट्रीय स्तर का कार्यबल भारत में कृषि के परिवर्तन का नेतृत्व कर सकता है। | चित्र साभार: हिंदुस्तान यूनीलीवर फ़ाउंडेशन

स्वास्थ्य सेवाओं से परे ग्रामीण कार्यबल की नई पीढ़ी 

खेती-किसानी भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। 2019–20 में कृषि, वानिकी और मछली पकड़ने के क्षेत्रों द्वारा सकल मूल्य वर्धित (ग्रॉस वैल्यू ऐडेड या जीवीए) राशि 19.48 लाख करोड़ रुपए अनुमानित हुई है। हालांकि कृषि के क्षेत्र में नौकरी जैसी व्यवस्था का उपयोग अभी नहीं हो सका है। 

राष्ट्रीय स्तर पर बना जल एवं कृषि अधिकारियों का एक कार्यबल देश में कृषि क्षेत्र में इस परिवर्तन का नेतृत्व कर सकता है। हिंदुस्तान यूनीलीवर फ़ाउंडेशन में अपने काम से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों में हम लोग हाई-स्कूल या स्नातक/डिप्लोमा डिग्री वाले ग्रामीण युवाओं को शामिल करते हैं। थोड़े से प्रशिक्षण के बाद इन लोगों ने ऐसी भूमिकाएं भी निभानी शुरू कर दी हैं जिनके लिए तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता की जरूरत होती है। वे अब कृषि के आधुनिकीकरण, जल संरक्षण के साथ और जलस्रोतों और जंगलों जैसे सार्वजनिक संसाधनों के सुचारु संचालन के लिए स्थानीय रूप से काम करते हैं।
हम इन कामों को ‘अनौपचारिक’ भूमिकाओं की तरह नहीं देखते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाले प्रशिक्षण और मार्गदर्शन के साथ इन कार्यकर्ताओं ने कम समय में आर्थिक विकास और पारिस्थितिकी संरक्षण के काम में योगदान दिया है।1 यहां हम उन भूमिकाओं के बारे में बता रहे हैं जिनका इस्तेमाल हम ग्रामीण-स्तर पर अपनी परियोजनाओं के लिए करते हैं:

1. ग्रामीण भूजल अधिकारी (रुरल ग्राउंड ऑफिसर या आरजीओ)

स्थानीय रूप से इन्हें भूजल जानकार के नाम से जाना जाता है ये अधिकारी पैरा-हाइड्रोजियोलॉजिस्ट्स यानी एक तरह के भू-जलवैज्ञानिक होते हैं। ये भूजल प्रवाह को मापने, पानी की उपस्थिति से पैदा होने वाली खूबियों और जल निकायों में पानी मात्रा तय करने की विशेषज्ञता रखते हैं। आरजीओ आमतौर पर जल स्त्रोतों की सूची तैयार करते हैं, कृषि में इस्तेमाल होने वाले पानी की मात्रा पर नजर रखते हैं, पानी का बजट तैयार करते हैं, कुओं में पानी के स्तर में आने वाले बदलाव पर नजर रखते हैं और आंकड़े तैयार करते हैं। साथ ही ये उपयुक्त कार्रवाई के लिए इन आंकड़ों को किसानों और पंचायतों के साथ साझा करते हैं। कहा जा सकता है कि एक आरजीओ पानी के बजट प्रबंधन में गांव या पंचायत की सहायता करता है। इसके अलावा एक आरजीओ गांव के बढ़ते या घटते जल स्तर की उन वजहों की भी पहचान करता है जो फसलों के चयन या सिंचाई विधियों से प्रभावित होती हैं।

आरजीओ द्वारा पैदा किए गए प्रभाव संभावित रूप से भारत को बड़े पैमाने पर जल सुरक्षा को हासिल करने में मददगार साबित हो सकते हैं। गुजरात के मेहसाणा और सबरकांथा जिलों के 21 गांवों में आरजीओ के एक समूह ने प्रति वर्ष 15 बिलियन लीटर (1500 करोड़ लीटर) पानी की बचत की। इतना पानी दोनों जिलों में रहने वाले लगभग 85 लाख लोगों के एक साल के पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होगा।

2. कृषि विकास अधिकारी (एग्रीकल्चर डेवलपमेंट ऑफिसर या एडीओ)

इन्हें कृषि मित्र या कम्यूनिटी रिसोर्स प्रोफेशनल्स के नाम से भी जाना जाता है। एडीओ कृषि विज्ञान और प्रगतिशील कृषि पद्धतियों में प्रशिक्षित पेशेवर होते हैं जो फील्ड में काम करते हैं। ये आमतौर पर खेतिहर परिवारों से आते हैं और अपने गांवों में किसानों के लिए परामर्शदाता (गो-टू एडवाइजर्स) के रूप में काम करते हैं। एडीओ लागत को कम करने, कीटों के प्रकोप को रोकने, पानी की उचित मात्रा के उपयोग और पैदावार में सुधार के तरीकों के बारे में बताते हैं। ये अपनी सेवाओं का प्रचार-प्रसार गांव में होने वाली बैठकों, ऑडियो-वीडियो कार्यक्रम और खेतों में किए जाने वाले नमूना प्रदर्शन के जरिए करते हैं। एडीओ उपयुक्त सलाह, मशीन और अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों के लिए विश्वसनीय स्त्रोतों तक पहुंचने में भी किसानों की मदद करते हैं।  

उत्तर प्रदेश में एडीओ के केवल महिला सदस्यों वाले एक समूह ने अपने गांवों के 75 प्रतिशत किसानों को प्रगतिशील कृषि पद्धति अपनाने में मदद की है। ये स्थानीय ‘फसल डॉक्टर’ के रूप में काम करते हैं जो समस्या का निदान करते हैं और स्वस्थ फसलों को बढ़ावा देते हैं। प्रत्येक एडीओ अपने गांव के लगभग 200 किसानों की सहायता करती है। इनके प्रयासों के चलते एक साल में लागत में आई कमी और बेहतर फसल के कारण किसानों की आय 21 प्रतिशत बढ़ गई। इससे उनके गांव की प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट या जीडीपी) में आठ प्रतिशत की वृद्धि हुई है— ऐसा योगदान शहरी या ग्रामीण किसी भी तरह के रोजगार के लिए अप्रत्याशित बात है।

3. ग्राम रोजगार सहायक (जीआरएस)

इन पेशेवरों को गांव की ग्राम पंचायतें नरेगा कामों के कार्यान्वयन में सहायता देने के लिए नियुक्त करती हैं। ये तकनीकी और गैर-तकनीकी दोनों ही प्रकार के नरेगा कर्मचारियों के साथ मिलकर पंचायत स्तर पर काम पर नजर रखते हैं। जीआरएस अपनी पंचायतों के लिए वार्षिक विकास योजनाओं को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे गांव के विकास कार्यों की वरीयता सूची बनाते हैं, सामग्री और मजदूरी की लागत का अंदाजा लगाते हैं, रोजगार कार्ड देते हैं और बुनियादी ढांचों के कामों और दिहाड़ी के लेन-देन प्रक्रिया को देखते हैं। इनका काम बहुत हद तक शहरी इलाकों में हो रहे निर्माण कार्यों के मैनेजर जैसा होता है। उनकी तरह ये भी नरेगा गतिविधियों की योजना बनाते हैं, उनका समय निर्धारित करने हैं और अपनी देखरेख में उन्हें पूरा करवाते हैं।

राजस्थान और कर्नाटक में जल संचयन और मृदा संरक्षण आधारित हमारे कार्यक्रमों के माध्यम से एक वर्ष में 5.5 करोड़ रुपए का रोजगार पैदा हुआ। प्रत्येक जीआरएस ने अपने ग्राम पंचायत में अतिरिक्त 1,902 व्यक्ति दिवस (एक व्यक्ति दिवस यानी एक व्यक्ति को मिला एक दिन का काम) का रोजगार और 3.36 लाख की आमदनी पैदा की है। पांच वर्षों में उनकी संबंधित ग्राम पंचायतों में अतिरिक्त मजदूरी की यह राशि 33 करोड़ रुपए की हो गई। 

अधिक क्षमता, कम औपचारिकता

हमने फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं का प्रभाव देखा है। कल्पना कीजिये कि भारत के लिए इसका क्या अर्थ हो सकता है अगर इस तबके को एक ठोस शकल और बढ़ावा दिया जाए।

आर्थिक विकास

पूर्वी उत्तर प्रदेश के हमारे कार्यक्रम में, एडीओ ने 2018–19 में अपने गांव की जीडीपी में औसतन आठ प्रतिशत का योगदान दिया, जबकि सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वालों (शीर्ष 10) का योगदान स्थानीय जीडीपी में 16 प्रतिशत तक का रहा। अगर भारत के 6.5 लाख गांवों में प्रत्येक में एक प्रशिक्षित एडीओ हो तो हमारे ग्राम्य विकास की कहानी एक उदाहरण के रूप में पेश की जा सकेगी।

पारिस्थितिकी सुरक्षा

2017-19 के दौरान आरजीओ ने गुजरात में 27 गांवों के 234 कुओं में से 47 प्रतिशत कुओं के भूमि जलस्तर को बेहतर करने में मदद की थी। उत्तर प्रदेश में एडीओ ने 46 गांवों में मुख्य फसलों जैसे धान (34 प्रतिशत), गेहूं (25 प्रतिशत) गन्ना (15 प्रतिशत) के लिए पानी की खपत में कमी लाने का काम किया है। इससे एक साल में 9.5 बिलियन लीटर (950 करोड़ लीटर) पानी की बचत हुई है।

सामाजिक समानता

हमारे कार्यक्रम में 70 प्रतिशत फ्रंटलाइन कार्यकर्ता महिलाएं हैं। जैसे-जैसे वे अपने गांवों में बदलाव लाने वालों की तरह पहचानी जाने लगी हैं, वैसे-वैसे वे पितृसत्तात्मक बाधाओं को दूर करने में सक्षम होती जा रही हैं। महिलाओं की नई पीढ़ी अपने गांवों में कार्यबल में शामिल होने के लिए तैयार हैं। यह रोजगार के माध्यम से ग्रामीण युवाओं को सशक्त बनाने वाली एक ज़रूरी बात है। 

अपने अनुभवों में हमने पाया कि अगर ग्रामीण भारत में एक ऐसा कार्यबल तैयार किया जाए जो कृषि के आधुनिकीकरण और जल संरक्षण के लिए जरूरी उपयुक्त कौशल सीख सके तो यह बड़ा असर छोड़ सकता है।
फिर भी इन भूमिकाओं को अभी भी अनौपचारिक रखा गया है। ग्रामीण युवा एक कीमती संसाधन हो सकते हैं और हमें उन्हें इसी रूप में देखना चाहिए। पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक 21 वर्षीय महिला से जब यह पूछा गया कि उसने एडीओ बनने का चुनाव क्यों किया तो उसका कहना था कि, ‘मैं अपने गांव की दिशा और दशा बदलना चाहती हूं।’ उसकी प्रेरणा बस एक नौकरी पा जाने भर से परे थी और अब समय आ गया है कि हम उसके जैसे लाखों लोगों की प्रतिभा को उभारने का काम करें।

फुटनोट:

  1. यहाँ दिया गया प्रभावी आंकड़ा एचयूएफ़ के कार्यक्रमों से मिलने वाले इनपुट डाटा पर आधारित है। यह इनपुट डाटा एक आश्वासन प्रक्रिया के माध्यम से स्वतंत्र रूप से ई&वाई द्वारा सत्यापित किया गया है। इन कार्यक्रमों और इनके प्रभावों के बारे में अधिक जानने के लिए लेखकों से [email protected] पर संपर्क करें। 

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एक चुनौतीपूर्ण राह: जेंडर प्रोग्रामिंग से मिलने वाली प्रतिक्रिया से निपटना

हम लोगों ने 2012 में मुंबई की एक बड़ी अनौपचारिक बस्ती डोंबिवली में काम करना शुरू किया। वाचा किशोर लड़कियों को उनके अपने जीवन के साथ-साथ उनके समुदायों के जीवन में बदलाव लाने के लिए सशक्त बनाने में विश्वास रखता हैं।  और इसलिए हमारा कार्यक्रम लड़कियों को अपने मन की बात कहने में सक्षम बनाने पर केंद्रित होता है—हम एजेंसी के निर्माण के लिए कौशल-आधारित प्रशिक्षण देते हैं और लड़कियों का समर्थन करते हैं ताकि वे स्थानीय मुद्दों से जुड़े प्रोजेक्ट पर काम कर सकें। इस प्रक्रिया के माध्यम से लड़कियां अपने भीतर लोच विकसित करती हैं। हालांकि वे यह भी समझती हैं कि परिवर्तन धीरे-धीरे आएगा और ऐसा करने से उन्हें समुदाय के लोगों की प्रतिक्रियाओं का सामना भी करना होगा।

