October 26, 2023

समाजसेवी संस्थाएं अपनी विफलताओं पर बात क्यों नहीं करती हैं?

कुछ वास्तविक तो कुछ काल्पनिक जोखिम, समाजसेवी संस्थाओं को उनकी असफलता पर बात करने से रोकते हैं लेकिन अगर संस्थाएं और फंडर्स चाहें तो इस पर सहज संवाद हो सकता है।
7 मिनट लंबा लेख

व्यावसायिक दुनिया में, तेजी से असफल होने और फिर उससे कहीं अधिक तेजी से तरक्की करने के बारे में बात करने का चलन है। नई कंपनियां लगातार अपने उत्पादों, सेवाओं और बिज़नेस मॉडल्स को सामने ला रही हैं और उन्हें दोहरा भी रही हैं। व्यावसायिक दुनिया ने यह बात समझ ली है कि बिना जोखिम उठाए नई तरह का काम करना संभव नहीं है और साथ ही यह भी कि जोखिम उठाने में असफल होने की भी पूरी संभावना होती है। लेकिन ऐसा क्यों है कि समाजसेवी संगठनों की दुनिया में लोग इस तरह से नहीं सोचते हैं?

कई विकसित देशों में व्यवसाय के दौरान मिली विफलता को सामान्य बताया जाता रहा है। लेकिन समाजसेवी संस्थाओं को लेकर – विशेष रूप से भारत में – चीजें ऐसी नहीं हैं। हालांकि इस सेक्टर के ज्यादातर लीडर विफलता की अनिवार्यता और इससे हमें मिलने वाले मूल्यवान सबक की महत्ता को समझते हैं, लेकिन वे इसे स्वीकार्य करने को तैयार नहीं है। यह समस्या समाजसेवी संगठनों, कॉर्पोरेट फाउंडेशन और कल्याणकारी संस्थाओं सभी में समान रूप से दिखाई देती है।

साल 2020 में, हमारी संस्था इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू ने फेल्यर फाइल्स नाम से एक पहल शुरू की। हमारा लक्ष्य एक ऐसी जगह बनाना था जहां सामाजिक उपक्रमों को करते हुए मिली विफलताओं पर अधिक खुलेपन और सहजता से बातचीत की जा सके। इनके जरिए सेक्टर के अन्य लोग अपने साथियों के अनुभवों से सीख सकें और उन्हीं गलतियों को दोहराने से बच सकें। दो वर्षों में हमने समाजसेवी और परोपकारी संस्थाओं के बीच विफलता की धारणा के बारे में बहुत कुछ सीखा। यह भी जाना कि असफलताओं पर खुलकर चर्चा करने में आने वाली बाधाओं और कमजोरियों और चुनौतियों को साझा करने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने के लिए क्या करने की आवश्यकता है।

असफलता के बारे में खुलकर बात करने के रास्ते में कौन सी बाधाएं आती हैं?

1. प्रतिष्ठा का जोखिम

भारत में, हमारी परवरिश ‘लोग क्या कहेंगे’ वाली सोच के इर्द-गिर्द की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो, सांस्कृतिक रूप से, हम अपने पड़ोसियों और सगे-संबंधियों की राय पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं। अक्सर ये चीजें हमारे काम को या काम को लेकर होने वाली बातचीत को प्रभावित और निर्धारित करती हैं। और, स्वाभाविक रूप से यही प्रवृति सामाजिक सेक्टर में भी दिखाई पड़ती है।

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यह देखते हुए कि समाजसेवी नेता सामाजिक परिवर्तन की जटिल समस्याओं को हल करने का प्रयास कर रहे हैं – जिनमें से अधिकांश के लक्ष्य बदलते रहते हैं – जब चीजें काम नहीं कर रही होती हैं तो वे इसे स्वीकार करने में झिझकते हैं। इस बात को लेकर चिंता जायज है कि उनकी छवि कैसी हो जाएगी और इससे उनकी क्षमता के बारे में क्या पता चल सकता है। एक्यूमेन एकेडमी इंडिया के पूर्व कार्यक्रम प्रमुख अब्बास दादला इसे स्पष्ट शब्दों में समझाते हुए कहते हैं कि ‘मुझे लगता है कि कारण (असफलता को ना स्वीकार करना) बहुत ही सरल है और फिर भी इससे उबरना बहुत कठिन है: एक विशेष छवि में दिखना या देखे जाने की आवश्यकता, और किसी व्यक्ति की आत्म-छवि, जो कि आंशिक रूप से खुद की बनाई होती है और आंशिक रूप से समाज द्वारा तय की जाती है। सामाजिक सेक्टर में, हम लगातार उपलब्धियों, पुरस्कारों और सम्मानों का जश्न मनाने वाले व्यवहार को बढ़ावा देते हैं। यह समझते हुए कि हमारी असफलता की कहानियां दूसरों को कैसे लाभान्वित कर सकती हैं, हम इसके फायदे ना देखकर केवल इससे होने वाले नुकसान पर ही ध्यान देते हैं।’

