कैसे कार्यबल में मुसलमान महिलाओं के शामिल न हो पाने की पहली वजह पक्षपात भरी नियुक्तियां हैं

कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व स्तर बहुत ही कम है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (2009–10) के 66वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार प्रत्येक 1,000 कामकाजी महिलाओं में से केवल 101 यानी मात्र 10 फ़ीसदी महिलाएं ही मुस्लिम हैं। 2005 में मुसलमानों की स्थिति का आकलन करने के लिए यूपीए सरकार ने सच्चर समिति का गठन किया था। इस रिपोर्ट में भी पाया गया कि केवल अपने घर के काम तक सीमित रहने वाली मुस्लिम महिलाओं का अनुपात 70 फ़ीसदी है जबकि अन्य समुदायों में यह आंकड़ा 51 फ़ीसदी है। रिपोर्ट ने कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं की कम भागीदारी को मुसलमानों के रोजगार अनुपात में पिछड़ने के प्रमुख कारण के तौर पर रेखांकित किया है। 2011 के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारतीय श्रमिकों में मात्र 32.6 फ़ीसदी ही मुसलमान हैं जबकि हिंदू और ईसाइयों में यह आंकड़ा क्रमश: 41 और 41.9 फ़ीसदी है।

हालांकि ये आसमानताएं बहुत कुछ साफ़ कर देती हैं लेकिन इन संख्याओं की पुष्टि करने और इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए हमारे पास पर्याप्त शोध या आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। मुस्लिम महिलाओं के पिछड़ेपन पर उपलब्ध ज़्यादातर दस्तावेज श्रम बल में उनकी उपस्थिति की बजाय व्यक्तिगत क़ानून और संवैधानिक संरचना1 पर केंद्रित हैं। इसके अलावा, सार्वजनिक रूप से भी उनके सपनों, आशाओं और इच्छाओं पर बहुत कम बातचीत होती है।

मुस्लिम महिलाओं के पेशेवर विकास पर केंद्रित भारत के पहले लीडरशीप इंक्युबेटर लेडबाय फ़ाउंडेशन ने जून 2022 में एक अध्ययन करवाया था। इस अध्ययन के जरिए उन्होंने मुस्लिम और हिंदू महिलाओं के श्रम बल में शामिल होने के बीच के अंतर की जांच की। इस अध्ययन का उद्देश्य यह समझना था कि क्या श्रम बाज़ार में अनुपातिक रूप से मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम होने का कारण पक्षपात के साथ की जाने वाली नियुक्तियां हैं।

दो नाम, एक दूसरे से बहुत अलग प्रतिक्रियाएं

यह अध्ययन करने के लिए भारत में प्रवेश स्तर की भूमिकाओं के लिए बाजार मानकों के मुताबिक एक समान योग्यता वाले दो प्रोफ़ाइल बनाए गए। इन दोनों प्रोफ़ाइल में सिर्फ़ एक चीज़ अलग रखी गई थी – वह थे उम्मीदवारों के नाम। मुस्लिम प्रोफ़ाइल के लिए हबीबा अली नाम चुना गया और हिंदू प्रोफ़ाइल को प्रियंका शर्मा का नाम दिया गया। इन दोनों प्रोफ़ाइल्स में कोई तस्वीर नहीं लगाई गई थी।

आठ महीनों के समय में, इन प्रोफ़ाइल्स से लिंक्डइन और नौकरी डॉट कॉम सहित अन्य साइटों पर 1,000 नौकरियों के लिए 2,000 आवेदन भेजे गए। विभिन्न क्षेत्रों में कंटेंट राइटिंग, बिज़नेस डेवलपमेंट एनालिसिस और सोशल मीडिया मार्केटिंग की नौकरियों के लिए ये आवेदन किए गए थे। इस शोध का शुरूआती लक्ष्य दोनों उम्मीदवारों को मिलने वाली सकारात्मक प्रतिक्रियाओं की संख्या का उपयोग करके भेदभाव के कुल प्रतिशत का पता लगाना था। शोधकर्ताओं ने भर्ती के अगले दौर में जाने की सभी प्रतिक्रियाओं को सकारात्मक माना। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ऐसे उदाहरणों पर विचार किया और उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया की श्रेणी में रखा जहां कंपनियों ने लिंक्डइन पर ‘प्रियंका’ या ‘हबीबा’ को ढूंढ़ कर उन तक पहुंचने की कोशिश की थी। यहां पर जिन 1,000 नौकरियों के लिए आवेदन किए गए थे, उनमें से प्रियंका को 208 सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलीं जबकि हबीबा को मात्र 103 सकारात्मक प्रतिक्रियाएं ही मिलीं। यह अंतर भेदभाव दर के 47.1 फ़ीसदी आंकड़े को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त जहां 41.3 फ़ीसदी नियोक्ताओं ने प्रियंका से फ़ोन पर बात की, वहीं हबीबा को मात्र 12.6 फ़ीसदी नियोक्ताओं का फ़ोन आया। इस अध्ययन से यह भी पता चला कि मार्केटिंग और ऐड्वर्टायज़िंग, सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा, ई-लर्निंग और शिक्षा प्रबंधन जैसे उद्योगों में पूर्वाग्रह और पक्षपात का स्तर सबसे उंचा था।

संक्षेप में, जहां हिंदू महिलाओं को दो सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलती हैं वहीं मुस्लिम महिलाओं को केवल एक प्रतिक्रिया मिलती है।

पाँच पंक्तियों में लोगों का चित्रण। लोग पीले रंग की पृष्ठभूमि के खिलाफ नीले रंग में हैं, केवल एक लाल रंग को छोड़कर_मुसलमान महिला
मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अवसरों तक पहुंच समाज की सामाजिक और वित्तीय समानता के लिए महत्वपूर्ण है। | चित्र साभार: पिक्साबे

इस परिस्थिति को बदलने के लिए क्या किया जा सकता है?

हालांकि यह एक महत्वपूर्ण जानकारी है लेकिन यह मात्र एक शुरुआती बिंदु भर है। भारतीय मुस्लिम महिलाओं पर और श्रम-और-रोज़गार-केंद्रित शोध किए जाने की ज़रूरत है। अलग-अलग राज्यों, उद्योगों, कामकाज के तरीकों, नौकरी के स्तरों और जॉब सर्च एग्रीगेटर वगैरह का अध्ययन कर समझा जा सकता है कि इन जगहों पर किस तरह से भेदभाव किए जाते हैं। यह अध्ययन पूर्वाग्रहों को ठीक से समझने में मददगार होगा। इसके बाद ही अन्य जटिलताओं और बारीकियों, जैसे कार्यस्थल में हिजाबी और गैर-हिजाबी मुस्लिम महिलाओं की उपस्थिति आदि का अधिक विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है।

इस अध्ययन में संगठनों और उद्योगों द्वारा नियुक्ति के लिए किए जाने सम्पर्क के तरीक़ों से जुड़े प्रणालीगत मुद्दों पर भी प्रकाश डाला गया है। एक अपेक्षाकृत अधिक समावेशी नियुक्ति प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए संगठन निम्नलिखित सुझावों पर काम कर सकते हैं:

1. ब्लाइंड हायरिंग प्रोसेस

ब्लाइंड हायरिंग प्रोसेस में उम्मीदवार के प्रोफ़ाइल से नाम और ऐसी अन्य ग़ैर-ज़रूरी सूचनाएं हटाई जा सकती हैं। ऐसा करने से भर्ती प्रक्रिया को पक्षपात से बचाया जा सकता है। उदाहरण के लिए बीबीसी अपने उम्मीदवारों के रेज़ूमे से उनके नाम और विश्वविद्यालय आदि की जानकारियां हटा देता है। वहीं, डेलॉइट के यूके बिजनेस ने अनजाने में होने वाले पक्षपात को रोकने के उद्देश्य से अंतिम प्रस्ताव वाले चरण तक नियोक्ताओं और साक्षात्कारकर्ताओं से आवेदकों की शिक्षा से जुड़ी जानकरियों को छुपाने का फ़ैसला लिया है। अर्न्स्ट एंड यंग और रेकिट बेंकिज़र कुछ अन्य कंपनियां हैं जो कार्यस्थल में अलग-अलग तरह के लोगों को शामिल करने के लिए ब्लाइंड हायरिंग को अपना रही हैं।

2. कार्य नमूना परीक्षण / वर्क सैम्पल टेस्ट

यह परीक्षण नियोक्ताओं को किसी कार्य विशेष या कौशल के आधार पर उम्मीदवारों के व्यक्तित्व, लिंग, आयु और धर्म आदि से परे उनकी योग्यता का मूल्यांकन करने में मदद करता है। टेस्ट-फ़र्स्ट अप्रोच से कम्पनियों को कम लागत में उपयुक्त उम्मीदवारों की एक बेहतर सूची तैयार करने में मदद मिलती है और वे अपेक्षाकृत अयोग्य उम्मीदवारों की छंटनी कर पाते हैं।

3. पैनल भर्ती

भर्ती के लिए विविध पैनल होने से नियुक्ति प्रणाली को व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से मुक्त रखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, नियुक्ति प्रक्रिया में मुस्लिम औरतों के ज्यादा शामिल होने से अधिकतम मुस्लिम महिलाओं को प्रक्रिया के तहत उचित अवसर मिल सकेगा। इसके अलावा, मुस्लिम महिला आवेदक उस संगठन में आवेदन करने में अधिक रुचि दिखाएंगी जहां उन्हें मुस्लिम महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिखेगा।

4. विविधता लक्ष्य

विविधता लक्ष्य (डायवर्सिटी गोल्स) निर्धारित करके, संगठन किसी समूह के लिए प्रतिनिधि भर्ती प्रक्रिया को वरीयता दे सकते हैं और विविधता को प्राथमिक बना सकते हैं। उदाहरण के लिए 2020 में एक्सेंचर यूएसए ने अपने कार्यबल में विविधता लाने के लिए कई महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए थे। कंपनी ने उच्च स्तर की जवाबदेही के लिए सार्वजनिक लक्ष्य निर्धारित करने की अनुमति दी थी। विविधता लक्ष्य का कम्पनी फिलॉसफी में शामिल होना यह सुनिश्चित करता है कि कंपनियां नियमित रूप से अपनी प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करने की व्यवस्था बनाकर रखती हैं। और, इसका विश्लेषण करती हैं कि कहीं किसी समूह विशेष को अनुचित लाभ तो नहीं मिल रहा है।

5. बातचीत की सुविधा

जहां संरचनात्मक समाधान महत्वपूर्ण हैं, वहीं व्यक्तिगत स्तर पर भी बदलाव लाए जा सकते हैं। आमतौर पर काम वाली जगहों पर विविधता के बारे में बातचीत नहीं की जाती है जिससे पूर्वाग्रह और किसी तरह के भेदभाव की तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता है। जागरूकता बढ़ाने वाली, कार्यस्थल को सुरक्षित बनाने वाली और समावेश की मांग करने वाली बातचीत होते रहना, सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से निपटने का सबसे प्रभावी तरीक़ा है।

मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अवसरों तक पहुंच, समाज में सामाजिक और वित्तीय समानता के लिए महत्वपूर्ण है। यहां पर उन उपायों की एक सामान्य सूची थी जिसे एक समावेशी भर्ती प्रक्रिया बनाते समय पूर्वाग्रहों से बचने या उन्हें दूर करने के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। संगठनों के भीतर ही विविधता प्रोफ़ाइल पर शोध में आई वृद्धि और बढ़ी हुई विविधता को समायोजित करने के लिए एक बेहतर और नया सुधार लाना न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि यह एक आवश्यक कदम भी है।

फुटनोट:

  1. ए सुनीथा, ‘मुस्लिम वीमेन एंड मैरिज लॉ: डिबेटिंग द मॉडल निकाहनामा’, एकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली 47, नं. 43 (2012), पृष्ठ. 40–48;

    नरेंद्र सुब्रमण्यम, ‘लीगल चेंज एंड जेंडर इनइक्वालिटी: चेंजेस इन मुस्लिम फ़ैमिली लॉ इन इंडिया’, लॉ & सोशल इंक्वायरी 33, नं. 3 (2008);

    निर्मला सिंह एंड रहिल अहमद, ‘मुस्लिम विमन एंड ह्यूमन राइट्स’, द इंडीयन जर्नल ऑफ़ पॉलिटिकल साइयन्स 73, नं. 1 (2012);

    शशि शुक्ला एंड शशि शुक्ला, ‘पॉलिटिकल पर्टिसिपेशन ऑफ़ मुस्लिम विमन’, द इंडियन जर्नल ऑफ़ पॉलिटिकल साइयन्स 57, नं. 1/4 (1996).

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कैसे सोशल मीडिया से एक बाटिक कारीगर ने सीखे नए तरीके

कपड़े से मोम हटाते हुए बाटिक कारीगर_बाटिक कारीगर

मैं गुजरात के कच्छ ज़िले का एक बाटिक कारीगर हूं। बाटिक मोम प्रतिरोधी रंगाई और ब्लॉक प्रिंटिंग की एक तकनीक है। मेरा परिवार पिछले छः पीढ़ियों से इस काम को कर रहा है। शुरुआत में मैंने पारिवारिक व्यापार में मदद करते हुए इस कला को सीखा। बहुत बाद में जाकर मैंने बाटिक उत्पादन की अपनी समझ को विस्तृत किया। इस शिल्प से जुड़ी अपनी समझ को विकसित करने के लिए मैंने स्कूल और सोशल मीडिया वाले तरीक़े अपनाए।

साल 2009 में मैं कला रक्षा विद्यालय से जुड़ा। यह एक डिज़ाइन संस्थान है जहां मुझे अन्य पारंपरिक कारीगरों के साथ-साथ प्रतिष्ठित डिजाइन स्कूलों के शिक्षकों के साथ बातचीत करने का अवसर मिला। मैंने डिज़ाइन, कलर ग्रेडेशन, प्रोडक्ट फ़िनिशिंग, प्रदर्शन आदि पर होने वाली कक्षाओं में भाग लिया और अपने शिल्प को लेकर नई अंतर्दृष्टि हासिल की।

स्कूल में बिताए मेरे समय से मेरे अंदर रंगों और डिज़ाइन के साथ प्रयोग करने का विश्वास बढ़ा। इसने मेरे दिमाग को भी खोल दिया और मुझे उन सभी रंगों, बनावटों और पैटर्नों को सराहने और उनसे प्रेरणा लेने का मौका दिया, जिनसे मैं अपने दैनिक जीवन में घिरा हुआ था। इसके बाद जल्द ही मैंने बनावटों के साथ नए नए प्रयोग शुरू कर दिए। इन सारी गतिविधियों ने अंतत: मुझे 2016 में इंस्टाग्राम तक पहुंचा दिया। यहां मैंने अपने डिज़ाइन की प्रेरणाओं और नवाचारों के बारे में पोस्ट करना शुरू कर दिया। अपने विचारों को अपने तक ही सीमित रखने के बजाय मैं इसे इस उम्मीद में लोगों के साथ बांटना चाहता था कि दूसरे लोग भी इससे प्रेरित होंगे।

यदि आप सोशल मीडिया का इस्तेमाल ढंग से करते हैं तो आप इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। दुनिया भर के अन्य बाटिक उत्पादकों द्वारा अपनाई जा रही तकनीकों को सीखने के लिए मैं नियमित रूप से यूट्यूब पर ट्यूटोरियल देखता हूं। उदाहरण के लिए मुझे कपड़े से मोम हटाने की एक नई प्रक्रिया का पता चला। हमारे द्वारा मोम हटाने के लिए उपयोग किया जाने वाला तरीक़ा बहुत ही मुश्किल और थकाऊ है। हम कपड़े को उबलते गर्म पानी में डुबोने के लिए लकड़ी के दो टुकड़ों का उपयोग करते और फिर कपड़े को मोड़ देते हैं जिससे सारा मोम निकल जाता है। एक बार में हम कपड़े की पांच गुना लम्बाई को गर्म पानी में 10 मीटर के एक यार्ड के साथ डुबाते हैं। पानी और मोम के अतिरिक्त वजन के अलावा कपड़े के वजन से हमारे शरीर पर बहुत दबाव पड़ता है।