इसलिए किसी नए इलाक़े में जाते ही हम आंगनबाड़ी केंद्र जैसे सार्वजनिक जगहों के इस्तेमाल के लिए स्थानीय राजनेताओं से अनुमति लेते हैं। डोंबिवली में हमें यह अनुमति मिल गई थी और लड़कियों ने यह तय किया कि उनके समुदाय का प्रोजेक्ट इलाक़े के शौचालयों की जांच और उनकी स्थिति पर काम करेगा। इलाक़े की 5,000 लड़कियों और औरतों के लिए केवल चार शौचालय थे और वे भी उपयोग लायक़ नहीं थे। उन शौचालयों में दरवाज़ों की जगह पर्दे लगे थे, खिड़कियां टूटी हुई थीं, कूड़ेदान नहीं थे, न तो पानी के लिए नल था और न ही रौशनी के लिए ट्यूबलाइट या बल्ब।

लड़कियों ने 100 घरों का सर्वे करने की योजना बनाई थी लेकिन 60 लोगों के इंटरव्यू के बाद ही स्थानीय नेताओं को उनके इस प्रोजेक्ट के बारे में मालूम चल गया और उन्होंने इसे बंद करवा दिया। उन्हें इस बात की चिंता था कि इससे उनके इलाक़े की कमियां सार्वजनिक हो जाएंगी और उनकी वास्तविकता सबके सामने आ जाएगी। हमें धमकी दी गई कि हम अपना काम बंद कर दें और स्थानीय सार्वजनिक जगह के इस्तेमाल की हमारी अनुमति को भी रद्द कर दिया गया। फिर इन लड़कियों के समर्थन की एक धीमी प्रक्रिया की शुरुआत हुई। वहीं स्थानीय नेताओं की भावनाओं का ख़्याल भी रखा गया और सुनिश्चित किया गया कि भविष्य में वे न भड़कें। एक स्वयंसेवी संस्था के रूप में अक्सर हमारी स्थिति एक तनी रस्सी पर चलने जैसी हो जाती है। हम अक्सर लड़कियों को अपनी एजेंसी का प्रयोग करने में मदद करने, अपरिहार्य प्रतिक्रिया से निपटने और काम की शुरुआत में हमारी मदद करने वाले स्थानीय अधिकारियों को प्रबंधित करने के बीच फंसे होते हैं।

हालांकि इस मामले में हमने अपनी परियोजना के काम को अस्थाई रूप से रोक दिया लेकिन लड़कियों की मांओं को इसके बारे में पता चला और उन्होंने इसे आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया। उन्हें समर्थन देने के लिए हमने उनके साथ कई बैठकें की लेकिन इस बार हम सामने से शामिल नहीं हो सके थे। हमने लड़कियों को शौचालयों की स्थिति और कम उपयोग किए गए बजट पर डेटा प्राप्त करने के लिए आरटीआई दायर करने में मदद की। अंतत: कल्याण डोंबिवली नगर निगम से सम्पर्क साधकर लड़कियों ने शौचालय बनवाया। इस पूरी प्रक्रिया में तीन से चार साल का समय लगा क्योंकि हमें स्थिति को इस तरह से सावधानी पूर्वक सम्भालना था ताकि हमें अपना काम रोकना न पड़ जाए। ऐसा नहीं करने से हम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते। यह कुछ ऐसा है जो हमें किसी भी समुदाय के साथ काम करते समय ध्यान में रखना पड़ता है। क्योंकि बदलते लिंग मानदंडों से सम्भावित नतीजों को सही दिशा में आगे ले जाना और यथास्थिति को चुनौती देना ज़्यादातर स्वयंसेवी संस्थाओं के काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। 

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अधिक जानें: जानें कि लैंगिक भेदभाव को दूर करने के लिए काम करने वाले संगठनों को अक्सर समुदायों के भीतर प्रतिरोध का सामना कैसे करना पड़ता है, और इससे निपटने के लिए वे क्या कर सकते हैं।

अधिक करें: स्टेफी फर्नांडो से [email protected] पर और यगना परमार से [email protected] पर सम्पर्क कर उनके काम के बारे में विस्तार से जानें और उन्हें समर्थन दें।

सामाजिक बदलाव के लिए ज़मीनी अनुभवों से सीखना

सुजाता खांडेकर, कम्यूनिटी ऑफ़ रिसोर्स ऑर्गनाइज़ेशन (कोरो) की संस्थापक निदेशक हैं। कोरो देश में ज़मीनी स्तर पर लीडरशिप और एक्टिविज्म के क्षेत्र में काम करने वाले अग्रणी संगठनों में से एक है। सुजाता और कोरो का मुख्य उद्देश्य समुदायों को ज़मीनी स्तर के नेतृत्व की सुविधा उपलब्ध करवाना है जिससे वे अपने मुद्दों की पहचान कर खुद उनके हल निकाल सकें। पिछले तीन दशकों में सुजाता के काम ने उन्हें शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में जमीनी स्तर की महिलाओं के सशक्तिकरण के बारे में विस्तार से जानने के लिए प्रेरित किया है। उनकी पीएचडी थीसस ‘मीनिंग्स ऑफ़ वीमेन्स एमपावर्मेंट’ का मूल विषय भी यही है। इस थीसस पर उनके साथ सात अन्य सह-शोधार्थियों ने भी काम किया है। 

आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में सुजाता ने सामाजिक परिवर्तन के लिए कार्यक्रमों को डिज़ाइन करते समय ज़मीनी समुदायों के ज्ञान और जीवन अनुभव को शामिल करने के महत्व पर बात की है। साथ ही, वे यह भी बताती हैं कि कैसे समुदायों के साथ संवाद और सामूहिक ज्ञान निर्माण आगे बढ़ने का सही तरीक़ा है।

सुजाता खांडेकर-प्रोफ़ायल फ़ोटो
चित्र साभार: कोरो
आपने जमीनी स्तर से सामुदायिक समझ बनाने की आवश्यकता के बारे में बात की है। क्या आप इस बारे में बता सकती हैं कि यह विचार कैसे आया और क्यों?

मुझे लगता है कि जमीनी स्तर से सामुदायिक समझ बनाने की ज़रूरत का यह अहसास तीन दशकों में कोरो के काम से हासिल हुए अनुभवों का नतीजा है। 1989 में, अपनी स्थापना के समय से ही कोरो भारत के चंद सबसे पिछड़े समुदायों के साथ काम कर रहा है। समय के साथ यह एक संगठन के रूप में विकसित हुआ है जो ज़मीन पर मजबूत है औऱ जिसका नेतृत्व, आकार और प्रबंधन जमीनी समुदायों द्वारा किया जाता है। मैं आउट्लाइअर हूं यानी एक आउटसाइडर (क्योंकि मेरी सोशल लोकेशन उन कई लोगों से अलग है जो कोरो का हिस्सा हैं) और इनसाइडर दोनों हूं क्योंकि संगठन में होने वाली हर चीज में मेरी भागीदारी सौ प्रतिशत होती है।

वर्षों से मैंने देखा है कि जमीनी स्तर के लोगों को लगभग हमेशा ही ‘लाभार्थियों’ के रूप में देखा जाता रहा है। अपने काम से मैंने जाना कि इन समुदाय के लोगों में कितना असीमित ज्ञान, बुद्धि, ऊर्जा, एक्टिविज्म और नेतृत्व जैसा सब कुछ मौजूद है। कई संगठनों या शैक्षणिक संस्थानों में ये समुदाय शोध, कार्यक्रमों के डिज़ाइन और क्रियान्वयन और डेटा के संग्रहण और विश्लेषण जैसे कामों में शामिल हो सकते हैं। लेकिन बात जब ज्ञान निर्माण की आती है तब संस्थानों और समुदाय के बीच के रिश्ते में अब भी एक स्पष्ट क्रम देखने को मिलता है। 

हमें ज़मीनी स्तर के लोगों को अलग नज़रिए से देखने की ज़रूरत है ताकि हम उन्हें नेता और ज्ञान निर्माता के रुप में देख सकें।

हम अक्सर ही ऐसा सोचते हैं कि अंग्रेज़ी बोलने वाले या कॉलेज की डिग्री हासिल करने वाले लोगों के पास ही सारा ज्ञान है। इस पूर्वाग्रह के कारण विभिन्न समुदायों के सदस्य शोध या प्रोग्रामिंग के लिए केवल एक आंकड़ा भर बन कर रह जाते हैं। लेकिन देखने का यह नज़रिया दूरदर्शी नहीं है क्योंकि भारत विविधताओं वाला एक देश है। यहां विविध अनुभव, दृष्टिकोण और बारीकियां हैं और सभी समान रूप से सही और जरूरी हैं। इसके अलावा पिछड़ी पृष्ठभूमि के लोगों को एक के बाद एक संघर्षों का सामना करना पड़ता है और उनका यही जीवंत अनुभव उन्हें एक खास भीतरी नजर और ज्ञान प्रदान करता है।

जमीनी स्तर के ज्ञान को पहचानने और उससे सीखने के महत्व के इस एहसास के बाद ही मुझे लगा कि एक आदर्श बदलाव की आवश्यकता है। हमें ज़मीनी स्तर के लोगों को अलग नज़रिए देखने की ज़रूरत है ताकि हम उन्हें नेता और समझ बनाने वालों के रुप में देख सकें। नेतृत्व का अर्थ केवल एक्टिविज्म में नेतृत्व से नहीं है; ज़मीनी स्तर के ज्ञान निर्माण और उस ज्ञान के लागू करने में भी नेतृत्व की ज़रूरत होती है। 

और अंतत: यह ज्ञान निर्माण की राजनीति पर आधारित होता है। इसका संबंध कुछ इस तरह की बातों से है कि कौन भरोसेमंद है, किस पर भरोसा किया गया है और क्यों, और ‘किसे’ ज्ञान माना जाता है और क्यों।

लेकिन हम इसे संभव कैसे बना सकते हैं? पिछले कुछ समय से एक पॉवर डायनैमिक प्रभावी रही है। आप उन लोगों की मान्यताओं के बारे में जो कुछ भी कह रही हैं, जिनके बारे में ज्ञान अधिक ‘महत्वपूर्ण’ है – हम इसे दोनों तरफ से कैसे बदल सकते हैं? समुदाय अपने स्वयं के ज्ञान को कैसे महत्व देता है, और ‘आउटसाइडर्स’, जैसा कि आप इन्हें कहती हैं, अपने ज्ञान को हमारे सोचने और होने के तरीकों में कैसे शामिल करें?

आपने दोनों सिरों पर बदलाव को सुविधाजनक बनाने का सही उल्लेख किया है। दुर्भाग्य से, अक्सर जमीनी स्तर पर काम करने वाले अच्छे-खासे अनुभवी लोग भी खुद को ज्ञान निर्माता नहीं मान पाते हैं। इस ‘सक्रिय’ जागरूकता (जो काम करने से बढ़ती है) को जमीनी स्तर पर भी सुविधा प्रदान करने की ज़रूरत होती है। सामूहिक कार्रवाई आवश्यक है क्योंकि व्यक्ति अपने दम पर खुद को मुखर करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं, विशेष रूप से तब जब ऐसा करना ज्ञान निर्माण के लोकप्रिय और स्वीकृत तरीकों से उलट हो। इसलिए, शुरुआत में यह महत्वपूर्ण होगा कि समुदाय से परे दूसरों के साथ ज्ञान का सह-निर्माण किया जाए, ताकि जमीनी ज्ञान को महत्व दिया जा सके और इसे बाहरी दुनिया के साथ साझा किया जा सके।

नारेबाज़ी करती महिलाएं -महिला सशक्तिकरण
एक समाज के रूप में, हमें अपनी सोच और कार्य में जमीनी स्तर के ज्ञान और अनुभव को शामिल कर सकने योग्य बनने की आवश्यकता है। | चित्र साभार: फ़्लिकर

मैं आपको एक उदाहरण देती हूं। साल 2019 में मैं महिला सशक्तिकरण से जुड़े एक विषय पर अपनी पीएचडी पूरी करने वाली थी। मैं सशक्तिकरण के उन विभिन्न स्वरूपों के बारे में जानना चाहती थी जो सम्भव हो सकते थे। साथ ही मैं यह भी जानना चाहती थी कि महिलाएं अपने सशक्तिकरण को कैसे समझती हैं और विभिन्न सामाजिक संदर्भों से आने वाली महिलाओं के लिए इसका क्या अर्थ हो सकता है। मेरी इच्छा थी कि मैं इस काम में ज़मीनी स्तर की महिलाओं को भी शामिल करुं और उसके बाद सामूहिक रुप से ज्ञान का निर्माण करना चाहती थी। मैं चाहती थी कि वे अपने जिए हुए अनुभव बांटें – ताकि हम एक साथ मिलकर सोचें और उनके अर्थ निकालें – हमें एक ग़ैर-क्रमिक, गैर-न्यायिक, गैर-खतरे वाले वातावरण की आवश्यकता थी। मैंने जिस शोध पद्धति का अनुसरण किया उसका नाम ‘फ़ेमिनिस्ट कॉपरेटिव इंक्वायरी’ है। इसमें प्रतिभागी सह-शोधकर्ता हैं और अनुसंधान के सभी चरणों में निर्णय लेने में शामिल हैं।