2. संगठनात्मक संस्कृति

संगठन की संस्कृति भी यह तय करने में बड़ी भूमिका निभाती है कि असफलता के बारे में कितनी और किसकी उपस्थिति में तथा कितनी बार बात की जा सकती है। किसी भी संगठनात्मक ढांचे में, प्रोत्साहन और पुरस्कार का डिज़ाइन लोगों और टीम के कार्य करने के तरीके पर प्रभाव डालता है। यदि नेता सीखने और खुलेपन की संस्कृति को प्रोत्साहित नहीं करता है तो यह प्रवृत्ति पूरे संगठन में देखने को मिलती है।

फाउंडेशन फॉर मदर एंड चाइल्ड हेल्थ की सीईओ श्रुति अय्यर ने एक महिला के रूप में असफलता के बारे में सार्वजनिक रूप से बोलने के चलते आने वाली चुनौतियों के बारे में बताया। ‘लिंग की अपनी भूमिका होती है। एक महिला लीडर के रूप में, आपको अतिरिक्त झिझक होती है क्योंकि लोग पहले से ही यह मान कर बैठे हैं कि आप ‘नम्र’ और ‘कमजोर’ हैं। और इसलिए, जब आप असफलता के बारे में बात करती हैं तो आपको इस बात की चिंता होती है कि यह एक और कारण है कि आपको एक लीडर के रूप में गंभीरता से नहीं लिया जाएगा।’

किसी भी संगठनात्मक ढांचे में, प्रोत्साहन और पुरस्कार का डिज़ाइन लोगों और टीम के कार्य करने के तरीके पर प्रभाव डालता है।

साल 2020 में, श्रुति ने फेल्यर फाइल्स के लिए एक लेख लिखा था, जो उस साल के बारे में बताता है जिसमें सफलता के बाहरी पैमानों पर खरी उतरने के बावजूद, वे एक संस्था प्रमुख, सहकर्मी, बेटी, दोस्त और साथी के रूप में विफल रहीं। वे स्वीकार करती हैं कि संगठन से बाहर निकल जाने और अपने आसपास साथ एवं सहयोग का एक इकोसिस्टम बना लेने के बाद असफलता के बारे में सार्वजनिक रूप से बात करना आसान हो गया था। विशेष रूप से, अन्य विफल महिला नेताओं के बारे में जानकार उन्हें यह स्वीकार करने में मदद मिली कि वे अकेली नहीं थीं। हालांकि वे अब भी इस पर काम कर रही हैं, लेकिन उनका मानना है कि संगठनों के भीतर सीखने की संस्कृति को विकसित करना महत्वपूर्ण है, ताकि टीम अपनी विफलताओं के बारे में खुलकर और सहजता से बात कर सके।

‘अपनी विफलताओं के बारे में सहज होने के बाद भी, मैं अक्सर खुद से यह पूछती हूं कि: असफलता को लेकर मेरा संगठन किस प्रकार की संस्कृति को मानता है? क्या मेरी टीम समझती है कि असफल होना ठीक है? क्या मैं उनके साथ अपनी असफलताओं को लेकर सक्रिय रूप से संवाद करने की क्षमता रखती हूं? और टीम से परे, क्या मैं अपने बोर्ड के सदस्यों, दाताओं और अन्य हितधारकों से इस तरह के संवाद कर पाऊंगी?’