इसलिए मैंने ऑनलाइन वैकल्पिक तरीकों को खोजने का फैसला किया। मुझे इंडोनेशिया में इस्तेमाल की जाने वाली एक तकनीक के बारे में पता चला। इस तकनीक में कारीगर पानी में कपड़े की सिर्फ़ एक लम्बाई डुबाते हैं और कपड़े को घुमाए बिना धीरे-धीरे मोम को हटा देते हैं। जब मैंने पहली बार अपने साथ काम करने वालों को यह वीडियो दिखाया, तो उन लोगों ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। उनका कहना था कि यह प्रक्रिया अधिक समय लेने वाली है। जितने समय में वे 10 कपड़े का मोम हटाते हैं इस प्रक्रिया के इस्तेमाल से उतने ही समय में केवल तीन टुकड़े ही तैयार हो सकते हैं। हालांकि उनमें से जब कुछ ने इस नई विधि से काम करने की कोशिश की तो उन्हें यह पसंद आया क्योंकि इसमें बहुत अधिक शारीरिक मेहनत नहीं थी। धीरे-धीरे दूसरे लोगों ने भी इस तरीक़े का इस्तेमाल शुरू कर दिया। तब से मैं नियमित रूप से दुनिया भर के कारीगरों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली प्रक्रियाओं और विधियों के बारे में जानने के लिए ऑनलाइन अध्ययन में अपना समय लगाता हूं। अपने शिल्प को बेहतर बनाने के लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग करने के कई लाभ हैं।

शकील खत्री रैंबो टेक्सटाइल्स और नील बाटिक के मैनेजिंग पार्ट्नर हैं। नील बाटिक 200 मिलियन आर्टिज़न्स के साथ काम करता है जो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के लिए कंटेंट पार्ट्नर है।

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छोटे और पिछड़े किसानों के लिए खेती को सहज बनाना

भारत की 43 फ़ीसदी आबादी के लिए आजीविका का मुख्य स्त्रोत कृषि है और इसने साल 2020–21 में देश की कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में 18.8 फ़ीसदी का योगदान दिया है। इसे संभव बनाने वाले लगभग 85 प्रतिशत किसान परिवार, ऐसे छोटे या सीमांत किसान हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से कम ज़मीन है। वास्तव में, औसत जोत प्रति परिवार केवल 0.5 हेक्टेयर है। ज़मीन के इन छोटे टुकड़ों को अक्सर खेती के लिए अव्यावहारिक माना जाता है और यह समझा जाता है कि इतनी जमीन अपने मालिकों को स्थाई आजीविका देने में सक्षम नहीं होती है। उन इलाक़ों में इस स्थिति के और भी गम्भीर होने की संभावना है जहां जल संरक्षण एक मुद्दा हो।

उत्तर-पश्चिम महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इलाक़ा ऐसा ही एक उदाहरण है। यह एक सूखा-प्रभावित इलाक़ा है जहां पानी का उपलब्ध ना होना एक व्यापक स्तर की समस्या है और इसी के चलते यहां की ज़मीन को समुदाय के सदस्यों और नीति निर्माताओं द्वारा अव्यावहारिक कह कर ख़ारिज कर दिया जाता है। इस स्थिति का नतीजा  खाद्य असुरक्षा, पलायन और कर्ज के ढ़ेर के रूप में देखने को मिलता है। उधर देश के पूर्वी इलाक़ों जैसे पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ राज्यों में घने जंगल होने के कारण, अनियमित रूप से ही सही लेकिन बहुत अधिक बारिश होती है। इन क्षेत्रों में भी जल संरक्षण एक मुद्दा है क्योंकि असमतल भौगोलिक स्थिति होने के कारण पानी का बहाव तेज होता है।

इन भौगोलिक क्षेत्रों के अलग-अलग होने के बावजूद, दोनों ही जगहों पर छोटे किसानों को एक जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन इलाक़ों में जब जल संरक्षण सुनिश्चित करने के प्रयास किए गए तो जल आपूर्ति में सुधार लाने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है। जलवायु संकट के कारण होने वाली अनियमित वर्षा, जल भंडारण के लिए बुनियादी ढांचे (जैसे बांध और खेत के तालाब) के निर्माण और रखरखाव में आने वाला खर्च और समुदायों द्वारा पानी का दुरुपयोग किया जाना, कुछ ऐसे कारण हैं जो इस दृष्टिकोण को सीमित कर देते है।

दो संगठन रास्ता दिखा रहे हैं

स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) एक ऐसा स्वयंसेवी संगठन है जो 1993 से मराठवाड़ा क्षेत्र में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम कर रहा है। यह संगठन लातूर भूकम्प के विनाशकारी प्रभावों से निपटने में समुदाय की मदद के उद्देश्य से बनाया गया था। 

एसएसपी के कार्यक्रम निदेशक उपमन्यु पाटिल बताते हैं कि “हम पिछले तीन दशकों से महिलाओं के साथ कई और बारीक स्तरों पर काम कर रहे हैं। हम उन्हें उद्यमिता में प्रशिक्षित करने और सामुदायिक स्तर पर फ़ैसले लेने में योग्य बनाने पर काम कर रहे हैं। 2013–14 में जब हमने अनगिनत किसानों को आत्महत्या करते देखा तो हमने फ़ैसला किया कि अब कृषि के क्षेत्र में काम करने का समय आ गया है। इसके लिए हमने प्रारम्भिक अध्ययन किए। इन अध्ययनों में हमने पाया कि लोग ऐसी नक़दी फसलों की खेती करते हैं जिनमें बहुत अधिक लागत की ज़रूरत होती है। और, कम या अधिक बारिश, कर्ज की बढ़ती राशि और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के आने से स्थिति बिगड़ जाती है। ऐसे में उनके पास ना नक़द होता है और ना ही भोजन।”

देश के पूर्वी इलाके की कहानी इससे थोड़ी अलग भले ही है लेकिन उसके नतीजे मराठवाड़ा जैसे ही हैं। पश्चिम बंगाल के 72 पश्चिमांचल उन्नयन पार्षद प्रखंडों/ब्लॉकों में भौगोलिक स्थितियों और वर्षा आधारित फसलों पर निर्भरता ने समुदाय को एक फसल वाली खेती के लिए प्रेरित किया। यह एक आदिवासी बहुल इलाक़ा है और शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, आय और उत्पादकता के मामले में अत्यधिक गरीब भी। यहां के कई लोग अपने परिवार को एक समय का भोजन देने में भी सक्षम नहीं थे और पलायन कर पश्चिम बंगाल के अन्य इलाक़ों और यहां तक कि राज्य से बाहर भी जा रहे थे।

प्रदान पिछले तीन दशकों से भारत के मध्य और पूर्वी इलाक़ों में आजीविका के क्षेत्र में काम करने वाला एक स्वयंसेवी संगठन है। इसने झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में सामुदायिक भागीदारी मॉडल के माध्यम से महिलाओं के साथ जुड़ने का काम किया है। इसके बाद से ही इन क्षेत्रों की महिलाओं की आय, आत्मविश्वास और फ़ैसले लेने की उनकी क्षमता में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है। जब प्रदान ने पश्चिम बंगाल में काम करना शुरू किया तब वे महिलाओं के साथ किए गए काम से मिलने वाले अनुभवों को आगे लेकर गए।

प्रदान के पश्चिम बंगाल इकाई के इंटिग्रेटर अलक जना का कहना है कि “हमने इस क्षेत्र में विकास की चुनौतियों और आदिवासी समुदाय के सामने आने वाली समस्याओं के बारे में जानने में समय लगाया। समय के साथ हमने उन्हें महिला समूहों के विभिन्न रूपों में संगठित करने में सक्षम बनाया। साथ ही, उनके लिए पंचायती राज संस्थानों, सरकारी प्रशासन, बैंकों और बाजारों सहित कई हितधारकों के साथ जोड़ने के तरीक़े और रास्ते बनाए। संक्षेप में कहा जाए तो यहां हम एक उत्प्रेरक और सूत्रधार की भूमिका निभा रहे थे।”

कैमरे की तरफ़ पीठ की हुई एक महिला खेत में खड़े होकर अपने हाथ में सिंचाई वाली एक पाइप पकड़े हुए _खेती किसान
पानी की कमी से निपटने के लिए भौगोलिक और पारम्परिक तरीक़ों का स्थानीय ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण होता है। | चित्र साभार: आईडबल्यूएमआईसीसी बीवाई

छोटी जोत वाली खेती को बदलना: उन्होंने यह कैसे किया

1. महिलाओं को एकत्रित करना

सबसे पहला काम छोटे और कम जोत वाले किसान परिवारों की महिलाओं को स्व-सहायता समूहों में संगठित करना था। अलक ने आगे बताया कि “हम लोगों ने उनकी ज़रूरतों, उनके सामने आने वाली समस्याओं को समझने और उनके पास उपलब्ध संसाधनों के बारे में जानने के लिए उनसे बातचीत की। और, यह काम हमने सहभागी प्रक्रियाओं का उपयोग करते हुए किया। हमने आजीविका के उन अवसरों के बारे में भी पता लगाया जिन पर काम करके ये महिलाएं अपनी आय, पोषण और भोजन की जरूरतों को पूरा कर सकती थीं।” 

“हमने उन परिवारों को चिन्हित करना शुरू किया जिनके पास साल भर का भोजन नहीं था, जहां कुपोषण का स्तर बहुत उंचाई पर पहुंच चुका था और जिनकी आय बहुत कम थी। लेकिन फिर भी अपने और अपने बच्चों के लिए उनकी आकांक्षाएं बहुत उंची थीं।”

प्रदान के टीम कोर्डिनेटर रितेश पांडे के अनुसार “ज्ञान ताक़त है और जब महिलाएं अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे पोषण, आजीविका और स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी के साथ-साथ बाज़ारों, बैंकों और सरकारी योजनाओं तक पहुंचने के लिए कौशल विकसित कर लेती हैं। तब यह ज्ञान ही उनकी क्षमताओं को बढ़ाता है और उन्हें कई चुनौतियों का समाधान करने में मदद करता है। वे उनका सामना करती हैं।”

2. परंपरा और विज्ञान के संयोजन का उपयोग करना

शुरुआत में इस क्षेत्र में खेती के इतिहास और उत्पत्ति को समझने के लिए महिलाओं को अपने गांवों में बुजुर्गों के साथ बातचीत करनी थी। भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक प्रथाओं का स्थानीय ज्ञान महत्वपूर्ण है। इस ज्ञान का अधिकांश हिस्सा, जैसे कि क्या उगाना है, मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार कैसे करना है, और पानी की कमी से निपटने के लिए क्या किया जा सकता है, स्थानीय लोगों के दिमाग में रहता है।

अलक बताते हैं कि प्रदान ने महिला किसानों को आधुनिक बाज़ारों के लिए पारंपरिक प्रथाओं को अपनाने और बाज़ार के मुताबिक उन्हें नई तरह से ढालने में मदद की। उदाहरण के लिए उन्होंने इन इलाक़ों में पारंपरिक रूप से उगाए जाने वाली चावल की क़िस्मों को लगाना शुरू किया। “अगर सही तरीक़ा अपनाया जाए तो चावल की इन क़िस्मों की फसल भी मुख्यधारा के धान जितनी ही उत्पादक होती है। इसके बाद चुनौती यह थी कि इन किस्मों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने के लिए मदद की जाए और इसके लिए कुछ तरीक़ों में सुधार किया जाए। बजाय इसके कि इन्हें बस कम मात्रा में होने वाले कुछ चुनिंदा उत्पादों की तरह देखा जाए।”

प्रदान और एसएसपी दोनों ने ही इसमें वैज्ञानिक समझ के पहलू को भी शामिल करने का काम किया। उन्होंने अपने किसानों को कृषि विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के प्रमुख वैज्ञानिकों से जोड़ा। ये वैज्ञानिक इन महिला किसानों से बात करते थे, उनके खेतों का मुआयना करते थे और फिर अपने सुझाव देते थे। “हमने विश्विद्यालयों के साथ साझेदारी की कि वे अपने कुछ प्रदर्शनों को विश्वविद्यालय की प्रयोगशालाओं में करने की बजाय किसानों के खेतों में करें। खुद करके सीखने से महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ाने में मदद मिली। उदाहरण के लिए बिधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर महिला किसानों के खेत पर जाते थे और मिट्टी की नमी मापने के लिए वहीं अपना यंत्र लगाते थे। इसके बाद परिणाम के मुताबिक अपने सुझाव देते कि कौन सी फसल किस मौसम में पैदा होगी,” रितेश बताते हैं।

प्रदान के मदद से किए गए विभिन्न सहयोगों और वैज्ञानिकों की सिफारिशों के कारण, पानी की अधिकता वाले धान से धीरे-धीरे उन फसलों के उत्पादन में बदलाव आया है जिन्हें खुले बाजारों में बेचा जा सकता है। मराठवाड़ा के मामले में, एसएसपी ने किसानों को अधिक पानी की खपत वाली नकदी फसलों से दूर पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य फसलों जैसे दाल, फल और सब्जियों की ओर बढ़ने में मदद की है।

3. समझना कि ज्यादा निवेश बेहतर नतीजों की गारंटी नहीं है

देशभर में ज़्यादातर किसानों की आम समझ यही है कि अधिक उत्पादन के लिए अधिक निवेश जैसे अधिक पानी, अधिक उर्वरक आदि की ज़रूरत होती है। लेकिन एसएसपी और प्रदान दोनों ने यह दिखा दिया कि बेहतर इनपुट प्रबंधन से बेहतर उत्पादकता प्राप्त की जा सकती है।

कम पानी की ज़रूरत और पत्तियों और वर्मीकम्पोस्ट जैसे जैव पदार्थों के उपयोग से की जाने वाली जैव कृषि से खेती में आने वाले खर्चे में कमी आती है।

महिला किसानों द्वारा अपनाई गई कई तकनीकों ने उनके खेतों में पानी की खपत को कम करने में मदद की है। इसका एक उदाहरण जैविक खेती है। इसमें सड़ी-गली पत्तियां और वर्मीकम्पोस्ट जैसे जैव अपशिष्टों का उपयोग होता है जो स्थानीय रूप से आसानी से उपलब्ध होते हैं और इससे उत्पादन लागत में भी कमी आती है। ऐसी ही एक अन्य तकनीक ड्रिप स्प्रिंकलर का उपयोग है जो पौधों की जड़ों को धीमी गति से (2–20 लीटर प्रति घंटे) पानी की थोड़ी मात्रा पहुंचाती है। इसने मराठवाड़ा में अच्छा काम किया है जहां एसएसपी महिलाओं को प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना जैसी योजनाओं तक पहुंचाने में मदद कर सका है। इस योजना के तहत किसानों को स्प्रिंकलर की लागत पर सब्सिडी मिलती है। इन तकनीकों को अपनाने से जल भराव वाली सिंचाई के पुराने तरीके की तुलना में कम पानी खपत होता है। साथ ही, यह मराठवाड़ा जैसे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण बदलाव साबित हुआ है।

इन तकनीकों का प्रभाव स्पष्ट है। पिछले तीन सालों में मराठवाड़ा में अच्छी बारिश हुई है और वहां का जल स्तर भी चार इंच बढ़ा है। इसके साथ ही, इस क्षेत्र में किसान आत्महत्या दर में गिरावट देखी गई है।

4. फसलों में विविधता लाना और कई फसलें हासिल करना

दोनों क्षेत्रों की महिला किसानों ने एकल-फसल को छोड़कर बहु-फसल मॉडल को अपना लिया है। अलक बताते हैं कि आमतौर पर खरीफ फसल के मौसम के अंत में, 85–90 प्रतिशत भूमि परती (ख़ाली) रहती थी। “अब, अपने नए हासिल ज्ञान के आधार पर महिलाओं ने खरीफ के दौरान कम अवधि की धान की किस्मों की खेती की खोज कर ली है ताकि मिट्टी में कुछ नमी बरकरार रहे। यह दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि कम पानी की आवश्यकता वाली फसलें जैसे दालें, तिलहन या सब्ज़ियों जैसी दूसरी फसलों (जिसमें मिट्टी को केवल हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है) के लिए मिट्टी में नमी की पर्याप्त मात्रा उपस्थित रहे। कुछ किसान एक ही भूमि का उपयोग साल की तीसरी फसल के लिए भी करते हैं – उदाहरण के लिए वे लता वाली फसलें उगाते हैं जिनमें कम पानी लगता है और गर्मी के महीनों में इनसे भोजन और नकदी प्राप्ति होती है।”

वास्तव में, महिलाएं लगातार अपनी फसल के विकल्पों, निवेश के तरीकों और जल प्रबंधन के जरिए खाद्य सुरक्षा, पोषण और आय को अधिकतम करने के उपायों के बारे में सोच रही हैं – यह एक ऐसी बात है जो कुछ साल पहले इन क्षेत्रों में नहीं सुनी गई थी।