मैं इस शोध में प्रमुख शोधकर्ता (रिसर्च फैसिलिटेटर) भी थी और इसका विषय भी। शोध में मेरे को-रिसर्चर कोरो के मेरे मित्र और सहकर्मी थे जिनमें से कुछ को मैं दो दशकों से जानती थी। द्वारका, पारधी नाम की एक ग़ैर-अधिसूचित जनजाति से हैं। इस जनजाति से जुड़ी कई बातों के चलते उन्हें आज भी लोगों के बुरे बर्ताव का सामना करना पड़ता है। मुमताज़ और अनवरी कम-आय वाले शहरी समुदायों की मुसलमान हैं; शीला, अनीता और विनया शहरी और ग्रामीण इलाक़ों के दलित समुदायों से आती हैं; पल्लवी एक कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाली मराठा है; और मैं एक ब्राह्मण हूं जिसे जीवन में कई तरह के विशेषाधिकार प्राप्त हैं। आठ सह-शोधार्थियों में से पांच शोधार्थी या तो निरक्षर हैं या फिर उन्होंने नौवीं कक्षा तक की पढ़ाई की है। हम सभी का सामाजिक स्थान अलग-अलग है और हमारी अपनी समस्याएं हैं। हम सभी इस शोध प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में शामिल थे (थीसिस के लेखन को छोड़कर जो मैंने अंग्रेजी के अपने ज्ञान के कारण अकेले किया था)।

अध्ययन के दौरान हमने एक दूसरे के साथ अपने जीवन की घटनाओं को बांटा। मैंने उनमें से प्रत्येक के साथ सात या आठ घंटे तक बातचीत की। फिर उन सभी सातों ने हमारी बातचीत की प्रक्रिया के दौरान विकसित और तय दिशा-निर्देशों के अनुसार मेरे साथ बातचीत की। हम छः दिनों तक एक साथ रहे और इस बात का विश्लेषण किया कि हमने क्या साझा किया था और कुछ चीज़ें क्यों घटित हुई थीं।

इस दौरान मैंने संवाद और सह-रचनात्मकता की शक्ति को समझा। मुझे याद है कि मैंने अपने सह-शोधार्थियों के साथ अपने जीवन की कहानी बांटी थी। मेरी कहानी सुन कर अनवरी ने कहा था कि उसका जीवन मेरे जीवन से कितना अलग था क्योंकि उसे कभी स्कूल जाने की अनुमति थी ही नहीं। उसने कहा कि “आपके बचपन की सभी कहानियां शिक्षा और स्कूल से जुड़ी हुई हैं; आपके बचपन की सभी कहानियां आपके स्कूल के शिक्षकों और शिक्षा के दौरान आपके माता-पिता के साथ के बारे में बताती है। मैं इस बात से बहुत परेशान हूं कि हम एक दूसरे से बहुत अलग हैं।” अनवरी कभी स्कूल नहीं गई थी इसलिए उसका बचपन मेरे बचपन से बहुत अलग लग रहा था। 

जीवन के सभी पहलुओं में जमीनी स्तर के अनुभव और ज्ञान की मान्यता और सम्मान होना चाहिए।

मेरी पारधी सहयोगी द्वारका ने बताया कि उसे लगता था कि केवल उसके समुदाय ने दुख सहा है। उसने कहा “जब आप बोल रही थीं तब मुझे एहसास हुआ कि ब्राह्मण या आदिवासी सभी को दुख झेलना पड़ता है।” ये संवाद हमारे बीच की समानताओं को खोजने के लिए नहीं किए गए थे। इनका अर्थ हमारी विविधताओं का सम्मान करना और अपने अनुभव के अंतरों को समझने के साथ ही समान परिस्थितियों के बारे में जानना था। यह इस प्रकार की बातचीत थी जिसके कारण अंतर्विरोध और सशक्तिकरण की हमारी समझ विकसित हुई। यह सब इसलिए संभव हुआ क्योंकि हमने इस अध्ययन के लिए एक साथ ज्ञान का निर्माण करने का निर्णय लिया।

मेरा मानना है कि जब लोगों को पता चलता है कि वे दूसरों से अलग क्यों हैं या वे अपने जीवन के सफ़र में इतनी अलग जगहों या मोड़ पर क्यों हैं तो यह बहुत उम्मीद देने वाला होता है। 

बात यह है कि जीवन के सभी पहलुओं में जमीनी स्तर के अनुभव और ज्ञान को मान्यता मिलनी चाहिए और उसका सम्मान होना चाहिए। ज़मीनी स्तर के ज्ञान और मूल्यों की पहचान के लिए हमें खुद को कोरो या ऐसे किसी अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं तक सीमित नहीं कर लेना चाहिए। एक समाज के रूप में हमें ज़मीनी स्तर के ज्ञान और अनुभवों की अपनी सोच और काम में शामिल करने लायक बनने की आवश्यकता है। मैं जिस सवाल का जवाब देने की कोशिश कर रही हूं वह यह है: हम वहां तक कैसे पहुंचते हैं? क्या संतुलित और समान विकास को हासिल करने के लिए यह एक सामाजिक ज़रूरत बन सकता है?

आपको क्या लगता है कि यह सामाजिक स्तर पर कैसे हो सकता है?

1. यह केवल संवाद करने, बांटने और सीखने के माध्यम से हो सकता है।

हर मनुष्य और उसका सामाजिक परिवेश अलग-अलग होता है। इसलिए, सामाजिक परिवर्तन के लिए डिजाइनिंग भी एक जटिल प्रक्रिया होगी। इन परिवेशों और जटिलताओं को समझने के लिए हमें समुदायों के साथ मिलकर समाधान तैयार करने की आवश्यकता है। आज हम में से अधिकांश लोग साइलो या विभाजित तरीक़े से काम करते हैं। इसी स्थिति में संवाद की ज़रूरत पैदा होती है क्योंकि इसमें सीमाओं को समाप्त करने की क्षमता होती है। संवाद की पूरी प्रक्रिया उथल-पुथल वाली होती है लेकिन इससे होने वाले फ़ायदे के सामने इसकी असहजता को नज़रअन्दाज़ किया जा सकता है।

2. हमें अपनी मानसिकता को बदलने की ज़रूरत है

इस पूरी यात्रा का संबंध सह-यात्रा, पारस्परिक साझाकरण और सीखने से है। एक समाज के रूप में हमें यह समझने की ज़रूरत है कि आखिरकार हम सभी की स्थिति एक जैसी ही है। “हम” और “उन” के बीच यह झूठा भेदभाव करते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि हम जितना समझते हैं, उससे कहीं ज्यादा हम एक दूसरे के जैसे हैं।

हमें इन सीमित करने वाले विचारों से निकलने और उनसे परे देखने की ज़रूरत है जिसके कारण हमें यह लगता है कि ज़मीनी स्तर पर जी रहे लोगों को “हमारी ज़रूरत है”। समान स्तर पर आकर उनके साथ जुड़ने के बाद ही हमें इस बात का अहसास होगा कि हम लोग उनसे भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।

3. हमें अपने जिए हुए अनुभवों के ज्ञान को महत्व देना चाहिए

समुदायों को अवधारणा से लेकर निष्पादन तक, सामाजिक परिवर्तन के तरीक़े तय करने की प्रक्रिया का हिस्सा बनने की आवश्यकता है। हालांकि सोशल सेक्टर में स्वयंसेवी संस्थाओं और समुदायों के बीच का संबंध बराबरी का नहीं होता है, खासकर जब बदलाव लाने के लिए ज्ञान के निर्माण की बात आती है।

लेकिन क्या होगा अगर हम समुदायों को देखने के तरीके को बदल दें और उन्हें ज्ञान निर्माता के रूप में भी देखें? क्या होगा अगर उन्हें सिखाने की बजाय, हम उनके साथ उनके सामाजिक संदर्भ, उनकी जीवन की वास्तविकताओं, उनके जीवन संघर्षों और उनकी सीखों के आधार पर सह-निर्माण करें? क्या होगा यदि हम ज्ञान के निर्माण और समाधानों पर सामूहिक रूप से काम करें? हमारे क्षेत्र में समुदायों की सेवा का इरादा रखने वाली इकाइयों को समुदायों और संगठनों के बीच शक्ति के असंतुलित विभाजन को ठीक करने की ज़रूरत है।

ज्ञान औपचारिक डिग्री से परे है।

दूसरा, ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया का संबंध अकादमिक जगत से है और शिक्षाविदों को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए कि इस ज्ञान को कैसे महत्व देना है। मैं काफ़ी लम्बे समय से यह मानती आई हूं कि ज्ञान औपचारिक डिग्री से परे है। फिर भी अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों को कागज़ी योग्यता की ज़रूरत होती है और वे सामग्री और विषय से ज़्यादा अकादमिक भाषा और प्रस्तुति को महत्व देते हैं।

नए ज्ञान को उजागर करने में मदद करने के लिए शिक्षाविदों की भूमिका महत्वपूर्ण है। विशेष रूप से जमीनी स्तर के समुदायों से जिनके अनुभव कई मुद्दों पर समकालीन बहस के लिए बहुत अच्छे से भीतरी नज़र का काम कर सकते हैं। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अकादमिक संस्थानों की अपनी साख और विश्वसनीयता है और समाज में ज़मीनी स्तर के ज्ञान की महत्ता में बदलाव ला सकता है। संस्थानों को डिग्रियों से परे देखना चाहिए और ऐसे कार्यक्रम तैयार करने चाहिए जिसमें इस तरह के ज्ञान को सबके सामने लाने में मदद मिल सके। समय के साथ लगातार ऐसा करने से ‘औपचारिक रूप से शिक्षित’ और जमीनी स्तर के समुदायों के बीच ज्ञान निर्माण में उपस्थित पावर डायनमिक्स की असमानता को दूर करने में मदद मिलेगी। यदि हम चाहते हैं कि वास्तविक सामाजिक परिवर्तन हो तो हमें जमीनी स्तर से सीखने की इस प्रक्रिया को शुरू करना होगा। हम अब और इंतजार नहीं कर सकते।

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लड़कों और पुरुषों के साथ लैंगिक बराबरी पर काम करने के लिए एक गाइड

1990 के दशक के आरम्भ से ही पुरुषों के साथ मिलकर काम करने वाले जेंडर प्रोग्राम्स (लैंगिक बराबरी अभियानों) की शुरुआत हो चुकी थी। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर ‘मेल इंगेजमेंट’ यानी पुरुषों की भागीदारी वाले शुरूआती कार्यक्रमों का उद्देश्य महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा (वायलेन्स अगेन्स्ट वीमेन एंड गर्ल्स – वीएडबल्यूजी) के मुद्दे पर बात करना था। जैसा कि इस रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा के अधिकांश अपराधी पुरुष होते हैं और इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात भी नहीं है। फिर भी, जब लैंगिक मुद्दों की बात आती है तब पुरुषों के साथ काम करने का महत्व हिंसा पर संवाद करने से कहीं अधिक होता है।

‘मेल इंगेजमेंट’ प्रोग्राम्स, वे विशेष कार्यक्रम हैं जो लैंगिक समानता के लिए पुरुषों और लड़कों के साथ मिलकर काम करते हैं। (मेल इंगेजमेंट और इससे जुड़ी शब्दावली की औपचारिक परिभाषा के लिए यहां देखें।) लैंगिक बराबरी के मुद्दों पर पुरुषों और लड़कों को शामिल करने के कई लाभ हैं। इसका एक उदाहरण यह है कि बेहतर लैंगिक बराबरी वाले समाज में पुरुषों के अवसाद में जाने, आत्महत्या करने या हिंसा का शिकार होने की घटनाएं कम देखने को मिलती हैं। इसके साथ ही, लैंगिक बराबरी वाले देशों के किशोरों में साइकोसोमैटिक (मनोदैहिक) शिकायतें कम होती हैं।1

