समाजसेवी संस्थाएं क़ानून निर्माण की प्रक्रिया में जन-सहभागिता को कैसे संभव बनाती हैं

एक नागरिक के तौर पर, सरकार से जुड़ने के लिए हमारे पास उपलब्ध तरीक़ों में से एक – नए क़ानूनों को आकार देने में हमारी भूमिका भी है जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। फ़रवरी 2014, में क़ानून बनाए जाने की प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता और वैधता लाने की मांग पर गौर करते हुए, कानून और न्याय मंत्रालय ने भारत की पूर्व-विधान परामर्श नीति (प्री-लेजिस्लेशन कंसल्टेशन पॉलिसी – पीएलसीपी) का मसौदा तैयार किया।

पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों के लिए यह नीति बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि कई विकास परियोजनाओं और पर्यावरण कानूनों को कुछ अनिवार्य परामर्शों से गुजरना पड़ता है।

सुधार के अन्य उपायों के अलावा, यह नीति बताती है:

हालांकि लोगों की राय को किस हद तक माना जाता है, यह सोचने वाली बात है। लेकिन यह जान कर ख़ुशी होती है कि 2014 से सिविस (क़ानून बनाने में मदद करने वाली एक समाजसेवी संस्था) ने सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं के लिए खोले गए परामर्शों की संख्या में 805 फ़ीसद बढ़ोतरी देखी है – पर्यावरण क़ानूनों की पहुंच पर सिविस के आंकड़े यहां देखे जा सकते हैं।

इसके साथ ही, अदालतें हाशिए पर मौजूद समुदायों के अधिकारों की अधिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए लोगों के प्रभावी परामर्श का फायदा उठा रही हैं। गोवा में एक खनन परियोजना को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी के खिलाफ अपील के दौरान, उत्कर्ष मंडल बनाम भारत संघ के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने सार्वजनिक परामर्श की कानूनी आवश्यकता को बरकरार रखा। इसमें कहा गया है कि नागरिकों को ऐसी परियोजना के विवरण और निहितार्थों के बारे में जानकारी देने वाली सामग्री के प्रकाशन के बीच और सार्वजनिक सुनवाई की तारीख के बीच 30 दिन की अवधि अनिवार्य है। एक ही दिन में हुई कई सुनवाइयों के मुद्दे पर अदालत ने कहा कि परामर्श प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए नागरिकों को पर्याप्त अवसर दिए जाने की आवश्यकता है।

ऐसा इसलिए है क्योंकि अक्सर हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लोग किसी भी तरह की सुनवाई में भाग लेने में सक्षम नहीं होते हैं, क्योंकि इसके कारण उन्हें अपने काम से अनुपस्थित रहना होगा। उसी प्रकार, नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने ओसिस फर्नांडीस & ओआरएस बनाम पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय पर अपने फ़ैसले में प्रभावी सार्वजनिक परामर्श की सुविधा के लिए सार्वजनिक सुनवाई के दौरान राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने, हर आवाज को सुनने और रिकॉर्ड करने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करने की बात कही है। साथ ही, इसने प्रासंगिक तकनीकी और वैज्ञानिक डेटा प्रस्तुत करने जैसी शर्तों का सुझाव भी दिया है। 

जहां न्यायपालिका जैसे हितधारक अपने काम में पीएलसीपी दिशानिर्देशों को शामिल करते रह सकते हैं, वहीं हाशिए पर रहने वाले समुदायों के साथ मिलकर काम करने वाली समाजसेवी संस्थाएं लोगों की भागीदारी को सुविधाजनक बनाने में कैसे मदद कर सकती हैं?

एक महिला का इंटरव्यू रिकोर्ड करती एक अन्य महिला_सामाजिक न्याय
हितधारकों के साथ लगातार बातचीत के कारण जमीनी स्तर के संगठन आम सहमति बनाने में विशिष्ट रूप से सक्षम हैं। | चित्र साभार: वीडियो वॉलंटीयर्स / सीसी बीवाय

समाजसेवी संगठनों की भूमिका

विशिष्ट डोमेन वाले क्षेत्रों में काम करने वाले संगठन के रूप में हमारा काम और हमारी विशेषज्ञता सार्वजनिक नीति निर्माण से जुड़ जाती है। जहां कुछ संगठन – उदाहरण के लिए, वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टिट्यूट (जिसने मुंबई की जलवायु क्रियान्वयन योजना को तैयार करने में महाराष्ट्र सरकार की सहायता की थी) – सीधे ही नीति निर्माण के स्तर पर काम करता है। दूसरी तरफ सुझाव प्रक्रिया में शामिल होने वाले ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले और समुदाय-आधारित संगठनों की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। 

नागरिक समाज संगठनों (सीएसओ) के लिए, नीति निर्धारण प्रक्रिया से जुड़े रहने के कुछ तरीके यहां दिए गए हैं:

1. जागरूकता बढ़ाएं

बुनियादी स्तर पर, जमीनी स्तर के संगठन और मीडिया किसी भी नए कानून या नीति के बारे में हितधारकों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए एक मंच प्रदान करते हैं जो उनके जीवन और आजीविका को प्रभावित कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए, 2019 में, बृहन्मुंबई नगर निगम ने मुंबई की आरे कॉलोनी में 2,238 पेड़ों की कटाई के मुद्दे पर सार्वजनिक टिप्पणियां आमंत्रित करने के लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन दिये थे। एक स्थानीय सामुदायिक संगठन, लेट इंडिया ब्रीद ने व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया मंचों के जरिए इस परामर्श में भाग लेने के महत्व से जुड़ी जानकारियों का प्रचार-प्रसार किया था। उन लोगों ने ई-मेल के माध्यम से प्रतिक्रिया रखने पर विस्तृत निर्देश प्रदान किए, जिसके परिणामस्वरूप भागीदारी में वृद्धि हुई। 

कानून का मसौदा तैयार करने के चरण में इस तरह की जागरूकता फैलाने से सामुदायिक संगठनों को प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिलता है। इससे भी जरूरी यह है कि यह उन समुदायों की मदद करता है जिनके साथ वे काम करते हैं, उन्हें उद्योग के उतार-चढ़ाव और अन्य कारकों को समझने में मदद मिलती है जो आने वाले वर्षों में उनकी आजीविका को प्रभावित कर सकते हैं।

2. अपने समुदायों को बदलाव में शामिल करें

संगठनों के रूप में, हम अक्सर ज़मीन पर अपने स्वतंत्र अनुभव के आधार पर नीतिगत निर्णयों पर मजबूत सिफारिशें कर सकते हैं। हालांकि, किए गए प्रतिनिधित्व में हमारे समुदायों को शामिल करना एक महत्वपूर्ण काम है।

2020 में, सामाजिक न्याय मंत्रालय ट्रांसजेंडर लोगों के लिए बनाए जा रहे नियमों के मसौदे पर प्रतिक्रिया मांग रहा था, जिसमें उस प्रक्रिया को निर्दिष्ट किया गया था जिसके द्वारा ट्रांसजेंडर व्यक्ति पहचान पत्र के लिए आवेदन कर सकते थे। साझा की गई अन्य प्रतिक्रियाओं में, ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों – जिनमें से कई ने पहली बार सीएसओ के जरिए नियमों के बारे में सुना – ने विशिष्ट और कार्रवाई योग्य सुझाव दिए।

सुझावों में आवेदन पत्र में अंतिम नाम की अनिवार्यता को हटाने जैसे इनपुट शामिल थे – एक सरल उपाय जिसने सदस्यों के लिए कार्ड का आवेदन करना आसान बना दिया। कानून में स्पष्टता प्रदान करने और विवादों के सभी सम्भावित क्षेत्रों को शामिल करने की इच्छा रखने के कारण सरकारी अधिकारी अक्सर ऐसी सभी सूक्ष्म जानकारियों पर ध्यान देते हैं।

संख्या बल हमेशा किसी कानून के तैयार किए जा रहे मसौदे पर उत्पन्न होने वाले तर्क की गंभीरता को व्यक्त करने में मदद करता है।

आख़िर में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संख्या बल हमेशा किसी कानून के तैयार किए जा रहे मसौदे पर उत्पन्न होने वाले तर्क की गंभीरता को व्यक्त करने में मदद करता है। उदाहरण के तौर पर, समाजसेवी संगठनों के लिए सीएसआर अधिनियम में 2020 में प्रकाशित सुधारों पर विचार किया जा सकता है। इस संसोधन में प्रस्ताव दिया गया है कि सेक्शन 8 कम्पनियों के अलावा कोई भी ट्रस्ट, सोसायटी आदि सीएसआर फ़ंडिंग प्राप्त नहीं कर सकेगा। सिविस के मंच पर परामर्श का जवाब देने वालों के बीच एकमत राय यह थी कि ट्रस्ट और सोसायटी के पास भी सीएसआर फंडिंग प्राप्त करने की पात्रता होनी चाहिए। इसके तुरंत बाद, इस प्रतिक्रिया को शामिल कर लिया गया और अब सभी प्रकार के सीएसओ सीएसआर फंडिंग के लिए आवेदन कर सकते हैं।

3. प्रतिक्रिया को सुव्यवस्थित करें

हालांकि नीति निर्माण में समुदायों को शामिल करना एक कठिन और अव्यवस्थित काम हो सकता है। लेकिन हितधारकों के साथ लगातार बातचीत, समुदाय के बीच विश्वास और अपने इलाक़ों में उनकी गहरी पहुंच के कारण जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठन सर्वसम्मति बनाने के लिए विशिष्ट रूप से तैयार होते हैं। समुदाय के समीकरणों और नजरिए के बारे में उनकी समझ, साथ ही सुविधा की अनोखी पद्धतियां (जैसे समुदायों की मैपिंग या समूह चर्चाएं) इस प्रक्रिया को रचनात्मक और आकर्षक बनाती हैं। 

हालांकि, समुदाय-आधारित संगठनों की अपनी चुनौतियां हैं। जमीनी स्तर पर काम करने वाले केवल थोड़े से संगठनों के पास वकीलों की अपनी टीम या नीति संसाधन हैं जो इस तरह के परामर्शों पर नज़र रख सकते हैं और उनसे जुड़ सकते हैं।

लेकिन इनमें से कुछ बाधाओं को निम्नलिखित टूल और विधियों की मदद से दूर किया जा सकता है:

यदि पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक परामर्श की बढ़ती संख्या को संकेत के रूप में देखा जाए तो कानूनी प्रणाली को वास्तव में समावेशी बनाने के लिए परामर्श का क्षेत्र हमें अनेक अवसर प्रदान कर सकता है। आखिरकार, समावेशी कानून और नीतियां पहले से ही जमीन पर कार्यरत रीति-रिवाजों और बेस्ट प्रैक्टिस के प्रभाव को बढ़ा सकते हैं। परामर्श की प्रक्रिया उन तरीकों में से एक है जिससे नागरिक समाज बड़े पैमाने पर बदलाव ला सकता है।

जलवायु नीति के क्षेत्र में भागीदारी की प्रेरणा का स्तर बढ़ सकता है क्योंकि स्वदेशी तरीक़े समग्र रूप से हमारे पारिस्थितिक तंत्र के लिए एक स्थायी दृष्टिकोण प्रदान कर सकते हैं। लेकिन, इन प्रथाओं को अपने उस रास्ते की तलाश की आवश्यकता है जिस पर चलकर वे सही समय पर नीति-निर्माताओं तक पहुंच सकें।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

अधिक करें

कच्छ के मवेशी लंपी वायरस से जूझ रहे हैं 

खेत में मवेशी_मवेशी लंपी वायरस
मालधारी समुदाय के लोग अपनी संस्कृति के हिस्से के रूप में पीढ़ियों से कंकरेज मवेशियों को पाल रहे हैं। | चित्र साभार: आस्था चौधरी एवं दीप्ति अरोड़ा

बन्नी घास का मैदान, अपने समृद्ध वन्यजीव और जैव विविधता के लिए जाना जाता है। यह गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है। इस इलाक़े में मुख्य रूप से मालधारी समुदाय (पशुपालक) समुदाय के लोग रहते हैं जो बन्नी भैंस और कंकरेज मवेशियों सहित विभिन्न क़िस्म के मवेशियों को पालते हैं। मालधारी समुदाय के लोग अपनी संस्कृति और परंपरा के अनुसार पीढ़ियों से कंकरेज मवेशियों को पाल रहे हैं। ये अपने मवेशियों के चारा-पानी के लिए मौसमी प्रवास पर अपने घरों से दूर निकल जाते हैं।

हालांकि 1980 के दशक से क्षेत्र में दूध की डेयरी के आने के बाद इस इलाक़े में बहुत अधिक परिवर्तन आया है। अधिकांश पशुपालक और चरवाहे या तो बन्नी से बाहर जाकर बस गए हैं या फिर उन्होंने अपने पुराने मवेशियों को हटाकर उनकी जगह भैंसे पाल ली हैं। भैंस का दूध बेचने से मुनाफा अधिक होता है लेकिन इसके पीछे यही एक कारण नहीं है। दशकों से गैंडो बावर (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) नाम के खरपतवार के सेवन से गायों की आंत में होने वाली बीमारी से उनकी मौत हो जाती है। यह मामला तब और बदतर हो गया जब 2022 में बन्नी घास के मैदानों में होने वाली पहली बारिश से मवेशियों को गांठदार त्वचा रोग (लंपी स्किन डिजिज) होने लगा। इस बीमारी ने इलाक़े के पशुओं को बुरी तरह से अपनी चपेट में ले लिया। कच्छ जिले के मिसरियादो गांव में इस दौरान लगभग 100 गायें मर गईं। 

मिसरियादो के निवासी मजना काका कहते हैं, ‘गायों को रखना बहुत मुश्किल हो गया है, क्योंकि मैंने अपने पूरे जीवनकाल में उन्हें इस तरह की बीमारी से पीड़ित नहीं देखा है।’ महज पांच से सात दिनों के अंतराल में उनकी 15-16 गायों की मौत हो गई। वे आगे जोड़ते हैं ‘इन गायों को पालना बहुत कठिन काम है – हम उनके लिए दूर-दूर तक यात्रा करते हैं, परिवार की तरह उनका पालन-पोषण करते हैं और दुर्भाग्य से फिर भी उन्हें बचा नहीं पाते हैं।’

पशु चिकित्सकों ने गायों को टीका लगाया, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। केवल 10 दिनों में अपनी 40 गायें खोने वाले पड़ोसी गांव नेरी के निवासी मियाल हेलपोत्रा बताते हैं कि ‘मैंने उन देसी उपचारों का सहारा लिया जिनका हम लम्बे समय से अभ्यास करते आ रहे हैं; लेकिन हम फिर भी उन्हें बचा पाने में असमर्थ हैं।’

वे अपनी गायों को चराने के लिए प्रवास की तैयारी कर रहे हैं लेकिन उन्हें लगता है कि वे बहुत कमजोर हो गई हैं। ‘गायें अब भी पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हुई हैं और कुछ के तो घाव अब तक नहीं भरे हैं। उनके साथ लम्बी दूरी की यात्रा पर निकलना कठिन है क्योंकि उन्हें चलने में भी दिक़्क़त होती है।’

पशुपालकों का मानना है कि उनके मवेशियों को होने वाली इस बीमारी का कारण हवा और मौसम में आने वाला बदलाव है। पिछले कई सालों में उनके घास के मैदान के क्षेत्रफल, घास की गुणवत्ता और पानी में कमी आई है लेकिन राज्य सरकार से किसी भी प्रकार का समर्थन नहीं मिला है। उन लोगों ने जिले के कलेक्टर ऑफ़िस में मदद और मुआवजे के लिए आवेदन भी दिया है लेकिन अब तक कोई राहत नहीं मिली है। 

मालधारी बहुत ही प्रतिकूल परिस्थिति में रहते हैं। उनके पास स्वास्थ्य सुविधाओं और बच्चों के लिए स्कूल का अभाव है। वे अब भी अपने मवेशियों की देखभाल कर रहे हैं क्यों यह उनकी परंपरा का हिस्सा है। लेकिन किसी भी तरह के समर्थन या प्रोत्साहन के बिना वे अपनी इस परम्परा को कब तक बचा कर रख सकते हैं?