परिणाम दिखने लगे हैं

अलक के अनुसार “जब बात इस क्षेत्र के धान की आती है तब यहां की पारंपरिक उत्पादन क्षमता 1.9–2 मेट्रिक टन प्रति हेक्टेयर थी। कृषि के बेहतर तरीक़ों को अपनाने के बाद यह मात्रा बढ़कर 3.5–4 मेट्रिक टन प्रति हेक्टेयर हो गई है। इससे महिलाओं के आत्मविश्वास का स्तर और उनकी फसलों की उत्पादकता दोनों बढ़ी है। साथ ही खाद्य पदार्थों की पर्याप्त मात्रा सुनिश्चित हुई है और लोगों की आमदनी में वृद्धि हुई है।जल सुरक्षा में हुई वृद्धि के अन्य सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलने लगे हैं। 2014–15 में संबोधि द्वारा किए गए अध्ययन से यह बात सामने आई कि पश्चिम बंगाल के ऊपरी इलाक़ों में पलायन दर अन्य क्षेत्रों की तुलना में 50 फ़ीसदी अधिक थी। चार साल बाद यह घट कर 30 फ़ीसदी हो गई। अब इस क्षेत्र को संकट प्रवास के उच्च दर वाले क्षेत्र के रूप में नहीं देखा जाता है।

खाद्य फसलों की खेती से खाद्य सुरक्षा में वृद्धि हुई है और महिलाओं के परिवारों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ है।

उपमन्यु ने हमें बताया कि मराठवाड़ा में भी ऐसे ही परिणाम देखने को मिले हैं। खाद्य फसलों को उपजाने से खाद्य सुरक्षा में बढ़त हुई है और यह महिलाओं के परिवारों के स्वास्थ्य में आए सुधार में भी सहायक हुआ है। इसके चलते महिलाओं की आय बढ़ी है और उनके अधिकार क्षेत्र में भी विस्तार आया है। समाज और पर्यावरण के स्तर पर इन तरीक़ों के इस्तेमाल से पानी की मांग में कमी आई है और मिट्टी की गुणवत्ता भी बेहतर हुई है। ये दोनों ही बातें जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले दबावों से निपटने के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनका किसान हर दिन सामना कर रहे हैं।

सरकार ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई

एसएसपी और प्रदान दोनों ही इन नई तकनीकों और तरीकों के प्रति सरकार की बढ़ती ग्रहणशीलता के बारे में बात करते हैं। अलक कहते हैं कि “हम केवल पंचायतों और ग्रामीण विकास विभागों से ही नहीं बल्कि कृषि, बागवानी और जल संसाधन जांच और विकास विभागों से भी मिल रहे हैं। अब वे अपने कार्यक्रमों में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और बेहतर बागवानी के तरीकों को अपना रहे हैं।”

उपमन्यु जैविक खेती पर केंद्र के साथ-साथ महाराष्ट्र सरकार द्वारा बढ़ाई गई तवज्जो की बात करते हैं। वे कहते  हैं कि  “हमने महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना पर काम किया जिसका फंड केंद्र सरकार से मिलता है। सरकार चाहती है कि महिलाएं किसानों के तौर पर पहचानी जाएं और इसके साथ ही वह खाद्य फसल और जैविक खेती को प्राथमिकता देने की इच्छुक है। इसलिए इस काम के लिए बड़ा बजट आवंटित किया गया है। हमारा काम यह सुनिश्चित करना है कि महिलाएं इसमें शामिल हों और ये योजनाओं उन तक पहुंचें।

हालांकि प्रदान और एसएसपी कई दशकों से अपने क्षेत्रों में महिलाओं के साथ काम कर रहे हैं, लेकिन यह सफलता के लिए पहले से मौजूद शर्त नहीं है। उपमन्यु बताते हैं कि कैसे इस मॉडल से उन नए इलाकों में भी जबरदस्त सफलता देखने को मिली है जिनमें उन्होंने हाल ही में विस्तार किया है। ये ऐसे जिले हैं जहां एसएसपी की पहले से कोई उपस्थिति नहीं थी – जैसे औरंगाबाद, अहमदनगर और वाशिम। दरअसल, इन जिलों में ये मॉडल सीधे सरकार के पास गए हैं। “इन तीनों ज़िलों के समुदायों में हमारी किसी भी तरह की उपस्थिति नहीं है, इसलिए इन गांवों में हम सरकार के फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दे रहे हैं।” उपमन्यु ने भविष्यवाणी की है कि खरीफ फसल के इस पहले मौसम में ही वे औरंगाबाद और नगर के दो जिलों में लगभग 20,000 किसानों तक पहुंचेंगे।

एसएसपी और प्रदान दोनों ने ही यह दिखाया है कि लगातार सरल और नए तरीकों को अपनाकर छोटी जोत वाली खेती को व्यावहारिक बनाना संभव है। इसमें महिलाओं को एकत्रित करने, सिंचाई के लिए प्रौद्योगिकी के उपयोग या फसल पैटर्न में बदलाव करने जैसे काम शामिल हैं। इस समाधान की प्रकृति यूनीवर्सल (सार्वभौमिक) है इसलिए इसे लागू करना और इसकी नक़ल पर काम करना आसान है। 

समीकरण के मांग पक्ष पर ध्यान केंद्रित करके, छोटी जोत वाली महिला किसानों ने दिखाया है कि वे पहले अपर्याप्त या बंजर मानी जा चुकी जमीन पर खेती कर सकती हैं। साथ ही, ये महिलाएं यह भी सुनिश्चित करती हैं कि उनके परिवार का पेट भरा हो और स्वास्थ्य अच्छा रहे। फिर भले उनके पास बाज़ार में बेचने के लिए अतिरिक्त अनाज हो या न हो। ऐसा करते हुए वे भारत में छोटी जोत वाली खेती के परिदृश्य को बदल रही हैं।

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फोटो निबंध: घरेलू वायु प्रदूषण का महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव

नागपुर महाराष्ट्र का तीसरा सबसे बड़ा शहर होने के साथ ही राज्य का प्रमुख व्यावसायिक और राजनीतिक केंद्र भी है। शहर की छत्तीस प्रतिशत आबादी झुग्गियों में रहती है। इन झुग्गियों में लगातार जलता हुआ बायोमास गैस देश में घरेलू वायु प्रदूषण का एक मुख्य कारण है जो अब गम्भीर चिंता का विषय बन चुका है। वॉरियर माम्स और सेंटर फ़ोर सस्टेनेबल डेवलपमेंट ने नागपुर के शहरी इलाक़ों में स्थित 12 झुग्गियों के 1,500 झोपड़ियों का सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण की मदद से उन्होंने विभिन्न क़िस्मों के ईंधन की उपलब्धता और इस्तेमाल तथा उनसे जुड़े स्वास्थ्य प्रभावों को समझने की कोशिश की। इस सर्वेक्षण में विशेष रूप से उन महिलाओं और उनके बच्चों के स्वास्थ्य को केंद्र में रखा गया जो अपने घरों में खाना पकाने या गर्म करने के लिए चूल्हों (मिट्टी या ईंट के स्टोव) का इस्तेमाल करती हैं।

स्टोव पर रोटी पकाती एक महिला_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

हमारे सर्वे के अनुसार नागपुर की झुग्गियों में रहने वाली 43 प्रतिशत औरतें एलपीजी कनेक्शन होने के बावजूद अब भी खाना पकाने के लिए लकड़ी, भूसे, चारकोल, कोयला, उपले और किरोसीन तेल का इस्तेमाल करती हैं। यह इस बात की ओर ध्यान दिलाता है कि शहरी झुग्गियों में खाना पकाने के स्वच्छ विकल्प को पूरी तरह बदलने की इस प्रक्रिया में अब भी कई तरह की आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएं हैं। और यह एक जटिल और बहुस्तरीय समस्या है।

लकड़ी के चूल्हे के सामने बैठकर रोटी पकाती एक महिला_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

रिसर्च से इस बात की पुष्टि हुई है कि घरों में जलने वाले बायोमास से होने वाली घरेलू वायु प्रदूषण का सबसे अधिक असर महिलाओं और बच्चों पर पड़ा है। सविता भोजने (32) की टिन से बनी झोपड़ी चिखली झुग्गी में है। उसका कहना है कि दिन भर कूड़ा उठाने का काम करने के बाद रात में उसे जलते हुए चूल्हे के सामने बैठकर खाना पकाना पड़ता है। यह समस्या सविता के जीवन का हिस्सा है क्योंकि उसके लिए यह सबसे किफ़ायती और सुलभ विकल्प है।

चूल्हे में लकड़ी डालती एक महिला_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

एलपीजी सिलिंडरों की आसमान छूती क़ीमतों का एक मात्र मतलब यह है कि गरीब लोग अब भी पूरी तरह से स्वच्छ ईंधन के विकल्प को नहीं अपना सकते हैं। यह उनके लिए एक सपने की तरह है। एक एलपीजी सिलिंडर की कीमत 1,000 रुपए से ज़्यादा है और यह मुश्किल से एक महीने चलता है। वहीं 100–400 रुपए में इतनी लकड़ी आ जाती है जिससे एक महीने तक आसानी से खाना पकाया जा सकता है। कुछ लोग साल के ज़्यादातर महीने एलपीजी का इस्तेमाल करते हैं लेकिन सर्दियों में होने वाली गर्म पानी की खपत के लिए उन्हें भी चूल्हों का उपयोग करना पड़ता है।

जंगल से जलावन के लिए लकड़ी लाती एक महिला_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

अपने परिवार का पेट भरने और उन्हें खाना खिलाने के लिए औरतों को अक्सर ही जलावन के लिए लकड़ियां इकट्ठा करने का काम करना पड़ता है। उनचास वर्ष की मायाबाई शिंघनापूरे नागपुर के न्यू वैशाली नगर झुग्गी में रहती है। वह पिछले कई दशक से अपने चूल्हे के लिए लकड़ी इकट्ठा करने का काम कर रही है। महज़ 6,000 रुपए की मासिक आमदनी वाली मायाबाई को लगता है कि निकट भविष्य में उनकी स्थिति कुछ ख़ास नहीं बदलेगी क्योंकि वह आसमान छूती क़ीमत वाली एलपीजी नहीं ख़रीद सकती है।

औरतों और लड़कियों का ज़्यादा समय जलावन के लिए लकड़ी या अन्य चीजों को इकट्ठा करने में लग जाता है। ऐसा करते हुए वे कई बार खुद को जोखिम में डाल देती है क्योंकि जलावन चुनने के इस काम में अक्सर डम्पिंग ग्राउंड जैसी असुरक्षित जगहों से बायोमास भी उठा लाती हैं। युवा लड़कियों को अवसर के रूप में इस काम की ज़्यादा क़ीमत चुकानी पड़ती है क्योंकि वे पढ़ाई-लिखाई जैसे काम छोड़कर बायोमास इकट्ठा करने को अपना मुख्य काम बना लेती हैं।

लकड़ी का चूल्हा इस्तेमाल करती एक महिला_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी, 2019 के अनुसार ठोस ईंधन जलाने से घरेलू वायु प्रदूषण होता है। यह प्रदूषण पूरे भारत में परिवेशी वायु गुणवत्ता का 30-50 प्रतिशत है। इसके कारण हर साल लगभग 6 लाख भारतीयों की समय से पहले मौत हो जाती है। अध्ययन से यह बात सामने आई है कि चूल्हों से निकलने वाले ज़हरीले प्रदूषक पदार्थों का उच्च स्तर फेफड़े के कैंसर और हृदय एवं सांस संबंधी बीमारियों का एक प्रमुख कारक है। इन ज़हरीली धुओं में सांस लेने से महिलाओं को दमा (अस्थमा), अनियमित मासिक चक्र का शिकार होना पड़ता है और इसके अलावा उन्हें गर्भावस्था में प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।

अपनी आंखों को रगड़ती हुई एक महिला_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

सिद्धेश्वरी झुग्गी में रहने वाली 60 वर्षीय आदिवासी महिला राजकुमारी धुर्वे के लिए चूल्हे पर खाना बनाना एक मुश्किल काम है। चूल्हे के धुएं से उसकी आंखों में पानी आ जाता है और खाना बनाना एक कठिन और नापसंदगी का काम बन जाता है। लेकिन उसे हर दिन कम से कम दो घंटे चूल्हे के सामने बैठना पड़ता है। राजकुमारी की तरह ही सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 65 प्रतिशत लोगों ने बताया कि चूल्हा इस्तेमाल करते हुए उनकी आंखों में जलन होती है।

बर्तनों और लकड़ी के चूल्हे से घिरी हुई एक महिला_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

बीस साल की पूनम मरकम एक दिहाड़ी मज़दूर है। पहले गर्भावस्था के दौरान सात माह के अपने पहले बच्चे को खोने के बाद पूनम अब फिर से मां बनने वाली है। नागपुर की सिद्धेशवरी झुग्गी की निवासी पूनम अपनी गर्भावस्था के दिनों में भी चूल्हे पर ही खाना पकाती है और अपने और अपने अजन्मे बच्चे पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभाव से अनजान है। ग़रीबी और बायोमास ईंधन के दुष्प्रभाव को लेकर जागरूकता की कमी ने पूनम जैसी औरतों को गर्भावस्था के प्रतिकूल परिणामों का शिकार होना पड़ता है। रिसर्च बताता है कि लगातार धुएं के सामने रहने से औरतों पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इस स्थिति में उनका बच्चा या तो गर्भ में ही मर सकता है, कम वजन वाला हो सकता है, अविकसित हो सकता है और इससे नवजात मृत्यु दर भी बढ़ जाता है।

एक युवा लड़की लकड़ी के चूल्हे पर रखे बर्तन में कुछ डालते हुए और एक महिला उसे देखते हुए_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

महिलाओं की तरह, बच्चों को चूल्हे के करीब होने के कारण बायोमास जलने के हानिकारक प्रभावों का सामना करना पड़ता है जब उनकी मां खाना पका रही हो या पानी गर्म कर रही हो। उनके फेफड़े चूल्हों से निकलने वाले जहरीले धुएं के संपर्क में आते हैं, जिससे वे सांस लेने में तकलीफ, सांस फूलने और लगातार खांसी की चपेट में आ जाते हैं।

साइकल पर एलपीजी सिलिंडर लेकर जाता हुआ एक आदमी_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाय) 2016 में लागू होने वाली केंद्र सरकार की एक फ़्लैगशीप योजना है। इस योजना का उद्देश्य एलपीजी के नेटवर्क का विस्तार कर भारत को धुआं-मुक्त करना है। इस योजना के लागू होने के बाद हमारे देश में एलपीजी उपलब्धता का दायरा बढ़ा है। लागू होने के बाद से जनवरी 2022 तक इस योजना के तहत करोड़ों कनेक्शन बांटे गए हैं। पीएमयूवाय के तहत एलपीजी का दायरा बढ़ा है लेकिन दुर्भाग्यवश भारत के 40 फ़ीसदी घरों की आर्थिक क्षमता ऐसी नहीं है कि वे इसी योजना के तहत मिलने वाले एलपीजी सिलिंडरों को दोबारा भरवा कर उसका इस्तेमाल कर सकें।

चूड़ी पहनी हुई एक महिला अपनी आंखें रगड़ते हुए_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

अपनी लगातार बढ़ती क़ीमतों के कारण एलपीजी ग़रीबों के लिए एक दुर्लभ वस्तु हो गई। जिसका सीधा मतलब यह है कि अपने अन्य घरेलू ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वे इस पर पैसे खर्च करना बंद कर देते हैं।आर्थिक कठिनाइयां स्वच्छ ईंधन की ओर रुख़ करने के रास्ते में एक बहुत बड़ी बाधा है। वहीं सामाजिक मानदंड भी अन्य विकल्पों की खोज में बाधा बन जाते हैं। ज्योति मरकम (23) सिद्धेश्वरी झुग्गी में रहती है जहां उसके अपने घर के अलावा अन्य घरों में भी एलपीजी कनेक्शन है। हालांकि ज्योति और कई अन्य लोग अब भी बायोमास जलाते हैं क्योंकि उनके घर के लोग चूल्हे पर बना खाना पसंद करते हैं। उन लोगों का मानना है कि चूल्हे पर पकाया खाना ज़्यादा स्वादिष्ट होता है। घरों में फ़ैसले लेने वाले अमूमन मर्द ही होते हैं इसलिए हमने पाया कि औरतों का स्वास्थ्य और उनकी भलाई शायद ही कभी प्राथमिकता होती है।

आंगन में दिखाई जा रही पोस्टर को देखती महिलाएं_वायु प्रदूषण
चित्र साभार: सुधारक ओलवे, वॉरियर माम्स

औरतों के स्वास्थ्य और घरेलू वायु प्रदूषण के बीच के संबंध को पहचाने जाने की ज़रूरत है। इसके अलावा स्वच्छ ईंधन विकल्पों के शोध और विकास में एक व्यवस्थागत निवेश की ज़रूरत है। सरकार को एलपीजी और अन्य विकल्पों के लिए सब्सिडी प्रदान करने के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थिति और स्वास्थ्य संकेतकों के लेंस से कमजोर परिवारों की पहचान करनी चाहिए जो महिलाओं के लिए काम करेंगे और परिवार के वित्तीय बोझ को कम करेंगे।

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महिलाएं क्यों खेती के लिए अपना खेत चाहती हैं?