2019 में रोहिणी निलेकनी फ़िलांथ्रपीज (आरएनपी) ने पुरुष भागीदारी वाले कार्यक्रमों (स्वयंसेवी संस्थाओं के दृष्टिकोण से जो इन कार्यक्रमों का संचालन भी करते हैं और इसके प्रतिभागी भी होते हैं।) और उनके अनपेक्षित परिणामों के लाभों को समझने के लिए एक अध्ययन शुरू किया था। इस अध्ययन में तीन साल तक भारत में, आरएनपी द्वारा चलाए जा रहे मेल इंगेजमेंट कार्यक्रमों पर पहले और दूसरे दर्जे का शोध करना शामिल था। 2019 में यह शोध आठ कार्यक्रमों के साथ शुरू हुआ था और 2020 में 10 तक पहुंच गया।2 थ्योरी ऑफ चेंज वर्कशॉप के अलावा प्राथमिक शोध के अन्य तरीक़ों में प्रतिभागियों और उनके परिवार की महिला सदस्यों या दोस्तों के साथ इंटरव्यू और ग्रुप डिस्कशन शामिल थे।

इस लेख में बताई गई बातें, अनुभव और शोध पर आधारित हैं। साथ ही, इसका उद्देश्य शोध की टिप्पणियों के साथ-साथ उन विचारों को भी उजागर करना है जो मेल इंगेजमेंट प्रोग्रामिंग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं। समाधान बताने के बजाय यह लेख अधिक से अधिक संगठनों को मेल इंगेजमेंट के क्षेत्र में आने और इस पर संवाद करने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसा करने के लिए उन्हें शोध और व्यवहार दोनों से ही मिली सूचना देने की भी बात करता है।

युवा लड़कों का समूह-महिला हिंसा
जहां एक तरफ़ पुरुषों के साथ काम करने के लाभ स्पष्ट हैं वहीं जब लैंगिक बराबरी की बात आती है तो कम उमर से ही साथ काम करने की ज़रूरत बढ़ती नज़र आ रही है। | चित्र साभार: एफ फ़ियोनडेला (आईआरआई/सीसीएएफ़एस)/सीसी बीवाई

साक्ष्यों को देखें और उसके अनुसार प्रोग्रामिंग तय करें

साक्ष्य बताते हैं कि मातृत्व और नवजात स्वास्थ्य से संबंधित सेवाओं में पिता को शामिल करने से गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के लिए काम के बोझ को कम करने में मदद मिलती है। इसके अलावा, ऐसा करने से महिलाओं को अधिक भावनात्मक सहयोग मिल पाता है और बच्चे के जन्म की तैयारी और प्रसव के बाद की देखभाल की स्थिति में सुधार हो सकता है।

इसलिए पहले से मौजूद साक्ष्यों के आधार पर अपने कार्यक्रमों को तय करने की इच्छा रखने वाले, दानदाताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं को इस तरह के सुझावों को ध्यान में रखना चाहिए। अन्य क्षेत्रों में, जहां प्रमाण कम उपलब्ध हैं वहां प्रोग्रामिंग और फ़ंडिंग को इस तरह तैयार किया जाना चाहिए कि सीखने और बदलाव लाने की गतिविधियों को तेज़ी से किया जा सके।

मेल इंगेजमेंट के विषय पर काम करते समय विभिन्न आयु वर्गों के साथ मिलकर काम करना और प्रोग्रामिंग को उसके अनुसार तय करना महत्वपूर्ण होता है

जब लैंगिक बराबरी की बात आती है तब पुरुषों (विशेष रूप से पिताओं) के साथ मिलकर काम करने के फ़ायदे स्पष्ट हैं लेकिन स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि कम उम्र में शुरुआत करने की ज़रूरत बढ़ रही है। स्कूलों में लैंगिक अलगाव का, व्यवहार और हावभाव पर नकारात्मक प्रभाव और यौन शिक्षा तक पहुंच की कमी (अश्लील साहित्य के अलावा अन्य स्रोतों तक पहुंच) सहित कई अन्य चिंताओं ने इस दृष्टिकोण को जन्म दिया है। लेकिन, इस तरह के सुझाव देते समय, खास आयु वर्ग के लिए तय प्रोग्रामिंग को देखना जरूरी है। किसी विशिष्ट कार्यक्रम में छोटे बच्चों से मिलने वाली प्रतिक्रिया, उसी कार्यक्रम के लिए मध्य-किशोरावस्था में किशोरों से मिलने वाली प्रतिक्रिया से अलग हो सकती है और अंत में ऐसा होना परिणामों को प्रभावित करता है।

कार्यक्रम तब अधिक प्रभावी होते हैं जब प्रतिभागी 14 वर्ष से कम आयु के होते हैं और मध्यम किशोरों के लिए एक अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।

ऐसा एक उदाहरण महाराष्ट्र में आयोजित एक कार्यक्रम में 13–14 साल के लड़कों के समूह के साथ देखने को मिला। इन लड़कों द्वारा देखे जाने वाली पोर्नोग्राफ़ी और हिंसक मनोरंजन के दर को कम करने के प्रयास के दौरान, उन्हें सुझाव दिया गया कि इस तरह की सामग्री देखने से पहले उन्हें गंभीरता से सोचना चाहिए। लेकिन सुझाव का यह तरीक़ा कारगर नहीं रहा। इसका वास्तविक कारण पुरुष संज्ञानात्मक विकास से संबंधित हो सकता है – लड़कों के मामले में केवल 15 साल की उम्र से लेकर शुरुआती वयस्कता के दौरान ही वे लैंगिक मानदंडों और भूमिकाओं के बारे में सवाल करने, सोचने और अपने विचार बनाने की क्षमता विकसित करते हैं। इसे देखते हुए इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या 13-14 वर्ष के बच्चों द्वारा पोर्नोग्राफ़ी और हिंसक मनोरंजन के इस्तेमाल में कमी लाने के लिए स्वयं लड़कों के बजाय उनके माता-पिता को शामिल करने वाली रणनीति अधिक प्रभावशाली होगी।

इसके विपरीत, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के शोध में पाया गया कि किशोर प्रतिभागियों की तुलना में मध्यम किशोरों (आमतौर पर 14-17 वर्ष के बच्चों) में बदमाशी (बुलीइंग) को रोकने वाले कार्यक्रमों का कम असर होता दिख रहा है। इससे पता चला कि ये कार्यक्रम तब अधिक प्रभावी होते हैं जब प्रतिभागी 14 वर्ष से कम आयु के होते हैं और मध्यम किशोरों के लिए एक अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।

सुझावों या तरीकों को डिज़ाइन करते समय परिणामों को हासिल करने के लिए कार्यक्रमों की समयावधि की भूमिका को ध्यान में रखा जाना चाहिए

ऐसे तो कार्यक्रम के जरिए हासिल किए जाने वाले परिणाम को पहले तय किया जाना चाहिए और फिर इसके अनुसार समयावधि को निर्धारित किया जाना चाहिए। कुछ मामलों में जब डोनर या स्वयंसेवी संस्था के पास निवेश के लिए सीमित समय होता है तब ऐसे कार्यक्रम को चुनना बेहतर होता है जिसे दिए गए समय में पूरा किया जा सके। यहां पर इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि थोड़ी समयावधि वाले कार्यक्रमों से कोई दीर्घकालिक परिणाम हासिल करने का लक्ष्य हमें असफलता की ओर धकेलता है।

चलिए, एक ऐसी स्वयंसेवी संस्था का उदाहरण लेते हैं जो इस अध्ययन का हिस्सा थी। संस्था अपने कार्यक्रम से किशोर लड़कों को ऐसा उदाहरण बनने के लिए प्रेरित करती है जो लैंगिक रूढ़ियों और महिलाओं या लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा का विरोध करने वाला हो। ऐसा करने से किशोर, सार्थक और स्वस्थ संबंधों का, तथा महिलाएं और लड़कियां लैंगिक समानता का अनुभव कर सकती हैं। इस कार्यक्रम को उस संस्था द्वारा महिलाओं और लड़कियों के लिए किए जाने वाले काम के साथ जोड़ा गया।

हमारे अध्ययन के दौरान बच्चों या किशोरों के साथ काम करने वाले संगठनों ने प्रतिक्रिया को उनके कार्यक्रमों का लगातार अनपेक्षित परिणाम बताया।

शोध के दौरान उस समय साक्षात्कार में भाग लेने वाले पुरुष प्रतिभागियों ने औसतन दो से तीन साल तक कार्यक्रम में भाग लिया था। इस दौरान उन्होंने बाल-विवाह बंद कर दिया था, घर के कामों में योगदान देने लगे थे और सड़क पर होने वाले उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने लगे थे। इसके विपरीत, बाल यौन शोषण रोकथाम कार्यक्रम चलाने वाले एक अन्य संगठन को कम समय में ही अच्छे परिणाम हासिल हुए। उनके कार्यक्रम का समय दो से छः घंटे (एक घंटा प्रति दिन) होती है और हर दो से तीन साल में इसे बच्चों के एक ही समूह के साथ दोहराया जाता है। बाहरी और आंतरिक दोनों ही तरह के मूल्यांकन में यह पाया गया कि कम समयावधि वाला कार्यक्रम होने के बावजूद प्रतिभागियों का एक बड़ा प्रतिशत इसकी प्रमुख अवधारणाओं और संदेशों को याद कर पा रहा था। इसके अलावा, असुरक्षित परिस्थितियों का सामना करने वाले अधिकांश प्रतिभागी कार्यक्रम से सीखी गई बातों को लागू करके अपनी रक्षा करने में सक्षम थे।

अनपेक्षित परिणामों पर ध्यान दें

कई कार्यक्रमों को समय-समय पर अनपेक्षित परिणामों का सामना करना पड़ता है। ये नकारात्मक परिणाम होते हैं जो कार्यक्रम के साइड इफेक्ट के रूप में सामने आते हैं। 

हमारे अध्ययन के दौरान बच्चों या किशोरों के साथ काम करने वाले संगठनों ने प्रतिक्रिया को उनके कार्यक्रमों का लगातार अनपेक्षित परिणाम बताया। यहां, नकारात्मक परिणाम लड़कों और/या पुरुष किशोरों के खिलाफ प्रतिक्रिया को दर्शाता है जो लैंगिक समानता को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। (जब महिलाएं पितृसत्तात्मक लिंग मानदंडों को चुनौती देती हैं तो यह पुरुषों द्वारा की जाने वाली प्रतिक्रिया से अलग होता है।) नकारात्मक परिणामों की संभावना को देखते हुए, किशोरों को शामिल करने वाले कार्यक्रमों में प्रतिक्रिया को कम करने के लिए पहले से ही बचाव की रणनीति पर विचार करना चाहिए। जेंडर प्रोग्रामिंग के संदर्भ में ऐसा करने का एक तरीका लड़के और लड़कियों दोनों से जुड़े उदाहरणों को शामिल करना है। अध्ययन में उत्तरदाताओं ने उल्लेख किया कि माता-पिता, शिक्षकों, स्कूल के प्रधानाचार्यों और गांव के नेताओं के साथ समय-समय पर बैठकें आयोजित करना इस तरह की प्रतिक्रिया को रोकने का एक प्रभावी तरीका है।

इसके अतिरिक्त, फील्ड टीमों को प्रशिक्षित करना महत्वपूर्ण है ताकि वे संभावित नकारात्मक परिणामों के प्रति अधिक चौकस हो सकें। एक बार जब वे अनपेक्षित परिणामों की पहचान करने लग जाते हैं तब वे और सीख पाते हैं और इसे कम करने की दिशा में कार्रवाई की अवधि का आकलन आसान हो जाता है।

समझें कि पुरुष किशोरों को आपके कार्यक्रम में शामिल रहने के लिए कौन से कारक प्रेरित कर सकते हैं

लैंगिक कार्यक्रमों की हाल की वैश्विक समीक्षा में पाया गया कि इस तरह के कार्यक्रमों में रुचि की कमी उन मुख्य कारणों में से एक थी, जिसके चलते किशोर लड़के या तो शामिल नहीं हुए या शामिल होने के बाद बाहर हो गए। इसके समाधान के लिए, हमारे अध्ययन में कुछ संगठनों ने अनुमान लगाया कि किशोर लड़कों को मर्दानगी से जुड़े कठोर लैंगिक मानदंडों को चुनौती देने का अवसर प्रदान कर प्रेरित किया जाएगा। यह उन्हें चुनाव करने और उन तरीकों से व्यवहार करने की अनुमति देगा जो वे चाहते हैं। अन्य संगठनों ने अनुमान लगाया कि कार्यक्रम में भागीदारी के जरिए किशोरों को कोई कौशल हासिल करने का मौक़ा दिया जाएगा जो उन्हें इसका हिस्सा बने रहने के लिए प्रेरित करेगा।

मिश्रितलिंग समूहों के साथ काम करने वालों ने कहा कि इस तरह की जगहें युवा पुरुषों और महिलाओं, या लड़कों और लड़कियों के बीच बातचीत को सामान्य बनाने लगते हैं।