आस्था चौधरी और दीप्ति अरोड़ा उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संबंधों का अध्ययन करने वाली शोधार्थी हैं। वे दोनों कोएग्जिसटेंस कंसोर्टियम से जुड़ी हुई हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें कि असम में हजारों सूअरों की मौत का कारण क्या है।

अधिक करें: लेखकों को अपना सहयोग देने और उनके काम को विस्तार से जानने के लिए उनसे [email protected] और [email protected] पर सम्पर्क करें।

असम में किसान खेती के रासायनिक और जैविक दोनों तरीक़े अपना रहे हैं

महिलाओं का एक समूह धान की रोपनी करता हुआ_रासायनिक और जैविक खेती
हालांकि जरूरी नहीं कि यह धारणा सच हो फिर भी सरकार समुदायों को बता रही है कि खेती के प्राकृतिक तरीक़ों से कम उपज हो सकती है। | चित्र साभार: सेस्टा

हाल के वर्षों में, असम में किसानों के बीच खेती के रासायनिक तरीक़ों और संकर (हाइब्रिड) बीजों को लेकर निर्भरता बढ़ी है। ज़मीन पर राज्य एवं केंद्र, दोनों ही सरकारें प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही तरीक़ों को बढ़ावा दे रही हैं। नतीजतन, समुदाय के लोगों के बीच एक भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। उदाहरण के लिए, किसानों में बीज-वितरण के समय कृषि विभाग वर्मीकम्पोस्ट किट भी देता है। हालांकि उसी समय विभाग के लोग नाइट्रोजन-फ़ॉस्फ़ोरस-पोटैशियम (एनपीके) खाद, जिंक और यूरिया के किट भी बांटते हैं।

इसके अलावा, जरूरी नहीं है कि यह धारणा सच ही हो फिर भी सरकार समुदायों को बता रही है कि खेती के प्राकृतिक तरीक़ों से उपज में कमी आ सकती है। उपज मिट्टी के स्वास्थ्य, सिंचाई, बीज की क्षमता और खरपतवार और कीटों की उपस्थिति सहित विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। मामला कुछ भी हो लेकिन किसानों ने इस कथन को स्वीकार कर लिया है और चूंकि उन्हें तुरंत परिणाम चाहिए इसलिए अब वे यूरिया जैसी रासायनिक खादों का अधिक इस्तेमाल करते हैं। 

चिरांग जिले में सेस्टा जिन किसानों के साथ काम करता है, उनका कहना है कि वे कृषि पर रसायनों के नकारात्मक प्रभाव को समझते हैं। वे सभी इस बात को जानते हैं कि इन तरीक़ों से उपजाया गया खाद्य पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। यही कारण है कि इनमें से कई लोगों ने अपने खेतों को दो भागों में बांट लिया है। ज़मीन के एक टुकड़े पर वे प्राकृतिक तरीक़े से खेती करते हैं और उससे होने वाली उपज को अपने इस्तेमाल में लाते हैं। दूसरे हिस्से में रासायनिक विधियों से खेती की जाती है और उससे उपजने वाले अनाज को बाज़ार में बेच दिया जाता है। 

कौस्तव बोरदोलोई सेस्टा में डिजिटल और संचार विशेषज्ञ के रूप में काम करते हैं, पोलाश पटांगिया सेस्टा के साथ साझेदारी में काम करते हैं और उसके संचार कार्यकारी हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें : इस लेख को पढ़ें और माजुली नदी द्वीप क्षरण के कुछ अनसोचे नतीज़ों के बारे में जानें।

अधिक करें: लेखकों के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] और [email protected] पर सम्पर्क करें।

पुरुषों का साथ महिलाओं के लिए भूमि अधिकार हासिल करना आसान बना सकता है

भूमि स्वामित्व, महिला सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। लेकिन भारत में महिलाओं की भूमि-हीनता पर लिंग आधारित डेटा की कमी है। ऐसे में क्या इस बात पर भरोसा किया जा सकता है कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 जैसे प्रगतिशील कानूनों के चलते देश में भूमि के संयुक्त स्वामित्व में वृद्धि हुई है। बात यह भी है कि महिलाओं के भूमि अधिकारों के मुद्दे को आगे बढ़ाने में यह कानून केवल पहला कदम है, क्योंकि भारत में महिलाओं को भूमि और संपत्ति पर अपने अधिकारों को प्राप्त करने, और उनका प्रयोग करने में महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। 

लैंगिक अधिकारों पर काम करने वाली शोध संस्था, इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वुमेन (आईसीआरडब्ल्यू) के रवि वर्मा बताते हैं कि इन प्रणालियों के केंद्र में मौजूद पितृसत्ता ही कानूनों के अप्रभावी होने का कारण है। वे कहते हैं कि “पारंपरिक प्रथाओं और असमान लैंगिक मानदंडों से मज़बूती पाने वाली पितृसत्ता, जमीन जैसी प्रमुख संपत्ति पर नियंत्रण के जरिए अपनी व्यापक और अक्सर हिंसक उपस्थिति को बनाए रखती है। उत्तराधिकार कानून और पहलें इस बात पर निर्णायक प्रभाव डालने में सक्षम नहीं हो सके हैं।” 

ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए समर्पित एक समाजसेवी संस्था, प्रकृति ने नागपुर जिले के 30 से अधिक गांवों में काम किया है। प्रकृति के मुताबिक पुरुषों की भागीदारी एक प्रभावी रास्ता है। प्रकृति की कार्यकारी निदेशक सुवर्णा दामले का कहना है कि “हमें इस बात का अहसास शुरुआत में ही हो गया था कि महिलाओं से बात करना और उन्हें अपने अधिकारों के बारे में बताना महत्वपूर्ण है। लेकिन अगर हम इस बातचीत में पुरुषों को शामिल नहीं करेंगे तो खास अंतर नहीं ला पाएंगे।”

रवि बताते हैं कि “महिलाओं के भूमि अधिकारों पर बातचीत में पुरुषों को शामिल करने का एक और कारण हिंसा को रोकना है।” वे आगे जोड़ते हैं कि महिलाओं को अक्सर ही बलपूर्वक और आक्रामक तरीक़े से उनकी भूमि से बेदख़ल कर दिया जाता है। कभी-कभी तो उनकी जान को भी ख़तरा होता है। भूमि का अधिग्रहण मिलने के बावजूद महिलाओं को पुरुषों द्वारा किए जाने वाले उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। रवि बताते हैं कि “मैंने ऐसी कई महिलाओं के बारे में सुना है जिनके पास भूमि है लेकिन इन तमाम कारणों से उन्हें अपनी भूमि एक बोझ जैसी लगती है।” परिवार से अलग कर दिए जाने का डर भी महिलाओं को भूमि पर किसी भी प्रकार के अधिकार का दावा करने से रोकता है।

एक प्रभावी समाधान के लिए इन प्रणालियों में शामिल पुरुषों को लिंग और पितृसत्ता के बारे में संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है। रवि ज़ोर देते हुए कहते हैं कि इस तरह के संवाद के बिना, भूमि आवंटन से निपटने के क्रम में महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों को पुरुष वर्ग न तो समझ पाएगा और न ही इनका समाधान कर पाएगा।

महिलाओं के भूमि अधिकारों में पुरुषों का शामिल होना

सुवर्णा ने इस संदर्भ में पुरुष हितधारकों की भागीदारी का विवरण दिया। इनमें सबसे पहले सरकार और व्यवस्था से जुड़े लोग जैसे सरपंच, ग्राम सेवक या पटवारी आते हैं। सुवर्णा कहती हैं कि “हम कार्यान्वयन स्तर पर इन ऑफिस-होल्डर्स के साथ काम करते हैं। लेकिन अगर हम 50 ग्राम प्रधानों से बात करें, तो उनमें से केवल पांच ही महिलाओं के भूमि आवंटन और विरासत के मुद्दों पर बात और काम करने के लिए तैयार होंगे।” रवि इन जवाबदेह लोगों में होने वाले लैंगिक पूर्वाग्रहों की बात भी करते हैं। ऊपर से भले ही इन पूर्वाग्रहों क पता न चलता हो लेकिन निश्चित तौर पर ये महिलाओं को हाशिए पर खड़ा और वंचित महसूस करवाते हैं। वे कहते हैं कि “ये संस्थाएं पूरी तरह से पितृसत्तात्मक हैं और यहां पुरुषों का वर्चस्व है।” इस प्रकार, भूमि अधिकार मुद्दों को हल करने में इन जवाबदेह लोगों का शामिल न होना, न केवल भूमि अधिकार कानूनों के अपर्याप्त कार्यान्वयन और क्रियान्वयन की स्थिति पैदा करता है, बल्कि भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती देने की महिलाओं की क्षमता को भी बहुत सीमित करता है।

परिवारों के भीतर, विशेष रूप से कृषि गतिविधियों से जुड़े परिवारों में, भूमि के विभाजन का भी विरोध होता है।

भेदभाव विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले समूहों से संबंधित महिलाओं या विधवाओं, अपने परिवार से अलग रहने वाली या परित्यक्त महिलाओं के मामले में बढ़ जाता है। रवि इस बात पर जोर देते हैं कि “पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं और उनका पालन करने वालों के पास इन महिलाओं के साथ जुड़ने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण, उपकरण, भाषा और संवेदनशीलता का अभाव है।” इसलिए, यहां पर पुरुषों (और महिलाओं) के बीच वास्तविक समानता का विचार विकसित किया जाना चाहिए। इसका मतलब है कि हाशिए पर रहने वाली महिलाओं की भूमि तक पहुंच बढ़ाने के लिए, कानूनों को लागू करने वाली संस्थाओं द्वारा अलग से प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।

नागपुर में, प्रकृति सक्रिय रूप से उन पुरुषों के साथ जुड़ कर काम करती है जो व्यक्तिगत नुकसान की संभावनाओं के कारण महिलाओं के भूमि अधिकारों का कड़ा विरोध करते हैं। सुवर्णा बताती है कि “उन्हें इस बात का डर होता है कि हम उनसे उनकी भूमि छीन लेंगे और महिलाओं को दे देंगे। हमें उन्हें यह समझाना होगा कि हमारा इरादा ऐसा कुछ करने का बिल्कुल नहीं है।” परिवार के पुरुष सदस्य इसका महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सुवर्णा इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि परिवारों के भीतर, विशेष रूप से कृषि गतिविधियों से जुड़े परिवारों में, भूमि के विभाजन का भी विरोध होता है। परिणामस्वरूप, महिलाओं के विरासत के अधिकार का विरोध किया जाता है। यह विधवाओं के लिए विशेष रूप से बुरा है। संयुक्त राष्ट्र का खाद्य और कृषि संगठन इस बात पर प्रकाश डालता है कि तलाकशुदा या विधवा होने की स्थिति में कई महिलाओं को अपने भूमि अधिकार खोने का जोखिम उठाना पड़ता है।

धान की खेत की मेड़ पर चलती के महिला-भूमि अधिकार
जब महिलाओं के भूमि अधिकारों की बात आती है तो भूमि के विभाजन का डर सबसे बड़ी चुनौती है। | चित्र साभार: वॉलपेपरफ़्लेयर

पुरुषों को शामिल करने के प्रभाव

प्रकृति ऊपर बताए गए सभी हितधारकों के साथ खुलकर बातचीत करती है और भूमि अधिकारों से जुड़ी चर्चाओं में पुरुषों को शामिल करती है। सुवर्णा का कहना है कि “कम से कम 20-30 फ़ीसद पुरुष हमारे साथ बैठकर अपने परिवार में महिला सदस्यों के भूमि अधिकारों और इससे उनकी आजीविका और आय पर पड़ने वाले प्रभावों पर बातचीत करने के लिए तैयार रहते हैं।” नागपुर में इनके कार्यक्रम के विस्तार के साथ, इन चर्चाओं में भाग लेने वाले पुरुषों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।

रवि इस बात पर जोर देते हैं कि यदि इन कार्यक्रमों की परिकल्पना और डिज़ाइन पुरुषों की उपस्थिति के साथ की जाती है तो इससे परिवर्तन एवं प्रभाव दोनों ही स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ेंगे। इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले पुरुष कठोर मानदंडों पर सवाल उठाते हैं और उन्हें चुनौती देते हैं। साथ ही, अपनी भागीदारी और प्रभाव को लेकर महत्वपूर्ण आत्म-विश्लेषण की प्रक्रिया भी शुरू कर देते हैं। पिछली क़तार में खड़े रहने वाली अपनी भूमिका से निकलकर ये सहयोग करने के तरीक़े ढूंढते हैं और परिवर्तन लाने वाली प्रक्रियाओं को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

रवि का कहना है कि “हमारे शोध के अनुसार इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले पुरुष, लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा और आर्थिक इच्छाओं का समर्थन करते हैं, बाल विवाह या कम उम्र में होने वाले विवाहों को रोकने में मदद करते हैं और हिंसा को रोकते हैं।” आईसीआरडब्ल्यू ने यह भी नोट किया है कि परिवर्तन प्रक्रिया को बनाए रखने के लिए, पुरुषों को सहायक सहकर्मी समूहों और महिला सशक्तिकरण रणनीतियों के साथ तालमेल स्थापित करने की आवश्यकता है।

चुनौतियों से निपटना

अपने काम के दौरान प्रकृति ने पाया है कि जब महिलाओं के भूमि अधिकारों की बात आती है तो भूमि के विभाजन का डर सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरता है। इस डर के पीछे उनकी यह चिंता होती है कि महिला परिवार के सदस्यों के बीच भूमि के बंटवारे से विखंडन की स्थिति पैदा होगी और ऐसा संभव है कि इससे भूमि जोत की उत्पादकता और आर्थिक व्यवहार्यता भी प्रभावित हो। परम्परागत रूप से भूमि से जुड़े सभी फ़ैसले लेने का अधिकार रखने वाले परिवार के पुरुष सदस्य कम कृषि उत्पादन और आर्थिक स्थिरता से जुड़ी आशंकाओं के कारण भूमि के विभाजन का विरोध कर सकते हैं।

“अगर परिवार के पास पांच से छह एकड़ भूमि होती है तो हम प्रयास करते हैं कि वे एक या आधी एकड़ ज़मीन महिलाओं को दे दें।”