खेत में एक महिला किसान_एसएसपी-खेत
महिलाओं ने अपने परिवारों से जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर अपने हक़ की मांग की। | चित्र साभार: स्वयं शिक्षण प्रयोग

मैं पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से महाराष्ट्र के उस्मानाबाद ज़िले के बमानी गांव में खेतिहर मज़दूर के रूप में काम कर रही हूं। मेरा गांव मराठवाड़ा के सूखा-प्रभावित इलाक़े में आता है। कई सालों से सूखा पड़ने के कारण यहां के किसानों को भारी नुक़सान हो रहा है। उनके खेतों में काम करने की वजह से इसका सीधा असर मेरी अपनी आय पर भी पड़ता है। मैं दिन का 200 रुपए कमाती हूं जो मेरे परिवार और बच्चे के भविष्य के लिए काफ़ी नहीं है। हाल के दिनों में मैंने अपने गांव की कई औरतों को जैव कृषि से जुड़ते देखा है। उन्होंने स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) से लिए गए प्रशिक्षण के बाद यह काम शुरू किया है। यह एक स्वयंसेवी संस्था है जो ग्रामीण महिला उद्यमियों के साथ मिलकर काम करती है। एसएसपी के एक एकड़ खेती मॉडल से प्रभावित होकर महिलाओं ने अपने परिवार के लोगों से ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर अपने मालिकाना हक़ की मांग की। इस हक़ के मिलने के बाद उन्होंने खेती से जुड़े फ़ैसले लेने शुरू कर दिए। उन्होंने पौष्टिक फसल उगानी शुरू कर दीं और अब उनके परिवार को अनाज ख़रीदने के लिए बाज़ार पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। समय के साथ उनकी फसल पैदावार में भी वृद्धि हुई है और उन्होंने उसे बेचकर पैसे कमाने भी शुरू कर दिया है। इन औरतों की आय में वृद्धि दिख रही है और साथ ही उनके परिवार का स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ है। इसलिए मैंने भी कोशिश करने के बारे में सोचा।

अपना मन बना लेने के बाद, इस साल की शुरुआत में मैंने अपनी सास से बात की। उन्हें अपनी माँ से विरासत में कुछ ज़मीन मिली है लेकिन उन्होंने इसमें से मुझे कुछ भी देने से मना कर दिया। उनके मना करने के बाद मैंने कॉपरेटिव से 60,000 रुपए का कर्ज लिया और उसमें अपनी बचत के 2.4 लाख रुपए मिलाकर आधि एकड़ ज़मीन ख़रीद ली। अन्य औरतों की तरह मैंने भी अपनी ज़मीन में कई तरह के फसल उगाने का फ़ैसला किया। इन फसलों में सोयाबीन, मूंग, उरद और सब्ज़ियां शामिल थीं। मैंने घर के लोगों के लिए पौष्टिक विविधता वाले फसल उगाए और नक़दी फसल के रूप में सोयाबीन को चुना।हालांकि कई सालों तक खेतों में काम करने के बावजूद मुझे जल्द ही इस बात का अहसास हो गया कि मैं खेती की कई चुनौतियों के बारे में अब भी कुछ नहीं जानती थी। दूसरों के खेतों में काम करते समय मैं केवल उनके कहे अनुसार काम करती थी।

इस साल मैंने सोयाबीन की खेती की जिसका एक हिस्सा घोंघों की वजह से बर्बाद हो गया। मुझे सिर्फ़ बची हुई फसल को ही बेचकर काम चलाना पड़ा। मैं अब केमिकल-मुक्त जैवकीटनाशकों के प्रयोग से फसलों को कीटों से सुरक्षित रखने के तरीक़ों के बारे में सीख रही हूं। इसके अलावा अपनी आय के स्त्रोत बढ़ाने के लिए मैंने कृषि-संबद्ध व्यवसाय, जैसे वर्मीकम्पोस्ट या डेयरी फार्मिंग शुरू करने के लिए एसएसपी की मदद से ऋण भी लिया है।

मेरे पास ज़मीन का बहुत छोटा सा टुकड़ा है इसलिए इस पर उगाई गई फसल मेरे अपने परिवार के लिए पर्याप्त है। लेकिन अपने बच्चे की स्कूली शिक्षा और उसके खर्च के लिए मुझे और ज़्यादा काम करने की ज़रूरत है।

रेखा पंत्रे महाराष्ट्र के बमानी गांव की एक किसान है।

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अधिक जानें: जानें कि कैसे सरल और निरंतर नवाचार के माध्यम से छोटी जोत वाली खेती को व्यवहार परक बनाया जाता है।

आज भारत में एक शहरी नवयुवक होने के क्या मायने हैं?

मानसून की इस लगातार होने वाली बारिश को देखकर 21 साल के शुभम* ने समझ लिया कि आज की रात काफ़ी भारी गुजरने वाली है। वह अपनी बस्ती के घरों में जमा हुए बारिश के पानी को निकालने के लिए दूसरे लोगों का इंतज़ार कर रहा है। उसके पिता अपने ‘मर्दाना’ कर्तव्यों को पूरा करने में जुटे हुए हैं। वे इतना कमा लेते हैं कि अपने पांच लोगों के परिवार के खाने, कपड़े, घर और पढ़ाई के खर्च उठा सकें। शुभम के पिता एक सुरक्षा गार्ड हैं और उनकी रातें मुंबई की ऊंची इमारतों के बाहर खड़े होकर उनपर निगरानी रखते और जाने-पहचाने चेहरों से दुआ-सलाम करते हुए बीतती हैं।

शुभम का जीवन बेशक भारत के शहरों में जी रहे मध्यम वर्गीय लड़कों के जीवन से बहुत अलग है। लेकिन, यकीनन इन दोनों ही तबकों के बीच एक समानता है: शुभम और उसके सम्पन्न समकक्षों को आज देश में एक उस दबाव का सामना करना पड़ता है जो ‘पुरुष’ की परिभाषा के इर्द-गिर्द पनपता है। दरअसल आर्थिक पृष्ठभूमि से परे आज के दौर में भारत में पुरुषों और लड़कों पर लागू किए गए मर्दानगी के सख़्त लैंगिक पैमानों से कोई भी अछूता नहीं है।

इन दबावों को गहराई से समझने के लिए रोहिणी निलेकनी फ़िलांथ्रपीज ने इस साल की शुरूआत में एक शोध1 करवाया। हम दोनों ने इस शोध का जिम्मा संभाला जिसमें अपनी भूमिकाओं को निभाने के दौरान युवा पुरुषों और लड़कों के जीवन में आने वाली चुनौतियों और उनकी चिंताओं का पता लगाने की कोशिश की गई। हमने प्रतिभागियों के कुल आठ ऑनलाइन समूह बनाए। इस अध्ययन में मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली में रहने वाले एसईसी ए और एसईसी सी/डी (सामाजिक-आर्थिक स्पेक्ट्रम के दो अलग-अलग हिस्से) के प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। इन 42 लड़कों और 12 लड़कियों से हमने कई तरह के प्रश्न किए। हमने उनसे पूछा कि वर्तमान में भारत में एक पुरुष या लड़का होने का क्या मतलब है? हमें लगातार और ज़बरदस्त प्रतिक्रिया मिली जिसमें कहा गया कि इसका सीधा अर्थ ज़िम्मेदारी है। लड़कियों के मामले में इसी सवाल का जवाब प्रतिबंध था।

लड़के और लड़कियों दोनों ने स्पष्ट किया कि लड़कों के लिए वयस्कता कैसे दबे पांव आती है – बचपन की मासूमियत से शुरू होकर लड़कपन आते-आते ज़िम्मेदारी का अहसास होने लगता है, और आख़िर में ये ज़िम्मेदारियां स्वीकार कर ली जाती हैं जो एक मर्द होने की निशानी होती है। 15 वर्ष के महेश* का कहना है कि “पारिवारिक मामलों के लिए हमें ऐसा महसूस होता है कि पूरा परिवार (ज़िम्मेदारी) हमारे ही कंधों पर है। मैं दसवीं में पढ़ता हूं और अभी छोटा हूं। लेकिन मुझे यह एहसास होता रहता है कि मैं बड़ा हो रहा हूं। पर हम इसके बारे में किसी से बात नहीं कर सकते हैं…हमें पहले से ही इसकी समझ है कि आगे क्या करना है।”

तो ज़िम्मेदारी का क्या अर्थ है?

1. पूरे परिवार के लिएभरणपोषण करने वाला/कमाऊबनना

ज़्यादातर लड़कों के लिए पढ़ाई पूरी करने के बाद सबसे स्पष्ट विकल्प अपने पिता की जगह लेना और उनकी जिम्मेदारियों को अपने ऊपर लेना होता है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे कमाकर परिवार का भरण-पोषण करें। इसका दूसरा अर्थ परिवार के लिए खाना, माता-पिता के स्वास्थ्य संबंधी ख़र्चों की पूर्ति और घर के अन्य सभी ख़र्चों के लिए पर्याप्त धन कमाना है। अपने प्रतिभागियों के साथ की जाने वाली बातचीत और बहसों के दौरान हमने बार-बार जो बात सुनी वह यह थी कि एक ‘अच्छे’ बेटे को अपने भाई-बहन के लिए आदर्श बनना चाहिए। निम्न आय वाली पृष्ठभूमि से आने वाले लड़कों से भी यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने छोटे भाई-बहनों को लायक़ बनाए। इसका सीधा मतलब होता है अपने भाई की पढ़ाई पूरी करवाना और बहन की शादी की ज़िम्मेदारी उठाना।

लेकिन परिपक्वता एक दिन में नहीं आती है। कई लड़कों का कहना था कि कम उम्र में मिलने वाली उनकी आज़ादी पर धीरे-धीरे पारिवारिक भूमिकाओं ने लगाम लगानी शुरू कर दी। पुरुषों और लड़कों से की जाने वाली अपेक्षाओं में अनकहे नियमों और पहले से तय लैंगिक भूमिकाओं का काफ़ी योगदान होता है।

2. जुनून और रुचि के लिए कोई जगह नहीं है

अपने परिवार की देखभाल करने के लिए एक पुरुष को पैसे चाहिए। पैसे कमाने के लिए उसे एक स्थाई और अच्छी तनख़्वाह वाली नौकरी की ज़रूरत होती है। और, ऐसी एक नौकरी पाने के लिए उसे उचित समय और डोमेन में अच्छी शिक्षा की आवश्यकता होती है। इसके कारण आमतौर पर उनके पास केवल ऐसे दो या तीन पेशों का विकल्प होता है जिन्हें वे अपना सकते हैं। संगीत, कला, बॉडीबिल्डिंग और यहां तक कि ह्यूमैनिटीज़ के लिए भी किसी तरह की ‘गुंजाइश’ नहीं रह जाती है। इन्हें एक असफल जीवन की लम्बी यात्रा के रूप में माना जाता है। इसलिए लड़कों को विरले ही इस तरह की चीजों में भाग लेने की अनुमति दी जाती है।

3. भावनाएं व्यक्त करने की सख्त सीमाएं

नवयुवकों में हताशा को और अधिक बढ़ाने का एक कारण यह भी है कि उन्हें भावनाओं का एक सीमित क्षेत्र दिया गया है। एक अदृश्य लेकिन स्पष्ट सीमा यह बताती है कि किस बात की अनुमति है और किसकी नहीं। ताक़त के प्रदर्शन की सराहना की जाती है। भय, उदासी और स्नेह अंत में क्रोध, अवमानना ​​​​या रूढ़िवाद के रूप में व्यक्त किए जाते हैं। वहीं आंसू एक छुपे हुए रहस्य जैसे हैं। 19 साल के राघव* का कहना है कि “अगर एक लड़का रोना चाहता है तो उसे अपने बिस्तर पर तकिए से मुंह ढक कर और कम्बल के नीचे रोना पड़ता है ताकि उसे कोई देख न सके।”

20 साल के आदित्य* के अनुसार “सोसायटी में इज्जत कम हो जाएगी क्योंकि लड़के मज़बूत होते हैं उन्हें स्थितियों से निपटना आना चाहिए। अगर आप अपनी कमजोरी दिखाते हैं तो वे आपको सबसे कमजोर इंसान महसूस करवा देंगे।” अक्सर ये दबी हुई भावनाएं तेज, आक्रामक और हिंसक व्यवहार का रूप ले लेती हैं। समाज को लड़कों के आंसुओं से इतना डर क्यों लगता है? हो सकता है इसका संबंध उनकी प्रतिष्ठा से ज़्यादा हमारी ज़रूरतों से हो।

गली में एक दुकान के बाहर बैठे दो आदमी-युवा भारत
समाज की कभी ख़त्म न होने वाली निगरानी यह तय करती है कि लड़के अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति गम्भीर रहें। | चित्र साभार: रॉपिक्सेल

4. पीढ़ी दर पीढ़ी चले रही मर्दानगी के मानदंड

हमने जिन लड़कों से बात की, उनमें से कुछ ही अपने पिता को अपने जीवन के आदर्श के रूप में देखते हैं। हालांकि गहन पूछताछ पर कई लड़कों ने उन पर पड़ने वाले अपने पिता के प्रभावों के बारे में बताया। शुरू में दोनों के बीच के रिश्ते में एक दूरी रहती है और मां बच्चे की रक्षा और उसका पालन-पोषण करती है। अक्सर पिता की छवि एक रहस्यपूर्ण या अस्पष्ट व्यक्ति की होती है। वह रात में कुछ घंटे के लिए घर पर होता है और उस समय इतना अधिक थका होता है कि उसके पास अपने बेटे में दिलचस्पी लेने या उसके साथ समय बिताने की ताक़त नहीं होती है। एक निश्चित उम्र में एक दूसरे के बीच होने वाली दूरी और डर का यह रिश्ता एक दूसरे को समझने में बदल जाता है। ऐसा अक्सर तब होता है जब बेटा परिवार की ज़िम्मेदारियां उठाने लायक़ हो जाता है। इस तरह से मर्दानगी का यह विचार एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक पहुंचता है।

5. पत्नी के ‘लायक’ बनना ज़रूरी है

लड़कों पर दबाव बनाने वाली एक और अपेक्षा है ‘लड़की के लायक़ बनना’। बेहतर होते शिक्षा-स्तर और आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारण लड़कियां अपने जीवन में आने वाले पुरुषों के लिए पैमानों को उंचा कर रही हैं। लड़कों ने ध्यान दिया है कि आज की लड़कियां और किशोरियां अपना ध्यान रख सकती हैं, फ़ैसले ले सकती हैं, अपनी आवाज़ उठा सकती हैं और पुरुष की कमियों को लेकर कम सहिष्णु हैं। इसलिए वे किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में होती हैं जो जीवन में उनसे बेहतर कर रहा हो।
तो कौन सी चीज़ लड़कों को लड़कियों से शादी करने योग्य बनाती है? हमने 22–24 साल के लड़कों के समूह के साथ इंटरव्यू किया। उन लड़कों का कहना था कि लड़कियां और उनके माता-पिता एक ही आदमी में सब कुछ चाहते हैं। कोई ऐसा जो सफल हो, अच्छा कमाता हो, अच्छे इलाके में रहता हो। उसके पास एक कार, अच्छी और प्रतिष्ठित नौकरी, माता-पिता और कुछ सभ्य दोस्त होने चाहिए। यह सूची लम्बी है और हमारे अध्ययन में शामिल ज़्यादातर लड़के इस सूची से घबराए हुए थे।

6. करियर में सफलता और सामाजिक सम्मान दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण हैं

एक लड़के के लिए तय किया गया अंतिम लक्ष्य ‘घर बसाना’ है। लेकिन इस तमग़े को हासिल करने के लिए दो पूर्व निर्धारित शर्तें हैं – भौतिक सफलता और इज्जतदार छवि। हमारे अध्ययन में भाग लेने वाले प्रतिभागियों के अनुसार ‘इज्जतदार छवि’ का अर्थ था पढ़ाकू होना, सिगरेट और शराब न पीना और सफलता के रास्ते से भटकाने वाले लोगों से बच कर रहना। उनका कहना था कि इस दोषहीन जीवन से उनका विवाह एक अच्छे परिवार की लड़की से हो जाएगा।

7. पिछली पीढ़ियों की तुलना में लड़कों की सफलता की उम्मीदें बहुत अधिक हैं

हालांकि ये दबाव नए नहीं है लेकिन आज की तारीख़ में लड़कों के पास पिछली पीढ़ियों की तुलना में नई चीज़ें ढूंढने और पढ़ने के लिए अधिक साधन मौजूद हैं। जिम्मेदारियों को कुछ समय तक परे रखा जा सकता है। 18 साल की उम्र से ही काम शुरू करने वाले पिता अपने बेटों को एमबीए करने के लिए बढ़ावा दे रहे हैं। 