हमारे शोध में पाया गया कि किशोर लड़कों ने कौशल हासिल करने के दृष्टिकोण को अधिक महत्व दिया। चूंकि कठोर लैंगिक मानदंडों को चुनौती देना मेल इंगेजमेंट का मुख्य केंद्र होता है। इसलिए हमारा सुझाव है कि प्रतिभागियों को शुरू में हस्तांतरणीय कौशल हासिल करने में सक्षम बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाए फिर उन इच्छाओं की पहचान की जाए जो मर्दवादी सोच के चलते दबा दी जाती हैं। इसके बाद उन पर काम किया जाए। उदाहरण के लिए हमारे शोध की सूची में शामिल एक कार्यक्रम प्रतिभागियों के बीच संवाद निर्माण और नेतृत्व कौशल के साथ शुरू हुआ था और बाद में इसने अपने प्रतिभागियों को बाल विवाह रोकने, घर के काम में भाग लेने और सड़कों पर होने वाले यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में सक्षम बनाया। 

एकल लिंग और मिश्रित-लिंग दोनों समूहों के साथ काम करने के अनूठे फ़ायदे हैं

अध्ययन के प्रतिभागियों को एक ही लिंग या मिश्रित लिंग वाले समूहों के साथ काम करने वालों के बीच समान रूप से विभाजित किया गया था। एकल या मिश्रित लिंग समूहों के साथ काम करने के प्रभाव को लेकर किसी तरह का ठोस परिणाम हासिल नहीं हुआ और इसमें किसी तरह का आश्चर्य नहीं है। एक तरफ़, एकल-लिंग समूहों के साथ काम करने का फ़ायदा यह है कि इससे पुरुष प्रतिभागी संवेदनशील विषयों पर भी खुलकर बात कर पाते हैं। दूसरी ओर, मिश्रित-लिंग समूहों के साथ काम करने पर महिलाओं और पुरुषों दोनों को ही एक दूसरे के विचार, दृष्टिकोण और ज़रूरतों को समझने का अवसर मिलता है और वे संवेदनशील मुद्दों पर भी एक दूसरे से बातचीत करते हैं।

अध्ययन में मिश्रित-लिंग समूहों के साथ काम करने वालों ने बताया कि इन जगहों ने किशोर पुरुषों और महिलाओं या लड़के और लड़कियों के बीच संवाद को सामान्य बनाना शुरू कर दिया है। वहीं एकल-लिंग समूहों के साथ काम करने वालों ने कहा कि ऐसा करने का एक कारण यह है कि पुरुष और महिला प्रतिभागियों को एक ही विषय पर अलग-अलग सामग्री की आवश्यकता हो सकती है, जैसे कि सहमति।

पहली बार मेल इंगेजमेंट कार्यक्रम को तैयार करने वाले डोनर और अन्य इकाइयों को दोनों विकल्पों के फ़ायदों के बारे में सोचना चाहिए और उसके बाद चुने जाने वाले विकल्प से संबंधित सूचनाएं इकट्ठा करनी चाहिए। 

स्केलिंग के कई तरीके हैं

हमारे अध्ययन में हमने पाया कि संगठनों ने नीचे दिए गए एक या अधिक दृष्टिकोणों का उपयोग करके स्केल करने का प्रयास किया है:

  1. विद्यालय: ‘प्रवर्तकों’ यानी शुरूआत करने वालों ने अपनी पहुंच को और अधिक स्कूलों तक विस्तारित किया है, और/या अपने कार्यक्रम को पाठ्यक्रम में एकीकृत किया है।
  2. समकक्ष समूह/मित्रमंडली: कार्यक्रम से मिलने वाले सबक को वर्तमान या पिछले प्रतिभागियों द्वारा अपने साथियों के समूहों तक पहुंचा दिया जाता है, और उन्हें कार्यक्रम के डिजाइन और वितरण पर काफी नियंत्रण होता है।
  3. प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण: पेशेवरों (जैसे शिक्षक, स्वयंसेवी कर्मचारी, और परामर्शदाता) को उनके कार्यक्रमों को वितरित करने के लिए प्रवर्तकों द्वारा प्रशिक्षित किया जाता है। प्रवर्तक कार्यक्रम वितरण पर थोड़ा नियंत्रण बनाए रख सकते हैं।
  4. स्वयंसेवी संस्थाअन्य स्वयंसेवी संस्थाएं अपने संगठनात्मक और सामुदायिक संदर्भ में कार्यक्रम को लागू करती हैं। कार्यक्रम के डिजाइन और वितरण को लेकर इनकी स्वायत्ता का स्तर व्यापक होता है।
  5. जनता: अक्सर ऑनलाइन चैनलों का उपयोग करते हुए जनता द्वारा व्यापक रूप से धारण किए जाने वाले पितृसत्तात्मक विश्वासों को इसके विपरीत साक्ष्य और/या विचारों को प्रसारित करके चुनौती दी जाती है।3

कार्यक्रमों को तब तक स्केलिंग शुरू नहीं करनी चाहिए जब तक कि वे अपनी प्रभावशीलता का सबूत देने योग्य हो जाएं।

प्रारंभिक टिप्पणियों से संकेत मिलता है कि स्कूलों के माध्यम से स्केलिंग कार्यक्रम न्यूनतम समय में अधिकतम लोगों तक पहुंचने में सबसे प्रभावी रहे हैं। इसके लिए एक परिकल्पना यह है कि बच्चों को इकट्ठा करने की बजाय स्कूली बच्चों से संवाद करना आसान होता है। और, यदि वे एक ही प्रबंधन के अधीन हैं या एक समान पाठ्यक्रम साझा करते हैं तो सभी स्कूलों में छात्रों को एकत्रित करना संभव है।

अध्ययन में सामने आया एक अन्य मॉडल एक ऐसे संगठन का था जो एक नेतृत्व विकास कार्यक्रम चलाता है जो लिंग और अन्य सामाजिक मानदंडों पर ध्यान केंद्रित करता है। विविध क्षेत्रों में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन अपने कर्मचारियों को कार्यक्रम के लिए नामित करते हैं। इस दौरान उन्हें प्रवर्तक और उन्हें नामित करने वाली इकाई दोनों द्वारा सलाह दी जाती है। और, प्रतिभागियों के सहकर्मी समूह और उन्हें नामांकित करने वाले स्वयंसेवी शुरू से ही शामिल होते हैं। एक बार जब प्रतिभागी कार्यक्रम पूरा कर लेते हैं तब उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने काम में लैंगिक और अन्य सामाजिक नियमों पर विशेष ध्यान दें। इस काम में उन्हें अपने समान प्राथमिकताओं वाले साथियों और मेंटॉर की मौजूदा व्यवस्था का साथ मिलता है।

इन उदाहरणों से संकेत मिलता है कि यह विचार करना महत्वपूर्ण है कि प्रारंभिक चरण में होने पर भी किसी कार्यक्रम को कैसे बढ़ाया जाना चाहिए। कहने का मतलब यह है कि कार्यक्रमों की तब तक स्केलिंग शुरू नहीं करनी चाहिए जब तक कि वे अपनी प्रभावशीलता का सबूत पेश करने योग्य न हो जाएं। इससे नकारात्मक अनपेक्षित परिणाम या तो कम हो जाते हैं या उन्हें ख़ारिज कर दिया जाता है।

फुटनोट:

  1. ऐन कार्पे, “वी ऑल बेनेफ़िट फ़्रॉम ए मोर जेंडर इक्वल सोसायटी। ईवेन मेन”, दी गार्डियन (2020) कोटेड इन आएशा गोनसाल्वेस, “ट्रैन्स्फ़ॉर्मिंग ‘मेन-टालिटीज”(2020)।
  2. इस अध्ययन में हिस्सा लेने वाले दस कार्यक्रम अर्पन, सेक्विनकोरोइक्वल कम्यूनिटी फ़ाउंडेशनप्रदानप्रोजेक्ट खेलस्वयंदी जेंडर लैबदी वाय पी फ़ाउंडेशन, और अनइनहिबिटेड हैं।
  3. यह तरीक़ा ‘कार्यक्रम के स्केलिंग’ की तुलना में अधिक लोगों तक पहुंच कर ‘विचार की स्केलिंग’ से संबंधित है। और इस काम को कार्यक्रम के संचालन को विस्तृत करने के साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में पहुंच कर करना है।

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किब्बर गांव का अनोखा पंचायत चुनाव

अगर महामारी नहीं आती तो लोबज़ांग टंडुप चंडीगढ़ में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे होते। लेकिन 17 जनवरी 2021 को उनके कंधे पर अचानक से एक ज़िम्मेदारी आ गई। किब्बर में पंचायत चुनाव होने वाले थे और अगले पांच वर्षों तक किब्बर के पंचायत चुनाव की क़िस्मत का फ़ैसला करने में लोबजांग को मुख्य भूमिका निभानी थी। किब्बर गांव समुद्र तल से 4,200 मीटर की उंचाई पर स्थित है और दुनिया की सबसे उंचाई पर बसे मानव बस्तियों में से एक है। किब्बर पंचायत हिमाचल प्रदेश के लाहौल–स्पीती जिले के एक उपखंड स्पीति में 13 पंचायतों में से एक है। यहां रहने वाले ज़्यादातर लोग खेती और पशुपालन का काम करने वाले समुदायों से आते हैं और इस इलाक़े की जनसंख्या घनी नहीं है। इसके अलावा यह साल में लगभग छः माह बर्फ़ से ढंका रहता है।

अपने मनोरम दृश्यों के लिए प्रसिद्ध इस सुदूर गाँव की चुनाव प्रणाली बहुत ही अनोखी है। इसमें पंचायत नेताओं का फैसला ‘टॉस’ नामक लकी ड्रा के आधार पर किया जाता है। यह स्थानीय समस्या के समाधान के रुप में उभर कर आया था। किब्बर गांव के सबसे बुजुर्ग लोगों में से एक फुंटसोग नामगैल का कहना है कि “कई सालों तक लोग अपने रिश्तेदारों को ही अपना मत देते थे। अगर आपके पास अपने विस्तृत परिवार का साथ हो तो आप चुनाव जीत सकते थे। प्रत्येक चुनाव में लोग कई दलों में बंट जाते थे। लेकिन यह हमारे जैसे छोटे समुदाय के अनुकूल नहीं है।”

मैं इस गांव के लोगों के एक समूह का हिस्सा था जो इस साल इस प्रक्रिया में मदद करने के लिए इकट्ठा हुए थे। मंदिर में देवता से अनुमति लेने के बाद चुनाव की कार्यवाही शुरू की गई। उसके बाद, चुनाव पर काम कर रहे समुदाय के सदस्यों को गांव के प्रत्येक घर से एक सदस्य के साथ नामों की सूची बनाने के लिए बगल के कमरे में भेज दिया गया। नामों वाली पर्चियां बनाई गईं। हर पर्ची पर एक नाम लिखा हुआ था और फिर उन पर्चियों को जौ के आटे से बनी लोइयों में छुपाकर गोलियां बना ली गई। इन गोलियों को एक प्लेट में रख दिया गया।

तय समय पर गांव के लोग मुख्य रूप से पुरुष उस मंदिर के बाहर जमा हो गए। जैसे ही लोबजांग को प्लेट से लकी चिट निकालने के लिए बुलाया गया वैसे ही वहां जमा सभी लोग एक साथ खड़े हो गए। लोबजांग ने एक लोई उठाई और उसमें से पर्ची निकालने लगे। लोग कंधो से उचक-उचक कर लोबजांग को देखने की कोशिश में लगे हुए थे। उस पर्ची में “टंडुप छेरिंग, गस्सा” लिखा हुआ था। टंडुप छेरिंग (जिन्हें गस्सा के नाम से भी जाना जाता है) को किब्बर पंचायत के उप-प्रधान के पद पर निर्विरोध रूप से चुन लिया गया। और उनके चारों ओर एक खटक (औपचारिक दुपट्टा) लपेटा गया।लोबजांग चुनाव की इस प्रक्रिया को लेकर क्या सोचते हैं? उनका कहना है कि “मैं अंतिम बार साल 2005 के चुनाव में उपस्थित था। उस समय मैं कक्षा 5 में पढ़ता था। मुझे आज भी याद है कि कैसे परिस्थिति असहज हो गई थी। पहले मुझे लगता था कि पर्ची वाला यह तरीक़ा बहुत अच्छा समाधान है। अब मुझे लगता है कि इसमें सभी को हिस्सा न लेकर सिर्फ़ उन लोगों को भाग लेना चाहिए जो पंचायत के लिए काम करना चाहते हैं। अगर हम किसी ऐसे आदमी को चुन ले जिसे इसमें किसी तरह की रुचि नहीं तो फिर क्या होगा? जब तक उन्हें अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होगा तब तक उनका कार्यकाल समाप्त होने की कगार पर पहुंच जाएगा।”