प्रकृति ने निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल करने का प्रयास करके इस समस्या से निपटने का एक तरीका अपनाया है। सुवर्णा कहती हैं कि “अगर परिवार के पास पांच से छह एकड़ भूमि होती है तो हम प्रयास करते हैं कि वे एक या आधी एकड़ ज़मीन महिलाओं को दे दें, ताकि वे भूमि के उस टुकड़े पर अपनी इच्छा के अनुसार खेती कर सकें।” खेती से जुड़े कामों में महिलाओं की भूमिका को केवल श्रमिक होने तक न सीमित रख कर प्रकृति उन्हें कृषि से जुड़े मामलों के विभिन्न पहलुओं में सक्रिय रूप से शामिल करती है। साथ ही, यह सुनिश्चित करती है कि महिलाएं खेती से संबंधित वित्तीय मामलों में अधिक महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाएं।

रवि इसमें अपनी बात जोड़ते हुए कहते हैं कि “पुरुषों पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक लिंग परिवर्तनकारी रणनीति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाएं किसी भी चर्चा में खुले तौर पर भाग ले सकें या भूमि से जुड़ी निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग ले सकें। और ऐसा समानता और सम्मान की भावना के साथ और बिना किसी दबाव के किया जा सके।”

प्रकृति के सामने आने वाली चुनौतियों में से एक, पुरुषों द्वारा किया जाने वाला यह दावा है कि यदि उत्तराधिकार और भूमि अधिकार भारतीय कानून का हिस्सा हैं ही तो फिर बाहरी हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है। हालांकि जैसा कि सुवर्णा बताती हैं, ये तर्क कानून के कार्यान्वयन से संबंधित चुनौतियों को नजरअंदाज करते हैं। कभी-कभी, सही दस्तावेज उपलब्ध नहीं होते हैं और पटवारी और अन्य सरकारी अधिकारी सहयोग करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति में धीरे-धीरे व्यवहार परिवर्तन को बढ़ावा देना ही एकमात्र समाधान है।

महिलाओं के भूमि अधिकारों की खोज में पुरुषों को शामिल करने का महत्व साफ है। ऐसा करने का इरादा रखने वाले संगठनों को उन कार्यक्रमों में पुरुषों को शामिल करना चाहिए जो व्यक्तिगत परिवर्तन लाने में मददगार हों। रवि के अनुसार, इसे हासिल करने के लिए “लोगों में एक गहरी समझ पैदा करने की जरूरत होगी जो महिलाओं और पुरुषों दोनों के साथ जुड़ सके और लैंगिक मानकों को बनाने और मजबूत करने वाली वजहों पर काम कर सके।” इससे संगठनों को शक्ति असंतुलन को सही करने, सुरक्षित स्थान बनाने, लैंगिक समानता के फ़ायदों पर संवाद करने में सुविधा होगी। साथ ही, इससे मजबूत संस्थागत साझेदारी बनाने और उन पर विचार और कार्रवाई की एक परंपरा के लिए प्रतिबद्ध होने में मदद मिलेगी। यह सामूहिक रूप से सार्थक परिवर्तन लाने में योगदान कर सकता है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

सुवर्णा दामले प्रकृति की कार्यकारी निदेशक हैं। वह 1993 से ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने के कार्यक्रमों से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने स्थानीय निर्णय लेने वाले निकायों में चुनी गई महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर काम किया है। सुवर्णा दक्षिण एशियाई महिला नेटवर्क से जुड़ी रही हैं और उन्हें 2012 में संसदीय अध्ययन पर राज्यसभा फ़ेलोशिप भी मिल चुका है।

रवि वर्मा एक सामाजिक वैज्ञानिक और सामाजिक जनसांख्यिकी और मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि वाले लिंग और पुरुषत्व के विशेषज्ञ हैं।उनके पास तीन दशकों से अधिक का अनुभव है और अभी वह अनुसंधान करने, तकनीकी सहायता प्रदान करने, क्षमता निर्माण और कई मुद्दों पर नीतिगत संवाद में भाग लेने में आईसीआरडब्ल्यू के प्रयासों का नेतृत्व करते हैं।रवि लिंग और स्वास्थ्य पर लैंसेट आयोग में आयुक्त के रूप में भी कार्य करते हैं और वूमेन लिफ्टहेल्थ और ग्लोबल हेल्थ 50/50 के बोर्ड में बैठते हैं।

अधिक जानें

विमुक्त जनजातियों पर पुलिसिया पहरे के पीछे जातिवाद है

साल 1871 में, अंग्रेज सरकार ने भारत में आपराधिक जनजाति अधिनियम लागू किया था। यह एक ऐसा कदम था जिसने सैकड़ों खानाबदोश जनजातियों को ‘जन्म से ही अपराधी’ घोषित कर दिया। हालांकि, 1952 में भारत सरकार ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया लेकिन ये अपराधी जनजातियां – जिन्हें अधिसूचित जनजातियां (डिनोटिफाइड ट्राइब्स – डीएनटी) या विमुक्त समुदायों के नाम से जाना जाता है – आज तक हाशिए पर जीवन जीने को मजबूर हैं। 

उदाहरण के लिए, भोपाल में बसने वाले पारधी नाम के विमुक्त समुदाय की बात करते हैं। यदि किसी पारधी परिवार में शादी-ब्याह जैसा कोई आयोजन होता है तो इन्हें इसके लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन से अनुमति लेनी पड़ती है। साथ ही, शादी में शामिल होने वाले अतिथियों की सूची के साथ एक आवेदन जमा करना पड़ता है। यदि वे इस नियम का पालन नहीं करते हैं तो यह मान लिया जाता है कि पारधी समुदाय के लोग किसी तरह का अपराधिक षड्यंत्र करने के लिए इकट्ठा हुए हैं। इसके बाद वहां की स्थानीय पुलिस कभी भी उन्हें उठाकर ले जा सकती है। 

आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा विमुक्त समुदाय के साथ, व्यवस्था के स्तर पर किए जाने वाले उत्पीड़न को न तो लोग समझ पाते हैं और ना ही इस पर किसी तरह के सवाल ही उठाए जाते हैं।

अपराधीकरण की जातिरहित समझ

और परम्परा के स्तर पर एक दूसरे से अलग होते हुए भी उत्पीड़न के साझा इतिहास से एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। व्यवस्था के स्तर पर हिंसा और उत्पीड़न की, बेढंगी और स्वाभाविक रूप से जाति-रहित, समझ के आधार पर उनके जीवन और आजीविका को पीढ़ियों से अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इनकी आपराधिकता को वंशानुगत माना जाता है – एक ऐसी अवधारणा जो सीधे तौर पर भारत की जाति व्यवस्था पर आधारित है जिसमें व्यवसाय को जन्म से जोड़कर देखा जाता है। इसलिए औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपराधी घोषित किए जाने के कारण यह सोच जाति की संस्था द्वारा पोषित होती आ रही है। आज भी यथास्थिति और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जातिवाद को ही उपयोग में लाया जाता है। 

जब भारत सरकार ने आपराधिक जनजाति अधिनियम को निरस्त कर दिया, तब कई राज्यों ने बडी तेज़ी से एक नई व्यवस्था बना दी जिसे आदतन अपराधी शासन कहा गया। कई अन्य कानूनों के साथ मिलकर यह व्यवस्था विमुक्त समुदायों के जीवन और आजीविका का अपराधीकरण जारी रखती है।

जंगलों में रहने वाली जनजातियों और आदिवासी समुदायों पर वन्यजीव संरक्षण कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जाता है।

उदाहरण के लिए, जिन समुदायों की संस्कृति में शराब के सेवन की परम्परा है। उन्हें शराब के आयात, निर्यात, बिक्री और ख़रीद को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए उत्पाद शुल्क क़ानूनों (एक्साइज़ लॉ) के तहत लगातार और गलत तरीके से अपराधीकरण का शिकार होना पड़ता है। हमने यह भी पाया कि जंगल में रहने वाले और आदिवासी समुदायों पर सूखी लकड़ी या मशरूम जैसी वन उपज इकट्ठा करने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है जबकि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत ऐसी सभी गतिविधियां उनके अधिकारों के अंतर्गत आती हैं। 

इन समुदायों के असंगत अपराधीकरण के पीछे दिया जा सकने वाला तर्क जाति व्यवस्था है और पुलिस इस जातिवादी औपनिवेशिक विरासत को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पुलिस का काम विवेक के इर्द-गिर्द केंद्रित होता है, जो पुलिस अधिकारियों को यह स्वतंत्रता देता है कि वे यह तय कर सकें कि किसे संदिग्ध माना जाए या कौन सार्वजनिक सुरक्षा के लिए ख़तरा बन सकता है। किसी को भी आदतन अपराधी की श्रेणी में शामिल कर देना और उस श्रेणी को परिभाषित करना, दोनों ही अधिकार पुलिस के पास होते हैं। लेकिन, जिन अंतर्निहित धारणाओं के आधार पर पुलिस ये आकलन करती है, उन पर कभी सवाल नहीं उठाया जाता है।

पुलिस बैरिकेड_विमुक्त जनजातियां पुलिस
रोजाना की पुलिस कार्रवाई में छोटे-मोटे अपराधों को लक्ष्य बनाया जाता है और इनसे उत्पीड़ित जाति समुदायों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपराधिक करार दे दिया जाता है। | चित्र साभार: ट्रैविस वाइज़ / सीसी बीवाय

क़ैद बनी जीवनशैली का हिस्सा

अपराधीकरण पर की जाने वाली चर्चाएं कारावास पर बातचीत तक ही सीमित होती हैं। इससे यह गलतफहमी पैदा होती है कि किसी व्यक्ति को अपराधी ठहराए जाने से होने वाला एकमात्र नुकसान उसका जेल जाना है – यह एक ऐसा नजरिया है जो विमुक्त समुदायों के जीवन की वास्तविकताओं से बहुत दूर है।

सच तो यह है कि उनके लिए, कारावास को जबरन उनके जीवन का ऐसा हिस्सा बना दिया गया है जिसका विस्तार जेल की चारदीवारी से आगे भी है। पारधी समुदाय की तरह, अन्य विमुक्त समुदायों के सदस्य भी कड़ी निगरानी में अपना जीवन बिताते हैं। कइयों को स्थानीय बाज़ारों में जाने से भी डर लगता है या फिर एक निश्चित समय के बाद वे घर में ही रहते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि उन पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है और उन्हें आशंका होती है कि पुलिस किसी भी बात के लिए उन्हें सड़क से ही उठा सकती है। इसलिए वे एक आत्म-नियंत्रित और अनुशासित जीवन जीते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनके कामों की जांच की जाएगी। आपराधिक अस्तित्व एक अर्थ यह भी है कि इन समुदायों के बच्चे बदनामी और तिरस्कार के कारण बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं। जेल में होने जैसा जीवन जीना ही इनके पास उपलब्ध विकल्प है जो इन समुदायों के हर पहलू पर अपना असर छोड़ता है।

वास्तविक अनुभवों का सामने लाने के लिए जागरुकता लाना

जब मैंने अधिसूचित जनजातियों से आने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक वकील के तौर पर  काम करना शुरू किया तो सबसे पहले आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में गहराई से जानना शुरू किया। मैं जल्दी ही समझ गई थी कि उत्पीड़न से जुड़ी व्यक्तिगत घटनाओं पर प्रतिक्रिया देना उपयोगी तो है लेकिन पर्याप्त नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों को उनकी सामुदायिक पहचान के कारण निशाना बनाया जा रहा था।

हमारे काम में, नियमित रूप से ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं जिनमें दो लोग सड़क किनारे बैठ कर पत्ते खेल रहे थे तो उन्हें सार्वजनिक रूप से जुआ खेलने के इलज़ाम में उठा लिया गया तो किसी को बिना लाइसेंस के चाकू रखने के कारण आर्म्स एक्ट 1959 के तहत हिरासत में ले लिया गया। ये सभी छोटे-मोटे अपराध हैं, फिर भी रोजाना की पुलिस कार्रवाई में ऐसी गिरफ्तारियां बहुतायत में देखी जाती हैं। आदतन अपराधी शासन  – जो न्यायिक निरीक्षण के अधीन नहीं आता है – से पुलिस की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। जिन लोगों को इस शासन के तहत अपराधी बनाया गया था, वे बहुत लंबे समय से इस वास्तविकता को जी रहे हैं। हालांकि जिस प्रणालीगत भेदभाव का उन्हें सामना करना पड़ता है, उसकी पुष्टि करने के लिए कोई ऐस साक्ष्य नहीं होता जिसे वे दिखा सकें। 

मैंने 2020 में कुछ लोगों के साथ सीपीए प्रोजेक्ट, एक आपराधिक न्याय अनुसंधान और अभियोग कार्यक्रम की स्थापना की। हमारा लक्ष्य आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा हाशिए पर रहने वाले समुदायों को अनुचित तरीके से निशाना बनाने की इस प्रक्रिया को समाप्त करना है। इस काम के लिए हम कई तरीक़ों का इस्तेमाल करते हैं। उनमें से एक, व्यवस्थित रूप से एफआईआर और गिरफ्तारी रिकॉर्ड का अध्ययन करना है ताकि हम पुलिस द्वारा अपनी ताकत इस्तेमाल करने के जातिवादी तरीक़ों को सामने ला सकें और उन्हें चुनौती दे सकें।

मध्य प्रदेश में किए गए शोध अध्ययनों से हमें कुछ तथ्य पता चलते हैं: 

हमारे द्वारा तैयार किया गया आंकड़ा रोजमर्रा की पुलिसिंग के पैटर्न को सामने लाता है और जो हमें बताता है कि किसे अपराधी बनाया जा रहा है और किस अपराध के लिए। यह आंकड़ा उस लोकप्रिय धारणा को चुनौती देता है कि पुलिस यौन हिंसा जैसे जघन्य अपराध करने वाले अपराधियों के पीछे पड़कर अपराध को नियंत्रित करती है। हमारा शोध सामने लाता है कि प्रतिदिन की पुलिसिंग छोटे-मोटे अपराधों को कुछ ज्यादा ही निशाना बनाती है और इस प्रकार उत्पीड़ित जाति समुदायों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपराधीकृत कर देती है। इसका उनके समग्र उत्पीड़न में भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।

प्राप्त किये गए आंकड़े और साक्ष्य कानूनी समुदाय को विभिन्न कानूनों के तहत रणनीतिक मुकदमेबाजी करने में सक्षम बनाते हैं।

हम अपने शोध का उपयोग उत्पीड़ित जातियों के अपराधीकरण को रोकने के लिए करते हैं। प्राप्त किये गए आंकड़े और साक्ष्य कानूनी समुदाय को विभिन्न कानूनों के तहत रणनीतिक मुकदमेबाजी करने में सक्षम बनाते हैं। इसमें कानून द्वारा मान्यता प्राप्त कुछ अधिकारों की मान्यता की वकालत करना शामिल है, जैसे वन अधिकार जो वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 द्वारा अपराधीकृत हैं। इसके अतिरिक्त, इसमें कुछ छोटे-मोटे अपराधों को अपराध-मुक्त करने की वकालत करना भी शामिल है। हम आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर उनके वन अधिकारों के उल्लंघन पर सवाल उठाने के लिए इस डेटा तक पहुंचने और उसका लाभ उठाने में मदद करने के लिए भी काम करते हैं।