कांटेदार तार_समाजसेवी संगठन
सामाजिक सेक्टर में हम उपलब्धियों का जश्न मनाने वाले व्यवहार को लगातार बढ़ावा देते हैं और उसे मजबूत बनाते हैं। | चित्र साभार: फ्लिकर / सीसी बीवाय

3. फंडरसमाजसेवी संगठनों के बीच का शक्ति असंतुलन

भारत में लगभग 35 लाख समाजसेवी संस्थाएं सक्रिय बताई जाती हैं जो 30 राज्यों और 600 से अधिक जिलों में फैली हुई हैं और लाखों लोगों को अपनी सेवाएं दे रही हैं। इन सभी संस्थाओं को व्यक्तिगत परोपकारियों, कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के लिए आवंटित बजटों, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय एजेंसियों तथा फाउंडेशनों से मिलने वाले अपर्याप्त फंड के लिए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। एक बहुत सीमित संसाधनों वाले क्षेत्र में मांग एवं आपूर्ति के बीच का परिणामी अंतर, फंडरों और अनुदान प्राप्तकर्ताओं के बीच पहले से ही मौजूद असमान शक्ति संतुलन को बढ़ाता है।

अक्सर यह मामला तब और जटिल हो जाता है जब फंड देने वाले यह चाहते हैं कि उनके द्वारा आवंटित धन का एक बड़ा हिस्सा (अगर पूरा नहीं भी तो) कार्यक्रम और सेवा प्राप्त करने वाले समुदाय पर खर्च किया जाए। इसके कारण प्रयोग तथा नए तरह के कामों की तो बात ही छोड़ दें, संगठन के संचालन में आने वाले खर्च के लिए भी बहुत कम धन बच पाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, असफलता के लिए किसी तरह की जगह ही नहीं है। और इसलिए, समाजसेवी संगठनों के नेता इसके प्रति सावधान होते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता है कि असफलता स्वीकार करने से उन्हें आगे मिलने वाला अनुदान खतरे में ना पड़ जाए।

फंड देने वाले के प्रकार और उनके निर्देशों पर भी यह निर्भर करता है कि फंड देने वाले विफलता से सीखने के लिए तैयार हैं या नहीं।

सेल्को फाउंडेशन के निदेशक हुडा जाफ़र यह कहते हुए दूसरा पक्ष रखते हैं कि यह कोई पत्थर पर लिखी इबारत नहीं है और समाजसेवी संस्थाओं का रुख इस बात पर भी निर्भर करता है कि उनके फंडर किस तरह के हैं। ‘फंड देने वाले के प्रकार और उनके निर्देशों पर भी यह निर्भर करता है कि फंड देने वाले विफलता से सीखने के लिए तैयार हैं या नहीं। हमारा अनुभव कहता है कि द्विपक्षीय और बहुपक्षीय फंडिंग एजेंसियों के लिए अपने भागीदारों के साथ, प्रतिक्रिया देने और सीखने की लगातार चलने वाली कारगर व्यवस्था बनाना बहुत कठिन है क्योंकि ऐसा संभव है कि उनकी संरचना में एक निश्चित समयावधि के बाद ही बदलाव किया जा सकता हो। इसके विपरीत, हमने पाया कि परोपकारी संस्थाओं और पारिवारिक फाउंडेशन की मानसिकता लगातार सीखने वाली हो सकती है और वे विफलता के लिए धन देने वाले बेहतर उम्मीदवार साबित हो सकते हैं। पूंजी के स्त्रोत का प्रकार, यानी, चाहे वह कोई करदाता हो या फिर सार्वजनिक धन बनाम निजी धन, इस बात की भी गुंजाइश पैदा करता है कि नेतृत्व करने वाले लोगों को प्राथमिकताओं में संशोधन करना होगा और उन्हें लगातार ज़मीनी अनुभवों से सीखना होगा।’

हालांकि ज़िम्मेदारी केवल फंडर या अकेले समाजसेवी संस्थाओं की नहीं है। किसी तरह पूरी की पूरी व्यवस्था, सफलता और प्रभाव के इस मुखौटे को बरकरार रखते हुए अनजाने में विफलता के इर्द-गिर्द पसरी हुई चुप्पी को जस का तस बनाए हुए है। 

ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन के सह-प्रमुख अनीष कुमार का मानना ​​है कि अपनी विफलताओं के बारे में बात किए बिना प्रभावी ढंग से विकास कार्य करना संभव नहीं है, क्योंकि जोखिम उठाने और नवाचार के बिना सामाजिक प्रभाव को आगे बढ़ाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