अजय बिजूर लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन (एनसीएफ़) के हाई-एल्टीट्यूड प्रोग्राम में असिस्टेंट प्रोग्राम हेड के रूप में काम करते हैं। कलजांग गुरमेट हिमाचल प्रदेश में एनसीएफ़ इंडिया के साथ प्रोजेक्ट असिस्टेंट के रूप में काम करते हैं।

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अधिक जानें: जानें कि कैसे असम के एक गांव में जलवायु परिवर्तन ने लोगों के बीच बातचीत के अवसर को समाप्त कर दिया है।
अधिक करें: अजय बिजूर और कलजांग गुरमेट के काम को विस्तार से जानने और सहयोग करने के लिए उनसे क्रमश: [email protected] और [email protected] पर सम्पर्क कर सकते हैं।

लक्ष्य से ज़्यादा प्रतिभाओं को प्राथमिकता दें

सामाजिक विकास संस्थाओं की सफलता के आकलन के लिए लोग उनके विकास को ही मुख्य तौर पर पैमाना मानते हैं। आगे बढ़ने की चाहत ही हमें अपने लक्ष्यों पर ध्यान लगाए रखने के लिए प्रेरित करती है—फिर चाहे वह संगठन का आकार बढ़ाने की बात हो, काम से मिल रहे नतीजों की हो, या फिर उसके प्रभाव या क्षेत्र की ही क्यों ना हो, और ऐसा करते हुए हम उस ‘मूल भावना’ के खो जाने का जोख़िम भी ले लेते हैं, जो संगठन के निर्माण का आधार थी।

वक़्त के साथ एक संगठन के तौर पर गूंज का आकार अब बड़ा हो गया है। 1999 में हमने 67 कपड़ों के साथ काम की शुरुआत की थी और आज हम 30 राज्यों व् केन्द्रशासित प्रदेशों में सालाना 9,400 टन से अधिक सामग्रियों को ‘चैनलाइज़’ करने का काम अपनी प्रमुख पहल ‘क्लॉथ फॉर वर्क’ के माध्यम से करते हैं। यह पहल लोगों के आत्मसम्मान को बनाये रखने के साथ विकास के लिए प्रेरित करती है, जिसमें गाँव के लोग अपनी समस्याओं को खुद से दूर करने के लिए सामूहिक रूप से श्रमदान करते हैं, जैसे तालाब की सफाई करना, बांस के पुल बनाना आदि। इसके बदले में गाँव वालों को शहरों से एकत्रित की गयी सामग्रियों से बनी किट को सम्मान के तौर पर दिया जाता है। इस काम को 1,000 से अधिक नियमित सदस्यों और तमाम वालंटियर्स के साथ किया जा रहा है। मेरा मानना है कि यह सब करते हुए हम ने अपने संगठन की उस मूल भावना को बनाए रखा है जिसके साथ इसे शुरू किया था।

ऐसा करने की अपनी कोशिशों के दौरान, हमने 23 सालों में जो कुछ सीखा उसे हम यहां साझा कर रहे हैं।

क) अपने ‘वैल्यू सिस्टम’ को बनाये रखना

आपने यह कैसे तय किया कि काम के पहले साल से लेकर अब तक, आपके संगठन में ‘वैल्यू सिस्टम’ और नियम एक तरह से बने रहें?

हर सामाजिक संस्था में अपने तय ‘मूल्यों’ को बरकरार रखने का तरीक़ा अलग-अलग होता है। जब आप यह तय करते हैं कि पैसा कहां खर्च करना है, संसाधनों का उपयोग कैसे करना है और आगे बढ़ने के आपके पैमाने क्या हैं, इन सबसे मदद मिलती है… हमने पाया कि दो बातों पर ख़ासतौर पर ध्यान देने की ज़रूरत होती है।

1. शुरुआत से ही अपनी टीम में भारी मात्रा में निवेश करना

जब संगठन के मूल्यों, नैतिकता और उसकी सोच को आगे बढ़ाने की बात आती है तब अक्सर लोग इस काम के लिए ‘फाउंडर्स’ की ओर देखते हैं। ‘फाउंडर’ वह इंसान है जो अनगिनत मूल्यों के साथ संगठन की शुरूआत करता है पर वास्तव में शुरूआती टीम ही उस विचार को संगठन की संस्कृति का रूप देती है। यही वे लोग हैं जो कि संगठन के काम करने की क्षमता का विकास करते हैं—फिर चाहे वह जोखिम लेने की क्षमता हो या फिर यह तय करना की ध्यान कहाँ ज्यादा देना है और साथ ही ‘वैल्यू सिस्टम’ को बनाए रखना भी इन्हीं पर निर्भर करता है।

जैसे-जैसे किसी संगठन का आकार बढ़ता है, ‘फाउंडर’ अक्सर नए नियुक्तियों से दूर होते चले जाते हैं। इसलिए, यदि शुरूआती टीम को संस्था के ‘लक्ष्यों’ और ‘दूरदर्शिता’ से परिचित कराया जाए और उन पर भरोसा जताया जाए तो टीम के सदस्य आगे चलकर जुड़ने वाले नए लोगों को संगठन के ‘वैल्यू सिस्टम’ से परिचय करवाने का काम करेंगे, उनके बाद के लोग अपने बाद आने वालों तक इसे पहुंचाएंगे और यह क्रम चलता रहेगा।

यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि ‘शुरूआती टीम’ केवल उन लोगों तक सीमित नहीं है जो संगठन की स्थापना के समय बोर्ड में शामिल हुए थे। हर बार जब आप विस्तार करते हैं—फिर चाहे वह विस्तार विभागीय स्तर पर हो, भौगोलिक स्तर पर हो या सेक्टर में—आपके सामने एक नई टीम होती है जिसमें समय, ऊर्जा और संसाधनों के निवेश की ज़रूरत होती है।

2. ना कहने की क्षमता

एक सामाजिक विकास संस्था के तौर पर हमें हमेशा इस बात का सामना करते रहना पड़ता है कि हमारे पास उस काम के लिए पर्याप्त फ़ंडिंग नहीं है जो हम करना चाहते हैं। इसलिए हम अपने कार्यक्रम में कुछ ऐसे बदलाव करते चले जाते हैं जो कि फंडर के अनुकूल हो, ऐसा करना कभी संगठन के पक्ष में हो सकता है और कई बार उससे हटकर भी, ऐसे में अपने मूल उद्देश्यों को ध्यान में रखना और उसके आधार पर अपने फ़ैसलों को आंकना बहुत जरुरी होता है।

उदाहरण के लिए, 2004 में जब हिंद महासागर में सुनामी आई थी तब गूंज को काम करते हुए सात साल भी नहीं हुए थे। हमारी टीम में 15 से कम सदस्य थे और सालाना टर्नओवर कुछ लाख रुपये ही था। उस समय हमारे सामने ऐसे प्रस्ताव भी आए जिनमें यह कहा गया कि अगर हम सुनामी प्रभावित इलाक़ों में घर बनाते हैं तो हमें लाखों रुपये और संसाधन मुहैया कराये जाएंगे। इन पैसों से हमें बहुत अधिक मदद मिल सकती थी; हम अपने लिए एक बड़ा दफ़्तर बना सकते थे, ज़्यादा लोगों को काम पर नियुक्त किया जा सकता था और अपने कामकाज को भी बढ़ाया जा सकता था। साथ ही, हम घर बनाकर ‘पुनर्वास’ की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते थे। इसके बावजूद हमें ना कहना पड़ा क्योंकि हमारा संगठन घर बनाने के लिए नहीं बनाया गया था। मुझे लगता है कि हमें यह खुद को याद दिलाते रहना चाहिए कि हम जब भी कुछ करना चुनते हैं तो वह कुछ और करने की क़ीमत पर पर होता है।

मैं यकीनन यह कह सकता हूं कि अगर उस समय हमने वह फंड लिया होता तो आज हम शायद अलग होते और वह सब नहीं सीख पाते जो हमने सीखा। हम समुदाय की मदद से होने वाले विकास और सीमित संसाधनों में काम करने के महत्व को नहीं समझ पाते।

किसी सामाजिक विकास संस्था को चलाने के लिए जहां फंडिंग बहुत ज़रूरी है वहीं हमें यह याद रखना भी ज़रूरी है कि फंड के अलावा और भी संसाधन मौजूद हैं जैसे कौशल, समुदाय आदि जो कि किसी भी तरह से किसी बड़ी मुद्रा से कम नहीं हैं, और आपके सामने ऐसी परिस्थितियां आती रहती हैं जब ये संसाधन, आपकी नैतिकता और मूल्यों के साथ आपको खुद के प्रति सच्चे रहने में मदद करती हैं।

वी फॉर्मेशन में उड़ रहे पक्षी-एनजीओ टीम
जहां संस्थापक वह व्यक्ति होता है जो अनगिनत मूल्यों के साथ संगठन की शुरूआत करता है, वहीं शुरूआती टीम संस्थापक की इस सोच को संगठन की संस्कृति का रूप देती है। | चित्र साभार: पीएक्सहियर

ख) लोगों में निवेश करना

एक ‘डेवलपमेंट प्रैक्टिशनर’ के रूप में हम उन समुदायों की गरिमा का तो ख़्याल रखते हैं जिनके लिए हम काम कर रहे होते हैं लेकिन अपनी टीम की गरिमा पर उतना ध्यान नहीं देते हैं। हमें खुद को लगातार यह याद दिलाते रहने की ज़रूरत है कि ‘सिस्टम’ और ‘प्रोसेस’ ज़रूरी तो है ही साथ ही यह भी कि इसे लोगों का ध्यान रखने के लिए ही बनाया गया था।

अगर हम इस नज़रिए से देखें तो हमारे लिए यह समझना आसान होगा कि हमारी प्राथमिकता हमारे संगठन के लोग भी हैं और हमारी अंदरूनी नीतियां और व्यवस्थाएं उनके अनुकूल होनी चाहिए। हम यहां कुछ तरीक़ों के बारे में बता रहे हैं जो आपको अपनी टीम के लिए सही निर्णय लेने में मदद कर सकते हैं।

1. पारदर्शी रहें

किसी भी संगठन या सामाजिक विकास संस्था के लिए यह जरूरी है कि वह अपने बाहरी हितधारकों, मदद की सामग्री या पैसे देने वाली इकाइयों, अपने बोर्ड और अपने साथ काम करने वाले समुदायों के प्रति पारदर्शिता बरतें। लेकिन सबसे ज़रूरी यह है कि आप अपने संगठन के लोगों के प्रति भी पारदर्शी रहें। इसके लिए हमने कुछ तरीक़े अपनाए जो कारगर साबित हुए:

2. लक्ष्य से अधिक क्षमता को प्राथमिकता दें

पिछले कुछ वर्षों में, गूंज में, हमने अपनी वास्तविक क्षमता को जानने के लिए विचारों को अधिक प्राथमिकता दी है। टीम के सदस्यों के पास एक ही तरह के काम या प्रोजेक्ट से बंधे रहने के बजाय अलग-अलग कार्यों और क्षेत्रों को समझने का अवसर होता है। इससे वे खुद के बारे में और अच्छी समझ बना पाते हैं और साथ ही उन्हें अपनी असल विशेषज्ञता विकसित करने में भी मदद मिलती है।

यहाँ कुछ अन्य तरीके दिए गए है जो लोगो को उनकी क्षमता का एहसास कराने में मदद कर सकते है:

3. अपनी टीम का साथ दें

अगर आप चाहते हैं कि आपकी टीम खुद को निजी स्तर पर संगठन से जोड़े तो एक संगठन के तौर पर आपको भी उनसे जुड़ना होगा। इसका मतलब है कि टीम के सदस्यों के बुरे वक़्त में आपको उनका साथ देना होगा। यदि टीम का कोई सदस्य या उसके परिजन किसी भी तरह की आर्थिक तंगी या चिकित्सीय समस्या से जूझ रहे हैं या किसी दूसरी तरह कि परेशानियों से घिरे हैं तो ऐसे वक़्त में उनकी मदद करने और साथ देने के लिए संगठन से किसी सदस्य को उनके साथ होना चाहिए।

इसी तरह टीम के सदस्यों की ख़ुशी के अवसर पर भी हम उनके साथ होते हैं। उदाहरण के लिए उनके बच्चों की पढ़ाई पूरी होने के अवसर पर, कॉलेज या स्कूल में नामांकन होने या शादी के समय हम उनके साथ होते हैं। हम यह यकीन दिलाने कि कोशिश करते हैं कि हम संगठन में अपनी टीम के सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन के अच्छे और बुरे दोनों ही समय के लिए जगह बना सकें। एक संस्था के तौर पर गूंज का काम इस सिद्धांत पर आधारित है कि अगर आप लोगों को अहमियत देते हैं। और उनका सम्मान करते हैं तो इसका बड़ा असर देखने को मिल सकता है। यह असर न केवल संगठन के लिए उनके सहयोग में दिखाई देता है बल्कि उनके जीवन और जीवन की चुनौतियों का सामना करने के तरीक़े में भी नज़र आता है।