तब से अब तक रोज़गार के अवसरों में भी विस्तार हुआ है और इसके साथ ही प्रतिस्पर्धा में भी वृद्धि हुई है। यह स्थिति न केवल लड़कों के लिए बदली है बल्कि अब पहले से अधिक पढ़ाई-लिखाई करने वाली और परीक्षाओं में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाली लड़कियों के लिए भी बदली है। एक तरफ़ जहां रास्ते अधिक जटिल होते जा रहे हैं वहीं लक्ष्य भी लगातार बदल रहे हैं। अब मेहनती और कर्तव्य निभाने वाला पुरुष होना भर काफ़ी नहीं है। अपने परिवार (और साथी) से सम्मान पाने के लिए एक पुरुष को ‘अपने काम में सबसे अच्छा’ होना ज़रूरी है। एक आदर्श सामाजिक स्थिति है – अत्यधिक प्रतिष्ठित और दूसरों द्वारा प्रशंसित। अक्सर मुकेश अम्बानी को आदर्श माना जाता है – एक ऐसा आदमी जो न केवल सफल है बल्कि उसकी समाज में प्रतिष्ठा भी है और वह एक सच्चा ‘फ़ैमिली मैन’ भी है।

ये सभी उम्मीदें हमारे रोज़मर्रा के जीवन में इस कदर शामिल हैं कि हम अक्सर लड़कों को सही रास्ते पर रखने वाले बारीक (और इतने बारीक नहीं भी) तरीक़ों को देखने में असफल रहते हैं। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह जो भी काम करें उसमें प्रतिस्पर्धा हो और वे हमेशा जीतें। यह एक आम धारणा है कि “अगर वह इसका हिस्सा है तो उसे सबसे आगे होना चाहिए।” इस प्रतिस्पर्धा को ‘शर्माज़ी का बेटा सिंड्रोम’ से और बढ़ा-चढ़ा दिया गया है जिसमें माता-पिता लगातार अपने बेटों की तुलना दूसरे लड़कों से करते हैं। यहां तक कि रिश्तेदार भी उनके प्रदर्शन पर अपनी टीका-टिप्पणी करने से बाज नहीं आते हैं। यह तुलना शादी की उम्र तक आते-आते और ज़्यादा गहरी हो जाती है। जब लड़की का परिवार उसकी शादी के लिए एक उपयुक्त लड़का खोजने निकलता है तब नौकरी, वेतन और ज्ञान जैसी बातें ज़रूरी पैमाना होते हैं।

8. उच्च अपेक्षाएं सख्त निगरानी और यहां तक ​​कि सजा की स्थिति तक पहुंचा देती हैं

लड़कों का मूल्यांकन उनके कामकाज के अलावा उनके व्यक्तित्व के लिए भी किया जाता है। “बालों को ऐसे क्यों रखा है? क्या जंगली की तरह रह रहे होऊंची आवाज़ में नहीं बोलना, बड़ों की बात सुननी है – यह तब भी सुनना पड़ता है जब हम बड़े हो चुके हैं। माता-पिता को इस बात की चिंता होती है कि दोस्त कुछ सिखा न दें, ये सब आदतें नहीं पालनी चाहिए।”
उनके दोस्तों पर नज़र रखी जाती है ताकि वे ‘बुरी संगत’ में न पड़ जाएं। यह जांच-परख लड़कियों के साथ उनके रिश्तों तक पहुंच जाती है। माता-पिता और शिक्षक लड़कों को शक की नज़र से देखते हैं। बिना किसी टीका-टिप्पणी और पूर्वाग्रह के किसी लड़की के साथ एक साधारण दोस्ती रखना असम्भव है। ‘मैंने प्यार किया’ फ़िल्म आए तीस साल हो गए लेकिन आज भी हमारे युवाओं की मानसिकता इस तरह बनाई जाती है कि “एक लड़का और एक लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते।”

अनुशासन के इन निम्न-स्तरीय तरीक़ों में शारीरिक सजा चार-चांद लगाने का काम करती है। जिन लड़कों से हमने बात की, उन्हें उनके माता-पिता या शिक्षकों ने या तो थप्पड़ मारा था या पीटा था। सामाजिक संस्कार की जड़ें इतनी गहरी हैं कि कई लोगों का ऐसा मानना है कि उन्हें शारीरिक दंड का भागी होना चाहिए। वे अपनी ‘अक्षमताओं’ को उजागर कर इसे सही ठहराते हैं। “रीजन से मारते हैं, पढ़ाई नहीं कीतो मारना ठीक है। शिक्षक का तुम्हें मारना सही है। जब कोई तुम्हें पढ़ाएगा तो ग़ुस्सा आएगा। यहां तक कि अभिभावकों का अपने बच्चों को पीटना भी सही है – वे हमें सिखा रहे हैं।” समाज की पारंपरिक मांगों को पूरा करने में असफल होने वाले पुरुषों को अक्सर ही बेरोज़गार, निकम्मा, बर्बाद, कामचोर और नालायक जैसे तमग़े दिए जाते हैं। और ये सब नरम शब्द हैं जिन्हें लड़के हमारे साथ साझा करना चाहते थे; आमतौर पर तो उन्हें गालियां सुननी पड़ती हैं।

9. ‘लड़कों के गिरोहका हिस्सा होने से सुरक्षा और साथ तो मिलता है लेकिन दुर्व्यवहार भी होता है

शायद ‘लड़कों का गिरोह’ ही वह जगह है जहां लड़के खुद होकर रह सकते हैं। यह आपस में मज़बूती से जुड़े हुए लड़कों का एक समूह है जहां वे एक-दूसरे के भाई/दोस्त/यार बन जाते हैं। वे बिना ज्यादा कुछ कहे गहरी समानुभूति और एक-दूसरे के जीवन की समझ पर आधारित एक अनोखी दोस्ती बनाते हैं। लड़कों के साथ हमारी बातचीत से हमने जाना कि लड़कों का किसी समूह में शामिल होने से उनकी पहचान तय होती है और इससे उनकी सोच बनती है और उन्हें सुरक्षा मिलती है। समूह का आपसी समीकरण उनके द्वारा एक दूसरे के जीवन में निभाई जाने वाली भूमिकाओं के बारे में बताता है। यह भूमिका एक लीडर या मेंटॉर आदि की हो सकती है।

समूह का हर एक लड़का अपनी मर्दानगी साबित करना चाहता है। इसलिए जहां उनका यह गिरोह बाहरी दुनिया से उनकी सुरक्षा करता है वहीं समूह के भीतर एक दूसरे को चिढ़ाना, मिलकर उपद्रव करना और आपस में गाली देना वगैरह आम बातें है। हमें बताया गया कि यह सब बॉडी शेमिंग का रूप ले लेता है। लड़कों को उनके आकार, उंचाई, रंग, दाढ़ी-मूंछ आदि जैसी शारीरिक अपेक्षाओं के आधार पर चिढ़ाया जाता है। अक्सर मोटा, सूखा, गिट्टा, बौना, कलुआ और चिकना (गोरे या समलैंगिक लड़कों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द) जैसी गालियों का इस्तेमाल कर उन्हें चिढ़ाया जाता है।

सबसे ख़राब स्थिति में यह समूह वही ‘बुरी संगत’ बन जाता है जिससे बचने के लिए माता-पिता उन्हें आगाह करते हैं। लड़कों से अपेक्षा की जाती है कि वे इस समूह की बदमाशियों की पुष्टि करें। इन बदमाशियों और ग़लतियों में धूम्रपान करना, शराब पीना, नशीले पदार्थों (ड्रग आदि) का सेवन करना और कभी-कभी लड़कियों का पीछा करना और हिंसा भी शामिल होता है।

समाज की कभी ख़त्म न होने वाली पूछताछ एक प्रकार की निगरानी का काम करती है ताकि लड़के अपनी ज़िम्मेदारियों को गम्भीरता से लें। इसका इरादा इस तथाकथित योग्य लिंग को सफलता के लिए तैयार करना है। लेकिन नज़दीक से देखने पर हम पाते हैं कि ये अपेक्षाएं दरअसल वे बोझ हैं जिन्हें लड़कों को चाहे-अनचाहे उठाना पड़ता है। उससे मिलने वाली आज़ादी, छूट और विशेषाधिकार के साथ एक अनकही समझ जुड़ी होती है। एक लड़के की सफलता वह आरओआई है जिसमें परिवार अपना निवेश करता है। यह उनके बुढ़ापे का बीमा है। यह फोकस समूह चर्चाओं में लड़कियों और लड़कों दोनों द्वारा व्यक्त किया गया विचार था।

इसलिए, सफलता की उम्मीद ही काफी नहीं है। एक सफल फ़ैमिली मैन (पारिवारिक आदमी) ही आदर्श होता है। एक ऐसा पुरुष जो न केवल करियर में बेहतर कर रहा हो बल्कि अपने परिवार का भी ख़्याल रखने वाला हो। उपलब्धियों को हासिल करने वाला एक ऐसा पुरुष जो अब भी अपनी जड़ों से जुड़ा है।

जहां इस अध्ययन से हमें कई जवाब मिले वहीं कई ज़रूरी सवाल भी पैदा हुए। क्या लड़के जिस आज़ादी का आनंद लेते हैं वह सशर्त होती है? क्या लोगों की उम्मीदें लड़कों को उन पर खरा उतरने की चिंता से भर देती हैं? जब उन्हें कई तरह के फ़ायदे मिलते हैं तो वहीं क्या उन्हें मिलने वाले विशेषाधिकार के पीछे बेहतर करने का दबाव भी छुपा होता है?

क्या नवयुवकों और लड़कों से जुड़ी हमारी कुछ अवधारणाओं पर दोबारा सोचने का समय आ गया है?

*नाम बदल दिए गए हैं।

फुटनोट:

  1. इस अध्ययन का इरादा चिंताओं, चुनौतियों और रिश्तों में लड़कों की भूमिकाओं को समझना है। यह शोध ऑनलाइन फ़ोकस ग्रुप और मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली में रहने वाले प्रतिभागियों के माध्यम से किया गया है। इस अध्ययन में प्रश्नों के जवाब देने वाले सामाजिक-आर्थिक स्पेक्ट्रम के दो स्पष्ट अलग-अलग वर्गों एसईसी ए और एसईसी सी/डी से हैं। इन छह फ़ोकस समूहों में शामिल प्रतिभागियों में 14 से 25 वर्ष की उम्र (विद्यालय से कॉलेज के बाद) के लड़के थे। इसके अलावा दो अन्य फ़ोकस ग्रुप भी बनाए गए थे जिसमें कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर चुकी 22 से 25 वर्ष की उम्र वाली लड़कियों ने भाग लिया था। यह बातचीत हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं में की गई थी। सैम्पल के चुनाव में ग़ैर-बाइनरी लोगों को मानदंड नहीं बनाया गया था और ऐसा सम्भव है कि यह अध्ययन ग़ैर-बाइनेरी विचारों को प्रस्तुत न करे।

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आईडीआर इंटरव्यूज । बेज़वाड़ा विल्सन 

मैनुअल स्कैवेंजिंग (हाथ से मैला ढ़ोने) का काम करने वाले दलित समुदाय के लोगों को एक प्रकार के जातिगत और व्यवस्थागत भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इस भेदभाव के प्रति बेजवाड़ा विल्सन ने पुरज़ोर आवाज़ उठाई है। पीढ़ियों से इसी काम को करने वाले एक ऐसे ही दलित परिवार में जन्म लेने वाले विल्सन बचपन से ही अपने लोगों को इस अमानवीय प्रथा का शिकार होते देख रहे थे। इस अन्याय को देख अपने अंदर पैदा हुए आक्रोश और ग़ुस्से के कारण ही उन्होंने इस दिशा में काम करना शुरू किया।

बेज़वाड़ा ने एक ज़मीनी स्तर का आंदोलन शुरू किया जिससे हाथों से मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन हो सके। उस आंदोलन का नाम था सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए)। 1993 से आज तक, एसकेए ने देश भर में वालंटियरों की मदद से सामाजिक और कानूनी लड़ाई जारी रखी है जिसकी वजह से हज़ारों दलितों को इस अमानवीय प्रथा से आज़ादी मिली है। सन 2016 में बेज़वाड़ा विल्सन को दलितों के जन्मसिद्ध मानवीय गरिमा के अधिकार को वापस लेने के अथक प्रयासों के लिए रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

आप लगभग तीन दशक से अधिक समय से सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) चला रहे हैं। एक आंदोलन को शुरू करने और उसे इतने लम्बे समय तक चलाए रखने के लिए क्या क्या करना पड़ता है?

इसके निर्माण के लिए कोई ठोस प्रयास किये गए हों ऐसा नहीं है। संघर्ष ज़रूर रहा है – वास्तविक संघर्ष। ग़ुस्सा और पीड़ा भी थी जिससे आंदोलन को उभर कर आने की जगह मिली। हमने इतना ज़रूर किया कि ग़ुस्से को मज़बूती दी और उसे एक दिशा दी। और इसी ग़ुस्से ने आगे चलकर सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन का रूप ले लिया।

एसकेए रजिस्टर्ड भी नहीं है क्योंकि यह औपचारिक संस्था नहीं है – यह एक आंदोलन की धारा है – और इस धारा में लोग जुड़ते जाते हैं। आज पूरे देश में लगभग 4,800 वालंटियर हैं। 

आज भी हमें इस बात से ग़ुस्सा आता है – आज भी यह समस्या क्यों मौजूद है (हाथ से मैला ढोने की समस्या), इतने सालों के अथक प्रयास के बावजूद भी? आज से ३५ साल पहले इसी ग़ुस्से के कारण हमने अपना यह आंदोलन कर्नाटक में शुरू किया था। और आज भी महिलाओं को शौचालय साफ़ करता देख उतना ही ग़ुस्सा आता है। उम्र, तजुर्बे या समय के साथ कुछ भी नहीं बदला।

हम लोगों को संगठित करने के लिए अलग से कुछ नहीं कर रहे हैं; हम केवल अपने अंदर के इस ग़ुस्से को सही दिशा देते हुए आगे बढ़ रहे हैं। और इस अन्याय के प्रति हमारे जैसा ही ग़ुस्सा रखने वाले लोगों को जब हमारी यह दिशा सही लगती है तो वे हमारे साथ इस आंदोलन में जुड़ जाते हैं।

शुरुआती दौर में आपने इस अमानवीय प्रथा के अन्याय के प्रति लोगों को किस प्रकार जागरूक करना शुरू किया?

हमारी सबसे बड़ी समस्या भाषा को लेकर थी। दरअसल इस विषय और मुद्दे पर बात करने के लिए हमारे पास किसी तरह की भाषा नहीं थी। समय के साथ साथ हम आज़ादी, पुनर्वास और उन्मूलन (हाथ से मैला ढोने का) जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर बात करने लगे लेकिन ये सभी शब्द बाद में आए। जब हमने शुरू किया था तब हम केवल इतना जानते थे कि कोई भी इस काम को करने के लिए मजबूर नहीं है और न ही उसकी ऐसी कोई मजबूरी होनी चाहिए जिससे कि वह हाथों से मैला ढ़ोने का काम करे।

तब से अब तक का सफर काफी लम्बा रहा है। इस सफर के दौरान, कभी मंथन हुआ है, कभी कुछ फट पड़ा है तो कभी लड़ाइयाँ और बहसें भी हुई हैं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में हमें एक बात समझ में आई कि हमें ग़ुलाम बना दिया गया है।

इस बात की समझ और इसका एहसास होने से पहले हम यह मान चुके थे कि हम केवल ग़ुलामी ही कर सकते हैं। ग़ुलामी की अपनी इस स्थिति का ज़िम्मेदार हम खुद को ही मानते थे। हम बेरोज़गार थे और हमारी न तो कोई आशा थी और न ही सपने। हम अनपढ़, कमजोर और गरीब लोग थे।

फिर 1991 में – बाबासाहेब अम्बेडकर के शताब्दी महोत्सव में – मैंने इन मुद्दों पर उनका लिखा हुआ कुछ पढ़ा। उन्होंने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा था कि हम मैला ढोने वाले इसलिए नहीं हैं क्योंकि हम गरीब, कमज़ोर या अनपढ़ हैं या हमने मैला ढोने का काम खुद से चुना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी ने हमें मैला ढोने वाला बनाया है। तब हमनें यह समझा कि किसी ने हमें बन्दी बना के रखा हुआ है, वर्णव्यवस्था ने हमें यहां लाकर खड़ा किया है। और इसमें पितृसत्ता जुड़ जाने से हमारे समुदाय की महिलाओं का हाल और भी बदतर कर दिया है। तब हमने यह सवाल पूछा: हम इस सब के खिलाफ कैसे लड़ें?