‘विकास सेक्टर के संघर्ष को देखते हुए, हमारी विफलता की दर लाभ-कमाने वाले उद्यमों या स्टार्ट-अप की तुलना में अधिक होनी चाहिए। और फिर भी, हर कोई एक तरह से इस दिखावे को बनाए रखने और हमारे काम की इस वास्तविकता के बारे में बात नहीं करने में अपनी भूमिका निभा रहा है। फंडिंग संगठनों के कार्यक्रम अधिकारियों से लेकर अनुदान प्राप्त करने वाले साझेदारों तक – हर किसी पर कार्यक्रम से आए बदलावों के बारे में बताने का दबाव होता है, यह बताता है कि हम कितने ईमानदार हैं, और हम उन चीजों से क्या सीख सकते हैं जो काम नहीं करती हैं। और इसलिए हमारे सेक्टर में किसी परियोजना के वास्तविक जोखिमों को कम दिखाने और इसे इस तरह से तैयार करने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है जिससे प्रस्ताव और अनुदान को मंजूरी मिल सके।’

क्या बदले जाने की जरूरत है

1. हमें असफलता से जुड़ी एक नई तरह की कहानी की जरूरत है

जब बात असफलता की आती है तो हमें अपनी मानसिकता और इससे जुड़ी कथा और कहन को बदलने की जरूरत है। इसे अधिक तटस्थ बनाने और भाषा को ‘असफलता’ के बजाय ‘सबक’ के इर्द-गिर्द रखने से लोगों को यह स्पष्ट करने में मदद मिल सकती है कि क्या नहीं करना है और अगली बार बेहतर कैसे करना है। जब हमने फेल्यर फाइल्स शुरू की तो हमने इस दृष्टिकोण को अपनाया और पाया कि इससे लोगों द्वारा अपनी कहानियों को बताने के तरीके और व्यवस्था द्वारा उन कहानियों को स्वीकार किए जाने के तरीके में अंतर आया है।

उदाहरण के लिए मनजोत कौर ने यह बताया कि कैसे उनकी आधिकारिक नेतृत्व शैली के कारण उनका संगठन अपने लक्ष्यों को पूरा करने में असफल रहा और जिसके बाद उन्होंने स्वयं को एक साहसी और अधिक नम्र नेता के रूप में बदला। उसी प्रकार, एक फ़ंडर के साथ शक्ति असंतुलन में फंसने के बाद दिलीप पत्तुबाला ने लिखा कि कैसे उन्होंने मुश्किल फैसले लेने और अपने संगठन के दृष्टिकोण के प्रति सच्चे रहने के महत्व को सीखा- जिन सबकों ने उनके संगठन को कोविड-19 महामारी से सफलतापूर्वक निपटने में मदद की।

हमें इस बात को पहचानने की भी जरूरत है कि विफलता बहुत अधिक प्रासंगिक है; यह समय-आधारित (एक समय में जो कार्यक्रम असफल लग रहा हो, संभव है कि बाद में उसे अपार सफलता मिले) होती है; और सफलता के उन मानदंडों से जुड़ी होती है जिन्हें हम स्वयं मानते हैं। केवल इसलिए कि हम उन मानदंडों को पाने में विफल रहे हैं, इसका यह मतलब नहीं है कि किसी अन्य दिशा में प्रगति नहीं हुई है।

2. हमें ईमानदार संवाद के लिए एक सुरक्षित जगह बनाने की जरूरत है

सेल्को फाउंडेशन विकास कार्यों में विफलताओं से उभरे सबक का जश्न मनाने पर केंद्रित एक सम्मेलन का आयोजन करता है। सेल्को फाउंडेशन में नॉलेज एंड एडवोकेसी की एसोसिएट डायरेक्टर रचिता मिश्रा के अनुसार, ‘हालांकि बंद कमरे में बातचीत आपको अपनी विफलता स्वीकार करने में मदद करती है, लेकिन वे पूरे तंत्र के भीतर बड़े बदलाव नहीं लाती हैं। सीखने के लिए, क्या कारगर रहा और क्या नहीं, इसका विश्लेषण प्रभावी ढंग से किया जाना चाहिए और इसे सार्वजनिक रूप से साझा भी किया जाना चाहिए।’ श्रुति उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि ‘यह महत्वपूर्ण है कि इन जगहों पर ग़ैर-निर्णयात्मक दृष्टिकोण के आधार पर बातों को सुना जाए और आपको अपनी गलती बताने वाले लोगों की संख्या कम से कम हो। इसके बदले, मैं इसे सुनने और दूसरे लोगों, खासकर स्थापित लीडर्स की विफलताओं से सीखने के अवसर के रूप में देखती हूं।’