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“हमारी जाति का यही पेशा है”

“मैं किसे सिखाउंगी?” वे सब मुझसे यही कहते हैं कि ‘कौन यह गंदा काम करेगा?’” मूहिया देवी ने मुझसे यह उस समय कहा जब मैं फूस के छत वाले उनके छोटे से कच्चे घर के सामने बैठी थी। “वे खून और इस गंदगी को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं।” मूहिया देवी बिहार के जमुई ज़िले के सरारी गांव में रहने वाली एक 60 वर्षीय बुजुर्ग महिला हैं जिनका संबंध मांझी समुदाय (एक अनुसूचित जाति) से है। उनके अनुसार वह पिछले 50 वर्षों से दाई का काम कर रही हैं।

दाई या ट्रेडिशनल बर्थ अट्टेंडेंट (टीबीए) आमतौर पर एक औरत होती है जो अपने समुदाय में प्रसव, प्रसवोत्तर और नवजात शिशु की देखभाल का काम करती है। मांझी समुदाय से ही आने वाली पूजा देवी कहती है कि “हमारी जाति का यही काम है।” बीस साल की पूजा जमुई के ही एक दूसरे गांव हसडीह की रहने वाली है। उसने अपने परिवार की तीन पीढ़ियों की महिलाओं को दाई का काम करते देखा है।

हो सकता है कि बिहार में उन्हें दाई के नाम से जाना जाता हो लेकिन टीबीए कई सदियों से पूरे भारत भर में पाई जाती हैं और अपने समुदाय की बहुत महत्वपूर्ण इकाई होती हैं। समय के साथ इस काम ने एक जाति-आधारित पेशे का रूप ले लिया है। दाईयों को औरतों के शरीर के सम्पर्क में रह कर काम करना पड़ता है। वे प्रसव के दौरान शरीर से निकलने वाले द्रव और अन्य प्रकार की गंदगी साफ़ करती है। इस काम को “अपवित्र” माना जाता है और इसलिए जाति व्यवस्था के तहत इसकी ज़िम्मेदारी दलित समुदायों पर है।

हालांकि मुझसे बातचीत करने वाली सभी दाईयां इस काम से जुड़े पारम्परिक ज्ञान को लेकर मुखर थीं और उनका मानना था कि वे “भलाई का काम” कर अपने समुदाय के लोगों की मदद करती हैं। लेकिन साथ ही उन्हें यह कहने में भी किसी तरह का संकोच नहीं हो रहा था कि यह काम गंदगी से जुड़ा हुआ है। 

जमुई के मसौदी गांव की मांझी टोला में रहने वाली लालजित्या देवी पिछले 40 वर्षों से दाई का काम करती आ रही हैं। उन्होंने हमें बताया कि “घर पर प्रसव करवाना एक बहुत गंदा काम है। सफ़ाई की पूरी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही होती है। प्रसव के दौरान और उसके बाद मुझे बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मेरी भूख मर जाती है। मुझे बिल्कुल अच्छा महसूस नहीं होता है।”

दूसरों की तरह मूहिया देवी को प्रसव करवाने का काम अपवित्र नहीं लगता है। वह कहती हैं “अगर मुझे लगता कि यह काम अश्लील है तो मैं कैसे करती?” लेकिन वह इस बात से इनकार नहीं करती हैं कि यह अरुचिकर या घिनौना हो सकता है। “मैं घर के पुरुष सदस्यों से शराब की कुछ घूँट देने के लिए कहती हूं। इससे मुझे लगातार जागते रहने, सर्दी-जुकाम से लड़ने और मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है। मूहिया देवी ने कहा कि “शराब नहीं पीने पर घृणा होने लगेगी।”

मूहिया देवी कहती है कि “हमारे लिए काम का मतलब या तो ये है या फिर दिहाड़ी मज़दूरी।” दाई का काम करने से पैसे की कमाई होती है और आजकल हर एक प्रसव या मालिश के काम के लिए 500 से 2,000 रुपए मिलते हैं। इसके अलावा कभी-कभी एक साड़ी, कुछ किलो दाल या चावल भी मिल जाता है। लेकिन इसकी अस्थायी प्रकृति हमेशा ही बदलती रहती है। वह कहती है कि “प्रसव का काम होने पर मेरी कमाई हो जाती है। जब प्रसव का काम नहीं रहता है तो मैं नहीं कमा पाती हूं। बिना काम वाले दिनों में मैं यूं ही बेकार बैठी रहती हूं।”

इंडियाफ़ेलो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां का कंटेंट पार्ट्नर है। इस कहानी का एक लंबा संस्करण पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था।

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अधिक करें: दलित श्रमिक अधिकार एक्टिविस्ट के जीवन के एक दिन के बारे में पढ़ें

अधिक जानें: काम के बारे में विस्तार से जानने और समर्थन करने के लिए लेखक से [email protected] पर सम्पर्क करें।

लैंगिक संवेदनशीलता के बारे में बचपन से ही बताया जाना चाहिए

प्रारम्भिक किशोरावस्था (नौ वर्ष से 13 वर्ष तक) एक महत्वपूर्ण चरण है जिसे वर्तमान में भारत में बाल विकास कार्यक्रमों के दायरे में नहीं रखा जाता है। बच्चों के कल्याण एवं विकास के लिए बनाई गई योजनाएं आमतौर पर बचपन के प्रारम्भिक दिनों— शून्य से छः वर्ष—की उम्र पर केंद्रित होती हैं। इनमें इंटिग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज़ योजना (एकीकृत बाल विकास सेवा योजना) के तहत 15 वर्ष या उससे अधिक उम्र के युवाओं के लिए बनाए गए कार्यक्रम शामिल होते हैं।

हालांकि नौ से 13 वर्ष वाला आयु वर्ग मौजूदा पितृसत्तात्मक संरचनाओं के बारे में बच्चों में जागरूकता फैलाने के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। यही वह उम्र होती है जब वे अपने शरीर में होने वाले नए विकास एवं बदलावों का अनुभव करते हैं और धीरे-धीरे लिंग से जुड़ी भूमिकाओं एवं मानदंडों तथा सेक्शूऐलिटी के बारे में जानते हैं। इस उम्र में शुरू होने वाले लिंग तथा पुरुषत्व और स्त्रीत्व के इन मूलभूत ढांचों को चुनौती देने के लिए, देश में लिंग जागरूकता कार्यक्रमों को छोटे बच्चों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

कमिटी ऑफ़ रिसोर्स ऑर्गनायज़ेशन (कोरो) की ऑर्गनायज़ेशन प्रोसेस डायरेक्टर पल्लवी पलव कहती हैं कि “लिंग से जुड़े मानदंड बहुत ही कम उम्र में बनने शुरू हो जाते हैं। यदि हम इसे बदलना चाहते हैं तो हमें कम उम्र से ही उसकी शुरुआत करने की ज़रूरत है और साथ ही हमें संस्थाओं के माध्यम से इस काम को करना चाहिए ताकि बड़े स्तर पर बदलाव को देखा जा सके।”

कोरो राजस्थान एवं महाराष्ट्र के शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे अधिक पिछड़े समुदायों के नेताओं के सशक्तिकरण पर काम करने वाला एक एनजीओ है। वर्षों से अपने काम के अनुभव के आधार पर कोरो का ऐसा मानना है कि लिंग मानदंडों में बदलाव लड़कों और लड़कियों दोनों में ही प्रारम्भिक किशोरावस्था में शुरू होना चाहिए।

संस्थाओं के माध्यम से काम करना महत्वपूर्ण है

युवा किशोरों को शामिल करने के लिए लिंग जागरूकता कार्यक्रमों के दायरे का विस्तार करने के प्रयास के अंतर्गत कोरो ने जेंडर इक्विटी मूवमेंट इन स्कूल्स (जीईएमएस) नामक एक स्कूल-आधारित कार्यक्रम विकसित किया। इस कार्यक्रम को मुंबई के 45 स्कूलों में कक्षा 6 और 7 के छात्रों के लिए डिज़ाइन किया गया था। इस कार्यक्रम को इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर रिसर्च ऑन वीमेन और टाटा इंस्टीट्यूट फ़ॉर सोशल साइयन्सेज के साथ मिलकर तैयार किया गया था।

इन सत्रों और संवादों के दौरान जो बात सामने आई वह यह है कि इस छोटी सी उम्र में भी बच्चों में शक्ति और शक्ति के डायनमिक्स की धारणा थी।

कुछ स्कूलों में जीईएमएस हस्तक्षेप में लिंग अभियानों के साथ ही साप्ताहिक को-एड जेंडर एजुकेशन के सत्रों को शामिल किया गया था। इन सत्रों में छात्रों को लिंग से जुड़े विषयों पर निबंध लिखने या नाटक में भाग लेने के लिए कहा जाता था। अन्य स्कूलों में हस्तक्षेप के रूप में केवल अभियान ही चलाए गए थे। और इसके बाद ऐसे स्कूल भी थे जो कंट्रोल ग्रुप के रूप में काम करते थे। इन स्कूलों में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं थी। शिक्षा सत्रों में रोल प्ले जैसी कई एक्शन आधारित गतिविधियां करवाई जाती थीं। इन सत्रों के दौरान जो बात सामने आई वह यह है कि इस छोटी सी उम्र में भी बच्चों में शक्ति और शक्ति के डायनमिक्स की धारणा थी। उदाहरण के लिए एक वर्कशॉप में यह बात सामने आई कि अपने-अपने घरों में वे अपनी माँ की शक्ति को अपने पिता की शक्ति से कमतर आंकते हैं। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि उनके पिता काम करने बाहर जाते थे और इसलिए उनके अनुसार उनके पिता को अधिक सुविधाएं, खाना और आराम की ज़रूरत थी।

घरेलू हिंसा के विरोध में पोस्टर लिए सड़क पर घूमती युवतियां-लैंगिक संवेदनशीलता
देश में लिंग जागरूकता कार्यक्रमों को छोटे बच्चों पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। । चित्र साभार: वाचा रिसोर्स सेंटर फ़ॉर वीमेन एंड गर्ल्स

बच्चों के जीवन में उपस्थित प्रभावशाली लोगों के साथ मिलकर काम करना महत्वपूर्ण है

अपने कार्यक्रम के तीसरे साल में कोरो ने शिक्षकों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया क्योंकि वे बच्चों के जीवन को प्रभावित करने वाले मुख्य लोगों में से होते हैं। अंतत: कोरो ने यूनिसेफ़ और महाराष्ट्र सरकार के साथ साझेदारी के माध्यम से राज्यों के सभी स्कूलों में अपने पाठ्यक्रम को पढ़ाना शुरू कर दिया। पल्लवी इस बात को लेकर स्पष्ट थीं कि पाठ्यक्रम को संस्थागत बनाना महत्वपूर्ण है। “उन्होंने कार्यक्रम को उनके स्कूलों में लागू करने के लिए कहा लेकिन हमें ऐसा महसूस हुआ कि इस कार्यक्रम को संचालित करने के लिए उनका क्षमता निर्माण करना अपेक्षाकृत अधिक स्थाई तरीक़ा है। और इसलिए हमने ऐसा ही किया।” इस कार्यक्रम का नाम मीना-राजू मंच है और इसने किशोर लड़के एवं लड़कियों दोनों के साथ काम किया। दस साल बाद यह कार्यक्रम आज भी सरकारी स्कूलों में चालू है। कार्यक्रम से मिलने वाले अनुभवों ने स्टेट काउन्सिल ऑफ एज़ुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग के इक्विटी सेल की अवधारणा को सूचित किया जो लिंग विविधता और दिव्यांग बच्चों की ज़रूरत पर केंद्रित था।

समाज के रक्षकों के साथ काम करना लिंग जागरूकता हस्तक्षेप का एक अभिन्न अंग होना चाहिए अन्यथा प्रतिरोध या प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ सकता है।

सरकारी प्रणाली के साथ काम करने के महत्व के अलावा इस कार्यक्रम का एक और सबक़ यह था कि गेटकीपर (समाज के रक्षकों) के साथ काम करना लिंग जागरूकता हस्तक्षेप का एक अभिन्न अंग होना चाहिए अन्यथा प्रतिरोध या प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए कोरो के जीईएमएस कार्यक्रम के शुरुआती कुछ वर्षों में विभिन्न स्कूलों के शिक्षक इससे सहमत नहीं थे। उनका दावा था कि यह कार्यक्रम बच्चों को विद्रोही बना रहा था और उन्हें अपना पाठ्यक्रम पूरा करने नहीं दे रहा था। बाद में जब उन्होंने कार्यक्रम के कारण लड़के और लड़कियों के व्यवहार में आए बदलावों का अनुभव किया तब जाकर हमारे साथ आए। उदाहरण के लिए लड़कियों ने अपने साथ होने वाली हिंसा के बारे में खुलकर बात करनी शुरू कर दी; लड़कों ने घरों में अपनी बहनों और माँ के साथ होने वाले भेदभाव के बारे में सवाल करना शुरू कर दिया और घर के कामों में हिस्सा लेने लगे।