उत्पीड़ित समाज की आवाज़ को केंद्र में लाना

ज्ञान और समझ बनाने को लेकर एक काली-सफ़ेद सी बात चलती है जिसमें कुछ खास समुदायों को हमेशा ही शोध का विषय बना लिया जाता है। वहीं, कुछ अन्य समुदाय उनके जीवन का अध्ययन और विश्लेषण करते हैं। और, उनकी कहानी बाहर लाते हैं। 

सीपीए प्रोजेक्ट की संकल्पना एक ऐसे प्रयास के रूप में की गई है जो विभिन्न उत्पीड़ित जाति समुदायों के लोगों द्वारा बनाया और चलाया जाता है। उनकी भागीदारी अनुसंधान को विकसित करने और तैयार करने के साथ-साथ यह तय करने में भी होती है कि इन शोध निष्कर्षों का उपयोग कैसे किया जाना चाहिए। हम उन लोगों के साथ काम करते हैं जिन्हें अपराधी घोषित कर दिया गया है। इसके अलावा, हम समुदाय के कार्यकर्ताओं और वकीलों के साथ मिलकर यह निर्धारित करते हैं कि वे हासिल किए गए आंकड़ों का क्या इस्तेमाल करना चाहते हैं।

विभिन्न स्त्रोतों से ली गई जानकारी उन बातों की पुष्टि करती है जो उत्पीड़ित समुदायों के लोग पहले से जानते हैं। लेकिन यह उनकी आवाज़ों को केंद्रित करने का माध्यम भी बनती है और साथ ही, पीढ़ियों से चले आ रहे अपराधीकरण से लड़ने का एक हथियार भी। जातिवादी यथास्थिति को चुनौती देने वाले आंकड़े और सबूत तैयार करना और उनका दस्तावेजीकरण, और कुछ नहीं बल्कि अपनी कहानियों पर अपना अधिकार हासिल करना और उन्हें लोगों के सामने लाने की कोशिश है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

असम में फ़्रिस्बी का खेल जातीय संघर्ष को रोक रहा है

अपने हाथ में फ़्रिस्बी को पकड़े हुए लोगों का एक समूह_फ़्रिस्बी का खेल 
अल्टीमेट फ़्रिस्बी उन विचारों को लेकर आया जिनकी संघर्ष-ग्रस्त समुदायों को तत्काल आवश्यकता थी। | चित्र साभार: द एंट

असम में बोडो और आदिवासी समुदाय कई दशकों से एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। बोडो गांव भूटान की सीमा से लगे हैं। आदिवासियों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा दिहाड़ी मज़दूर है और उन्हें काम के लिए बोडो गांवों में जाना होता है जिसके लिए सीमा पार करनी पड़ती है। वहीं, बोडो जनजाति के लोग अपने खेतों में उगने वाली फसलों को बेचकर अपना गुजर-बसर करते हैं इसलिए उन्हें बाजार की ज़रूरत होती है। वहां पहुंचने के लिए उन्हें आदिवासी गांवों से गुजरना पड़ता है।

जब भी इन दोनों समुदायों के बीच हिंसा की कोई घटना होती है तब इनकी जीविका कमाने से जुड़ी सभी गतिविधियां ठप्प पड़ जाती हैं। 2014 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था जब चिरांग जिले जैसे कई इलाकों में समुदायों के बीच जातीय संघर्ष हुए थे। इस संघर्ष में कई लोगों की जान चली गई थी। तत्काल प्रभाव से शांति स्थापित करने की जरूरत थी जिसके लिए समुदाय के लोगों को आमने-सामने बैठकर बात करनी थी। यही वह समय था जब खेल-कूद जुड़ाव के सूत्र के रूप में उभर कर आया।

इलाके के कई समुदायों में हर तरह के खेल की खासी लोकप्रियता थी। इसलिए यहां काम करने वाले कई स्थानीय और समाजसेवी संगठनों ने सोचा कि इसका फायदा उठाना चाहिए। बोडो और आदिवासियों को एक ही छत के नीचे लाने के लिए इन्होंने कुश्ती जैसे स्वदेशी खेलों का इस्तेमाल किया क्योंकि दोनों ही समुदायों के लोग पहले से ही इसे खेलना जानते थे। लेकिन एक खेल अल्टीमेट फ्रिस्बी भी था – एक ऐसा खेल जिसे स्थानीय लोगों ने कभी नहीं खेला था – जो बहुत जल्दी बहुत अधिक लोकप्रिय हो गया।

यह विदेश से आया एक खेल है। 2015 में मैंने अपने एक दोस्त से सुना कि अनीष मुखर्जी जो एक गांधी फ़ेलो हैं, इस खेल में पारंगत हैं। साथ ही, यह भी पता चला कि वे असम में समुदायों के साथ काम करना चाहते हैं। हमने उनसे सम्पर्क किया और इस पर चर्चा की कि क्या और कैसे यह खेल समुदायों के बीच के तनाव को ख़त्म करने में मददगार साबित हो सकता है?

चिरांग के लोगों के लिए अल्टीमेट फ़्रिस्बी एक एकदम नया खेल था। यह अपने साथ ऐसे मौके लेकर आया था जिनकी संघर्ष-ग्रस्त समुदायों को तत्काल आवश्यकता थी।उदाहरण के लिए, इसे लड़के एवं लड़कियों को एक साथ मिलकर खेलना था और उम्र की सीमा भी नहीं थी। जल्दी ही मां और बेटे, भाई और बहन एक साथ फ़्रिस्बी खेल रहे थे। इस खेल में कोई रेफ़री नहीं होता है इसलिए टीम के सदस्यों को सामूहिक रूप से मध्यस्थता करनी पड़ती थी और खेल के दौरान उभरे मुद्दों को हल करना होता था।

जातीय शत्रुता वाले क्षेत्र में यह एक महत्वपूर्ण अभ्यास था। इस खेल में एक ‘स्पिरिट सर्कल’ की अवधारणा भी है – हर बार खेल शुरू करने से पहले, खिलाड़ी रणनीति बनाने के लिए एक साथ मिलते हैं जिससे उनके बीच संवाद को बढ़ावा मिलता है। यह फुटबॉल जैसे किसी खेल के साथ सम्भव नहीं था जिनके बारे में समुदाय की अपनी अवधारणा है। फ़्रिस्बी लिंग, धर्म और भाषाई पहचान के मानदंडों से अछूता था और फैसिलिटेटर खेल के नियमों में सुधार कर सकते थे।

उदाहरण के लिए हमने एक नियम बनाया है जिसके अनुसार प्रत्येक टीम को तीन मातृभाषाओं और तीन धर्मों का प्रतिनिधित्व करना होता है। इससे खेलने वालों को जो कभी अपने गांव से बाहर नहीं गए थे, उन्हें अपनी टीम में लोगों को शामिल करने के लिए उनके पास जाने और उन्हें समझाने पर मजबूर होना पड़ा।

जेनिफर लियांग असम में ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था द एंट की सह-संस्थापक हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें किस तरह कुश्ती ने असम में युवा बोडो लोगों के बीच शराब की लत से लड़ने में मदद की।

अधिक करें: जेनिफ़र लियांग के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

पानी बचाना है तो समुदाय को उसका मालिक बनाना होगा 

पूर्वी एवं मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों- जहां प्रदान पिछले 40 सालों से काम कर रहा है- में छोटे एवं पिछड़े किसानों का एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो अपने खेतों में वर्षा-आधारित खेती करते हैं और जंगलों पर आश्रित हैं। इन इलाकों में भारी मात्रा में वर्षा होती है लेकिन पहाड़ी इलाक़ा होने कारण बारिश का सारा पानी बह कर नीचे चला जाता है। नतीजतन, यहां के लोगों को गंभीर जलसंकट से जूझना पड़ता है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड की राज्य सरकारों द्वारा वाटरशेड विकास के प्रयासों में कामचलाऊ निवेश होने के कारण इनका प्रभाव सीमित है। ज़्यादातर मामलों में योजना और कार्यान्वयन, दोनों ही स्तरों पर जनजातीय समुदायों की उपस्थिति नदारद पाई गई है। 

योजनाएं बनाने और फ़ैसले लेने की प्रक्रियाओं में समुदायों की भागीदारी सीमित होने के कारण, लोग विकास पहलों को अपने जीवन और आजीविका के अवसरों के साथ जोड़कर नहीं देख पाते हैं। एक जल संरक्षण प्रणाली तभी सफल और टिकाऊ हो सकती है, जब यह समुदाय के उस नजरिए के मुताबिक बनाई गई हो जिसमें लोग अपने लिए बेहतर जीवन और आजीविका की संभावना देखते हों। इसे लोगों और पशु-पक्षियों, दोनों की जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाना चाहिए। प्रदान में काम करते हुए यही हमारे लिए एक महत्वपूर्ण सीख रही है।

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, और जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी समस्याओं का समाधान, इलाके में व्यक्तिगत स्तर पर परिवारों और किसानों से सूक्ष्म स्तर पर जुड़कर निकाला जा सकता है। प्रदान में, हम ऐसा मानते हैं कि लोग हमेशा ही अपनी ज़रूरतों के अनुसार बदलाव लाने में सक्षम होते हैं। सामुदायिक भागीदारी से यह तय होता है कि समुदाय की जरूरतों और ज्ञान का भी तालमेल बड़ी विकास पहलों के साथ हो सके। बॉटम-अप का यह दृष्टिकोण कोई नया विचार नहीं है। समाजसेवी संस्थाएं कई दशकों से, भागीदारी और समुदाय-आधारित योजना निर्माण और कार्यान्वयन को साथ लाने का काम करती रही हैं।

हम महिलाओं की जल्दी से सीखने और उसके मुताबिक ढलने की इच्छा देखकर हैरान रह गए।

अपने शुरुआती दिनों में, हमने माइक्रोफ़ाइनैन्स के लिए महिलाओं के स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) स्थापित किए थे। लेकिन जब हमने उन्हें बचत और लेनदारी से परे जाकर योजना निर्माण की प्रक्रियाओं में शामिल करना शुरू किया तब हम उनकी जल्दी सीखने और अनुकूल होने की ललक एवं समुदाय के प्रति उनकी दृढ़ प्रतिबद्धता को देखकर हैरान रह गए। हमने उनके भीतर वित्तीय, तकनीकी, सामाजिक और यहां तक कि राजनीतिक सम्भावनाएं, ज्ञान और उद्यमशीलता पाई।

हम जल्द ही इस बात को समझ गए थे कि विकास कार्यक्रमों के योजना निर्माण की प्रक्रिया पर दोबारा सोचने का समय आ गया है। साथ ही, इन प्रक्रियाओं में न केवल महिलाओं को शामिल करने की आवश्यकता है बल्कि हमें अपनी योजनाओं और उनके कार्यान्वयन की बागडोर भी उनके हाथों में थमा देनी चाहिए। अब महिलाओं ने कार्यक्रमों का स्वामित्व अपने हाथों में ले लिया है; कई एसएचजी की सदस्य अब स्थानीय चुनाव लड़ रही हैं और पंचायत सदस्य बन चुकी हैं। इसलिए हम इस बात से सहमत थे कि महिलाएं इस प्रक्रिया की मुख्य हितधारक हैं और उन्हें आगे आकर नेतृत्व करना चाहिए। 

सदी के शुरुआती सालों से हमने ग्रामीण क्षेत्रों में जल सुरक्षा योजनाओं में किसानों, खासतौर पर महिलाओं को संगठित करना शुरू कर दिया था। पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड में हमारा एकीकृत प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (इंटीग्रेटेड नेचुरल रिसोर्स मैनेजमेंट) मॉडल 110,000 हेक्टेयर से अधिक भूमि में फैला है और इसने 740,000 से अधिक किसानों की आय में सुधार लाने का काम किया है। यह कैसे सम्भव हो सका?

सामुदायिक भागीदारी

समुदाय जब अपनी योजनाओं पर काम करते हैं तो उन्हें प्रेरणा मिलती है। व्यक्तिगत स्तर पर परिवारों को योजना निर्माण के चरण में शामिल करने से सदस्यों के अंदर स्वामित्व का भाव पैदा होता है। इस तरह वे इसे अपनी सम्पत्ति मानते हैं और जुड़ाव महसूस करते हैं। दरअसल, हमें एक ऐसे तरीक़े की ज़रूरत है जिससे समुदायों से जुड़ी बॉटम-अप योजनाओं को अच्छी तरह से आपस में जोड़ा जाए ताकि इसे विभिन्न सरकारी विभागों से फंड भी मिल सके। इस प्रकार, सरकार लोगों द्वारा बनाई गई योजनाओं पर काम करती है न कि लोग सरकार द्वारा बनाई गई योजनाओं पर। जब समुदाय के लोगों को प्रक्रिया के शुरुआती चरण में ही जोड़ लिया जाता है तब वे इसके निर्माण और देखभाल में अपना समय, अपनी ऊर्जा और यहां तक कि वित्तीय और ग़ैर-वित्तीय संसाधनों का भी निवेश करते हैं। 

किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले सामुदायिक संसाधन व्यक्ति (कम्यूनिटी रिसोर्स पर्सन) समुदायों को उनकी जरूरतों और चुनौतियों को समझने के लिए संगठित करते हैं। हम महिलाओं के एसएचजी, ग्राम-स्तरीय संगठनों और क्लस्टर-स्तरीय संघों के साथ काम करते हैं। सदस्य अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों पर विचार करने के लिए इकट्ठा होते हैं और अपने सामने उपस्थित विकल्पों पर सोच-विचार करते हैं। वे गांव के बुनियादी ढांचे या स्कूलों और अपने बच्चों के लिए सुविधाओं की आवश्यकता पर चर्चा करते हैं। अक्सर ही ये बातचीत आजीविका के मुद्दे पर आ जाती है और आजीविका से जुड़ी सारी बातचीत और चर्चाओं के केंद्र में पानी होता है। 

खेती-किसानी, जंगल के संसाधनों या मवेशी पालन से अपनी आजीविका चलाने वाले लोग बातचीत के अंत में पानी की उपलब्धता से जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा करने लग जाते हैं। इस बातचीत के अगले चरण में हम इस पर चर्चा करते हैं कि खाद्य एवं जल सुरक्षा को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके आधार पर, टोले और गांव जल संरक्षण के लिए अपनी योजनाएं बनाते हैं जो उनके संसाधनों – भूमि, जल, पशुधन और मानव संसाधन – के साथ-साथ उनकी ज़रूरतों, प्राथमिकताओं और आकांक्षाओं से जुड़ी होती हैं। हम यह सुनिश्चित करते हैं कि नियंत्रण, पहल और प्रभाव की बागडोर समुदाय के हाथों में ही रहे। लेकिन हम विचारों को योजनाओं में बदलने के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करते हैं और साथ ही उनकी व्यवहार्यता का पेशेवर मूल्यांकन भी करते हैं।

खेत में कुदाल लेकर एक क़तार में खड़ी कुछ महिला किसान-समुदाय जल संरक्षण
जब समुदायों की निर्णय लेने में सीमित भागीदारी होती है, तो वे विकास पहलों को अपने जीवन से जोड़ने में असमर्थ होते हैं। | चित्र साभार: सीआईएमएमवायटी / सीसी बीवाय