बेज़वाड़ा विल्सन का चित्रण-दलित समुदाय
चित्रण: आदित्य कृष्णमूर्ति 

जल्द ही मैला ढोने वाले समुदाय के अलावा दूसरे समुदायों ने भी एकजुटता दिखाई क्योंकि ये लड़ाई किसी व्यक्ति विशेष के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़ है। एकजुटता और दूसरों के सहयोग से हमें बल मिला। 

मुक्ति की शुरुआत तब हुई जब हाथ से मैला ढोने वालों ने खुद अपनी चुप्पी तोड़ी।

समुदाय ने मुद्दे को समझना भी शुरू किया। कोई किसी दूसरे का मल साफ़ नहीं करना चाहता परन्तु परिस्थितियों की वजह से वे ऐसा कर रहे थे। जब हम नें उनसे कहा “जब और लोग दूसरों का मल साफ़ किये बिना जी रहे हैं, तो तुम भी उसके बिना क्यों नहीं जी सकते?” तो वे सोचने पर मजबूर हुए। जो समुदाय अभी तक चुप था उसने खुल कर बोलना शुरू किया। मुक्ति की शुरुआत तब हुई जब हाथ से मैला ढोने वालों ने इस मुद्दे पर खुद अपनी चुप्पी तोड़ी और मुखर हो कर बोलना शुरू किया। 

और जब लोगों का मुद्दे में विश्वास बढ़ा वह अपने आप ही आंदोलन से जुड़ गए। उन्हें एहसास हुआ कि वे अकेले नहीं थे और उन्होंने सवाल करना शुरू किया कि “हम सब क्या कर सकते हैं?”

क्या हम जा कर कुछ शौचालय तोड़ डालें? चलो! नहीं? अच्छा, हम मैले की टोकरी तो जला ही सकते हैं। प्राधिकारियों को एक ज्ञापन देते हैं। हो गया! जब हम ये सब कर रहे हैं तो क्या हम चुप्पी बनाये रखें? कम से कम नारे लगाते हैं। कुछ नारे बनाते हैं! और ऐसे बात आगे बढ़ती गयी – सब कुछ संगठित रूप से, स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ता जाता है – फिर थोड़ा और आगे बढ़ता है। फिर थोड़ा और।

मैंने और मुझ जैसे ही एसकेए के अन्य वरिष्ठ लोगों ने आंदोलन को एक दिशा दी है। लोगों को अलग अलग दिशाओं में आगे बढ़ना अच्छा लगता है। हम उन्हें कहते हैं “कुछ समय तक इस दिशा में चल कर देखते हैं, अगर कामयाबी नहीं मिली तो आपकी सुझाई दिशा में चलेंगे। यदि पहली दिशा में चल कर कामयाब हुए तो आप जब भी तैयार हों, शामिल हो जाइएगा। इसके पीछे का यह दर्शन है कि ‘किसी को भी पीछे न छोड़ें’।

कई दशकों से आप इस मुद्दे पर काम करते आ रहे हैं। क्या आपने सरकार की प्रतिक्रिया में फ़र्क देखा है?

बदलाव तो आया है लेकिन इस बदलाव की गति बहुत धीमी है। शुरुआत में सरकार ने न तो ज़रा भी दिलचस्पी दिखाई और न ही इस दिशा में कोई प्रयास किया। समय के साथ इसमें बदलाव आया है। पर सरकार का हमेशा वही एक एजेंडा नहीं बना रह सकता। उनकी क्षमता और स्थायित्व सिर्फ पाँच साल का है। पाँच साल के बाद वे अपना पैटर्न बदल देते हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं भी ऐसा ही करती हैं – हर 6-7 साल में अपना पैटर्न और ध्यान का केंद्र बदल देती हैं। कहने का मतलब यह है कि हमारी लड़ाई लगातार जारी रहनी चाहिए और अगर हम बदलाव चाहते हैं तो हमें बिना रुके काम करना होगा। 

यदि सरकार के अंदर एजेण्डे और प्राथमिकताएँ बदलती हैं आप गति कैसे बनाए रखते हैं?

सरकार कहेगी कि समस्या ख़त्म हो चुकी है – वह लोगों को इसका अहसास भी दिला देती है और लोग सरकार की बातों पर विश्वास भी कर लेते है। लेकिन यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम लगतार लोगों को इस बात की याद दिलाते रहे कि समस्या ख़त्म नहीं हुई है।

हम जंतर मंतर पर इकट्ठे होंगे, मीडिया से बात करेंगे। और इस सब के दौरान औरतें – हाथ से मैला ढोने वाली औरतें – केंद्र में होंगी। उनके शब्दों में दूसरे लोगों की बातों से ज़्यादा ताक़त है। जब ये औरतें लोकतांत्रिक सरकार से सवाल करती हैं और न्याय मांगती हैं और जब वो कहती हैं कि सरकार की ज़िम्मेदारी है कि हाथ से मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन हो, लोगों को उनकी बात सुननी ही पड़ती है। 

हाथ में बाल्टी लेकर सड़क पर चलती महिला पीछे से दिख रही है-दलित समुदाय
हम मैला ढोने वाले इसलिए नहीं हैं क्योंकि हम गरीब, कमज़ोर या अनपढ़ हैं या हमने यह काम चुना है। ऐसा इसलिए है कि किसी और ने हमें हाथ से मैला ढोने वाला बनाया है। चित्र साभार: फ्लिकर पर सी एस शारदा प्रसाद 
आपने मैला ढोने के कानून को बदल डाला। आपने ये कैसे किया?

आंदोलन ने कानून बदलने के लिए सरकार पर दबाव डाला। पहलेपहल हम सरकार के प्रतिनिधियों से 2010 में मिले और मैन्युअल स्केवेंजिंग एक्ट के प्रारूपण में शामिल हुए। तीन साल बाद जब 2013 में यह एक्ट लागू हुआ तब हमें लगा कि हमारा काम हो गया। और हमने सरकार के साथ बातचीत बंद कर दी। पर जब अमल करने की बात आयी तो कुछ भी नहीं बदला क्योंकि नौकरशाही का रवैया और व्यवहार पहले जैसा ही था।

कानून के उल्लंघन के लिए किसी भी सरकारी अधिकारी पर क़ानूनी कार्रवाई नहीं की गई है।

सबसे बड़ी विडम्बना है कि किसी भी सरकारी अधिकारी के ऊपर कानून का उल्लंघन करने के लिए कानूनी कार्रवाही नहीं की गयी है – एक भी अधिकारी को सजा नहीं मिली। कुछ मामलों में एफ़आईआर दर्ज की गयी हैं पर वे अभियोग लगने के चरण तक नहीं पहुंची हैं; आरोप पत्र दायर किये गए हैं पर वे मुक़दमे के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं।  

2013 में इस एक्ट के लागू होने से पहले हमने 20 साल तक लड़ाई लड़ी। तब से अब तक नौ साल से ज़्यादा बीत गए हैं और आज हमें लगता है कि हम रुक गए हैं। एक भी व्यक्ति को सज़ा नहीं हुई है। बहुत से मामलों में ज़िला अधिकारी /कलेक्टर अपराधी है – वह व्यक्ति जिसके अपने ज़िले में हाथ से मैला ढ़ोने का काम होता है और वह उसे रोकता नहीं है।  

अगर आप ऐसे तीन कलेक्टरों को एक हफ्ते के लिए भी जेल भेज दें तो तुरंत ही सब कुछ बदलता नज़र आएगा। आज वे अपनी जान बचा रहे हैं लेकिन उनके कारण इतने लोग उनकी सीवर की लाइन और सेप्टिक टैंक साफ़ करते हुए अपनी जान गंवा चुके हैं।

जब किसी को इस प्रथा या काम से मुक्ति मिल जाती है तब आपको कैसा महसूस होता है?

जब कोई मुक्त हो जाता है तो हम उस बदलाव का उत्सव नहीं मनाते हैं। यदि 10 लोग इस काम को छोड़ पाते हैं हम न तो किसी तरह का जश्न मनाते हैं और न ही उनकी वाहवाही करते हैं। क्योंकि इस पेशे से निकल के आना उनका अपना निर्णय है इसलिए वे जश्न मनाएं या न मनाएं यह निर्णय भी उन्हीं का होना चाहिए।

दूसरा, यह हमारी सफलता नहीं बल्कि उनकी सफलता है, उनके परिवार की सफलता है। इसलिए हमने कभी इस संख्या की गिनती नहीं की। लोग हमसे पूछते हैं: एसकेए ने कितने लोगों को इस काम से मुक्ति दिलवाई है? हम कहते हैं हमें नहीं मालूम। हम कभी गिनते नहीं हैं। हमें यह पता है कि कितने लोग अभी भी हाथ से मैला ढोने का काम कर रहे हैं। हम उस संख्या को गिनते हैं और ट्रैक करते हैं। क्योंकि हमारा लक्ष्य उस संख्या को शून्य तक पहुंचाना है। दूसरों की तरह हमारा उद्देश्य गिनती को बढ़ाना नहीं है। हम चाहते हैं कि गिनती घटती रहे।

हाथ से मैला ढोने वालों के पुनर्वास के प्रयासों के बारे में हमें बताइये। 

पुनर्वास के लिए किसी भी तरह के अच्छे प्रयास नहीं हुए हैं। आप महिलाओं को दो भैसें और कुछ पैसा देकर ये नहीं मान सकते हैं कि वे खुश हो जाएंगी। 5,000 साल पुरानी प्रथा और रवैए को बदलने की कोशिश के लिए पुनर्वास और रोज़गार के मायनों की समग्र और स्पष्ट समझ होनी चाहिए। 

आप को गांव-गांव जा कर हर एक महिला की क्षमता की पहचान करनी होगी। आप कौशल का परीक्षण नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें अपने कौशल विकसित करने के अवसर नहीं मिले हैं। आपको क्षमता ढूंढ़नी होगी। आपको देखना होगा कि उनमें कितनी हिम्मत है। ऐसा करने के लिए आपको उनके पास जाना होगा, उनकी ताकत को समझना होगा और ये देखना होगा कि वे क्या कर सकती हैं। और आप उनकी कैसे मदद कर सकते हैं न कि सिर्फ कुछ पैसा दे दें। 

भारत में सरकार पुनर्वास को सिर्फ पैसे से जोड़ कर देखती है।

बात सिर्फ पैसे की नहीं है। जिस मदद की ज़रूरत है उसमें पैसा सबसे अंत में और सबसे कम ज़रूरत की चीज़ है। पर भारत में, सरकार पुनर्वास को सिर्फ पैसे से जोड़ कर देखती है। वे 10 लाख देती है वो भी ऋण के रूप में। 

या एक महिला को दो भैंसें या बकरियां, एक ऑटोरिक्शा या ऐसा ही कुछ दे देंगे ताकि उसपर उसे बिठा कर उसकी फोटो ले सकें। आप ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह इस गाड़ी को चला कर अपना खर्चा चला पायेगी जब कि इससे पहले उसने ऐसा कभी किया नहीं है? इससे बेहतर है कि आप उन्हें वाजिब अच्छी मासिक आय दें जिससे उनकी जीविका चल सके।  

सरकार को हाशिये पर खड़े लोगों के प्रति समाज के रवैये और व्यवहार को बदलने की कोशिश भी करनी चाहिए। अपनी तरफ़ से हम यही कहना चाहते हैं कि इस देश के लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि हाथ से मैला ढोने वालों ने हम सबके लिए सब्सिडी प्रदान की है – उनके काम का आर्थिक लाभ हम सब ने उठाया है। 

इस देश के लोगों को यह समझने की ज़रूरत है की हाथ से मैला ढोने वालों ने हम सब को सब्सिडी प्रदान की है।

इसलिए, हम उन्हें कोई सब्सिडी नहीं दे रहे हैं, हम उनकी भरपाई कर रहे हैं। सालों तक, हमने उनसे लिया है। इन महिलाओं ने प्रति घर मात्र 30 रूपया महीना पर हमारे शौचालय साफ़ किये हैं। ये एक दिन के काम के लिए सिर्फ एक रूपया हुआ!

इन महिलाओं ने आपको बुनियादी सेवाएं दी हैं। इसलिए अब समय आ गया है कि आप इसकी भरपाई करें। लेकिन सरकार का रवैया ऐसा नहीं है। सरकार इसे सब्सिडी के रूप में देखती है, जैसे यह एक मुफ़्त का उपहार हो। 

मध्य वर्ग भी इस बात को नहीं समझता है। उसके लिए सब कुछ यहीं पर आ के रुकता है कि “मुझे कुछ मिलना चाहिए।” और इस तरह की सोच समाज के लिए बहुत ख़राब है। कोई ख़ुशी नहीं, कोई भाईचारा नहीं, कोई मानवता नहीं। 

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जन-केंद्रित संगठन बनने के नौ तरीके

डेवलपमेंट सेक्टर में यह मान्यता है कि लोग हमारी सबसे बड़ी सम्पदा हैं और प्रगति के दौरान टीम की सुरक्षा और उसका विकास एक बड़ी चुनौती है। लेकिन एक सवाल ऐसा है जिसका संतोषजनक जवाब ढूंढने की ज़रूरत हमें अब भी है: लगातार विकसित हो रहे एक संगठन की संस्कृति को हम कैसे बचाते हैं – और कैसे बचा सकते हैं?

किसी भी स्वयंसेवी संस्था की प्रकृति अक्सर ही इसके संस्थापक सदस्यों के मूल्यों और दूरदर्शिता से संचालित होती है। इन संस्थापक सदस्यों को अपने आपको एक उदाहरण के तौर पर पेश करते हुए नेतृत्व करना होता है और अपनी बनाई संस्कृति को संगठन में ऊपर से नीचे तक पहुंचाना होता है। यह संस्कृति भौगोलिक और व्यक्तिगत सीमाओं के पार जा सके इसके लिए एक ऐसे बहुआयामी दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है जो एक साधारण ‘रणनीति’ से परे हो। 

क्वेस्ट एलायंस में हम लगातार अपने कर्मचारियों को प्रोत्साहित करने के नए तरीके विकसित करते रहते हैं। यहां हम अपनी इस यात्रा से मिले कुछ अनुभव साझा कर रहे हैं।

1. लोगों के लिए नियुक्तियाँ करें, कि भूमिकाओं के लिए

किसी दी गई भूमिका के लिए उपयुक्त और कुशल लोगों को तो कभी भी ढूंढा ही जा सकता है। लेकिन किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढना कठिन है जो वैचारिक स्तर पर संगठन को समझता हो। कम्पनी के बढ़ने के साथ, संस्थापक सदस्यों का हर इंटरव्यू में शामिल होना सम्भव नहीं रह जाता है। लेकिन एक चीज़ जो सम्भव है वह यह है कि नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया में एक चरण पूरी तरह से संस्कृति और मूल्यों को सुनिश्चित करने वाला होना चाहिए। यही वह बिंदु है जब आप यह पता लगा सकते हैं कि एक उम्मीदवार उन्हीं चीजों से प्रेरित और उत्साहित हो रहा है या नहीं, जिनसे आपका संगठन संचालित होता है।

2. सहनिर्माण को आदर्श बनाएं

निर्माण का बुनियादी मतलब एक टीम के रूप में साथ मिलकर कुछ बनाना होता है। चाहे यह वर्कशॉप के जरिए यह पता लगाने के लिए हो कि मिशन स्टेटमेंट कैसे विकसित होना चाहिए या रणनीति पर होने वाली मल्टी-स्टेकहोल्डर चर्चाएं हों। इन सबका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि परिणाम मिलकर हासिल किए जाएं और सभी उसके महत्व को समझते हों। जब सह-निर्माण एक आदर्श बन जाता है तब संस्कृति, दृष्टिकोण और संगठन की भावनाओं को ऊपर के स्तर से नीचे पहुंचाने की ज़रूरत नहीं रह जाती है बल्कि यह पूरे संगठन का एक अभिन्न हिस्सा बन जाता है।

3. संगठन की संस्कृति को व्यक्त करने और साझा करने के कई तरीके विकसित करना

सफल प्रतिभा प्रबंधन के केंद्र में संस्कृति की साझी समझ होती है। संस्कृति का यह मतलब हरगिज़ नहीं है कि हर कर्मचारी एक ही तरह से सोचे या काम करे। बल्कि इसका अर्थ है कि संगठन के कुछ महत्वपूर्ण दृष्टिकोण या मूल्य हैं जो सभी कर्मचारियों में मौजूद हैं। यह खुद से सीखने के लिए प्रतिबद्धता, नवाचार की साझी समझ या समावेशन पर जोर कुछ भी हो सकता है।