वाचा ट्रस्ट की परियोजना वाचा रिसोर्स सेंटर फॉर वीमेन एंड गर्ल्स एक अन्य ऐसा संगठन है जो लिंग के मुद्दों पर कई हितधारकों और द्वारपालों के साथ मिलकर काम कर रहा है। वाचा मुंबई बस्तियों में शुरुआती किशोरों के साथ विशेष रूप से जुड़ने वाले देश के पहले संगठनों में से एक है। इस नाते वाचा ने समय के साथ एक ऐसा मॉडल विकसित किया है जो समुदायों के भीतर व्यापक रूप से इस तरह काम करता है जिसमें उनके द्वारा किए गए हर काम में लिंग का नज़रिया शामिल होता है। यह मॉडल मानता है कि बच्चों के दैनिक जीवन में भूमिका निभाने वाले प्रत्येक व्यक्ति एवं संस्था—अभिभावकों, शिक्षकों, आशा कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेतृत्व—के अलावा लड़कों को लिंग के विषय पर संवेदनशील बनाना महत्वपूर्ण है ताकि वे लड़कियों के लिए सहायक बन सकें।

पहले निष्पक्षता और फिर समानता पर ध्यान दें

हालांकि, लड़कों को संवेदनशील बनाते समय यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि उस उम्र में भी प्रचलित लिंग मानदंडों के कारण लड़कों और लड़कियों के बीच पहले से ही एक प्रकार का शक्ति अंतर है। जब स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, सुरक्षित स्थान आदि तक पहुंच की बात आती है तो युवा लड़कियों और महिलाओं को लैंगिक अंतर के अतिरिक्त बोझ का सामना करना पड़ता है। इसलिए लड़कियों को सशक्त बनाने की यात्रा में ऐसे सुविधाओं को मुहैया करवाने पर ध्यान देने की ज़रूरत है जो सिर्फ़ उनके लिए हो। और उसके बाद इस अंतर को कम करने के लिए लड़कों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए और साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि शक्ति का ढांचा संतुलित हो। वाचा रिसोर्स सेंटर फॉर वीमेन एंड गर्ल्स की निदेशक यगना परमार बीएमसी स्कूल में हुए एक घटना के बारे में बताती हैं जहां वे लोग युवा सशक्तिकरण कार्यक्रम के हिस्से के रूप में कम्प्यूटर की क्लास संचालित करवा रहे थे। “लड़कियों के लिए आयोजित एक सत्र में ग़लती से एक लड़का आ गया। हालांकि उसने कुछ नहीं कहा था लेकिन उसके आते ही एक लड़की ने खड़े होकर उसे अपनी जगह दे दी। मेरे पूछने के बाद ही उसे यह एहसास हुआ कि यह सत्र केवल उसके लिए है न कि लड़कों के लिए, और साथ ही किसी ने भी उसे अपनी जगह देने के लिए नहीं कहा था।”

इस कारण से ही जब वाचा ने समुदायों के साथ काम करना शुरू किया तो उसका पूरा ध्यान लड़कियों के लिए एक सुरक्षित स्थान के निर्माण पर था ताकि वे अपने विचारों को व्यक्त कर सकें। इस काम के लिए उन लड़कियों को कौशल-आधारित प्रशिक्षण सत्रों से लेकर विभिन्न प्रकार के खेलों आदि जैसी रचनात्मक गतिविधियों में लगाया गया। इससे उनके अधिकार और आत्मविश्वास का निर्माण होता है। साथ ही इन सभी गतिविधियों में लिंग और उससे जुड़े विचार और बातचीत को शामिल किया जाता है। लड़कियों द्वारा एक-दूसरे के साथ बंधन बनाने और अपने समुदायों के भीतर पहल करने के साथ ही उनकी सामाजिक पूंजी का विकास भी होता है। वे अपने आसपास की दुनिया और पहले से मौजूद मानदंडों और तरीक़ों के अलावा अन्य हितधारकों जैसे अभिभावकों, शिक्षकों और समुदाय के नेताओं से प्रश्न पूछने लगती हैं।

लिंग मानदंडों को बदलने के स्तर पर काम करते समय बड़े समुदाय के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे भी बदलाव को प्रोत्साहित करें और उसे अपना समर्थन दें।

इसलिए लड़कियों के साथ मिलकर लिंग जागरूकता कार्यक्रम को शुरू करना ज़रूरी है। एक बार जब वे नेताओं की भूमिका में आ जाएंगी तब वे अपने साथ लड़कों को भी ला सकती हैं। लेकिन काम यहीं नहीं रुक सकता है। लिंग मानदंडों को बदलने के स्तर पर काम करते समय बड़े समुदाय के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे भी बदलाव को प्रोत्साहित करें और उसे अपना समर्थन दें। वाचा इस प्रकार कॉलेजों में भविष्य के शिक्षकों, छात्रों के साथ स्कूलों में, समुदाय में विभिन्न संवेदीकरण सत्रों और एक वार्षिक स्वास्थ्य और लिंग मेले के माध्यम से तथा अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम करता है। यह एकीकृत, व्यापक दृष्टिकोण है जिसने अंततः सकारात्मक परिणाम प्राप्त किए हैं। उदाहरण के लिए लड़कियों की शादी की उम्र में देरी करना और उनकी उच्च शिक्षा पूरी करना।

युवा लड़कों और पुरुषों के साथ काम करने के विषय पर पल्लवी स्वर्गीय कमला भसीन की कही गई बातों की व्याख्या करती हैं: “दृष्टिकोण ऐसा नहीं होना चाहिए जहां महिलाओं को पुरुषों के खिलाफ खड़ा किया जाए। वास्तव में, हमें उनके साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है, क्योंकि पितृसत्तात्मक मानदंड पुरुषत्व की विषाक्त धारणाओं को उतना ही लागू करते हैं, जितना कि वे स्त्रीत्व की कठोर धारणाओं को करते हैं।” कोरो ने 2000 और 2007 के बीच जनसंख्या परिषद के साथ साझेदारी में एक क्रिया अनुसंधान कार्यक्रम के दौरान पुरुषत्व के अवधारणा निर्माण प्रक्रिया और लिंग हिंसा के कारणों का अध्ययन किया था। इस सत्र में कई पुरुषों ने बताया कि कैसे पुरुष के महिला से श्रेष्ठ होने का विचार कुछ ऐसा है जो वे न केवल अपने आसपास के अन्य पुरुषों के व्यवहार से सीखते हैं, बल्कि अपने जीवन में उपस्थित महिलाओं के व्यवहार से भी सीखते हैं। अध्ययन के दौरान इस तथ्य के बावजूद कि महिलाएं घर के अंदर और बाहर दोनों जगह काम करती हैं, घर के नियंत्रक और रोटी कमाने वालों के रूप में पुरुषों की मर्दानगी की रूपरेखा भी सामने आई। मीडिया द्वारा प्रोत्साहित किए गए ‘पुरुष केवल उस तरह के होते हैं’ या ‘अगर वह मुझे मारता है, तो वह मुझसे प्यार करता है’ जैसे विचार आम थे जिनका सामना कोरो को करना पड़ा।

यगना कहती हैं “कुल मिलाकर, बहुक्षेत्रीय दृष्टिकोण एकल हस्तक्षेप की तुलना में अधिक प्रभावी होने की संभावना है। इसका कारण यह है कि किशोर सशक्तिकरण के जोखिम कारक आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। किशोरों को कम उम्र में शादी या हिंसा के जोखिम में डालने वाली कई कमज़ोरियों को एक साथ संबोधित करने की आवश्यकता है।” अंततः यह एक साथ निर्माण करने के बारे में है, क्योंकि पितृसत्ता हम सभी को प्रभावित करती है और इसका आकार पीढ़ियों और संदर्भों में बदलता रहता है। स्वयंसेवी संस्थाओं और फ़ंडरों के लिए यह अच्छा होगा कि वे समान रूप से इसकी पहचान करें कि लिंग बायनेरीज़ को तोड़ने की प्रक्रिया के लिए धैर्य और प्रतिबद्धता के साथ ही प्रतिक्रिया व विफलता का सामना करने की तत्परता की भी ज़रूरत होती है।

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संतुलित आहार को बढ़ावा देती कोरकू लोगों की पोषण रैली

अनाज वाली पालकी के साथ कोरकू समुदाय की महिलाएं-पोषण कोरकू

सितम्बर 2021 के पहले सप्ताह में मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले में अवलिया गांव की निवासी रेती बाई काम पर जा रही थी। रास्ते में उसकी नज़र अपने ही गांव के ढ़ेर सारे लोगों पर पड़ी जो एक पालकी के साथ-साथ चल रहे थे। कोरकू लोगों के पारंपरिक गीतों और नृत्यों के बाद प्रसाद बांटा गया जैसे कोई त्योहार हो। कोरकू प्रजाति की रेती बाई लगभग 70 साल की एक बुजुर्ग महिला है। उसने अपने समुदाय और गांव में दशकों से होने वाले कई आयोजन और त्योहार देखे हैं लेकिन ऐसा कुछ कभी नहीं देखा था। यह पोषण माह के अंतर्गत आयोजित पोषण रैली था और उस पालकी में स्थानीय लोगों द्वारा उगाए गए जौ, चावल, गेहूं और कई तरह की सब्ज़ियां थीं।

उसने तय किया कि वह भी इस आयोजन में हिस्सा लेना चाहती है।पोषण माह कोई नई अवधारणा नहीं है। भारत भर में आंगनबाड़ी के लोग पिछले कुछ सालों से बच्चों, किशोरों और गर्भवती महिलाओं के बीच संतुलित आहार को बढ़ावा देने के लिए इस तरह का आयोजन करते आ रहे हैं। खंडवा में 2021 में होने वाला आयोजन अलग था क्योंकि इसे कोरकू त्योहारों का रूप दिया गया था। इस आयोजन में धार्मिक उत्सव में स्थानीय देवताओं की तरह ही पालकी में पोषक खाद्य पदार्थो को लेकर घूमा जा रहा था। यह उनका आयोजन बन गया। खंडवा में इस कार्यक्रम के आयोजन में मदद करने वाली स्पंदन समाज सेवा समिति की सीईओ और संस्थापक सीमा प्रकाश ने बताया कि इसके पीछे समुदाय के लोगों को उनके आहार से जुड़ी बातचीत में शामिल करने का विचार था।

“अभी तक इस तरह के कार्यक्रमों का आयोजन समुदाय के लोगों के भागीदारी के बिना ही आंगनबाड़ी केंद्रों में सरकार और एनजीओ द्वारा करवाए जाते रहे हैं। इन आयोजनों को लेकर समुदाय के लोगों के बीच यही धारणा थी कि यह सरकार या एनजीओ का आयोजन है।” इस सोच को बदलने के लिए यह फ़ैसला लिया गया कि आयोजन में इस्तेमाल होने वाली अधिकतर सब्ज़ियां और अनाज गांव से ही लिया जाएगा। प्रकाश आगे कहती हैं “हम लोगों को यह भी दिखाना चाहते थे कि एक संतुलित आहार के लिए आवश्यक सभी चीज़ें उनके अपने ही हाथ में, अपने आसपास ही मौजूद है।”

युवा लड़कियों और बच्चों ने चीजों को इकट्ठा करने का काम किया। चावल उगाने वाले लोग चावल लेकर आए, बाजरा उगाने वाले बाजरा और फिर दाल आई, लौकी, अंडे और बाक़ी सब कुछ; केवल सजवन और शलगम बाहर से लाया गया था क्योंकि ये खंडवा में नहीं उगाए जाते हैं। सब कुछ मिलाकर खिचड़ी तैयार हुई जिसे रेती जैसे समुदाय के बुजुर्गों ने पकाया था। इन बुजुर्गों के लिए यह अवसर पोषण से जुड़े अपने ज्ञान को अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का था। 2021 में पोषण माह के इस स्वरूप को खंडवा के 15–20 गांवों के आंगनबाड़ी केंद्रों में आयोजित किया गया जहां से यह आसपास के गांवों में भी पहुंचा। लेकिन ऐसा अनुमान है कि 2022 में इस उत्सव में 50 से अधिक गांवों के लोग हिस्सा लेंगे।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

रेती बाई स्पंदन समाज सेवा समिति के साथ अवलिया गांव में जागरूकता पहल पर काम करती हैं; सीमा प्रकाश स्पंदन समाज सेवा समिति की संस्थापक और सीईओ हैं। 

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