सार्वजनिक धन का उपयोग

क्षेत्रों को सूखे, वनों की कटाई और मिट्टी के क्षरण से बचाव को सुनिश्चित करने वाले संसाधनों के निर्माण के लिए 2005 से महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत सार्वजनिक धन को उपलब्ध कर दिया गया है। दैनिक रोज़गार पाने की इच्छा रखने वाले लोग मनरेगा फंड का उपयोग जल संग्रहण करने वाले स्थानों जैसे कि तालाब, खाइयों, गली प्लग, सीपेज टैंकों और वर्षा जल संचयन संरचनाओं के निर्माण के लिए कर सकते हैं।

इन योजनाओं को लागू करने में, समुदाय के सदस्य अपनी खुद की भूमि और जल संपत्ति के निर्माण के दौरान मज़दूरी कमाते हैं।

ग्राम पंचायत, योजना इकाई होती है। जब स्वयं सहायता समूह पंचायत के साथ मिलकार काम करते हैं तो स्थानीय रूप से उपयोगी व्यापक उपचार योजनाओं को विकसित करना सम्भव हो जाता है। साथ ही इनमें लोगों की ज़रूरतों को भी ध्यान में रखा जाता है। उसके बाद पंचायत इस बजट को तीन से चार साल की योजनाओं में आवंटित करती है। इन योजनाओं को लागू करने में, समुदाय के सदस्य अपनी खुद की भूमि और जल संपत्ति के निर्माण के दौरान मज़दूरी कमाते हैं। यह बदले में खेती को टिकाऊ बनाता है। इसके बाद खेती में निवेश से बेहतर परिणाम के लिए प्रदान उत्पादकता पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।

सबको साथ लाने का नुस्खा

प्रदान यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि ग्राम पंचायत योजना निर्माण प्रक्रिया में एसएचजी को जोड़ा जाए। पंचायती राज संस्थाओं, स्वयं सहायता समूहों और स्थानीय प्रशासन के बीच यह सहयोग परिवर्तन की प्रक्रिया की रीढ़ है। एक बार जब किसी योजना को लागू करने का यह मॉडल सफल हो जाता है- इस मामले में मनरेगा के साथ- तब यह अन्य सरकारी विभागों, दानकर्ताओं और संगठनों के भाग लेने के लिए मार्ग बनता है। इसी टेम्पलेट का उपयोग रुचि लेने वाले अन्य हितधारकों से प्राप्त संसाधनों के मिलान के लिए भी किया जा सकता है। लगाए गए संसाधनों की मात्रा के आधार पर, यह विस्तार के लिए एक ढांचा बन जाता है जहां नागरिक समाज संगठन और सरकार पूरक भूमिका निभाते हैं। वित्तीय संस्थान उसी ढांचे के भीतर काम करने के लिए पूंजी और बाजार से जुड़े अन्य समर्थन भी प्रदान कर सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में कई हस्तक्षेप एकीकृत हो जाते हैं, और इसका प्रभाव कई गुना अधिक हो जाता है, जिससे संपूर्ण मूल्य श्रृंखला बन जाती है। वास्तव में, कई जगहों पर यह अब कृषि से आगे बढ़कर किसान उत्पादक संगठनों तक पहुंच गया है। प्रदान प्रोटोटाइप बनाता है लेकिन, समय के साथ, यह इस कारगर व्यवस्था में शामिल कई हितधारकों में से एक बन जाता है।

‘लोगों के झुकावके लिए प्रशिक्षण

स्थानीय समुदायों को उनके संसाधनों का प्रबंधन करने की क्षमता के निर्माण के अपने इतने सालों के अनुभव से हमने यह सीखा है कि कोई भी मॉडल “सिल्वर बुलेट” नहीं है; और न ही कोई ऐसा ढांचा हो सकता है जो सभी दृष्टिकोणों के लिए लिए अनुकूल हो। समाधानों को स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक तैयार करने और लोगों को अपने संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। 

यही कारण है कि हम सर्वश्रेष्ठ तकनीकी और प्रबंधकीय कॉलेजों के छात्रों की भर्ती करते हैं और उन्हें एक गहन विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम का हिस्सा बनाते हैं। वे उन समुदायों के लोगों के बीच एक साल का समय बिताते हैं जिनके साथ भविष्य में उन्हें काम करना होता है। वे अपना यह एक साल सीखने और उससे अधिक महत्वपूर्ण रूप से पहले से सीखी गई बातों को भूलने में लगाते हैं। ऐसा सम्भव है कि एक इंजीनियर के भीतर इंजीनियरिंग को लेकर कोई झुकाव हो और एक कृषक में खेती के प्रति।  हम चाहते हैं कि वे सभी ‘लोगों’ को लेकर झुकाव बनाएं, ख़ासकर उन लोगों के लिए जिनकी आवाज सुनने की संभावना सबसे कम है। 

वास्तविक विकास के लिए, हमें एक समाज के रूप में उन लोगों को सुनने की जरूरत है जिन्हें कभी नहीं सुना जाता है। हमें क़तार में खड़े सबसे अंतिम व्यक्ति को पहला बनाने का भरोसा जताना होगा। सामुदायिक दृष्टिकोण या बॉटम-अप दृष्टिकोण का काम बिल्कुल यही है – सबसे कमजोर और बेआवाज़ लोगों को अपनी बात रखने के लिए जगह या मंच प्रदान करना।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

महिलाएं जलवायु परिवर्तन के काम को रफ्तार दे सकती हैं

जलवायु संकट, हमारे समय की सबसे बड़ी आपदाओं में से एक है लेकिन यह एक लैंगिक समीकरणों से परे रहने वाला कोई मुद्दा नहीं है। अपनी आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक निर्भरता, सार्वजनिक निर्णय लेने में भागीदारी की कमी और जमीन तक सीमित पहुंच समेत कई कारणों से महिलाएं जलवायु परिवर्तन से ग़ैर-अनुपातिक रूप से प्रभावित होती हैं। हालांकि इस संकट से निपटने के लिए डिज़ाइन किए गए समाधानों में अक्सर ही महिलाओं को बाहर ही रखा जाता है। 

महिलाओं पर जलवायु संकट का प्रभाव भिन्न तरीक़े से पड़ता है

दुनियाभर में, जलवायु संकट के कारण विस्थापित हुए लोगों में 80 फ़ीसद महिलाएं हैं। डबल्यूएचओ के अध्ययन के अनुसार मौसम से जुड़ी आपदाओं के दौरान महिलाओं की मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। ग्रामीण एवं शहरी, दोनों ही क्षेत्रों की महिलाओं को जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों से अलग-अलग तरीक़ों से गुजरना पड़ता है। 

उदाहरण के लिए, घरों में पेयजल एवं अन्य कामों में इस्तेमाल के लिए पानी के इंतज़ाम की जिम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं के ही कंधे पर होती है। ग्रामीण महिलाओं को ज्ञान, कौशल एवं साधनों तक पहुंचने में उनकी मदद करने वाली समाजसेवी संस्था बज़ वीमेन की संस्थापक उथरा नारायणन बताती हैं कि घटते भूजल संसाधन महिलाओं के लिए मानसिक तनाव का कारण बन गए हैं। वे कहती हैं कि “महिलाएं लगातार इस बात को लेकर चिंतित रहती हैं कि पानी कहां से लाएं। साथ ही, उन्हें परिवार तथा खेती के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पानी के इंतज़ाम पर होने वाले खर्च को लेकर भी फ़िक्रमंद रहती है।” उन्होंने बताया कि देश के कई हिस्सों में अत्यधिक और अप्रत्याशित रूप से होने वाली बारिश के कारण पिछले दो वर्षों में फसलों को होने वाले नुक़सान और उसके चलते उन पर पड़ने वाले कर्ज से भी उनके तनाव का स्तर बढ़ा ही है। 

शहरी क्षेत्रों में महिलाओं को अत्यधिक गर्मी और जलभराव के कारण समान मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है। 

शहरी क्षेत्रों में महिलाओं को अत्यधिक गर्मी और जलभराव के कारण समान मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है, जो कि शहरों में जलवायु परिवर्तन के सबसे स्पष्ट प्रभावों में से एक है। मानसून के दौरान, भीड़भाड़ वाले शहरी क्षेत्रों में -विशेष रूप से झुग्गियों में – अक्सर ही बाढ़ आ जाती है। उचित बुनियादी ढांचा न होने के चलते इन परिस्थितियों में शौचालय अनुपयोगी हो जाते हैं। ऐसे में जहां पुरुषों के पास नित्यकर्म के लिए बाहर जाने की सुविधा उपलब्ध होती है, वहीं महिलाओं के लिए यह अक्सर ही दूभर हो जाता है।

इसके अतिरिक्त, बाढ़ से डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया जैसी कई तरह की बीमारियां फैलती है। चूंकि आमतौर पर परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल करने की जिम्मेदारी महिलाओं की होती है इसलिए किसी भी सदस्य के बीमार होने पर महिलाओं पर मानसिक और शारीरिक दोनों ही प्रकार का बोझ बढ़ जाता है। लिंग और शहरी विकास के अंतर्संबंध पर काम करने वाली समाजसेवी संस्था महिला हाउसिंग ट्रस्ट (एमएचटी) की कार्यकारी निदेशक बीजल ब्रह्मभट्ट बताती हैं कि “बाढ़ के कारण होने वाली गंदगी की सफ़ाई और नुक़सान की भरपाई दोनों ही का ज़िम्मा महिलाओं का होता है। इसके अलावा परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल का बोझ बढ़ने के कारण उन्हें आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने के लिए कम समय मिलता है। नतीजतन इससे उनकी आमदनी प्रभावित होती है। 

जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं को ऐसे संज्ञानात्मक बोझ का अनुभव करना पड़ता है जिनसे आमतौर पर पुरुष मुक्त होते हैं।

शहरों में घरों का निर्माण वेंटीलेशन को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता है। हवादार नहीं होने के कारण इन घरों के अंदर गर्मी बहुत अधिक होती है और यह महिलाओं को विशिष्ट रूप से प्रभावित करती है। बीजल विस्तार से बताती हैं कि अनौपचारिक क्षेत्रों की महिलाएं अपने घरों का इस्तेमाल आर्थिक गतिविधियों के लिए करती हैं। नतीजतन, बहुत गरमी होना उनके स्वास्थ्य को ख़राब करता है और उनकी उत्पादकता में लगातार कमी आती है। बीजल आगे कहती हैं कि “इन प्रभावों को मापना मुश्किल है और इनकी क्षतिपूर्ति भी नहीं की जा सकती है। लेकिन ये सर्वव्यापी हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं के ऊपर ऐसे कई अदृश्य बोझ पड़ते हैं जिनसे आमतौर पर पुरुषवर्ग अछूता रहता है।”

बीजल का कहना है कि इस तरह के बढ़ते बोझ के बावजूद भारत के शहरी इलाक़ों में निम्न आय वर्ग की महिलाएं जलवायु संकट पर ध्यान नहीं देती हैं क्योंकि उनका पूरा ध्यान जीवनयापन पर होता है। वे बताती हैं कि “ऐसी महिलाओं के लिए हर दिन एक संघर्ष है। वे भूकम्प या बाढ़ जैसी आपदाओं के प्रभावों को समझती हैं लेकिन जब बात अधिक तापमान या जल से जुड़ी बीमारियों की होती है तब वे इन पर बहुत अधिक ध्यान नहीं देती हैं।” बीजल आगे कहती हैं कि संकट का यह विचार उनके लिए दूर की कौड़ी जैसा है और शहरी क्षेत्रों की मध्य और उच्च वर्ग की महिलाओं की भी सोच ऐसी ही है। उन्होंने बताया कि “हम अपना बहुत अधिक समय महिलाओं को यह समझाने में लगाते हैं कि समस्या पहले से ही मौजूद है और यह और भी बदतर होने वाली है। लेकिन हमें लोगों को इसकी गंभीरता समझाने के लिए अधिक ऊर्जा और समय निवेश करने की आवश्यकता होगी।”

हालांकि ग्रामीण इलाक़ों की महिलाएं अपने जीवन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को अपेक्षाकृत जल्दी समझ जाती हैं। उथरा कहती हैं कि शुरुआत में उनकी टीम गरीब ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करने को लेकर सशंकित थी और उन्हें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को लेकर उनकी समझ पर शक भी था। लेकिन उन महिलाओं ने उन्हें ग़लत साबित कर दिया। चूंकि उन्हें प्रति दिन इन सबसे गुज़रना पड़ता है इसलिए वे इन्हें लेकर उत्सुक थीं और तेज़ी से सीख रही थीं। उन लोगों ने जलवायु परिवर्तन के महत्व को बहुत जल्दी समझ लिया और इस दिशा में काम करने लिए प्रेरित हो गईं।

वे जोड़ती हैं कि “उन्होंने तुरंत ही इस समस्या को अगली पीढ़ी पर पड़ने वाले प्रभावों के साथ जोड़ लिया और इस बात को लेकर चिंतित हो गईं कि वे अपने बच्चों के लिए विरासत में क्या छोड़कर जाएंगे। ‘अगर मुझे पानी के लिए बहुत दूर पैदल चलकर जाना पड़ता है और इसके लिए पैसे भी खर्च करने पड़ते हैं तो कल्पना कीजिए कि बड़ी होने के बाद मेरी बेटी को प्रयास और पैसे, दोनों ही स्तरों पर कितना अधिक खर्च करना पड़ेगा।’  जब हमने उनसे वित्तीय साक्षरता के बारे में बात की तो हमें इस बात का अहसास हुआ कि उन्हें लगता है कि धन कमाना अब भी उनके पति की जिम्मेदारी है। लेकिन बात जब पानी, खाने और स्वास्थ्य की आती है तब महिलाएं इन समस्याओं को अपनाती हैं और इनके समाधान के लिए खुद को ज़िम्मेदार भी मानती हैं।” 

महिलाएं संकट का सामना जल्दी कर लेती हैं

उथरा कहती हैं कि समस्या की भयावहता को समझने के बाद, ग्रामीण महिलाएं इस बदलाव के अनुकूल उपाय विकसित कर रही हैं। 

जल का पुनर्चक्रण एक ऐसी ही शुरुआत है। उथरा का कहना है कि अपनी रसोई से घर के पिछले हिस्से को एक चैनल के माध्यम से जोड़कर महिलाओं ने रसोई से निकलने वाले अपशिष्ट जल का प्रयोग कर अपने मवेशियों के लिए चारा उगाना शुरू कर दिया। उन्होंने खेती के पुराने तरीक़ों की ओर लौटना शुरू कर दिया है, कीटनाशकों का कम उपयोग करने लगी हैं और मिट्टी के पोषक तत्वों को बरकरार रखने के लिए बदल-बदल कर फसलों को उगाना शुरू कर दिया है।

अपने हाथ में सोलर पैनल लेकर खड़ी चार महिलाएं_महिला जलवायु परिवर्तन
हमें केवल महिलाओं को जलवायु परिवर्तन के शिकार के रूप में देखना बंद करना होगा। | चित्र साभार: डीएफ़आईडी / सीसी बीवाय

बीजल बताती हैं कि महिलाओं को संकट से निपटने के लिए सरल और अधिक किफायती साधन तलाशने पर मजबूर होना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करने वाली एयर कंडीशनर जैसी तकनीकें गरीब वर्ग के लोगों को को ध्यान में रखकर नहीं बनाई गई हैं।