इस संस्कृति को विकसित करने का कोई एक तय तरीक़ा नहीं है। दरअसल हमने पाया कि इसे व्यक्त और विकसित करने के लिए कई साधनों का होना महत्वपूर्ण है। औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही प्रकार के आयोजनों के माध्यम से हम लोगों के लिए एक ऐसी जगह बना सकते हैं जहां वे एक दूसरे से मिल सकें और अपना नज़रिया बांट सकें। हम अपने संगठन में हर माह के पहले शुक्रवार को ‘फ़र्स्ट फ़्राइडेज’ मनाते हैं। इस दिन हम सब मिलकर पिज़्ज़ा खाते हुए एक दूसरे के साथ समय बिताते हैं और अपने टीम के सदस्यों से बातचीत करते हैं। हमारे वार्षिक स्टाफ रिट्रीट और नियमित टीम मीटिंग जैसे औपचारिक कार्यक्रमों से हमें इस बात पर चर्चा करने और जुड़ने के मौक़े मिलते रहते हैं कि हम जो करते हैं वह क्यों करते हैं।

घेरे में बैठे पुरुष और महिलाएं-जन-केंद्रित NGO
चित्र साभार: क्वेस्ट एलायंस

4. ईमानदार प्रतिक्रिया के लिए मौक़े पैदा करना

यह कहना एक बात है कि आप अपने कर्मचारियों से उनकी प्रतिक्रियाएं लेने के लिए तैयार हैं। लेकिन ये प्रतिक्रियाएं सामने आ सकें, इसके लिए सुरक्षित जगहें और मौक़े बनाना एक मुश्किल काम है। हम लोगों ने कुछ समीक्षाओं (उदाहरण के लिए उनकी नियुक्ति के बाद 45-दिवसीय समीक्षा) के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी सुपरवाईजरों के बदले कर्मचारियों को दीं। यह कदम हमारे लिए प्रभावी साबित हुआ। ऐसे मौक़े बनाते रहना हमारा सतत लक्ष्य है।

5. स्पष्ट अपेक्षाएं निर्धारित करें

नए कर्मचारियों के लिए सीखना एक लम्बी प्रक्रिया हो सकती है। शुरुआती चरण में ही अपेक्षाओं को स्पष्ट कर देने से यह तय करना आसान हो जाता है कि सब लोग एक ही दिशा में और एक ही स्तर पर काम कर रहे हैं। एक तयशुदा शुरूआत नए कर्मचारियों को अन्य टीमों के साथ जल्दी जुड़ने और उस माहौल को समझने में मददगार साबित हो सकती है जिसमें वे काम कर रहे हैं। हम 90-दिवसीय ‘लक्ष्य निर्धारण’ कार्यक्रम का पालन करते हैं जिसमें नए कर्मचारी अपने सुपरवाईजर के सहयोग से, अपने काम से जुड़े और अन्य  सामान्य लक्ष्य, दोनों तैयार करते हैं। वे 45 दिनों के बाद एक कर्मचारी के नेतृत्व वाली बैठक में और 90 दिनों के बाद सुपरवाईजर के नेतृत्व वाली बैठक में इन पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते हैं।

6. व्यक्तिगत करियर के लिए सहयोग दें

कर्मचारियों के लिए, पेशेवर संतुष्टि का एक प्रमुख कारक करियर ग्रोथ और आर्थिक तरक्की रहते हैं। कर्मचारियों को उनके अपने करियर में आगे बढ़ने के लिए सक्षम बनाना, निश्चित रूप से उन्हें संगठन में बनाए रखने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। लेकिन साथ ही यह कर्मचारियों को अपने अंदर से आने वाले प्राकृतिक नेतृत्व विकास के लिए भी तैयार करता है।

पिछले एक साल से, हमारे कर्मचारियों के विकास को ‘रीच फॉर द स्टार्स’ कार्यक्रम के जरिए आगे बढ़ाया गया है जिसमें खुद का आकलन, सहकर्मियों की प्रतिक्रिया, लक्ष्य निर्धारण और समीक्षा शामिल है। ये लक्ष्य, उनकी भूमिका से संबंधित या फिर व्यक्तिगत, दोनों ही हो सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को इस तरह से बनाया गया है कि कर्मचारी अपनी महत्वाकांक्षाओं को समझ सकें और उनके साकार होने की कल्पना कर सकें। इसी के अंतर्गत उन्हें व्यावसायिक विकास निधि, अध्ययन के लिए समय या यहां तक कि आराम के लिए मिलने वाली लंबी छुट्टी जैसे लाभ मिलते हैं।

हरियाली से घिरे पुरुष और महिलाएं एक घेरे में-जन-केंद्रित NGO
चित्र साभार: क्वेस्ट एलायंस

7. अच्छे कामों की पहचान

हम सभी को यह जानने की जरूरत है कि हमारे काम को पहचान और महत्व दोनों मिला हुआ है। ऐसा करने के कई तरीक़े हैं और हमेशा ज़रूरी नहीं है (और नहीं होना चाहिए) कि यह लीडरशीप वाली टीम से आए। साझा करने वाले आंतरिक मंच, कर्मचारियों (हम अपने संगठन में सोशल कास्ट का इस्तेमाल करते हैं) को एक-दूसरे के योगदानों के लिए आभार जताने और शुक्रिया कहने का अवसर दे सकते हैं। अधिक औपचारिक मान्यता जहां वार्षिक मूल्यांकन और काम के वर्षगांठ पर की जाती है, वहीं दैनिक स्वीकृति का महत्व भी उतना ही है।

8. कर्मचारियों की ज़रूरतों को समझना

टीम के सदस्य अपनी पृष्ठभूमि, जज्बे, रिश्तों और इतिहास के साथ आते हैं। इसका मतलब है कि अलग-अलग कर्मचारी अलग-अलग तरीकों से अपनी पूरी क्षमता से काम करेंगे। संगठनों को इसे समझना चाहिए और इस विविधता को समायोजित करने के तरीक़े विकसित करने चाहिए। इसके लिए वे सुविधाजनक काम के घंटे, आराम के मौके, बच्चे के जन्म के बाद मिलने वाली छुट्टियों या मज़बूत समावेशन रणनीति को अपना सकते हैं।

दफ़्तर से बाहर, कर्मचारियों का एक मज़बूत सपोर्ट नेटवर्क होता है। हम वार्षिक रूप से क्वेस्ट डे के दिन कर्मचारियों, सहायक कर्मचारियों और ठेकेदारों के साथ अपनी सामूहिक उपलब्धियों का जश्न मनाते हैं।

9. उदाहरण बनें

कागज पर लिखी गई बातों और व्यवहार में लाई गई बातों के बीच के अंतर से ज़्यादा हतोत्साहित करने वाली चीज़ कोई और नहीं होती है। अगर आप किसी भी समय, किसी भी जगह, किसी से भी सीखने वाला एक विकास संगठन हैं तो क्या आप अपने कर्मचारियों को सीखने के लिए विभिन्न मौके प्रदान कर रहे हैं? यदि आपके संगठन में नवाचार सबसे ऊपर है तो क्या आपके कर्मचारियों को नवाचार करने, असफल होने और फिर से कोशिश करने के अवसर दिए जाते हैं?

एक अच्छे प्रतिभा प्रबंधन के लिए आप बीच का रास्ता चुनते हैं। उसी तरह प्रतिभा प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर की जाने वाली गलती को पहचानने की आपकी योग्यता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। साथ ही, आपको इसे लगातार बेहतर बनाने के लिए काम करने के लिए तैयार रहना होगा। अभी हमारे लिए, हमारे टीम से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं पर काम करने का मतलब है कि हम अपनी देखभाल (सेल्फ़-केयर) को अपने मूल्यों का एक अभिन्न हिस्सा बना रहे हैं। हम हमारी लैंगिक और समावेशन रणनीति को अधिक मजबूती से विकसित और स्पष्ट कर रहे हैं। साथ ही, हम यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि हमारे ‘सेकंड लाइन लीडरशीप’ को सही प्रशिक्षण मिल रहा है ताकि आने वाले सालों में वे हमारे विकास को सतत रूप से आगे ले जा सकें।

सीखने के लिए हमेशा तैयार रहना हमारे आंतरिक प्रतिभा प्रबंधन में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि क्षेत्र में हमारे द्वारा किए जाने वाले काम के लिए है।

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*मेगन डॉबसन के विचारों के साथ।

लिंग और हिंसा की धारणाओं में परिवर्तन से पुरुषों की मानसिकता को बदलना

2000 में, कोरो की हमारी टीम ने मुंबई के निम्न आय वर्ग वाले समुदायों के युवा पुरुषों के बीच मर्दानगी के भाव की संरचना के विकास को समझने के उद्देश्य से एक कार्य-आधारित शोध परियोजना तैयार की। हमने इसे समझने के लिए एक मौलिक सर्वेक्षण किया और चार साल के इस एंडलाइन सर्वेक्षण में हमें कुछ दिलचस्प निष्कर्ष देखने को मिले।

उन निष्कर्षों पर बात करने से पहले यह समझना महत्वपूर्ण है कि समुदाय के सदस्यों ने यारी दोस्ती कार्यक्रम में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर कैसे विचार दिए। हमारी टीम ने कुल 850 युवा पुरुषों (16 से 34 वर्ष की आयु वर्ग वाले) के साथ मिलकर काम किया था। इनमें से ज़्यादातर पुरुषों का यह मानना था कि औरतों के साथ की जाने वाली हिंसा अपनी मर्दानगी दिखाने का एक तरीक़ा है। इसका मतलब यह है कि अपने साथी के साथ मार-पीट करने से उस पर अपना नियंत्रण बना रहता है, सड़कों पर महिलाओं के साथ छेड़खानी करना ‘मर्दाना’ होने की निशानी होती है और सहमति का असम्मान करना यौन रूप से ‘हावी’ होने का एक तरीका होता है।

ये वे पुरुष थे जिन्हें कभी भी उनके शरीर से जुड़ी शिक्षा नहीं दी गई थी। वे कभी भी ऐसी जगहों पर नहीं थे जहां मर्दानगी के उनके विचार पर किसी तरह का सवाल किया गया हो या फिर जहां वे अपनी असुरक्षाओं के बारे में खुल कर बात कर सकें। उदाहरण के लिए हमारे बेसलाइन सर्वे में भाग लेने वाले अधिकतर प्रतिभागियों का कहना था कि “यहां कोई हिंसा नहीं है/मैं हिंसक नहीं हूं”। उनकी इस मानसिकता को बदलने के लिए हमें उन पुरुषों का भरोसा जीतना पड़ा ताकि वे खुलकर अपने विचार और अपनी सोच हमें बता सकें। इन जगहों पर वे बातचीत कर सकते थे, अपने व्यवहार पर सवाल कर सकते थे और उस व्यवस्था को समझ सकते थे जिनसे उन्हें इन कामों के लिए साहस मिलता था। इन पुरुषों को मर्दानगी, संवेदनशीलता और देखभाल की वैकल्पिक समझ के बारे में बताया गया। बात जब लिंग-आधारित असमानता और हिंसा की आती है तब उनके व्यवहार परिवर्तन की प्रकृति कुछ इस प्रकार थी:

  1. अस्वीकृति: “यहां किसी प्रकार की हिंसा नहीं है।”
  2. कारण/औचित्य: “हो सकता है कि मैं हिंसक हो गया था, लेकिन इसमें मेरी गलती नहीं थी”
  3. हिंसा के साक्ष्य/घटनाओं पर विचार जो उन्होंने देखे हैं या जिनका हिस्सा रहे हैं
  4. आंशिक स्वीकृति: “शिक्षा में असमानता हो सकती है लेकिन यौन अभिव्यक्ति में नहीं”
  5. इस बात से इनकार करना कि लिंग-आधारित असमानता जीवन के सभी पहलुओं में मौजूद है
  6. पिछले बातों का दोहराव
  7. लिंग के प्रति उनके दृष्टिकोण का पुनर्निर्माण

इस कार्यक्रम में शामिल युवकों ने अपने समुदाय के अन्य लोगों से बातचीत करनी शुरू कर दी (जिनमें स्थानीय नेता और परिवार के सदस्य जैसे लोग भी शामिल थे) और उसी रास्ते पर उनका नेतृत्व करने लगे। ऐसा करने से हिंसा की परिभाषा को लेकर उनकी समझ व्यापक हुई और साथ ही वे हिंसा से जुड़ी किसी घटना पर प्रतिक्रिया करने के लिए संसाधनों के उपयोग के बारे में जानने लगे। अगर हम उनके समुदायों के भीतर ही इन लड़कों के लिए एक समर्थन प्रणाली के लिए अभियान नहीं चलाते तो हमें ऐसे परिणाम नहीं मिलते। लिंग के मानदंडों पर सवाल उठाने से मिलने वाली प्रतिक्रिया के कारण समुदाय के सदस्यों के साथ काम करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमारे अभियान ‘सोच सही मर्द वही’ का लक्ष्य यही था।

इस पूरी प्रक्रिया में हमने कुछ नया सीखा। विश्वास-निर्माण के इस आर्क और लिंग तथा हिंसा को लेकर लोगों की समझ का विस्तार किए बिना हम लोगों से एक बेसलाइन सर्वे में अपने आत्मीय रिश्तों को लेकर स्पष्ट होने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। और समुदाय में व्याप्त हिंसा का संबंध शक्ति के इस डायनमिक्स को समझने और उसकी पहचान से गहरा जुड़ा हुआ है। एंडलाइन सर्वे के समाप्त होते-होते हमें हिंसा की घटनाओं में वृद्धि देखने को मिली। यहां हमने रिपोर्ट किए गए मामलों में वृद्धि को सकारात्मक परिणाम के रूप में देखा। क्योंकि इसका सीधा मतलब यह था कि लोग न केवल हिंसा को बेहतर ढंग से समझ रहे थे बल्कि इससे निपटने के लिए उनके पास अब पर्याप्त ज्ञान भी था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि समुदाय के युवा किशोरों और लड़कों ने यह समझ लिया था कि इस मामले में जहां वे समस्या को पैदा करने वाले हो सकते हैं वहीं वे इसे सुलझाने वाले भी हो सकते हैं।

महेंद्र रोकड़े कोरो के कार्यक्रमों के निदेशक हैं। नितिन कांबले कोरो में प्रोग्राम मैनेजर हैं।

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अधिक जानें: सामुदायिक प्रतिक्रिया का मुकाबला करते हुए लिंग प्रोग्रामिंग को लागू करने के कड़े कदम के बारे में यह लेख पढ़ें।

आत्महत्या की घटनाओं के रोकथाम में मीडिया रिपोर्टिंग की ताक़त

10 सितंबर को मनाए जाने वाले ‘विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस’ से ठीक पहले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने भारत में आत्महत्या की घटनाओं से जुड़े गम्भीर आंकड़े पेश किए। आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में आत्महत्या से होने वाली मौतों की संख्या 2020 की तुलना में, साल 2021 में 7.2 प्रतिशत अधिक है। इस तरह यह आंकड़ा अब तक के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका है। 2021 में प्रकाशित एक अन्य शोध से यह तथ्य सामने आया है कि दुनियाभर में आत्महत्या से होने वाली मृत्यु को दर्ज करने वाले देशों में भारत सबसे पहले स्थान पर है। कई बार आत्महत्या के कई मामले दर्ज नहीं होते हैं या नहीं हो पाते हैं इसलिए ऐसी सम्भावना भी जताई जा सकती है कि वास्तविक संख्या, जारी आंकड़ों से और भी अधिक होगी।

अच्छी बात यह है कि आत्महत्या को रोका जा सकता है। अपनी रिपोर्ट प्रिवेंटिंग सूयसाइड: ए ग्लोबल इम्परेटिव  में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने सामाजिक स्तर पर किए जाने वाले कई मध्यस्थता कार्यक्रमों के बारे में बताया है। इनकी मदद से आत्महत्या के ख़तरे को टाला जा सकता है। इनमें से एक प्रमुख रणनीति जिम्मेदार मीडिया रिपोर्टिंग है। पपाजेनो इफेक्ट के नाम से प्रसिद्ध यह शोध बताता है कि जब मीडिया आत्महत्या से जुड़े मामलों की अपनी रिपोर्टिंग में इससे जुड़े आलोचनात्मक रवैये को कम कर, लोगों को मदद मांगने के लिए उत्साहित करते हैं, तब आत्महत्या रोकथाम के प्रयासों पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग में सनसनी पैदा करने वाली हेडलाइन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है और न ही आत्महत्या के तरीके के बारे में बताया जाता है। एक ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग में मदद के सम्भावित तरीक़ों की जानकारी दी जाती है, आत्महत्या के कारण का अति-सरलीकरण करने से बचा जाता है। साथ ही लोगों को आत्महत्या और इसकी रोकथाम से जुड़ी जानकारी दी जाती है।