एक्यूमेन अकादमी फ़ेलोशिप भी पिछले कुछ वर्षों से अपने लीडर्स के समूह के साथ ऐसा कर रही है। हर साल, वे विश्वास और समुदायिकता का माहौल बनाने के लिए एक नए समूह के साथ काम करते हैं, ताकि उनके साथी खुलकर अपनी चुनौतियों या असफल नीतियों और नज़रियों को साझा कर सकें। अब्बास कहते हैं कि ‘हम इस कार्यक्रम में भाग लेने वाले लोगों की मदद करते हैं ताकि वे उन मान्यताओं को समझ सकें जो अब उनके काम नहीं आ रही हैं, [वे] धारणाएं और व्यवहार जो उन्हें पीछे खींच रहे हैं। इसके अलावा हम असफलताओं के बाद उन्हें फिर से नई शुरुआत करने में उनकी मदद करते हैं।’

अंत में, संगठन के भीतर भी, यह नेतृत्व की ही जिम्मेदारी होती है कि वह सीखने और चिंतन की संस्कृति को बढ़ावा दे ताकि गलतियों की पहचान की जा सके और उन्हें तुरंत ठीक किया जा सके।

3. इसे एक सामूहिक प्रयास के रूप में किए जाने की जरूरत है, और इसमें फंडर की भूमिका बहुत बड़ी होती है

हुडा का मानना है कि ‘जब एक फंडर खुलेपन, लचक और पारदर्शिता की संस्कृति लेकर आता है, तो इससे समाजसेवी संस्थाओं को न केवल अपनी सीख साझा करने में सुविधा होती है बल्कि उन प्रतिक्रियाओं को समझने और उसके आधार पर प्रक्रिया निर्माण के बाद उसे काम में लेने में भी मदद मिलती है।’

रचिता इसमें अपनी बात जोड़ते हुए कहती हैं कि विफलता पर बातचीत शुरू करने की ज़िम्मेदारी फंडर और समाजसेवी संस्था दोनों की है। ‘संस्था प्रमुखों को यह भी सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि उनके पास विभिन्न प्रकार के फंडर हों, और साथ ही उन्हें यह सुनिश्चित करने की दिशा में भी कदम उठाना होगा कि संगठन की संस्कृति किसी एक प्रकार के फंडर द्वारा परिभाषित न हो। विफलता पर बातचीत की शुरुआत दोनों पक्षों द्वारा समान रूप से की जानी चाहिए; एकतरफा बातचीत टिकाऊ नहीं होती है।’

अंत में, विफलताओं को स्वीकार करना और खुले तौर पर चर्चा करना किसी एक इकाई का एकमात्र काम नहीं हो सकता है। इसे एक सामूहिक प्रयास का रूप देने की जरूरत है, ताकि इससे मिलने वाले ज्ञान का लाभ इस तंत्र के विभिन्न सहभागियों तक पहुंच सके, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से उन समुदायों को जिनकी सेवा के लिए ये मौजूद हैं।

यह लेख मूल रूप से अलायंस मैगजीन में प्रकाशित हुआ है।

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लेखक के बारे में
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तनाया जगतियानी

तनाया जगतियानी आईडीआर में एक संपादकीय सहयोगी हैं, जहां वह लेखन, संपादन, क्यूरेटिंग और प्रकाशन सामग्री के अलावा, फैल्यर फ़ाइल्स का प्रबंधन करती हैं। वह वेबसाइट प्रबंधन, इंटर्न की भर्ती और सलाह, और बाहरी संचार परामर्श कार्य पर भी टीम का समर्थन करती है। इससे पहले, उन्होंने कोरम बीनस्टॉक, संहिता सोशल वेंचर्स और एक्शनएड इंडिया में इंटर्नशिप किया है। तनाया ने एसओएएस, लंदन विश्वविद्यालय, से वैश्वीकरण और विकास में एमएससी और सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई, से समाजशास्त्र में बीए किया है।

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रचिता वोरा

रचिता वोरा आईडीआर की सह-संस्थापक और निदेशक हैं। इससे पहले, उन्होंने 250 करोड़ रुपये के बहु-हितधारक मंच, दसरा गर्ल एलायंस का नेतृत्व किया, जिसने भारत में मातृ, किशोर और बाल स्वास्थ्य परिणामों में सुधार करने की मांग की। उनके पास वित्तीय समावेशन, सार्वजनिक स्वास्थ्य और सीएसआर के क्षेत्रों में टीमों का नेतृत्व करने और रणनीति, व्यवसाय विकास और संचार में कार्य करने का एक दशक से अधिक का अनुभव है। रचिता ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के जज बिजनेस स्कूल से एमबीए और येल यूनिवर्सिटी से इतिहास में बीए किया है।

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