उदाहरण के लिए, बाढ़ और जलभराव से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए महिलाएं अपने घरों के सामने एक छोटी दीवार बनाती हैं – इससे पानी अंदर आने से रुक जाता है। वे आगे जोड़ती हैं कि “यदि उनके पैसा धन है और वे ऋण ले सकती हैं तो वे अपने घर की प्लिन्थ को उंचा कर लेती हैं ताकि इसकी उंचाई सड़क की उंचाई से अधिक हो जाए। उसी प्रकार, गर्मियों में घरों को ठंडा रखने के लिए वे अपनी छतों पर चूने की एक परत चढ़ाती हैं।”

बीजल यह भी बताती हैं कि महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से अपनाए गए बदलाव समाधानों को यदि बड़े पैमाने पर लागू किया जाए तो इससे बड़ी राहत मिल सकती है। उनका कहना है कि “अधिकांश मामलों में, हम महिलाओं को व्यक्तिगत और घरेलू स्तर पर जो करते देखते हैं, वह अनुकूलन है – उदाहरण के लिए, गर्मी की लहरों से निपटने में मदद के लिए घर की छतों को ठंडा रखना। लेकिन यदि इसे शहर या राज्य के स्तर पर अपनाया जाए तो यही प्रयास राहत कार्य का रूप ले सकती है। क्योंकि शहर भर में ठंडी छतें एयर कंडीशनिंग की खपत को कम करेंगी, जिसके परिणामस्वरूप कार्बन उत्सर्जन कम हो सकता है।”

हालांकि, आम धारणा यह है कि महिलाएं ज़्यादातर तुक्का लगा रही हैं और अनुकूलन पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही हैं क्योंकि जलवायु संकट उन्हें और उनके परिवार को प्रभावित कर रहा है। उन रणनीतियों और मॉडलों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है जिनका वे हिस्सा हैं, जो जलवायु नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं। 

महिलाओं को सुधार संबंधी मुख्यधारा के प्रयासों का हिस्सा बनना चाहिए

इंडस्ट्री की साझेदारी एवं संचार प्रमुख, अकीला लीन का मानना है कि जलवायु से जुड़ी सकारात्मक कहानियों में महिलाएं मूल्यवान व्यवस्थापक हो सकती हैं, विशेष रूप से तब जब इसे सामूहिक बनाया जाए। इंडस्ट्री एक समाजसेवी संस्था है जो महिलाओं को स्थायी आजीविका निर्माण में मदद के लिए समता, जलवायु और लिंग (ईसीजी) पर काम करता है। वे बताती हैं कि कैसे प्रकृति-आधारित समाधानों पर काम करने वाली महिलाएं पहले से ही कार्बन पृथक्करण और शमन प्रयासों में योगदान दे रही हैं। “अब हमें उन्हें वैश्विक जलवायु सकारात्मक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनने के लिए तैयार करना चाहिए।” 

अकीला महाराष्ट्र में ईएसजी-अनुपालक बांस परियोजना का उदाहरण देती हैं जो वायुमंडल में सालाना 20,000 टन तक कार्बन डाइऑक्साइड को अलग करने में मदद करेगी। “बांस के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक होने के बावजूद, भारत के सभी बांस उत्पाद अभी भी आयात किए जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम एफ़एससी- प्रमाणित बांस का उत्पादन नहीं करते हैं जो निजी भूमि पर उगाए गए बांस को संदर्भित करता है।” उन्होंने आगे जोड़ते हुए कहा कि अपनी महिला किसानों को अपनी जमीन के अप्रयुक्त क्षेत्रों में बांस उगाने के लिए प्रोत्साहित करके, भारत बांस आधारित उत्पाद तैयार कर सकता है। इसलिए बांस में इंडस्ट्री का काम महिलाओं के लिए आजीविका सृजन के साथ-साथ जलवायु शमन की दोहरी भूमिका निभाता है।

महिलाएं जलवायु नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं और निभा रही हैं।

उनके अन्य महिला समूह भी हाथ से बुनी हुई टोकरियां और सियाली पत्ती प्लेट जैसे विभिन्न हरित उत्पाद बनाते हैं जो एकल-उपयोग प्लास्टिक के बदले इस्तेमाल में लिए जाते हैं। अकीला कहती हैं कि “अभी, हमारा पूरा ध्यान महिलाओं को केवल जलवायु परिवर्तन के निष्क्रिय प्रभावितों के रूप में देखने पर केंद्रित है लेकिन अब इस सोच को बदलने का समय आ गया है। वे सुधार और प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं और निभा रही है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके अंदर अपनी आमदनी बढ़ाने की और आगे बढ़ने के लिए मुख्यधारा में शामिल होने की क्षमता है।”

उथरा इस बात से सहमत दिखती हैं कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रयासों में महिलाओं की भागीदारी से न केवल कार्रवाई में सहायता मिलेगी बल्कि उनके लिए आजीविका के वैकल्पिक अवसर भी उपलब्ध होंगे। वे गांवों में पैकेज्ड फूड और घरेलू सामान जैसे एफएमसीजी उत्पादों की बढ़ती खपत की ओर इशारा करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप गांवों में नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरे में तेजी से वृद्धि हुई है।हालांकि जलवायु की समस्याओं में अपना योगदान देने वाली बड़े पैमाने पर होने वाली इस खपत आयर पलस्टिक के निपटान की ख़राब व्यवस्था महिलाओं के लिए अवसर का रूप ले सकती हैं।

बाढ़ के कारण सड़क पर हुए जलजमाव में चलती हुई एक महिला_महिला जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन के लिंग-विशिष्ट प्रभावों को हल करने वाली पहलों की पहचान करना और उन्हें अपनाना आवश्यक है। | चित्र साभार: वर्षा देशपांडे / सीसी बीवाय

उथरा के अनुसार यदि गांवों में महिलाएं ऐसी वस्तुओं का निर्माण करना शुरू कर दें जिनकी बिक्री और खपत स्थानीय स्तर पर हो सके तो इससे न केवल आमदनी होगी बल्कि यह बड़ी कंपनी द्वारा बड़े पैमाने पर निर्मित वस्तुओं के आयात से उत्पन्न कार्बन फुटप्रिट्स में भी कमी लाएगा।

बज़ वीमेन, स्थानीय उत्पादन और उपभोग के इस विचार के साथ प्रयोग कर रही है। उन्होंने भारत के शहरी इलाक़ों में टूथ पाउडर बेचने वाली दिल्ली-स्थित कंपनी, पक्षांतर से बात की और उनके तरीकों के बारे में जाना है। उथरा कहती हैं कि “उसके बाद हमने कर्नाटक के तुमकुर जिले के अरकेरे गांव में महिलाओं को स्थानीय सामग्रियों का उपयोग करके टूथ पाउडर बनाने का प्रशिक्षण दिया, उन्हें पैकेजिंग डिजाइन करने में मदद की और स्थानीय बिक्री को सक्षम बनाया। इसने मुझे यह सोचने पर प्रेरित किया कि शायद पर्याप्त स्थानीय मांग वाले अन्य उत्पाद भी हैं जिन्हें महिलाएं बना सकती हैं।” उन्होंने पाउडर और डिटर्जेंट जैसे सफाई उत्पादों पर ध्यान केंद्रित किया क्योंकि लोग किसी ब्रांड विशेष से बंधे नहीं हैं, और इन उत्पादों को खरीदने का फ़ैसला अक्सर महिलाएं लेती हैं।

बीजल का मानना है कि बड़ी मात्रा में उत्पन्न होने वाले इस कचरे से महिलाओं के लिए एक अलग तरह का अवसर पैदा होता है। वे कहती हैं कि “यदि व्यवसायिक अवसर के रूप में महिलाओं को कचरा रूपांतरण और संरक्षण के काम में शामिल किया जाए तो इससे उन्हें न केवल आमदनी होगी बल्कि वातावरण को भी फायदा पहुंचेग़ा। यदि हम यह तय करने में सक्षम हो जाएं कि शहरी वानिकी की देखभाल, विकास और रखरखाव में महिला एसएचजी को कैसे शामिल किया जाए और इसके लिए उन्हें किस प्रकार उचित मुआवज़ा दिया जाए तो शहरी वानिकी पर सरकारी कार्यक्रम भी एक अवसर हो सकता है।”

महिलाओं की पहचान जलवायु समाधानों के संचालक के रूप में करना

मौजूदा संरचनात्मक असमानताएं मौजूदा संकट से निपटने में समस्या को हल करने वाले के तौर पर  महिलाओं की भूमिका को सीमित करती हैं। हालांकि अपेक्षाकृत अधिक समावेशी जलवायु समाधान विकसित करने में इस बात को समझना एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है कि महिलाएं इसका निपटान किस प्रकार कर सकती हैं। इसके लिए निम्नलिखित कुछ उपाय अपनाए जा सकते हैं:

1. कहानी में महिलाओं को पीड़ित के बदले प्रभावशाली व्यक्ति में बदलना

बीजल और अकीला, दोनों का कहना है कि अब इस कहानी को बदलने का समय आ गया है – हमें महिलाओं को केवल जलवायु परिवर्तन का शिकार मानना ​​बंद करना चाहिए जो मूल रूप से वैश्विक उत्तर में मंचों पर होने वाली बातचीत में व्यापक रूप से शामिल है। 

महिलाओं में शमन प्रयासों का नेतृत्व करने की क्षमता है। वे पहले से ही जलवायु के बुरे प्रभावों से बचने के लिए किए जाने वाले अनुकूलनों का नेतृत्व कर रही हैं। लेकिन इससे जुड़े वैश्विक संवादों में जिस एक बात को नजरअंदाज़ किया जाता है, वह है जलवायु संकट को काफ़ी हद तक धीमा करने में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका। हम सभी को इस एक प्रश्न पर सोचने की ज़रूरत है कि क्या हम उनकी क्षमता और योग्यता को बढ़ाने का प्रयास कर सकते हैं ताकि इस काम में उनकी भूमिका सशक्त हो सके?

2. एक सहज शब्दावली का निर्माण करें

उथरा कहती हैं कि जलवायु परिवर्तन के लिए एक ऐसी शब्दावली का निर्माण कितना अधिक महत्वपूर्ण है जिसे महिलाएं अपनी रोज़मर्रा के जीवन से जोड़ सकें। वे बताती हैं कि नीतिनिर्माताओं और थिंक टैंकों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जलवायु भाषा ज़्यादातर लोगों खासतौर पर महिलाओं के लिए एक बिल्कुल अनजान भाषा है। उथरा कहती हैं कि “हमें जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन जैसी तकनीकी, जटिल शब्दावली से दूर जाने की जरूरत है। क्योंकि इससे उन महिलाओं और उनके परिवारों को मदद नहीं मिलती है जो इसे और अपने जीवन पर इसके प्रभाव को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए, स्थानीय स्तर पर ही जलवायु-संबंधी सही जानकारी और उपकरण मुहैया करवाने के अतिरिक्त क्या सरकार एवं नागरिक समाज संगठन नागरिकों को उनकी रोज़मर्रा की भाषा में ही जलवायु को समझाने का प्रयास कर सकते हैं?

3. महिलाओं की बात सुनें और उनके समाधान का आकलन करें

एमएचटी ने महसूस किया कि यदि वे केवल घरेलू स्तर पर महिलाओं के साथ काम करते हैं, तो यह लंबे समय में जलवायु परिवर्तन के समाधान में मददगार साबित नहीं होगा। इसलिए संगठन महिलाओं के समूहों को वैज्ञानिक प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है ताकि वे शहरी तापमान से जुड़ी कार्य योजनाओं के विकास पर स्थानीय सरकारों के साथ काम कर सकें। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि हम भले ही शहरों की योजना बनाने में मदद के लिए विभिन्न थिंक टैंक और अनुसंधान संगठनों को उभरते हुए देख रहे हैं लेकिन इसमें जिस एक चीज़ की कमी है. वह है लोगों का विशेष रूप से ऐसे लोगों का समावेशन जिनका योगदान जलवायु परिवर्तन में सबसे कम है। लेकिन इस परिवर्तन से सबसे अधिक वही प्रभावित होते हैं। 

उनका कहना है कि इनमें से कुछ धीरे-धीरे बदल रहा है। भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा गर्मी को प्रमुख आपदा में से एक घोषित करने के बाद शहरों को कार्य योजना बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। हालांकि इसका कार्यान्वयन चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि शहर प्रशासन के पास इसके लिए पर्याप्त धन या क्षमता नहीं है। बीजल कहती हैं कि “इसलिए स्थानीय समुदायों द्वारा लगातार दबाव बनाते रहना महत्वपूर्ण है। यहीं पर महिलाओं का समूह मुख्य भूमिका निभाता है – जब मुद्दे से जुड़ा ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनकी भागीदारी होगी तो वे सरकार को जवाबदेह ठहरा सकती हैं और साथ ही समस्याओं के समाधान निर्माण में हिस्सा ले सकती हैं और उसके क्रियान्वयन में मददगार साबित हो सकती हैं। जोधपुर, एमएचटी महिलाओं का एक उदाहरण है जो सिटी हीट प्लान योजना विकसित करने और उस पर कार्य करने के लिए स्थानीय शहर प्रशासन और एक तकनीकी भागीदार (राष्ट्रीय संसाधन रक्षा परिषद) के साथ काम कर रही हैं।

महिलाओं और जलवायु के बारे में बात करते समय आजीविका ही एकमात्र दृष्टिकोण नहीं है जिसे लागू किया जाना चाहिए।

अकीला ने नीति निर्माण और फ़ैसले लेने में महिलाओं की भागीदारी के महत्व को दोहराया है। वे कहती हैं कि महिलाओं और जलवायु के बारे में बात करते हुए हमें केवल आजीविका के दृष्टिकोण को ही नहीं अपनाना चाहिए। वे यह भी जोड़ती हैं कि “यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उनकी बात भी सुनी जाए। और इसकी शुरुआत उन्हें अपने बारे में और उनकी अपनी क्षमताओं के बारे में जागरूकता पैदा करने में मदद करने से होती है। एक बार जब वे जागरूक हो जाती हैं, खासकर सैकड़ों महिलाओं के समूह के रूप में तो उन्हें अपनी आवाज मिल जाती है और ग्रामीण समाज में सुधार होता है।” ऐसे में जब वे बड़े निगमों के साथ उनकी आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बनने के लिए जुड़ती हैं तो यह सामूहिक शक्ति और आवाज उन्हें ठीक तरह से संवाद करने का साहस प्रदान करता है।

निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन में लिंग-विशिष्ट प्रभावों को हल करने वाली पहलों की पहचान करना और उन्हें अपनाना आवश्यक है। और हमें महिलाओं के लिए एक सक्षम वातावरण बनाना होगा ताकि वे उन समस्याओं के समाधान विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभा सकें जो उन्हें सबसे अधिक प्रभावित करती हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

आत्मदाह और एसिड हमले के पीड़ितों को मुख्यधारा में कैसे लाया जाए?