इसके विपरीत, वेर्थर प्रभाव के रूप में जानी जाने वाली घटना में, सनसनीखेज समाचार रिपोर्ट और गैर-जिम्मेदार रिपोर्टिंग – विशेष रूप से सेलिब्रिटी आत्महत्या के मामलों में – देखी जाती है। यह बाद में देखादेखी की जाने वाली आत्महत्याओं के लिए एक प्रोत्साहन बन सकती है। एक अध्ययन का अनुमान है कि किसी सेलिब्रिटी की आत्महत्या की मीडिया कवरेज के बाद आमलोगों में आत्महत्या का ख़तरा 13 फ़ीसदी तक बढ़ जाता है। अध्ययन यह भी साफ़ करता है कि जब खबरों में किसी सेलिब्रिटी के आत्महत्या के तरीक़े का उल्लेख किया जाता है तो उसी तरीक़े से होने वाली आत्महत्याओं में 30 फ़ीसदी की वृद्धि देखी जाती है।

इस बात के पर्याप्त सबूत होने के बावजूद कि मीडिया रिपोर्टों में आत्महत्या की रोकथाम के प्रयासों को मजबूत या कमजोर करने की क्षमता होती है, भारत में आत्महत्या से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग की गुणवत्ता बहुत खराब है। दो दशक से भी पहले, डबल्यूएचओ द्वारा जारी सुझावों में मीडिया पेशेवरों के लिए आत्महत्या पर रिपोर्ट करने के तरीक़ों के बारे में बताया गया था। 2019 में प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने भी डबल्यूएचओ द्वारा पारित दिशानिर्देशों के आधार पर अपनी एक सूची जारी की थी। इसने मीडिया जगत को इस बात के लिए भी प्रोत्साहित किया कि वे आत्महत्या की खबरों को सनसनीखेज़ बनाकर पेश न करें या इस तरह से रिपोर्टिंग न करें जिससे कि आत्महत्या को किसी समस्या के समाधान के रूप में देखा या समझा जाए। इसके बाद मुख्य धारा के प्रिंट मीडिया में कुछ सकारात्मक बदलाव देखने को मिले लेकिन समस्या की गम्भीरता को देखते हुए हमें और अधिक बदलावों की जरूरत है। साइरन के एक आंकड़े के अनुसार भारत के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बारों ने आत्महत्या से जुड़े अपने 80 प्रतिशत से अधिक लेखों में ध्यान खींचने वाले हेडलाइन का इस्तेमाल किया था। वहीं, लगभग 85 प्रतिशत लेखों में आत्महत्या के तरीक़ों का उल्लेख भी पाया गया। इसके विपरीत केवल 17 प्रतिशत लेखों में मदद मांगने के लिए हेल्पलाइन नंबर जैसी जानकारियां दी गईं थीं और 0.72 लेखों में इससे जुड़े आपराधिक भाव को कम करते हुए इस बात पर जोर दिया गया था कि आत्महत्याओं को रोका जा सकता है।

साइरन स्कोरबोर्ड पर समाचारपत्रों का प्रदर्शन

मीडिया द्वारा आत्महत्या से जुड़ी खबरें रिपोर्ट करने के तरीके में किन बदलावों की ज़रूरत है?

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कहानियां बताने वाले सैनिटी नामक एक स्वतंत्र प्लैटफ़ॉर्म के संस्थापक सम्पादक और आत्महत्या रोकथाम वकील तन्मॉय गोस्वामी बताते हैं कि “हमने इस बारे में बहुत सोचा और इस पहेली को सुलझाना आसान काम नहीं है।” वे आगे कहते हैं “पहला विचार यही आता है कि ‘क्या कोई एक तरीक़ा है जिससे हम इन दिशानिर्देशों का पालन न करने वाले मंचों पर प्रतिबंध लगा सकें?’ लेकिन स्थायित्व पाने के क्रम में दंड देना कारगर उपाय नहीं होता है; इसके बदले हमें मीडिया को संवेदनशील होकर रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है।”

आत्महत्या से जुड़े शोध एवं इसकी रोकथाम के लिए डबल्यूएचओ के अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क की सदस्य और चेन्नई-स्थित संगठन स्नेहा की संस्थापक डॉक्टर लक्ष्मी विजयाकुमार भी इस बात से अपनी सहमति जताते हुए कहती हैं “आत्महत्या रोकथाम पर काम करने वालों के रूप में हमें यह बात समझनी होगी कि आत्महत्या को खबर बनने और प्रकाशित होने से नहीं रोका जा सकता है। इन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। इसलिए मीडिया द्वारा की जाने वाली ग़लतियों की आलोचना करने के बजाय हम मीडिया को सही तरह से यह काम करने और वास्तव में लोगों की जान बचाने के लिए प्रोत्साहित करने की उम्मीद कर रहे हैं।”

दोनों ही जानकार इस बात से सहमत हैं कि इसे करने का कोई चमत्कारिक तरीक़ा मौजूद नहीं है और आत्महत्या की रिपोर्ट करने के लिए मीडिया द्वारा इस्तेमाल किए गए तरीके को बदलने के लिए हमें कई तरह के समाधानों और साथ आकर काम करने वालों की जरूरत है।

1. मौजूदा रिपोर्टिंग दिशानिर्देशों को लागू करना

आत्महत्या की रिपोर्टिंग के तरीक़ों के बारे में बताने के लिए पहले से ही कई तरह के संसाधन और टूलकिट उपलब्ध हैं। नतीजतन, तन्मॉय के अनुसार मामला अब जानकारी की कमी से संबंधित नहीं है बल्कि इसका संबंध इस बात से है कि क्या मीडिया संगठनों के लोग दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए पर्याप्त सावधानी बरतते हैं। “यह एक साधारण सूची है जिसका पालन किए जाने की आवश्यकता होती है। अगर डेस्क पर काम करने वाला आदमी आत्महत्या पर लिखे लेख का सम्पादन कर रहा है तब उसके सामने यह चेकलिस्ट होनी चाहिए। कई सालों तक डेस्क पर काम करने के कारण मुझे इस बात की जानकारी है कि सम्पादक सभी तरह की चेकलिस्ट का ध्यान रखते हैं। जब मानवीय संकटों या अन्य त्रासदियों के रिपोर्टिंग की बात आती है तो न्यूज़ रूम के लोग दिशानिर्देशों का पालन करना जानते हैं। लेकिन जब मामला आत्महत्या का होता है तब सबको यही लगता है कि ऐसा करना सही है क्योंकि इसको प्रकाशित करने से भारी संख्या में दर्शक और पाठक आकर्षित होते हैं।”

हालांकि यह देखने में सामान्य लगता है लेकिन इस समस्या की जड़ें गहरी हैं। आत्महत्या पर रिपोर्ट करने वाले मीडिया पेशेवरों के अनुभवों और दृष्टिकोणों की जांच करने वाले एक अध्ययन में पाया गया कि कई लोगों को इस बात पर ही संदेह था कि मीडिया आत्महत्या से बचाव में कोई भूमिका निभा सकता है। अधिकांश लोगों को मौजूदा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देशों के बारे में पता नहीं था। वहीं कुछ लोग इस बात को लेकर आशंकित थे कि सिर्फ एक खबर के छपने से आत्महत्याओं पर कोई असर पड़ सकता है।

डॉक्टर लक्ष्मी कहती हैं कि “स्नेहा द्वारा पत्रकारों के साथ किए जाने वाले प्रशिक्षण सत्रों में लोगों ने मुझसे आकर कहा कि एक कहानी से कोई अंतर नहीं आने वाला है। हां, यह सही है कि एक लेख या स्टोरी सीधे अधिक आत्महत्याओं का कारण नहीं बन सकती है लेकिन कुछ लोगों को प्रेरित कर सकती है और हमें इस पर ही ध्यान देने की ज़रूरत है।” चीजों को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि पत्रकारों से लेकर संपादकों और वरिष्ठ प्रबंधन तक सभी स्तरों के मीडिया पेशेवरों को सबसे पहले खुद यह मानना होगा कि आत्महत्याएं अपरिहार्य नहीं हैं और इन्हें रोका जा सकता है। तभी वे इन मिथकों को अपनी रिपोर्टिंग में चुनौती दे सकते हैं।

विभिन्न भारतीय समाचार पत्रों का क्लोजअप-आत्महत्या रोकथाम
आत्महत्या पर रिपोर्ट करने वाले कई मीडिया पेशेवरों को मीडिया द्वारा निभाई जा सकने वाली निवारक भूमिका के बारे में संदेह था। | चित्र साभार: ऐडम कॉह्न/सीसी बीवाई

2. पब्लिक हेल्थ लेंस से आत्महत्या की रिपोर्टिंग करना

मीडिया संगठनों में लाए जाने वाले आवश्यक बदलावों में एक सबसे ज़रूरी बदलाव यह है कि आत्महत्या से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग क्राइम पत्रकारों की बजाय स्वास्थ्य पत्रकारों द्वारा की जानी चाहिए। 2017 में, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम ने भारत में आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था।

इसके बावजूद राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो से लगातार आत्महत्या से जुड़े मामलों के आंकड़े आते रहते हैं और ज़्यादातर समाचार प्रकाशन अभी भी आत्महत्या के खबरों को अपराध की श्रेणी वाली खबरों में रखते हैं। मारीवाला हेल्थ इनीशिएटिव एक मानसिक स्वास्थ्य-केंद्रित, फंडिंग और इसकी वकालत करने वाला संगठन है। इसकी सीईओ प्रीति श्रीधर कहती हैं “यदि आप आत्महत्या को सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दे के रूप में न देखकर उसे एक अपराध मानते हुए उसके बारे में बात करते हैं तब आपकी बातचीत का लहजा अलग होता है। स्वास्थ्य पत्रकारों को इसके बारे में रोकथाम के दृष्टिकोण से सोचने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है; वे सेवाओं और समुदाय-आधारित हस्तक्षेपों तक पहुंच के बारे में सोचते हैं।”

हालांकि क्राइम रिपोर्टर्स को संवेदनशील रूप से आत्महत्या की रिपोर्ट करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है लेकिन वे उतने लम्बे समय तक वहां मौजूद नहीं होते हैं कि चीजों को बदल सकें।

मामलों को जटिल बनाने के लिए, डॉ लक्ष्मी ने देखा कि स्वास्थ्य संवाददाता अक्सर अपनी भूमिका में अपराध संवाददाताओं की तुलना में अधिक समय तक रहते हैं। इसलिए अपराध संवाददाता संवेदनशील रूप से आत्महत्या की रिपोर्टिंग करने के लिए प्रशिक्षित होने के बावजूद चीजों को बदलने के लिए वहां पर्याप्त समय तक मौजूद नहीं रह पाते हैं और अपराध संवाददाताओं के नए समूह को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता बन जाती है। एक अन्य मुख्य समस्या यह है कि अधिकांश अख़बारों में पूरी खबर और सुर्ख़ियां लिखने वाले लोग अलग-अलग होते हैं। इसलिए ऐसा सम्भव है कि खबर बहुत अच्छी तरह से तैयार की गई हो लेकिन सुर्ख़ियों के साथ तालमेल न बैठ रहा हो क्योंकि सुर्ख़ियों का उद्देश्य लोगों को अपनी ओर खींचना होता है। वे आगे कहती हैं कि एक पत्रकार ने मुझसे कहा था कि “आत्महत्या शब्द क्लिकबेट होता है।”

समाचार व्यवसाय का अर्थशास्त्र क्लिक और दर्शकों की संख्या द्वारा संचालित होने वाली चीज़ होती है और यह अक्सर ही आत्महत्या पर की जाने वाली सूक्ष्म रिपोर्टिंग के रास्ते में आती है। तन्मॉय कहते हैं कि “न्यूज़ रूम में सनसनीखेज़ रिपोर्टिंग से आगे बढ़कर काम करने के लिए आवश्यक प्रोत्साहन का स्तर बहुत ही कम होता है।”

3. आत्महत्या को अन्य संरचनात्मक कारकों से जोड़ें

प्रीति कहती हैं कि “अभी जो मैं देखती हूं वह रिपोर्टिंग के समय आत्महत्या का अति-सरलीकरण है। खबरों में सबसे पहले आत्महत्या को मानसिक स्वास्थ्य के मामलों जैसे कि अवसाद या तनाव से जोड़ने का काम किया जाता है। लेकिन आत्महत्या को समझने का यह दृष्टिकोण पश्चिमी देशों से आया है जो भारत के लिए सही नहीं है। यहां आत्महत्या के 50 फ़ीसदी से अधिक मामलों के कारण बीमारी, संबंधों से जुड़े मुद्दे या वित्तीय नुक़सान वगैरह से जुड़े होते हैं। आत्महत्या व्यक्तिगत समस्या नहीं है; यह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक और ऐतिहासिक संदर्भों से जुड़ा मामला होता है और मीडिया को आत्महत्या को इस नज़रिए से समझना शुरू करने की ज़रूरत है।”

यह हमें राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के नवीनतम आंकड़ों में भी देखने को मिलता है जो इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे 2021 में आत्महत्या से होने वाली 50 प्रतिशत से अधिक मौतों के लिए पारिवारिक समस्याओं और बीमारी को जिम्मेदार ठहराया गया था।

और इसलिए, आत्महत्या की खबर पर ज़िम्मेदारी से रिपोर्टिंग करने के लिए यह आवश्यक है कि इसे मानसिक बीमारी से जोड़ने के बजाय इसके परे जाकर देखा जाए। साथ ही उन व्यवस्थात्मक कारकों पर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है जो किसी व्यक्ति के लिए आत्महत्या का कारण बन सकते हैं। विशेष रूप से पिछड़े समुदायों के लिए यह अधिक गम्भीरता से किए जाने की ज़रूरत है। इसके लिए लोगों द्वारा अनुभव किए जाने वाले अलग-अलग तरह के तनावों को समझने की आवश्यकता होगी, न कि केवल आत्महत्या के बारे में बात करने की। उदाहरण के लिए, एक समलैंगिक ट्रांस व्यक्ति की आत्महत्या पर रिपोर्ट करते समय लेख में इस बात की स्वीकृति होनी चाहिए कि इस समुदाय में आत्महत्या की दर बहुत अधिक है। संवाददाताओं को जाकर इस समुदाय के लोगों से बात करनी चाहिए ताकि उन्हें उनके जीवन के वास्तविक अनुभवों की सही तस्वीर मिल सके जिसमें शर्मिंदगी का भाव न हो। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे बड़े नीतिगत बदलावों से जोड़ा जाना चाहिए, जैसे कि शिक्षा और रोजगार में ट्रांस लोगों को शामिल करना।

आत्महत्या से जुड़ी धारणा बदलकर इसे व्यक्तिगत समस्या के रूप में पहचाना जाना चाहिए, इसे संभव बनाने में मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों की एक बड़ी भूमिका होती है।

तन्मॉय के अनुसार जब एक व्यक्तिगत समस्या के रूप में आत्महत्या की धारणा को बदलने की बात आती है तो उसमें मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों, विशेष रूप से मनोचिकित्सकों की बड़ी भूमिका होती है। “मेडिकल प्रोफेशनल्स को अभी भी हमारे समाज में बहुत अधिक सम्मान दिया जाता है। अगर वे इस तथ्य के बारे में बात करना शुरू करते हैं कि आत्महत्याएं सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी नहीं हैं और वे मनो-सामाजिक कारकों के कारण होती हैं, तो शायद समाज इसे अलग तरह से देखना शुरू कर देगा। तब शायद आत्महत्याओं को सनसनीखेज नहीं बनाया जाएगा, और लोगों में इसे लेकर एक बेहतर समझ विकसित होगी। इस समस्या को ठीक करने का काम आप मीडिया से शुरू नहीं कर सकते; आपको इसे ऊपर से शुरू करना होगा। जब तक लोगों में इस बात की स्पष्ट समझ नहीं होगी कि आत्महत्या क्या है, आप उनसे इस पर अलग तरह से रिपोर्टिंग शुरू करने की उम्मीद नहीं कर सकते।”

तन्मॉय आशान्वित होते हुए निष्कर्ष निकालते हैं कि “चीजों के बदलने की गति को देखते हुए निराश होना या नाउम्मीद होना बहुत आसान है। मीडिया उद्योग को अक्सर ही चीजों को सही करने का श्रेय नहीं मिलता है, इसलिए मुझे लगता है कि यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि चीज़ें बदल रही हैं। मुझे इस बात से उम्मीद मिलती है कि हमारे पास प्रोजेक्ट साइरन अवार्ड के लिए पर्याप्त प्रविष्टियां है। कुछ साल पहले की स्थिति ऐसी नहीं थी। हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि यह समस्या कई दशकों से हमारे बीच है इसलिए हमें छोटी-छोटी जीत का भी जश्न मनाना चाहिए।”

स्नेहा फ़िलिप ने इस लेख में अपना योगदान दिया।

यदि आप या आपका कोई परिचित आत्मघाती विचारों से जूझ रहा है, तो सहायता के लिए iCALL (9152987821) या यहां सूचीबद्ध किसी भी हेल्पलाइन पर सम्पर्क किया जा सकता है।

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