भारत में प्रत्येक वर्ष लोगों के जलकर घायल होने के 70 लाख मामले घटित होते हैं। इनमें एसिड अटैक और आत्मदाह के मामले भी शामिल हैं। इन घटनाओं के पीड़ितों में 91,000 महिलाएं हैं जिनमें से ज्यादातर निम्न-आयवर्ग वाले घरों से आती हैं। इन पीड़ितों का इलाज लम्बे समय तक चलता है इसलिए अक्सर इन्हें और इनके परिवार वालों को इसके चलते आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है। इस तरह के मामलों में सरकार से मिलने वाली मदद उपलब्ध होने के बावजूद ऐसे लोगों तक नहीं पहुंच पाती है। 

एसिड अटैक के शिकार लोगों के पुनर्वास के लिए काम करने वाली संस्था, ब्रेव सोल्स फाउंडेशन की संस्थापक शाहीन मलिक कहती हैं, “जहां हर्ज़ाने में मिलने वाली राशि बहुत छोटी है, वहीं इसके लिए लंबी और थकाऊ सरकारी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है जो इस तक पहुंचना और कठिन बना देता है। इसके लिए न केंद्र की कोई पुनर्वास योजना है और न राज्यों में कोई पेंशन योजना। यहां तक ​​कि [कई राज्यों में] विकलांग पेंशन भी बमुश्किल 500-600 रुपये है।” शाहीन इस बात को भी रेखांकित करती हैं कि सरकार द्वारा दी जाने वाली मदद को आमतौर पर पहली सर्जरी पर खर्च किया जाता है, जो अधिकतम 2 लाख रुपये तक हो सकती है। इसके बाद पीड़ित की सहायता के लिए किसी भी प्रकार का पुनर्वास या वित्तीय मदद प्रदान नहीं किए जाते हैं।

आत्मदाह के मामलों में तो सरकार द्वारा किसी भी प्रकार का मुआवजा नहीं दिया जाता है। बर्न-सर्वाइवर्स की मदद करने वाले चेन्नई-स्थित संगठन इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन फ़ॉर क्राइम प्रिवेन्शन एंड विक्टिम केयर (पीसीवीसी) से जुड़ी स्वेता शंकर बताती हैं कि इन मामलों को अक्सर ही आत्महत्या के प्रयास के मामलों के रूप में दर्ज किया जाता है। घर के भीतर होने वाली घरेलू हिंसा को न तो रेखांकित किया जाता है और ना ही आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप ही दर्ज किए जाते हैं। 

दैनिक वेतन पर काम करने वाले परिवारों के लिए, अस्पताल में जीवित बचे लोगों के साथ रहने का मतलब है, अपनी आय को खोना। इन परिवारों की बचत के पैसे बहुत जल्द ख़त्म हो जाते हैं और ये कर्ज के बोझ तले दबने लगते हैं। स्वेता कहती हैं कि “ऐसी परिस्थिति आने पर परिवार के लोग पीड़ित को अस्पताल से छुट्टी दिलवाकर घर ले जाने पर जोर देने लगते हैं जो उनके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है।” ऐसा होने से रोकने के लिए देखभाल करने वालों को सहायता प्रदान करना आवश्यक हो जाता है। यह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि पीड़ितों के परिवारों को भर पेट खाना मिल रहा है और उनके पास अपने बच्चों की शिक्षा के लिए पर्याप्त धन है।

रोज़गार के लिए मार्गदर्शन करना

शाहीन बताती हैं कि अस्पताल से घर वापस जाने के बाद भी पीड़ितों को आमदनी के स्त्रोतों की ज़रूरत होती है ताकि वे अपना आगे का इलाज करवा सकें। लेकिन यह मुश्किल हो जाता है क्योंकि उनके घाव के कारण उनकी आजीविका के विकल्प प्रभावित होते हैं। वे बताती हैं कि “बहुत हद तक लोगों के करियर बदल जाते हैं [और कइयों को तो फिर से शुरुआत करने की ज़रूरत होती है]। हमारे पास एक ऐसी सर्वाइवर हैं जिन्होंने एमबीए किया है लेकिन अब उनकी आंखों की रौशनी चली गई है। अब उन्हें ब्रेल लिपि सीखनी होगी और सब कुछ शुरू से शुरू करना होगा।”

ज़्यादातर पीड़ित युवा हैं और उनके पास उच्च शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के अवसर नहीं थे। ऐसी स्थिति में कौशल निर्माण उनके पुनर्वास का एक महत्वपूर्ण घटक बन जाता है। शाहीन कहती हैं कि “अंग्रेज़ी और कम्प्यूटर सीखना रोज़गार के प्रशिक्षण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है क्योंकि ये कौशल नौकरी के लिए अवसरों का दरवाज़ा खोलते हैं। कम्पनियों से रोज़गार के लिए बातचीत करने के अतिरिक्त हम भाषा, योग, कम्प्यूटर की कक्षाओं के साथ-साथ पीड़ितों के लिए क़ानूनी जागरूकता के शिविर भी आयोजित करते हैं।

मनोसामाजिक सहयोग आर्थिक सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि जलने के बाद पीड़ित अपने आप को दूसरी तरह से देखते हैं।

मनोसामाजिक सहयोग आर्थिक सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि जलने के बाद पीड़ित खुद को दूसरी तरह से देखने लगते हैं। वे अब चोट के कारण आए अपने शारीरिक बदलावों और अपनी सार्वजनिक छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। स्वेता कहती हैं कि “सामाजिक मेलजोल, पुनर्वास प्रक्रिया का हिस्सा होता है। इस तरह के मेलजोल का उद्देश्य सार्वजनिक जगहों पर उन्हें सहज महसूस करवाना होता है। इससे वे अपने जलने को लेकर, लोगों द्वारा किए जाने वाले उन सवालों से निपटना भी सीखते हैं जो उन्हें परेशान करते हैं।” इस प्रकार सार्वजनिक जगहों के संपर्क में आना समाज का हिस्सा बनने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कदम बन जाता है।

अपने मनोसामाजिक परामर्श प्रक्रिया का उपयोग करते हुए, पीसीवीसी इस पर भी विचार करता है कि किसी एक सर्वाइवर के लिए किस प्रकार का रोज़गार उपयुक्त होगा। स्वेता बताती हैं कि इसे विस्तार से समझने के लिए वे सर्वाइवर के साथ बहुत लम्बी बातचीत करते हैं। वे आगे बताती हैं कि “कभी-कभी वे बताती हैं कि उनका गणित अच्छा है या फिर वे अपने घर के बजट के प्रबंधन में अच्छी थीं। हम उन्हें ऐसे प्रशिक्षण प्रदान करते हैं जो उनकी इन योग्यताओं को रोज़गार अवसर में बदलने में मददगार साबित होते हैं।” 

हालांकि, उचित रोजगार के अवसरों के बिना कौशल प्रशिक्षण व्यर्थ होते हैं। कई समाजसेवी संस्थाएं और सीएसआर पहलें सौंदर्य उद्योग में काम करने के लिए सर्वाइवर्स को प्रशिक्षित करने में निवेश कर रही हैं। लेकिन शाहीन कहती हैं कि “सर्वाइवर्स में अक्सर [आंशिक] अंधापन जैसी अक्षमताएं आ जाती हैं, जिससे उनके लिए ब्यूटीशियन या दर्जी के रूप में काम करना मुश्किल हो जाता है।” वे कहती हैं कि “इन रोज़गारों से अच्छे पैसे भी नहीं मिलते हैं लेकिन बेहतर अवसरों की कमी के कारण ये लोकप्रिय विकल्प बन गए हैं।”

एक समूह में खड़ी महिलाएं_एसिड अटैक रोज़गार
आम जनता के बीच संवेदनशीलता की कमी और सरकार से मिलने वाले अपर्याप्त समर्थन के कारण पीड़ित का जीवन लगातार ख़तरे में होता है। | चित्र साभार: ब्रेव सोल्स फ़ाउंडेशन

कार्य स्थल पर मार्गदर्शन करना

पीड़ितों के लिए रोज़गार प्राप्त करना ही अपने-आप में एक चुनौतीपूर्ण काम होता है लेकिन नौकरी मिलने के बाद उन्हें कई अलग प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पीड़ितों के रूप-रंग को लेकर कई तरह की गलत धारणाओं जुड़ी होती हैं और ऐसा संभव है कि उनके सहकर्मी कई बार गलत तरीके से, उन्हें असहज बनाने वाले, अनुचित सवाल-जवाब और जांच-पड़ताल करें। स्वेता बताती हैं कि “ कई पीड़िताएं अपनी साथियों से इस बारे में सीखती हैं कि उनकी निजता में दख़ल देने वाले प्रश्नों को किस प्रकार विनम्रता से टाला जा सकता है।” पीसीवीसी के पुनर्वास केंद्र में हमने कई आइने लगाए हैं ताकि ये पीड़ित अपने रूप-रंग और छवि को लेकर सहज हो सकें।

हालांकि सीमाएं बनाना सीखना और सार्वजनिक रूप से सहज महसूस करना महत्वपूर्ण है, लेकिन नियोक्ताओं और सहकर्मियों के लिए संवेदनशीलता प्रशिक्षण से गुजरना भी उतना ही जरूरी है। कभी-कभी सहकर्मियों द्वारा यह भेदभाव कुछ ‘विशेषाधिकारों’ जैसे कि नियोक्ताओं द्वारा चिकित्सीय कारणों या उपचार और क़ानूनी सुनवाई के लिए पीड़ितों को दी जाने वाली अतिरिक्त छुट्टियों आदि के कारण उपजी चिढ़न की वजह भी बन जाता है। स्वेता कहती हैं कि “पीड़ितों को कभी भी उनकी नौकरी के लिए एहसानमंद नहीं महसूस करवाना चाहिए। यदि कार्यस्थल पर उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है तो पीसीवीसी जैसी समाजसेवी संस्थाएं मैनेजरों के साथ मिलकर इन मुद्दों को सुलझाने में मदद कर सकती हैं जो इन समस्याओं के समाधान के लिए उचित कदम उठा सकते हैं। हालांकि यदि यह उपाय कारगर नहीं होता है तो वैसी परिस्थिति में समाजसेवी संस्थाओं को उनके लिए रोज़गार के अन्य अवसरों की तलाश में मदद करनी चाहिए।”

नीतिगत कमी

अपने समावेशी अभियान के अंतर्गत कई संगठन आत्मदाह और एसिड हमले के पीड़ितों को अपने यहां काम पर रखने की इच्छा जताते हैं। हालांकि आम लोगों में संवेदनशीलता की कमी और सरकार से मिलने वाले अपर्याप्त सहयोग के कारण इन पीड़ितों का जीवन लगातार ख़तरे में होता है। यहां तक कि इन्हें विकलांग प्रमाणपत्र हासिल करने में भी कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। शाहीन का कहना है कि “अपने काम के दौरान मैंने यह महसूस किया है कि लोग इसके बारे में जानते तो हैं लेकिन वे पीड़ितों द्वारा झेली जा रही समस्याओं के प्रति वास्तव में संवेदनशील नहीं होते हैं।” न्यूनतम मुआवजे के अलावा सरकार से अन्य किसी भी प्रकार की मदद मुहैया नहीं करवाई जाती है। रोज़गार को लेकर सरकार की ओर से न तो किसी प्रकार का समर्थन दिया जाता है और न ही किसी तरह की सब्सिडी मिलती है। शाहीन आगे बताती हैं कि “हम सरकारों के साथ मीटिंग करते हैं लेकिन कई महीने बीतने के बाद भी कुछ नहीं होता है। हमें नीतिगत-स्तर पर बदलावों की ज़रूरत है।”

आत्मदाह से बचने वाले लोगों को किसी भी प्रकार का मुआवजा नहीं मिलता है, इसलिए उन्हें सहयोग हासिल करने के लिए बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ता है। स्वेता का मानना है कि जलने के मामलों, जिनमें आत्मदाह भी शामिल है, के लिए एक केंद्रीकृत नीति पूरी प्रक्रिया को यादगार रूप से कारगर बनाएगी। वे कहती हैं कि “हम सामाजिक कल्याण विभाग और उनके विभाग की योजनाओं और पहलों के साथ मिलकर काम करने में सक्षम हो सकेंगे।”

यह महत्वपूर्ण है कि रोकथाम कार्यक्रमों में घरेलू हिंसा के खिलाफ उपाय शामिल हों जो इस मुद्दे की जड़ है।

एसिड हमलों और आत्मदाह के मामलों को ख़त्म करने के लिए घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाना एक महत्वपूर्ण उपाय है। स्वेता कहती हैं कि “हमारे द्वारा देखे जा रहे मामलों में नब्बे फ़ीसद मामले घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं।” यह महत्वपूर्ण है कि रोकथाम कार्यक्रमों में घरेलू हिंसा के खिलाफ उपाय शामिल हों, जो इस मुद्दे की जड़ है। तेजाब, मिट्टी के तेल और खुले पेट्रोल की बिक्री पर प्रतिबंध भी जलने से बचाव पर बातचीत का अहम हिस्सा बन गया है। “भारत ने खुले पेट्रोल की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन हमें अभी भी घरेलू हिंसा को समाप्त करने की आवश्यकता है जो इस समस्या का मूल कारण है।” कैरोसीन तेल की बिक्री पर प्रतिबंध की अपनी चुनौतियां हैं क्योंकि सब्सिडी के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति एलपीजी की ख़रीद में सक्षम नहीं है।

यह महत्वपूर्ण है कि एसिड हमलों और आत्मदाह के मामलों को लैंगिक हिंसा के रूप में देखा जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि नीतियों में इनकी स्वीकार्यता हो। साथ ही, पुनर्वास प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करना भी आवश्यक है। स्वेता आगे कहती हैं कि “जब तक हम सही संदेश नहीं देंगे तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है।”

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

अलवर की एक महिला जो नई बहुओं को पितृसत्ता से लड़ने के हथियार देती है

मेरा जन्म राजस्थान के अलवर ज़िले के रसवाड़ा गांव में हुआ था। हमारे परिवार में मेरे अलावा छह और सदस्य थे – मेरी तीन बहनें, भाई और हमारे माता-पिता। जब मैं आठ साल की थी, तब बेहतर भविष्य की तलाश में मेरा पूरा परिवार गुरुग्राम आकर बस गया। जहां मैंने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और साल 2001 में 18 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई।

अब मैं राजस्थान के अलवर में अपने पति, एक बेटे और एक बेटी के साथ रहती हूं। मेरे पति एक दिहाड़ी-मज़दूर हैं – वे इमारतों में सफ़ेदी का काम करते हैं और उनकी रोज़ाना की आमदनी 600 रुपए है। शादी के कुछ ही दिनों बाद, मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि अपना घर चलाने के लिए मुझे भी काम करना पड़ेगा। हमारे घर में पानी और साफ-सफ़ाई से जुड़ी साधारण सुविधाएं भी नहीं थीं। 

मैंने बहुत कम उम्र में ही यह समझ लिया था कि महिलाओं को अपनी अलग पहचान बनाने की ज़रूरत है। मैंने किशोर लड़कियों को जीवन कौशल से जुड़ी शिक्षा देने के लिए समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम करना शुरू किया ताकि उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल तार्किक सोच और समस्याओं के समाधान के तरीके सीखने में मदद मिले। जल्दी ही मैंने यह भी जान लिया कि इस क्षेत्र में अपने काम को जारी रखने के लिए मुझे आगे पढ़ने की ज़रूरत है; इसलिए अपनी शादी के नौ सालों के बाद मैंने बीए और बीएड की पढ़ाई की। आजकल मैं राजस्थान के अलवर ज़िले में समाजसेवी संस्था इब्तिदा के लिए फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर और प्रशिक्षक के रूप में काम कर रही हूं। मैं युवा महिलाओं को करियर से जुड़ी सलाह देने, कम्प्यूटर शिक्षा की सुविधा मुहैया करवाने और खेल-कूद करवाने जैसे काम करती हूं। इसके साथ में नव-विवाहित महिलाओं के लिए चलाए जा रहे इब्तिदा के कार्यक्रम के लिए भी काम करती हैं जहां मैं महिलाओं को संवाद कौशल का प्रशिक्षण देती हूं और उन्हें पोषण ज़रूरतों और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियां देती हूं। इसके अलावा, मैं इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनके लिए मौके निकालने में उनकी मदद करती हूं और साथ ही कई स्तरों पर होने वाली लैंगिक हिंसा को समझने और उसका मुक़ाबला करने के बारे में भी बताती हूं। जहां मेरे जीवन से मेरे काम में मदद मिली है, वहीं विकास क्षेत्र में मेरे काम के अनुभवों का मेरे जीवन पर भी उतना ही प्रभाव पड़ा है। 

सुबह 6.30 बजे: मेरे दिन की शुरुआत सुबह 6.30 बजे होती है। जब तक मैं सोकर उठती हूं तब तक मेरे पति अपना योग और पूजा ख़त्म कर चुके होते हैं और हम दोनों के लिए चाय भी तैयार रखते हैं। उस दिन के काम की ज़रूरत के हिसाब से हम सब अपने-अपने हिस्से के काम बांट लेते हैं ताकि किसी को भी देर न हो। जैसे कि मेरे पति सब्ज़ियां काट देते हैं और मैं सुबह का नाश्ता तैयार कर लेती हूं। मेरा बेटा कपड़े धोने और इस्तरी करने के काम में कभी-कभी मदद कर देता है। इसके बाद बच्चे स्कूल के लिए तैयार होते हैं। जिस दिन मेरी बेटी को स्कूल नहीं जाना होता है, उस दिन वह खाना तैयार करने में मेरी मदद कर देती है। अपनी व्यस्तता के आधार पर या तो मेरे पति या मेरा बेटा मेरा स्कूटर झाड़-पोंछ देते हैं और मेरे लिए दोपहर के खाने का डब्बा तैयार कर देते है।

साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला।

लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। शादी के लगभग 15 सालों तक घर के सभी कामों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर ही थी। साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला। मैंने अस्पताल और घर के खर्चे पूरे किए और अकेले ही पूरा घर सम्भाला। तभी उन्हें समझ में आया कि अगर मैं परिवार को आर्थिक रूप से सहारा दे सकती हूं, तो उन्हें भी घर के कामों में मेरी मदद करनी चाहिए और एक दूसरे को बराबर समझना चाहिए। उन्होंने यह भी समझा कि उनकी पत्नी केवल अपने लिए नहीं बल्कि सब के लिए कमा रही है।मेरे सास-ससुर को मेरा काम करना पसंद नहीं था और उन्होंने इसका विरोध किया। जब मेरे पति ने घर के कामों में मेरी मदद करनी शुरू की तब उन्होंने पति को फटकार लगाई और कहा कि वे मेरे इशारों पर नाचते हैं। लेकिन मेरे पति अपनी बात पर अड़े रहे। मैं जिन नवविवाहिताओं के साथ काम करती हूं, उनके घरों में भी ऐसा ही बदलाव देखना चाहती हूं।

महिलाएं एक समूह में घेरा बनाकर सांप-सीढ़ी का खेल खेलती हुई-नवविवाहित महिला पितृसत्ता
मैंने अपने जीवन के शुरुआती दौर में ही इस बात को समझ लिया था कि महिलाओं को अपनी पहचान बनाने की आवश्यकता है। | चित्र साभार: राज बाला वर्मा

सुबह 10.00 बजे: दफ्तर पहुंचने के बाद मैं अपने दिनभर के काम की योजना बनाती हूं। मैं नवविवाहित महिलाओं के कार्यक्रम में शामिल महिलाओं के समूह के साथ बैठक करती हैं। मैं इस समय ऐसे चार समूहों के साथ काम कर रहीं हूं जिनमें कुल 69 महिलाएं शामिल हैं।इनमें से तीन समूहों की शुरुआत मई 2023 में ही हुई है।

महिलाओं और उनके परिवारों को समझाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। उन्हें इस बात का यक़ीन दिलाना जरूरी है कि मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के केवल उनके लिए वहां पर हूं और मैं उनकी परिस्थितियों को समझती हूं। मैं उन्हें अपने जीवन का उदाहरण देती हूं ताकि उन्हें यह एहसास हो सके कि मुझे उनकी हालत के बारे में पता है। मैं उन्हें यह भी समझाती हूं कि परिवर्तन के धीमी प्रक्रिया है ताकि जब उनके घरों में पितृसत्तात्मक संरचना उनके जीवन को मुश्किल बनाएं तो वे जल्दी निराश न हों। व्यवहार में बदलाव लाने के लिए नियमित बातचीत और छोटे-छोटे कदम उठाने की ज़रूरत होती है।

मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं।

मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं, ताकि उन्हें भरोसा हो सके कि मैं उनकी मदद कर पाने में सक्षम हूं। उदाहरण के लिए, एक बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा कि कौन सी सामान्य शारीरिक घटना है जिससे महिलाएं निपटती हैं, तो उनका जवाब था ‘ल्यूकोरिया‘ जो कि सही भी है। लेकिन वे इसके कारण और इससे निपटने के तरीकों के बारे में नहीं जानती थीं। परिवार के लोग इसके लिए डॉक्टरी सलाह नहीं लेते हैं और लड़कियों को इतनी समझ नहीं होती कि वे इसके लक्षणों को पहचान सकें। मैं उन्हें उनके सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के बारे में परिवार के लोगों से बातचीत करने और ज़रूरत पड़ने पर इलाज करवाने के तरीक़ों के बारे में सिखाती हूं।

मैं बहुओं और उनकी सासों को एक साथ बुलाकर उनसे बातचीत करती हूं। इन बैठकों का मुख्य उद्देश्य विशेष रूप से सासों को समझाना होता है। आमतौर पर अपनी बहुओं के जीवन के सभी फ़ैसले सासें ही लेती हैं। मुझे अक्सर ही उनके और कभी-कभी उनके पतियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। वे मुझसे पूछते हैं कि मैं इन युवा महिलाओं को क्या सिखाने वाली हूं। मैं उनकी पूरी बात को शांति के साथ सुनती हूं और खुले दिमाग़ के साथ सभी मुद्दों पर बातचीत करती हूं।

सास पूछती है कि “आप मेरी बहू को क्या सिखाएंगी? उसके बदले उस समूह में आप मुझे ही क्यों नहीं शामिल कर लेती हैं?” मैं उन्हें समझाती हूं कि उनका जीवन अब उस पड़ाव को पार कर चुका है और उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है। मैं संवेदनशीलता और समझ के उनके स्तर पर जाकर उनसे बातचीत करती हूं और पूछती हूं कि “आपके बच्चों की शादी हो चुकी है, आपने अपना पूरा जीवन काम करने में लगा दिया। आप घर के सभी फ़ैसले लेती हैं, आपको ऐसे किसी समूह की जरूरत नहीं है। अब आपकी बहू को सीखने की ज़रूरत है कि घर कैसे चलाया जाता है। उसे सीखने की ज़रूरत है कि वह आपका सम्मान करे और आपसे किसी भी तरह की बहस या लड़ाई-झगड़ा न करे। आप नहीं चाहती हैं कि आपकी बहू आपके साथ राज़ी-ख़ुशी से रहे?”

मेरी इन बातों से उन्हें यह भरोसा हो जाता है कि मैं उनकी बहुओं को कुछ ऐसा नहीं सिखाने वाली हूं जो उनकी नजर में ‘ग़लत’ है बल्कि मैं उसे कुछ ऐसा सिखाने वाली हूं जिससे उनके पूरे घर को फायदा होगा।

मैं समूह की महिलाओं के साथ निजी स्तर पर जुड़कर समझ बनाती हूं ताकि वे मुझसे अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बात कर सकें। कभी-कभी वे अपनी सासों से बहुत परेशान रहती हैं। यहां तक कि उनके सास और पति भी मुझसे उनकी शिकायत करते हैं। ऐसी स्थिति में मेरा काम बिना किसी हस्तक्षेप के उन सभी की बातों को सुनना होता है। मैं उन्हें एक दूसरे की बातें नहीं बताती हूं क्योंकि इससे झगड़े की सम्भावना बढ़ सकती है। कभी-कभी मुझे मध्यस्थता भी करनी पड़ती है। अगर पति का कोई नजरिया है और वह उसके बारे में बताता है, तो मैं पत्नी को भी समझाने की कोशिश करती हूं। इस तरह मैं एक संतुलन बनाते हुए परिवार के सदस्यों के साथ भरोसेमंद रिश्ता क़ायम रखती हूं।

महिलाओं का एक समूह कक्षा में बैठकर पढ़ता हुआ-नवविवाहित महिला पितृसत्ता
अपने कार्यालय पहुंचने के बाद मैं उस दिन के काम की योजना बनाती हूं और नवविवाहित युवा महिला कार्यक्रम में महिलाओं के साथ मीटिंग का आयोजन करती हूं। | चित्र साभार: राज बाला वर्मा

दोपहर 12.00 बजे: मेरी दोपहर अलग-अलग तरह से बीतती है। कभी मैं कौशल प्रशिक्षण देने के लिए फ़ील्ड में जाती हूं, तो कभी मैं नई जुड़ने वाली महिलाओं के लिए स्वागत बैठक जैसा कुछ करते हैं।हम अपनी संस्था और उसके द्वारा किए जाने वाले काम के बारे में जानकारी देते हैं। परिवार के लोगों को नवविवाहित लड़कियों द्वारा किए जा रहे कामों का महत्व समझाने के लिए हम उन्हें लैंगिक शिक्षा पर केंद्रित विडियो दिखाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ नाम का वीडियो महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कामों की आर्थिक महत्व को दिखाता है और बताता है कि अगर पैसों में देखा जाए तो उनके काम की क़ीमत कम से कम 32,000 रुपए है। हमारा उद्देश्य महिलाओं के काम को प्रत्यक्ष बनाना है। इससे पुरुषों को महिलाओं के कामों की सराहना करने में मदद मिलती है, और वे उनकी सहायता भी करना शुरू कर देते हैं ताकि घर के पूरे काम की जिम्मेदारी केवल महिलाओं के कंधे पर न पड़े। 

परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं।

इसके बाद मैं दोपहर का खाना खाती हूं और अपना प्रशिक्षण ज़ारी रखती हूं। यदि कोई बहुत लम्बे समय से अनुपस्थित है तो मैं उनके घर जाकर इसके कारण का पता लगाती हूं। परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं। यदि इस प्रशिक्षण से उनके घर की व्यवस्था में थोड़ा-बहुत भी फेरबदल आने लगता है तो वे महिलाओं को भेजना बंद कर देते हैं। मुझ पर महिलाओं को भटकाने के आरोप भी लगे हैं। ऐसी परिस्थितियों में मेरा काम होता है कि मैं महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करूं और उन्हें अपनी पहचान बनाने के लिए कहूं, ताकि वे अपनी आवाज़ उठा सकें और परिवार के लोगों के साथ रहते हुए अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी कदम उठा सकें। मैंने उनसे कहा है कि मेरी कही गई बातों को घर पर बताने की बजाय उन्हें अपनी समझ बनाने की और समस्याओं से अपने तरीक़े से निपटने की ज़रूरत है।

कार्यक्रम में, हम हिंसा को लेकर समुदाय के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने का भी प्रयास करते हैं। यह एक आम समझ है कि हिंसा केवल एक ही प्रकार की होती है – शारीरिक। लेकिन महिलाओं को केवल शारीरिक हिंसा का ही सामना नहीं करना पड़ता है, बल्कि वे मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा का भी शिकार होती हैं। मैं उन्हें बताती हूं जब आप किसी को गाली देते हैं, कोई जातीय टिप्पणी करते हैं, छेड़ते हैं या बिना मर्ज़ी के किसी को छूते हैं तो इन सभी परिस्थितियों में आप हिंसा कर रहे होते हैं। 

जब मैं छोटी थी तो मैंने अपनी मां को इन सबसे गुजरते देखा था। मेरे पिता अक्सर उन्हें दूसरी शादी कर लेने की धमकी देते थे क्योंकि हम चार बहनें थीं और मेरे पिता को बेटा चाहिए था। मुझे अपनी मां की दुर्दशा तब समझ में आई जब मैंने भी पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का अनुभव किया।जब आप अपने जीवन में हिंसा का अनुभव कर चुके होते हैं तो उस स्थिति में आप चुपचाप बैठकर किसी और को पीड़ित होता नहीं देख सकते हैं। इसलिए अब मैं जहां भी हिंसा होता देखती हूं, चाहे मेरे घर में  या फ़िर आस-पड़ोस में, मैं उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाती हूं। उदाहरण के लिए, घर पर मैं उन महिलाओं के मामलों को तेज आवाज़ में पढ़ती हूं जिनके साथ मैं काम करती हूं ताकि मेरे परिवार के सदस्य भी सीख सकें। इससे न केवल उनके व्यवहार में बल्कि मेरे सास-ससुर के बर्ताव में भी बदलाव आया है।

खेत में खड़ी महिलाओं का एक समूह-नवविवाहित महिला पितृसत्ता
दोपहर के समय मैं आमतौर पर कोई निश्चित कार्यक्रम या योजना नहीं बनाती हूं, कभी-कभी मैं कौशल प्रशिक्षण के लिए क्षेत्र का दौरा करती हूं। | चित्र साभार: राज बाला वर्मा

शाम 6.30 बजे: पूरा दिन काम करने के बाद मैं घर वापस लौटती हूं। मेरे दोनों बच्चे मुझसे पहले घर पहुंचने की कोशिश करते हैं ताकि रात का खाना वे तैयार कर सकें। मेरी बेटी सब्ज़ी बनाती है और मैं चपाती। हम बर्तन धोने का काम अपनी-अपनी थकान और व्यस्तता के आधार पर आपस में बांट लेते हैं। हमारा शाम का अधिकांश समय इन्हीं कामों में चला जाता है। मेरी बेटी डॉक्टर बनना चाहती है लेकिन उसे इंजेक्शन से डर लगता है और इंजेक्शन लेने के समय वह चिल्लाना शुरू कर देती है। मेरा बेटा सीमा सुरक्षा बल में शामिल होना चाहता है क्योंकि उसे वर्दियों से प्यार है; मैं उसे लगातार कहती रहती हूं कि उसे इस बारे में एक बार फिर से सोचना चाहिए।

सारा काम ख़त्म होने के बाद मैं और मेरी बेटी साथ बैठकर टीवी पर ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ नाम का धारावाहिक देखते हैं। इसमें जीवन के सुख और दुख दोनों दिखाते हैं। हमें यह अपने जीवन जैसा लगता है और इस धारावाहिक को देखे बिना हमें अपना दिन अधूरा लगता है। मुझे पुराने गाने सुनना भी पसंद है, इससे मुझे अच्छा महसूस होता है। मैं कम्प्यूटर की पढ़ाई करने की कोशिश कर रही हूं और अपने इस कोर्स के लिए समय निकालना चाहती हूं। लेकिन दिन ख़त्म होते-होते मैं इतना थक चुकी होती हूं कि रात के 11-12 बज़े तक मुझे नींद आ जाती है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें